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बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
बीसवीं सदी के तीसरे दशक में बंगाल में कांग्रेसी नेतृत्व दो गुटों में बँट गया- जिसमें एक गुट के नेता सुभाषचंद्र बोस थे और दूसरे गुट के नेता जे.एम. सेनगुप्त। बंगाल का क्रांतिकारी समूह ‘युगांतर’ सुभाषचंद्र बोस के साथ हो गया और ‘अनुशीलन’ समूह जे.एम. सेनगुप्त के साथ। 1923-24 में थोड़े समय के लिए बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों का उभार हुआ जिसकी चरम परिणति जनवरी 1924 गोपीनाथ साहा द्वारा एक अंग्रेज डे की हत्या में हुई जिसमें वास्तविक लक्ष्य बंगाल का कुख्यात कमिश्नर चार्ल्स टेगार्ट था।
अक्टूबर 1924 के बंगाल आर्डीनेंस के तहत तमाम संदिग्ध लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें सुभाषचंद्र बोस जैसे कई कांग्रेसी भी थे। गोपीनाथ साहा की फाँसी के बाद कुछ समय के लिए बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ कुछ मंद पड़ गईं। सरकार को लगा कि वह क्रांतिकारी आंदोलन को दबाने में सफल हो गई है, फलतः 1928 में सभी नजरबंद राष्ट्रवादी रिहा कर दिये गये और अपराध क़ानून संशोधन अधिनियम और 1925 के अध्यादेश की अवधि को 1930 में और आगे नहीं बढ़ाया गया। किंतु 1928-29 की आर्थिक मंदी और बढ़ती बेरोजगारी के कारण शिक्षित बंगाली युवकों में बेचैनी बढने लगी। काकोरी और लाहौर षड्यंत्र केस तथा जतीनदास की शहादत की प्रेरणा से बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ एक बार फिर उभरने लगीं। नये क्रांतिकारियों ने क्रांतिकारी गतिविधियाँ को चलाने के लिए अपने-अपने गुट बनाये, किंतु ‘अनुशीलन’ और ‘युगांतर’ जैसे पुराने गुटों से भी वे अच्छा संबंध बनाये रखे और उनसे दिशा-निर्देश लेते रहे।
सूर्यसेन और चटगाँव विद्रोह समूह
1929 में अनेक विद्यार्थी संगठन और गुप्त समितियाँ स्थापित हुईं। पुनर्गठित या नवगठित क्रांतिकारी समूहों में पूर्वी बंगाल में चटगाँव के क्रांतिकारियों का मास्टर सूर्यसेन का गुट सबसे अधिक सक्रिय था। मास्टर सूर्यसेन चटगाँव के राष्ट्रीय विद्यालय में शिक्षक थे और लोग उन्हें प्यार से ‘मास्टर दा’ कहते थे। सूर्यसेन जब विद्यार्थी थे, तभी अपने एक राष्ट्रप्रेमी शिक्षक की प्रेरणा से वे ‘अनुशीलन समिति’ के सदस्य बन गये थे। सूर्यसेन ने 1918 में स्थानीय स्तर पर युवाओं को संगठित करने के लिए ‘‘युगांतर पार्टी’ की स्थापना की थी। असहयोग आंदोलन में सूर्यसेन ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। साम्राज्यवादी सरकार जब क्रांतिकारियों का क्रूरतापूर्वक दमन कर रही थी, तो मास्टर सूर्यसेन ने दिसंबर 1923 में दिन-दहाड़े चटगाँव में आसाम-बंगाल रेलवे के कोषागार को लूट लिया था।
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क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप में सूर्यसेन को दो साल (1926 से 1928) की सजा हुई थी। जेल से छूटने के बाद भी सूर्यसेन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़े रहे। सूर्यसेन 1929 में चटगाँव जिला कांग्रेस कमेटी के सचिव थे और उनके पाँच अन्य सहयोगी इसके सदस्य थे। मास्टर सूर्यसेन ने कांग्रेस जैसे अहिंसक दल के साथ जुड़े रहकर भी बहुत सारे क्रांतिकारियों को अपना समर्थक बना लिया था।
सूर्यसेन के समर्थकों में अनंतसिंह, अंबिका चक्रवर्ती, गणेश घोष, लोकनाथ बाउल के साथ-साथ कल्पना दत्त और प्रीतिलता वाडेदर जैसी नवयुवतियाँ और आनंद गुप्त तथा टेगरावाल जैसे नवयुवक भी थे। सूर्यसेन गुट के जुझारू क्रांतिकारियों ने जनता को यह दिखाने के लिए कि ‘सशस्त्र विद्रोह से अंग्रेजी साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंका जा सकता है’, छोटे पैमाने पर एक विद्रोही कार्रवाई की योजना बनाई। सूर्यसेन की प्रस्तावित कार्रवाई में ब्रिटेन की भारतीय सेना की वर्दी में 50 क्रांतिकारियों के चार समूहों को चटगाँव व बारीसाल के सरकारी शस्त्रागार को लूटना, टेलीफोन एक्सचेंज और तारघर को नष्ट करना तथा चटगाँव और शेष बंगाल के बीच रेल-संपर्क को भंग करना शामिल था।
चटगाँव आर्मरी रेड (1930)
सूर्यसेन के निर्देशन में 18 अप्रैल 1930 को रात के दस बजे योजनाबद्ध ढ़ंग से गणेशघोष के नेतृत्व में छः क्रांतिकारियों ने चटगाँव के पुलिस शस्त्रागार पर और लोकनाथ बाउल के नेतृत्व में दस युवा क्रांतिकारियों ने सैनिक शस्त्रागार पर अधिकार कर लिया, जिसे ‘चटगाँव आर्मरी रेड’ के नाम से जाना जाता है। शस्त्रागार पर अधिकार कर क्रांतिकारी हथियार तो पा गये, किंतु गोला-बारूद नहीं पा सके जो क्रांतिकारियों की योजना के लिए बहुत बड़ा झटका था। टेलीफोन और टेलीग्राफ संचार-व्यवस्था भंग करने और रेलमार्गों को अवरुद्ध करने में क्रांतिकारियों को सफलता मिल गई थी। चटगाँव आर्मरी रेड इंडियन रिपब्लिकन आर्मी, चटगाँव शाखा के नाम से की गई, जिसमें 65 क्रांतिकारी शामिल थे।
क्रांतिकारी सरकार का गठन
चटगाँव आर्मरी रेड के सभी क्रांतिकारी पुलिस शस्त्रागार के बाहर इकट्ठा हुए, जहाँ मास्टर सूर्यसेन ने अपनी भारतीय गणतंत्र सेना से विधिवत् सैनिक सलामी ली। ‘वंदेमातरम्’ और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारों के बीच सूर्यसेन ने ‘तिरंगा’ फहराया और एक कामचलाऊ क्रांतिकारी सरकार के गठन की घोषणा की।
चटगाँव आर्मरी रेड के क्रांतिकारी शाम होते ही चटगाँव शहर छोड़कर सुरक्षित स्थान की खोज में चटगाँव की पहाड़ियों की ओर भाग गये। 22 अप्रैल की दोपहर को जलालाबाद की पहाड़ियों में 57 क्रांतिकारियों को अंग्रेजी सेना के कई हजार जवानों ने घेर लिया। क्रांतिकारियों और अंग्रेजी सेना के बीच संघर्ष में अंग्रेजी सेना के लगभग 64 सैनिक और 12 क्रांतिकारी मारे गये अथवा बंदी बना लिये गये। सूर्यसेन और कुछ अन्य क्रांतिकारी गुरिल्ला युद्ध जारी रखने के लिए किसी तरह बच निकलने में कामयाब रहे।
सरकार की दमनात्मक कार्यवाइयाँ
चटगाँव कांड से घबड़ाई ब्रिटिश सरकार बर्बर दमन पर उतारू हो गई और अनेक दमनकारी कानूनों को लागू कर इस क्रांतिकारी आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया। चटगाँव में पुलिस ने कई गाँवों को जलाकर राख कर दिया और अनेक ग्रामीणों से जुर्माना वसूला। देशद्रोह के आरोप में 1933 में जवाहरलाल नेहरू गिरफ्तार कर लिये गये तथा उन्हें दो वर्ष की सजा दी गई। जवाहरलाल नेहरू पर साम्राज्यवाद तथा पुलिस के दमन की निंदा करने तथा क्रांतिकारी युवकों के साहस और वीरता की प्रशंसा करने का आरोप था।
चटगाँव आर्मरी रेड का महत्त्व
‘चटगाँव आर्मरी रेड’ भारत के क्रांतिकारी आंदोलनों में बेमिसाल है। एक सरकारी प्रकाशन के अनुसार चटगाँव आर्मरी रेड कांड से क्रांतिकारी सोचवाले युवकों का उत्साह बढ़ा और वे भारी संख्या में क्रांतिकारी गुटों में शामिल होने लगे। 1930 में क्रांतिकारी गतिविधियों ने जोर पकड़ा और यह क्रम 1932 तक चलता रहा, जो मुख्यतः हत्या और डकैतियों तक ही सीमित रहा। इस दौरान मिदनापुर जिले में तीन अंग्रेज मजिस्ट्रेट मारे गये; दो गर्वनरों की हत्या के प्रयास किये गये और दो पुलिस महानिरीक्षक मारे गये। 1930 से 1932 के बीच 22 अंग्रेज अधिकारी व 20 गैर-अधिकारी लोगों की हत्या हुई।
सूर्यसेन को फाँसी, 12 जनवरी 1934
सूर्यसेन अपने एक साथी नेत्रसेन के विश्वासघात के कारण 16 फरवरी 1933 में बंदी बना लिये गये और 12 जनवरी 1934 को फाँसी पर लटका दिये गये। सूर्यसेन की शहादत से बंगाल में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का एक लंबा और गौरवपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया।
बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन की प्रमुख विशेषताएँ
बंगाल के नये क्रांतिकारी आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता थी- बड़े पैमाने पर युवतियों की भागीदारी। सूर्यसेन के नेतृत्व में अनेक जुझारू महिलाएँ क्रांतिकारियों को शरण देने, संदेश पहुँचाने और हथियारों की रक्षा करने का काम करती थीं। प्रीतिलता वाडेदर ने पहाड़तली (चटगाँव) में रेलवे इंस्टीट्यूट पर छापा मारा और इस दौरान वह मारी गई, जबकि कल्पना दत्त (जोशी) को सूर्यसेन के साथ गिरफ्तार किया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली। दिसंबर 1931 में कोमिल्ला की दो स्कूली छात्राओं- शांति घोष और सुनीति चौधरी ने एक जिलाधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी। फरवरी 1932 में बीनादास ने दीक्षांत समारोह में उपाधि-ग्रहण के समय गवर्नर पर बहुत नजदीक से गोली चलाई।
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चटगाँव विद्रोह पुराने राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों तथा भगतसिंह व उनके सहयोगियों की तुलना में कहीं अधिक प्रभावकारी था। चटगाँव विद्रोह के क्रांतिकारियों ने सामूहिक रूप से औपनिवेशिक सत्ता के महत्त्वपूर्ण अंगों पर संगठित प्रहार को अधिक महत्त्व दिया। चटगाँव विद्रोह के क्रांतिकारियों का उद्देश्य युवाओं के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करना और सरकारी नौकरशाही के मनोबल को गिराना था।
1920-30 के दौरान बंगाल के अनेक क्रांतिकारियों की हिंदू धर्मपरायणता भी कम होने लगी थी। चटगाँव की इंडियन रिपब्लिकन आर्मी (भारतीय प्रजातांत्रिक सेना) में सत्तार, फकीर अहमद मियाँ, मीर अहमद, तूनू मियाँ जैसे अनेक मुसलमान थे। 22 जुलाई 1933 को बंबई के कार्यवाहक गवर्नर होस्टन की फर्ग्युसन कालेज, पूना में एक छात्र द्वारा गोली मारकर हत्या करने का प्रयास किया गया। इसी प्रकार की क्रांतिकारी घटनाओं की सूचना भारत के अन्य शहरों से भी मिलती है। 13 मार्च 1940 को उधमसिंह ने लंदन में पंजाब के पूर्व गवर्नर ‘ओ’डायर की हत्या कर जालियाँवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया।
जुझारू क्रांतिकारियों की असफलता निश्चित थी, क्योंकि इनकी राजनीति जनांदोलन की राजनीति नहीं थी और वे जनता को उद्वेलित करने या राजनीतिक संघर्ष में शामिल करने में असफल रहे। फिर भी, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में इन जुझारू नवयुवकों का योगदान अमूल्य और अविस्मरणीय रहेगा। जुझारू नवयुवकों ने समूचे देश में राष्ट्रवादी चेतना का संचार किया और गांधीवादियों का नारा ‘क्रांति अमर रहे’ (इंकलाब जिंदाबाद) पहली बार इन्हीं लोगों ने लगाया था।
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