पल्लव राजवंश दक्षिण भारत का एक प्रमुख व शक्तिशाली राजवंश था, जिसने लगभग तीसरी शताब्दी से 9वीं शताब्दी तक तमिलनाडु के काँची तथा आसपास के क्षेत्रों पर शासन किया। उनके लंबे शासनकाल में दक्षिण भारत ने राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में अद्भुत प्रगति का साक्षात्कार किया। उनकी प्रशासनिक व्यवस्था, जिसमें मंडलम, उर और नाडु जैसी स्थानीय इकाइयाँ थीं, ने कुशल शासन और व्यापार को प्रोत्साहित किया। प्रतिभाशाली पल्लव नरेशों ने प्रशासनिक और राजनीतिक दायित्वों के निवर्हन के साथ-साथ कला, साहित्य और संस्कृति को भी संरक्षण दिया। पल्लव मुख्य रूप से वैष्णव और शैव थे, उन्होंने भक्ति आंदोलन को प्रोत्साहन दिया और जैन-बौद्ध धर्मों के प्रति भी सहिष्णुता की नीति अपनाई। पल्लव शासकों की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि द्रविड़ शैली की वास्तुकला थी, जिसमें उनके द्वारा अपनाई गई राजसिंह, महेंद्र, मामल्ल और अपराजित शैलियों ने मंदिर निर्माण के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन किया। उनके संरक्षण में दक्षिण भारत में पहली बार बड़े पैमाने पर शैलकृत (रॉक-कट) मंदिर, एकाश्म रथ-शैली के मंदिर तथा बाद में विशालकाय संरचनात्मक मंदिर बनाए गए। पल्लवों की स्थापत्य शैली बाद में दक्षिण भारत के चोल, पांड्य और विजयनगर राजवंशों की मंदिर-शैलियों का आधार बनी।
पल्लवकालीन स्थापत्य और कला
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Toggleपल्लव वंश ने दक्षिण भारत में सांस्कृतिक और स्थापत्य क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया, जिसने द्रविड़ वास्तुकला की नींव रखी और दक्षिण-पूर्व एशिया तक भारतीय संस्कृति का प्रसार किया। इसकी शुरुआत महेंद्रवर्मन शैली (600-640 ई.) से हुई, जिसमें साधारण शैल-कट गुफा मंदिर, जैसे पल्लवरम और दलवनूर, निर्मित किए गए, जिनमें स्तंभयुक्त मंडप और कम अलंकरण देखा जाता है। इसके बाद मामल्ल शैली (640-700 ई.) में नरसिंहवर्मन प्रथम (मामल्ल) के संरक्षण में महाबलिपुरम में पंच रथ मंदिर (धर्मराज, भीम, अर्जुन, द्रौपदी, नकुल-सहदेव) और मंडप बने, जो एकाश्म शिलाओं से निर्मित और जटिल नक्काशी से अलंकृत हैं, जो यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त हैं। राजसिंह शैली (700-800 ई.) में नरसिंहवर्मन द्वितीय ने काँची के कैलासनाथ मंदिर और महाबलिपुरम के समुद्रतट मंदिर जैसे विशाल संरचनात्मक मंदिरों का निर्माण करवाया, जिनमें गोपुरम, पिरामिडाकार शिखर और सिंहमुख स्तंभ प्रमुख हैं। पल्लव मंदिरों में मंडप, विमान और प्राकार जैसे तत्वों ने द्रविड़ स्थापत्य को परिपक्वता प्रदान की, जो चोल और विजयनगर शैलियों का आधार बनी। पल्लवकालीन मूर्तिकला, जैसे महाबलिपुरम में गंगा अवतरण और अर्जुन तपस्या के शिलाचित्र, जीवंतता और भावनात्मकता के लिए प्रसिद्ध हैं। सित्तनवासल की जैन भित्तिचित्र और मंदिरों की नक्काशीदार मूर्तियाँ दक्षिण भारतीय कला को नई दिशा देती हैं। पल्लवों की स्थापत्य और कला ने न केवल दक्षिण भारत की सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध किया, बल्कि कंबोडिया, इंडोनेशिया और श्रीलंका जैसे दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्रों में भारतीय मंदिर शैली और मूर्तिकला का वैश्विक प्रसार किया ।
स्थापत्य कला
पल्लवों ने दक्षिण भारत में द्रविड़ वास्तुकला के विकास में अग्रणी भूमिका निभाई। इस काल में ईंट और लकड़ी से पत्थर के शैल-कट और स्वतंत्र प्रस्तर-निर्मित संरचनात्मक मंदिरों की ओर संक्रमण हुआ। मंदिर निर्माण की उनकी शैली ने दक्षिण-पूर्व एशिया की स्थापत्य शैलियों को प्रभावित किया। स्थापत्य के क्षेत्र में पल्लवों की उपलब्धियाँ मुख्यतः तीन रूपों में मिलती हैं-
- गुफा मंदिर (रॉक-कट)
- अखंड मंदिर (एकाश्म, जैसे पंचरथ)
- संरचनात्मक मंदिर (प्रस्तर खंड)
पल्लव स्थापत्य कला को चार प्रमुख शैलियों में बाँटा गया है-
महेंद्रवर्मन शैली (600-640 ई.)
पल्लव शासन की प्रारंभिक और विशिष्ट शैली गुफा-निर्माण मानी जाती है, जिसे अकसर गुफा मंडप शैली भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें मंदिरों को पर्वतीय चट्टानों को तराशकर स्तंभयुक्त कक्षों (मंडपों) के रूप में बनाया गया है।
मंदिरों को गुफा या मंडप के रूप में चट्टानों को काटकर बनाया गया है, जिसमें प्रत्येक मंडप एक विशाल स्तंभयुक्त कक्ष होता था। इनके निर्माण में शैलकृत विधि अपनाई जाती थी। अलंकरण (सजावट) कम और सीधी-सादी रचनाएँ अधिक पाई जाती थीं। मंडप अपेक्षाकृत संकीर्ण और कम सुसज्जित थे, क्योंकि तोंडमंडलम क्षेत्र की चट्टानें कठोर थीं।

महेंद्रवर्मन शैली के गुफा मंडपों के आदर्श प्रारंभिक उदाहरण पल्लवरम एवं दलवनूर नामक स्थानों में उपलब्ध हैं। महेंद्रवर्मन शैली का विकसित रूप इंडवल्ली का अनंतशायिन मंदिर है, जिसकी रचना बौद्ध विहारों पर आधारित है। इसमें चार मंजिलनुमा स्तंभयुक्त कक्ष हैं, जिन्हें देखने पर पिरामिड जैसा लगता है। भैरवकोंडा मंदिर समूह इस शैली का अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत और अंतिम उदाहरण है।
चट्टानों की कठोरता के कारण गुफाएँ कम आडंबरपूर्ण और अलंकरणविहीन थीं। यह चालुक्यों की गुफा-शैली की तुलना में अधिक सरल और संकीर्ण हैं। प्रारंभिक गुफा-मंदिर निर्माण से ही यह शैली दक्षिण भारत के शैलकृत वास्तु विकास की आधारशिला बनी।
मामल्ल शैली (640-700 ई.)
मामल्ल शैली पल्लव शिल्पकला का उन्नत रूप है, जो नरसिंहवर्मन प्रथम (मामल्ल) के संरक्षण में विकसित हुई। इसका प्रमुख केंद्र मामल्लपुरम (महाबलिपुरम) था, जहाँ समुद्रतट की कठोर चट्टानों को काट-तराशकर भव्य शैलकृत मंदिर, गुफाएँ और मूर्तियाँ बनाई गईं। महाबलीपुरम (मामल्लपुरम) को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त है।
मामल्ल शैली महेंद्रवर्मन शैली की तुलना में अधिक विकसित और अलंकृत है। चट्टानों को काटकर बनाए गए मंदिर और मूर्तियाँ पूर्णतः एकाश्म (एक ही शिला से निर्मित) हैं। इस शैली के अंतर्गत मंदिरों के निर्माण दो प्रकार से किए गए हैं- मंडप और रथ।
मंडप मंदिर
मामल्ल शैली के मंडप मंदिर पहाड़ों और चट्टानों को काटकर बनाए गए हैं, जो महेंद्रवर्मन के मंडपों से अधिक अलंकृत और वैभवपूर्ण हैं। इन मंडपों की विशेषता इनके सिंहमुखीय आधार वाले नक्कशीदार स्तंभ और शीर्ष पर मंगलघट के आकार हैं।
इस शैली के प्रमुख उदाहरण हैं- वाराह मंडप, जिसमें पृथ्वी को वराहावतार द्वारा उठाते विष्णु की उभरी नक्काशी है; महिषासुरमर्दिनी मंडप तथा पंचपांडव मंडप आदि।
रथ मंदिर
मामल्ल शैली के दूसरे प्रकार के मंदिरों को ‘रथ’ कहा जाता है, जो ग्रेनाइट चट्टानों को तराशकर बनाए गए एकाश्म मंदिर हैं। जोड़रहित शिलाखंड रथों की प्रतिकृति जैसे प्रतीत होते हैं, जो मध्यम आकार के हैं। इन रथमंदिरों को ‘सप्त पैगोडा’ या ‘सप्तरथ’ भी कहा गया है। लेकिन ऐसा लगता है कि इन रथों के भीतरी भाग का निर्माण अपूर्ण रह गया और इनमें कभी पूजा नहीं की गई। संभवतः ये बड़े आकार में बनाए जाने वाले मंदिरों की लघु प्रतिकृतियाँ हैं।
ऐसा लगता है कि इन रथों के भीतरी भाग का निर्माण अपूर्ण रह गया था और इनमें कभी पूजा नहीं हुई। संभवतः ये बड़े आकार में बनाए जाने वाले मंदिरों की लघु प्रतिकृतियाँ हैं।
मामल्ल शैली के प्रमुख पाँच रथ हैं- धर्मराज रथ, भीम रथ, द्रौपदी रथ, अर्जुन रथ तथा नकुल-सहदेव रथ। इसके अलावा, गणेश रथ भी महत्त्वपूर्ण है।
धर्मराज रथ सबसे विशाल है, जिसका आधार वर्गाकार और शिखर पिरामिडाकार है। इसमें तीन मंजिलें और दो गर्भगृह हैं। भीम रथ और गणेश रथ चैत्य की अनुकृति प्रतीत होते हैं; जिनके आधार आयताकार और शिखर ढोलाकार हैं। द्रौपदी रथ सादगीपूर्ण, आकार में सबसे छोटा और झोपड़ी जैसा है। इन रथों पर बहुविध देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उकेरी गई हैं, जिनमें दुर्गा, शिव, गंगा, पार्वती, हरिहर, ब्रह्मा आदि प्रमुख हैं। धर्मराज रथ पर नरसिंहवर्मा की भी मूर्ति अंकित है। पर्सी ब्राउन के अनुसार ये रथ न केवल स्थापत्य और मूर्तिकला के दृष्टिकोण से अत्यंत प्रभावशाली हैं, बल्कि अपनी शक्ति, सौंदर्य और अभिप्राय के कारण द्रविड़ शैली के मंदिरों का आधार भी माने जाते हैं।
इस प्रकार मामल्ल शैली ने दक्षिण भारत में शैल मंदिर वास्तुकला को नई दिशा दी। इस शैली की गुफाएँ और रथ न केवल पल्लव कला की उत्कृष्टता के सूचक हैं, बल्कि कालांतर में द्रविड़ शैली के विशाल मंदिरों की आधारशिला भी सिद्ध हुए।
राजसिंह (नरसिंहवर्मन द्वितीय) शैली (700-800 ई.)
राजसिंह शैली पल्लव कला के विकास प्रगतिषील चरण का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें गुफा या एकाश्म मंदिरों के स्थान पर स्वतंत्र रूप से विशालकाय संरचनात्मक मंदिर बनाए गए। इस शैली ने गुफा एवं रथ परंपरा का अंत कर दिया और स्वतंत्र मंदिर योजना की शुरुआत की।
इस शैली में प्रस्तर खंडों की चिनाई करके विशाल आकार के स्वतंत्र मंदिर बनाए गए, जिसकी मूल योजना में वर्गाकार गर्भगृह और पिरामिडाकार शिखर था। इसी शैली में गोपुरम और प्राकार का प्रारंभिक विकास हुआ और सिंहमुख स्तंभों का प्रयोग किया जाने लगा। राजसिंह शैली में निर्मित प्रमुख मंदिर निम्नलिखित हैं-
समुद्रतट मंदिर (मामल्लपुरम)
राजसिंह शैली का प्रथम मंदिर समुद्रतट मंदिर (मामल्लपुरम) है, जो धर्मराज रथ का विकसित रूप है, जो यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल में शामिल है। इसमें दो शिवालय और एक सोए हुए विष्णु की मूर्ति है। यह दक्षिण भारतीय मंदिरों में गोपुरम और प्राकार बनाने का प्रथम उदाहरण है। समुद्रतट पर स्थित इस पूर्वाभिमुखी मंदिर में सूर्य की प्रथम किरण गर्भगृह पर पड़ती है। गर्भगृह वर्गाकार और शिखर पिरामिडाकार है। इस मंदिर में सिंहमुख स्तंभों का प्रचुर प्रयोग किया गया है।

कैलासनाथ मंदिर (काँचीपुरम)
काँची के कैलासनाथ मंदिर का निर्माण समुद्रतट मंदिर के कुछ समय बाद किया गया। इस मंदिर के निर्माण में राजसिंह और उसकी रानी रंगपताका की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। विष्णु को समर्पित इस मंदिर में तीन मंजिलें हैं। मंदिर का आधार आयताकार और शिखर पिरामिडाकार है। मंदिर में गोपुरम है उसके ऊपर वेसर शैली की गजपृष्ठाकार छत है। यह मंदिर पल्लव वास्तुकला की परिपक्वता का उत्कृष्ट उदाहरण है।

वैकुंठपेरूमल मंदिर (काँचीपुरम)
पल्लव वास्तुकला का संभवतः अंतिम और सर्वाधिक परिपक्व रचना काँची का वैकुंठपेरूमल मंदिर है। यह मंदिर विष्णु को समर्पित है और आकार में कैलासनाथ मंदिर से बड़ा है। इस मंदिर की पट्टिकाओं पर विष्णु के विभिन्न अवतारों का चित्रण किया गया है।
वर्गाकार भू-विन्यास वाले इस मंदिर में संरचना के सभी अंग, जैसे गर्भगृह, अंतराल, मंडप और गोपुरम एक समन्वित इकाई के रूप में एक-दूसरे से संबद्ध हैं, जो वास्तु-एकता का आदर्श उदाहरण है और जिसे क्रिस्टोफर टैंडगेल ने पल्लव कला की उत्कर्ष रचना बताया है। मुकुंदेश्वर मंदिर (पन्नमलाई) और ईश्वर मंदिर (मामल्लपुरम) भी इसी शैली में निर्मित हैं।
महेंद्रवर्मन काल की सरल गुफा-शैलियों से लेकर मामल्लकालीन अलंकृत रथों और राजसिंह शैली के विशाल संरचनात्मक मंदिरों तक पल्लव कला ने शैलकृत प्रयोगों से परिपक्व द्रविड़ वास्तुकला की दिशा तय की और बाद में चोल और अन्य दक्षिणी राजवंशों के भव्य मंदिर निर्माण की नींव रखी।
नंदिवर्मन/अपराजित शैली (800-900 ई.)
नंदिवर्मन/अपराजित मंदिर शैली पल्लव मंदिर वास्तुकला का अंतिम चरण मानी जाती है। इसमें पहले विकसित राजसिंह शैली और पूर्ववर्ती परंपराओं का ही अनुकरण किया गया है और विशेष नवीनता नहीं परिलक्षित होती है।
इस शैली में भी प्रस्तर खंडों से स्वतंत्र अथवा संरचनात्मक मंदिर बनाए गए, जो आकार में अपेक्षाकृत छोटे और सरल हैं और प्राचीन पल्लव मंदिरों की नकल जैसे लगते हैं। इनके वास्तु-विन्यास में कोई विषेष परिवर्तन नहीं किया गया है अैर पूर्व परंपरा का निर्वाह मात्र किया गया लगता है। यद्यपि इनमें नवीन रचनात्मकता का अभाव है, लेकिन स्तंभ-शीर्षों का विकास महत्त्वपूर्ण है। इस शैली के प्रमुख उदाहरण काँचीपुरम के मुक्तेश्वर मंदिर, मथंगेश्वर मंदिर और उथिरामेरुर के सुंदरवरदा पेरुमल मंदिर हैं।
इस प्रकार नंदिवर्मन शैली पल्लव कला की परंपरागत निरंतरता का प्रतीक है, जिसमें पूर्ववर्ती शैलियों का प्रभाव स्पष्ट है, परंतु उसमें स्वतंत्र मौलिक नवाचार का अभाव है।
मूर्तिकला और चित्रकला
पल्लवकालीन मूर्तियों और चित्रों में बारीक नक्काशी और जीवंतता दिखती है। पल्लव मूर्तिकला अपनी सरला, प्राकृतिक गतिशीलता, भावनात्मकता और कथात्मकता के लिए प्रसिद्ध हैं। मंदिरों की मूर्तियाँ, मामल्लपुरम में गंगा अवतरण या अर्जुन तपस्या की विशाल चट्टानी शिल्पकृति इसका उदाहरण हैं, जिनमें मानव, पषु और देवताओं की आकृतियाँ जीवंत रूप में उकेरी गई हैं। तमिलनाडु के पुडुकोट्टई जिले में स्थित सित्तनवासल की भित्तिचित्र परंपरा तत्कालीन कला की उत्कृष्टता का परिचायक है जहाँ जैन भिक्षुओं की जीवनचर्या के रंगीन चित्र उकेरे गए हैं। चित्रित मूर्तियों में बारीक नक्काशी, सुंदर मुद्राएँ और अलंकरण दर्शनीय हैं। इन मूर्तियों ने दक्षिण भारतीय मूर्तिकला को नई दिशा दी और चोल काल को प्रभावित किया।

पल्लव काल में मंदिरों, मंडपों, रथों एवं समुद्रतट मंदिर के अतिरिक्त महाबलिपुरम में शैल फलकों पर बड़ी संख्या में रिलीफ चित्र उत्कीर्ण किए गए हैं, जिनमें धार्मिक गाथाओं और पौराणिक कथाओं का जीवंत चित्रण है।
अर्जुन की तपस्या या गंगावतरण (महाबलीपुरम)
महाबलिपुरम के सबसे प्रसिद्ध रिलीफ समूह को ‘अर्जुन की तपस्या’ के नाम से जाना जाता है। इस चित्रण में एक तपस्वी के सम्मुख चतुर्मुखी शिव खड़े हैं। पृष्ठभूमि में चंद्र, सूर्य, अप्सराएँ, गंधर्व और ऋषिगण सभी शिव की ओर बढ़ते हुए दिखाए गए हैं। कुछ इतिहासकार इसे भगीरथ की तपस्या और गंगा अवतरण की कथा से भी संबंधित मानते हैं।
अर्जुन की तपस्या के समीप एक शिला पर उकेरे गए एक अन्य प्रमुख रिलीफ में दो विशाल हाथियों का चित्र है, जो शक्ति और सौंदर्य का अद्भुत उदाहरण है। इसी प्रकार समुद्रतट मंदिर के निकट की विशाल चट्टान पर अष्टभुजी महिषासुरमर्दिनी दुर्गा, द्वारपालों और स्त्रियों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं, जो देवी-साधनाओं के प्रभाव का सूचक हैं। पर्सी ब्राउन के अनुसार महाबलिपुरम की मूर्तिकला में मर्मस्पर्शी संवेगात्मक गुण तथा सरल संयम और भव्यता का अद्भुत संतुलन है। यहाँ के रिलीफ चित्र जीवंतता, संतुलन और गहरी भावप्रवणता के आदर्श उदाहरण हैं।
पल्लव मूर्तिकला केवल भारत तक सीमित नहीं रही, बल्कि अपने रूप, विषय-वस्तु और शिल्पकौशल के साथ दक्षिण-पूर्व एशिया के कई प्रदेशों, जैसे कंबोडिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, जावा, वियतनाम तक पहुँची और वहाँ के मंदिर-निर्माण और रिलीफ कला को गहराई से प्रभावित किया।
संगीत एवं नाटक
पल्लव राजाओं ने संगीत और नाटक दोनों के प्रति गहरी रुचि दिखाई। इतिहासकारों के अनुसार पल्लवों की राजसभा में भास और शूद्रक जैसे प्रख्यात संस्कृत नाटककारों की रचनाओं का नियमित रूप से मंचन होता था।
महेंद्रवर्मन प्रथम कला और संगीत का बड़ा संरक्षक था। उसकी एक उपाधि चित्रकारपुलि (चित्रकला के बाघ) थी, जिससे संकेत मिलता है कि चित्रकला को भी पल्लव काल में राजकीय संरक्षण प्राप्त था। उसने दक्षिणचित्र नामक ग्रंथ की रचना की, जो चित्रकला से संबंधित माना जाता है। संगीत के प्रति पल्लव शासकों की अभिरुचि उनकी उपाधियों से भी प्रकट होती है। नरसिंहवर्मन द्वितीय (राजसिंह) ने वाद्यविहार और वीणानारद जैसी उपाधियाँ धारण की, जिससे स्पष्ट होता है कि वह संगीत और वाद्ययंत्र वादन में कुशल था।
पल्लव शासकों में कई स्वयं प्रसिद्ध संगीतकार थे। महेंद्रवर्मन प्रथम और नरसिंहवर्मन प्रथम दोनों ही संगीत के विशेषज्ञ माने जाते हैं। उस काल में याज़ी, मृदंगम और मुरासु जैसे वाद्ययंत्र प्रचलित थे। साथ ही नृत्यकला भी अत्यंत लोकप्रिय थी।
इस प्रकार पल्लवकालीन शासकों ने दक्षिण भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का निर्माण किया, जिसमें शैल-कृति गुफाओं से लेकर भव्य संरचनात्मक मंदिरों तक विकास हुआ और मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत, नाटक आदि कलाओं को भी संरक्षण मिला।
पल्लवकालीन साहित्य और शिक्षा
साहित्यिक प्रगति
पल्लव नरेशों का शासन संस्कृत तथा तमिल दोनों ही भाषाओं के साहित्य उन्नति का काल था। कुछ पल्लव शासक उच्चकोटि के विद्वान थे, जिन्होंने अपने दरबार में प्रसिद्ध विद्वानों और लेखकों को संरक्षण दिया और संस्कृतथा तमिल दोनों ही भाषाओं के साहित्य का विकास हुआ। इस काल में भक्ति आंदोलन के तमिल भक्तसंत नयनारों और आलवारों ने भक्ति काव्य की परंपरा आरंभ करके भाषा और साहित्य को नया जीवन प्रदान किया।
संस्कृत साहित्य
पल्लव शासक सिंहविष्णु ने संस्कृत के प्रसिद्ध कवि भारवि को अपने दरबार में संरक्षण दिया, जिसने किरातार्जुनीयम् नामक महाकाव्य की रचना की। महेंद्रवर्मन प्रथम तो स्वयं साहित्यकार और नाटककार था। उसने मत्तविलास प्रहसन की रचना की, जिसमें कापालिकों और बौद्ध भिक्षुओं का उपहास उड़ाया गया है। कुछ इतिहासकार उसे भगवदज्जुकीयम् का भी रचनाकार मानते हैं, यद्यपि यह संदिग्ध है। नरसिंहवर्मन द्वितीय (राजसिंह) के दरबार में संस्कृत कवि दंडी निवास करते थे, जिसने दशकुमारचरित और काव्यादर्श की रचना की। पल्लव शासकों के अधिकांश लेख विशुद्ध संस्कृत में लिखे गये हैं।
तमिल साहित्य
पल्लव राजाओं के संरक्षण में संस्कृत के साथ-साथ तमिल साहित्य के विकास को भी प्रोत्साहन दिया। नंदिवर्मन द्वितीय ने तमिल साहित्य के महान कवि पोरुन्देवनार को संरक्षण दिया, जिसने भारतवेणबा की रचना की। तमिल ग्रंथ नंदीकलम्बकम में नंदिवर्मन तृतीय (लगभग 846-869 ई.) के शासनकाल का वर्णन है, लेकिन इस ग्रंथ के लेखक का नाम ज्ञात नहीं है। इस काल में कल्लदनार नामक एक विद्वान ने कल्लदम नामक व्याकरण ग्रंथ लिखा।
नयनार (शैव संत) और आलवार (वैष्णव संत) ने अपनी तमिल भक्ति भजनों के माध्यम से तमिल साहित्य एवं भक्ति आंदोलन का प्रसार किया। इस प्रकार पल्लव काल में तमिल साहित्य को नई ऊर्जा मिली।
शिक्षा
पल्लवकाल में धर्म और शिक्षा आपस में गहराई से जुड़े हुए थे। कुडुमियानमलाई शिलालेख से ज्ञात होता है कि महेंद्रवर्मन प्रथम संगीत और धर्मशिक्षा का संरक्षक था। पल्लव काल में मंदिर, मठ और बौद्ध विहार केवल पूजास्थल नहीं, बल्कि शिक्षा, कला और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र थे, जहाँ वेद, वेदांग, दर्शन, तर्कशास्त्र, व्याकरण, ज्योतिष आदि का अध्ययन-अध्यापन होता था। काँचीपुरम पल्लवकालीन शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, जिसे तक्षशिला, दक्षिण का नालंदा और दक्षिण का काशी कहा जाता था। काँचीपुरम का संस्कृत महाविद्यालय (घटिका) उच्च अध्ययन का केंद्र था, जहाँ संस्कृत, तमिल और महाभारत का पठन-पाठन होता था। शिक्षण का कार्य मुख्यतः ब्राह्मणों के हाथों में था। मुख्य रूप से ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग को औपचारिक शिक्षा प्राप्त होती थी।
पल्लवकालीन शिक्षा केंद्रो ने दूर-दूर तक के विद्वानों और विद्यार्थियों को आकर्षित किया। नालंदा के आचार्य धर्मपाल काँची से संबंधित थे। प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक दिग्नाग ने भी काँची में शिक्षा प्राप्त की। कदंबवंशीय राजकुमार मयूरवर्मन शिक्षा हेतु काँची आया था। वहाँ चीन, दक्षिण-पूर्व एशिया के विद्यार्थी भी शिक्षा प्राप्त करने आते थे। एक ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि काँची नगर के समीप कुर्रम ग्राम में 108 ब्राह्मण परिवार वेदाध्ययन करते थे। पल्लव नरेश परमेश्वरवर्मन ने महाभारत का कंठस्थ पाठ सुनाने वाले विद्वानों को पुरस्कृत किया था।
धर्म और धार्मिक जीवन
पल्लवों ने दक्षिण भारत में सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्र में एक समृद्ध परंपरा स्थापित की। पल्लव शासक मुख्य रूप से शैव और वैष्णव धर्म के संरक्षक थे, परंतु बौद्ध और जैन धर्मों के प्रति भी सहिष्णुता प्रदर्शित की, जिसका प्रमाण चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से मिलता है। धार्मिक जीवन केवल पूजा-पद्धति तक सीमित नहीं था, बल्कि यह शिक्षा, साहित्य, कला और वास्तुकला से गहराई से जुड़ा था। मंदिर पूजा, शिक्षा और सांस्कृतिक केंद्र थे, जो चोल काल की धार्मिक और स्थापत्य परंपराओं का आधार सिद्ध हुए। पल्लवकालीन मूर्तिकला, जैसे महाबलिपुरम में गंगा अवतरण और अर्जुन तपस्या तथा सित्तनवासल की जैन भित्तिचित्र जीवंतता और भावनात्मकता के लिए प्रसिद्ध हैं। शैव संत अप्पार और तिरुज्ञान संबंदर, साथ ही वैष्णव आलवारों ने तमिल भक्ति गीतों के माध्यम से भक्ति आंदोलन को लोकप्रिय बनाया, जिसने सामाजिक समानता को बढ़ावा दिया। पल्लवकालीन सांस्कृतिक और धार्मिक उपलब्धियाँ दक्षिण भारत की सांस्कृतिक धरोहर हैं।
पल्लव शासक मूलतः हिंदू धर्म के अनुयायी थे और अनेक वैदिक यज्ञों, जैसे अश्वमेध, वाजपेय और अग्निष्टोम का संपादन करते थे। वे विष्णु और शिव दोनों की पूजा करते थे, किंतु अधिकांश शासक शैवधर्म के अनुयायी थे। पल्लव राजा धर्ममहाराज की उपाधि धारण करते थे।
पल्लवकाल में मूर्तिपूजा मंदिर संस्कृति का आधार थी, शिव और विष्णु के साथ-साथ ब्रह्मा और अन्य देवी-देवताओं की भी पूजा की जाती थी। पल्लवकालीन महाबलीपुरम, उंडावल्ली, सित्तनवसल आदि शैलकृत मंदिरों और गुफाओं ने धार्मिक कला को नया आयाम दिया।
यद्यपि पल्लव शासक मुख्यतः हिंदू धर्म के संरक्षक थे, लेकिन उन्होंने बौद्ध और जैन धर्म को भी संरक्षण दिया। महेंद्रवर्मन प्रथम प्रारंभ में जैन धर्म का अनुयायी था, परंतु शैव संत अप्पार के प्रभाव से शैव धर्म स्वीकार किया। उसने शैव मंदिर बनवाए और शैव कला एवं साहित्य को बढ़ावा दिया। नरसिंहवर्मन प्रथम (महामल्ल) के समय चीनी यात्री ह्वेनसांग ने काँचीपुरम का वर्णन किया है, जहाँ लगभग 100 बौद्ध मठ और 80 हिंदू मंदिर विद्यमान थे। कालांतर में भक्ति आंदोलन के बढ़ते प्रभाव और राजकीय संरक्षण के अभाव में बौद्ध और जैन परंपराओं का महत्त्व कुछ कम हो गया।
पल्लवकाल में धर्म केवल आचार-विधि नहीं था, बल्कि समाज और राज्य की आत्मा था। मंदिर पूजा, भक्ति-साहित्य, मठ-शिक्षा और धार्मिक सहिष्णुता ने इस युग को अद्वितीय बना दिया। पल्लवों का धार्मिक जीवन आगे चलकर चोलों और पांड्यों के लिए आधारभूमि बना।
7वीं शताब्दी से पल्लव राज्य में भक्ति आंदोलन का प्रसार हुआ। शैव संत अप्पार और तिरुज्ञान संबंदर ने भक्ति रचनाओं के माध्यम से शैव धर्म को लोकप्रिय बनाया। आलवार (वैष्णव संत) और नयनार (शैव संत) ने तमिल भाषा में भक्तिगीतों की रचना की और जाति तथा सामाजिक बंधनों को तोड़कर सामाजिक एकता एवं समानता का प्रचार किया। इस आंदोलन ने दक्षिण भारत में शुद्ध भक्ति मार्ग को लोकजीवन का आधार बना दिया।
पल्लवों की धार्मिक सहिष्णुता और विभिन्न पंथों के प्रति उदार दृष्टिकोण ने सामाजिक समरसता को बढ़ावा दिया। पल्लवों ने शिक्षण संस्थानों का विकास कर सांस्कृतिक पुनर्जागरण को प्रोत्साहित किया, जिससे दक्षिण भारत में एक जीवंत और समृद्ध संस्कृति का उदय हुआ। मंदिरों के भव्य निर्माण एवं मूर्तिकला ने स्थापत्य कला को नई दिशा दी, जबकि संस्कृत और तमिल साहित्य को संरक्षण मिला। वैष्णव आलवारों और शैव नयनारों के भक्ति गीतों ने सामाजिक सीमाओं को तोड़कर लोगों में एकता और प्रेम की भावना को जगाया। पल्लवों की विरासत आज भी समृद्ध संस्कृति की मिसाल के रूप में जीवित है।
आर्थिक गतिविधियाँ और सांस्कृतिक आदान-प्रदान
पल्लव काल में अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन, व्यापार और शिल्प के संतुलन पर आधारित थी। कावेरी नदी घाटी (तमिलनाडु) में सिंचाई प्रणाली अत्यंत विकसित थी, जिसमें तटबंध, नहरें और जलाशय (एरि) का उपयोग किया जाता था। इन प्रणालियों से धान, गन्ना, दालें, कपास और अन्य फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहन मिला। भूमि अनुदान (भूमिदान) की प्रथा प्रचलित थी, जिसमें राजा ब्राह्मणों, मंदिरों और सामंतों को भूमि दान करते थे। इससे सामंती व्यवस्था मजबूत हुई, जहाँ किसान भूमि स्वामी के प्रति दायबद्ध थे और कर (भोग, उपरिकर) का भुगतान करते थे। वैलूरपालयम् ताम्रपत्र जैसे अभिलेखों से पता चलता है कि कृषि उत्पादन से प्राप्त राजस्व राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। मंदिरों को भूमि दान (देवदाय) दी जाती थी, जिससे मंदिर आर्थिक केंद्र बन गए।
व्यापार
पल्लवों ने मामल्लपुरम, कावेरीपट्टिनम जैसे बंदरगाहों के माध्यम से श्रीलंका, इंडोनेशिया और चीन के साथ समुद्री व्यापार को बढ़ावा दिया। काली मिर्च, रेशम और रत्न निर्यात किए गए, जिससे आर्थिक समृद्धि बढ़ी। काँची और महाबलिपुरम व्यापार और शिल्प के केंद्र थे। इस व्यापार ने भारतीय स्थापत्य, मूर्तिकला और धर्म को दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रसारित किया, जिसका प्रभाव कंबोडिया और जावा की कला में देखा जाता है।
पल्लव काल में आंतरिक और बाह्य व्यापार में अभूतपूर्व प्रगति हुई। पल्लव क्षेत्र में बाजार (नगरम) और व्यापारिक केंद्र विकसित थे। पल्लव राज्य में अनेक व्यापारिक संगठन थे, जो गिल्ड (श्रेणी) की तरह कार्य करते थे, व्यापार को नियंत्रित करते थे और कभी-कभी प्रशासनिक भूमिकाएँ भी निभाते थे।
पल्लव काल में मूर्तिकला और वस्त्र निर्माण उद्योग विकसित था। मामल्लपुरम के रथ मंदिर और शिल्प कार्य इसका उदाहरण हैं। काँचीपुरम, मामल्लपुरम (महाबलिपुरम) जैसे शहर व्यापार के प्रमुख केंद्र थे। इस काल में मिट्टी के बर्तन, कपड़ा बुनाई, धातु कार्य और आभूषण निर्माण जैसे उद्योग उन्नति पर था। काँचीपुरम रेशम के लिए प्रसिद्ध था। 7वीं शताब्दी में भारत आने वाले चीनी यात्री ह्वेनसांग ने पल्लव राजधानी काँचीपुरम को समृद्ध व्यापारिक केंद्र के रूप में वर्णित किया है, जहाँ उन्नत किस्म के रेशम और मिट्टी के बर्तनों का उत्पादन होता था। मंदिर न केवल धार्मिक केंद्र थे, बल्कि शिल्प और व्यापार के केंद्र भी थे, जहाँ कारीगरों को संरक्षण मिलता था। मामल्लपुरम के अभिलेखों से पता चलता है कि कारीगरों के गिल्ड (श्रेणियाँ) स्वायत्त थे और वे मंदिर निर्माण में भी योगदान देती थीं। जहाज निर्माण उद्योग भी विकसित था, जिससे व्यापार में सहायता मिलती थी। लेकिन यह काल संभवतः गुप्त काल जितना औद्योगिक रूप से समृद्ध नहीं था। फिर भी, स्थानीय स्तर पर आत्मनिर्भरता थी।
पल्लवों ने दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ समुद्री व्यापार को बढ़ावा दिया, जिससे भारतीय संस्कृति का प्रसार हुआ। समुद्री व्यापार दक्षिण-पूर्व एशिया, जैसे श्रीलंका, मलेशिया, इंडोनेशिया और चीन के साथ होता था। मामल्लपुरम (महाबलिपुरम), कावेरीपट्टिनम (पुहार) और नागापट्टिनम प्रमुख बंदरगाह थे, जहाँ से काली मिर्च, दालचीनी, कपास, रत्न, हाथीदाँत और बुनाई वाले वस्त्र निर्यात किए जाते थे। आयात में घोड़े, सोना और विदेशी विलासिता की वस्तुएँ शामिल थीं।
सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्कों का उपयोग होता था। सोने के सिक्के कम प्रचलित थे; छोटे लेन-देन के लिए ताँबे के सिक्कों (कासु) का उपयोग होता था। पल्लव सिक्कों पर राजकीय चिह्न जैसे सांड या सिंह अंकित होते थे। वस्तु विनिमय प्रणाली भी प्रचलित थी।
कुल मिलाकर पल्लवकालीन अर्थव्यवस्था समृद्ध और विविधतापूर्ण व्यवस्था थी, जो कृषि, पशुपालन, व्यापार और शिल्प के संतुलन पर आधारित थी। काँचीपुरम और मामल्लपुरम जैसे केंद्रों ने आर्थिक और सांस्कृतिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। पल्लवों की सिंचाई और मंदिर-केंद्रित अर्थव्यवस्था ने दक्षिण भारत को आर्थिक रूप से समृद्ध बनाया, जिससे सांस्कृतिक उत्कर्ष संभव हुआ।
पल्लवकालीन सामाजिक जीवन
सामाजिक संरचना
पल्लव समाज की आधारशिला वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा थी, जो उस समय तक कठोर और अपरिवर्तनीय हो चुकी थी। समाज में ब्राह्मण वर्ग सर्वाधिक सम्मानित था। उसका कार्य वेदाध्ययन, अध्यापन और यज्ञकर्म करना था। उन्हें दान-दक्षिणा और भूमि अनुदान मिलते रहते थे।
ब्राह्मणों के बाद किसान वर्ग का महत्त्व था। इसमें दो वर्ग थे- एक भूस्वामी कृषक, जो सामाजिक रूप से समृद्ध था और जिसकी नियुक्ति राज्य में उच्च पदों पर होती थी और दूसरा भूमिहीन कृषक, जो दूसरों की भूमि पर काम करता और निर्धन था।
व्यापारी वर्ग धनाढ्य तो था, किंतु सामाजिक दृष्टि से उसकी गिनती अकसर शूद्र वर्ग में होती थी। चरवाहों और शिकारियों का अलग वर्ग था। चरवाहे दूध, दही, मक्खन आदि बेचते थे, जबकि शिकारी अस्त्र-शस्त्र रखते और शिकार पर निर्भर थे। मलवर जाति के लोग लूट-पाट करते थे या अंगरक्षक का कार्य करते थे।
स्त्रियों की स्थिति
पल्लव समाज में उच्च कुल की स्त्रियों को शिक्षा और ललित कलाओं के अध्ययन की छूट थी। इस युग में कई विदुषी कवियत्रियाँ और लेखिकाएँ हुईं। नृत्य, संगीत और वाद्य से जुड़ी नर्तकियाँ और गायिकाएँ भी सामाजिक जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा थीं।
स्त्रियों की स्थिति में धीरे-धीरे गिरावट आई। सती प्रथा का प्रचलन बढ़ा, लेकिन यह सर्वव्यापी नहीं थी। विधवा पुनर्विवाह का अभाव था, परंतु उन्हें पति की संपत्ति में अधिकार था। उच्च वर्ग की स्त्रियाँ पर्दे में रहती थीं, परंतु साधारण स्त्रियों को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता थी।
विवाह व सामाजिक संबंध
विवाह अकसर जाति के भीतर होते थे, परंतु कभी-कभी अंतर्जातीय विवाह भी होते थे। सहभोजन में भी स्थिति मिश्रित थी। शूद्रों से दूर रहने की सलाह थी, लेकिन कृषक, नाई और दूधवालों के साथ सहभोजन सामाजिक रूप से चलता था। सामान्यतया सामाजिक संबंध सौहार्दपूर्ण थे।
धार्मिक प्रवृत्तियाँ व कुप्रथाएँ
मंदिर पूजा-स्थल के साथ-साथ त्योहारों, मेलों, शिक्षा और सेवा संस्थाओं का केंद्र भी थे। समाज में अंधविश्वास, जादू-टोना तथा ताड़ी (शराब) का प्रचलन था। धार्मिक आंदोलनों ने इन कुप्रथाओं को समाज से हटाने का प्रयत्न किया।
आर्थिक-सामाजिक जीवन
भूमि उपजाऊ और कृषि विकसित थी। प्रमुख रूप से धान, गन्ना, हल्दी, रागी और काली मिर्च उत्पादन किया जाता था। कावेरी डेल्टा सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्र था।
रेशमी और सूती वस्त्र उद्योग समृद्ध था। व्यापार आंतरिक और बाहरी दोनों दृष्टियों से उन्नत था। मलयद्वीप, श्रीलंका, चीन, अरब और मिश्र तक विदेश व्यापार होता था। काली मिर्च, रेशम, मलमल, मोती, हस्तीदाँत आदि निर्यात की प्रमुख वस्तुएँ थीं। स्वर्ण और मदिरा का आयात किया जाता था। व्यापारियों को अपने सामानों पर चुंगी देनी पड़ती थी और परिवहन के लिए गाड़ियों तथा नावों का प्रयोग किया जाता था।
मनोरंजन
संगीत, नृत्य, वादन प्रमुख मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। इसके अलावा, शतरंज, चौपड़, पशु-युद्ध, शिकार, लोकनृत्य और नाटक भी मनोरंजन के माध्यम थे। समय को मापने के लिए नादिकाएँ अर्थात् पानी की घड़ियाँ प्रयोग की जाती थीं।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
- पल्लव वंश की स्थापत्य कला की विशेषताएँ और योगदान का वर्णन कीजिए।
- पल्लवकालीन मूर्तिकला और चित्रकला की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- पल्लव काल में साहित्य और शिक्षा के विकास पर प्रकाश डालिए।
- पल्लवकालीन धार्मिक जीवन और भक्ति आंदोलन की भूमिका का वर्णन कीजिए।
- पल्लव काल में व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की भूमिका का विश्लेषण कीजिए।
लघु उत्तरीय प्रश्न
- पल्लव वंश की द्रविड़ स्थापत्य शैली की दो विशेषताएँ बताइए।
- महाबलिपुरम के पंच रथ मंदिरों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- पल्लव काल में भक्ति आंदोलन में नयनार और आलवार की भूमिका बताइए।
- काँची के कैलासनाथ मंदिर की विशेषताएँ बताइए।
- पल्लवों का साहित्य के विकास में योगदान क्या था?
- पल्लव वंश की द्रविड़ स्थापत्य शैली की दो विशेषताएँ बताइए।
- महाबलिपुरम के पंच रथ मंदिरों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
बहुविकल्पीय प्रश्न
1. पल्लव वंश का शासनकाल कब तक रहा?
(A) 3वीं-9वीं शताब्दी
(B) 1वीं-5वीं शताब्दी
(C) 10वीं-12वीं शताब्दी
(D) 5वीं-7वीं शताब्दी
2. पल्लव वंश की राजधानी कहाँ थी?
(A) तंजावुर
(B) काँची
(C) मदुरै
(D) विजयनगर
3. पल्लवकालीन स्थापत्य की प्रमुख शैली कौन-सी थी?
(A) नागर शैली
(B) गुप्त शैली
(C) वेसर शैली
(D) द्रविड़ शैली
4. महाबलिपुरम के पंच रथ मंदिर किस शासक के काल में बने?
(A) महेंद्रवर्मन प्रथम
(B) राजसिंह
(C) नरसिंहवर्मन प्रथम (मामल्ल)
(D) नंदिवर्मन
5. काँची का कैलासनाथ मंदिर किस शैली का उदाहरण है?
(A) महेंद्रवर्मन शैली
(B) मामल्ल शैली
(C) राजसिंह शैली
(D) अपराजित शैली
6. पल्लवकालीन मूर्तिकला का सबसे प्रसिद्ध रिलीफ कौन-सा है?
(A) गंगा अवतरण
(B) रामायण चित्रण
(C) महाभारत दृश्य
(D) बुद्ध की तपस्या
7. सित्तनवासल की भित्तिचित्र किस धर्म से संबंधित हैं?
(A) हिंदू
(B) जैन
(C) बौद्ध
(D) शैव
8. पल्लव काल में भक्ति आंदोलन को बढ़ावा देने वाले संत कौन थे?
(A) रामानुज और शंकराचार्य
(B) बुद्ध और महावीर
(C) नयनार और आलवार
(D) कालिदास और भारवि
9. पल्लव काल में संस्कृत साहित्य की रचना ‘किरातार्जुनीयम्’ किसने की?
(A) दंडी
(B) भारवि
(C) महेंद्रवर्मन
(D) कालिदास
10. महेंद्रवर्मन प्रथम ने किस नाटक की रचना की?
(A) मत्तविलास प्रहसन
(B) दशकुमारचरित
(C) काव्यादर्श
(D) भारतवेणबा
11. काँची को पल्लव काल में क्या कहा जाता था?
(A) दक्षिण का नालंदा
(B) दक्षिण का तक्षशिला
(C) दक्षिण का काशी
(D) उपरोक्त सभी
12. पल्लव काल में शिक्षा का प्रमुख केंद्र कौन-सा था?
(A) तंजावुर
(B) काँची
(C) मदुरै
(D) पुहार
उ
13. पल्लव काल में व्यापार का प्रमुख बंदरगाह कौन-सा था?
(A) काँची
(B) मदुरै
(C) तंजावुर
(D) मामल्लपुरम
14. पल्लवों ने किस क्षेत्र के साथ समुद्री व्यापार को बढ़ावा दिया?
(A) यूरोप
(B) दक्षिण-पूर्व एशिया
(C) मध्य एशिया
(D) अफ्रीका
15. पल्लवकालीन मंदिरों में कौन-सा तत्व प्रमुख था?
(A) गोपुरम
(B) शिखर
(C) मंडप
(D) उपरोक्त सभी
16. महेंद्रवर्मन शैली के मंदिरों की मुख्य विशेषता क्या थी?
(A) जटिल नक्काशी
(B) संरचनात्मक निर्माण
(C) शैल-कट गुफाएँ
(D) गोपुरम निर्माण
17. मामल्ल शैली में निर्मित रथ मंदिरों को क्या कहा जाता है?
(A) सप्त पैगोडा
(B) पंच मंडप
(C) त्रिरथ
(D) एकाश्म गुफाएँ
18. राजसिंह शैली में निर्मित प्रमुख मंदिर कौन-सा है?
(A) पंच रथ
(B) समुद्रतट मंदिर
(C) अनंतशायिन मंदिर
(D) पल्लवरम मंदिर
19. पल्लव काल में संगीत के प्रति शासकों की रुचि का प्रमाण क्या है?
(A) वीणानारद उपाधि
(B) संगीत मूर्तियाँ
(C) संगीत वर्णन
(D) उपरोक्त सभी
20. पल्लवकालीन धार्मिक सहिष्णुता का उदाहरण क्या है?
(A) बौद्ध और जैन मंदिरों का निर्माण
(B) केवल हिंदू मंदिरों का निर्माण
(C) वैदिक यज्ञों का आयोजन
(D) भक्ति आंदोलन का विरोध
21. पल्लव काल में तमिल साहित्य को बढ़ावा देने वाला ग्रंथ कौन-सा है?
(A) किरातार्जुनीयम
(B) नंदीकलंबकम
(C) दशकुमारचरित
(D) मत्तविलास प्रहसन
22. पल्लव काल में कौन-सा चीनी यात्री कंदबीप आया था?
(A) फाहियान
(B) ह्वेनसांग
(C) इत्सिंग
(D) मार्को पोलो
23. पल्लव काल में नृत्य और संगीत का प्रचलन कैसा था?
(A) केवल धार्मिक अनुष्ठानों में
(B) राजदरबार और मंदिरों में
(C) केवल जनसामान्य में
(D) नहीं था
24. पल्लवकालीन अर्थव्यवस्था का आधार क्या था?
(A) केवल व्यापार
(B) कृषि, व्यापार और शिल्प
(C) केवल कृषि
(D) केवल शिल्प
25. पल्लव काल में प्रशासन की सबसे छोटी इकाई क्या थी?
(A) मंडलम
(B) कोट्टम
(C) नाडु
(D) उर