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भारत के बाहर क्रांतिकारी गतिविधियाँ
भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने के लिए क्रांतिकारियों ने शरण की खोज, प्रेस कानूनों से मुक्त रहकर क्रांतिकारी साहित्य छापने की संभावना और शास्त्रास्त्रों की खोज में देश के बाहर विदेशों में भी अपने केंद्र स्थापित किये। विदेशों में इनकी मुख्य शाखाएँ लंदन, पेरिस तथा अमेरिका के सेन फ्रांसिस्को और न्यूयार्क नगर में थीं।
विदेशों में क्रांतिकारी आंदोलन के प्रचार-प्रसार का श्रेय श्यामजी कृष्णवर्मा को है जो तिलक की सिफारिश पर लंदन गये थे। इसके अलावा लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, मैडम भीखाजी कामा, मदनलाल धींगरा, राजा महेंद्रप्रताप, अब्दुल रहीम, मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी, चंपकरमन पिल्लै, सरदारसिंह राणा आदि भारत से बाहर न केवल क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित कर रहे थे, बल्कि समाजवादियों तथा दूसरे साम्राज्यवाद-विरोधियों से भारत की स्वतंत्रता के लिए सहयोग और समर्थन भी माँग रहे थे।
इंग्लैंड (England)
श्यामजी कृष्णवर्मा (1857- 1930)
लंदन में राष्ट्रवादी क्रांतिकारी आंदोलन का नेतृत्व मुख्यतः श्यामजी कृष्णवर्मा, विनायक दामोदर सावरकर, मदनलाल ढींगरा एवं लाला हरदयाल ने किया। फरवरी 1905 में श्यामजी कृष्णवर्मा ने लंदन में भारतीय विद्यार्थियों के लिए एक केंद्र ‘इंडिया हाउस’ खोला, तथा ‘इंडियन होमरूल सोसायटी’ की स्थापना की थी, जिसके उपाघ्यक्ष अब्दुल्लाह सुहरावर्दी थे। इस संस्था का उद्देश्य था- अंग्रेज सरकार को आतंकित कर स्वराज्य प्राप्त करना। इस होमरूल सोसायटी ने ‘इंडियन सोशियोलाजिस्ट’ नामक समाचारपत्र का प्रकाशन आरंभ किया, जिसमें क्रांतिकारी लेख प्रकाशित होते थे।
‘इंडिया हाउस’ छात्रावास इंडियन होमरूल सोसायटी का प्रधान कार्यालय था जो एक छात्रवृत्ति योजना के अतंर्गत भारत से जुझारू युवकों को विदेश बुलाने और उन्हें शिक्षा देने की व्यवस्था करता था। इसी छात्रवृत्ति योजना के अतंर्गत लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर और मदनलाल धींगरा इंग्लैंड पहुँचे थे।
कुछ ही समय में इंग्लैंड का ‘इंडिया हाउस’ लंदन में रहनेवाले भारतीयों के लिए आंदोलन का केंद्र बन गया। श्यामजी कृष्णवर्मा की जुझारू वृत्ति कुछ-कुछ सैद्धांतिक रही और बड़ी सीमा तक अहिंसक आंदोलन तक सीमित रही। जब श्यामजी कृष्णवर्मा की गतिविधियों के विरुद्ध 1907 में हाउस आफ काॅमन्स में प्रस्ताव लया गया, तो वे लंदन छोड़कर पेरिस चले गये।
किंतु 1907 के बाद इंडिया हाउस पर नासिक के वी.डी. सावरकार के नेतृत्ववाले एक क्रांतिकारी गुट का अधिकार हो गया। 1909 तक ‘इंडियन सोशियोलाजिस्ट’ लंदन से प्रकाशित होती रही, किंतु इसके बाद इसका प्रकाशन पेरिस से होने लगा।
इंडिया हाउस ने 9 मई, 1908 में होमरूल सोसायटी की ओर से 1857 की क्रांति की स्वर्ण-जयंती मनाई। इसके बाद प्रतिवर्ष स्वतंत्रता संग्राम की वार्षिकी मनाई जाने लगी। सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘द इंडियन वार आफ दि इंडिपेंडेंस’ (1857 का स्वतंत्रता संग्राम) में 1857 के विद्रोह को ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम’ की संज्ञा दी। उन्होंने इटली के देशभक्त मैजिनी की ‘आत्मकथा’ का मराठी भाषा में अनुवाद किया ताकि भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना जाग्रत हो सके। ‘द ग्रेट वार्निग’ नामक पुस्तक की प्रतियां भी लंदन में बाँटी गईं।
कर्जन वाइली की हत्या
1909 में ब्रिटिश सरकार ने सावरकर के छोटे भाई गणेश सावरकर को राष्ट्रवादी कविताएँ लिखने और क्रांतिकारी दल को संगठित करने के अपराध में आजीवन कारावास की सजा दी थी। इसका बदला लेने के लिए अमृतसर से आये इंजीनियरिंग के एक छात्र मदनलाल धींगरा ने 1 जुलाई, 1909 को इंडिया हाउस के नौकरशाह कर्जन वाइली की इंपीरियल इंस्टीट्यूट (लंदन) में गोली मारकर हत्या कर दी। इस अपराध के लिए धींगरा को फाँसी दी गई, लेकिन फाँसी पर चढ़ते-चढ़ते यह स्मरणीय देशभक्ति की घोषणा करते गये: मुझ जैसा गरीब बेटा जिसके पास न धन है न कोई योग्यता, माँ की मुक्ति की वेदी पर अपना रक्त ही बलिदान कर सकता है…...। ईश्वर करे मैं उसी माँ की कोख से बार-बार जन्म लेकर उसी पवित्र ध्येय के लिए तब तक बार-बार मरता रहूँ जब तक कि मेरा ध्येय पूरा न हो जाए और वह मानवता के कल्याण के लिए एवं ईश्वर के कृपा-स्वरूप स्वाधीन न हो जाए।’’
यद्यपि भारत के कई नेताओं ने शहीद धींगरा की कड़े शब्दों में निंदा की, किंतु कई अंग्रेज राजनीतिज्ञों ने उनकी प्रशंसा की और आयरलैंड के अखबारों ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए लिखा था: ‘‘मदनलाल धींगरा को, जिन्होंने अपने देश के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया, आयरलैंड अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।’’
भारतीय क्रांतिकारियों के लिए लंदन में रहना कठिन हो गया, विशेषकर तब जब लंदन पुलिस ने 13 मार्च, 1910 को सावरकर को गिरफ्तार कर मोरिया नामक जहाज से भारत भेज दिया और उन्हें ‘नासिक षड्यंत्र केस’ के अंतर्गत आजीवन कालापानी की सजा दी गई। सावरकर की गिरफ्तारी और उन पर चले मुकदमे से स्पष्ट हो गया कि अब ब्रिटिश-विरोधी गतिविधियों के लिए लंदन सुरक्षित जगह नहीं है।
फ्रांस (पेरिस और जेनेवा)
अब यूरोप में भारतीय क्रांतिकारियों ने लंदन के स्थान पर पेरिस और जेनेवा को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया। पेरिस इंडियन सोसायटी के सदस्यों में मैडम भीकाजी कामा (मदर आफ इंडियन रिवाॅल्यूशन) के अलावा सरदारसिंह रेवाभाई राणा, के.आर. कोटवाल आदि प्रमुख थे।
महाराष्ट्र के पारसी परिवार से संबंधित मैडम कामा 1902 में यूरोप गईं और ज्यां लांगे जैसे फ्रांसीसी समाजवादियों के संपर्क में थीं। उन्होंने 1907 में रेवाभाई राणा के साथ स्टुटगार्ट (जर्मनी) में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस में भाग लिया और यहीं भारत की ओर से हरा, पीला व लाल रंग का तिरंगा फहराया। 1907 में जब श्यामजी कृष्णवर्मा लंदन से यहाँ पहुँचे तो इनकी गतिविधियाँ और तेज हो गईं।
सितंबर 1909 में मैडम कामा ने जेनेवा में भारतीय स्वाधीनता का मासिक मुखपत्र ‘वंदेमातरम्’ निकालना प्रारंभ किया। इस पत्र के प्रकाशन में लाला हरदयाल भी उनकी सहायता करते थे, किंतु लालाजी 1911 में अमेरिका चले गये। प्रथम विश्वयुद्ध के समय फ्रांस एवं इंग्लैंड में मित्रता हो जाने के कारण पेरिस में भी क्रांतिकारी गतिविधियाँ मंद पड़ने लगीं।
अमेरिका और कनाडा
ब्रिटेन और यूरोप में भारतीय अलग-थलग पड़े प्रवासी समूहों से अधिक कुछ भी नहीं थे। फिर भी, ब्रिटिश कोलंबिया और अमरीका के प्रशांत तटीय राज्यों में क्रांतिकारी आंदोलन ने पहली बार एक जनाधार-सा बनाया। यहाँ 1914 तक 15,000 भारतीय बस चुके थे जिनमें अधिकांश सिख थे। इन समृद्ध व्यापारियों और कामगारों को कनाडा और अमेरिका दोनों स्थानों पर खुले रूप में नस्ली भेदभाव का शिकार होना पड़ता था जिसके संबंध में ब्रिटिश-भारतीय सरकार कुछ भी नहीं कर रही थी।
‘सर्कुलर-ए-आजादी
ब्रिटिश सरकार के हितैषी इन देशों के सौतेले व्यवहार से भारतीयों के मन में राजनीतिक संघर्ष की चिनगारी 1907 से ही सुलगने लगी थी जब पश्चिमी तट पर निर्वासित जीवन बिता रहे रामनाथ पुरी ने सैन फ्रांसिस्को में ‘हिंदुस्तान एसोसिएशन’ बनाकर स्वदेशी आंदोलन के समर्थन में ‘सर्कुलर-ए-आजादी’ (आजादी का परिपत्र) बाँटा था।
बैंकोवर में तारकनाथ दास ने ‘फ्री हिंदुस्तान’ शुरू किया था, जबकि ‘स्वदेश सेवक गृह’ का गठन कर जी.डी. कुमार गुरुमुखी में स्वदेश सेवक नामक अखबार निकाल रहे थे। बाद में तारकनाथ और जी.डी. कुमार ने अमेरिका के सिएटल में ‘यूनाइटेड इंडिया हाउस’ की स्थापना की। धीरे-धीरे इसका संपर्क ‘खालसा दीवान सोसायटी’ से भी हो गया। 1913 में इन दोनों संगठनों ने संयुक्त रूप से कड़े अप्रवासी कानूनों को बदलवाने के लिए लंदन और भारत में अंग्रेजों से वार्ता करने के लिए अपना प्रतिनिधिमंडल भेजा, किंतु कोई सफलता नहीं मिली। इससे इतना लाभ अवश्य हुआ कि प्रतिनिधिमंडल की भारत यात्रा के दौरान लाहौर, लुधियाना, अंबाला, फीरोजपुर, जालंधर और शिमला में कई सार्वजनिक सभाएँ हुईं और इन्हें जनता तथा प्रेस का भारी समर्थन मिला।
संघर्ष की शुरूआत
भारतीयों के इन आरंभिक आंदोलनों से प्रवासी भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना आई और वे एकताबद्ध हुए। ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता के संघर्ष की शुरूआत सर्वप्रथम एक सिख ग्रंथी भगवानसिंह ने शुरू किया। उन्होंने 1913 में बैंकोवर में अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध हथियार उठाने और उसे उखाड़ फेंकने का आह्वान किया और जनता से अपील की कि ‘वंदेमातरम्’ को क्रांतिकारी सलाम मानें, किंतु तीन महीने में ही सरकार ने उन्हें निष्कासित कर दिया।
गदर आंदोलन
सैन फ्रांसिस्को में 1913 में प्रसिद्ध गदर आंदोलन आरंभ हुआ। पश्चिमी अमरीकी तट पर बसे पोर्टलैंड में मई 1913 में ‘हिंदुस्तान एसोसिएशन ऑफ द पैसेफिक कास्ट’ की स्थापना की गई थी। इसके आरंभिक नेताओं में थे- सोहनसिंह भखना (अध्यक्ष), काशीराम, मुहम्मद बरकतुल्लाह, भगवानसिंह, रामचंद्र्र, रासबिहारी बोस, भाई परमानंद, करतारसिंह सराबा, रामचंद्र पेशावरी, अब्दुल रहमान और दिल्ली के सेंट स्टीफेंस काॅलेज के प्रतिभाशाली किंतु थोड़े अस्थिर चित्त, बुद्धिजीवी लाला हरदयाल, जो अमेरिका में राजनीतिक निर्वासन का जीवन बिता रहे थे और एक पर्चा ‘युगांतर’ जारी कर चाँदनी चौक कांड का समर्थन किया था। इस संगठन ने सैन फ्रांसिस्को (कैलीफोर्निया) में ‘युगांतर आश्रम’ नाम से संस्था का मुख्यालय खोला और ‘युगांतर प्रेस’ की स्थापना कर ‘गदर’ नामक साप्ताहिक (बाद में मासिक) पत्र निकालना आरंभ किया। इसी ‘गदर’ साप्ताहिक पत्र के नाम पर ‘हिंदुस्तान एसोसिएशन आफ द पैसेफिक कास्ट’ को ‘गदर पार्टी’ के नाम से जाना जाने लगा।
गदर’ का पहला अंक
गदर आंदोलनकारियों ने खेतों और कारखानों में जाकर अप्रवासी भारतीयों से संपर्क कर उन्हें संगठित करना शुरू किया। ‘गदर’ का पहला अंक 1 नवंबर, 1913 को उर्दू और गुरुमुखी में प्रकाशित हुआ, बाद में यह हिंदी, गुजराती एवं अन्य अनेक भाषाओं में निकाला जाने लगा।
‘गदर’ के नाम के साथ लिखा होता था: अंग्रेजी राज का दुश्मन। गदर के हर अंक के पहले पृष्ठ पर चौदहसूत्रीय ‘अंग्रेजी राज्य का कच्चा चिट्ठा’ छपता था, किंतु जनता को सर्वाधिक प्रभावित किया ‘गदर’ में छपनेवाली कविताओं ने, जिनका एक संकलन बाद में ‘गदर की गूँज’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।
‘गदर’ की लोकप्रियता इतनी थी कि कुछ ही महीनों के भीतर यह पत्र भारत के साथ-साथ फिलीपींस, हांगकांग, चीन, मलाया, सिंगापुर, थाईलैंड, त्रिनिदाद व हाडुरास में बसे भारतीयों के बीच पहुँच गया।
गदर पार्टी की भावी रणनीति को तीन घटनाओं ने बहुत प्रभावित किया- लाला हरदयाल की गिरफ्तारी, कामागाटामारू कांड और प्रथम विश्वयुद्ध। 25 मार्च 1914 को लाला हरदयाल अराजकतावादी गतिविधियों में संलिप्त होने के आरोप में गिरफ्तार कर लिये गये और फिर जमानत पर रिहा होने के बाद अपने मित्रों की सलाह पर अमेरिका छोड़कर स्विट्जरलैंड चले गये।
कामागाटामारू कांड
कनाडा में भारतीयों को पसंद नहीं किया जाता था और कनाडा की सरकार भारतीयों को तरह-तरह से प्रताड़ित करती रहती थी। कनाडा की सरकार ने उन भारतीयों को कनाडा में घुसने पर प्रतिबंध लगा दिया, जो भारत से सीधे कनाडा न आया हो। यह बहुत सख्त कानून था, क्योंकि बीसवीं सदी के आरंभ तक नौपरिवहन इतना विकसित नहीं हुआ था कि किसी एक नौका से इतनी दूर की यात्रा बिना किसी पड़ाव पर रुके की जा सके। इस प्रकार के नये कानूनों से भारतीयों का कनाडा पहुंचना संभव नहीं था। किंतु नवंबर, 1913 में कनाडा की सुप्रीमकोर्ट ने 35 ऐसे भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति दे दी जो लगातार यात्रा करके नहीं आये थे। अदालत के फैसले से उत्साहित होकर सिंगापुर में ठेकेदारी करनेवाले अमृतसर के धनाढ्य व्यापारी बाबा गुरदीपसिंह कामागाटामारू नामक एक जापानी जहाज किराये पर लेकर 376 यात्रियों के साथ कनाडा के बैंकोवर बंदरगाह के लिए चल दिये।
इस बीच कनाडा सरकार ने अप्रवासी कानून की उन कमियों को दूर कर दिया जिसके कारण 35 भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति मिली थी। जब यह जहाज 22 मई, 1914 को कनाडा के तट पर पहुँचा तो कनाडा की पुलिस ने इसे बंदरगाह से दूर ही रोक दिया और जहाज को वापस भारत ले जाने का आदेश दिया। यात्रियों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए हुसैन रहीम, सोहनलाल पाठक एवं बलवंत सिंह ने ‘शोर कमेटी’ (तटीय समिति) का गठन किया, चंदा इकट्ठा किया और विरोध में बैठकें कीं। यहाँ तक कि भारत में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने की धमकी भी दी गई।
किंतु कनाडा की सरकार पर शोर कमेटी के आंदोलन का कोई असर नहीं हुआ और कामागाटामारू को कनाडा की जलसीमा से बाहर कर दिया गया। जब तक यह जहाज याकोहामा पहुंचता, प्रथम विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। ब्रिटिश सरकार ने आदेश दिया कि जहाज को सीधे कलकत्ता लाया जाए और किसी भी यात्री को कहीं भी उतरने न दिया जाए।
किसी तरह 26 दिसंबर, 1914 को जहाज जब कलकत्ता के बजबज बंदरगाह पर पहुँचा तो पुलिस ने गुरदीपसिंह और अन्य यात्रियों को गिरफ्तार करना चाहा। पहले से परेशान और क्षुब्ध यात्रियों का पुलिस से जमकर संघर्ष हुआ, जिसमें 18 यात्री मारे गये और 202 जेल में डाल दिये गये। बाबा गुरदीपसिंह और कुछ अन्य लोग भाग निकले।
अमरीका में भगवानसिंह, बरकतुल्ला, रामचंद्र एवं सोहनसिंह ने कामागाटामारू की घटना का ब्रिटेन-विरोधी भावनाएँ जगाने में प्रयोग किया और भारतीयों से विद्रोह के लिए तैयार रहने को कहा।
प्रथम विश्वयुद्ध और गदर आंदोलन
गदर आंदोलन को गति प्रदान करनेवाली तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध की शुरूआत। तत्काल पूर्ण स्वाधीनता पाने के लिए प्रयत्नशील गदर आंदोलनकारियों के लिए प्रथम विश्वयुद्ध ईश्वर का वरदान प्रतीत हुआ। इस समय अंग्रेज और भारतीय सेना की कई टुकडि़यांँ भारत से बाहर जा रही थीं (एक समय ऐसा आया कि भारत में गोरे सिपाहियों की संख्या केवल 15,000 ही रह गई थी), और ब्रिटेन के जर्मन एवं तुर्क शत्रुओं से सैन्य एवं वित्तीय सहायता मिलने की उम्मीद बढ़ रही थी। तुर्की के विरुद्ध ब्रिटेन का युद्ध हिंदू राष्ट्रवादियों एवं संघर्षशील अखिल-इस्लामवादियों को एक-दूसरे के निकट ले आया।
ऐलान-ए-जंग
प्रथम विश्वयुद्ध की शुरूआत और नवीन घटनाक्रम से उत्साहित गदर नेताओं ने भारत से ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए इस अवसर का लाभ उठाना चाहा। गदर आंदोलनकारियों को लगा कि कुछ न करने से, कुछ करते हुए मर जाना ही बेहतर है। हथियारों की कमी को देखते हुए निश्चय किया गया कि भारत वापस जाकर भारतीय सैनिकों की सहायता ली जाए। अब गदर पार्टी ने ‘ऐलान-ए-जंग’ (युद्ध) की घोषणा कर दी।
गदरपंथी हथियार और धन भारत भेजने लगे ताकि यहाँ के सैनिकों और स्थानीय क्रांतिकारियों की सहायता से विद्रोह को आरंभ किया जा सके। मोहम्मद बरकतुल्ला, रामचंद्र और भगवानसिंह के प्रयासों से हजारों लोग भारत जाने के लिए आगे आये। भारत वापस जानेवाले क्रांतिकारियों को संबोधित करते हुए रामचंद्र ने कहा, ‘‘भारत जाओ और देश के कोने-कोने में विद्रोह भड़का दो। अमीरों को लूटो और गरीबों की मदद करो। इस तरह पूरी दुनिया की सहानुभूति प्राप्त करो। भारत पहुँचने पर तुम्हें हथियार दे दिये जायेंगे। हथियार न मिले तो राइफल प्राप्त करने के लिए पुलिस चैकियों को लूटो।’’ करतारसिंह सराभा और रघुवीरदयाल गुप्त जैसे अति गरमपंथी नेता पहले ही भारत रवाना हो चुके थे।
गदर आंदोलनकारियों को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने कमर कस ली थी। प्रवासी भारतीयों के भारत लौटने पर पूरी जाँच-पड़ताल शुरू की गई। लगभग 8,000 प्रवासी भारतीय कामागाटामारू और तोसामारू जहाजों से स्वदेश लौटे, जिनमें से 5,000 को अपने-अपने घर जाने दिया गया, और 1,500 लोग कड़ी निगरानी में रखे गये। फरवरी, 1915 तक 189 व्यक्ति नजरबंद किये गये और 704 व्यक्तियों को अपने ही गाँव में रहने का आदेश दिये गये। श्रीलंका और दक्षिण भारत से आने वाले तमाम लोग प्रशासन को चकमा देकर पंजाब पहुँच गये, किंतु बड़ी कोशिशों के बाद भी पंजाबी गदर आंदोलनकारियों का साथ देने को तैयार नहीं हुए। ब्रिटिश सरकार के प्रबल समर्थक प्रमुख खालसा दीवान ने इन क्रांतिकारियों को ‘पतित और अपराधी’ सिख घोषित कर दिया और इनके दमन में ब्रिटिश सरकार को पूरा सहयोग देकर अपनी वफादारी निभाई।
सैनिक विद्रोह के प्रयास
पंजाब की जनता के व्यवहार से क्षुब्ध होकर गदर आंदोलनकारी भारतीय सैनिकों का समर्थन जुटाकर नवंबर, 1914 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सैनिक विद्रोह के प्रयास किये। किंतु संगठित नेतृत्व और केंद्रीय नियंत्रण के अभाव में उनके प्रयास विफल हो गये। एक कुशल नेतृत्व की तलाश में बंगाली क्रांतिकारियों से संपर्क किया गया। अंततः शचींद्रनाथ सान्याल और विष्णु पिंगले के प्रयासों से वायसराॅय हार्डिंग पर बम फेंकनेवाले क्रांतिकारी रासबिहारी बोस विद्रोह का नेतृत्व सँभालने के लिए जनवरी 1915 में पंजाब पहुँच गये।
रासबिहारी बोस ने एक संगठन का प्रारूप तैयार किया। करतारसिंह सराभा जैसे क्रांतिकारियों ने देश की सैनिक छावनियों में भारतीय सैनिकों से संपर्क किया। फिरोजपुर, लाहौर व रावलपिंडी की रेजिमेंटों को विद्रोह करने के लिए राजी किया। 21 फरवरी, 1915 (जिसे बाद में बदलकर 19 फरवरी कर दिया गया) को फिरोजपुर, लाहौर व रावलपिंडी के फौजियों से प्रारंभ होनेवाले अखिल-भारतीय विद्रोह की सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं, किंतु अंतिम क्षण में एक साथी कृपालसिंह के विश्वासघात ने सारे किये-कराये पर पानी फेर दिया। परिणामतः सरकार ने गदर पार्टी के अधिकांश नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और विद्रोह के लिए तत्पर रेजिमेंटों को विघटित कर दिया गया तथा उनके नेताओं को या तो जेल में बंद कर दिया गया या उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। 23वें रिसाले के 12 लोगों को मौत की सजा दी गई। रासबिहारी किसी तरह बचकर जापान चले गये, और शचींद्रनाथ सान्याल को बनारस और दानापुर में फौजियों को बरगलाने के अपराध में आजीवन कारावास की सजा मिली। इस प्रकार व्यावहारिक रूप से गदर आंदोलन समाप्त हो गया।
लाहौर षड्यंत्र केस
ब्रिटिश सरकार ने युद्धकालीन खतरे का सामना करने के लिए अत्यंत दमनकारी कदम उठाये, जैसे मार्च 1915 का भारत सुरक्षा कानून, जिसका प्रमुख लक्ष्य गदर आंदोलन को कुचलना था। बंगाल और पंजाब में संदेह के आधार पर बड़ी संख्या में लोग बंदी बनाये गये और उन पर ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ (अप्रैल 1915-जनवरी, 1917) के नाम से मुकदमे चलाये गये। एक अनुमान के मुताबिक गदर से संबंधित अभियुक्तों में 46 को मृत्युदंड और 64 को आजीवन कारावास दिया गया। बंगाल के क्रांतिकारियों और पंजाब के गदर पार्टीवालों के अलावा जुझारू अखिल-इस्लामवादियों से भी अंग्रेजों को खतरा था, इसलिए अलीबंधु, हसरत मोहानी और आजाद जैसे नेता भी नजरबंद रखे गये।
गदर आंदोलन की विशेषताएँ
गदर आंदोलन की सबसे प्रमुख विशेषता थी कि इसने उपनिवेशवाद के खिलाफ वैचारिक संघर्ष छेड़ा। आरंभिक राष्ट्रवादियों ने औपनिवेशिक सरकार के चरित्र का जो विश्लेषण और पर्दाफाश किया था, उसे गदर अखबार ने ही सीघी-सीधी, किंतु प्रभावशाली भाषा में भारतीय अप्रवासी जन-समूह तक पहुँचाया। इस व्यापक प्रचार के कारण ही ऐसे उत्साही राष्ट्रवादियों का आविर्भाव हुआ जो देश के लिए सब-कुछ न्यौछावर करने को तैयार थे।
गदर आंदोलन की दूसरी प्रमुख विशेषता इसकी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा थी। यद्यपि इस आंदोलन के अधिकांश नेता सिख थे, किंतु ‘गदर’ और ‘गदर की गूँज’ कविता-संग्रह ने जिस विचारधारा का प्रचार किया, उसका चरित्र मूलतः धर्मनिरपेक्ष था। उस जमाने में विभिन्न धर्मों और वर्गों के लोगों को संकीर्ण मानसिकता से दूर रखना और उन्हें एक मंच पर लाकर संघर्ष के लिए तैयार करना एक महान् उपलब्धि थी। लाला हरदयाल, रामचंद्र व कई अन्य लोग हिंदू थे, बरकतुल्ला मुसलमान थे और रासबिहारी बोस बंगाली हिंदू। सोहनसिंह भखना के शब्दों में ‘‘हम सिख या पंजाबी नहीं थे। हमारा धर्म देशभक्ति था।’’
गदर क्रांतिकारियों में किसी प्रकार की क्षेत्रीय भावना भी नहीं थी। तिलक, अरबिंद घोष, खुदीराम बोस, कन्हाईलाल दत्त और सावरकर जैसे क्रांतिकारी नेता गदर आंदोलनकारियों के आदर्श थे। यही नहीं, आंदोलनकारियों ने बंगाल के क्रांतिकारी रासबिहारी घोष को सर्वसम्मति से अपना नेता चुना था। गदर आंदोलनकारियों ने कभी सिखों व पंजाबियों के धर्मगुरुओं का गुणगान नहीं किया, उल्टे उन्होंने 1857 के विद्रोह के दौरान पंजाबियों द्वारा अंग्रेजी हुकूमत के प्रति वफादारी जताने की निंदा की।
गदर आंदोलन की विचारधारा की एक अन्य विशेषता इसका लोकतांत्रिक और समतावादी चरित्र था। गदर क्रांतिकारी एक स्वतंत्र भारतीय गणतंत्र की स्थापना करना चाहते थे। लाला हरदयाल अराजकतावादी, श्रमिक संघवादी और कुछ हद तक समाजवादी विचारधारा से पहले से ही प्रभावित थे। उन्होंने गदर क्रांतिकारियों को अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया। वे अपने भाषणों और लेखों में आयरलैंड, मैक्सिको और रूसी क्रांतिकारियों का गुणगान करते थे। यही कारण है कि कालांतर में अनेक गदर क्रांतिकारियों ने पंजाब में किरती और कम्युनिस्ट आंदोलनों की नींव रखी।
गदर आंदोलन का मूल्यांकन
यद्यपि गदर आंदोलन सही समझ, प्रभावी नेतृत्व और मजबूत संगठन के अभाव में अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सका, किंतु इसका आशय यह नहीं है कि आंदोलन निरर्थक था और पूरी तरह असफल हो गया। गदर पार्टी वालों, ने सेना और किसानों के बीच क्रांतिकारी विचारों को फैलाने की दिशा में अग्रणी कार्य किया। इस आंदोलन ने तत्कालीन समाज की राजनीतिक चेतना को जाग्रत कर न केवल संघर्ष की नई रणनीतियों का विकास और प्रयोग किया, वरन् धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र व समानता की परंपराओं की रचना और पुष्टि भी की। जब भारत के सभी राजनीतिक दल प्रथम महायुद्ध के समय ब्रिटिश सरकार की सहायता कर रहे थे, तो राष्ट्रवादी क्रांतिकारी अपने जान की बाजी लगाकर अंग्रेजी शासन को समाप्त करने का प्रयास कर रहे थे।
अन्य देशों में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
सिंगापुर
गदर आंदोलन की प्रेरणा से 15 फरवरी, 1915 को सिंगापुर में विद्रोह हुआ। इस विद्रोह में पंजाबी मुसलमानों की पांँचवीं लाईट इन्फैंट्री बटालियन एवं 36वीं सिख बटालियन का हाथ था। इसके नेता जमादार चिश्तीखान, जमादार अब्दुल गनी और सूबेदार डंडेखान थे। ब्रिटिश सरकार की दमनात्मक कार्यवाही में 37 सैनिकों को मृत्युदंड और 41 को आजीवन कारावास की सजा मिली।
जर्मनी (बर्लिन)
विश्वयुद्ध के दौरान, विशेषकर तब जब इंग्लैंड और जर्मनी के आपसी संबंध बिगड़ने लगे, भारतीय क्रांतिकारियों को सहायता भेजने का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बर्लिन था। वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय 1909 के बाद से ही बर्लिन को अपनी गतिविधियों का केंद्र बना लिये थे और 20 नवंबर, 1909 से ‘तलवार’ का प्रकाशन करने लगे थे। वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, भूपेन दत्त, लाला हरदयाल जैसे लोगों ने भारतीय क्रांतिकारियों को आर्थिक एवं अस्त्र-शस्त्र की सहायता देने के लिए जर्मन विदेश विभाग की मदद से तथाकथित ‘जिमरमेन योजना’ के अंतर्गत इंडियन इंडिपेंडेंस कमेटी की स्थापना की जिसके प्रथम अध्यक्ष मंसूर अहमद थे। इंडियन इंडिपेंडेंस कमेटी कोई नई संस्था नहीं थी, वरन् चट्टोपाध्याय, ज्ञानेंद्रचंद्र दास व चंपकरमन पिल्लै द्वारा स्थापित ‘भारत मित्र जर्मन समिति’ का नया संस्करण थी।
सिल्क पेपर षड्यंत्र केस
एक भारतीय-जर्मन-तुर्क मिशन ने, जिसमें मौलवी उबैदुल्ला, मुहम्मद मियाँ अंसारी तथा महमूद हसन जैसे कुछ जुझारू मुसलमान नवयुवक प्रमुख थे, भारत-ईरान सीमा पर रहनेवाले कबायलियों में भी ब्रिटिश-विरोधी भावनाएँ भड़काने का प्रयास किया। किंतु सरकार को इस योजना की भी भनक लग गई और इस षड्यंत्र में शामिल लोगों को कैदकर ‘सिल्क पेपर षड्यंत्र केस’ (9 जुलाई, 1916) के नाम से मुकदमा चलाया गया।
काबुल
जर्मनी के सहयोग से प्रथम विश्वयुद्ध का लाभ उठाकर आर्यन पेशवा के नाम से प्रसिद्ध राजा महेंद्रप्रताप सिंह ने 1 दिसंबर 1915 को काबुल से भारत के लिए ‘अस्थायी स्वतंत्र भारत सरकार’ की घोषणा की जिसके राष्ट्रपति वह स्वयं तथा प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खाँ बने। अपनी सरकार के समर्थन के लिए महेंद्रप्रताप ने कई देशों की सरकारों से संपर्क किया, किंतु इस प्रयास का कोई विशेष परिणाम नहीं निकला।
भारतीय सैनिकों से संपर्क करने और उन्हें विद्रोह के लिए तैयार करने के लिए संयुक्त राज्य अमरीका में रामचंद्र जैसे नेताओं को एवं चंद्र चक्रवर्ती के नेतृत्व में बर्लिन कमेटी के न्यूयार्क स्थित सदस्यों को जर्मनी से पर्याप्त धनराशि मिलती थी। विश्वयुद्ध में अमरीका के शामिल हो जाने पर ‘हिंदू कांस्पिरेंसी केस’ (1918) द्वारा ऐसी सभी गतिविधियों को समाप्त कर दिया गया। सुदूर-पूर्व में भी जर्मन दूतावासों के माध्यम से धनराशि भेजी जाती थी, और 1915 के बाद रासबिहारी बोस और अवनि मुखर्जी ने शस्त्र भेजने के अनेक प्रयास किये।
क्रातिकारी आंदोलन का भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन पर प्रभाव
भारतीय क्रांतिकारियों के विदेश-भ्रमण ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को कई तरह से प्रभावित किया। इसने न केवल प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभिक वर्षों में ब्रिटिश सरकार को गंभीर खतरे में डाला, बल्कि आरंभिक संघर्षशील राष्ट्रवाद की तीव्र हिंदू धार्मिकता, आंचलिकता और अपेक्षाकृत सीमित सामाजिक दृष्टिकोण का अंत भी किया। अरबिंद घोष के आक्रामक हिंदू परचे ‘भवानी मंदिर’ (1905) में ‘संसार के आर्यीकरण’ की आवश्यकता’ की बात कही गई थी, लेकिन लंदन स्थित समूह के परचे ‘ओह मार्टियर्स’ (1907) ने 1857 के हिंदू-मुसलमानों के एकजुट विद्रोह की याद दिला दी कि ‘‘कैसे फिरंगियों का राज बिखर गया था और हिंदुओं और मुसलमानों की साझी सहमति से स्वदेशी राज स्थापित हुए थे….।’’
भारतीय क्रांतिकारियों के विदेश-भ्रमण से साम्राज्यवाद-विरोधी एक अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि का भी उदय हुआ: ‘‘धींगरा की पिस्तौल की आवाज को आयरिश कुटीर कृषक ने अपनी एकाकी कुटिया में सुना है, मिस्र के किसान ने खेतों में और जुलू श्रमिक ने अंधेरी खदानों में सुना है..।” दरअसल आयरिश जुझारू संगठनों के साथ भारतीय क्रांतिकारियों के संबंध बहुत घनिष्ठ थे। भारतीय कस्टम अधिकारी ‘इंडियन सोशियोलाजिस्ट’, ‘वंदेमातरम्’ और चट्टोपाध्याय के ‘तलवार’ (बर्लिन), तारकनाथ दास के ‘फ्री हिंदुस्तान’ (बैंकोवर) एवं ‘गदर’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं के साथ न्यूयार्क से प्रकाशित होनेवाली जी.एफ. फ्रीमन के ‘गैलिक अमरीकन’ को भी बराबर जब्त कर रहे थे।
भारत से बाहर जानेवाले क्रांतिकारियों ने अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन से भी संबंध स्थापित किये। ब्रिटिश मार्क्सवादी संगठन सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन के हिंडमैन कृष्णवर्मा के इंडिया हाउस में होनेवाली सभाओं को संबोधित करते थे। अगस्त 1907 में मैडम कामा ने दूसरी इंटरनेशनल की स्टुटगार्ट कांग्रेस में स्वतंत्र भारत का झंडा लहराया और हरदयाल ने अराजकतावादी-संघवादी इंडस्ट्रियल वर्कर्स आफ दि वर्ल्ड की सैन फ्रांसिस्को शाखा के सचिव का कार्यभार सँभाले। वे ‘माडर्न रिव्यू’ के मार्च 1912 अंक में कार्ल मार्क्स पर लेख लिखनेवाले शायद पहले भारतीय भी थे। इसी परिवेश से रूस की अक्टूबर क्रांति के बाद नरेन भट्टाचार्य (एम.एन. राय), वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय और अवनी मुखर्जी जैसे पहले भारतीय कम्युनिस्ट नेता निकले।
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