भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रीय आंदोलन की पहली संगठित अभिव्यक्ति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के रूप में हुई, जिसकी नींव एलन आक्टेवियन ह्यूम ने डाली, जिन्हें ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जनक’ भी कहते हैं। किंतु दिसंबर 1885 में ह्यूम द्वारा कांग्रेस की स्थापना कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी। दरअसल, 1860 और 1870 के दशकों से ही शिक्षित भारतीयों में राजनीतिक चेतना पनपने लगी थी। कांग्रेस की स्थापना इसी बढ़ती राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक थी। 1866 में जब लंदन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन बनी थी, तो आशा की गई थी कि वह मुंबई और कलकत्ता में अपनी शाखाएँ खोलेगी। 1877 में ‘पूना सार्वजनिक सभा’ ने भी मुंबई और कलकत्ता के प्रतिनिधियों को मिल-जुलकर कार्य करने के लिए प्रेरित किया था। कलकत्ता और मुंबई में अधिक समन्वय स्थापित करने के लिए 1883 में के.टी. तेलंग ने कलकत्ता की यात्रा भी की थी। तीनों प्रेसीडेंसी नगरों (मुंबई, मद्रास और कलकत्ता) के विभिन्न स्थानीय संगठन, जैसे ‘कलकत्ता इंडियन एसोसिएशन’, ‘ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन’, ‘राष्ट्रीय मुस्लिम एसोसिएशन’ और ‘इंडियन यूनियन’, एक राष्ट्रीय कान्फ्रेंस बुलाने का प्रयत्न कर रहे थे।
किंतु पहले ‘राष्ट्रीय सम्मेलन’ को संगठित करने का विशेष श्रेय मिला कलकत्ता इंडियन एसोसिएशन और इसके नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी को। कलकत्ता इंडियन एसोसिएशन ने 29-30 दिसंबर 1883 को कलकत्ता में प्रथम भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन (इंडियन नेशनल कान्फ्रेंस) का आयोजन किया। यह राष्ट्रीय सम्मेलन कलकत्ता के अल्बर्ट हॉल में प्रसिद्ध शिक्षाविद् रामतनु लाहिड़ी की अध्यक्षता में प्रारंभ हुआ, जिसमें भारत के बड़े-बड़े नगरों से लगभग 100 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। सम्मेलन के प्रस्तावों में सिविल सर्विस की परीक्षा भारत में भी प्रारंभ करने, इसके प्रतियोगियों की अधिकतम आयु सीमा 22 वर्ष करने, भारत में प्रतिनिधि विधानसभाओं की स्थापना, तथा आर्म्स ऐक्ट को निरस्त करने की माँग रखी गई। सम्मेलन ने इल्बर्ट विधेयक पर हुए समझौते पर खेद प्रकट करने के साथ-साथ ‘राष्ट्रीय कोष’ के संग्रह की आवश्यकता पर भी जोर दिया। एक अखिल भारतीय राष्ट्रीय संगठन की स्थापना का यह पहला प्रयास था।
सुरेंद्रनाथ बनर्जी
1885 तक आते-आते भारतीय राजनीति में सक्रिय बुद्धिजीवी राष्ट्रीय हितों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष करने के लिए एक अखिल भारतीय संगठन की स्थापना करने के लिए छटपटाने लगे थे। प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने समस्त भारत का दौरा प्रारंभ किया, जिसके परिणामस्वरूप कलकत्ता के तीन प्रमुख संगठनों—कलकत्ता इंडियन एसोसिएशन, ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन और नेशनल मोहम्मडन एसोसिएशन—ने संयुक्त रूप से 25, 26 एवं 27 दिसंबर 1885 को दूसरा राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। इसमें बंगाल, मुंबई, बिहार, असम, इलाहाबाद, बनारस, तथा मेरठ से आए लगभग 900 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। आगंतुक प्रमुख एवं विशिष्ट प्रतिनिधियों में राव साहब विश्वनाथ मांडलिक, महाराजा दरभंगा, नेपाल के राजदूत एच.के.एस. कारन, आई.सी.एस. अमीरअली, सर गुरुदास बनर्जी के अतिरिक्त कालीमोहन दास, महेंद्रचंद्र चौधरी, प्यारी मोहन मुकर्जी, डॉ. त्रैलोक्यनाथ मित्र, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, कालीचरण बनर्जी आदि प्रमुख व्यक्ति भी थे। इंडियन एसोसिएशन के आनंदमोहन बोस इस समय असम की राजनीतिक यात्रा पर थे।
कांग्रेस की स्थापना
ए.ओ. ह्यूम ने राष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रमुख शिक्षित नेताओं के बीच अपने व्यापक संपर्कों को जोड़ने के लिए 1884 के अंत में एक भारतीय राष्ट्रीय संघ (इंडियन नेशनल यूनियन) की स्थापना की थी। मार्च 1885 में यूनियन ने यह निर्णय लिया कि क्रिसमस के अवसर पर पूना में इस मंच की ओर से बंगाल, मुंबई तथा मद्रास प्रांत के अंग्रेजीभाषी प्रमुख नेताओं का सम्मेलन आयोजित किया जाएगा। किंतु पूना में हैजा फैल जाने के कारण यह सम्मेलन मुंबई में आयोजित किया गया।
ए.ओ. ह्यूम
जिस दिन कलकत्ता में द्वितीय राष्ट्रीय सम्मेलन समाप्त हो रहा था, उसी दिन मुंबई में आयोजित होने वाले ह्यूम के ‘भारतीय राष्ट्रीय संघ’ (इंडियन नेशनल यूनियन) के सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारत के विभिन्न प्रांतों से इसके प्रतिनिधि गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में एकत्रित हो रहे थे। अगले दिन 28 दिसंबर 1885 को यूनियन के मुंबई सम्मेलन में दादाभाई नौरोजी के सुझाव पर ‘भारतीय राष्ट्रीय संघ’ (इंडियन नेशनल यूनियन) का नाम बदलकर ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ (इंडियन नेशनल कांग्रेस) कर दिया गया। अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रवाद की यह पहली सुनियोजित अभिव्यक्ति थी। चूंकि इस अखिल भारतीय रूप की संस्था को एक निश्चित और प्रत्यक्ष रूप प्रदान करने में ए.ओ. ह्यूम की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी, इसलिए उन्हें कांग्रेस का जन्मदाता मान लिया जाता है। दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन में व्यस्त होने के कारण सुरेंद्रनाथ बनर्जी और आनंदमोहन बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इस स्थापना सत्र में शामिल नहीं हो सके थे।
कांग्रेस की स्थापना की ‘सुरक्षा-वाल्व’ संबंधी मिथक
कांग्रेस के पहले सत्र में ह्यूम की भागीदारी ने कांग्रेस की स्थापना के बारे में ‘सुरक्षा वाल्व’ के मिथक को जन्म दिया। इस मिथक के अनुसार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ह्यूम और उनके साथियों ने ब्रिटिश सरकार के इशारे पर भारतीयों में बढ़ते हुए असंतोष को रोकने तथा भारत में ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से की थी। इस मिथक को प्रायः हर तरह के इतिहासकार एक लंबे समय से स्वीकार करते रहे हैं, किंतु हाल के अनुसंधानों से इस मिथक का बुरी तरह खंडन हो चुका है।
दरअसल, सुरक्षा वाल्व-संबंधी मिथक का जन्म ह्यूम के विलियम वेडरबर्नकृत जीवनचरित से हुआ, जो 1913 में प्रकाशित हुआ। वेडरबर्न, एक और भूतपूर्व सिविल अधिकारी थे, जिन्होंने लिखा कि 1878 में ह्यूम ने खुफिया रिपोर्टों के सात संस्करण देखे और उनसे पता चला कि निचले वर्ग असंतोष से उबल रहे थे और ब्रिटिश सरकार को शक्ति के बल पर पलटने का षड्यंत्र चल रहा था। वे चिंतित हो उठे और लॉर्ड डफरिन से मिले। डफरिन का विचार था कि शिक्षित भारतवासियों का एक ऐसा राजनीतिक संगठन होना चाहिए, जिसके द्वारा सरकार जनता की वास्तविक भावनाएँ जान सके, ताकि जनता में पनपते ‘असंतोष की वाष्प’ को ‘सौम्य, सुरक्षित, शांतिपूर्ण और संवैधानिक निकास या सेफ्टी वाल्व’ उपलब्ध कराया जा सके। इस तरह कांग्रेस ब्रिटिश राज की उपज थी।
सेफ्टी वाल्व के इस सिद्धांत में आरंभिक राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने विश्वास किया और साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने इसका उपयोग कांग्रेस को बदनाम करने के लिए किया। इसी सिद्धांत के आधार पर मार्क्सवादी इतिहासकारों ने षड्यंत्र के सिद्धांत का विकास किया और आर.पी. दत्त जैसे इतिहासकारों ने कांग्रेस की स्थापना को ब्रिटिश सरकार की एक पूर्वनियोजित योजना का परिणाम बताया। लाला लाजपत राय ने 1916 में ‘यंग इंडिया’ अखबार में एक लेख में कांग्रेस को लॉर्ड डफरिन के दिमाग की उपज बताया था। लालाजी का विचार था कि यह संगठन इसलिए बना क्योंकि ह्यूम अंग्रेजी राज्य को छिन्न-भिन्न होने से बचाना चाहते थे। 1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने भी कांग्रेस को गैर-राष्ट्रवादी संगठन ठहराने के लिए ‘सुरक्षा वाल्व’ की इसी परिकल्पना का इस्तेमाल किया। गोलवलकर के अनुसार “ह्यूम, काटर्न और वेडरबर्न जैसे लोगों ने उस समय उबल रहे राष्ट्रवाद के खिलाफ ‘सुरक्षा वाल्व’ के तौर पर कांग्रेस की स्थापना की थी।” कुछ अन्य इतिहासकारों का मानना है कि कांग्रेस भारत में एक जन-विद्रोह रोकने के षड्यंत्र से पैदा हुई और इसमें भारत के पूँजीवादी नेता भी शामिल थे।
सुरक्षा वाल्व-संबंधी मिथक का खंडन
सेफ्टी वाल्व का यह सिद्धांत 1950 के दशक में गलत सिद्ध हो गया। पहली बात यह कि भारत या लंदन के किसी भी अभिलेखागार में खुफिया रिपोर्टों के ये सात संस्करण नहीं मिलते हैं। इतिहासकारों का तर्क है कि 1870 के दशक में ब्रिटिश सूचना व्यवस्था के ढाँचे को देखते हुए खुफिया रिपोर्टों के इतने सारे संस्करणों का अस्तित्व बिल्कुल असंभव रहा होगा। ह्यूम के वेडरबर्नकृत जीवन-चरित के अलावा ऐसी रिपोर्टों की उपस्थिति का कोई उल्लेख कहीं और नहीं पाया गया है, और वे स्वयं भी इस बात का उल्लेख करते हैं कि ह्यूम को ये रिपोर्ट धर्मगुरुओं ने दी थी और ये किसी आधिकारिक स्रोत से प्राप्त नहीं की गई थीं। 1950 के दशक के अंतिम वर्षों में लॉर्ड डफरिन के निजी कागजात के सामने आने के बाद यह भ्रांति दूर हो गई, क्योंकि इनसे यह कथा झूठी साबित होती है कि डफरिन ने कांग्रेस या ह्यूम को प्रायोजित किया था। वह मई 1885 में शिमला में ह्यूम से अवश्य मिला था, किंतु उसको गंभीरता से स्वीकार नहीं किया था, और फिर उसने मुंबई के गवर्नर को सुनिश्चित आदेश दिए थे कि उस नगर में जो प्रतिनिधि उनसे मिलने वाले थे, उनके बारे में सचेत रहे। प्रस्तावित बैठक के बारे में वह और मुंबई का गवर्नर लॉर्ड रे दोनों ही सशंकित थे और उसके विरुद्ध थे, क्योंकि वे समझते थे कि ये लोग भारत में आयरलैंड के होमरूल लीग आंदोलन जैसी कोई चीज आरंभ करना चाहते हैं।
कांग्रेस की स्थापना के कुछ ही समय बाद वायसराय डफरिन कांग्रेस के संदिग्ध उद्देश्यों के आधार पर उसकी खुलकर भर्त्सना करने लगे थे। उनकी आलोचना ही सेफ्टी वाल्व के सिद्धांत की धज्जी उड़ा देती है। इस प्रकार खुफिया रिपोर्ट के सात संस्करण की कहानी मनगढ़ंत है और संभवतः वेडरबर्न ह्यूम को एक ऐसे देशभक्त अंग्रेज के रूप में चित्रित करना चाहते थे, जो एक आसन्न संकट से ब्रिटिश राज को बचाना चाहता था। लेकिन अब समय आ गया है कि सेफ्टी वाल्व के सिद्धांत को उन महात्माओं को सौंप दिया जाए, जिनसे संभवतः उसका आरंभ हुआ था।










