चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (Chandragupta II ‘Vikramaditya’)

चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से उत्पन्न पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय असाधारण प्रतिभा, […]

चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (Chandragupta II 'Vikramaditya')

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चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’

समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से उत्पन्न पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय असाधारण प्रतिभा, अदम्य उत्साह और विलक्षण पौरुष से युक्त थे। गुप्त अभिलेखों से संकेत मिलता है कि समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरांत चंद्रगुप्त द्वितीय गुप्त सम्राट बने। किंतु, अंशतः उपलब्ध देवीचंद्रगुप्तम् और कुछ अन्य साहित्यिक तथा पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर कुछ विद्वान रामगुप्त को समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी मानते हैं। इनके अनुसार रामगुप्त की दुर्बलता और अयोग्यता का लाभ उठाकर चंद्रगुप्त ने उनके राज्य और रानी दोनों का हरण कर लिया।

ऐतिहासिक स्रोत

चंद्रगुप्त द्वितीय के इतिहास-निर्माण में पुरातात्त्विक और साहित्यिक दोनों स्रोत सहायक हैं। उनके शासनकाल के कई अभिलेख प्राप्त हुए हैं, जिनमें कुछ तिथियुक्त और कुछ तिथिविहीन हैं।

मथुरा स्तंभलेख

मथुरा स्तंभलेख पहला अभिलेख है, जिस पर गुप्त संवत् 61 (380 ई.) की तिथि अंकित है। यह लेख उनके शासनकाल के पाँचवें वर्ष में उत्कीर्ण कराया गया था। इसमें चंद्रगुप्त द्वितीय को ‘परमभट्टारक’ कहा गया है। इस अभिलेख से पता चलता है कि इस समय मथुरा क्षेत्र में पाशुपत धर्म का लकुलीश संप्रदाय अधिक लोकप्रिय था। मथुरा से ही एक तिथिविहीन शिलालेख भी प्राप्त हुआ है, जिसमें चंद्रगुप्त के काल तक की गुप्तवंशावली दी गई है।

उदयगिरि अभिलेख

उदयगिरि से दो महत्त्वपूर्ण अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इनमें से एक तिथियुक्त है, जो गुप्त संवत् 82 (401 ई.) में सनकानीक महाराज ने वैष्णव गुफा की भीतरी दीवार पर उत्कीर्ण कराया था। इस गुफा की दीवार पर भगवान विष्णु की प्रतिमा भी अंकित है। दूसरा तिथिविहीन अभिलेख एक अन्य गुफा की भीतरी दीवार पर उत्कीर्ण है, जो शैव धर्म से संबंधित है। इसे चंद्रगुप्त द्वितीय के संधिविग्रहिक सचिव वीरसेन शैव ने उत्कीर्ण कराया था, जो किसी सैन्य अभियान में चंद्रगुप्त के साथ पूर्वी मालवा आए थे।

गढ़वा शिलालेख

चंद्रगुप्त का एक अन्य शिलालेख गुप्त संवत् 88 (407 ई.) में इलाहाबाद जिले की करछना तहसील के गढ़वा नामक स्थान से प्राप्त हुआ है।

साँची शिलालेख

तिथिक्रम की दृष्टि से गुप्त संवत् 93 (412 ई.) का साँची शिलालेख उनके शासनकाल का अंतिम अभिलेख है, जो साँची के महाचैत्य की वेदिका के पूर्वी तोरण पर उत्कीर्ण है। इस अभिलेख में चंद्रगुप्त का प्रिय नाम ‘देवराज’ मिलता है। लेख से पता चलता है कि सैनिक पदाधिकारी आम्रकार्दव ने साँची में स्थित काकनादबाट श्रीमहाविहार को ईश्वरवासक ग्राम और पच्चीस दीनार दानस्वरूप दिए थे।

मथुरा शिलालेख को छोड़कर अन्य सभी अभिलेख कर्मचारियों और धर्मपरायण व्यक्तियों द्वारा उत्कीर्ण कराए गए थे। इन अभिलेखों से चंद्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियों का प्रमाणिक परिचय प्राप्त होता है।

मुद्रा-साक्ष्य

चंद्रगुप्त के शासनकाल में गुप्त मुद्रा-कला का भी विकास हुआ। उन्होंने धनुर्धर, छत्र, पर्यंक, सिंहनिहंता, अश्वारोहण, राजारानी, ध्वजधारी और चंद्रविक्रम प्रकार की मुद्राओं का प्रचलन किया, जो उनके व्यक्तित्व, कृतित्व और साम्राज्य-विस्तार पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती हैं। वह पहले सम्राट थे, जिन्होंने शक-विजय के उपलक्ष्य में रजत मुद्राओं का प्रचलन कराया, जो उनकी शक-विजय का सबल प्रमाण हैं। इसके अतिरिक्त, तत्कालीन ताम्र मुद्राएँ भी ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं।

साहित्यिक स्रोत

साहित्यिक विकास की दृष्टि से भी चंद्रगुप्त का शासनकाल प्रशंसनीय है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कालिदास जैसे विद्वान उनके दरबार की शोभा थे और उनकी रचनाओं से तत्कालीन समाज, धर्म, और राजनीति का ज्ञान होता है। इसके अतिरिक्त, भोजकृत श्रृंगारप्रकाश और क्षेमेंद्रप्रणीत औचित्यविचारचर्चा भी महत्त्वपूर्ण हैं। चीनी यात्री फाहियान उनके काल में भारत आया था और उसका यात्रा-विवरण तत्कालीन इतिहास के निर्माण में उपयोगी है।

तिथि का निर्धारण

चंद्रगुप्त द्वितीय की तिथि का निर्धारण उनके अभिलेखों के आधार पर किया जा सकता है। गुप्त संवत् 61 (380 ई.) का मथुरा स्तंभलेख उनके शासनकाल के पाँचवें वर्ष में उत्कीर्ण हुआ था (राज्यसंवत्सरे पंचमे)। अतः उनका राज्यारोहण गुप्त संवत् 56 (375 ई.) में हुआ होगा। साँची का शिलालेख (गुप्त संवत् 93, 412 ई.) उनके शासनकाल का अंतिम अभिलेख है। उनके पुत्र कुमारगुप्त प्रथम की प्रथम ज्ञात तिथि बिलसद अभिलेख में गुप्त संवत् 96 (415 ई.) प्राप्त होती है। इस आधार पर अनुमान है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने 375 ई. से 415 ई. तक लगभग चालीस वर्ष शासन किया।

नाम और उपाधियाँ

चंद्रगुप्त द्वितीय के अनेक नाम अभिलेखों और मुद्राओं में मिलते हैं। साँची लेख में उन्हें ‘देवराज’ कहा गया है (महाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तस्य देवराज इति नाम्नः)। प्रवरसेन द्वितीय की चमक प्रशस्ति में प्रभावतीगुप्ता को महाराजाधिराज देवगुप्त की पुत्री बताया गया है (महाराजाधिराजश्रीदेवगुप्तसुतायां प्रभावतीगुप्तायाम्)। कुछ मुद्राओं पर उनका नाम ‘देवश्री’ और ‘श्रीविक्रम’ भी मिलता है। अभिलेखों और सिक्कों से पता चलता है कि उन्होंने ‘विक्रमांक’, ‘विक्रमादित्य’, ‘सिंहविक्रम’, ‘नरेंद्रचंद्र’, ‘अजीतविक्रम’, ‘परमभागवत’ और ‘परमभट्टारक’ आदि उपाधियाँ धारण की थीं, जो उनकी महानता और राजनीतिक प्रभुता को दर्शाती हैं।

चंद्रगुप्त द्वितीय की उपलब्धियाँ

चंद्रगुप्त द्वितीय एक बुद्धिमान कूटनीतिज्ञ और दूरदर्शी सम्राट थे। राज्यारोहण के पश्चात उन्होंने स्वयं को समुद्रगुप्त का ‘पादपरिगृहीत’ घोषित कर अपने उत्तराधिकार को वैधानिक रूप प्रदान किया। तत्कालीन शक्तिशाली राजवंशों—नागों, वाकाटकों, और कदंबों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर उन्होंने अपनी राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ किया। म्लेच्छ शकों का उन्मूलन कर उन्होंने गुप्त राजसत्ता का विस्तार किया।

वैवाहिक संबंध

गुप्तों के वैवाहिक संबंध उनकी विदेश नीति में विशेष महत्त्व रखते थे। हर्यंकवंशी बिम्बिसार की भाँति चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी समकालीन राजवंशों के साथ विवाह-संबंधों द्वारा अपनी शक्ति का प्रसार किया।

नाग वंश से संबंध

प्रयाग-प्रशस्ति से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने नागदत्त, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत और नंदि जैसे नागवंशी राजाओं को पराजित किया था, किंतु नागवंश का पूर्ण विनाश नहीं हुआ था और वे अभी भी एक प्रमुख शक्ति थे। चंद्रगुप्त द्वितीय ने नागों का सहयोग प्राप्त करने के लिए ‘नागकुलसंभूता’ राजकुमारी कुबेरनागा से विवाह किया, जिससे उनकी नवस्थापित सार्वभौम सत्ता को सुदृढ़ करने में सहायता मिली। इस विवाह से उत्पन्न कन्या प्रभावतीगुप्ता का विवाह वाकाटक वंश में किया गया। संभवतः यह वैवाहिक संबंध समुद्रगुप्त के काल में ही स्थापित हो चुका था, क्योंकि चंद्रगुप्त के राज्यारोहण के समय प्रभावतीगुप्ता वयस्क हो चुकी थी। अतः वाकाटकों का सहयोग प्राप्त करने के लिए चंद्रगुप्त ने प्रभावतीगुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय से करवाया।

चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (Chandragupta II 'Vikramaditya')
चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’
वाकाटकों से संबंध

दक्षिणापथ में वाकाटकों का शक्तिशाली राज्य था। उनकी भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि वे उज्जयिनी के शक-क्षत्रपों के विरुद्ध उत्तरी भारत की किसी भी शक्ति के लिए उपयोगी या अनुपयोगी सिद्ध हो सकते थे। इसलिए, चंद्रगुप्त ने शकों पर आक्रमण से पहले वाकाटकों का सहयोग सुनिश्चित करने के लिए अपनी पुत्री प्रभावतीगुप्ता का विवाह रुद्रसेन द्वितीय से करवाया, जिससे गुप्तों और वाकाटकों में मैत्री स्थापित हुई। किंतु इस विवाह के कुछ समय बाद रुद्रसेन द्वितीय की तीस वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। उनके दोनों पुत्र—दिवाकरसेन (पाँच वर्ष) और दामोदरसेन (दो वर्ष) अल्पवयस्क थे, अतः प्रभावतीगुप्ता ने राज्य का शासन अपने हाथों में लिया और अपने पिता चंद्रगुप्त द्वितीय को शकों के विरुद्ध हरसंभव सहायता प्रदान की।

कुंतल से संबंध

दक्षिण भारत में कुंतल (आधुनिक कर्नाटक) एक प्रभावशाली राज्य था, जहाँ कदंबों का शासन था। आधुनिक कन्नड़ जिला प्राचीन कुंतल का प्रतिनिधित्व करता है। श्रृंगारप्रकाश और कुंतलेश्वरदौत्यम् से पता चलता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय का कुंतल नरेश से मैत्रीपूर्ण संबंध था। तालकुंड के स्तंभलेख से ज्ञात होता है कि कदंबवंशी शासक काकुत्स्थवर्मा की पुत्री गुप्त वंश में ब्याही गई थी:

गुप्तादि-पार्थिव-कुलाम्बुहस्थलानिस्नेहादर-प्रणय-सम्भ्रम-केसराणि।

श्रमन्त्यनेक नृपषट्पद सेवितानि योऽबोधयद्दुहितृदीधितिभिर्नृपाकृकैः।।

संभवतः चंद्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदंब राजवंश के काकुत्स्थवर्मा की पुत्री अनंतदेवी से हुआ था। इस वैवाहिक संबंध की पुष्टि भोज के श्रृंगारप्रकाश और क्षेमेंद्र की औचित्यविचारचर्चा से भी होती है। इसके अनुसार चंद्रगुप्त ने कालिदास को अपना दूत बनाकर कुंतल नरेश के दरबार में भेजा था। कालिदास ने वहाँ रहकर कुंतलेश्वरदौत्यम् नामक ग्रंथ की रचना की, जो अब उपलब्ध नहीं है। कालिदास ने लौटकर सम्राट को सूचित किया कि कुंतल नरेश शासन का भार चंद्रगुप्त पर सौंपकर भोग-विलास में लिप्त हैं (पिवति मधुसुगंधीन्याननानि प्रियाणां, त्वयि विनिहितभारः कुंतलानामधीशः)। संभवतः इस वैवाहिक संबंध के कारण ही चंद्रगुप्त के प्रभाव से दक्षिणी समुद्रतट सुवासित था।

सैनिक उपलब्धियाँ

चंद्रगुप्त द्वितीय ने वैवाहिक संबंधों द्वारा अपनी आंतरिक स्थिति को सुदृढ़ कर सैनिक अभियान चलाया, जिसका उद्देश्य उदयगिरि गुहालेख के अनुसार ‘कृत्स्नपृथ्वीजय’ (संपूर्ण पृथ्वी की विजय) था। यद्यपि समुद्रगुप्त ने अनेक विदेशी जातियों को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया था, किंतु साम्राज्य में व्याप्त अव्यवस्था का लाभ उठाकर कुछ विदेशी शासक गुप्त साम्राज्य के लिए संकट उत्पन्न कर रहे थे। उस समय विदेशी शक्तियों के दो प्रमुख केंद्र थे—गुजरात और काठियावाड़ के शक-महाक्षत्रप और गांधार-कंबोज के कुषाण। शक-महाक्षत्रप संभवतः षाहानुषाहि कुषाण राजा के प्रांतीय शासक थे, यद्यपि साहित्य में कुषाण राजाओं को भी शक-मुरुंड (शकों के स्वामी) कहा गया है।

शक-विजय

शक गुजरात, काठियावाड़ और पश्चिमी मालवा पर शासन करते थे। इनका उन्मूलन कर उनके राज्य को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित करना चंद्रगुप्त द्वितीय की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। माना जाता है कि रामगुप्त के समय में शकों ने गुप्त साम्राज्य के समक्ष गंभीर संकट उत्पन्न कर दिया था और चंद्रगुप्त ने उनके शासक की हत्या कर गुप्त साम्राज्य और उसके सम्मान की रक्षा की।

सम्राट बनने पर चंद्रगुप्त द्वितीय ने वाकाटकों के सहयोग से काठियावाड़ और गुजरात के शक-महाक्षत्रपों पर आक्रमण कर उन्हें पराजित किया और अपने प्रतिद्वंद्वी शक शासक रुद्रसिंह तृतीय को मारकर इन क्षेत्रों को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। कहा जाता है कि इस शक-विजय के उपलक्ष्य में उन्होंने ‘शकारि’ और ‘विक्रमादित्य’ उपाधियाँ धारण कीं। कई शताब्दी पूर्व सातवाहन शासक गौतमीपुत्र सातकर्णि ने भी शकों का उन्मूलन कर इन्हीं उपाधियों को ग्रहण किया था।

चंद्रगुप्त की शक-विजय की सूचना देने वाले तीन अभिलेख पूर्वी मालवा से प्राप्त हुए हैं। उनके संधिविग्रहिक वीरसेन शैव के उदयगिरि गुहालेख से पता चलता है कि वह ‘संपूर्ण पृथ्वी को जीतने के उद्देश्य से राजा के साथ इस स्थान पर आए थे’ (कृत्स्नपृथ्वीजयार्थेन राज्ञेवैह सहागतः)। गुप्त संवत् 82 (401 ई.) के उदयगिरि वैष्णव लेख से पता चलता है कि भिलसा (पूर्वी मालवा) में सनकानीक महाराज चंद्रगुप्त द्वितीय की अधीनता में शासन कर रहा था। इसकी पुष्टि गुप्त संवत् 93 (412 ई.) के साँची शिलालेख से होती है, जिसमें सैन्याधिकारी आम्रकार्दव ने काकनादबाट श्रीमहाविहार को ईश्वरवासक ग्राम और पच्चीस दीनार दान दिए थे। इन अभिलेखों से मालवा में चंद्रगुप्त की दीर्घ उपस्थिति का संकेत मिलता है, जिसका उद्देश्य शक सत्ता का उन्मूलन और गुप्त साम्राज्य का विस्तार था।

चंद्रगुप्त की शक-विजय का प्रबल प्रमाण उनकी रजत मुद्राएँ हैं। शक मुद्राओं के अनुकरण पर उन्होंने विजित क्षेत्रों में प्रचलन के लिए रजत मुद्राओं पर अपना चित्र, नाम, विरुद, गरुड़ और मुद्रा-प्रचलन की तिथि अंकित करवाई। रुद्रसिंह तृतीय के कुछ चाँदी के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं, जिन्हें चंद्रगुप्त ने पुनर्टंकित करवाया था। उनकी सिंहनिहंता प्रकार की मुद्राएँ भी गुजरात और काठियावाड़ की विजय का प्रमाण हैं, जहाँ जंगलों में सिंह प्रचुर मात्रा में पाए जाते थे।

उदयगिरि के वैष्णव गुहालेख से स्पष्ट है कि गुप्त संवत् 82 (401 ई.) में चंद्रगुप्त का सामंत सनकानीक महाराज पूर्वी मालवा का शासक था। उनकी रजत मुद्राएँ गुप्त संवत् 90 (409 ई.) की हैं, जो पश्चिमी भारत से प्राप्त हुई हैं। अतः अनुमान है कि 409 ई. के पूर्व पश्चिमी भारत में गुप्त सत्ता पूर्ण रूप से स्थापित हो चुकी थी। सौराष्ट्र के इन नवविजित क्षेत्रों पर शासन के लिए चंद्रगुप्त ने संभवतः उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाया, जिसके कारण उन्हें ग्रंथों में ‘उज्जयिनीपुरवराधीश्वर’ कहा गया।

गुजरात और काठियावाड़ की विजय से चंद्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में अरब सागर से पूर्व में बंगाल तक विस्तृत हो गया। भड़ौच, सोपारा, खम्भात और पश्चिमी तट के अन्य बंदरगाहों पर अधिकार के कारण गुप्त साम्राज्य पश्चिमी देशों के संपर्क में आया।

गणराज्यों की विजय

गुजरात-काठियावाड़ के शक-महाक्षत्रपों के अतिरिक्त चंद्रगुप्त ने गांधार-कंबोज के शक-मुरुंडों (कुषाणों) का भी उन्मूलन किया। संभवतः पश्चिमोत्तर भारत के कुछ गणराज्यों ने चंद्रगुप्त की व्यस्तता का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। उनके सेनाध्यक्ष आम्रकार्दव अपने साँची अभिलेख में स्वयं को ‘अनेक युद्धों में विजय द्वारा यश प्राप्त करने वाला’ (अनेक समरावाप्तविजययशसूपताकः) कहते हैं। विष्णु पुराण से संकेत मिलता है कि गुप्तकाल से पूर्व अवंति पर आभीर आदि विजातियों का आधिपत्य था। चंद्रगुप्त ने शकों से निपटने के बाद इन गणराज्यों को पुनर्विजित कर गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित किया। किंतु इसकी विस्तृत जानकारी अप्रमाणित है।

मेहरौली स्तंभलेख के ‘चंद्र’ की पहचान

दिल्ली में मेहरौली के निकट कुतुबमीनार के समीप स्थित लौह-स्तंभ (विष्णुध्वज) पर ‘चंद्र’ नामक एक प्रतापी सम्राट की विजय-प्रशस्ति उत्कीर्ण है। लेख के अनुसार :

यस्योद्वर्त्तयतः प्रतीपमुरसा शत्रुन्समेत्यागतान् वंगेष्वाहववर्त्तिनोऽभिलिखिता खड्गेन कीर्त्तिभुजे।

तीर्त्वा सप्तमुखानि येन समरे सिंधोर्जिता वाहिकाः, यस्याद्याप्यधिवास्यते जलनिधिर्वीर्यानिलैर्दक्षिणः।।

अर्थात् ‘उन्होंने बंगाल के युद्धक्षेत्र में एकत्रित शत्रुओं के संघ को पराजित किया; उनकी भुजाओं पर तलवार से कीर्ति अंकित थी; उन्होंने सिंधु नदी के सात मुखों को पारकर युद्ध में वाह्लीकों को जीता; उनके प्रताप के सौरभ से दक्षिणी समुद्रतट आज भी सुवासित है।’

लेख के अनुसार जिस समय यह प्रशस्ति उत्कीर्ण की गई, वह राजा मृत्यु को प्राप्त हो चुका था, किंतु उनकी कीर्ति पृथ्वी पर व्याप्त थी। उन्होंने ‘अपने बाहुबल से राज्य प्राप्त किया और चिरकाल तक शासन किया’ (प्राप्तेन स्वभुजार्जितं च सुचिरं चैकाधिराज्यं क्षितौ)। ‘भगवान विष्णु के प्रति अत्यधिक श्रद्धा के कारण उन्होंने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना की थी’ (प्रांशुर्विष्णुपदे गिरौ भगवतो विष्णुर्ध्वजः स्थापितः)।

मेहरौली स्तंभलेख में कोई तिथि अंकित नहीं है, न ही राजा का पूरा नाम या वंशावली दी गई है। अतः इस ‘चंद्र’ की पहचान चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर चंद्रगुप्त द्वितीय तक के विभिन्न ‘चंद्र’ नामधारी सम्राटों से की जाती रही है।

हरिश्चंद्र सेठ इस चंद्र को चंद्रगुप्त मौर्य मानते हैं, किंतु वे जैन धर्मानुयायी थे और लेख की लिपि गुप्तकालीन है।

हेमचंद्र रायचौधरी इसकी पहचान पुराणों में वर्णित नागवंशी शासक ‘चंद्रांश’ से करते हैं, जो मेहरौली के चंद्र जैसा प्रतापी नहीं था।

हरप्रसाद शास्त्री इस चंद्र को सुसुनिया पहाड़ी (पश्चिम बंगाल) लेख के ‘चंद्रवर्मा’ से जोड़ते हैं, किंतु चंद्रवर्मा एक साधारण राजा था, जिसे समुद्रगुप्त ने आसानी से उन्मूलित कर दिया था।

रमेशचंद्र मजूमदार इस चंद्र को कुषाण शासक कनिष्क प्रथम (‘चंद्र कनिष्क’) मानते हैं, किंतु कनिष्क बौद्ध थे और उनका प्रभाव दक्षिण भारत तक नहीं था।

फ्लीट, आयंगर, राधागोविंद बसाक जैसे विद्वान इसे चंद्रगुप्त प्रथम मानते हैं, किंतु उनका साम्राज्य सीमित था और बंगाल व दक्षिण भारत पर उनका प्रभाव नहीं था।

कुछ विद्वान इसकी पहचान समुद्रगुप्त से करते हैं, किंतु लेख में उनके अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख नहीं है, जबकि यह मरणोत्तर लेख है।

अधिकांश विद्वान ‘चंद्र’ की पहचान चंद्रगुप्त द्वितीय से करते हैं। लेख में उनकी विजयों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उन्होंने वंग प्रदेश में शत्रुओं के संघ को पराजित किया, सिंधु के सप्तमुखों (सप्तसैंधव की सात नदियों) को पारकर वाह्लीकों (बल्ख या वाह्लीक जाति) पर विजय प्राप्त की और उनकी ख्याति दक्षिण भारत तक फैली थी। वे भगवान विष्णु के परम भक्त थे। ये सभी विशेषताएँ चंद्रगुप्त द्वितीय के व्यक्तित्व और कृतित्व से मेल खाती हैं।

बंगाल विजय

मेहरौली स्तंभलेख से पता चलता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के एक संयुक्त संघ को पराजित किया। पश्चिम बंगाल का बाँकुड़ा क्षेत्र समुद्रगुप्त द्वारा जीता जा चुका था, किंतु उत्तरी और पूर्वी बंगाल अभी अवशेष थे। प्रयाग-प्रशस्ति के अनुसार, समतट और डवाक जैसे प्रत्यंत राज्य समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते थे। संभवतः गुप्त साम्राज्य की अराजकता और चंद्रगुप्त की शक-विजय में व्यस्तता का लाभ उठाकर बंगाल के कुछ पुराने राजकुलों ने विद्रोह किया था। शकों और उत्तर-कुषाणों से निपटने के बाद चंद्रगुप्त ने इस शत्रु-संघ का उन्मूलन किया (यस्योद्वर्त्तयतः प्रतीपमुरसा शत्रुन्समेत्यागतान्)। लेख के अनुसार, उनकी भुजाओं पर तलवार से कीर्ति अंकित थी (खड्गेन कीर्त्तिभुजे)। इस विजय से संपूर्ण वंग-भूमि पर गुप्त सत्ता स्थापित हो गई और ताम्रलिप्ति जैसे समृद्ध बंदरगाह पर गुप्तों का अधिकार हुआ, जिससे व्यापार-वाणिज्य में उन्नति हुई।

वाह्लीक विजय

मेहरौली स्तंभलेख के अनुसार चंद्रगुप्त ने सिंधु के सात मुखों को पारकर वाह्लीकों पर विजय प्राप्त की। पंजाब की सात नदियाँ—यमुना, सतलज, व्यास, रावी, चिनाब, झेलम और सिंधु प्राचीन काल में ‘सप्तसैंधव’ कहलाती थीं। वाह्लीक विजय से संभवतः बल्ख (बैक्ट्रिया) के बजाय वाह्लीक जाति का तात्पर्य है, जो कभी बल्ख में शासन करती थी। उस समय पश्चिमोत्तर सीमा पर पंजाब में उत्तर-कुषाणों का राज्य था, जिन्हें वाह्लीक कहा गया। चंद्रगुप्त ने सप्तसैंधव प्रदेश को पारकर पंजाब में उत्तर-कुषाणों को पराजित किया। इस विजय से गुप्त साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा वंक्षु नदी तक विस्तृत हो गई।

दक्षिण भारत की विजय

मेहरौली लेख के अनुसार चंद्रगुप्त की ख्याति दक्षिण भारत तक फैली थी। उन्होंने वाकाटक और कदंब जैसे शक्तिशाली राजवंशों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर अपने प्रभाव का विस्तार किया। प्रभावतीगुप्ता के काल में वाकाटक राज्य पूर्णतः उनके प्रभाव में था। भोज के श्रृंगारप्रकाश से पता चलता है कि चंद्रगुप्त ने कालिदास को कुंतल नरेश काकुत्स्थवर्मा के दरबार में दूत बनाकर भेजा था। कालिदास ने सूचित किया कि कुंतल नरेश ने शासन का भार चंद्रगुप्त पर सौंपकर भोग-विलास में लिप्त हो गया था। क्षेमेंद्र की औचित्यविचारचर्चा में कालिदास के एक श्लोक का उल्लेख है, जिससे प्रतीत होता है कि कुंतल का शासन वस्तुतः चंद्रगुप्त ही संचालित करते थे।

मेहरौली लेख में काव्यात्मक रूप से कहा गया है कि ‘चंद्र के प्रताप के सौरभ से दक्षिण का समुद्रतट आज भी सुवासित है।’ लेख की अन्य विशेषताएँ भी चंद्रगुप्त द्वितीय से मेल खाती हैं। उन्होंने शकपति की हत्या कर अपने बाहुबल से राज्य प्राप्त किया और लगभग चालीस वर्ष शासन किया। उनकी ‘परमभागवत’ उपाधि उनकी विष्णु-भक्ति को दर्शाती है। लेख की लिपि गुप्तकालीन है, और उनकी कुछ मुद्राओं पर ‘चंद्र’ नाम अंकित है। संभवतः उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र कुमारगुप्त प्रथम ने इस लेख को उत्कीर्ण करवाया था।

साम्राज्य-विस्तार

अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चंद्रगुप्त द्वितीय ने एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया। उनके काल में गुप्त साम्राज्य अपनी शक्ति की चरम सीमा पर था। पश्चिमी भारत के शक-महाक्षत्रपों और गांधार-कंबोज के उत्तर-कुषाणों की पराजय से गुप्त साम्राज्य पश्चिम में गुजरात से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय की घाटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत हो गया। समुद्रगुप्त द्वारा अधीन किए गए दक्षिणी राजा अब भी चंद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते थे। उनके अभिलेख और सिक्के इस विशाल भूभाग के कई स्थानों से प्राप्त हुए हैं।

गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (Gupta Emperor Chandragupta II 'Vikramaditya')
चंद्रगुप्त द्वितीय का साम्राज्य-विस्तार

अश्वमेध यज्ञ

चंद्रगुप्त द्वितीय द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। बनारस के तिगवा गाँव से एक घोड़े की प्रस्तर मूर्ति प्राप्त हुई है, जिस पर ‘चंद्रगु’ लेख उत्कीर्ण है। जे. रत्नाकर के अनुसार, यह अश्वमेध की अश्व-प्रतिमा हो सकती है और ‘चंद्रगु’ चंद्रगुप्त का नामांश है, किंतु इसकी प्रमाणिकता संदिग्ध है।

मुद्राएँ

चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने विशाल साम्राज्य की आवश्यकताओं के लिए अनेक प्रकार की मुद्राओं का प्रचलन करवाया। स्वर्ण मुद्राओं के साथ-साथ उनकी रजत और ताम्र मुद्राएँ भी प्राप्त हुई हैं। स्वर्ण मुद्राएँ ‘दीनार’ और रजत मुद्राएँ ‘रुप्यक’ कहलाती थीं। स्वर्ण मुद्राएँ संभवतः सार्वभौम प्रचलन के लिए थीं और उनकी वीरता व आर्थिक संपन्नता को दर्शाती हैं। उनकी स्वर्ण मुद्राओं का विवरण निम्नलिखित है:

धनुर्धर प्रकार

इन मुद्राओं के पुरोभाग पर धनुष-बाण लिए राजा की आकृति, गरुड़ध्वज और मुद्रालेख देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तः अंकित है। पृष्ठभाग पर देवी के साथ उनकी उपाधि ‘श्रीविक्रम’ उत्कीर्ण है।

छत्रधारी प्रकार

इन मुद्राओं के पुरोभाग पर राजा आहुति डालते हुए खड़ा है, उनका बायाँ हाथ तलवार की मूठ पर है। राजा के पीछे एक बौना छत्र लिए खड़ा है। इस ओर दो प्रकार के लेख हैं: महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तः और विक्रमादित्य पृथ्वीं अवजित्य सुचरितैः दिवं जयति। पृष्ठभाग पर कमल पर बैठी देवी और मुद्रालेख विक्रमादित्यः उत्कीर्ण है।

पर्यंक प्रकार

इन मुद्राओं के पुरोभाग पर सुसज्जित राजा कमल लिए पलंग पर आसीन हैं और मुद्रालेख देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तस्य विक्रमादित्यस्य तथा पलंग के नीचे रूपाकृति उत्कीर्ण है। कुछ मुद्राओं पर उनकी उपाधि ‘परमभागवत’ भी मिलती है।

सिंहनिहंता प्रकार

इन मुद्राओं के पुरोभाग पर सिंह को धनुष-बाण या कृपाण से मारते हुए राजा की आकृति और पृष्ठभाग पर बैठी देवी अंकित है। इन पर विभिन्न मुद्रालेख हैं, जैसे नरेंद्रचंद्र प्रथितदिवं जयत्यजेयो भुवि सिंहविक्रमः, देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तः, या महाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्तः

अश्वारोहण प्रकार

इन मुद्राओं के पुरोभाग पर अश्वारोही राजा की आकृति और मुद्रालेख परमभागवत महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तः अंकित है। पृष्ठभाग पर बैठी देवी और उपाधि अजितविक्रमः उत्कीर्ण है।

चंद्रगुप्त ने रजत और ताम्र मुद्राओं का भी प्रचलन करवाया, जो स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए थीं। शक-महाक्षत्रपों की पराजय के बाद उन्होंने विजित क्षेत्रों में शक मुद्राओं के अनुकरण पर रजत मुद्राएँ चलवाईं, जिनके पुरोभाग पर राजा और पृष्ठभाग पर गरुड़ की आकृति के साथ परमभागवत महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तविक्रमादित्य और श्रीगुप्तकुलस्यमहाराजाधिराज श्रीगुप्तविक्रमांकाय लेख अंकित हैं। उत्तर-पश्चिमी भारत में उनकी कुषाण नमूने की मुद्राएँ मिली हैं। ताम्र मुद्राओं के पुरोभाग पर श्रीविक्रम या श्रीचंद्र और पृष्ठभाग पर गरुड़ के साथ श्रीचंद्रगुप्त या चंद्रगुप्त अंकित है।

शासन-व्यवस्था

चंद्रगुप्त द्वितीय एक महान विजेता होने के साथ-साथ कुशल प्रशासक भी थे। उनका चालीस वर्षीय शासनकाल शांति, सुव्यवस्था, और समृद्धि का काल था। सम्राट स्वयं राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था और उनकी सहायता के लिए मंत्रिपरिषद थी। राजा के बाद युवराज दूसरा उच्च अधिकारी था, जिसके पास स्वतंत्र परिषद होती थी।

चंद्रगुप्तकालीन अभिलेखों में विभिन्न पदाधिकारियों का उल्लेख है। उनके मंत्री शिखरस्वामी को करमदंडा अभिलेख में ‘कुमारामात्य’ कहा गया है। उनका संधिविग्रहिक वीरसेन ‘शैव’ था, जिसका उल्लेख उदयगिरि गुहालेख में है। साँची लेख से पता चलता है कि उनका सेनाध्यक्ष आम्रकार्दव था, जो ‘अनेक युद्धों का विजेता’ (अनेकसमरावाप्तविजययशस्तपताकः) था। अभिलेखों और मुद्राओं के आधार पर चंद्रगुप्तकालीन कुछ शासकीय विभागों के पदाधिकारियों के नाम निम्नलिखित हैं:

कुमारामात्य: उच्च प्रशासनिक पदाधिकारियों का वर्ग, जिनका कार्यालय ‘कुमारामात्याधिकरण’ कहलाता था।

बलाधिकृत: सेना का सर्वोच्च अधिकारी, जिसका कार्यालय ‘बलाधिकरण’ था।

रणभांडाराधिकृत: सैन्य सामग्री का संरक्षक, जिसका कार्यालय ‘रणभांडाराधिकरण’ था।

दंडपाशिक: पुलिस विभाग का अधिकारी, जो ‘दंडपाशाधिकरण’ में कार्यरत था।

भटाश्वपति: अश्वसेना का प्रधान।

महादंडनायक: मुख्य न्यायाधीश।

महाप्रतीहार: मुख्य द्वारपाल।

विनयस्थितिस्थापक: शांति और कानून-व्यवस्था बनाए रखने वाला अधिकारी।

इसके अतिरिक्त, विनयशूर, तलवर और उपरिक जैसे अधिकारी भी प्रशासनिक व्यवस्था का हिस्सा थे।

सत्ता का विकेंद्रीकरण

साम्राज्य को प्रशासनिक सुविधा के लिए विभिन्न इकाइयों में विभाजित किया गया था। प्रांतीय इकाई ‘देश’ या ‘भुक्ति’ कहलाती थी, जिसके मुख्य अधिकारी ‘उपरिक’ थे। तीरभुक्ति का राज्यपाल चंद्रगुप्त का पुत्र गोविंदगुप्त था, जिसका उल्लेख बसाढ़ मुद्रालेख में है। सनकानीक महाराज पूर्वी मालवा का राज्यपाल था। प्रांतों का विभाजन ‘विषयों’ में किया गया था। वैशाली के सर्वोच्च शासकीय अधिकारी का विभाग ‘वैशाली-अधिष्ठान-अधिकरण’ कहलाता था। नगरों और ग्रामों के शासन के लिए अलग परिषदें थीं। ग्राम शासन के लिए ग्रामिक, महत्तर,और भोजक जैसे पदाधिकारी नियुक्त किए जाते थे।

चंद्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र थी, किंतु परवर्ती कुंतल नरेशों के अभिलेखों में उन्हें ‘पाटलिपुत्रपुरवराधीश्वर’ और ‘उज्जयिनीपुरवराधीश्वर’ दोनों कहा गया है। संभवतः शक रुद्रसिंह तृतीय की पराजय के बाद चंद्रगुप्त ने उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। साहित्यिक ग्रंथों में विक्रमादित्य को इन दोनों नगरों से जोड़ा गया है। उज्जयिनी विजय के बाद मालव संवत् उनके नाम से संबद्ध होकर ‘विक्रम संवत्’ कहलाने लगा।

सामाजिक और आर्थिक स्थिति

चंद्रगुप्त के शासनकाल में भारत आए चीनी यात्री फाहियान (400-411 ई.) ने लिखा है कि भारत के लोग अहिंसक और शांतिप्रिय थे। वे राजा की भूमि जोतते थे और उपज का कुछ अंश लगान के रूप में देते थे। उन्हें कहीं भी आने-जाने और कोई भी व्यवसाय करने की स्वतंत्रता थी। मृत्यदंड नहीं दिया जाता था; सामान्यतः अर्थदंड लगाया जाता था, किंतु जघन्य अपराधों में अंग-भंग की सजा दी जाती थी। लोग लहसुन-प्याज तक नहीं खाते थे और सुरापान से बचते थे। देश में चोर-डाकुओं का भय नहीं था। व्यापार-वाणिज्य की स्थिति उन्नत थी और लोग संपन्न व सुखी थे। शिक्षण संस्थाओं और धार्मिक स्थलों को दान देना तथा परस्पर सहयोग करना उनकी स्वाभाविक प्रकृति थी। चंद्रगुप्तकालीन शांति और सुव्यवस्था की ओर संकेत करते हुए कालिदास ने लिखा:

यस्मिन्महीं शासति वाणिनीनां निद्रां विहारार्थ पथे गतानाम्।

 वातोऽपि नास्रंसयदंशुकानि को लम्बयेदाहरणाय हस्तम्।।

अर्थात् ‘जब यह राजा शासन करता था, तब उपवनों में मद्यपान कर सोती हुई सुंदरियों के वस्त्रों को छूने का साहस हवा में भी नहीं था, तो उनके आभूषण चुराने की हिम्मत कौन कर सकता था?’

धर्म और धार्मिक नीति

चंद्रगुप्त द्वितीय वैष्णव धर्म के अनुयायी और ‘परमभागवत’ थे। मेहरौली स्तंभलेख के अनुसार उन्होंने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना करवाई थी। उन्होंने योग्यता के आधार पर विभिन्न धर्मों के लोगों को उच्च पदों पर नियुक्त किया। उनका संधिविग्रहिक वीरसेन शैव था, जिसने शिव की पूजा के लिए उदयगिरि पहाड़ी पर एक गुफा बनवाई थी (भक्त्याभगवतः शम्भोः गुहामेकमकारयत्)। उनका सेनापति आम्रकार्दव बौद्ध था, जिसने साँची के श्रीमहाविहार को ईश्वरवासक ग्राम और पच्चीस दीनार दान दिए थे (प्रणिपत्य ददाति पंचविंशतीः दीनारान्)। उनके काल में यज्ञ करने वाले, शिव, विष्णु, सूर्य, जैन और बौद्ध मतों के अनुयायी परस्पर प्रेम से रहते थे।

सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

चंद्रगुप्त के शासनकाल में जीवन के सभी क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास हुआ। धर्म, दर्शन, ज्योतिष, खगोलशास्त्र, गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, साहित्य और कलाओं की उन्नति हुई। इसीलिए कई इतिहासकारों ने उनके शासनकाल को भारतीय इतिहास का ‘स्वर्णयुग’ कहा है।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य विद्या और कला के उदार संरक्षक थे। उनके काल में पाटलिपुत्र और उज्जयिनी शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे। अनुश्रुतियों के अनुसार कालिदास, वराहमिहिर, धन्वंतरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर और वररुचि जैसे ‘नवरत्न’ उनके दरबार की शोभा थे। उनका संधिविग्रहिक वीरसेन व्याकरण, न्याय, मीमांसा और शब्द का विद्वान व कवि था (शब्दार्थ-न्याय-लोकज्ञे कविः पाटलिपुत्रकः)। राजशेखर की काव्यमीमांसा से पता चलता है कि उज्जयिनी में कवियों की परीक्षा लेने वाली एक विद्वत्परिषद थी, जिसने कालिदास, भर्तृमेठ, भारवि, अमरु, हरिश्चंद्र और चंद्रगुप्त जैसे कवियों की परीक्षा ली थी। उनके नाम से प्रचलित विक्रम संवत् आज भी संवत्सर गणना में प्रयुक्त होता है।

आर्थिक और व्यापारिक उन्नति

चंद्रगुप्त के काल में पश्चिमी सीमांत के विस्तार से उत्तर भारत की संस्कृति और वाणिज्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा। उज्जयिनी एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था, जहाँ अनेक व्यापारिक मार्ग एक-दूसरे से मिलते थे। पाटलिपुत्र से कोशांबी, उज्जयिनी होते हुए एक मार्ग गुजरात के भड़ौच (भृगुकच्छ) बंदरगाह तक जाता था, जहाँ से समुद्री मार्ग द्वारा मिस्र, रोम, ग्रीस, फारस और अरब देशों से व्यापार होता था। पूर्व में बंगाल की खाड़ी में ताम्रलिप्ति एक बड़ा बंदरगाह था, जहाँ से बर्मा, जावा, सुमात्रा और चीन जैसे सुदूर-पूर्वी देशों के साथ व्यापार होता था। पूर्वी बंगाल के सूती वस्त्र, पश्चिम बंगाल का सिल्क, बिहार का नील, वाराणसी और अनहिलवाड़ा-पाटन की स्वर्ण कशीदाकारी, किनख्वाब, हिमालय क्षेत्रों के इत्र, कपूर और दक्षिण भारत के मसाले इन बंदरगाहों तक आसानी से पहुँचने लगे। पश्चिमी व्यापारी सोना लाते थे, जिसका प्रभाव चंद्रगुप्त की स्वर्ण मुद्राओं पर दिखता है। भारत से मोती, मणि, सुगंधित द्रव्य, सूती वस्त्र, मसाले, नील, दवाइयाँ और हाथीदाँत निर्यात होते थे, जबकि चाँदी, ताँबा, टिन, रेशम, घोड़े और खजूर आयात किए जाते थे।

मूल्यांकन

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य एक उदार, न्यायप्रिय और सुयोग्य प्रशासक थे। उनके काल में व्यापार-वाणिज्य, शिल्प और उद्योगों का विकास हुआ, जिससे प्रजा सुखी और संतुष्ट थी। उनकी राजनीतिक और सांस्कृतिक उपलब्धियों के कारण कई इतिहासकारों ने उनके शासनकाल को ‘स्वर्णयुग’ की संज्ञा दी। कालिदास ने उनके मूल्यांकन में लिखा:

कामं नृपाः संतु सहस्त्रशोऽन्ये राजन्वतीमाहुरनेन भूमिम्।

नक्षत्र ताराग्रहसंकुलापि, ज्योतिष्मती चंद्रमसैव रात्रिः।।

अर्थात् ‘भले ही पृथ्वी पर सहस्रों राजा हों, किंतु यह राजा ही पृथ्वी को राजनवती बनाता है, जैसे नक्षत्रों, तारों और ग्रहों से भरी रात्रि केवल चंद्रमा से ही ज्योत्स्नामयी होती है।’

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