होयसलकालीन सांस्कृतिक उपलब्धियाँ (Cultural Achievements of the Hoysala Period)

होयसल वंश, जिसने 11वीं से 14वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत के कर्नाटक, दक्षिण-पूर्वी आंध्र, पश्चिमोत्तर […]

होयसलकालीन सांस्कृतिक उपलब्धियाँ (

होयसल वंश, जिसने 11वीं से 14वीं शताब्दी तक दक्षिण भारत के कर्नाटक, दक्षिण-पूर्वी आंध्र, पश्चिमोत्तर तमिलनाडु और दक्षिण-पश्चिमी मैसूर के क्षेत्रों में एक प्रभावशाली राज्य स्थापित किया, अपनी सैन्य उपलब्धियों के साथ-साथ सुदृढ़ अर्थव्यवस्था, जटिल प्रशासनिक तंत्र, धार्मिक समन्वय, समाजिक समरसता, साहित्यि, कला और भाषा के विकास में योगदान के लिए प्रसिद्ध है। इस राजवंश के विभिन्न क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति का प्रमाण ऐतिहासिक स्रोतों, पुरातात्त्विक अवशेषों, शिलालेखों और साहित्यिक ग्रंथों से मिलता है। होयसलों की विरासत भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में आज भी जीवित है।

अर्थव्यवस्था

Table of Contents

होयसल साम्राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि, व्यापार और वाणिज्य पर आधारित थी, जिसने इसे दक्षिण भारत में एक शक्तिशाली और समृद्ध साम्राज्य बनाया। कृष्णा, तुंगभद्रा और कावेरी नदियों की उपजाऊ घाटियाँ कृषि उत्पादन को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। इसके अतिरिक्त, व्यापार और वाणिज्य ने होयसल अर्थव्यवस्था को और समृद्ध किया, जिससे राज्य को सैन्य और प्रशासनिक आवश्यकताओं के लिए आवश्यक संसाधन प्राप्त हुए। होयसलों ने अपनी आर्थिक नीतियों के माध्यम से नई बस्तियों के विकास और व्यापारिक गतिविधियों को प्रोत्साहन दिया, जिससे उनकी समृद्धि का आधार मजबूत हुआ।

कृषि और भूमि प्रबंधन

होयसल साम्राज्य की अर्थव्यवस्था का आधार कृषि थी, जो कृष्णा, तुंगभद्रा और कावेरी नदियों की घाटियों की उर्वरता पर निर्भर थी। इन नदियों की सिंचाई प्रणालियों ने कृषि उत्पादन को प्रोत्साहित किया और भारी उत्पादन सुनिश्चित किया। मलनाड क्षेत्र की समशीतोष्ण जलवायु मवेशी पालन, मसाले और बागान की खेती के लिए उपयुक्त थी, जबकि बैलनाड के उष्णकटिबंधीय मैदानों में धान और मक्का प्रमुख फसलें थीं। कृषि भूमि की कमी को दूर करने के लिए होयसलों ने जंगलों और बंजर भूमि का उपयोग कर नई बस्तियों का विकास किया, जिससे कृषि क्षेत्र का विस्तार हुआ।

होयसल राजाओं ने परिवारों के मुखियाओं को सेवा के बदले भूमि अनुदान दिए, जो बाद में जमींदार या श्गावुंडश् बन गए। गावुंड स्थानीय स्तर पर कृषि प्रबंधन और कर संग्रह के महत्त्वपूर्ण कार्यों के निपटान के लिए जिम्मेदार थे। प्रजा को गावुंड से कम सामाजिक दर्जा प्राप्त था, जबकि अमीर प्रभु गावुंड को उच्च सामाजिक स्थिति प्राप्त थी।

कराधान

होयसलों की कर व्यवस्था ‘सिद्धदाय’ उनकी अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा थी, जो भूमि, कृषि उत्पादन और व्यापार पर आधारित थी तथा चालुक्य और राष्ट्रकूट प्रणालियों से प्रेरित थी। भूमि को गीली, सूखी और उद्यान भूमि के रूप में वर्गीकृत किया जाता था और मिट्टी की गुणवत्ता के आधार पर कर निर्धारित किए जाते थे। नरसिंह तृतीय काल के अभिलेखों से पता चलता है कि भूमि की कीमत ‘गद्याण’ नामक स्वर्ण सिक्कों में निर्धारित की जाती थी।

करों का प्रबंधन ‘संधिविग्रही’ और ‘श्रीकरण’ जैसे अधिकारियों द्वारा होता था। राजस्व अधिकारी, जिन्हें ‘गवुंड’ कहा जाता था, कृषि क्षेत्र से करों का आकलन एवं संग्रह करने के लिए जिम्मेदार होते थे। करों का हिसाब गाँव के अभिलेखों में दर्ज किया जाता था। इन करों में सोना, कीमती पत्थर, चंदन, गहने जैसी वस्तुएं तथा काली मिर्च, पान, घी, धान और नारियल जैसी उपज शामिल थी।

प्रमुख करों में वल्लभ (भूमि कर), कुमार (शाही परिवार के व्यय हेतु कर), निबंध (धार्मिक या सामाजिक कर), श्रीकरण (प्रशासनिक कार्यों के लिए कर), शुंक (सीमा शुल्क), अड़के लक्क (बाजार कर), वीरशेष (युद्ध स्मृति कर), आणेयशेष (पशुधन कर), कुमारगाड़िके (विशेष अवसर कर), खाड़ और भत्त (छोटे कर), ऐड़ और एचिन उपोत्तर (धार्मिक उत्सव या संकटकाल में वसूले जाने वाले कर) शामिल थे। इसके अतिरिक्त नाड, अपूर्वाय, अन्याय, कटकशेष, होडके, पट्टबंध, पुत्रोत्साह जैसे विशिष्ट कर भी समय-समय पर लगाए जाते थे।

प्रमुख करों का विवरण

वल्लभ : भूमि करए जो उपज के अनुपात में लिया जाता था।

कुमार : राजकुमारों या शाही परिवार के व्यय हेतु लगाया गया कर।

निबंध : धार्मिक या सामाजिक उद्देश्यों के लिए देय करए जो कभी.कभी विशेष अनुदान स्वरूप होता था।

श्रीकरण : प्रशासनिक कार्यों और सचिवालय व्यवस्था को चलाने के लिए एकत्र किया जाने वाला कर।

शुंक : वस्तुओं पर लगने वाला सीमा शुल्क या चुंगी कर।

अड़के लक्क : बाजार और वाणिज्यिक लेन.देन पर लगाया जाने वाला कर।

वीरशेष : युद्ध में मृत सैनिकों या वीरकुलों की स्मृति में होने वाले कार्यों के लिए वसूल किया गया कर।

आणेय शेष : पशुधन पर लगाया गया करए विशेषकर हाथियों और बैलों पर।

कुमारगाडिके : कृषकों द्वारा विशेष अवसरों पर राजकोष हेतु दिया जाने वाला कर।

खाड़ और भत्त : भूमि उत्पादन और व्यापारिक माल पर छोटे कर।

ऐड़ और एचिन उपोत्तर : विशेष अवसरोंए जैसे धार्मिक उत्सवोंए समारोहों या संकटकाल में वसूले जाने वाले कर।

अतिरिक्त कर

नाड : सोसेवुर: होयसल साम्राज्य की प्रथम राजधानी थी, जो वर्तमान कर्नाटक के चिकमगलूर जिले में स्थित है। सोसेवुर लगभग 1026 से 1048 ईस्वी तक राजधानी रही। यह स्थान वंश के उद्गम स्थल के रूप में भी प्रतिष्ठित था।स्थानीय इकाइयों की आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु लिया जाने वाला कर।

अपूर्वाय : आपातकालीन परिस्थितियों में वसूल किया जाने वाला कर।

अन्याय : शाही आदेश या विशेष अवसरों पर लगाया गया कर।

कटकशेष : सेना और सैन्य शिविरों की देखभाल के लिए वसूल किया गया कर।

होडके : परिवहन और व्यापारिक मार्गों पर लगाया गया कर।

पट्टबंध : भूमि हस्तांतरण या बंधपत्र संबंधी कर।

पुत्रोत्साह : राजकीय या शाही परिवार में संतान जन्म जैसी विशेष घटनाओं पर लिया जाने वाला कर।

होयसलों ने कम से कम पांच बार कर निर्धारण की नई व्यवस्थाएं लागू कीं, जिससे उनकी कर प्रणाली में लचीलापन और स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार अनुकूलनशीलता आई। साथ ही, भूमि अनुदान और कर रियायतों के माध्यम से नई बस्तियों के विकास को प्रोत्साहित किया, जिससे ग्रामीण विकास और कृषि विस्तार हुआ।

व्यापार और वाणिज्य

होयसल अर्थव्यवस्था में व्यापार और वाणिज्य ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। राज्य और व्यापारी वर्ग एक-दूसरे पर निर्भर थे, जिससे व्यापारिक गतिविधियाँ तीव्र हुईं। होयसल व्यापारियों को राजकीय संरक्षण प्राप्त था। कुछ समृद्ध व्यापारियों को ‘राजश्रेष्ठिगल’ (शाही व्यापारी) एवं ‘पुरमुलास्थम्बा’ (नगर स्तंभ) के रूप में मान्यता मिली। कुछ व्यापारी ‘पट्टनास्वामी’ बनकर नगर में प्रवेश करने वाले सामानों पर टोल वसूलते और नगर प्रशासन में भी योगदान देते थे। वे सिक्कों की ढलाई में भी सक्रिय थे, जिससे मुद्रा का प्रचलन बढ़ा।

व्यापारियों ने बाजार और साप्ताहिक मेले स्थापित किए, जो स्थानीय व क्षेत्रीय व्यापार के प्रमुख केंद्र बने। पश्चिमी समुद्र तट पर घोड़ों का आयात एक समृद्ध व्यवसाय था, जिसने सैन्य शक्ति को बढ़ावा दिया। व्यापार से संग्रहित करों ने राज्य को हथियारों, हाथी, घोड़ों और कीमती वस्तुओं की खरीद में सक्षम बनाया, जिससे आर्थिक समृद्धि बनी रही।

अंतरराष्ट्रीय व्यापार

होयसल साम्राज्य का अंतरराष्ट्रीय व्यापार भी उनकी अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा था। व्यापारिक संपर्क चीन, ढोफर, अदन, सिराफ सहित कई विदेशी बंदरगाहों तक फैले थे। इन बंदरगाहों से वस्त्र, मसाले, औषधीय वनस्पति, कीमती पत्थर, रत्न, मिट्टी के बर्तन, नमक, गहने, सोना, हाथीदांत और चंदन जैसे वस्त्र निर्यात होते थे। सांग राजवंश के अभिलेख बताते हैं कि दक्षिण चीन के बंदरगाहों में भारतीय व्यापारियों की उपस्थिति थी। इस विदेशी व्यापार के कारण होयसल साम्राज्य ने आर्थिक समृद्धि और अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की।

होयसल साम्राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि, कराधान और व्यापार के सुविचारित संयोजन पर आधारित थी। कृष्णा, तुंगभद्रा, और कावेरी नदियों की घाटियों ने कृषि उत्पादन को बढ़ावा दिया, जबकि मलनाड और बैलनाड के भौगोलिक विशेषताएँ विविध प्रकार की फसलों और पशुपालन को बढ़ावा देती थीं। कर व्यवस्था राज्य की स्थिर आय का स्रोत थी और व्यापार ने अर्थव्यवस्था को समृद्ध कर वैश्विक स्तर पर जोड़ा। व्यापारी वर्ग और राज्य के बीच सहयोग ने बाजारों और मेलों के विकास को प्रोत्साहित किया, जबकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार ने होयसलों की आर्थिक शक्ति को बढ़ाया। यह आर्थिक आधार होयसलों की शक्ति, स्थापत्य, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक उपलब्धियों का मूल था।

प्रशासन

होयसाल राजवंश के प्रशासनिक तंत्र में पूर्ववर्ती पश्चिमी चालुक्य व गंग राजवंशों की स्थापित प्रथाओं को अपनाया गया था। इस तंत्र में केंद्रीकृत और स्थानीय प्रशासन का संतुलन बनाए रखा गया, जिसमें मंत्रिमंडल का संगठन, स्थानीय शासी निकायों की संरचना और प्रांतों व जिलों में विभाजन सुनिश्चित था। शासन का आदर्श ‘दुष्टों का दमन और सज्जनों की रक्षा’ (दुष्टनिग्रह, शिष्टस्य परिपालनम्) था। साम्राज्य अत्यधिक केंद्रीकृत था, और राजा प्रशासन का केन्द्र था, जो कार्याधिकारी, सेनापति और न्यायाधीश की भूमिका निभाता था।

मंत्रिमंडल

होयसाल प्रशासन में पाँच प्रमुख मंत्री (पंचप्रधान) होते थे, जो राजा को सलाह देते थे। 13वीं सदी तक मंत्रीगण ‘महाप्रधान’ के नाम से विख्यात हुए। शिलालेखों में विदेश मामलों के मंत्री ‘संधिविग्रही’, मुख्य कोषाध्यक्ष ‘महाभंडारी’ या ‘हिरण्यभंडारी’, निजी सचिव ‘परमविष्वासी’, वस्त्रों के देखरेखकर्ता ‘महापसयित’ या ‘महापसायत’, न्याय व्यवस्था के प्रमुख ‘धर्माधिकारी’, केंद्रीय पंजीयक ‘कदिथ’ और राज्य सचिवालय के अध्यक्ष ‘श्रीकरणाधिकारी’ जैसे पद उल्लेखित हैं। कुछ मंत्री ‘सर्वाधिकारी’ के रूप में विभागों के समूहों का निरीक्षण करते थे। सेना का सेनापति ‘दंडनायक’ या ‘सेनाधिपति’ कहलाता था। स्थानीय स्तर पर दंडनायक, सर्वाधिकारी, रायदंडनाथ और बहत्तर नियोगाधिपति जैसे अधिकारी कार्य करते थे। महिला नेतृत्व की मिसाल के रूप में शांतलदेवी और उमादेवी आदि रानियाँ प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं।

प्रांतीय प्रशासन

प्रशासन चालुक्य रूपरेखा का अनुसरण करता था। राज्य को प्रांतों (नाडु और विषय), कम्पनों और देशों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक प्रांत का शासन स्थानीय निकाय करता था, जिसमें महाप्रधान, भंडारी (कोषाध्यक्ष), गणक (सेनापति) और हेग्गदे (कनिष्ठ अधिकारी) कार्यरत रहते थे। ये अधिकारी प्रांत प्रमुख और सैन्य सेनानायक ‘दंडनायक’ को सूचनाएँ भेजते थे, जिन्हें राजा नियुक्त करता था। कई अधीनस्थ सामंतवंश जैसे अलूप, संथार, चेंगलव, कोंगलव और सिंद अपने क्षेत्रों में स्वायत्त शासन के साथ साम्राज्य की नीतियाँ पालते थे।

ग्रामीण और नगरीय प्रशासन

ग्राम सभाएँ सक्रिय थीं और प्रतिनिधि प्रणाली प्रचलित थी। नगरों में ‘पट्टनास्वामी’ नामक अधिकारी नियुक्त होता था, जिसे नागरिक और सैन्य कार्य सौंपे जाते थे। छोटे क्षेत्रीय इकाइयों (नाडस्) के प्रमुख ‘नादप्रभु’, नादागुड़ा’ और ‘नादसेनभोवा’ जैसे अधिकारी होते थे।

सिक्के और मुद्रा व्यवस्था

होयसलों ने कन्नड़ और देवनागरी लिपियों में कई प्रकार के स्वर्ण सिक्के जारी किए। राजा विष्णुवर्धन के सिक्कों पर ‘नोलंबावाडिगोंड’, ‘तालकाडुगोंड’, ‘मालापरोलगोंड’, ‘मालापवीर’ जैसे उपाधियाँ अंकित थीं। इन्हें ‘होन्नू’ या ‘गद्याना’ कहा जाता था, जो 62 ग्रेन वजन के स्वर्ण सिक्के थे। इनके दशमांशों के रूप में ‘पण’, हग’ और ‘विस’ प्रचलित थे। इसके अतिरिक्त ‘बेल’, ‘कानी’ जैसे सिक्के भी उपयोग में थे।

कर व्यवस्था (सिद्धादाय)

होयसलों की कर व्यवस्था ‘सिद्धादाय’ के नाम से प्रसिद्ध थी, जो भूमि, कृषि और व्यापार पर आधारित थी। यह प्रणाली चालुक्य और राष्ट्रकूट प्रथाओं से विकसित हुई थी। प्रमुख करों में वल्लभ (भूमि कर), कुमार (शाही परिवार का खर्च), निबंध (धार्मिक/सामाजिक कर), श्रीकरण (प्रशासनिक कर), शुंक (सीमा शुल्क), अड़के लक्क (बाजार कर), वीरशेष (युद्ध स्मृति कर), आणेय शेष (पशुधन कर), कुमारगाडिके (विशेष अवसर कर), खाड़, भत्त, ऐड़, एचिन उपोत्तर (विशेष अवसर/संकटकाल कर) शामिल थे। दूसरें विशिष्ट कर जैसे नाड, अपूर्वाय, अन्याय, कटकशेष, होडके, पट्टबंध और पुत्रोत्साह भी लागू थे।

कर प्रबंधन ‘संधिविग्रही’ तथा ‘श्रीकरण’ जैसे अधिकारियों द्वारा किया जाता था। नरसिंह तृतीय काल के अभिलेख बताते हैं कि भूमि का मूल्यांकन ‘गद्याण’ नामक स्वर्ण सिक्के में होता था। कर प्रणाली में समय-समय पर सुधार किया जाता था ताकि स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।

होयसल सैन्य व्यवस्था

होयसलों की सेना उनमें ‘अंककार’ और ‘लेंक’ नामक सैनिक वर्ग थे, जिन्हें ‘गरुणसेना’ भी कहा जाता था। ये सैनिक अपनी निष्ठा और वीरता के लिए प्रसिद्ध थे। बल्लाल द्वितीय के समय सेना में लगभग 1000 सैनिक थे, जिनका नेतृत्व सेनापति कुवरलक्ष्मण करते थे। विख्यात अंगरक्षकों को ‘गरुड’ कहा जाता था, जो राजा और राजपरिवार की सुरक्षा करते थे। ये अंगरक्षक अपने स्वामी की मृत्यु पर आत्महत्या कर देते थे, और उनकी स्मृति में ‘गरुड स्तंभ’ या वीर शिला स्थापित की जाती थी, जैसे हलेबिडु के मंदिर में मिली गरुड स्तंभों पर दर्ज है।

होयसाल राजधानियाँ

सोसेवुर: होयसल साम्राज्य की प्रथम राजधानी थी, जो वर्तमान कर्नाटक के चिकमगलूर जिले में स्थित है। सोसेवुर लगभग 1026 से 1048 ईस्वी तक राजधानी रही। यह स्थान वंश के उद्गम स्थल के रूप में भी प्रतिष्ठित था।

बेलूर: 1048 ई. में राजधानी बेलूर स्थानांतरित की गई। यह यागाची नदी के किनारे स्थित था, जल आपूर्ति पर्याप्त थी, पहाड़ी जंगलों से घिरा था, और यह व्यापार मार्ग पर स्थित था। हालांकि बेलूर राजधानी केवल लगभग दस वर्ष तक ही बनी रही।

द्वारसमुद्र (हलेबिडु): 1062 ई. में राजधानी द्वारसमुद्र (दोरसमुद्र या द्वारवतीपुर) स्थानांतरित की गई, जो वर्तमान हलेबिडु है। यह व्यापार मार्गों पर था, और नहरों द्वारा यागाची नदी से जल आपूर्ति सुनिश्चित की गई। द्वारसमुद्र ने सबसे अधिक समय तक राजधानी का पद संभाला और 14वीं शताब्दी तक होयसल वंश की राजधानी बनी रही। दिल्ली सल्तनत के आक्रमणों के कारण इस काल में इसका पतन हुआ।

होयसल प्रशासन ने स्थानीय और केंद्रीय शक्ति के बीच संतुलन बनाए रखा, जिसमें राजा सर्वोच्च प्राधिकार था। नगरों, ग्रामों और प्रांतों के प्रतिनिधि अधिकारियों की मजबूत व्यवस्था थी। कराधान प्रणाली जटिल और विकसित थी, जिससे राज्य की आर्थिक स्थिरता बनी रही। सैन्य व्यवस्था समर्पित और निष्ठावान थी, जिसने क्षेत्रीय विस्तार में मदद की। राजधानी बदलते समय प्रभावशाली स्थापत्य और जल प्रबंधन के उदाहरण प्रस्तुत किए। इस प्रशासनिक तंत्र ने होयसल साम्राज्य को दक्षिण भारत में एक प्रभावशाली और सुव्यवस्थित साम्राज्य के रूप में स्थापित किया।

संस्कृति

धर्म

होयसल शासकों ने दक्षिण भारत में धार्मिक सहिष्णुता का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया, जहाँ वैष्णव, शैव और जैन धर्मों को समान सम्मान और संरक्षण मिला। यह धार्मिक सहिष्णुता केवल धार्मिक क्षेत्र तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसने सामाजिक, सांस्कृतिक और स्थापत्य कलाओं को भी गहराई से प्रभाव किया। होयसल कालीन रानियाँ, जैसे शांतलदेवी जो जैन धर्म की कट्टर अनुयायी थीं, और उमादेवी, जिन्होंने प्रशासनिक और धार्मिक दोनों क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया, इस सहिष्णुता का परिचय देती हैं। इस काल के अभिलेख, साहित्य और विदेशी यात्रियों जैसे इब्न बतूता, अमीर खुसरो के विवरण भी होयसल धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक वैभव की पुष्टि करते हैं।

शासन के शुरुआती प्रभावशाली शासक विष्णुवर्धन, जिन्हें बिट्टिगदेव भी कहा जाता था, ने जैन मंदिरों का संरक्षण किया और श्रवणबेलगोला तथा कंबदहल्ली जैसे प्रमुख जैन केंद्रों का विकास किया। उनकी पत्नी शांतलदेवी ने जीवन के अंतिम चरणों में श्रवणबेलगोला में सल्लेखना व्रत लेकर अपनी गहरी आस्था दर्शाई। विष्णुवर्धन रामानुजाचार्य के प्रभाव में आकर वैष्णव धर्म के अनुयायी बने, जिन्होंने रंगनाथ भक्ति का प्रचार कर वैष्णव मत को लोकप्रिय बनाया और बेलूर के चेन्नकेशव मंदिर का निर्माण करवाया। इसके बावजूद, उनकी पत्नी शांतलदेवी ने जैन धर्म के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखी।

इस काल में धार्मिक समुदायों के बीच सामंजस्य और सामाजिक समृद्धि का वातावरण व्याप्त था, जहाँ वैष्णव, शैव और जैन सभी बिना किसी रोक-टोक के धार्मिक अनुष्ठान करते थे। वीर नरसिंह प्रथम और वीर बल्लाल द्वितीय जैसे शासकों ने धार्मिक संरक्षण को निरंतरता दी, जबकि नरसिंह तृतीय ने जैन तीर्थंकर पार्ष्वनाथ की पूजा की, जो इस उदारता का प्रतीक है। बौद्ध धर्म का प्रभाव इस काल में लगभग समाप्त हो गया था, इसके स्थान पर शैव और वैष्णव संप्रदायों ने भक्ति और सामाजिक सुधार के रूप में अपनी पैठ मजबूत की।

12वीं सदी में लिंगायतवाद का, जिसका नेतृत्व बसव ने किया, एक सामाजिक और धार्मिक आंदोलन के रूप में उदय हुआ, जिसने शैव भक्ति को लोकप्रियता दिलाई। माधवाचार्य ने द्वैत वेदांत का प्रचार किया और उडुपी में आठ मठ स्थापित किए, जो वैष्णव भक्ति के प्रमुख केंद्र बने। रामानुजाचार्य ने वैष्णव भक्ति मार्ग को प्रोत्साहित करते हुए श्रीरंगम क्षेत्र में सामाजिक तथा धार्मिक प्रभाव स्थापित किया। इन तीन दार्शनिकों-बसव, माधवाचार्य और रामानुजाचार्य का प्रभाव होयसल काल के धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन पर गहरा रहा।

होयसल राजवंश की धार्मिक नीतियों ने वैष्णव, शैव, और जैन धर्मों को समान संरक्षण देकर सांप्रदायिक समरसता का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। यह सहिष्णुता सामाजिक, सांस्कृतिक और स्थापत्य क्षेत्रों में भी देखने को मिली। होयसल शासकों की राजधानी द्वारसमुद्र (हलेबिडु) एक धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र थी, जहाँ बेलूर का चेन्नकेशव मंदिर, हलेबिडु का होयसलेष्वर मंदिर और सोमनाथपुर का केशव मंदिर जैसे स्थापत्य कृतियाँ उनके शिल्प-कला कौशल एवं धार्मिक उदारता का प्रतीक थीं।

शांतलदेवी जैसे राजपरिवार की सदस्यों ने वैष्णव मंदिरों के साथ-साथ जैन धर्म के प्रति निष्ठा बनाए रखी और जैन मठों के निर्माण एवं संरक्षण में योगदान दिया। मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक एवं स्थानीय प्रशासन के केंद्र थे। मंदिरों में देवदासी द्वारा नृत्य और संगीत कार्यक्रम आयोजित होते थे, जिन्हें राजपरिवार द्वारा प्रोत्साहित किया जाता था।

बौद्ध धर्म का प्रभाव होयसल क्षेत्र में अत्यंत सीमित रह गया था, अधिकांशतः दम्बल और बल्लीगावी जैसे कुछ स्थानों तक। इसके विपरीत, लिंगायतवाद के उदय ने धार्मिक और सामाजिक सुधारों को बल दिया। माधवाचार्य के द्वैत वेदांत ने उडुपी मठों के माध्यम से वैष्णव भक्ति को सशक्त किया।

होयसल साम्राज्य की धार्मिक नीति और सांस्कृतिक योगदान बाद में विजयनगर और मैसूर जैसे संगठित दक्षिण भारतीय राज्यों में भी प्रभावी रहे। विजयनगर साम्राज्य में रामानुजाचार्य की शिक्षाओं का प्रचार हुआ और मैसूर में माधवाचार्य के द्वैत वेदांत का प्रभाव बढ़ा।

आज भी बेलूर, हलेबिडु और सोमनाथपुर के मंदिर, जिन्हें 2023 में यूनेस्को ने विष्व धरोहर घोषित किया है, होयसल काल की धार्मिक तथा सांस्कृतिक समृद्धि का जीवंत द्योतक हैं।

इस प्रकार होयसल साम्राज्य ने धार्मिक सहिष्णुता, स्थापत्य कला, साहित्य और ललित कला के क्षेत्र में एक समृद्ध और समावेशी समाज का निर्माण किया, जिसने दक्षिण भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय का अंकन किया।

होयसल समाज

होयसल समाज अत्यंत स्तरीकृत और संगठित था। इस समाज का आधार कृषि स्रोत था, जिससे आर्थिक व्यवस्था संचालित होती थी। सामाजिक पदानुक्रम में राजा सर्वोच्च स्थान पर था, उसके बाद कुलीन वर्ग, ज़मींदार, कारीगर और किसान थे। सामंती व्यवस्था शासन और अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग थी, जिसमें सामंत वर्ग का बड़ा प्रभाव था। राजकीय सेवा, सैन्य योग्यता और धार्मिक दान के द्वारा सामाजिक उन्नति संभव थी। ग्राम सभाएँ स्थानिक प्रशासन की आधारशिला थीं और शहरों का प्रबंधन ‘पट्टनास्वामी’ जैसे अधिकारियों द्वारा होता था। इन नगरों और कस्बों को ‘पट्टन’ कहा जाता था, जो आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों के केंद्र थे।

महिलाओं की भूमिका

होयसल कालीन महिलाओं की स्थिति विविध और प्रभावशाली थी। शाही महिलाएँ जैसे रानी उमादेवी प्रशासनिक भूमिका में सक्रिय रहीं, जिन्होंने वीर बल्लाल द्वितीय की अनुपस्थिति में हलेबिडु का शासन संभाला और शत्रुओं को परास्त किया। रानी शांतलदेवी नृत्य, संगीत एवं धार्मिक गतिविधियों में निपुण थीं, एवं उन्होंने जैन धर्म का संरक्षण किया। प्रसिद्ध कवयित्री और वीरशैव संत अक्का महादेवी ने भक्ति आंदोलन में महिलाओं के लिए आध्यात्मिक स्वतंत्रता एवं सामाजिक सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। मंदिर की नर्तकियाँ (देवदासियाँ) शिक्षित तथा कला-कौशल में प्रवीण थीं, जो मंदिरों में प्रदर्शन करती थीं और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती थीं। इस काल में सती प्रथा स्वैच्छिक थी और वेश्यावृत्ति सामाजिक रूप से स्वीकार्य थी।

धार्मिक सहिष्णुता एवं विविधता

होयसल काल धार्मिक सहिष्णुता का युग था जिसमें जैन, शैव, वैष्णव और स्थानीय पंथों का सामंजस्यपूर्ण अस्तित्व था। विष्णुवर्धन ने वैष्णव धर्म को प्रोत्साहित किया, वहीं उनकी पत्नी शांटलदेवी ने जैन मठों और मंदिरों का संरक्षण किया। जैन समुदाय के तीर्थ स्थल जैसे श्रवणबेलगोला और कंबदहल्ली के पंचकुट बसदियाँ प्रसिद्द थीं। 11वीं और 12वीं सदी में वैष्णववाद और लिंगायतवाद के बढ़ते प्रभाव से जैन धर्म की लोकप्रियता में कमी आई, परन्तु यह अपने केंद्रों में जीवित रहा। धार्मिक दार्शनिकों जैसे बसवन्ना, माधवाचार्य और रामानुजाचार्य के शिक्षाओं ने धार्मिक विचारधारा एवं साहित्य को समृद्ध किया।

वाणिज्य एवं विदेशी संपर्क

होयसल साम्राज्य एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था। पश्चिमी तट पर अरब, यहूदी, फारसी, चीनी, और मलय प्रायद्वीप के व्यापारियों के साथ घनिष्ठ संपर्क था। कपड़ा, मसाले, औषधीय पौधे और रत्नों का निर्यात दक्षिण-पूर्व एशिया, अरब और अफ्रीका तक होता था। प्रवासी समाज के सैनिकों, अधिकारियों और शिल्पकारों ने स्थापत्य एवं सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में योगदान दिया।

मंदिर, बाजार और सामाजिक जीवन

मंदिर मात्र धार्मिक स्थल नहीं, अपितु सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक केन्द्र भी थे। ये मंदिर शिल्पकारों, नर्तकियों, देवदासियों और मूर्तिकारों को रोजगार देते थे। धार्मिक समारोहों, मेलों और त्योहारों के आयोजन से सामाजिक जीवन सजीव रहता था। शाही नगर बेलूर, हलेबिडु और श्रवणबेलगोला सांस्कृतिक और आर्थिक गतिविधियों के धुरी थे।

सामाजिक वर्ग और भूमिकाएँ

ब्राह्मण शिक्षा, धार्मिक अनुष्ठान और मंदिर प्रबंधन में अग्रणी थे। कृषक समाज कृषि कार्यों का आधार था, जबकि कारीगर मूर्तिकला एवं शिल्पकला के संवाहक थे। व्यापारी और मजदूर आर्थिक विकास के सशक्त स्तम्भ थे। जमींदार (गावुंड) स्थानीय प्रशासन और कर संग्रह का प्रबंधन करते थे। शिलालेख वर्णित करते हैं कि सामाजिक उन्नति राजकीय सेवा, सैन्य शासन और धार्मिक दान से संभव थी।

होयसल समाज धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक गतिशीलता, सांस्कृतिक वैभव और स्थापत्य उत्कृष्टता का समृद्ध मिश्रण था, जिसकी विरासत वर्तमान कर्नाटक और दक्षिण भारत की सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न हिस्सा है। इस काल की धरोहर मंदिरों, मूर्तियों, साहित्य और सामाजिक व्यवस्था के रूप में आज भी अमर है।

होयसल कला और स्थापत्य

होयसल राजवंश (11वीं से 14वीं सदी) ने दक्षिण भारत, विशेष रूप से कर्नाटक में कला और स्थापत्य के क्षेत्र में एक स्वर्ण युग स्थापित किया, जो जटिल मूर्तिकला, अनूठी वास्तुकला और धार्मिक समन्वय के लिए विश्वप्रसिद्ध है। होयसल मंदिरों की कर्नाट-द्रविड़ शैली, जो चालुक्य और चोल परंपराओं की छाप लिए हुए थी, ने एक विशिष्ट स्थापत्य शैली विकसित की। इस शैली के मुख्य तत्व ताराकार (स्टेलर) आधार, सूक्ष्म शिल्पकला के लिए सोपस्टोन (क्लोरिटिक शिस्ट) का उपयोग तथा ललित कलाओं के प्रति समर्पण थे। बेलूर, हलेबिडु, और सोमनाथपुर के मंदिर इस काल की कलात्मक उत्कृष्टता के प्रतीक हैं, जिन्हें 2023 में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया।

स्थापत्य की विशेषताएँ

होयसल मंदिरों की सबसे प्रमुख विशेषता उनका ताराकार आधार और जटिल मूर्तिकला है। ये मंदिर यद्यपि चालुक्य और चोल परंपराओं से प्रेरित थे, किंतु अपनी स्वतंत्र पहचान स्थापित करते हैं। मंदिरों का गर्भगृह और मंडप प्रायः ताराकार रूप में निर्मित होते थे। मंदिर ऊँचे एवं ठोस चबूतरों (जगती) पर बनाए जाते थे, जो परिक्रमा मार्ग प्रदान करते थे। इस ज़िगज़ैग डिज़ाइन ने मंदिरों को अपनी सौंदर्यात्मक विशिष्टता दी। जगती की ऊंचाई भक्तों को नक्काशियों को नजदीक से देखने का अवसर प्रदान करती थी।

निर्माण सामग्री के रूप में होयसलों ने सोपस्टोन (क्लोरिटिक शिस्ट) का चयन किया, जो नरम होने के कारण सूक्ष्म नक्काशी के लिए उपयुक्त था और समय के साथ कठोर हो जाता था, जिससे मंदिर लंबे समय तक टिकाऊ बन सके। मंदिरों की बाहरी दीवारें क्षैतिज पट्टियों में विभाजित थीं जिनमें देवी-देवताओं, पौराणिक कथाओं, नर्तकियों, संगीतकारों और दैनिक जीवन के दृश्य चित्रित थे। रामायण और महाभारत के प्रसंग भी इन पट्टियों पर उकेरे गए थे, जिन्हें भक्त परिक्रमा करते हुए देख सकते थे, जिससे आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त होता था।

मंदिरों के बेलनाकार स्तंभ, जटिल पुष्पाकृतियाँ और सालभंजिका (मदनिका) आकृतियाँ होयसल मूर्तिकला की सूक्ष्मता और सौंदर्य का प्रमाण थीं। प्रत्येक मूर्ति का आकार अलग था, यह विविधता कारीगरों की कल्पनाशीलता और कुशलता दर्शाती थी। होयसल मंदिरों में कदंब शिखर भी एक महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक विशेषता थी, जो कदंब राजवंश से प्रेरित थी।

प्रमुख होयसल मंदिर

बेलूर का चेन्नकेशव मंदिर, 1117 ई. में राजा विष्णुवर्धन द्वारा निर्मित, भगवान विष्णु को समर्पित एक भव्य मंदिर है। यह मंदिर 178 फीट लंबा और 156 फीट चौड़ा है, जिसके तीन तोरण द्वारों और विस्तृत परिक्रमा पथ पर रामायण और महाभारत के दृश्यों की नक्काशी है। गर्भगृह में सरस्वती की नृत्य मुद्रा वाली मूर्ति विशेष आकर्षण का केंद्र है।

हलेबिडु का होयसलेश्वर मंदिर 1121 ई. में निर्मित, शैव और वैष्णव दोनों परंपराओं को समर्पित है। 160 फीट लंबा, 122 फीट चौड़ा यह मंदिर काल्पनिक और धार्मिक मूर्तियों से सुसज्जित है, जो धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक है।

सोमनाथपुर का केशव मंदिर त्रिकूट शैली में हुआ है, जिसके तीन गर्भगृह भगवान विष्णु के विभिन्न रूपों को समर्पित हैं। इसकी दीवारों पर पौराणिक कथाएं, नृत्य दृश्य और सामाजिक जीवन के चित्र प्रतिबिंबित हैं। इसकी विशालता और सूक्ष्म नक्काशी इसे होयसल स्थापत्य की चरम सीमा बनाती है।

यह मंदिर केवल धार्मिक स्थल ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र भी थे। यहाँ वैष्णव, शैव और जैन धर्मों के प्रभाव स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। राजा विष्णुवर्धन वैष्णव थे, जबकि उनकी रानी शांतलदेवी जैन धर्म की कट्टर अनुयायी थीं, जिन्होंने जैन मंदिरों का संरक्षण किया।

अन्य प्रमुख मंदिर

डोड्डागड्डावल्ली का लक्ष्मी देवी मंदिर शिव या विष्णु को समर्पित नहीं था, किंतु स्थापत्य की विविधता का उत्कृष्ट उदाहरण था। श्रवणबेलगोला और कंबदहली में जैन बस्तियाँ और मंदिर, जैन धर्म के संरक्षण को दर्शाते हैं।

होयसल मंदिर धार्मिक स्थलों के साथ-साथ सांस्कृतिक एवं सामाजिक गतिविधियों के केंद्र भी थे। इन मंदिरों की दीवारों पर रामायण, महाभारत और दैनिक जीवन के चित्र एवं कामुक झांकियाँ संयमित खाँचों में दर्शाई गई थीं, जो शाक्त साधना का प्रतीक थीं।

मूर्तिकला की विशिष्टता

होयसल मूर्तिकला अपनी सूक्ष्मता, विस्तार और यथार्थवादी अभिव्यक्तियों के लिए विश्वप्रसिद्ध है। मंदिरों की बाहरी दीवारों पर देवी-देवता, पशु-पक्षी, गार्गॉयल, मकर, अश्वारोही और भूधर पात्रों की जटिल नक्काशी की गई है। सालभंजिका आकृतियाँ, जो शाल वृक्ष से जुड़ी पवित्र युवतियों को दर्शाती हैं, सौंदर्य और लावण्य की प्रतीक हैं। होयसल मूर्तिकला में तमिल क्षेत्र के कलाकारों का भी योगदान था, जैसे पल्लवचारी और चोलवचारी। बेलूर के चेन्नकेशव मंदिर में मोहिनी की मूर्ति चोल प्रभाव को दर्शाती है।

ललित कलाएँ

होयसल शासकों ने नृत्य और संगीत को प्रोत्साहित किया। मंदिरों में देवदासियों द्वारा प्रस्तुत भरतनाट्यम नृत्य और वीणा, मृदंग जैसे वाद्यों की नक्काशी सांस्कृतिक समृद्धि की पहचान है। रानी शांतलदेवी ने संगीत एवं नृत्य को बढ़ावा दिया। बेलूर के फलक पर विष्णुवर्धन, शांतलदेवी तथा उनके दरबार के कलाकारों का चित्रण है।

कलाकार और कारीगर

होयसल काल के प्रमुख शिल्पकारों में जकानाचारी, मालीथम्मा, दासोजा, चवना और केदारोजा शामिल हैं, जिन्होंने मंदिरों की जटिल नक्काशी और मूर्तिकला में शीर्ष स्तर का कौशल प्रदर्शित किया। स्थानीय कारीगर जैसे मरिदम्मा, बैकोजा, कौडाया, नंजया, बामा आदि ने भी इस कला को समृद्ध किया।

हस्ताक्षर परंपरा और ऐतिहासिक विवरण

होयसल कारीगरों ने अपनी कृतियों पर हस्ताक्षर किए, जो भारतीय कला इतिहास में दुर्लभ है। अरब यात्री इब्न बतूता ने द्वारसमुद्र के भव्य मंदिरों, शिल्पकला और वैभवशाली बाजारों का वर्णन किया। आधुनिक इतिहासकारों ने शिलालेखों, पुरातात्त्विक अवशेषों और साहित्य के विश्लेषण द्वारा इस राजवंश की महत्ता प्रमाणित की है।

होयसल साम्राज्य की कला और स्थापत्य न केवल धार्मिक भक्ति का प्रतीक हैं, बल्कि धार्मिक सहिष्णुता, सांस्कृतिक समृद्धि और तकनीकी कौशल का अद्वितीय संगम प्रस्तुत करते हैं। बेलूर, हलेबिडु और सोमनाथपुर के मंदिरों को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल का सम्मान प्राप्त है, जो उनके वैश्विक महत्व को दर्शाता है। ये स्थापत्य एवं शिल्पकला के चमत्कार आज भी विश्वभर के कला प्रेमियों को प्रेरित करते हैं।

भाषा और साहित्य

होयसल राजवंश के साहित्यिक योगदान ने कन्नड़ और संस्कृत दोनों भाषाओं को स्वर्ण युग तक पहुँचाया। कन्नड़ भाषा को प्रशासनिक भाषा का गौरव प्राप्त हुआ और इसने देशज छंदों जैसे चंपू (गद्य-पद्य मिश्रण), संगत्य, शतपदी, त्रिपदी और रागले का विकास किया। जैन, वीरशैव और वैष्णव परंपराएँ कन्नड़ साहित्य में गूंजती रहीं, जिससे भक्ति और दार्शनिक ग्रंथों का सृजन होता रहा। कन्नड़ के प्रमुख कवि और लेखक जिनका योगदान इस काल में अत्यंत महत्वपूर्ण था, उनमें जन्ना ने ‘यशोधराचारित’ और ‘अनाथनाथपुराण’ की रचना की, नागचंद्र ने ‘रामचरितपुराण’, ‘काव्यावलोकन’, ‘कर्नाटक भाषाभूषण’ तथा वास्तुकोष के लेखक नागवर्मा, ‘शब्दमणिदर्पण’ के रचयिता केशिराज, ‘गिरिजाकल्याण’ रचने वाले हरिहर, ‘हरिश्चंद्र काव्य’ के कवि राघवंका, ‘जगन्नाथ विजय’ के रनाकार रुद्रभट्ट, ‘मदन विजय’ के लेखक अंदाय्या और कन्नड़ एवं तेलुगु भाषाओं में वीरशैव साहित्य के प्रवर्तक पलकुरिकी सोमनाथ शामिल हैं। एक गणितज्ञ के रूप में राजादित्य और महावीराचार्य ने ‘व्यवहारगणित’, ‘लीलावती’ और ‘गणितसारसंग्रह’ जैसे ग्रंथ लिखें। भक्ति आंदोलन के अंतर्गत नरहरितीर्थ ने कन्नड़ भक्ति गीतों की रचना कर जनमानस तक भक्ति को पहुँचाया। भूमि अनुदान और प्रशासनिक अभिलेख भी कन्नड़ में लिखे जाते थे, जो स्थानीय जनता तक प्रभावी संदेश पहुँचाने में सहायक थे।

संस्कृत साहित्य का संरक्षण और प्रोत्साहन भी होयसल दरबार में महत्वपूर्ण था। इस काल में दार्शनिक और धार्मिक विषयों पर अनेक ग्रंथ, नाटक, टीकाएँ, और कविताएँ रची गईं। द्वैत दर्शन के प्रवर्तक माधवाचार्य ने ‘द्वादश सूत्र’, ‘गीता भाष्य’ और ‘भागवत तात्पर्य निर्णय’ जैसे 37 ग्रंथों की रचना की, जबकि उनके शिष्य नारायण पंडित ने ‘मध्वविजय’ लिखा। विद्यातीर्थ की ‘रुद्रप्रश्नभाष्य’ और त्रिविक्रम पंडित के ग्रंथ संस्कृत साहित्य की समृद्धि के परिचायक हैं। रामानुजाचार्य ने ‘श्रीभाष्य’ के माध्यम से वैष्णव दर्शन का प्रसार किया। विद्याचक्रवर्ती ने ‘गद्यकर्णामृत’ लिखा, जिसमें नरसिंह द्वितीय के युद्धों का वर्णन है, वहीं उनके पौत्र ने ‘रुक्मिणीकल्याण’ की रचना की। ये रचनाएँ न केवल साहित्यिक दृष्टि से मोलिक थीं, बल्कि होयसल शासकों की विद्वता और सांस्कृतिक संरक्षण के प्रमाण भी हैं। होयसल अभिलेखों में भी राजपंडितों और उनके कार्यों का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार होयसल काल में साहित्य की विविध शाखाएँ कन्नड़ और संस्कृत दोनों भाषाओं में अत्यंत फल-फूल रही थीं।

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