ताम्र-पाषाणिक पशुचारी-कृषक संस्कृतियाँ (Copper-Stone Cattle Cultivator Cultures)

ताम्र-पाषाणिक पशुचारी-कृषक संस्कृति

हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद सिंधु क्षेत्र के बाहर अनेक ग्राम्य-संस्कृतियाँ अस्तित्व में आईं। चूंकि इन पशुचारी-कृषक संस्कृतियों के लोग पत्थर और ताँबे के औजारों का साथ-साथ प्रयोग करते थे, इसलिए इस काल को ‘ताम्र-पाषाणिक पशुचारी-कृषक संस्कृति’ कहा गया है। हड़प्पोत्तरयुगीन भारत में पशुचारी समाज की बस्तियाँ दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण-पूर्वी भारत में दिखाई देती हैं। इन ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों की पहचान इनके द्वारा प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के मृद्भांडों के आधार पर की जाती है। इनमें चार प्रमुख हैं-

  1. अहाड़ संस्कृति या बनास संस्कृति (लगभग ई.पू. 2100-ई.पू. 1500 तक) राजस्थान क्षेत्र में विस्तृत थी,
  2. कायथा संस्कृति (लगभग ई.पू. 2000-ई.पू. 1800 तक) मध्य भारत में नर्मदा, ताप्ती और माही घाटी में फैली हुई थी,
  3. मालवा संस्कृति (ई.पू. 1900-ई.पू. 1400 तक) मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में फैली हुई थी और
  4. जोर्वे संस्कृति (लगभग ई.पू. 1400-ई.पू. 700 तक) महाराष्ट्र क्षेत्र में विस्तृत थी।

इसके अलावा कुछ अन्य संस्कृतियाँ भी थीं, जैसे- सवाल्दा संस्कृति (लगभग ई.पू. 2300-ई.पू. 2000 तक), प्रभास पाटन संस्कृति (लगभग ई.पू. 2000-ई.पू. 1400 तक) तथा रंगपुर संस्कृति (लगभग ई.पू. 1500-ई.पू. 1200 तक) आदि।

दक्षिण-पूर्वी राजस्थान
अहाड़ संस्कृति

दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में स्थित बनास घाटी के अहाड़ (उदयपुर) गिलुंद (चित्तौड़गढ़) और बालाथल (उदयपुर) का उत्खनन किया गया है। यहाँ ताम्रपाषाणिक संस्कृति को ‘अहाड़ संस्कृति’ कहा जाता है। बनास नदी घाटी में स्थित होने के कारण इसे ‘बनास संस्कृति’ भी कहते हैं।

ताम्र-पाषाणिक
ताम्र-पाषाणिक पशुचारी-कृषक संस्कृतियाँ

अहाड़ और गिलुंद दोनों बड़ी बस्तियाँ थीं। अहाड़ में साधारण घर मिट्टी के गारे और पत्थर के बने होते थे। नीवों में पत्थर का प्रयोग होता था। दीवार को बाँस के पर्दों तथा पत्थर की पिंडिकाओं से मजबूत किया जाता था और छतें संभवतः ढलुवा बनाई जाती थीं। गिलुंद के मकानों के निर्माण में पक्की ईंटों के प्रयोग का साक्ष्य भी मिला है। फर्श काली मिट्टी और पीली गाद मिलाकर बनाये जाते थे और कभी-कभी उस पर नदी के पाट की बजरी बिछा दी जाती थी। अहाड़ में तैंतीस फुट दस इंच लंबा एक मकान मिला है और एक कच्ची दीवार से उसके दो हिस्से बना दिये गये थे। कुछ मकानों से कई मुँहवाले चूल्हे मिले हैं। गिलुंद से भंडार- गर्त भी मिले हैं।

अहाड़ संस्कृति के लोग मूलतः कृषक और पशुपालक थे जो गेहूँ, जौ, धान, चना, मूँग और संभवतः बाजरा की खेती करते थे तथा गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअर पालते थे। उत्खनन में मछली, कछुए, मुर्गे, हिरण आदि की अस्थियाँ मिली हैं। इस संस्कृति के मुख्य मृद्भांड काले और लाल रंगों में हैं जिन पर रैखिक और बिंदीदार सफेद आकृतियाँ बनी हैं, किंतु अन्य प्रकार के मृद्भांड भी मिले हैं। अहाड़ अथवा ताम्बवली (ताँबेवाला स्थान) के लोग ताँबे के व्यापक प्रयोग से परिचित थे। इस संस्कृति के लोग ताँबा को अपने घरों में गलाते थे और तैयार ताम्र-उपकरणों को संभवतः मध्य प्रदेश तथा दकन की समकालीन ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों को निर्यात करते थे। अहाड़ में ताँबे से निर्मित सपाट कुल्हाडि़याँ, चूडि़याँ, अंगूठियाँ, सुरमे की सलाइयाँ, चाकू और कई तरह की चादरें मिली हैं। अहाड़ के निकट गणेश्वर नामक स्थल से भी बहुसंख्यक ताम्र-उपकरण प्राप्त हुए हैं। रेडियो कार्बन-तिथि के आधार पर इस संस्कृति का आरंभ ई.पू. 2000 के आसपास माना जाता है। लगभग 1200 ई.पू. में इस संस्कृति का लोप हो गया।

मालवा क्षेत्र

पश्चिमी मध्य प्रदेश में स्थित मालवा क्षेत्र से ताम्र-पाषाणकालीन जीवन-यापन के चिन्ह मिले हैं। कायथा (उज्जैन), एरण, नवदाटोली और माहेश्वर महत्त्वपूर्ण उत्खनित स्थल हैं। कायथा से तीन संस्कृतियों के साक्ष्य मिले हैं- कायथा, अहाड़ तथा मालवा।

इसके पहले कालखंड को ‘कायथा संस्कृति’ (ई.पू. 2200-2000 ई.पू.) कहा जाता है। इसमें चाक द्वारा निर्मित मृद्भांड के तीन नमूने, ताँबे की अनेक कुल्हाडि़याँ और चूडि़याँ, सूक्ष्म पाषाण-उपकरण, बिल्लौर, गोमेद और सेलखड़ी के मनके प्राप्त हुए हैं।

इस स्तर के दूसरे कालखंड में ‘अहाड़ संस्कृति’ (लगभग 2100-1500 ई.पू.) का साक्ष्य मिला है जो दक्षिण-पूर्व राजस्थान में पाई जाती है।

कायथा का तीसरा कालखंड ‘मालवा संस्कृति’ (ई.पू. 1600-1300 ई.पू.) से संबंध रखता है और इसका सबसे उपयुक्त साक्ष्य नवदाटोली से मिला है।

नवदाटोली का उत्खनन एच.डी. सांकलिया ने करवाया था। नवदाटोली में दो किस्म के गेहूँ, अलसी, मसूर, काला चना, हरा चना, हरी मटर और खेसरी की फसलों के साक्ष्य मिले हैं। यह इस महाद्वीप का सबसे विस्तृत उत्खनित ताम्र-पाषाणयुगीन ग्राम-स्थल है। खुदाई में मालवा से प्राप्त होनेवाले मृद्भांड ताम्र-पाषाणिक काल के अन्य मृद्भांडों में सर्वोत्तम माने गये हैं।

महाराष्ट्र क्षेत्र

ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के सर्वाधिक स्थल पश्चिमी महाराष्ट्र में मिलते हैं। अहमदनगर के जोर्वे, नेवासा एवं दायमाबाद, पुणे जिले में सोनगाँव, इनामगाँव आदि महत्त्वपूर्ण स्थलों का उत्खनन किया गया है।

ताम्र-पाषाणिक
ताम्र-पाषाणिक पशुचारी-कृषक संस्कृतियाँ

महाराष्ट्र के आद्य ऐतिहासिक जीवन-यापन का आधारभूत अनुक्रम दायमाबाद में मिलता है। कुछ विद्वानों के अनुसार यहाँ के सबसे आरंभिक सांस्कृतिक स्तर पर सिंधु सभ्यता का प्रभाव परिलक्षित होता है। दूसरे कालखंड का संबंध दक्षिण-पूर्व राजस्थान की ‘अहाड़ संस्कृति’ से है जबकि तीसरा कालखंड मध्य भारत की मालवा संस्कृति से प्रभावित है।

जोर्वे संस्कृति

ताम्र-पाषाणिक संस्कृति चौथे स्तर पर पाई जाती है जिसे ‘जोर्वे संस्कृति’ कहा जाता है और जो ठेठ महाराष्ट्र की संस्कृति है। सामान्यतया इस संस्कृति की तिथि 1400 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच मानी जाती है, किंतु इनामगाँव जैसे कुछ स्थलों पर वह संभवतः ई.पू. 700 तक विद्यमान रही। चाक निर्मित मृद्भांडों के लाल तल पर काली आकृतियाँ मिलती हैं और इनका एक विशिष्ट नमूना टोंटीदार तथा नौतली बर्तन है। ताँबे की वस्तुओं में चूडि़याँ, मनकें, फलक, छेनियाँ, सलाइयाँ, कुल्हाडि़याँ, छूरे और छोटे-छोटे बर्तन इत्यादि सम्मिलित हैं।

दायमाबाद से ताँबे की चार चादरें मिली हैं- रथ चलाते हुए मनुष्य, गैंडे और हाथी की आकृतियाँ, जिनमें प्रत्येक ठोस धातु की है और जिनका संबंध आद्य ऐतिहासिक काल से या स्वयं जोर्वे संस्कृति से जोड़ा जा सकता है।

प्रमुख अनाजों में जौ, गेहूँ, मसूर, कुलिथ, मटर और कहीं-कहीं चावल भी है। बेर की झुलसी हुई गुठलियाँ भी मिली हैं। नेवासा में पटसन का भी साक्ष्य मिलता है। पालतू पशुओं में गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़, सुअर और घोड़ा सम्मिलित थे। इनामगाँव से मातृदेवी की कच्ची मिट्टी की एक आकृति के साथ साँड़ की आकृति जुड़ी मिली है। यद्यपि यह ग्रामीण संस्कृति थी, किंतु कुछ भागों, जैसे- दायमाबाद एवं इनामगाँव में नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी।

दक्षिण भारत

दक्षिण भारत के आधुनिक कर्नाटक, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में ताम्र-पाषाणिक तत्त्वों का प्रसार दिखाई देता है। कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच रायचूर दोआब के ब्रह्मगिरि, मास्की, पिकलीहल, उतनूर, संगनकल्लू, पायमपल्ली, हेम्मिगे, नागार्जुनकोंडा, कोडेकल इत्यादि स्थलों का उत्खनन किया गया है। इस सांस्कृतिक चरण से अनेक रेडियो कार्बन-तिथियाँ प्राप्त की गई हैं जो मोटेतौर पर ई.पू. 2300 से 900 ई.पू. के बीच पड़ती हैं। मृद्भांड और पॉलिशदार पत्थर के उद्योग में पर्याप्त विविधता देखने को मिलती है। ताँबा कभी प्रचुर मात्रा में नहीं था। संभव है कि दक्षिण भारत के स्वर्ण क्षेत्र का उपयोग इसी काल से होने लगा हो क्योंकि टेक्लाकोटा से सोने की एक लटकन मिली है। खेती-योग्य फसलों में बाजरा और चना मिला है।

भेड़, बकरियों के विस्तृत अवशेष मिले हैं जिससे पालतू पशुओं के महत्त्व का संकेत मिलता है। कहा जाता है कि इस संस्कृति के आरंभिक चरण के लोग किसान कम, चरवाहे अधिक थे। आंध्र प्रदेश के अनेक स्थलों से भी ताम्रयुगीन जीवन-यापन के संकेत मिले हैं।

पूर्वी भारत

ताम्र-पाषाणिक जीवन-यापन का साक्ष्य पश्चिम बंगाल में वीरभूमि, बर्दवान, मिदनापुर और बाँकुड़ा से प्राप्त हुआ है। पांडुराजार, ढिबि एवं महिशाल प्रमुख उत्खनित स्थल हैं। यहाँ से चावल पर आधारित ताम्र-पाषाणयुगीन ग्राम-संस्कृति का प्रमाण मिलता है जिसका समय लगभग ई.पू. दूसरी सहस्राब्दी के मध्य माना जा सकता है। उड़ीसा के अनेक स्थानों से भी ताम्र-पाषाणिक उपकरण पाये गये हैं। बिहार के चिरांद और सोनपुर, पूर्वी उत्तर प्रदेश के खैराडीह और नौहान से ताम्र-पाषाणयुगीन काले-लाल मृद्भांड मिले हैं।

इलाहाबाद के हवेलिया ग्राम से भी इस काल के साक्ष्य मिलते हैं। इस संस्कृति का समय लगभग ई.पू. 1500-700 ई.पू. माना जाता है।

ऊपरी गंगा घाटी और गंगा-यमुना का दोआब

ऊपरी गंगा घाटी और गंगा-यमुना के दोआब की सांस्कृतिक परंपरा गेरुए मृद्भांड (ओ.सी.पी.) संस्कृति से प्रारंभ होती है। यह संस्कृति उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के मायापुर से लेकर इटावा के साईपाई तक फैली हुई थी। साईपाई से प्राप्त एक तलवार और एक मत्स्य भाले का सिरा स्पष्ट रूप से गेरुए मृद्भांड से संबंधित है। गंगा घाटी में कुल्हाड़ियाँ, मत्स्य भाले, श्रृंगिकायुक्त तलवारें इत्यादि ताम्र-उपकरण मिले हैं जिन्हें ‘गंगा घाटी ताम्रनिधि’ कहा गया है। अनेक पुराविद् इन ताम्र-निधियों को गेरुए मृद्भांड संस्कृति से जोड़ते हैं। इसका काल सामान्यतया ई.पू. 2000-1500 माना जाता है।

अतरंजीखेड़ा से एक विशिष्ट प्रकार की मृद्भांड शैली मिली है, जिसे काले-लाल मृद्भांड शैली (डब्लू.आर.डब्लू.) कहते हैं। यह गेरुए भांड और चित्रित धूसर भांड संस्कृति के बीच के काल की शैली है। पतली दीवारोंवाले काले-लाल मृद्भांड शैली के मृद्भांडों के भीतर और किनारे पर काला रंग तथा शेष हिस्सों पर लाल रंग मिलता है। दोआब की सांस्कृतिक परंपरा का अगला चरण चित्रित धूसर मृद्भांड संस्कृति (पी.जी.डब्लू.) से संबंधित है जिसमें लोहे का संकेत मिलता है, यद्यपि हरियाणा और पंजाब के कुछ क्षेत्रों, जैसे- दधेरी, भगवानपुरा आदि स्थलों से इस मृद्भांड का संबंध लौहरहित काल से है।

ताम्र-पाषाणिक संस्कृति की विशेषताएँ

चित्रित मृद्भांड

भारत में दूसरी और पहली सहस्राब्दी ई.पू. में विकसित इन स्थानीय प्राक् कृषक ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों में कुछ तत्त्व समान थे। इनकी महत्त्वपूर्ण विशेषता चाक पर निर्मित विशिष्ट शैली में चित्रित मृद्भांड हैं। चित्रित आकृतियाँ प्रायः ज्यामितीय हैं। कुछ मृद्भांड अंतर्संपर्क का संकेत देते हैं। अधिकांश मृद्भांडों पर काला और लाल रंग होता था। कायथा में लाल रंग से रंगे मृद्भांड पर भूरे या चाकलेटी रंग से आकृति बनाई गई है। अहाड़ में लाल, काला और सफेद डिजाइन किया गया है। खुरदरी सतह पर लाल या काले डिजाइन कुछ प्रमुख मृद्भांड शैलियाँ हैं। इसके अतिरिक्त चिकनी सतह पर लाल रंग (प्रभास पटन और रंगपुर संस्कृति) भी एक महत्त्वपूर्ण मृद्भांड शैली है। इस काल में मृद्भांड-तकनीक में विशेष प्रगति परिलक्षित होती है। चित्रित मृद्भांड भट्ठी में 500 से 700 डिग्री सेल्सियस तापमान पर पकाये जाते थे।

ताम्र-पाषाणिक उपकरण

पत्थर के ब्लेड/शल्क उद्योग इन संस्कृतियों की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। चेल्सेडनी, चर्ट, जैस्पर और एगेट जैसे पत्थरों से समानांतर सिरों वाले ब्लेड, दाँतेदार ब्लेड, एक सिरे से पैने ब्लेड, छोटे चाकू, अर्द्धचंद्राकार, त्रिकोण और समलंब जैसे उपकरण बनाये जाते थे। इनमें से कुछ ब्लेडों की धार चमकदार है, जिससे संकेत मिलता है कि ये उपकरण खेती के काम में लाये जाते थे। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश की नवपाषाण-ताम्रपाषाण प्रकार की पॉलिशदार हस्तकुठार भी कुछ स्थलों से प्राप्त हए हैं। ताँबे के उपकरणों में समतल कुठार और सेल्ट हैं जिनके किनारे अवतल हैं। इसके अतिरिक्त तीर के अग्रभाग, भाले के अग्रभाग, मछली पकड़ने का काँटा, तलवार, ब्लेड, चूड़ियाँ, अँगूठी और मनके भी ताँबे के बनाये जाते थे। कायथा से एक बर्तन में 28 ताँबे की चूड़ियाँ मिली हैं। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में सूत एवं रेशम के धागे तथा कायथा में मिले मनके के हार के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि ताम्र-पाषाण काल में लोग कताई-बुनाई एवं स्वर्णकारी के व्यवसाय से परिचित थे।

निर्वाह-योग्य अर्थव्यवस्था

प्रायः सभी ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ काली मिट्टीवाले अर्द्धशुष्क क्षेत्र में विकसित हुईं, जैसे- राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र।

अर्थव्यवस्था निर्वाह-योग्य कृषि और पशुपालन पर आधारित थी। जंगली शिकार पर निर्भरता तथा अन्य पदार्थों पर निर्भरता, जैसे-मछली पकड़ना आदि की भी कुछ स्थलों से पुष्टि होती है। जौ, गेहूँ, धान, बाजरा, ज्वार, मसूर, चना, संबूल की फली, मटर, काला चना और हरा चना उगाई जानेवाली मुख्य फसलें थीं।

उत्खनन में पालतू और जंगली दोनों ही प्रकार के जानवरों के अवशेष प्राप्त होते हैं। गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सूअर और ऊँट जैसे पशुओं को पालतू बनाते थे। जानवरों की हड्डियाँ काटे जाने और घिसाव के निशान से लगता है कि जानवरों को भोजन के लिए प्रयोग किया जाता था।

समुद्री मछलियों की प्रजातियों के अवशेष इनामगाँव से मिले हैं। ताम्रपाषाणिक समूह अपने समकालीन समूहों से वस्तुओं का लेन-देन और व्यापार करते थे। कुछ विस्तृत बस्तियाँ, जैसे- अहाड़, गिलुंद, नागदा, नवदाटोली, प्रभास पटन, रंगपुर, प्रकाश, दायमाबाद और इनामगाँव व्यापार और विनिमय के प्रमुख केंद्र थे। अहाड़ संस्कृति के लोग ताम्र-उपकरणों को संभवतः मध्य प्रदेश तथा दकन की समकालीन संस्कृतियों को निर्यात करते थे।

बस्तियाँ और आवास

इसी काल के लोगों ने सर्वप्रथम भारतीय प्रायद्वीप में बड़े-बड़े गाँवों की स्थापना की। अहाड़ संस्कृति के बालाथल और गिलुंद से बड़ी बस्तियों के साक्ष्य मिले हैं। ताम्र-पाषाणिक स्थलों से कुछ किलेबंद बस्तियों के प्रमाण भी मिले हैं। बालाथल के चारों ओर किलेनुमा दीवार थी। एरण और नागदा में जोर्वे काल के दौरान स्थल के चारों ओर पत्थर के रोड़े और मिट्टी से दीवार बनाई गई है। घर समूह में बनाते थे और दो घरों के बीच लगभग 1.5 मी. चौड़ी गली होती थी। मिट्टी के गारा से लीपकर आयताकार, वर्गाकार या वृत्ताकार मकान बनाये जाते थे। नवदाटोली से घास-फूस और बाँस से बने चौकोर तथा वृत्ताकार घर प्राप्त हुए हैं। कुछ छोटे वृत्ताकार घर संभवतः अन्न रखने की कोठरियाँ थीं जिससे पता चलता है कि लोग अपने घरों में पर्याप्त अनाज का भंडार कर लेते थे। छतें घास-फूस की बनाई जाती थी, जिन्हें बाँस या लकड़ी के फट्टों से सहारा दिया जाता था। फर्श भी मिट्टी से लीपे जाते थे। जोर्वे संस्कृति के अंतर्गत एक पाँच कमरोंवाले मकान का अवशेष मिला है। नेवासा में घर का सामान्य आकार 3 गुणे 7 फीट था। सबसे बड़े घर की माप 45 गुणे 20 फीट थी। गर्त-निवास के भी कुछ उदाहरण मिलते हैं।

शवाधान

महाराष्ट्र में शवों को अस्थि-कलश में घरों में फर्श के नीचे दफनाया जाता था। दक्षिण भारत में प्राप्त शवों के सिर पूर्व और पैर पश्चिम की ओर एवं महाराष्ट्र में प्राप्त शवों के सिर उत्तर की ओर एवं पैर दक्षिण की ओर मिले हैं। पश्चिमी भारत में लगभग संपूर्ण शवाधान एवं पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान का प्रचलन था। जोर्वे चरण में वयस्कों के नीचे के टखने को संभवतः किसी कर्मकांडीय कारण से काट लिया जाता था। कुछ वयस्क शवाधानों में बर्तनों में उपहार भी रखे जाते थे। परवर्ती जोर्वे चरण से एक शवाधान में पंद्रह बर्तन प्राप्त हुए हैं। दो कलशों में दफनाये गये एक बच्चे का शव मिला है जिसके गले में लाल जैस्पर और ताँबे के मनके का हार मिला है। पश्चिम महाराष्ट्र में चंदोली और नेवासा में दफनाये गये कुछ बच्चों के गले में ताँबे के मनके पाये गये हैं। इनामगाँव के उत्खनन में कुछ विचित्र शवाधान भी प्राप्त हुए हैं। यहाँ से कच्ची मिट्टी का बना एक चार पैरों वाला विशाल अस्थि-कलश मिला है जो 80 से.मी. लम्बा और 50 से.मी. चौड़ा है। इसके भीतर लगभग चालीस वर्षीय एक पुरुष-कंकाल बैठी स्थिति में प्राप्त हुआ है। इसके घुटने के नीचे का भाग काटा नहीं गया है। शव के निकट से एक बर्तन मिला है जिसमें लंबे चंपुओं के साथ एक नाव का अंकन है।

धर्म और धार्मिक विश्वास

सभी ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों में वृषभ एवं मातृदेवी की पूजा का महत्त्व था। ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों के विभिन्न स्थलों पर बड़ी संख्या में मिट्टी के बने बैल प्राप्त हुए हैं। कुछ प्रतिमाओं में कूबड़दार बैल को प्रमुखता से प्रदर्शित किया गया है। इससे लगता है कि बैल इन संस्कृतियों में धार्मिक महत्त्ववाला पशु था। नेवासा और इनामगाँव से बड़ी संख्या में सिररहित नारी-प्रतिमाएँ मिली हैं। इनामगाँव से प्राप्त एक सिररहित नारी-प्रतिमा का वक्षस्थल भारी है और इसके साथ मिट्टी के बैल की प्रतिमा भी बनाई गई है। इनामगाँव की इस नारी-प्रतिमा सहित अन्य प्रतिमाएँ कुछ पुराविदों के अनुसार प्रारंभिक ऐतिहासिक काल की शाकंभरी देवी का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह वनस्पति और उर्वरता की देवी थी जिसकी पूजा संभवतः अकाल से बचने के लिए की जाती थी। ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों में यद्यपि पुरुष-प्रतिमाएँ कम मिली हैं, किंतु इनामगाँव से मिली दो कच्ची एवं एक पक्की पुरुष-प्रतिमाओं को देव-प्रतिमा बताया गया है। इसी प्रकार दायमाबाद से मिले ढ़ाले हुए ठोस ताँबे के हाथी और बैल का भी धार्मिक महत्त्व प्रतीत होता है। कई ताम्र-पाषाणिक स्थलों से अग्निवेदी मिलने का दावा किया गया है जिससे अग्निपूजा की संभावना व्यक्त की गई है।

इस प्रकार ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों में स्थानीय तत्त्वों की प्रधानता के साथ-साथ इनमें परस्पर व्यापारिक-संपर्क और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के भी प्रमाण मिलते हैं। धातु-प्रयोक्ता ये पशुचारी कृषक-समूह दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. के दौरान विकसित हुए और पहली शताब्दी ई.पू. के आसपास लुप्त हो गये। केवल परवर्ती जोर्वे चरण ही 700 ई.पू. तक बना रहा। इन संस्कृतियों के लुप्त हो जाने का कारण वातावरण में बढ़ती शुष्कता और जलवायु की प्रतिकूलता रही होगी। गोदावरी, ताप्ती और दूसरी घाटियों की ये बस्तियाँ सुनसान हो गई और पाँच-छः लंबे शतकों के बाद चौथी और पाँचवी शताब्दी ई.पू. में द्वितीय नगरीकरण के द्वारा पुनः आबाद हुईं।

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