यूरोप में प्रति सुधार आंदोलन  (The Counter Reformation in Europe)

यूरोप में प्रति-धर्मसुधार आंदोलन 16वीं शताब्दी के विद्रोहात्मक धर्मसुधार आंदोलन के कारण नवीन प्रोटेस्टेंट धर्म […]

यूरोप में प्रति धर्म सुधार आंदोलन  (The Counter Reformation in Europe)

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यूरोप में प्रति-धर्मसुधार आंदोलन

16वीं शताब्दी के विद्रोहात्मक धर्मसुधार आंदोलन के कारण नवीन प्रोटेस्टेंट धर्म के प्रसार से चिंतित होकर कैथोलिक धर्म के अनुयायियों ने कैथोलिक चर्च और पोपशाही की शक्ति व अधिकारों को सुरक्षित करने तथा उनकी सत्ता को पुनः सुदृढ़ बनाने के लिए कैथोलिक धर्म में अनेक सुधार किए, जिसे ‘प्रति-धर्मसुधार आंदोलन’ या ‘धर्मसुधार-विरोधी आंदोलन’ कहा जाता है। यह आंदोलन ट्रेंट नामक नगर में चर्च की 19वीं विष्वसभा (1545-1563 ई.) से शुरू होकर तीस वर्षीय युद्ध की समाप्ति (1648 ई.) तक चला। इस प्रति-धर्मसुधार आंदोलन का उद्देश्य कैथोलिक चर्च में पवित्रता और उसके उच्च आदर्शों को पुनः स्थापित करना था।

यूरोप में प्रति धर्म सुधार आंदोलन  (The Counter Reformation in Europe)
1600 ई. में यूरोप की धार्मिक स्थिति

1600 ई. में यूरोप की धार्मिक स्थिति

प्रोटेस्टेंटवाद को रोकने के उपाय

लूथर और काल्विन के विरोध से बहुत पहले कुछ निष्ठावान रोमन कैथोलिकों ने कैथोलिक चर्च में सुधार की माँग की थी। स्पेन में 16वीं शताब्दी के अंत में कार्डिनल जिम्मेनेज ने पादरियों में कठोर अनुशासन लागू करके और विधर्मियों के विरुद्ध संघर्ष करके एक संभावित प्रोटेस्टेंट विद्रोह को रोक दिया था। लेकिन यूरोप के अन्य देशों में इस तरह के सुधार पहले नहीं किए गए। अब जब एक के बाद एक राज्य प्रोटेस्टेंट बनते जा रहे थे, तो कुछ सशक्त उपायों की आवश्यकता महसूस की गई।

यूरोप में प्रति धर्म सुधार आंदोलन  (The Counter Reformation in Europe)
ट्रेंट की सभा के आयोजक पोप पॉल तृतीय
ट्रेंट की सभा के आयोजक: पोप पॉल तृतीय

प्रोटेस्टेंटवाद के प्रवाह को रोकने के लिए दो तरह के उपाय सुझाए गए। वेनिस के उदारवादी कार्डिनल कोंटारेनी ने समझौता और मेल-मिलाप का सुझाव दिया। दूसरा सुझाव नेपल्स के कार्डिनल जियान पियेत्रो कैराफा की ओर से आया। कैराफा का मानना था कि प्रोटेस्टेंटवाद से समझौते की आवश्यकता नहीं है, बल्कि चर्च के अंदर व्याप्त भ्रष्ट आचरणों को रोका जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रोटेस्टेंट विधर्मी हैं और जब तक वे पोप के प्रति अपनी सर्वोच्च भक्ति समर्पित नहीं करते, तब तक उनके साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा। अंततः इसी विचारधारा की जीत हुई और जियान पियेत्रो कैराफा पॉल चतुर्थ (1555-1559 ई.) के नाम से कैथोलिक चर्च का पोप बना।

ट्रेंट की धर्मसभा (दिसंबर 1545-1563 ई.)

पोप पॉल तृतीय के समर्थकों की इच्छा के अनुसार जर्मनी में सम्राट चार्ल्स पंचम ने चर्च में सुधार के लिए दिसंबर 1545 ई. में उत्तरी इटली के ट्रेंट नगर में धर्मसभा आयोजित की। यह सभा कुछ अंतरालों के साथ 1545 से 1563 ई. तक चली। इसमें चर्च के प्रकांड विद्वानों ने भाग लिया। इस सभा का आयोजन चर्च के दोषों को दूर करने, मतभेदों को समाप्त करके प्रोटेस्टेंट लोगों को पुनः चर्च में लाने और चर्च में एकता स्थापित करने के लिए किया गया था। इसका उद्देश्य चर्च के सिद्धांतों की स्पष्ट व्याख्या करना और अनुशासन तथा नैतिकता स्थापित करना भी था। सभा में प्रोटेस्टेंट संप्रदाय के नेताओं को भी आमंत्रित किया गया था, किंतु उन्होंने भाग लेने से इनकार कर दिया। इस प्रकार यह सभा केवल कैथोलिक चर्च की सभा रह गई और इसका उद्देश्य कैथोलिक चर्च में सुधार करना रह गया। ट्रेंट की सभा में कैथोलिक चर्च में सुधार के लिए दो तरह के निर्णय लिए गए: सिद्धांतगत निर्णय और सुधार-संबंधी निर्णय।

यूरोप में प्रति धर्म सुधार आंदोलन  (The Counter Reformation in Europe)
प्रति धर्म सुधार आंदोलन
सिद्धांतगत निर्णय

ट्रेंट की सभा में चर्च के मूल सिद्धांतों में कोई परिवर्तन स्वीकार नहीं किया गया। लैटिन भाषा में लिखी बाइबिल को ही मान्य किया गया। स्पष्ट शब्दों में कहा गया कि बाइबिल की व्याख्या का अधिकार केवल चर्च को है। मुक्ति के लिए लूथर के श्रद्धा और आस्था के सिद्धांत को गलत माना गया और सप्त संस्कारों की उत्पत्ति ईसा से बताकर उन्हें अनिवार्य घोषित किया गया। प्रोटेस्टेंट व्याख्याओं की निंदा की गई, चमत्कारों में आस्था व्यक्त की गई और ‘लास्ट सपर’ के सिद्धांत की पुष्टि की गई। पोप को चर्च का सर्वोच्च अधिकारी और सर्वमान्य व्याख्याता स्वीकार किया गया।

सुधार-संबंधी निर्णय

चर्च में अनुशासन बनाए रखने के लिए चर्च के पदों की बिक्री समाप्त कर दी गई। अधिकारियों को निर्देश दिया गया कि वे अपने कार्यक्षेत्र में रहकर आदर्श जीवन व्यतीत करें और सुविधाजीवी होने से बचें। पादरियों की उपयुक्त शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया गया। धर्म की भाषा लैटिन ही रही, लेकिन लोकभाषाओं के प्रयोग की भी अनुमति दी गई। क्षमा-पत्रों की बिक्री रोक दी गई और संस्कार-संबंधी कार्यों के लिए पादरियों के आर्थिक लाभ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अब एक अधिकारी केवल एक कार्य कर सकता था। ऐसी पुस्तकों की एक सूची बनाई गई जो पूर्णतः या अंशतः चर्च-विरोधी थीं। कुछ पुस्तकों को पूरी तरह निषिद्ध कर दिया गया और कुछ के अंश निकालकर पढ़ने योग्य समझा गया। इस प्रकार ट्रेंट की सभा के निर्णयों का कैथोलिक चर्च के पुनर्गठन और प्रति-धर्मसुधार में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

जेसुइट संघ और इग्नेशियस लोयला

कैथोलिक धर्म में सुधार के लिए धर्मसभाओं के प्रस्ताव और निर्णय ही पर्याप्त नहीं थे, बल्कि उन्हें कार्यान्वित करने के लिए धार्मिक संगठनों की भी आवश्यकता थी, जिसके फलस्वरूप सोलहवीं सदी के उत्तरार्ध में अनेक धार्मिक संघ स्थापित किए गए। इन धार्मिक संगठनों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली जीसस संघ (जेसुइट संघ) था।

जीसस संघ का संस्थापक: इग्नेशियस लोयला

जीसस संघ (जेसुइट संघ) का संस्थापक इग्नेशियस लोयला (1491-1556 ई.) था। इग्नेशियस लोयला स्पेन का एक सैनिक था, जो 1521 में नवार के युद्ध में घायल होकर लंगड़ा हो गया था। उसने कैथोलिक भिक्षु के वस्त्र धारण कर सात वर्ष तक पेरिस विष्वविद्यालय में साहित्य, दर्शनशास्त्र और धर्मशास्त्र का गहन अध्ययन किया। यहीं चर्च को नए सिरे से संगठित करने के लिए उसने 1534 ई. में सेंट मेरी के गिरजाघर में अपने साथियों के साथ ‘सोसायटी ऑफ जीसस’ की स्थापना की। इस सोसाइटी के सदस्य जेसुइट कहलाने लगे।

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जीसस संघ (जेसुइट संघ) का संस्थापक इग्नेशियस लोयला

सोसायटी ऑफ जीसस का उद्देश्य कैथोलिक चर्च और ईसाई धर्म की सेवा करना, कैथोलिक धर्म का प्रचार करना तथा अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य और पवित्रता से जीवन व्यतीत करना था। सोसाइटी का संगठन सैन्य आधार पर किया गया था। इसका प्रमुख ‘जनरल’ कहलाता था, जो जीवनभर के लिए नियुक्त होता था। प्रत्येक सदस्य कठोर अनुशासन में बँधा हुआ था। केवल वही व्यक्ति इस संस्था का सदस्य बन सकता था, जिसने अपने सारे भौतिक नाते-रिश्तों को तोड़ लिया हो। प्रत्येक सदस्य को दीनता, पवित्रता, आज्ञापालन और पोप के प्रति समर्पण की शपथ लेनी पड़ती थी। इस संस्था में एक अंतर्निहित आक्रामकता थी, क्योंकि लोयला जानता था कि चर्च के जीवन-मरण का प्रश्न है। वह अपने अनुयायियों को केवल पवित्र जीवन के लिए ही नहीं, बल्कि चर्च की रक्षा और प्रसार के लिए भी तैयार करता था। जेसुइट समाज के सदस्यों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन और प्रेरणा के लिए लोयला ने ‘स्पिरिचुअल एक्सरसाइजेज’ की रचना की।

इग्नेशियस लोयला और उसके साथी फ्रांसिस जेवियर की श्रद्धा, भक्ति और निस्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर पोप पॉल तृतीय ने 1540 ई. में इस जेसुइट संघ को स्वीकृति-पत्र देकर इसे कैथोलिक चर्च का सक्रिय संघ मान लिया। अकबर के शासनकाल में जेसुइट पादरी धर्म प्रचार के लिए भारत आए थे और फ्रांसिस जेवियर तो अकबर के दरबार में रहा भी था। जेसुइट पादरियों के प्रयासों से सत्रहवीं सदी के मध्य तक इटली, फ्रांस, स्पेन, पोलैंड, नीदरलैंड, दक्षिणी जर्मनी, हंगरी आदि देशों में कैथोलिक धर्म पुनः प्रतिष्ठित हो गया।

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यूरोप में प्रति धर्म सुधार आंदोलन
धार्मिक न्यायालय (इनक्विजिशन)

प्रोटेस्टेंट धर्म की प्रगति को अवरुद्ध करने के लिए जेसुइट पादरियों और चर्च के अधिकारियों के विशेष सहयोग से विभिन्न देशों में इनक्विजिशन नामक धार्मिक न्यायालय स्थापित किए गए। इनकी स्थापना और गतिविधियों में जेसुइट पादरियों और धर्माधिकारियों का विशेष योगदान था। इस विशिष्ट धार्मिक न्यायालय को 1542 ई. में पोप पॉल तृतीय ने रोम में पुनर्स्थापित किया। यह न्यायालय नास्तिकों को ढूँढने, उन्हें कठोरतम दंड देने, कैथोलिक चर्च के सिद्धांतों को बलपूर्वक लागू करने, कैथोलिक धर्म के विरोधियों को निर्ममता से कुचलने और अन्य देशों से धर्म के मुकदमों में अपीलें सुनने के कार्य करता था। प्रोटेस्टेंटों के विरुद्ध इस न्यायालय ने बड़ी संख्या में मृत्युदंड और जीवित जलाने की सजाएँ दीं।

इस प्रकार 16वीं शताब्दी के मध्य तक रोमन कैथोलिक प्रति-धर्मसुधार आंदोलन काफी आगे बढ़ गया, जिससे चर्च में नया उत्साह पैदा हुआ और प्रोटेस्टेंटों के विरुद्ध प्रत्याक्रमण शुरू किए गए। इस रणनीति ने न केवल आधे ईसाई जगत को रोमन कैथोलिकों के लिए सुरक्षित रखा, बल्कि प्रोटेस्टेंटवाद को पीछे की ओर भी धकेल दिया।

प्रति-धर्मसुधार आंदोलन में शासकों की भूमिका

स्पेन और नीदरलैंड में प्रति-धर्मसुधार आंदोलन

16वीं शताब्दी में स्पेन विष्व की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति के रूप में उभरा था और कट्टर रोमन कैथोलिक देश के रूप में जाना जाता था। स्पेन का शासक फिलिप द्वितीय (1556-1598 ई.) पश्चिमी ईसाई जगत में रोमन कैथोलिक चर्च की सत्ता को पुनर्स्थापित करने को अपने जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मानता था। प्रोटेस्टेंटवाद के बढ़ते प्रभाव को देखकर, जो धर्मसुधार आंदोलन के कारण यूरोप में तेजी से फैल रहा था, फिलिप द्वितीय ने प्रति-धर्मसुधार आंदोलन को समर्थन देने के लिए अपनी सैन्य, आर्थिक और राजनीतिक शक्ति का उपयोग किया। उसने नीदरलैंड, इंग्लैंड और फ्रांस जैसे देशों में प्रोटेस्टेंटों के खिलाफ प्रत्याक्रमण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। नीदरलैंड में उसका प्रयास विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जहाँ उसने प्रोटेस्टेंटवाद को दबाने के लिए सैन्य दमन और धार्मिक नीतियों का सहारा लिया, यद्यपि यह प्रयास केवल आंशिक रूप से ही सफल हो सका।

स्पेन की कट्टर कैथोलिक नीति और फिलिप द्वितीय की भूमिका

स्पेन 16वीं शताब्दी में यूरोप की सबसे शक्तिशाली सैन्य और आर्थिक शक्ति था, जिसकी समृद्धि अमेरिका और एशिया से प्राप्त उपनिवेशों की संपत्ति पर आधारित थी। फिलिप द्वितीय, जो अपने पिता सम्राट चार्ल्स पंचम से विरासत में विशाल साम्राज्य प्राप्त किया था, एक कट्टर कैथोलिक था। वह रोमन कैथोलिक चर्च को पश्चिमी यूरोप में धार्मिक और राजनीतिक एकता का प्रतीक मानता था। प्रोटेस्टेंटवाद, विशेषकर लूथरवाद और काल्विनवाद के प्रसार ने कैथोलिक चर्च की सत्ता को चुनौती दी थी, जिसे फिलिप अपनी व्यक्तिगत और राष्ट्रीय जिम्मेदारी मानकर दबाने का संकल्प लिया। उसने प्रति-धर्मसुधार आंदोलन को समर्थन देने के लिए इनक्विजिशन (धार्मिक न्यायालय), जेसुइट मिशनरियों और अपनी सैन्य शक्ति का उपयोग किया।

फिलिप द्वितीय का लक्ष्य था यूरोप के उन सभी क्षेत्रों में कैथोलिक धर्म को पुनर्स्थापित करना, जहाँ प्रोटेस्टेंटवाद ने जड़ें जमा ली थीं। उसने नीदरलैंड, इंग्लैंड और फ्रांस में प्रोटेस्टेंटों के खिलाफ सैन्य अभियान चलाए, धार्मिक नीतियाँ लागू कीं और जेसुइटों को प्रचार के लिए प्रोत्साहित किया। उसकी नीतियाँ कठोर थीं और उसने प्रोटेस्टेंटों को विधर्मी मानकर उनके दमन को उचित ठहराया। लेकिन उसकी ये नीतियाँ नीदरलैंड जैसे क्षेत्रों में प्रतिरोध को और भड़काने का कारण बनीं। स्पेन की सैन्य शक्ति और फिलिप की धार्मिक नीतियों ने प्रति-धर्मसुधार को मजबूत किया, लेकिन दीर्घकालिक सफलता विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न रही।

नीदरलैंड में प्रति-धर्मसुधार: धार्मिक और राजनीतिक संघर्ष

नीदरलैंड, जो उस समय स्पेन के अधीन था, 16वीं शताब्दी में धार्मिक और राजनीतिक उथल-पुथल का केंद्र बन गया। नीदरलैंड दो हिस्सों में बँटा था: दक्षिणी प्रांत (आधुनिक बेल्जियम), जो मुख्य रूप से कैथोलिक थे और उत्तरी प्रांत (आधुनिक नीदरलैंड), जहाँ काल्विनवाद का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। प्रोटेस्टेंटवाद, विशेषकर काल्विनवाद ने उत्तरी प्रांतों में व्यापक समर्थन प्राप्त किया, क्योंकि यह व्यापारियों, मध्यम वर्ग और कुलीनों के बीच लोकप्रिय था। यह धार्मिक विभाजन नीदरलैंड में प्रति-धर्मसुधार के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया।

फिलिप द्वितीय ने प्रोटेस्टेंटवाद को समाप्त करने के लिए कठोर नीतियाँ अपनाईं। उसने स्पेनिश इनक्विजिशन को नीदरलैंड में लागू किया, जिसका उद्देश्य विधर्मियों (प्रोटेस्टेंटों) को दंडित करना और कैथोलिक सिद्धांतों को बलपूर्वक लागू करना था। इसके अतिरिक्त, उसने 12 नए रोमन कैथोलिक बिशपों के पदों का सृजन किया ताकि कैथोलिक चर्च का प्रशासनिक ढाँचा मजबूत हो सके। इन नीतियों को लागू करने के लिए उसने अपनी बहन मार्गरेट ऑफ पर्मा को नीदरलैंड की गवर्नर नियुक्त किया, लेकिन स्थानीय कुलीनों और जनता ने इन नीतियों का तीव्र विरोध किया।

1566 ई. का विद्रोह और डच प्रतिरोध

1566 ई. में नीदरलैंड के लगभग 400 प्रमुख कुलीनों ने मार्गरेट ऑफ पर्मा के सामने अपनी माँगों की एक तालिका प्रस्तुत की, जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता और इनक्विजिशन की समाप्ति की माँग शामिल थी। जब उनकी माँगें नहीं मानी गईं, तो प्रोटेस्टेंटों ने आइकोनोक्लास्टिक फ्यूरी के रूप में जाना जाने वाला विद्रोह शुरू किया। इस दौरान उन्होंने कैथोलिक चर्चों, मूर्तियों और धार्मिक प्रतीकों को नष्ट कर दिया, जिसे कैथोलिक सत्ता के खिलाफ प्रतीकात्मक विद्रोह माना गया। इस विद्रोह ने फिलिप द्वितीय को और आक्रोशित कर दिया।

फिलिप ने इस विद्रोह को कुचलने के लिए 1567 ई. में ड्यूक ऑफ अल्वा के नेतृत्व में 10,000 स्पेनी सैनिकों को नीदरलैंड भेजा। अल्वा ने काउंसिल ऑफ ट्रबल्स (काउंसिल ऑफ ब्लड) की स्थापना की, जिसने हजारों लोगों को मृत्युदंड दिया या निर्वासित किया। 1567 से 1573 ई. तक अल्वा का शासन आतंक का प्रतीक बन गया, जिसमें हजारों डच मारे गए। इस क्रूर दमन ने प्रोटेस्टेंटों को डराने के बजाय उनके प्रतिरोध को और प्रबल कर दिया। विलियम ऑफ ऑरेंज (विलियम द साइलेंट), जो एक कुलीन और प्रोटेस्टेंट नेता थे, ने डच स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया। डच विद्रोहियों ने स्पेनी संचार और व्यापार पर समुद्री हमले शुरू किए, जिन्हें ‘सी बेगसर्’ के रूप में जाना जाता है।

डच स्वतंत्रता संग्राम और स्पेनी हार

1572 ई. में डच विद्रोहियों ने उत्तरी प्रांतों में कई शहरों पर कब्जा कर लिया, जिसने स्वतंत्रता संग्राम को गति दी। 1580 ई. में डचों ने पूर्वी द्वीपसमूह (आधुनिक इंडोनेशिया) में पुर्तगाली उपनिवेशों पर कब्जा कर लिया, जो उस समय फिलिप द्वितीय के नियंत्रण में थे, क्योंकि फिलिप 1580 ई. में पुर्तगाल का राजा भी बन गया था। उत्तरी प्रांतों की बढ़ती शक्ति से भयभीत दक्षिणी 10 कैथोलिक प्रांतों (आधुनिक बेल्जियम) ने 1579 ई. में यूनियन ऑफ अरास बनाकर स्पेन का संरक्षण स्वीकार किया। इसके जवाब में सात उत्तरी काल्विनवादी प्रांतों ने यूनियन ऑफ यूट्रेक्ट बनाया और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष जारी रखा।

1584 ई. में विलियम ऑफ ऑरेंज की हत्या ने डच विद्रोह को झटका दिया, लेकिन उनके बेटे मॉरिस ऑफ नासाउ ने नेतृत्व सँभाल लिया। डचों ने अपनी सैन्य और नौसैनिक रणनीति को मजबूत किया और इंग्लैंड की रानी एलिजाबेथ प्रथम से समर्थन प्राप्त किया। फिलिप द्वितीय की मृत्यु के बाद स्पेन की शक्ति कमजोर होने लगी। 1609 ई. में स्पेन ने ट्वेल्व इयर्स ट्रूस (12 वर्षीय युद्ध-विराम) स्वीकार किया और अंततः 1648 ई. में वेस्टफेलिया की संधि के तहत डच नीदरलैंड की पूर्ण स्वतंत्रता को मान्यता दी गई। इस प्रकार नीदरलैंड में फिलिप द्वितीय का प्रति-धर्मसुधार अभियान केवल दक्षिणी प्रांतों (बेल्जियम) में सफल रहा, जहाँ कैथोलिक धर्म बरकरार रहा, लेकिन उत्तरी प्रांतों (नीदरलैंड) में काल्विनवाद और स्वतंत्रता की जीत हुई।

फिलिप द्वितीय की रणनीति और प्रति-धर्मसुधार की सीमाएँ

फिलिप द्वितीय ने प्रति-धर्मसुधार को बढ़ावा देने के लिए कई रणनीतियाँ अपनाईं। उसने इनक्विजिशन के माध्यम से धार्मिक एकरूपता लागू की, जेसुइट मिशनरियों को प्रचार और शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया और अपनी सैन्य शक्ति का उपयोग प्रोटेस्टेंट क्षेत्रों को दबाने के लिए किया। नीदरलैंड में उसकी नीतियों ने शुरू में कैथोलिक प्रांतों को सुरक्षित किया, लेकिन उत्तरी प्रांतों में काल्विनवादी विद्रोह को रोकने में असफल रहीं। इसके कई कारण थे:

अत्यधिक दमन: ड्यूक ऑफ अल्वा का क्रूर शासन ने डच जनता को विद्रोह के लिए प्रेरित किया।

आर्थिक और सांस्कृतिक अंतर: उत्तरी नीदरलैंड के व्यापारी और मध्यम वर्ग काल्विनवाद को अपनी स्वतंत्रता और आर्थिक हितों से जोड़ते थे, जिसने प्रतिरोध को मजबूत किया।

विदेशी समर्थन: इंग्लैंड और अन्य प्रोटेस्टेंट शक्तियों ने डच विद्रोहियों को समर्थन दिया, जिसने स्पेन की सैन्य योजनाओं को कमजोर किया।

फिलिप द्वितीय की नीतियाँ दक्षिणी यूरोप (स्पेन, इटली) में प्रति-धर्मसुधार को सफल बनाने में सहायक रहीं, लेकिन नीदरलैंड जैसे उत्तरी क्षेत्रों में प्रोटेस्टेंटवाद की गहरी जड़ों और राष्ट्रीय भावना ने उनकी योजनाओं को विफल कर दिया।

स्पेन और फिलिप द्वितीय ने प्रति-धर्मसुधार आंदोलन में केंद्रीय भूमिका निभाई, विशेषकर नीदरलैंड में, जहाँ उन्होंने प्रोटेस्टेंटवाद को दबाने के लिए सैन्य और धार्मिक उपायों का सहारा लिया। नीदरलैंड में प्रति-धर्मसुधार आंशिक रूप से सफल रहा, क्योंकि दक्षिणी प्रांत कैथोलिक बने रहे, लेकिन उत्तरी प्रांतों ने अपनी स्वतंत्रता और काल्विनवाद को स्थापित कर लिया। फिलिप की कट्टर नीतियों और सैन्य दमन ने प्रोटेस्टेंट प्रतिरोध को और भड़काया, जिसके परिणामस्वरूप डच स्वतंत्रता संग्राम ने स्पेन की शक्ति को चुनौती दी। यह संघर्ष प्रति-धर्मसुधार की सीमाओं को दर्शाता है, जो कट्टरता और सैन्य बल के बावजूद यूरोप के सभी क्षेत्रों में कैथोलिक वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने में असफल रहा।

इंग्लैंड में प्रति-धर्मसुधार आंदोलन

16वीं शताब्दी में प्रति-धर्मसुधार आंदोलन का उद्देश्य यूरोप में प्रोटेस्टेंटवाद के प्रसार को रोकना और रोमन कैथोलिक चर्च की सत्ता को पुनर्स्थापित करना था। इस आंदोलन में स्पेन के राजा फिलिप द्वितीय (1556-1598 ई.) ने केंद्रीय भूमिका निभाई, जो कट्टर कैथोलिक था और पश्चिमी ईसाई जगत में कैथोलिक वर्चस्व को पुनर्जनन करने का संकल्प ले चुका था। इंग्लैंड में, जहाँ धर्मसुधार आंदोलन ने एंग्लिकन चर्च की स्थापना के साथ प्रोटेस्टेंटवाद को मजबूत कर दिया था, फिलिप द्वितीय ने कैथोलिक धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए कई रणनीतियाँ अपनाईं। उसने विवाह, षड्यंत्र और सैन्य आक्रमण जैसे उपायों का सहारा लिया, लेकिन इंग्लैंड में उसका धर्मयुद्ध असफल रहा। यह असफलता न केवल प्रोटेस्टेंटवाद की जीत थी, बल्कि इंग्लैंड की राष्ट्रीय एकता और समुद्री शक्ति के उदय का प्रतीक भी थी।

फिलिप द्वितीय और मेरी ट्यूडर

फिलिप द्वितीय ने इंग्लैंड को रोमन कैथोलिक चर्च के अधीन लाने के लिए सबसे पहले इंग्लैंड की कैथोलिक रानी मेरी ट्यूडर (1553-1558 ई.) से विवाह किया। मेरी, जो हेनरी अष्टम और कैथरिन ऑफ अरागॉन की पुत्री थी, कट्टर कैथोलिक थी और अपने शासनकाल में प्रोटेस्टेंट सुधारों को उलटने का प्रयास कर रही थी। उसने ऐक्ट ऑफ सुप्रीमेसी (1534 ई.) को रद्द कर पोप की सर्वोच्चता को पुनः स्थापित किया और प्रोटेस्टेंटों का कठोर दमन शुरू किया। लगभग 300 प्रोटेस्टेंट नेताओं, जिनमें आर्चबिशप थॉमस क्रैनमर, बिशप रिडले और लेटीमर शामिल थे, को नास्तिकता के आरोप में जिंदा जला दिया गया, जिसके कारण मेरी को ‘खूनी मेरी’ (बल्डी मेरी) का उपनाम मिला।

1554 ई. में फिलिप द्वितीय और मेरी ट्यूडर का विवाह एक रणनीतिक कदम था, जिसका उद्देश्य एक कैथोलिक उत्तराधिकारी पैदा करना और इंग्लैंड को स्पेन के प्रभाव में लाना था। हालाँकि, यह विवाह न केवल निःसंतान रहा, बल्कि इसने इंग्लैंड की जनता में कैथोलिक विरोधी भावनाओं को और भड़काया। मेरी की नीतियों, विशेषकर प्रोटेस्टेंटों के दमन और स्पेन के साथ गठजोड़ ने जनता में असंतोष पैदा किया। स्पेन को एक विदेशी सत्ता के रूप में देखा गया और मेरी की नीतियों ने कैथोलिक चर्च को इंग्लैंड में अलोकप्रिय बना दिया। 1558 ई. में मेरी ट्यूडर की मृत्यु के बाद कैथोलिक पुनर्स्थापना का यह प्रारंभिक प्रयास विफल हो गया।

एलिजाबेथ प्रथम और फिलिप का विवाह प्रस्ताव

मेरी ट्यूडर की मृत्यु के बाद उनकी सौतेली बहन एलिजाबेथ प्रथम (1558-1603 ई.), जो हेनरी अष्टम और ऐन बोलिन की पुत्री थी, इंग्लैंड की रानी बनी। एलिजाबेथ एक प्रोटेस्टेंट थी और उसने अपने शासनकाल में एंग्लिकन चर्च को मजबूत करने की नीति अपनाई। उसने 1559 ई. में ऐक्ट ऑफ सुप्रीमेसी और ऐक्ट ऑफ यूनिफॉर्मिटी पारित कर स्वयं को इंग्लैंड के चर्च की सर्वोच्च अधिकारी घोषित किया और 39 सिद्धांतों के माध्यम से एंग्लिकनवाद को स्थायी रूप प्रदान किया। यह नीति कैथोलिक सत्ता के लिए एक बड़ा झटका थी।

फिलिप द्वितीय ने इंग्लैंड में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए एलिजाबेथ से विवाह करने का प्रस्ताव रखा। यह एक रणनीतिक कदम था, जिसका उद्देश्य इंग्लैंड को कैथोलिक प्रभाव में लाना और प्रोटेस्टेंट सुधारों को उलटना था। लेकिन एलिजाबेथ एक दूरदर्शी और देशभक्त शासिका थी। उसने फिलिप के प्रस्ताव को चालाकी से ठुकरा दिया, क्योंकि वह स्पेन के प्रभाव को इंग्लैंड में नहीं आने देना चाहती थी। एलिजाबेथ की नीतियाँ राष्ट्रीय एकता और प्रोटेस्टेंटवाद को मजबूत करने पर केंद्रित थीं और उसने कैथोलिकों को सीमित धार्मिक स्वतंत्रता दी, लेकिन पोप के प्रति निष्ठा को अपराध माना। इस अस्वीकृति ने फिलिप को वैकल्पिक और आक्रामक रणनीतियों की ओर प्रेरित किया।

मेरी स्टुअर्ट और हत्या का षड्यंत्र

एलिजाबेथ के सिंहासन पर आने के बाद इंग्लैंड की गद्दी की दूसरी दावेदार मेरी स्टुअर्ट (1542-1587 ई.) स्कॉटलैंड की रानी थी। मेरी एक कट्टर कैथोलिक थी और फ्रांस में फ्रांसिस द्वितीय से विवाहित थी। 1560 ई. में फ्रांसिस की मृत्यु के बाद वह निःसंतान स्कॉटलैंड लौट आई। स्कॉटलैंड की जनता मुख्य रूप से प्रोटेस्टेंट (काल्विनवादी) थी, जबकि मेरी कैथोलिक थी, जिसके कारण उसका शासन अस्थिर रहा। अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए मेरी ने 1565 ई. में अपने चचेरे भाई लॉर्ड डार्नले से विवाह किया, जो एक कैथोलिक था। लेकिन उसने डार्नले को राजा के अधिकार देने से इनकार कर दिया और अपने सचिव डेविड रिजियो के साथ निकटता बढ़ाई।

1566 ई. में डार्नले ने रिजियो की हत्या करवा दी, जिसके प्रत्युत्तर में मेरी ने 1567 ई. में डार्नले की हत्या की साजिश रची और उसे मार डाला। इसके बाद उसने अर्ल ऑफ बॉथवेल से विवाह कर लिया, जिसे स्कॉटलैंड की प्रोटेस्टेंट जनता और कुलीनों ने अस्वीकार कर दिया। परिणामस्वरूप स्कॉटलैंड में विद्रोह भड़क उठा और मेरी को बंदी बना लिया गया। मेरी ने अपनी सुंदरता और चतुराई का उपयोग कर जेलर जॉर्ज डगलस को प्रभावित किया और 1568 ई. में जेल से भागकर इंग्लैंड पहुँच गई, जहाँ उसने एलिजाबेथ से सहायता माँगी।

एलिजाबेथ मेरी को एक खतरे के रूप में देखती थी। उसने मेरी को नजरबंद कर दिया। मेरी स्टुअर्ट कैथोलिक समर्थकों और फिलिप द्वितीय के लिए इंग्लैंड की गद्दी पर एक वैकल्पिक उम्मीदवार थी। 1580 के दशक में फिलिप और कैथोलिक समर्थकों ने मेरी को इंग्लैंड की रानी बनाने और एलिजाबेथ की हत्या की साजिश रची। 1586 ई. में बैबिंगटन षड्यंत्र उजागर हुआ, जिसमें मेरी की संलिप्तता सिद्ध हुई। इसके परिणामस्वरूप एलिजाबेथ ने 8 फरवरी 1587 ई. को मेरी स्टुअर्ट को फाँसी दे दी। इस फाँसी ने फिलिप द्वितीय के लिए इंग्लैंड में कैथोलिक सत्ता स्थापित करने की आशा को समाप्त कर दिया।

स्पेनिश आर्मडा और प्रति-धर्मसुधार की विफलता

मेरी स्टुअर्ट की फाँसी और एलिजाबेथ की प्रोटेस्टेंट नीतियों से क्रुद्ध फिलिप द्वितीय ने सैन्य आक्रमण की योजना बनाई। इस समय एलिजाबेथ ने नीदरलैंड के डच प्रोटेस्टेंट विद्रोहियों को सैन्य और आर्थिक सहायता प्रदान की थी और अंग्रेज समुद्री लुटेरे, जैसे फ्रांसिस ड्रेक स्पेनी जहाजों और उपनिवेशों पर हमले कर रहे थे। यह सब फिलिप के लिए असहनीय था। उसने 1588 ई. में अपने कथित ‘अजेय’ स्पेनिश आर्मडा को इंग्लैंड पर आक्रमण के लिए भेजा। इस बेड़े में 130 जहाज, 8,000 नाविक और 18,000 सैनिक शामिल थे और इसका उद्देश्य इंग्लैंड पर कब्जा कर कैथोलिक धर्म को पुनर्स्थापित करना था। लेकिन 8 अगस्त 1588 ई. को इंग्लिश चौनल में ग्रेवलिन्स की लड़ाई में स्पेनिश आर्मडा को इंग्लैंड की नौसेना और खराब मौसम ने ध्वस्त कर दिया। अंग्रेज कमांडरों, जैसे चार्ल्स हॉवर्ड और फ्रांसिस ड्रेक ने छोटे, तेज जहाजों और रणनीतिक हमलों का उपयोग कर आर्मडा को नष्ट कर दिया। बचे हुए जहाज स्कॉटलैंड और आयरलैंड के तटों पर तूफानों में नष्ट हो गए। इस पराजय ने न केवल फिलिप के प्रति-धर्मसुधार के मंसूबों को विफल किया, बल्कि समुद्र पर इंग्लैंड की नौसैनिक शक्ति को स्थापित किया।

प्रति-धर्मसुधार की विफलता के कारण

इंग्लैंड में प्रति-धर्मसुधार की विफलता के कई कारण थे:

 एलिजाबेथ की दूरदर्शिता: एलिजाबेथ ने मध्यम मार्ग अपनाकर न तो कट्टर प्रोटेस्टेंट नीतियाँ लागू कीं और न ही कैथोलिकों का कठोर दमन किया। इससे जनता में राष्ट्रीय एकता बनी रही।

 जनता का कैथोलिक विरोध: मेरी ट्यूडर के शासनकाल में प्रोटेस्टेंटों के दमन और स्पेन के साथ गठजोड़ ने कैथोलिक धर्म को अलोकप्रिय बना दिया।

स्पेनिश आर्मडा की पराजय: यह सैन्य विफलता प्रति-धर्मसुधार की सबसे बड़ी हार थी, जिसने स्पेन की समुद्री शक्ति को कमजोर किया।

मेरी स्टुअर्ट का अंत: मेरी की फाँसी ने कैथोलिकों की आखिरी बड़ी उम्मीद को समाप्त कर दिया।

इंग्लैंड में फिलिप द्वितीय का प्रति-धर्मसुधार आंदोलन पूरी तरह असफल रहा। मेरी ट्यूडर के साथ विवाह, मेरी स्टुअर्ट के माध्यम से साजिश और स्पेनिश आर्मडा के आक्रमण जैसे प्रयासों के बावजूद एलिजाबेथ प्रथम की बुद्धिमानी, राष्ट्रीय एकता और इंग्लैंड की नौसैनिक शक्ति ने प्रोटेस्टेंटवाद को मजबूत किया। 1588 ई. में स्पेनिश आर्मडा की पराजय ने न केवल प्रति-धर्मसुधार को विफल किया, बल्कि इंग्लैंड को एक उभरती हुई वैष्विक शक्ति के रूप में स्थापित किया। यह हार प्रोटेस्टेंटवाद की स्थायी जीत और कैथोलिक प्रभाव की समाप्ति का प्रतीक बन गई।

अन्य देशों में प्रति-धर्मसुधार आंदोलन

प्रति-धर्मसुधार आंदोलन ने यूरोप के विभिन्न देशों में कैथोलिक चर्च की रक्षा और पुनरुत्थान के लिए विविध रणनीतियाँ अपनाईं। यह आंदोलन ट्रेंट की सभा (1545-1563 ई.) के निर्णयों, जेसुइट संघ जैसे धार्मिक संगठनों, इनक्विजिशन (धार्मिक न्यायालय) और शासकों की सैन्य सहायता पर आधारित था।

फ्रांस में प्रति-धर्मसुधार

फ्रांस में प्रोटेस्टेंटवाद ने 16वीं शताब्दी में तेजी से प्रसार किया, विशेषकर कुलीन वर्गों में। प्रति-धर्मसुधार आंदोलन ने कैथोलिक लीग के माध्यम से इसका विरोध किया, जो कट्टर कैथोलिकों का संगठन था। राजा हेनरी तृतीय (1574-1589 ई.) के शासनकाल में धार्मिक युद्ध (1562-1598 ई.) भड़क उठे, जिसमें कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंटों के बीच आठ प्रमुख संघर्ष हुए। इन युद्धों में लगभग 3 मिलियन लोगों की मौत हुई।

ट्रेंट की सभा के प्रभाव से फ्रांस में इनक्विजिशन जैसी संस्थाएँ सक्रिय हुईं और जेसुइट मिशनरियों ने शिक्षा और प्रचार के माध्यम से प्रोटेस्टेंटों को पुनः कैथोलिक बनाने का प्रयास किया। 1589 ई. में हेनरी ऑफ नवार (प्रोटेस्टेंट) ने फ्रांस का राजा हेनरी चतुर्थ बनकर कैथोलिक धर्म अपनाया और 1598 ई. में नैंट का एडिक्ट जारी किया, जो प्रोटेस्टेंटों को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता था। यह प्रति-धर्मसुधार की आंशिक सफलता थी, क्योंकि इससे कैथोलिक वर्चस्व बरकरार रहा, लेकिन प्रोटेस्टेंटों को सह-अस्तित्व की अनुमति मिली। बाद में 1685 ई. में लुई चतुर्दश ने इसे रद्द कर ह्यूगनॉट्स का दमन किया, जिससे हजारों प्रोटेस्टेंट फ्रांस से भाग गए। फ्रांस में प्रति-धर्मसुधार ने प्रोटेस्टेंटवाद को काफी हद तक सीमित कर दिया, लेकिन पूर्ण उन्मूलन न कर सका।

पोलैंड में प्रति-धर्मसुधार

पोलैंड-लिथुआनिया राष्ट्रमंडल में 16वीं शताब्दी में प्रोटेस्टेंटवाद ने कुलीन वर्गों में लोकप्रियता हासिल की, लेकिन प्रति-धर्मसुधार ने इसे प्रभावी ढंग से दबा दिया। राजा सिगिस्मंड द्वितीय ऑगस्ट (1548-1572 ई.) ने शुरू में धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई, लेकिन 1562 ई. के बाद जेसुइट मिशनरियों का आगमन हुआ, जिन्होंने शिक्षा और प्रचार के माध्यम से प्रोटेस्टेंटों को पुनः कैथोलिक बनाने का अभियान चलाया।

ट्रेंट की सभा के निर्णयों को लागू करने के लिए पोलैंड में स्थानीय परिषदें बुलाई गईं और बिशप स्टैनिस्लास होसियस जैसे नेताओं ने प्रोटेस्टेंटवाद को विधर्मी घोषित किया। 1573 ई. के वॉरसॉ कन्फेडरेशन ने धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की, लेकिन 1596 ई. में किंग सिगिस्मंड तृतीय वासा ने यूनियन ऑफ ब्रेस्ट के माध्यम से आर्थोडॉक्स चर्च को कैथोलिक बनाने का प्रयास किया। जेसुइटों ने स्कूल और सेमिनरी स्थापित कर युवाओं को प्रभावित किया। 17वीं शताब्दी के मध्य तक, विशेषकर ‘द डेल्यूज’ (1655-1660 ई.) के बाद प्रोटेस्टेंटवाद को दबा दिया गया। पोलैंड में प्रति-धर्मसुधार पूर्ण सफल रहा और देश मुख्य रूप से कैथोलिक बना रहा, जहाँ प्रोटेस्टेंट अल्पसंख्यक रह गए।

हंगरी में प्रति-धर्मसुधार

हंगरी में प्रोटेस्टेंटवाद ने 16वीं शताब्दी में मजबूत आधार बना लिया, विशेषकर ऑटोमन साम्राज्य के अधीन पूर्वी हंगरी में। प्रति-धर्मसुधार आंदोलन ने हैब्सबर्ग राजवंश (कैथोलिक) के नेतृत्व में इनक्विजिशन और जेसुइट मिशनों के माध्यम से इसका विरोध किया। 1560 ई. के बाद जेसुइटों ने शिक्षा के माध्यम से प्रचार किया और ट्रेंट की सभा के निर्णयों को लागू करने के लिए स्थानीय परिषदें बुलाई गईं।

लेकिन हंगरी के विभाजन ने प्रोटेस्टेंटवाद को संरक्षण प्रदान किया। ट्रांसिल्वेनिया के राजकुमारों ने प्रोटेस्टेंटों को शरण दी। 17वीं शताब्दी में हैब्सबर्गों ने कठोर दमन किया, विशेषकर 1680 के दशक में विद्रोहों के बाद, लेकिन पूर्ण सफलता न मिली। प्रोटेस्टेंटवाद ने प्रतिरोध जारी रखा, और हंगरी में आज भी प्रोटेस्टेंट अल्पसंख्यक मौजूद हैं। प्रति-धर्मसुधार आंशिक सफल रहा, क्योंकि कैथोलिक बहुमत बना रहा, लेकिन प्रोटेस्टेंटवाद को पूरी तरह समाप्त नहीं कर सका।

इटली में प्रति-धर्मसुधार

इटली रोमन कैथोलिक चर्च का केंद्र होने के कारण प्रोटेस्टेंटवाद का प्रसार बहुत सीमित रहा। प्रति-धर्मसुधार ने ट्रेंट की सभा (जो इटली के ट्रेंट नगर में हुई) को आधार बनाकर इनक्विजिशन को मजबूत किया। पोप पॉल तृतीय ने 1542 ई. में रोमन इनक्विजिशन पुनर्जीवित किया, जो प्रोटेस्टेंट विचारों को दबाने और पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाने के लिए सक्रिय हुआ। जेसुइटों ने शिक्षा और कला के माध्यम से कैथोलिक सिद्धांतों को प्रचारित किया।

इटली में प्रोटेस्टेंट प्रभाव मुख्य रूप से बुद्धिजीवियों, जैसे पिएत्रो कार्नेसेची तक सीमित रहा, जिन्हें इनक्विजिशन ने दंडित किया। काउंसिल ऑफ ट्रेंट ने चित्रकला और वास्तुकला को कैथोलिक प्रचार के साधन बनाया, जैसे बर्निनी की मूर्तियाँ। इटली में प्रति-धर्मसुधार पूर्ण सफल रहा, क्योंकि प्रोटेस्टेंटवाद को जड़ से उखाड़ फेंका गया और देश कैथोलिक गढ़ बना रहा।

स्पेन में प्रति-धर्मसुधार

स्पेन में प्रोटेस्टेंटवाद कभी मजबूत न हो सका, लेकिन प्रति-धर्मसुधार ने पहले से मौजूद इनक्विजिशन (1478 ई.) को और मजबूत किया। राजा फिलिप द्वितीय (1556-1598 ई.) ने इसे प्रोटेस्टेंटवाद के खिलाफ हथियार बनाया। इनक्विजिशन ने प्रोटेस्टेंट साहित्य को नष्ट किया और विद्रोहियों को कठोर दंड दिया। जेसुइटों ने शिक्षा के माध्यम से कैथोलिकता को मजबूत किया।

स्पेन ने अपनी सैन्य शक्ति से यूरोप में कैथोलिकता का प्रचार किया, लेकिन आंतरिक रूप से यह आंदोलन प्रोटेस्टेंटवाद को रोकने के बजाय यहूदियों और मुसलमानों (मोरिस्को) के दमन पर केंद्रित रहा। 1492 ई. के बाद स्पेन पूरी तरह कैथोलिक हो गया। प्रति-धर्मसुधार यहाँ सबसे सफल रहा, क्योंकि प्रोटेस्टेंटवाद का कोई आधार ही न बना।

अन्य देशों में प्रति-धर्मसुधार

ऑस्ट्रिया और बोहेमिया (आधुनिक चेक गणराज्य) में हैब्सबर्ग राजवंश ने जेसुइटों और इनक्विजिशन के माध्यम से प्रोटेस्टेंटवाद को दबाया। 1620 ई. के व्हाइट माउंटेन युद्ध के बाद बोहेमिया में प्रोटेस्टेंटों का दमन हुआ और क्षेत्र कैथोलिक हो गया। ऑस्ट्रिया में प्रोटेस्टेंटवाद को लगभग समाप्त कर दिया गया। पुर्तगाल में स्पेन की तरह इनक्विजिशन ने प्रोटेस्टेंट प्रभाव को रोका और देश कैथोलिक बना रहा।

इन देशों में प्रति-धर्मसुधार ने कैथोलिक वर्चस्व को मजबूत किया, लेकिन बोहेमिया जैसे क्षेत्रों में प्रोटेस्टेंट पलायन हुआ। कुल मिलाकर प्रति-धर्मसुधार ने दक्षिणी और पूर्वी यूरोप को कैथोलिक बनाए रखा, लेकिन उत्तरी यूरोप (स्कैंडिनेविया, इंग्लैंड) में असफल रहा।

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