नंदिवर्मन द्वितीय का पुत्र दंतिवर्मन, जो राष्ट्रकूट राजकुमारी रेवा से उत्पन्न हुआ था, लगभग 796 ई. में पल्लव सिंहासन पर आसीन हुआ। उसने युद्ध और कूटनीति के माध्यम से अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास किया, कदंबों से मैत्री स्थापित की और उनकी राजकुमारी अग्गलनिम्मटि से विवाह किया। फिर भी, पांड्यों और राष्ट्रकूटों के आक्रमणों से उसका साम्राज्य कमजोर हुआ। पांड्य शासकों जटिल परांतक और श्रीमार श्रीवल्लभ ने दक्षिणी प्रदेशों पर कब्जा कर लिया, जबकि राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय ने काँची पर आक्रमण कर दंतिवर्मन को पराजित किया। फिर भी, दंतिवर्मन ने सांस्कृतिक क्षेत्र में योगदान दिया, जैसे त्रिप्लीकेन में पार्थसारथि मंदिर का पुनर्निर्माण और आलम्बाक्कम में कैलाश मंदिर का निर्माण। अपने शासनकाल में विपत्तियों के बावजूद, वह 51 वर्ष तक पल्लव गद्दी की रक्षा करने में सफल रहा।
दंतिवर्मन का शासनकाल पल्लव इतिहास में हृास का काल माना जाता है। उसके अभिलेख शासन के दूसरे वर्ष से लेकर 51वें वर्ष तक के मिले हैं, जिसके आधार पर माना जाता है कि उसने 51 वर्ष तक शासन किया। युद्ध और कूटनीति के माध्यम से उसने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का प्रयास किया और कदंबों से मैत्री स्थापित कर बनवासी के कदंब शासक पृथ्वीपति की पुत्री अग्गलनिम्मटि (अग्गलनिम्मति) से विवाह किया, जो इस समय राष्ट्रकूटों के सामंत थे। लेकिन अंततः उसे पांड्यों और राष्ट्रकूटों से पराजित होना पड़ा।
पांड्यों का आक्रमण
दंतिवर्मन के समय राष्ट्रकूट, चोल और पांड्य शक्तिशाली हो गए और उन्होंने पल्लव साम्राज्य के कई क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। दक्षिण में दंतिवर्मन को पांड्य शासक जटिल परांतक या वरगुण प्रथम (लगभग 765-815 ई.) और उसके पुत्र श्रीमार श्रीवल्लभ (लगभग 815-862 ई.) के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार पांड्यों ने दंतिवर्मन को पराजित कर पल्लव साम्राज्य के दक्षिणी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। त्रिचनापल्ली और तंजोर क्षेत्र अगले कई दशकों तक पांड्य साम्राज्य का अंग बने रहे।
दंतिवर्मन का उसके शासन के 16वें से 51वें वर्ष तक कावेरी घाटी से कोई अभिलेख नहीं मिलता, जबकि इसी अवधि में पांड्य शासक मारंजडैयन (जटिल परांतक) के कई अभिलेख प्राप्त हुए हैं। यही नहीं, पांड्य शासक मारसिंह के पुत्र को केरल और पल्लवों की संयुक्त सेना का विजेता बताया गया है।
राष्ट्रकूटों का आक्रमण
पल्लवों को दक्षिण में पांड्यों से पराजय का सामना करना पड़ा, वहीं उत्तर में राष्ट्रकूटों के आक्रमणों का। शुरुआत में राष्ट्रकूटों और पल्लवों के मैत्रीपूर्ण संबंध थे, लेकिन बाद में, पारस्परिक हितों और पड़ोसी शक्तियों, जैसे चालुक्यों और पांड्यों के विरूद्ध संतुलन बनाए रखने के लिए संबंध बिगड़ गए। ब्रिटिश म्यूजियम दानपत्र से संकेत मिलता है कि 804 ई. के आसपास या कुछ पहले राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय (793-814 ई.) ने पल्लव राज्य पर आक्रमण किया और दंतिवर्मन को पराजित कर उसकी राजधानी काँची तक पहुँच गया। यहीं श्रीलंका के दूतमंडल ने तत्कालीन शासक के समर्पण की सूचना दी थी।
अल्तेकर जैसे इतिहासकारों का अनुमान है कि गोविंद तृतीय को इस अभियान में पूर्ण सफलता नहीं मिली, इसलिए उसने 808 ई. में पुनः काँची पर आक्रमण किया और पल्लवों को पराजित किया। उसने दंतिवर्मन को सामंत के रूप में कार्य करने और वार्षिक कर देने के लिए बाध्य किया। उसके 810 ई. के मन्ने अभिलेख में दंतिवर्मन को समधिगतपंचमहाशब्द और महासामंताधिपति की उपाधियाँ दी गई हैं।
दंतिवर्मन के शासनकाल के 21वें से 49वें वर्ष तक का कोई अभिलेख नहीं मिलता। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि इस दौरान पल्लव राज्य पर किसी बाह्य शक्ति का अधिकार था। संभवतः एक तेलगु चोल शासक श्रीकंठ ने दंतिवर्मन को पराजित कर किसी अल्पवयस्क पल्लव राजकुमार को काँची की गद्दी पर अपने अधीनस्थ के रूप में प्रतिष्ठित किया। बाद में, दंतिवर्मन ने अपने पुत्र नंदिवर्मन तृतीय की सहायता से पल्लव सिंहासन पुनः प्राप्त किया। लेकिन इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है।
दंतिवर्मन अपने पूरे शासनकाल में विपत्तियों में उलझा रहा। दक्षिण में पांड्यों और उत्तर में राष्ट्रकूटों से वह अपनी रक्षा नहीं कर सका। फिर भी, वह 51 वर्ष तक पल्लव गद्दी की रक्षा करने में सफल रहा। कदंबों के अतिरिक्त, बाण नरेश विजयादित्य मावलिबाणरायर उसके सामंत थे, जिसकी पुष्टि उसके शासनकाल के 49वें वर्ष के गुडिमल्लम अभिलेख से होती है।
दंतिवर्मन की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
दंतिवर्मन एक योग्य और सतगुणी शासक थे। वैलूरपाल्यम अभिलेख में उसे तीनों लोकों का रक्षक, क्षमाशील, शौर्यवान, त्यागी और कृतज्ञ बताया गया है। इसके साथ ही दंतिवर्मन को विष्णु का अवतार भी माना गया है। उसने मद्रास के समीप त्रिप्लीकेन में पार्थसारथि मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था और इस मंदिर में उत्कीर्ण तमिल अभिलेख में उसे पल्लवकुलभूषण की उपाधि दी गई है। इसके अतिरिक्त, चिंगलेपुट जिले के आलम्बाक्कम में उसने कैलाश मंदिर का निर्माण करवाया था। उसके शासनकाल के चौथे वर्ष में तिरुवेल्लेरे में स्वस्तिक के आकार का एक कुआँ बनवाया गया। तिरुचिरापल्ली के मलयडिपट्टि में उसके सामंत मुत्तरैयर ने एक गुफा मंदिर बनवाया। दंतिवर्मन की मृत्यु 846 ई. के आसपास हुई।