ताम्र-पाषाणिक पशुचारी-कृषक संस्कृतियाँ (Copper-Stone Cattle Cultivator Cultures)

ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियाँ हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद लगभग दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. में, सिंधु क्षेत्र […]

ताम्र-पाषाणिक पशुचारी-कृषक संस्कृतियाँ (Copper-Stone Cattle Cultivator Cultures)

ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियाँ

हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद लगभग दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. में, सिंधु क्षेत्र के बाहर भारत के विभिन्न हिस्सों में अनेक ग्राम्य-संस्कृतियों का उदय हुआ, जो पशुपालन और कृषि पर आधारित थीं और पत्थर के साथ-साथ ताँबे के औजारों का उपयोग करती थीं। इस कारण इन्हें ‘ताम्र-पाषाणिक पशुचारी-कृषक संस्कृतियाँ’ कहा जाता है। ये बस्तियाँ मुख्य रूप से दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में पाई गई हैं। इन संस्कृतियों की पहचान उनके विशिष्ट मृद्भांडों के आधार पर की जाती है। हाल के शोधों से इन संस्कृतियों के व्यापारिक संपर्क, पर्यावरणीय प्रभावों और सामाजिक संरचना पर प्रकाश पड़ता है, जो इनके विकास और पतन को समझने में सहायक हैं।

प्रमुख ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियाँ

इन ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों में चार प्रमुख संस्कृतियाँ शामिल हैं- अहाड़ (बनास) संस्कृति, कायथा संस्कृति, मालवा संस्कृति और जोर्वे संस्कृति। इसके अतिरिक्त, सवाल्दा, प्रभास पाटन और रंगपुर जैसी अन्य संस्कृतियाँ भी थीं। ये संस्कृतियाँ निम्नलिखित हैं-

अहाड़ (बनास) संस्कृति: यह संस्कृति दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में, लगभग ई.पू. 2100 से ई.पू. 1500 तक विस्तृत थी।

कायथा संस्कृति: यह मध्य भारत में, नर्मदा, ताप्ती और माही घाटी में, लगभग ई.पू. 2000 से ई.पू. 1800 तक फैली थी।

मालवा संस्कृति: यह मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में, लगभग ई.पू. 1900 से ई.पू. 1400 तक सक्रिय थी।

जोर्वे संस्कृतिः यह महाराष्ट्र में, लगभग ई.पू. 1400 से ई.पू. 700 तक विस्तृत थी।

अन्य संस्कृतियाँ: सवाल्दा संस्कृति (लगभग ई.पू. 2300-2000), प्रभास पाटन संस्कृति (लगभग ई.पू. 2000-1400) और रंगपुर संस्कृति (लगभग ई.पू. 1500-1200) भी इस काल में उल्लेखनीय थीं।

हाल के शोधों से इन संस्कृतियों के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के साक्ष्य मिले हैं, विशेष रूप से ताँबे के उपकरणों और मृद्भांडों के विनिमय के रूप में। पर्यावरणीय परिवर्तन, जैसे जलवायु में शुष्कता संभवतः इन संस्कृतियों के पतन में एक प्रमुख कारक थे।

दक्षिण-पूर्वी राजस्थान

अहाड़ (बनास) संस्कृति

दक्षिण-पूर्वी राजस्थान की बनास नदी घाटी में अहाड़ (उदयपुर), गिलुंद (चित्तौड़गढ़) और बालाथल (उदयपुर) जैसे स्थलों का उत्खनन किया गया है। इस क्षेत्र की ताम्र-पाषाणिक संस्कृति को ‘अहाड़ संस्कृति’ या ‘बनास संस्कृति’ कहा जाता है। अहाड़ और गिलुंद बड़ी बस्तियाँ थीं, जहाँ मकान मिट्टी के गारे और पत्थरों से बनाए जाते थे। नींव में पत्थरों का उपयोग होता था, और दीवारों को बाँस के पर्दों या पत्थर की पिंडिकाओं से मजबूत किया जाता था। छतें ढलवाँ थीं, और गिलुंद में पक्की ईंटों के उपयोग के साक्ष्य भी मिले हैं। फर्श काली मिट्टी और पीली गाद से बनाए जाते थे, जिन पर कभी-कभी नदी की बजरी बिछाई जाती थी। अहाड़ में 33 फीट 10 इंच लंबा एक मकान मिला है, जिसे कच्ची दीवार से दो हिस्सों में बाँटा गया था। गिलुंद से भंडार-गर्त और कई मुँहवाले चूल्हे भी प्राप्त हुए हैं।

ताम्र-पाषाणिक
ताम्र-पाषाणिक पशुचारी-कृषक संस्कृतियाँ

इस संस्कृति के लोग मुख्य रूप से कृषक और पशुपालक थे। वे गेहूँ, जौ, धान, चना, मूँग और संभवतः बाजरा की खेती करते थे, साथ ही गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सुअर पालते थे। उत्खनन में मछली, कछुए, मुर्गे और हिरण की अस्थियाँ मिली हैं, जो शिकार और मत्स्य पालन की ओर संकेत करती हैं। मृद्भांड मुख्य रूप से काले और लाल रंगों में थे, जिन पर सफेद रैखिक और बिंदीदार आकृतियाँ बनी थीं। अहाड़ के लोग ताँबे के उपकरणों, जैसे सपाट कुल्हाड़ियाँ, चूड़ियाँ, अंगूठियाँ, सुरमे की सलाइयाँ और चाकू, का निर्माण घरों में करते थे। गणेश्वर (अहाड़ के निकट) से प्राप्त ताम्र-उपकरणों से पता चलता है कि यहाँ ताँबा मध्य प्रदेश और दक्कन की समकालीन संस्कृतियों को निर्यात किया जाता था। रेडियो कार्बन तिथियों के आधार पर इस संस्कृति का काल ई.पू. 2100 से ई.पू. 1200 तक माना जाता है। हाल के शोधों ने सुझाव दिया है कि जलवायु परिवर्तन और नदी घाटियों में जल की कमी इस संस्कृति के लोप का कारण हो सकती है।

मालवा क्षेत्र

कायथा और मालवा संस्कृतियाँ

पश्चिमी मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में कायथा, एरण, नवदाटोली और माहेश्वर जैसे स्थलों से ताम्र-पाषाणिक जीवन के साक्ष्य मिले हैं। कायथा में तीन संस्कृतियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं- कायथा संस्कृति (ई.पू. 2200-2000), अहाड़ संस्कृति (ई.पू. 2100-1500) और मालवा संस्कृति (ई.पू. 1600-1300)।

कायथा संस्कृति में चाक-निर्मित मृद्भांड, ताँबे की कुल्हाड़ियाँ, चूड़ियाँ, सूक्ष्म पाषाण-उपकरण, और बिल्लौर, गोमेद व सेलखड़ी के मनके मिले हैं। अहाड़ संस्कृति के साक्ष्य इस क्षेत्र में दक्षिण-पूर्वी राजस्थान से सांस्कृतिक आदान-प्रदान को दर्शाते हैं। मालवा संस्कृति का सबसे प्रमुख साक्ष्य नवदाटोली से मिला है, जिसका उत्खनन एच.डी. सांकलिया ने किया था। नवदाटोली में दो प्रकार के गेहूँ, अलसी, मसूर, काला चना, हरा चना, हरी मटर और खेसरी की फसलों के अवशेष मिले हैं। यह भारत का सबसे विस्तृत ताम्र-पाषाणिक ग्राम-स्थल है। मालवा संस्कृति के मृद्भांड अपनी उत्कृष्ट शिल्पकला के लिए प्रसिद्ध हैं, जिनमें ज्यामितीय आकृतियाँ और काले-लाल रंगों का उपयोग प्रमुख है। नए शोधों से पता चलता है कि मालवा क्षेत्र व्यापार का केंद्र था, और यहाँ से ताँबे के उपकरण अन्य क्षेत्रों में निर्यात किए जाते थे।

ताम्र-पाषाणिक
ताम्र-पाषाणिक पशुचारी-कृषक संस्कृतियाँ

महाराष्ट्र क्षेत्र

जोर्वे संस्कृति

पश्चिमी महाराष्ट्र में जोर्वे, नेवासा, दायमाबाद, सोनगाँव और इनामगाँव जैसे स्थलों से ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के अवशेष मिले हैं। दायमाबाद में सांस्कृतिक अनुक्रम से पता चलता है कि यहाँ का प्रारंभिक स्तर हड़प्पा सभ्यता से प्रभावित था, दूसरा स्तर अहाड़ संस्कृति से, और तीसरा मालवा संस्कृति से। चौथा स्तर जोर्वे संस्कृति (ई.पू. 1400-700) का है, जो महाराष्ट्र की विशिष्ट संस्कृति है। जोर्वे संस्कृति के मृद्भांड लाल तल पर काली ज्यामितीय आकृतियों और टोंटीदार बर्तनों के लिए प्रसिद्ध हैं। ताँबे के उपकरणों में चूड़ियाँ, मनके, फलक, छेनियाँ, सलाइयाँ, कुल्हाड़ियाँ और छोटे बर्तन शामिल हैं। दायमाबाद से प्राप्त ताँबे की चार चादरें (रथ, गैंडा, हाथी और साँड़) इस काल की शिल्पकला को दर्शाती हैं।

जोर्वे संस्कृति में जौ, गेहूँ, मसूर, कुलिथ, मटर और चावल की खेती होती थी। बेर की गुठलियाँ और पटसन के साक्ष्य भी मिले हैं। पालतू पशुओं में गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़, सुअर और घोड़ा शामिल थे। इनामगाँव से मातृदेवी और साँड़ की मिट्टी की प्रतिमाएँ मिली हैं, जो धार्मिक प्रथाओं को दर्शाती हैं। हाल के शोधों से संकेत मिलता है कि जोर्वे संस्कृति में नगरीकरण की प्रारंभिक प्रक्रिया शुरू हो गई थी, विशेष रूप से दायमाबाद और इनामगाँव में, जहाँ किलेबंद बस्तियाँ और व्यापारिक केंद्र विकसित हुए थे।

दक्षिण भारत

दक्षिण भारत के कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में ताम्र-पाषाणिक तत्त्वों के प्रसार के साक्ष्य ब्रह्मगिरि, मास्की, पिकलीहल, उतनूर, संगनकल्लू, पायमपल्ली, हेम्मिगे, नागार्जुनकोंडा और कोडेकल जैसे स्थलों से मिले हैं। इनका काल रेडियो कार्बन तिथियों के आधार पर ई.पू. 2300 से 900 तक माना जाता है। मृद्भांडों में विविधता और पॉलिशदार पत्थर के उपकरण प्रमुख हैं। टेक्लाकोटा से प्राप्त सोने की लटकन से संकेत मिलता है कि इस काल में स्वर्ण का उपयोग शुरू हो गया था। बाजरा और चना मुख्य फसलें थीं, और भेड़-बकरियों के अवशेष पशुपालन के महत्त्व को दर्शाते हैं। नए शोधों के अनुसार, दक्षिण भारत की ये संस्कृतियाँ प्रारंभिक चरण में चरवाहा-प्रधान थीं, जो बाद में कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था में विकसित हुईं।

पूर्वी भारत

पूर्वी भारत में पश्चिम बंगाल के वीरभूम, बर्दवान, मिदनापुर और बाँकुड़ा, साथ ही उड़ीसा, बिहार के चिरांद और सोनपुर, और पूर्वी उत्तर प्रदेश के खैराडीह और नौहान से ताम्र-पाषाणिक साक्ष्य मिले हैं। पांडुराजार ढिबि और महिशाल जैसे स्थलों से चावल-आधारित ग्राम-संस्कृति के प्रमाण हैं, जिनका काल ई.पू. 1500-700 माना जाता है। काले-लाल मृद्भांड इस क्षेत्र की विशेषता हैं। हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि पूर्वी भारत में ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियाँ स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल थीं और चावल की खेती पर विशेष जोर देती थीं।

ऊपरी गंगा घाटी और गंगा-यमुना दोआब

ऊपरी गंगा घाटी और गंगा-यमुना दोआब में गेरुए मृद्भांड (ओ.सी.पी.) संस्कृति प्रमुख थी, जो सहारनपुर के मायापुर से इटावा के साईपाई तक फैली थी। साईपाई से प्राप्त तलवार और मत्स्य भाले का सिरा इस संस्कृति से संबंधित है। ‘गंगा घाटी ताम्रनिधि’ में कुल्हाड़ियाँ, मत्स्य भाले और श्रृंगिकायुक्त तलवारें शामिल हैं, जिनका काल ई.पू. 2000-1500 माना जाता है। अतरंजीखेड़ा से काले-लाल मृद्भांड (डब्लू.आर.डब्लू.) शैली मिली है, जो गेरुए और चित्रित धूसर भांड (पी.जी.डब्लू.) संस्कृतियों के बीच की कड़ी है। नए शोधों से संकेत मिलता है कि इस क्षेत्र में ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियाँ हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद स्थानीय संसाधनों पर आधारित थीं और व्यापारिक नेटवर्क के माध्यम से अन्य क्षेत्रों से जुड़ी थीं।

ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियों की विशेषताएँ

चित्रित मृद्भांड

इन संस्कृतियों की प्रमुख विशेषता चाक-निर्मित चित्रित मृद्भांड थी। आकृतियाँ प्रायः ज्यामितीय थीं, और मृद्भांडों पर काला, लाल और सफेद रंगों का उपयोग होता था। कायथा में भूरे या चॉकलेटी रंग से चित्रित लाल मृद्भांड, और अहाड़ में काले-सफेद डिज़ाइन प्रमुख थे। प्रभास पाटन और रंगपुर में चिकनी सतह पर लाल रंग की शैली प्रचलित थी। मृद्भांड 500-700 डिग्री सेल्सियस पर भट्ठियों में पकाए जाते थे, जो तकनीकी प्रगति को दर्शाता है। हाल के शोधों से पता चलता है कि मृद्भांडों की शैलियाँ क्षेत्रीय व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को दर्शाती हैं।

ताम्र-पाषाणिक उपकरण

पत्थर के ब्लेड और शल्क उद्योग इन संस्कृतियों की विशेषता थे। चेल्सेडनी, चर्ट, जैस्पर और एगेट से बने समानांतर ब्लेड, दाँतेदार ब्लेड, चाकू, अर्द्धचंद्राकार और त्रिकोण उपकरण प्रचलित थे। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में पॉलिशदार हस्तकुठार भी मिले हैं। ताँबे के उपकरणों में समतल कुठार, सेल्ट, तीर और भाले के अग्रभाग, चूड़ियाँ, अंगूठियाँ और मनके शामिल थे। कायथा से 28 ताँबे की चूड़ियाँ मिली हैं। सूत, रेशम और मनके के हार कताई-बुनाई और स्वर्णकारी व्यवसाय की ओर संकेत करते हैं। नए अध्ययनों से पता चलता है कि ताँबे का व्यापार इन संस्कृतियों की अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण हिस्सा था।

निर्वाह-योग्य अर्थव्यवस्था

ये संस्कृतियाँ काली मिट्टी वाले अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में विकसित हुईं। अर्थव्यवस्था कृषि और पशुपालन पर आधारित थी। जौ, गेहूँ, धान, बाजरा, मसूर, चना, मटर और काला चना मुख्य फसलें थीं। पालतू पशुओं में गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सुअर और ऊँट शामिल थे। मछली पकड़ना और शिकार भी प्रचलित था। अहाड़, गिलुंद, नवदाटोली और दायमाबाद जैसे स्थल व्यापारिक केंद्र थे। शोधों से संकेत मिलता है कि ये समुदाय क्षेत्रीय और अंतर-क्षेत्रीय व्यापार में सक्रिय थे।

बस्तियाँ और आवास

इन संस्कृतियों ने बड़े गाँवों की स्थापना की। बालाथल और गिलुंद में किलेबंद बस्तियाँ थीं। घर आयताकार, वर्गाकार या वृत्ताकार थे, जिन्हें मिट्टी के गारे, बाँस और घास-फूस से बनाया जाता था। नवदाटोली में चौकोर और वृत्ताकार घर मिले हैं। जोर्वे संस्कृति में पाँच कमरों वाला मकान और नेवासा में 45Û20 फीट का बड़ा घर मिला है। गर्त-निवास और भंडार-गर्त भी प्राप्त हुए हैं। हाल के शोधों से पता चलता है कि ये बस्तियाँ सामाजिक संगठन और स्थानीय संसाधनों के उपयोग को दर्शाती हैं।

शवाधान

महाराष्ट्र में शवों को अस्थि-कलश में फर्श के नीचे दफनाया जाता था। दक्षिण भारत में शवों के सिर पूर्व और पैर पश्चिम की ओर, जबकि महाराष्ट्र में सिर उत्तर और पैर दक्षिण की ओर मिले हैं। पश्चिमी भारत में पूर्ण शवाधान और पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान प्रचलित था। जोर्वे चरण में वयस्कों के टखने काटे जाते थे। इनामगाँव से चार पैरों वाला विशाल अस्थि-कलश (80Û50 से.मी.) मिला है, जिसमें एक पुरुष कंकाल बैठी स्थिति में था। नए शोधों से पता चलता है कि शवाधान प्रथाएँ धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं से जुड़ी थीं।

धर्म और धार्मिक विश्वास

वृषभ और मातृदेवी की पूजा इन संस्कृतियों में महत्त्वपूर्ण थी। इनामगाँव और नेवासा से सिररहित नारी-प्रतिमाएँ और बैल की मूर्तियाँ मिली हैं, जो शाकंभरी देवी (उर्वरता की देवी) से संबंधित हो सकती हैं। दायमाबाद से ताँबे की ठोस मूर्तियाँ (हाथी, बैल) धार्मिक महत्त्व को दर्शाती हैं। अग्निवेदियों के साक्ष्य अग्निपूजा की संभावना दर्शाते हैं। हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि ये धार्मिक प्रथाएँ पर्यावरणीय और सामाजिक आवश्यकताओं से प्रभावित थीं।

ताम्र-पाषाणिक संस्कृतियाँ स्थानीय तत्त्वों के साथ-साथ व्यापारिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का सूचक हैं। ये दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. में विकसित हुईं और पहली सहस्राब्दी ई.पू. के आसपास लुप्त हो गईं। जोर्वे संस्कृति कुछ स्थलों पर ई.पू. 700 तक बनी रही। हाल के शोधों के अनुसार बढ़ती शुष्कता और जलवायु परिवर्तन इनके पतन के प्रमुख कारण थे। ये संस्कृतियाँ भारतीय उपमहाद्वीप में द्वितीय नगरीकरण की नींव रखने में महत्त्वपूर्ण थीं, जो चौथी-पाँचवीं शताब्दी ई.पू. में शुरू हुआ।

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