विश्व इतिहास का महान् सम्राट
अशोक न केवल भारतीय इतिहास, बल्कि विश्व इतिहास के महानतम शासकों में से एक है। एक विजिगीषु शासक, महान् विजेता, साम्राज्य-निर्माता, धर्म-परायण, धर्म-सहिष्णु, दयालु, उदार, लोकहित-चिंतक और मानवता के अनन्य पोषक के रूप में सुप्रसिद्ध अशोक अपने उन्नत धार्मिक विचारों, उच्च आदर्शों, आध्यात्मिक चिंतन, त्याग, सुव्यवस्थित प्रशासन, प्रजा के इहलौकिक और पारलौकिक सुख की हार्दिक कामना, तथा संपूर्ण विश्व के प्राणियों के हित-साधन की विराट् चेष्टा के कारण न केवल भारत, बल्कि विश्व के महान् सम्राटों में अद्वितीय है। नामतः ‘देवानांप्रिय’, किंतु व्यवहारतः ‘प्रियदर्शी’ अशोक का चाहे जिस दृष्टि से मूल्यांकन किया जाए, वह सर्वथा योग्य सिद्ध होता है। उसकी महानता उसके साम्राज्य की विशालता, उसकी सेना की अजेयता, साम्राज्य की धन-संपन्नता या विपुल वैभव पर अवलंबित नहीं है, अपितु उसका स्वच्छ और निर्मल चरित्र, महान् नैतिक आदर्श, अटल धर्मनिष्ठा, कर्तव्य-परायणता और महान् उदारता उसकी अमिट कीर्ति के प्रकाशमान आधार हैं। उनमें चंद्रगुप्त मौर्य जैसी शक्ति, समुद्रगुप्त जैसी बहुमुखी प्रतिभा और अकबर जैसी सहिष्णुता थी।
अशोक के शासनकाल में भारतवर्ष ने अभूतपूर्व राजनीतिक एकता और स्थायित्व का साक्षात्कार किया। उसने तक्षशिला के विद्रोहों का दमन कर और कलिंग जैसे शक्तिशाली राज्य को विजित कर अपनी सैनिक निपुणता का परिचय दिया। आदर्श प्रजापालक सम्राट के रूप में उसने प्रशासन के क्षेत्र में सुधार कर पितृवत् राजत्व की अवधारणा को साकार किया। अपने छठे शिलालेख में वह अपने राजत्व-संबंधी विचारों को व्यक्त करते हुए कहता है, “सर्वलोकहित मेरा कर्तव्य है। सर्वलोकहित से बढ़कर कोई दूसरा कर्म नहीं है। मैं जो कुछ पराक्रम करता हूँ, वह इसलिए कि प्राणियों के ऋण से मुक्त हो जाऊँ।” अशोक ने संपूर्ण साम्राज्य में एक भाषा, एक लिपि और एकसमान नियम-कानून लागू कर राष्ट्रीय एकता की समस्या का कुशलतापूर्वक समाधान किया। न्याय-प्रशासन के क्षेत्र में ‘दंड-समता’ और ‘व्यवहार-समता’ की स्थापना निश्चित रूप से अशोक का क्रांतिकारी कार्य था।
अशोक की ख्याति महान् विजेता के रूप में उतनी नहीं है, जितनी धर्मविजेता के रूप में। उसने कलिंग युद्ध के पश्चात् युद्ध का विचार त्याग दिया और भेरीघोष के स्थान पर ‘धर्मघोष’ का जयनाद कर धर्म के क्षेत्र में विजय-ध्वज फहराने का संकल्प लिया। ‘धर्मविजय’ कोई सरल कार्य नहीं था, क्योंकि यह विजय बाहुबल की नहीं, आत्मबल और प्रेमबल की थी। यह विजय राज्य या भूखंड पर नहीं, प्राणिमात्र के मस्तिष्क और भावना पर थी। यह अशांति की नहीं, शांति की विजय थी। सत्य, सत्कर्म, सद्भावना और सद्व्यवहार की उसकी धर्मविजयी चतुरंगिणी सेना ने विभिन्न दिशाओं में जाकर न केवल भारतीयों, बल्कि विदेशियों को भी नतमस्तक कर दिया। उसने धम्म-महामात्रों, राजुकों और प्रादेशिकों की नियुक्ति कर धर्म का ध्वज अनेक देशों में फहराया और धम्म-विजय प्राप्त की। यह आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विजय स्थायी सिद्ध हुई। ऐसे महान् आदर्शवादी सम्राट विश्व इतिहास में विरले ही मिलते हैं।
कुछ विद्वानों ने अशोक की धार्मिक और शांतिवादी नीति की यह कहकर आलोचना की है कि इसने मगध साम्राज्य की सैनिक शक्ति को कुंठित कर दिया, जिससे अंततः उसका पतन हो गया। किंतु इसका कोई प्रमाण नहीं है कि अशोक की धार्मिकता और शांतिवादिता की नीति से मगध की सामरिक कुशलता का किसी भी प्रकार से ह्रास हुआ। उसने शांतिवादी नीति का अनुसरण इसलिए किया, क्योंकि उसके संपूर्ण साम्राज्य में पूर्णरूपेण शांति और समरसता का वातावरण व्याप्त था और उसकी बाह्य सीमाएँ भी पूर्णतः सुरक्षित थीं। सीमांत और जंगली जातियों को वह जिस प्रकार कठोर शब्दों में चेतावनी देता है, उससे स्वतः सिद्ध होता है कि साम्राज्य में किसी भी प्रकार की सैनिक शिथिलता नहीं आई थी।
विश्व में अनेक विजेता शासक हुए हैं, जिनकी कृतियों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। इनमें सिकंदर, सीज़र और नेपोलियन के नाम अग्रगण्य हैं। यह सही है कि ये तीनों योद्धा और प्रशासक के रूप में कुशल थे, किंतु किसी सम्राट की महानता का मापदंड केवल युद्ध और साम्राज्य-विस्तार नहीं है; वह मानवता के प्रति अपने दृष्टिकोण और उसके लिए किए गए कार्यों के कारण महान् बनता है। ये तीनों विजेता क्रूर, निर्दयी और रक्त-पिपासु थे। उनके द्वारा स्थापित साम्राज्य उनके साथ ही छिन्न-भिन्न हो गए, और मानवजाति के लिए उनकी कोई स्थायी देन नहीं है।
इतिहासकार एच.जी. वेल्स सिकंदर के संबंध में लिखते हैं : “ज्यों-ज्यों उसकी शक्ति बढ़ी, त्यों-त्यों उसकी मदांधता और प्रचंडता भी बढ़ती गई। वह खूब शराब पीता था और निर्दयतापूर्वक हत्याएँ करता था। तैंतीस वर्ष की आयु में ही वह चल बसा। लगभग तुरंत ही उसका साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होने लगा।” इसी प्रकार सीज़र अत्यंत लंपट और उच्छृंखल व्यक्ति था। जब वह अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर था और विश्व का भला कर सकता था, तब वह लगभग एक वर्ष तक मिस्र में क्लियोपेट्रा के साथ रंगरेलियाँ मनाता रहा, यद्यपि उसकी आयु चौवन वर्ष थी। इससे वह निम्नकोटि का विषयासक्त दिखाई देता है, न कि श्रेष्ठ शासक। जहाँ तक नेपोलियन का प्रश्न है, वेल्स सही कहते हैं कि यदि उसमें तनिक भी दृष्टि की गंभीरता, सृजनात्मक कल्पना-शक्ति और निःस्वार्थ आकांक्षा होती, तो उसने मानवजाति के लिए ऐसा कार्य किया होता, जो इतिहास में उसे सूर्य बना देता। उसने अपने देश का चाहे जितना भला किया हो, मानव-कल्याण के प्रति उसके कार्य प्रायः शून्य हैं। अशोक के व्यक्तित्व में इन विजेता शासकों के कोई भी दुर्गुण नहीं मिलते। यह अशोक ही है, जिसके लोकोपकारी कृतियों और उदात्त आदर्शों के प्रति आज भी विश्व में सम्मान है। निःसंदेह अशोक अपनी प्रजा के भौतिक और आत्मिक कल्याण के लिए किए गए लोकहितकारी कार्यों के कारण विश्वव्यापी और शाश्वत यश का अधिकारी है।
विभिन्न विद्वानों ने अशोक की तुलना विश्व इतिहास की विभिन्न विभूतियों, जैसे कॉन्स्टेंटाइन, मार्क्स ऑरेलियस, अकबर, सेंट पॉल, नेपोलियन और सीज़र के साथ की है, किंतु इनमें से कोई भी अशोक की बहुमुखी प्रतिभा की बराबरी नहीं कर सकता। रिज डेविड्स अशोक की तुलना कॉन्स्टेंटाइन से करते हैं। अशोक और रोमन सम्राट कॉन्स्टेंटाइन में केवल यही समानता है कि अशोक ने जिस प्रकार बौद्ध धर्म को ग्रहण कर उसका प्रचार-प्रसार किया, उसी प्रकार कॉन्स्टेंटाइन ने ईसाई धर्म को ग्रहण कर उसका प्रचार-प्रसार करवाया। किंतु कॉन्स्टेंटाइन के उदय से पूर्व ही ईसाई धर्म रोम में काफी लोकप्रिय हो चुका था और उसे अपनाना कॉन्स्टेंटाइन की विवशता बन गई थी। उसने राजनैतिक कारणों से प्रेरित होकर इस धर्म को संरक्षण और प्रोत्साहन दिया, जबकि अशोक के धर्म के पीछे कोई राजनैतिक चाल नहीं थी। अशोक की सहिष्णुता सच्चे हृदय की प्रेरणा थी। कॉन्स्टेंटाइन अपने जीवन के अंतिम दिनों में प्रतिक्रियावादी होकर पेगनवाद की ओर उन्मुख हुआ और उसका धर्म एक विचित्र खिचड़ी बन गया। इसके विपरीत, अशोक में कोई ऐसी गिरावट नहीं दिखाई देती।
इसी प्रकार मैकफैल अशोक की तुलना रोमन सम्राट मार्क्स ऑरेलियस से करते हैं। इसमें संदेह नहीं कि मार्क्स ऑरेलियस एक महान् दार्शनिक था, किंतु जैसा कि भंडारकर लिखते हैं : आदर्श की उदात्तता और अविचलित उत्साह की दृष्टि से अशोक रोमन सम्राट से कहीं ऊपर था। मार्क्स ऑरेलियस ईसाई धर्म के प्रचार को रोमन समृद्धि के लिए घातक मानता था और इस कारण उसने ईसाइयों पर व्यवस्थित ढंग से अत्याचार किए। दूसरी ओर अशोक में धार्मिक कट्टरता या असहिष्णुता का पूर्ण अभाव था। ऐसी स्थिति में अशोक का स्थान मार्क्स ऑरेलियस से कहीं ऊँचा है।
अनेक इतिहासकार अशोक की तुलना मुगल सम्राट अकबर से करते हैं। निःसंदेह अकबर में सहिष्णुता थी और वह सच्चे हृदय से अपनी प्रजा का कल्याण करना चाहता था। विभिन्न धर्मों और संप्रदायों की अच्छी बातों को ग्रहण कर उसने सामान्य जनता के कल्याण के लिए दीन-ए-इलाही नामक नया धर्म चलाया। किंतु जैसा कि भंडारकर ने स्पष्ट किया है, अकबर सबसे पहले एक राजनैतिक और सांसारिक व्यक्ति था। धार्मिक सत्य के लिए वह अपनी बादशाहत को संकट में डालने को तैयार नहीं था। उसने मुस्लिम प्रजा के विरोध से बचने के लिए धार्मिक वाद-विवाद बंद करवा दिए। वह सबके प्रति सहिष्णु भी नहीं था। अकबर में अशोक जैसा धार्मिक उत्साह भी नहीं था। इसी कारण उसका धर्म राजदरबार के बाहर नहीं फैल सका और उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गया। दूसरी ओर, अशोक में कहीं भी असहिष्णुता नहीं दिखाई देती। उसका धर्म विश्वधर्म बन गया। नीलकंठ शास्त्री लिखते हैं कि अशोक को अकबर की अपेक्षा मानव प्रकृति का बेहतर ज्ञान था। इस प्रकार अशोक अकबर की अपेक्षा कहीं अधिक महान् था।
मैकफैल ने अशोक के संदर्भ में सेंट पॉल का नाम लिया है। जिस प्रकार बौद्ध धर्म के इतिहास में अशोक महान् व्यक्ति है, उसी प्रकार ईसाई धर्म के इतिहास में सेंट पॉल महान् हैं। दोनों ने अपने-अपने धर्मों को जन-सामान्य के लिए कल्याणकारी बनाया। किंतु इसके अतिरिक्त दोनों में कोई समानता नहीं है।
इसी प्रकार अशोक की तुलना एल्फ्रेड, शार्लमेन, उमर खलीफा आदि शासकों से की जाती है, किंतु इनमें से कोई भी अशोक जैसी बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न नहीं था। इतिहासकार एच.जी. वेल्स अशोक के व्यक्तित्व और चरित्र का मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं : “इतिहास के पन्नों को भरने वाले राजाओं, सम्राटों, धर्माधिकारियों, संतों और महात्माओं के मध्य अशोक का नाम प्रकाशमान है और वह आकाश में प्रायः एकाकी नक्षत्र की भाँति देदीप्यमान है।” वोल्गा से जापान तक आज भी उसके नाम का सम्मान किया जाता है। इसी प्रकार चार्ल्स इलियट ने लिखा है कि पवित्र सम्राटों की दीर्घा में वह अकेला खड़ा है, शायद एक ऐसे व्यक्ति के समान, जिसका अनुराग दयावान और सुखद जीवन के लिए था। वह न तो महान् आकांक्षाओं में लीन था, न ही अपनी आत्मा में लवलीन था; वह मानव और पशु का एक हितैषी मात्र था।
आर.सी. दत्त अशोक को भारत का महानतम सम्राट बताते हुए लिखते हैं कि भारत के किसी सम्राट ने, यहाँ तक कि विक्रमादित्य ने भी इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं की और न ही किसी ने धार्मिकता और सदाचार के प्रति अपने उत्साह के कारण विश्व इतिहास पर इतना प्रभाव डाला, जितना मौर्य सम्राट अशोक ने।
इस प्रकार विश्व इतिहास में अशोक का स्थान सर्वथा अद्वितीय है। सही अर्थों में वह प्रथम राष्ट्रीय शासक था। आज, जब विश्व के देश हथियारों की होड़ रोकने और युद्ध की विभीषिका को टालने के लिए सतत् प्रयासरत होकर भी सफल नहीं हो पा रहे हैं और मानवता के लिए परमाणु युद्ध का गंभीर संकट बना हुआ है, तब अशोक के कार्यों की महत्ता और प्रासंगिकता स्वयं स्पष्ट हो जाती है। अशोक के उदात्त आदर्श विश्व-शांति की स्थापना के लिए आज भी मार्गदर्शन करते हैं। स्वतंत्र भारत की सरकार ने सारनाथ-स्तंभ के सिंह-शीर्ष को राजकीय चिन्ह के रूप में स्वीकार कर इस महान् शासक के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है।










