ब्रिटिश शासन के दौरान (1757-1947) भारत में तकनीकी शिक्षा का विकास सीमित, लेकिन रणनीतिक महत्व का रहा है। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश राज का प्राथमिक उद्देश्य भारत में अपने प्रशासनिक और आर्थिक हितों को मजबूत करना था, जिसके लिए उन्हें इंजीनियरिंग, चिकित्सा और कृषि जैसे क्षेत्रों में प्रशिक्षित कर्मियों की आवश्यकता थी। तकनीकी शिक्षा का विकास मुख्य रूप से औपनिवेशिक जरूरतों, जैसे बुनियादी ढांचे (रेलवे, सड़क, नहरें), स्वास्थ्य सेवाओं और कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के लिए किया गया। यद्यपि इस दौरान कुछ महत्वपूर्ण संस्थानों की स्थापना हुई, तकनीकी शिक्षा का दायरा सीमित रहा और यह ज्यादातर ब्रिटिश अधिकारियों और उच्च वर्ग के भारतीयों तक ही पहुंची। भारतीय जनसामान्य, विशेषकर ग्रामीण और निम्न वर्ग तकनीकी शिक्षा से वंचित रहे।
प्रारंभिक काल में तकनीकी शिक्षा की स्थिति
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Toggleब्रिटिश शासन के प्रारंभिक दौर (1757-1813) में तकनीकी शिक्षा पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया, क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी का फोकस व्यापार और मुनाफे पर केंद्रित था। इस दौरान पारंपरिक भारतीय शिक्षा प्रणाली, जैसे गुरुकुल और मकतब प्रचलित थीं, जो धार्मिक और साहित्यिक विषयों पर आधारित थीं। तकनीकी शिक्षा, जैसे इंजीनियरिंग या चिकित्सा का कोई औपचारिक ढांचा नहीं था। ब्रिटिश प्रशासन को स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षित कर्मियों की आवश्यकता थी, जो नहरों, सड़कों और सैन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण में सहायता कर सकें। इस आवश्यकता ने 19वीं शताब्दी में तकनीकी शिक्षा की नींव रखी।
प्रमुख तकनीकी शिक्षा संस्थानों की स्थापना
ब्रिटिश काल में तकनीकी शिक्षा का विकास कुछ प्रमुख संस्थानों की स्थापना के साथ शुरू हुआ, जो मुख्य रूप से औपनिवेशिक प्रशासन की जरूरतों को पूरा करने के लिए थे। इन संस्थानों ने इंजीनियरिंग, चिकित्सा और कृषि जैसे क्षेत्रों में शिक्षा प्रदान की। निम्नलिखित प्रमुख संस्थानों की स्थापना इस काल की विशेषता थी:
रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज (1847)
1847 में उत्तर-पश्चिमी प्रांत (वर्तमान उत्तराखंड) में थॉमसन कॉलेज ऑफ सिविल इंजीनियरिंग की स्थापना हुई, जिसे बाद में रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज के नाम से जाना गया। यह एशिया का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज था और इसका उद्देश्य ब्रिटिश प्रशासन के लिए सिविल इंजीनियर तैयार करना था, जो गंगा नहर परियोजना जैसे बड़े बुनियादी ढांचा कार्यों में सहायता करें। कॉलेज में सिविल इंजीनियरिंग, सर्वेक्षण और निर्माण तकनीकों पर पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते थे। शुरुआत में यह कॉलेज मुख्य रूप से यूरोपीय और यूरेशियाई छात्रों के लिए खुला था और भारतीयों की पहुँच सीमित थी। 1854 के वुड्स डिस्पैच के बाद इस कॉलेज को और मजबूत किया गया और यह औपनिवेशिक भारत में तकनीकी शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र बना।
कलकत्ता कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (1856)
1856 में कलकत्ता कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग की स्थापना हुई, जो ब्रिटिश भारत में सिविल इंजीनियरिंग के लिए एक और महत्वपूर्ण संस्थान था। यह कॉलेज रेलवे, सड़क और अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए इंजीनियरों को प्रशिक्षित करने के लिए बनाया गया था। इसने सिविल इंजीनियरिंग के साथ-साथ मैकेनिकल और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के प्रारंभिक पाठ्यक्रम भी शुरू किए। कॉलेज ने ब्रिटिश और भारतीय छात्रों दोनों को शिक्षा प्रदान की, लेकिन भारतीयों के लिए प्रवेश मानदंड कठिन थे।
पूना कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (1858)
1854 में स्थापित पूना ओवरसीर्स स्कूल को 1858 में पूना कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग का दर्जा दिया गया और इसे बॉम्बे विश्वविद्यालय से संबद्ध किया गया। यह संस्थान सिविल इंजीनियरिंग और सर्वेक्षण में प्रशिक्षण प्रदान करता था, जो ब्रिटिश प्रशासन के लिए स्थानीय स्तर पर तकनीकी कर्मियों की आवश्यकता को पूरा करता था। इस कॉलेज ने पश्चिमी भारत में तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कलकत्ता मेडिकल कॉलेज (1835)
चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में 1835 में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज की स्थापना एक ऐतिहासिक कदम था। यह भारत में पश्चिमी चिकित्सा शिक्षा का पहला संस्थान था, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश सेना और नागरिक प्रशासन के लिए चिकित्सकों को तैयार करना था। कॉलेज में एनाटॉमी, सर्जरी, फार्माकोलॉजी और पश्चिमी चिकित्सा पद्धतियों पर पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते थे। इसने आयुर्वेद और यूनानी जैसी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को दरकिनार कर पश्चिमी चिकित्सा को प्राथमिकता दी। भारतीय छात्रों को प्रवेश मिला, लेकिन उनकी संख्या सीमित थी और शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने से भाषाई बाधाएँ थीं। बाद में, मद्रास और बॉम्बे में भी मेडिकल कॉलेज स्थापित किए गए।
पूसा कृषि कॉलेज (1905)
लॉर्ड कर्जन के शासनकाल में कृषि शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए 1905 में बिहार के पूसा में कृषि अनुसंधान और शिक्षा संस्थान की स्थापना की गई। इस संस्थान का उद्देश्य आधुनिक कृषि तकनीकों, जैसे उन्नत बीज और खेती के तरीकों को बढ़ावा देना था। यह कॉलेज ब्रिटिश भारत में कृषि उत्पादकता बढ़ाने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण था। पूसा मॉडल को अन्य प्रांतों में भी लागू करने का प्रयास किया गया, जैसे पंजाब में लायलपुर (वर्तमान फैसलाबाद, पाकिस्तान) में कृषि कॉलेज।
गिंडी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, मद्रास
मद्रास प्रेसीडेंसी में गिंडी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग को मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध किया गया, जो सिविल और मैकेनिकल इंजीनियरिंग में प्रशिक्षण प्रदान करता था। इसने दक्षिण भारत में तकनीकी शिक्षा के प्रसार में योगदान दिया।
लॉर्ड कर्जन का योगदान
लॉर्ड कर्जन (1899-1905) के वायसराय काल में तकनीकी शिक्षा को विशेष प्रोत्साहन मिला। कर्जन ने तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा को औपनिवेशिक भारत की आर्थिक और प्रशासनिक जरूरतों के लिए महत्वपूर्ण माना। उनके प्रमुख योगदान निम्नलिखित थे:
कृषि शिक्षा का विस्तार: पूसा में कृषि कॉलेज की स्थापना के साथ-साथ कर्जन ने अन्य प्रांतों में कृषि अनुसंधान और प्रशिक्षण केंद्रों को प्रोत्साहित किया। इन केंद्रों ने आधुनिक खेती, सिंचाई और मृदा प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित किया।
पशु चिकित्सा विज्ञान: पशु चिकित्सा शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए संस्थानों की स्थापना की गई, जो पशुपालन और डेयरी उद्योग के लिए महत्वपूर्ण थे।
इंजीनियरिंग और तकनीकी प्रशिक्षण: रुड़की और कलकत्ता जैसे संस्थानों को मजबूत किया गया, और नए तकनीकी स्कूल खोले गए।
वैज्ञानिक अनुसंधान: कर्जन ने भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी, बैंगलोर) की स्थापना की नींव रखी, जो 1909 में टाटा के सहयोग से शुरू हुआ। यह भारत में वैज्ञानिक और तकनीकी अनुसंधान का पहला बड़ा केंद्र बना।
कर्जन की नीतियों ने तकनीकी शिक्षा को व्यवस्थित और विस्तारित किया, लेकिन उनका उद्देश्य मुख्य रूप से ब्रिटिश आर्थिक हितों को बढ़ावा देना था, जैसे रेलवे, नहरें और कृषि निर्यात।
तकनीकी शिक्षा की विशेषताएँ और सीमाएँ
विशेषताएँ
औपनिवेशिक हितों पर केंद्रित: तकनीकी शिक्षा का विकास ब्रिटिश प्रशासन की जरूरतों, जैसे रेलवे, नहरें, सड़कें और स्वास्थ्य सेवाओं, को पूरा करने के लिए था। रुड़की और कलकत्ता जैसे संस्थान इन परियोजनाओं के लिए कर्मी तैयार करते थे।
पश्चिमी मॉडल का अनुसरण: तकनीकी शिक्षा पश्चिमी मॉडल पर आधारित थी, जिसमें अंग्रेजी माध्यम और यूरोपीय पाठ्यक्रम शामिल थे। यह पारंपरिक भारतीय तकनीकी ज्ञान, जैसे आयुर्वेद या स्थानीय इंजीनियरिंग को दरकिनार करता था।
प्रमुख संस्थानों की स्थापना: रुड़की, कलकत्ता और पूना जैसे संस्थानों ने तकनीकी शिक्षा को औपचारिक ढांचा दिया, जो आधुनिक भारत के लिए नींव बना।
सीमित लेकिन गुणवत्तापूर्ण: हालांकि संस्थानों की संख्या कम थी, लेकिन इनका प्रशिक्षण स्तर उच्च था, जो ब्रिटिश मानकों पर आधारित था।
सीमाएँ
सीमित पहुँच: तकनीकी शिक्षा मुख्य रूप से यूरोपीय, यूरेशियाई और उच्च वर्ग के भारतीयों तक सीमित थी। निम्न वर्ग, ग्रामीण जनता और महिलाओं को लगभग पूरी तरह से बाहर रखा गया।
अंग्रेजी माध्यम की बाधा: शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने से भाषाई और सांस्कृतिक बाधाएँ उत्पन्न हुईं, जिसने भारतीयों की भागीदारी को सीमित किया।
पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा: आयुर्वेद, यूनानी और स्थानीय इंजीनियरिंग जैसे पारंपरिक ज्ञान को नजरअंदाज किया गया, जिससे भारतीय तकनीकी परंपराओं का क्षय हुआ।
सीमित संसाधन और विस्तार: तकनीकी शिक्षा के लिए धन और संसाधन अपर्याप्त थे। 1857 तक केवल तीन मेडिकल कॉलेज और एक प्रमुख इंजीनियरिंग कॉलेज था।
औपनिवेशिक प्राथमिकताएँ: तकनीकी शिक्षा का उद्देश्य भारतीयों का समग्र विकास नहीं, बल्कि ब्रिटिश प्रशासन की सहायता करना था। यह नीति भारतीय उद्योगों या स्वदेशी तकनीक को बढ़ावा नहीं देती थी।
ब्रिटिश नीतियों का प्रभाव
ब्रिटिश काल में तकनीकी शिक्षा ने भारत में आधुनिक बुनियादी ढांचे के विकास में योगदान दिया। रुड़की कॉलेज ने गंगा नहर और रेलवे जैसी परियोजनाओं के लिए इंजीनियर तैयार किए, जबकि मेडिकल कॉलेजों ने स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत किया। पूसा कृषि कॉलेज ने आधुनिक कृषि तकनीकों को बढ़ावा दिया, जिससे खाद्य उत्पादन में सुधार हुआ। हालांकि, तकनीकी शिक्षा का दायरा सीमित रहा, और यह भारतीय जनता के व्यापक विकास के बजाय औपनिवेशिक हितों को प्राथमिकता देता था। 1911 में भारत की साक्षरता दर केवल 6% थी, और तकनीकी शिक्षा तक पहुँच और भी कम थी।
इसके बावजूद, तकनीकी शिक्षा ने एक छोटे लेकिन महत्वपूर्ण शिक्षित वर्ग को जन्म दिया, जो स्वतंत्रता के बाद भारत के तकनीकी और औद्योगिक विकास का आधार बना। रुड़की और आईआईएससी जैसे संस्थान स्वतंत्र भारत में आईआईटी और अन्य तकनीकी संस्थानों की नींव बने। ब्रिटिश नीतियों ने भारतीयों में वैज्ञानिक और तकनीकी चेतना को जागृत किया, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन और आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान दिया।
ब्रिटिश काल में तकनीकी शिक्षा का विकास सीमित, लेकिन महत्वपूर्ण था। रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज (1847), कलकत्ता मेडिकल कॉलेज (1835), पूना कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (1858) और पूसा कृषि कॉलेज (1905) जैसे संस्थानों ने तकनीकी शिक्षा की नींव रखी। लॉर्ड कर्जन के प्रयासों ने इसे और विस्तार दिया, लेकिन शिक्षा का दायरा औपनिवेशिक हितों तक सीमित रहा। भारतीयों की पहुँच, विशेषकर निम्न वर्ग और महिलाओं की अत्यंत कम थी और पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा हुई। फिर भी, इन संस्थानों ने आधुनिक भारत के लिए तकनीकी आधार तैयार किया, जो स्वतंत्रता के बाद आईआईटी, आईआईएम और अन्य संस्थानों के रूप में विकसित हुआ। ब्रिटिश काल की तकनीकी शिक्षा ने औपनिवेशिक ढांचे में भारत को आधुनिकता की ओर ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन इसका समग्र प्रभाव सीमित और असमान रहा।