नर्मदा नदी के दक्षिण में भारत का प्रायद्वीपीय क्षेत्र, जिसे दक्कन क्षेत्र कहा जाता है, में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और उड़ीसा के कुछ हिस्से, तथा नर्मदा और कृष्णा नदियों के बीच का दोआब क्षेत्र शामिल है। चौदहवीं शताब्दी में दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में दक्षिण भारत के इस दक्कन क्षेत्र में दो महत्त्वपूर्ण साम्राज्यों का उदय हुआ—विजयनगर साम्राज्य और बहमनी साम्राज्य। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना 1336 ई. में दो भाइयों, हरिहर और बुक्का ने की थी, जबकि बहमनी साम्राज्य के बारे में इस लेख में विस्तार से चर्चा की गई है।

बहमनी साम्राज्य का उदय मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में हुए विद्रोहों का परिणाम था। उनके शासन के अंतिम दिनों में गुजरात के अमीरों के बाद गुलबर्गा, सागर और दौलताबाद के अमीरों ने भी सुल्तान के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इन अमीरों को ‘अमीरान-ए-सदा’ कहा जाता था और ये विदेशी मूल के थे। इन्होंने दौलताबाद पर कब्जा कर लिया और अपने में से एक वरिष्ठ अमीर, इस्माइल मुख, को अपना नेता चुना। इस्माइल मुख ने सुल्तान नासिरुद्दीन शाह की उपाधि धारण की और अमीरों के संघ के मुखिया, तुर्की गवर्नर हसन गंगू को ‘अमीरुल-उमरा’ और ‘जफर खाँ’ की उपाधि प्रदान की।
दौलताबाद का यह नवीन राज्य अभी सुरक्षित नहीं था, क्योंकि गुलबर्गा, कल्याणी और सागर पर सुल्तान मुहम्मद का नियंत्रण बना हुआ था। जफर खाँ ने सागर और गुलबर्गा को सुल्तान से छीन लिया और दौलताबाद को घेरे हुए सुल्तान की सेना को पराजित किया। इन सफलताओं से जफर खाँ की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई। सुल्तान नासिरुद्दीन की आयु अधिक हो चुकी थी और नवीन राज्य को जफर खाँ जैसे कुशल सेनापति की आवश्यकता थी। इसलिए, नासिरुद्दीन ने सिंहासन त्याग दिया और दक्कन के सरदारों ने 3 अगस्त 1347 को हसन गंगू को ‘अलाउद्दीन अबुल मुजफ्फर हसन बहमनशाह’ की उपाधि से सुल्तान घोषित किया। यही स्वतंत्र मुस्लिम राज्य भारत में बहमनी साम्राज्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
बहमनी सल्तनत उत्तर में विंध्य पर्वत से लेकर दक्षिण में तुंगभद्रा नदी तक फैली थी। इसमें दौलताबाद, बरार, बीदर, गोलकुंडा, अहमदनगर, गुलबर्गा आदि प्रमुख क्षेत्र शामिल थे। आरंभ में, 1347 ई. से 1425 ई. तक, इस साम्राज्य की राजधानी हसनाबाद (गुलबर्गा) थी, जिसे बाद में 1425 ई. में मुहम्मदाबाद (बीदर) स्थानांतरित कर दिया गया। इस साम्राज्य के कुल अठारह सुल्तानों ने लगभग 200 वर्षों तक शासन किया। इस दौरान, वारंगल और विजयनगर साम्राज्य के शासकों से निरंतर संघर्ष चलता रहा, विशेषकर विजयनगर के साथ कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच के रायचूर दोआब को लेकर।
बहमनी साम्राज्य 1466-1481 ई. के दौरान अपने चरम पर पहुँचा, जब वजीर महमूद गवाँ ने गोवा पर कब्जा कर लिया, जो उस समय विजयनगर साम्राज्य के अधीन था। दक्कनी और अफाकी अमीरों के आपसी संघर्ष के कारण 1481 ई. में मुहम्मदशाह तृतीय ने महमूद गवाँ को फाँसी की सजा दे दी। दरअसल, बहमनी साम्राज्य में अमीर दो गुटों में विभाजित थे—अफाकी (विदेशी मूल के शिया) और दक्कनी (देशी मूल के सुन्नी मुसलमान, जो बहुत पहले दक्षिण भारत में बस गए थे)।
महमूद गवाँ की मृत्यु के बाद बहमनी साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया और इसके अवशेषों पर पाँच नए राज्य—बीदर, बीजापुर, अहमदनगर, बरार और गोलकुंडा का उदय हुआ, जिन्हें सामूहिक रूप से ‘दक्कन सल्तनत’ कहा जाता है। बहमनी वंश का अंतिम सुल्तान कलीमुल्लाह शाह था, जिसकी 1527 ई. में मृत्यु के साथ ही बहमनी साम्राज्य का अंत हो गया।
बहमनी साम्राज्य दक्षिण और उत्तर के बीच एक सांस्कृतिक सेतु साबित हुआ। बहमनी सुल्तानों के संरक्षण में एक समन्वित संस्कृति का विकास हुआ, जिसमें कुछ ऐसी विशेषताएँ थीं जो इसे उत्तर की संस्कृति से अलग करती थीं। बाद के सुल्तानों ने इन सांस्कृतिक परंपराओं को संरक्षित रखा, जो कालांतर में मुगल संस्कृति को भी प्रभावित करती थीं।
बहमनी साम्राज्य के शासक
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Toggleअलाउद्दीन हसन बहमनशाह (1347-1358 ई.)
अलाउद्दीन हसन बहमनशाह बहमनी वंश का प्रथम सुल्तान था। उसने 1347 ई. में गुलबर्गा को अपनी राजधानी बनाकर स्वतंत्र बहमनी राज्य की नींव रखी और गुलबर्गा का नाम बदलकर ‘हसनाबाद’ कर दिया।
वह अपने को ईरान के ‘इस्फंदियार’ के वीर पुत्र बहमनशाह का वंशज मानता था। हालांकि, इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार, वह प्रारंभ में दिल्ली के एक ब्राह्मण ज्योतिषी गंगू (गंगाधर शास्त्री वाबले) का नौकर था और अपने संरक्षक के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए ‘बहमनशाह’ की उपाधि धारण की थी। किंतु, फरिश्ता का यह मत सिक्कों या अन्य स्रोतों से पुष्ट नहीं होता। ‘बुरहान-ए-मआसिर’ के अनुसार हसन बहमन वंश का था, इसलिए उसका वंश बहमनी कहलाया। इतिहासकार रिचर्ड ईटन का मानना है कि जफर खाँ खिलजी दरबार में एक उच्च अधिकारी का भतीजा था।
बहमनी राज्य के दक्षिण में विजयनगर और पूर्व में वारंगल के हिंदू राज्य थे। अलाउद्दीन हसन एक योग्य सेनापति और कुशल प्रशासक था। वह स्वयं को दक्षिण भारत में तुगलक साम्राज्य का उत्तराधिकारी मानता था और संपूर्ण दक्षिण को बहमनी शासन के अधीन लाना चाहता था। इस कारण अगले सौ वर्षों तक बहमनी राज्य का दक्षिण के राज्यों से संघर्ष चलता रहा।
बहमनशाह ने नासिक और बगलान से अवशिष्ट तुगलक सेनाओं को हटाकर इन क्षेत्रों पर कब्जा किया। इसके बाद, उसने दक्षिणी प्रदेशों को जीतकर बहमनी राज्य की सीमा कृष्णा नदी तक विस्तारित की। 1350 ई. में उसने वारंगल के शासक कपाया नायक को पराजित कर खिराज देने के लिए बाध्य किया, लेकिन वारंगल को बहमनी राज्य में शामिल नहीं कर सका। उसने विजयनगर पर आक्रमण करने का विचार किया, लेकिन अपने विश्वस्त सेवक सैफुद्दीन गोरी के परामर्श पर इस अभियान को स्थगित कर दिया।
बहमनशाह ने अपने राज्य के प्रशासन के लिए एक अमीर वर्ग का गठन किया और साम्राज्य को चार प्रांतों—गुलबर्गा, दौलताबाद, बरार और बीदर में विभाजित किया। प्रत्येक प्रांत एक तरफदार के अधीन था। गुलबर्गा सबसे महत्त्वपूर्ण प्रांत था, जिसमें बीजापुर भी शामिल था।
बुरहान-ए-मआसिर के अनुसार बहमनशाह एक प्रजापालक और न्यायप्रिय सुल्तान था। इतिहासकारों ने भी उसकी प्रशंसा की है। उसने दक्षिण के हिंदू शासकों को अपने अधीन किया, लेकिन हिंदुओं से जजिया कर न लेने का आदेश दिया। अपने शासन के अंतिम दिनों में उसने पश्चिमी समुद्र तट पर स्थित दाबुल बंदरगाह पर कब्जा किया, जो बहमनी साम्राज्य का महत्त्वपूर्ण बंदरगाह बन गया। 4 फरवरी 1358 को उसकी मृत्यु हो गई, लेकिन मृत्यु से पहले उसने अपने सबसे बड़े पुत्र मुहम्मदशाह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।
मुहम्मदशाह प्रथम (1358-1375 ई.)
अलाउद्दीन हसन का उत्तराधिकारी उसका पुत्र मुहम्मदशाह प्रथम था, जो बहमनी वंश का दूसरा सुल्तान बना। उसे खलीफा से औपचारिक स्वीकृति प्राप्त थी। मुहम्मदशाह एक महान शासक था, लेकिन उसका अधिकांश समय विजयनगर और वारंगल के काकतीय हिंदू शासकों से युद्ध में व्यतीत हुआ। फरिश्ता का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण और विरोधाभासी है। युद्ध का आरंभ वारंगल के शासक कपाया नायक की माँग से हुआ। इसी समय विजयनगर के शासक बुक्का ने भी रायचूर दोआब की माँग की। मुहम्मदशाह ने अठारह महीने तक इन मांगों का जवाब नहीं दिया और युद्ध की तैयारी करता रहा। अंततः उसने रक्षात्मक युद्ध शुरू किया। उसने पहले वारंगल की सेनाओं को पराजित किया और फिर विजयनगर की सेनाओं को रायचूर दोआब से खदेड़ दिया। फरिश्ता के अनुसार, उसने इन राज्यों से भारी हर्जाना वसूल किया और कपाया नायक से गोलकुंडा और तख्त-ए-फिरोजा छीन लिया। मुहम्मदशाह ने विजयनगर के खिलाफ युद्ध में पहली बार बारूद और तोपखाने का उपयोग किया।
मुहम्मदशाह परिश्रमी था और प्रशासनिक कार्यों की स्वयं देखभाल करता था। उसने अपने राज्य में चोरी-डकैती और अराजकता को पूरी तरह समाप्त कर दिया। उसने प्रशासन का पुनर्गठन किया और केंद्रीय प्रशासन को आठ विभागों में बाँटकर आठ मंत्रियों की नियुक्ति की। इन सभी विभागों का प्रमुख वकील-उल-सल्तनत था। उसने सेना का पुनर्गठन किया और प्रांतीय शासकों पर प्रभावी नियंत्रण के लिए प्रतिवर्ष शाही दौरे की प्रथा शुरू की। हालांकि, अत्यधिक मद्यपान के कारण 1375 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
मुजाहिदशाह और दाऊदशाह
मुहम्मदशाह के बाद मुजाहिदशाह (1375-1377 ई.) सुल्तान बना। उसके संक्षिप्त शासनकाल में बहमनी और विजयनगर के बीच फिर से युद्ध हुआ। सुल्तान ने तुंगभद्रा के दक्षिणी प्रदेशों की माँग की, जिसके जवाब में बुक्का ने हाथियों की माँग की। युद्ध के आरंभ में सुल्तान को सफलता मिली, लेकिन वह अडोनी दुर्ग पर कब्जा करने में असफल रहा। इसलिए, उसने बुक्का से संधि कर वापस लौट गया। इसके बाद, उसके चचेरे भाई दाऊद खाँ ने उसकी हत्या करवा दी और 1378 ई. में स्वयं सुल्तान बन गया।
दाऊदशाह बहमनी वंश का चौथा सुल्तान था, लेकिन वह केवल एक वर्ष तक शासन कर सका, क्योंकि मुजाहिदशाह की बहन ने उसकी हत्या करवा दी। इसके बाद अमीरों ने हसनशाह के पौत्र मुहम्मदशाह द्वितीय को सिंहासन पर बैठाया।
मुहम्मदशाह द्वितीय (1378-1397 ई.)
मुहम्मदशाह द्वितीय बहमनी वंश का पाँचवाँ सुल्तान था। वह उदार, शांतिप्रिय, अध्ययन में रुचि रखने वाला और विद्या का संरक्षक था। उसके शासनकाल में गुलबर्गा विद्वानों का केंद्र बन गया। उसने शीराज के प्रसिद्ध विद्वान मीर फजलुल्ला अंजू को अपना सद्र-ए-जहाँ नियुक्त किया और फारसी कवि हाफिज शीराजी को गुलबर्गा आने का निमंत्रण दिया। दर्शन और कविता के प्रति उसकी रुचि के कारण उसे ‘दूसरा अरस्तू’ कहा गया। उसने कई मस्जिदों का निर्माण करवाया और अनाथों के लिए निःशुल्क विद्यालय स्थापित किए। 1397 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
मुहम्मदशाह द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका पुत्र गयासुद्दीन (1397 ई.) सुल्तान बना, लेकिन तघलचिन नामक एक तुर्की अमीर ने उसे अंधा कर कैद कर लिया। इसके बाद मुहम्मदशाह का दूसरा पुत्र शम्सुद्दीन (1397 ई.) सुल्तान बना, लेकिन ताजुद्दीन फिरोज ने तघलचिन को मारकर शम्सुद्दीन को अंधा कर दिया और 1397 ई. में स्वयं सुल्तान बन गया।
ताजुद्दीन फिरोजशाह (1397-1422 ई.)
ताजुद्दीन फिरोजशाह, बहमनी वंश का आठवाँ सुल्तान और दाऊदशाह का पुत्र था। उसका शासनकाल कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण रहा। फिरोज ने खेरला के गोंड शासक नरसिंह राय को पराजित कर बरार की ओर अपने राज्य का विस्तार किया। उसने नरसिंह से चालीस हाथी, पाँच मन सोना और पचास मन चाँदी प्राप्त किए। साथ ही, नरसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह फिरोज के साथ कर दिया।
फिरोजशाह ने विजयनगर के खिलाफ तीन सैनिक अभियान किए। 1406 ई. में उसने शासक देवराय प्रथम को पराजित कर संधि करने और अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान के साथ करने के लिए बाध्य किया। इस विवाह के परिणामस्वरूप रायचूर दोआब का बाँकापुर क्षेत्र फिरोज को दहेज में मिला। हालांकि, 1419 ई. में फिरोजशाह को देवराय प्रथम से पराजित होना पड़ा और रायचूर दोआब विजयनगर के नियंत्रण में रहा।
फिरोजशाह ने प्रशासन में हिंदुओं को बड़े पैमाने पर नियुक्त किया। कहा जाता है कि उसके शासनकाल में दक्कनी ब्राह्मण, विशेषकर भूमि राजस्व के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
फिरोजशाह को निर्माण कार्यों में विशेष रुचि थी। उसने गुलबर्गा को भव्य इमारतों से सजाया और स्पेन की कुर्तुबा (कॉर्डोवा) मस्जिद की शैली पर आधारित एक मस्जिद का निर्माण करवाया। उसने भीमा नदी के तट पर फिरोजाबाद नगर की स्थापना की और एक प्राचीरयुक्त भव्य राजप्रासाद बनवाया। फिरोज गुलबर्गा का अंतिम सुल्तान था। उसने प्रमुख बंदरगाहों चौल और दभोल को विकसित किया, जहाँ फारस की खाड़ी और लाल सागर से व्यापारिक जहाज आते-जाते थे।
फिरोजशाह विद्वान सुल्तानों में से एक था। वह फारसी, अरबी, तुर्की, तेलुगु, कन्नड़ और मराठी भाषाओं का जानकार था। फरिश्ता के अनुसार, वह रात में साधुओं, कवियों, इतिहासकारों और विद्वानों के साथ समय बिताता था। उसकी कई पत्नियाँ थीं, जो विभिन्न धर्मों और देशों से थीं, और वह उनकी भाषा में उनसे बात करता था। फरिश्ता ने उसे एक पुरातनपंथी मुसलमान बताया, जिसकी कमजोरियाँ केवल शराब पीना और संगीत सुनना थीं। उसने खगोलशास्त्र को प्रोत्साहन दिया और दौलताबाद में एक वेधशाला स्थापित की।
फिरोजशाह ने दक्कन को सांस्कृतिक केंद्र बनाने के लिए विदेशियों, विशेषकर ईरानियों, अरबों और तुर्कों को बसने के लिए प्रोत्साहित किया, जिन्हें ‘अफाकी’ कहा जाता था। इससे अमीर वर्ग अफाकी और दक्कनी गुटों में विभाजित हो गया, जो बाद में साम्राज्य के पतन का कारण बना। फिरोजशाह के निमंत्रण पर सूफी संत बंदा नवाज गेसू दराज 1397 ई. में गुलबर्गा आए। हिंदू और मुसलमान दोनों उनका सम्मान करते थे। 1422 ई. में फिरोजशाह की मृत्यु हो गई।
शिहाबुद्दीन अहमदशाह प्रथम (1422-1436 ई.)
अहमदशाह, बहमनी सल्तनत का नौवाँ सुल्तान था, जिसने 1422 ई. में सूफी संत गेसू दराज के समर्थन से सिंहासन प्राप्त किया। उसके समय में गुलबर्गा विद्रोह और षड्यंत्रों का केंद्र बन गया था, इसलिए उसने 1425 ई. में राजधानी गुलबर्गा से बीदर स्थानांतरित कर दी और बीदर का नाम मुहम्मदाबाद (अहमदनगर) रखा। बीदर साम्राज्य के मध्य में था, विजयनगर से दूर होने के कारण सुरक्षित था और जलवायु व सैनिक दृष्टि से गुलबर्गा से बेहतर था।
अहमदशाह ने विजयनगर पर आक्रमण किया और शासक वीरविजय बुक्का से संधि के बदले बड़ी धनराशि वसूल की। उसने वारंगल के काकतीय राज्य पर आक्रमण कर राजा की हत्या कर दी और वारंगल का अधिकांश भाग हड़प लिया। इसके बाद, उसने मालवा, गुजरात और कोंकण के सामंतों को भी पराजित किया।
अहमदशाह ने अफाकियों की सहायता से सिंहासन प्राप्त किया था, इसलिए उसने खलाफ हसन बसरी को ‘मलिक-उल-तुज्जार’ की उपाधि दी। जब उसने प्रमुख पदों पर अफाकियों की नियुक्ति शुरू की, तो दक्कनी अमीर असंतुष्ट हो गए। इस असंतोष ने सांप्रदायिक रूप ले लिया, क्योंकि अफाकी शिया और दक्कनी सुन्नी थे। इस संघर्ष का बहमनी संस्कृति और राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा।
अहमदशाह का शासनकाल न्याय और धर्मनिष्ठता के लिए प्रसिद्ध था। उसे ‘शाह वली’ या ‘संत अहमद’ के नाम से भी जाना जाता है। खुरासान के कवि शेख आजरी उसके दरबार में आए थे। 1436 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।
अलाउद्दीन अहमदशाह द्वितीय (1436-1458 ई.)
अहमदशाह प्रथम के बाद उनका पुत्र अलाउद्दीन अहमदशाह द्वितीय 1436 ई. में सुल्तान बना। वह बहमनी का दसवाँ सुल्तान था। उसने विजयनगर के शासक देवराय द्वितीय से रायचूर दोआब को लेकर दो बार युद्ध किया। 1436 ई. के पहले युद्ध में उसे सफलता नहीं मिली, लेकिन 1443 ई. के दूसरे युद्ध में उसने देवराय को पराजित कर एक अपमानजनक संधि के लिए बाध्य किया और रायचूर दोआब के कुछ क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। उसने अपने भाई मुहम्मद को रायचूर का सूबेदार नियुक्त किया, जो जीवनभर उसके प्रति निष्ठावान रहा।
अहमदशाह ने कोंकण पर आक्रमण कर वहाँ के शासक को अपने अधीन किया। उसने संगमेश्वर की पुत्री से जबरन विवाह किया। इसके जवाब में, उसके श्वसुर, खानदेश के नसीर खाँ ने आक्रमण किया, लेकिन पराजित हुए। इस युद्ध की विशेषता यह थी कि बहमनी सेना का सेनापति खलाफ हसन बसरी था, जिसने सुल्तान की आज्ञा से केवल अफाकी सैनिकों की सेना बनाई थी। इससे दक्कनी और अफाकी सैनिकों में भी विभाजन हो गया। इस प्रकार, अहमदशाह द्वितीय के समय में दक्कनी और अफाकी मुसलमानों के बीच विरोध बहुत बढ़ गया। इसी समय ईरान का महमूद गवाँ बहमनी दरबार में आया।
अलाउद्दीन अहमद द्वितीय इस्लाम का उत्साही प्रचारक था। फरिश्ता और बुरहान-ए-मआसिर के अनुसार, उसने मस्जिदों, सार्वजनिक विद्यालयों और दातव्य संस्थाओं की स्थापना की। उसका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य बीदर में एक विशाल शफाखाना (अस्पताल) का निर्माण था, जिसमें हिंदू और मुस्लिम चिकित्सकों की नियुक्ति की गई थी और सभी रोगियों का बिना धार्मिक भेदभाव के इलाज किया जाता था। उसने अस्पताल के लिए दवाओं और पेय-पदार्थों की आपूर्ति हेतु दो गाँवों का राजस्व दान किया। 1458 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।
हुमायूँशाह (1458-1461 ई.)
अलाउद्दीन द्वितीय की मृत्यु के बाद उनका ज्येष्ठ पुत्र हुमायूँ सुल्तान बना, जिसे ‘अलाउद्दीन हुमायूँ’ के नाम से भी जाना जाता है। यह बहमनी का ग्यारहवाँ सुल्तान था। उसने महमूद गवाँ को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। अपने अल्पकालिक शासन में हुमायूँ को कई विद्रोहों का सामना करना पड़ा, जिनका उसने निर्ममता से दमन किया। इस निर्ममता के कारण उसे ‘दक्कन का नीरो’ और ‘जालिम’ कहा गया।
हुमायूँ का उत्तराधिकारी अल्पवयस्क था, इसलिए उसने अपने जीवनकाल में ही राजमाता मकदूम-ए-जहाँ (नरगिस बेगम) के संरक्षण में एक प्रशासनिक परिषद की स्थापना की, जिसमें महमूद गवाँ भी शामिल था। 1461 ई. में हुमायूँ की मृत्यु हो गई।
निजामशाह (1461-1463 ई.)
हुमायूँ की मृत्यु के बाद 1461 ई. में निजामशाह, महमूद गवाँ के सहयोग से सुल्तान बना। यह बहमनी का बारहवाँ सुल्तान था। सिंहासनारोहण के समय उसकी आयु केवल आठ वर्ष थी। उसने राजमाता मकदूम-ए-जहाँ के संरक्षण में प्रशासनिक परिषद के सहयोग से शासन किया, जिसमें महमूद गवाँ और ख्वाजा जहाँ भी शामिल थे।
सुल्तान की अल्पवयस्कता का लाभ उठाकर उड़ीसा के शासक कपिलेश्वर गजपति ने दक्षिण से और मालवा के महमूद खिलजी ने उत्तर से बहमनी पर आक्रमण किया, लेकिन बहमनी सेनाएँ विजयी रहीं। बाद में, उड़ीसा और खानदेश की संयुक्त सेना के साथ मालवा के महमूद खिलजी ने दक्कन पर आक्रमण कर बीदर पर कब्जा कर लिया और सुल्तान के परिवार को फिरोजाबाद में शरण लेने के लिए मजबूर किया। लेकिन महमूद गवाँ ने गुजरात के सहयोग से मालवा के सुल्तान को पराजित किया। दो वर्ष के अल्पकालिक शासन के बाद 1463 ई. में निजामशाह की अचानक मृत्यु हो गई और उसका छोटा भाई शम्सुद्दीन मुहम्मदशाह सुल्तान बना।
शम्सुद्दीन मुहम्मदशाह तृतीय (1463-1482 ई.)
शम्सुद्दीन मुहम्मदशाह तृतीय 1463 ई. में नौ वर्ष की आयु में बहमनी का तेरहवाँ सुल्तान बना। महमूद गवाँ ने अल्पवयस्क सुल्तान की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था की। राजमाता मकदूम-ए-जहाँ को महमूद गवाँ की राजभक्ति और योग्यता पर पूर्ण विश्वास था। उन्होंने उसे नये सुल्तान का प्रधानमंत्री नियुक्त किया। ख्वाजा जहाँ की मृत्यु के बाद सुल्तान ने महमूद गवाँ को ‘ख्वाजा जहाँ’ की उपाधि प्रदान की। फिरोज के बाद मुहम्मदशाह तृतीय सर्वाधिक शिक्षित सुल्तान था। एक श्रेष्ठ मंत्री और प्रशासक के रूप में महमूद गवाँ ने पूरी निष्ठा के साथ साम्राज्य और सुल्तान की सेवा की। इस कारण अगले बीस वर्षों का बहमनी इतिहास महमूद गवाँ के इर्द-गिर्द सिमट गया।
महमूद गवाँ और उनकी उपलब्धियाँ
महमूद गवाँ जन्म से ईरानी था और उसके पूर्वज शाह गिलन के वजीर थे। वह 45 वर्ष की आयु में व्यापार के उद्देश्य से गुलबर्गा आया था। सुल्तान अलाउद्दीन अहमदशाह द्वितीय उसकी योग्यता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसे अपने दरबारी अमीरों में शामिल कर लिया। सुल्तान हुमायूँ ने उसे ‘मलिक-उल-तुज्जार’ की उपाधि दी और अपनी मृत्यु से पहले उसे अपने नाबालिग पुत्र की संरक्षक परिषद का सदस्य नियुक्त किया। राजमाता मकदूम-ए-जहाँ उसकी निष्ठा और योग्यता पर पूर्ण विश्वास करती थीं। निजामशाह के समय में महमूद गवाँ का प्रभाव और लोकप्रियता बढ़ी। मुहम्मदशाह तृतीय के काल में राजमाता ने उसे सल्तनत का वजीर (प्रधानमंत्री) नियुक्त किया और सुल्तान ने उसे ‘ख्वाजा जहाँ’ की उपाधि दी।
महमूद गवाँ ने बहमनी साम्राज्य के राजनीतिक और सांस्कृतिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। प्रशासनिक परिषद के सदस्य और वजीर के रूप में, वह साम्राज्य की राजनीतिक समस्याओं से भली-भाँति परिचित था। उसने इन समस्याओं का समाधान कर बहमनी साम्राज्य को इसके चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया।
महमूद गवाँ ने साम्राज्य का विस्तार कोरोमंडल से अरब सागर के तट तक किया, जिससे राज्य की सीमा उड़ीसा और कांची तक विस्तृत हो गई। उसने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी को पराजित कर बरार को बहमनी राज्य में मिलाया। उसने कूटनीति और युद्धनीति का संयोजन कर मालवा के साथ स्थायी शांति स्थापित की। 1472 ई. में उसने विजयनगर से गोवा और रायचूर के कई किलों पर कब्जा किया। गोवा पर कब्जा उसकी सबसे बड़ी सैनिक उपलब्धि थी, क्योंकि यह विजयनगर का महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था। उसने उड़ीसा पर भी प्रभुसत्ता स्थापित की और राजमुंद्री, कोंडवीर और राजामहेंद्र पर कब्जा किया। उसका अंतिम अभियान विजयनगर के मेल्लार और कांची पर हुआ, जिसमें राजा पराजित हुआ। इन विजयों से बहमनी साम्राज्य का क्षेत्रफल लगभग दोगुना हो गया।
एक कुशल प्रशासक के रूप में महमूद गवाँ ने कई सुधार किए। उसने चार प्रांतों को आठ प्रांतों—बरार (गाविल और माहुर), गुलबर्गा (बीजापुर और गुलबर्गा), दौलताबाद (दौलताबाद और जुन्नार), और तेलंगाना (राजमुंद्री और वारंगल) में बाँट दिया। उसने तरफदारों के सैनिक अधिकारों में कटौती की और प्रत्येक प्रांत में केवल एक किला उनके अधीन रखा। बाकी किलों में केंद्र द्वारा नियुक्त किलेदार रखे गए। उसने गवर्नरों की सेनाओं का निरीक्षण शुरू किया और हिसाब-किताब की जाँच की। उसने मिस्र, तुर्की और ईरान के विद्वानों के साथ पत्र-व्यवहार कर वैदेशिक संबंध स्थापित किए।

महमूद गवाँ ने कृषि के लिए भूमि की नाप-जोख कर उचित लगान निर्धारित किया, किसानों को रियायतें दीं और खालसा भूमि का विस्तार किया, जिससे राजस्व बढ़ा। गोवा और दभोल पर कब्जे से ईरान और इराक के साथ समुद्री व्यापार बढ़ा, जिससे उत्पादन में वृद्धि हुई।
वह एक विद्वान और कला संरक्षक भी था। उसने बीदर में एक तिमंजिला मदरसा बनवाया, जिसमें एक हजार अध्यापक और विद्यार्थी रह सकते थे। इस मदरसे में अरबी और फारसी के अध्ययन के लिए ईरानी और इराकी विद्वानों को आमंत्रित किया गया। उसके पुस्तकालय में 3,000 से अधिक पुस्तकें थीं। उसने ‘रौजत-उल-इंशा’ और ‘दीवान-ए-अश्र’ जैसे ग्रंथ लिखे। वह निर्धनों और विद्यार्थियों की सहायता करता था।
महमूद गवाँ का शासनकाल सैनिक और प्रशासनिक सफलताओं से भरा था, लेकिन उसका अंत दुखद रहा। अफाकी नेता होने के बावजूद, उसने दक्कनी और अफाकी अमीरों में भेदभाव नहीं किया। लेकिन दक्कनी अमीरों ने एक जाली पत्र के जरिए सुल्तान मुहम्मदशाह तृतीय को यह विश्वास दिलाया कि वह देशद्रोही है और विजयनगर से उसके संबंध हैं। सुल्तान ने बिना जाँच के 1481 ई. में उसकी हत्या का आदेश दे दिया। इस प्रकार बहमनी का श्रेष्ठ सेवक समाप्त हो गया।
महमूद गवाँ की मृत्यु के बाद सुल्तान को अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने राजकीय कार्यों में रुचि लेना बंद कर दिया और शोक में मदिरापान में डूब गया। प्रांतीय गवर्नरों ने उसकी अवहेलना शुरू कर दी। इस दौरान रूसी यात्री निकितिन ने बहमनी साम्राज्य की यात्रा की और जनसाधारण की स्थिति का वर्णन किया। 1482 ई. में मुहम्मदशाह तृतीय की मृत्यु हो गई।
परवर्ती शासक और बहमनी साम्राज्य का विघटन
मुहम्मदशाह तृतीय की मृत्यु के बाद उनका पुत्र शिहाबुद्दीन महमूदशाह द्वितीय (1482-1518 ई.) बारह वर्ष की आयु में सुल्तान बना। उसके शासनकाल में सत्ता मुख्य रूप से निजाम-उल-मुल्क के हाथ में रही, जो प्रधानमंत्री और संरक्षक था। लेकिन शक्तिशाली तरफदार इससे असंतुष्ट थे, जिससे गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गई। चार दिनों तक बीदर में कत्लेआम हुआ। अंततः सुल्तान ने निजाम-उल-मुल्क की हत्या करवा दी और अफाकियों का पक्ष लिया। लेकिन स्थिति में सुधार नहीं हुआ और प्रांतीय तरफदार स्वतंत्रता घोषित करने लगे।
बहमनी साम्राज्य का विघटन 1490 ई. में शुरू हुआ, जब अहमदनगर, बीजापुर और बरार के गवर्नरों ने सुल्तान की उपाधि धारण कर स्वतंत्रता की घोषणा की। इस प्रकार निजामशाही, आदिलशाही और इमादशाही राजवंशों की स्थापना हुई। कुतुबुलमुल्क ने गोलकुंडा में स्वतंत्र सत्ता स्थापित की। सुल्तान महमूदशाह की 1518 ई. में मृत्यु हो गई। वह भोग-विलास में लिप्त रहता था और तुर्क अमीर कासिम अली बरीद का बंदी था, जो बीदर का कोतवाल और बाद में नायब मलिक बना। कासिम अली के बाद उनका पुत्र अमीर अली बरीद वजीर बना, जिसे ‘दक्कन की लोमड़ी’ कहा गया।
महमूदशाह के बाद चार सुल्तान—अहमदशाह चतुर्थ (1518-1520 ई.), अलाउद्दीनशाह द्वितीय (1520-1523 ई.), वलीउल्लाह शाह (1523-1526 ई.) और कलीमुल्लाह शाह (1525-1527 ई.) गद्दी पर बैठे। लेकिन वे अमीर अली बरीद के कठपुतली मात्र थे, जो बीदर के बरीदशाही राजवंश का संस्थापक था।
कलीमुल्लाह शाह बहमनी का अंतिम सुल्तान था। 1526 ई. में कासिम अली बरीद के भय से वह बीजापुर भाग गया और बाद में अहमदनगर चला गया, जहाँ 1538 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
बहमनी सल्तनत के विघटन से इसके अवशेषों पर पाँच राज्यों—अहमदनगर (निजामशाही), बीजापुर (आदिलशाही), गोलकुंडा (कुतुबशाही), बरार (इमादशाही) और बीदर (बरीदशाही) की स्थापना हुई। निजामशाही और इमादशाही के संस्थापक हिंदू से इस्लाम स्वीकार करने वाले दक्कनी थे। इन राज्यों को सामूहिक रूप से ‘दक्कन सल्तनत’ कहा जाता है।
बहमनी साम्राज्य के पतन के कारण
बहमनी साम्राज्य 179 वर्षों तक अस्तित्व में रहा, लेकिन प्रभावी सत्ता 140 वर्षों तक थी। इसमें अठारह सुल्तान हुए, जिनमें से कुछ ही योग्य थे। पाँच सुल्तानों की हत्या हुई, दो को अंधा किया गया, दो की मृत्यु अत्यधिक मद्यपान से हुई और तीन को पदच्युत किया गया।
सबसे बड़ी समस्या अमीरों का आपसी संघर्ष था। अमीर दो गुटों—दक्कनी और अफाकी में बँटे थे। महमूद गवाँ ने दक्कनियों का विश्वास जीतने की कोशिश की, लेकिन दलगत संघर्ष समाप्त नहीं हुआ। जाली पत्रों के आधार पर 1481 ई. में उसकी हत्या कर दी गई। इसके बाद संघर्ष और उग्र हो गया, जिसका लाभ उठाकर प्रांतीय तरफदार स्वतंत्र होने लगे। 1518 ई. में बहमनी के अवशेषों पर पाँच स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ।
अधिकांश सुल्तानों का नैतिक स्तर निम्न था। उनके दरबार षड्यंत्रों का केंद्र थे, जिससे विघटनकारी प्रवृत्तियाँ बढ़ीं। महमूद गवाँ के केंद्रीकरण के प्रयासों को विफल कर उनकी हत्या कर दी गई।
बहमनी सुल्तानों का विजयनगर, वारंगल, उड़ीसा और मालवा से निरंतर संघर्ष साम्राज्य की अर्थव्यवस्था और स्थिरता के लिए हानिकारक था। रायचूर दोआब को लेकर विजयनगर को नष्ट करने के प्रयास असफल रहे।
फरिश्ता के अतिरंजित विवरण के अनुसार, धार्मिक अत्याचार भी पतन का एक कारण था।
बहमनी सल्तनत में प्रशासन, समाज और सांस्कृतिक गतिविधियाँ
केंद्रीय प्रशासन
सुल्तान: सुल्तान निरंकुश और स्वेच्छाचारी होता था। सामान्यतः ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकारी बनाया जाता था, लेकिन कोई निश्चित नियम नहीं था। अल्पवयस्क सुल्तानों के लिए संरक्षक परिषद बनाई जाती थी, जिसमें राजमाता भी शामिल हो सकती थी। राजधर्म इस्लाम था और शासन इस्लामी नियमों पर आधारित था। कुछ सुल्तानों ने हिंदुओं को प्रशासन में शामिल किया, लेकिन सामान्यतः हिंदुओं को अधिकार नहीं दिए गए। 1487 और 1495 ई. के बीच भीषण अकाल पड़ा, जिसमें सुल्तान महमूद द्वितीय ने केवल मुसलमानों के लिए खाद्यान्न की व्यवस्था की।
मंत्री: प्रशासन का संगठन मुहम्मदशाह प्रथम के काल में हुआ और यह व्यवस्था पूरे बहमनी काल में चली। केंद्रीय प्रशासन आठ मंत्रियों के सहयोग से चलता था:
- वकील-ए-सल्तनत: प्रधानमंत्री के समान, सुल्तान के आदेश इसके माध्यम से पारित होते थे।
- अमीर-ए-जुमला: वित्तमंत्री, जो आर्थिक गतिविधियों का नियंत्रण करता था।
- वकील-ए-कुल: अन्य मंत्रियों के कार्यों का निरीक्षण करता था।
- पेशवा: वकील-ए-सल्तनत का सहायक।
- वजीर-ए-अशरफ: विदेशमंत्री।
- नाजिर: वित्त विभाग का उपमंत्री।
- कोतवाल: पुलिस विभाग का अध्यक्ष।
- सद्र-ए-जहाँ: मुख्य न्यायाधीश और धर्म व दान विभाग का मंत्री।
अमीर: अमीर दो गुटों—अफाकी (विदेशी, शिया) और दक्कनी (स्थानीय, सुन्नी)—में बँटे थे। मुजाहिदशाह के समय से अफाकियों को उच्च पदों पर प्राथमिकता दी गई, जिससे स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
प्रांतीय शासन
प्रांतपति या तरफदार: साम्राज्य को चार प्रांतों—दौलताबाद, बीदर, बरार और गुलबर्गा में बाँटा गया था। प्रत्येक प्रांत एक तरफदार के अधीन था, जो राजस्व वसूली, सेना संगठन और कर्मचारियों की नियुक्ति करता था। महमूद गवाँ ने चार प्रांतों को आठ में बाँटा और तरफदारों की शक्ति कम की।
सुल्तान के महल और दरबार की सुरक्षा के लिए ‘साख-ए-खेल’ नामक अंगरक्षक सैनिक दल था, जिसमें 200 अधिकारी और 4,000 सैनिक थे। इसका मुख्य अधिकारी ‘सर-ए-नौबत’ कहलाता था।
राजस्व
भू-राजस्व आय का मुख्य स्रोत था, लेकिन आरंभ में इसकी व्यवस्था अव्यवस्थित थी। जागीरदार मनमाने ढंग से कर वसूलते थे। महमूद गवाँ ने भूमि की पैमाइश कर उचित लगान निर्धारित किया, किसानों को सुविधाएँ दीं और जलाशय बनवाए। उसने अमीरों के हिसाब-किताब की जाँच शुरू की और सैनिकों की संख्या कम होने पर वेतन काटा।
समाज
समाज दो वर्गों—हिंदू (कृषक, शिल्पकार, व्यापारी) और मुस्लिम (सैनिक, अधिकारी) में बँटा था। हिंदुओं की आर्थिक स्थिति दयनीय थी, जबकि मुस्लिम अधिकारी विलासिता में डूबे थे। रूसी यात्री निकितिन ने 1468 ई. में बीदर की यात्रा में ग्रामीणों की दयनीय स्थिति और अमीरों की विलासिता का वर्णन किया। राज्य गैर-मुस्लिमों को इस्लाम अपनाने के लिए प्रोत्साहित करता था।
शिक्षा और साहित्य
बहमनी सुल्तानों ने शिक्षा, साहित्य और संगीत को प्रोत्साहन दिया। ग्रामीण क्षेत्रों में मस्जिदों में बालकों की शिक्षा की व्यवस्था थी। नगरों में मदरसे स्थापित किए गए। मुहम्मदशाह द्वितीय ने ईरानी विद्वानों को आमंत्रित किया। ताजुद्दीन फिरोजशाह कई भाषाओं का विद्वान था। सूफी संत गेसू दराज ने उर्दू पुस्तक ‘मिरात-उल-आशिकी’ की रचना की। महमूद गवाँ ने बीदर में एक विशाल मदरसा स्थापित किया, जिसमें अरबी और फारसी की शिक्षा दी जाती थी।
कलात्मक उपलब्धियाँ
बहमनी सुल्तानों ने तुर्की, मिस्री और ईरानी शैलियों के मिश्रण से दक्कन शैली की वास्तुकला विकसित की। गुलबर्गा और बीदर की मस्जिदें, किले, महल और मकबरे इसके उदाहरण हैं। महमूद गवाँ द्वारा 1472 ई. में बनवाया गया बीदर का मदरसा वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। बीदर के शिल्पकारों की जड़ाई कला को ‘बिदरी’ के नाम से जाना गया।










