गुप्तकालीन कला
कला अभीष्ट दिव्यता की प्राप्ति और उसके साथ एकाकार होने का पवित्रतम साधन है। कलाओं ने धर्म की कठोरता को मृदु बनाने में सहायता की है। गुप्तकाल में कला की विविध विधाओं जैसे वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला और मृद्भांड कला में अभूतपूर्व प्रगति हुई। गुप्तकालीन कला के विकास में अनेक मौलिक तत्व दिखाई देते हैं, जिनमें विशेष रूप से ईंटों के स्थान पर पत्थरों का प्रयोग उल्लेखनीय है। कलात्मक विकास की दृष्टि से कुछ इतिहासकार गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का ‘स्वर्णयुग’ मानते हैं।
गुप्तकालीन वास्तुकला
इस काल की वास्तुकला में राजप्रासाद, भवन, शैलकृत चैत्य, विहार और मंदिर शामिल हैं। गुप्तकालीन प्रासादों में पाटलिपुत्र और उज्जयिनी जैसे राजधानी नगरों का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। चीनी यात्री फाहियान ने अपने विवरण में गुप्त नरेशों के राजप्रासादों की अत्यधिक प्रशंसा की है। इस समय के घरों में कई कमरे, दालान और आँगन होते थे। छत तक जाने के लिए सीढ़ियाँ होती थीं, जिन्हें ‘सोपान’ कहा जाता था। प्रकाश के लिए रोशनदान बनाए जाते थे, जिन्हें ‘वातायन’ कहा जाता था।
हालाँकि, गुप्तकालीन शासकों द्वारा बनवाए गए किसी राजमहल के भौतिक अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं, जो इस काल की वास्तुकला के विकास पर एक प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
गुप्तकालीन शैलकृत गुफा-वास्तुकला
उदयगिरि की गुफाएँ
गुप्तकालीन शैलकृत गुफा-वास्तुकला में ब्राह्मण और बौद्ध गुहा-मंदिर महत्त्वपूर्ण हैं। उदयगिरि की गुफाएँ इस काल की शैलकृत वास्तुकला में प्रमुख हैं। यहाँ की अधिकांश गुफाएँ वैष्णव और शैव धर्म से संबंधित हैं, जिनका निर्माण चंद्रगुप्त द्वितीय और कुमारगुप्त प्रथम के काल में हुआ। ये गुफाएँ चट्टानों को काटकर बनाई गई थीं। उदयगिरि की पहाड़ी से चंद्रगुप्त द्वितीय के सेनापति वीरसेन का एक शिलालेख मिला है, जिसमें उल्लेख है कि उसने भक्ति के साथ भगवान शंभु के लिए एक शैव गुहा-मंदिर बनवाया था (भक्त्या भगवता शम्भोः गुहामेकमकारयत्)। उदयगिरि की वैष्णव गुफाओं में विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। प्रसिद्ध वाराह-गुहा का निर्माण भगवान विष्णु के सम्मान में किया गया। इन गुफाओं में चौकोर सादे गर्भगृह और स्तंभों पर आधारित छोटे मंडप (बरामदे) हैं। कुछ विद्वान उदयगिरि की गुफाओं को ‘मिथ्या-गुहा’ की संज्ञा देते हैं।
अजंता की गुफाएँ
बौद्ध गुहा-मंदिरों में अजंता और बाघ की गुफाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अजंता में कुल 29 गुफाएँ हैं, जिनमें चार चैत्यगृह और शेष विहार हैं। इनका निर्माण ई.पू. दूसरी शताब्दी से सातवीं शताब्दी ई. तक हुआ। प्रारंभिक गुफाएँ हीनयान और बाद की गुफाएँ महायान संप्रदाय से संबंधित हैं।
अजंता की गुफा संख्या 16, 17 और 19 गुप्तकालीन मानी जाती हैं। इनमें 16वीं और 17वीं गुफाएँ विहार हैं, जबकि 19वीं चैत्यगृह है। गुफा 16 और 17 का निर्माण पाँचवीं शताब्दी के अंतिम चरण में वाकाटक नरेश हरिषेण के एक सामंत ने करवाया था। चैत्यगृहों में उपासना के लिए बौद्ध स्तूप और इसके चारों ओर प्रदक्षिणा मार्ग होता था। गुफा 16 का गुहा-मंदिर 65 फीट लंबा और चौड़ा है, जिसमें 20 स्तंभ हैं। इसके आंतरिक भाग में स्तूप है। इस चैत्यगृह में प्रलंबपाद मुद्रा (पैर लटकाए) में बुद्ध की विशाल प्रतिमा है। गुफा 17 में गवाक्ष, स्तंभ, स्तूप और बुद्ध प्रतिमाएँ हैं। इसके बरामदे की दीवार पर चित्रित भाव-चक्र (जीवन-चक्र) के कारण इसे पहले ‘राशि-चक्र गुफा’ कहा जाता था।
गुफा 19 एक चैत्यगृह है, जिसमें गर्भगृह, गलियारा और स्तंभ बने हैं। इसमें केवल एक प्रवेशद्वार है। मंडप के दोनों ओर प्रदक्षिणा मार्ग पर 17 पंक्तिबद्ध स्तंभ हैं। मुख्य भाग को सजाने के लिए काष्ठ का प्रयोग नहीं किया गया। प्रवेशद्वार की चपटी छत चार स्तंभों पर टिकी है और ऊपर बड़े आकार का चैत्य-गवाक्ष बना है। शैलकृत स्तूप में ऊँचा बेलनाकार अंड, गोल गुंबद, हर्मिका और तीन छत्र हैं। भित्ति-स्तंभों के बीच बुद्ध की मूर्ति बनी है। इसके साथ यक्ष, नाग-दंपति, शालभंजिका और ऋषि-मुनियों की आकृतियाँ भी हैं। इस गुफा को पश्चिमी भारत के श्रेष्ठतम चैत्यगृहों में गिना जाता है।
बाघ की गुफाएँ
अजंता के समान बाघ पहाड़ी (धार, मध्य प्रदेश) से नौ गुफाएँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें से कुछ गुप्तकालीन हैं। इन गुफाओं की दीवारों पर बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं के दृश्य उत्कीर्ण हैं। पहला विहार नष्ट हो चुका है, दूसरा सुरक्षित है, जिसे ‘पांडव गुफा’ कहते हैं। इसके मध्य में चौकोर आँगन और बगल में कमरे हैं। बरामदे के ताखों में मूर्तियाँ रखी गई हैं। तीसरी गुफा ‘हाथीखाना’ और चौथी ‘रंगमहल’ कहलाती है। शेष गुफाएँ नष्ट हो चुकी हैं। इन गुप्तकालीन गुहा-गृहों के बाहरी भाग और प्रवेशद्वार पर खड़ी और बैठी प्रतिमाएँ अंकित हैं।
गुप्तकालीन मंदिर-वास्तुकला
गुप्तकालीन स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण मंदिर हैं। इस काल में मंदिर निर्माण को ऐतिहासिक माना जाता है, और कहा जाता है कि मंदिर निर्माण कला का जन्म यहीं से हुआ। गुप्तकालीन मंदिर ऊँचे चबूतरे पर बनाए जाते थे, जिन तक चढ़ने के लिए चारों ओर सीढ़ियाँ होती थीं। देवता की मूर्ति गर्भगृह में स्थापित की जाती थी और गर्भगृह के चारों ओर आच्छादित प्रदक्षिणा-पथ बनाया जाता था। मंदिरों के पार्श्वों पर गंगा, यमुना और चौखट पर शंख व पद्म की आकृतियाँ बनाई जाती थीं। सिंह-मुख, पुष्प-पत्र और झरोखों के कारण मंदिरों में अद्भुत आकर्षण था। मंदिरों की छतें प्रायः सपाट होती थीं, किंतु शिखरयुक्त मंदिरों का निर्माण भी शुरू हो चुका था। मंदसौर लेख के अनुसार दशपुर के मंदिर में अनेक आकर्षक शिखर थे। प्रधान शिखरों के साथ गौण शिखरों का निर्माण भी प्रारंभ हो चुका था।
गुप्तकाल के महत्त्वपूर्ण मंदिरों में शामिल हैं: देवगढ़ (ललितपुर, उत्तर प्रदेश) का दशावतार मंदिर, साँची (रायसेन, मध्य प्रदेश) का मंदिर संख्या 17, तिगवा (जबलपुर, मध्य प्रदेश) का विष्णु मंदिर, नचना-कुठारा (पन्ना, मध्य प्रदेश) का पार्वती मंदिर, भूमरा (सतना, मध्य प्रदेश) का शिव मंदिर, भीतरगाँव (कानपुर, उत्तर प्रदेश) का ईंटों से निर्मित मंदिर, सिरपुर (छत्तीसगढ़) का लक्ष्मण मंदिर, लाड़खान मंदिर और मुकुंद दर्रा (कोटा, राजस्थान) का मंदिर।
देवगढ़ का दशावतार मंदिर
गुप्तकालीन मंदिर वास्तुकला का सर्वोत्तम उदाहरण देवगढ़ का दशावतार मंदिर है। इसका ऊपरी भाग नष्ट हो चुका है। मंदिर के गर्भगृह का प्रवेशद्वार आकर्षक और कलापूर्ण है। इस मंदिर की प्रमुख विशेषता 12 मीटर ऊँचा शिखर है, जो संभवतः मंदिर निर्माण में शिखर का प्रथम प्रयोग था। जहाँ अन्य मंदिरों में केवल एक मंडप होता था, वहीं इस मंदिर में चार मंडप हैं। यह मंदिर सुंदर मूर्तियों से अलंकृत है, जिनमें शेषशायी विष्णु, गजेंद्र मोक्ष, रामावतार और कृष्णावतार से संबंधित दृश्य उत्कीर्ण हैं। झाँकती हुई आकृतियाँ, उड़ते हुए पक्षी और हंस, पवित्र वृक्ष, स्वस्तिक, फूल-पत्तियाँ, प्रेमी युगल और बौनों की मूर्तियाँ भी आकर्षक हैं।
साँची का मंदिर
साँची (रायसेन, मध्य प्रदेश) के महास्तूप के दक्षिण-पूर्व में निर्मित मंदिर को मंदिर संख्या 17 कहा जाता है। यह गुप्तकाल का प्रारंभिक मंदिर है, जिसका आकार छोटा, छत सपाट और गर्भगृह चौकोर है। इसके सामने छोटा स्तंभ-युक्त मंडप है। स्तंभों पर घंटाकृति और शीर्ष बने हैं।
तिगवा का विष्णु मंदिर
तिगवा (जबलपुर, मध्य प्रदेश) का विष्णु मंदिर सादा है। इसके गर्भगृह का व्यास लगभग आठ फीट है, जिसके सामने चार स्तंभों पर टिका सात फीट का छोटा मंडप है। स्तंभों के ऊपर सिंह की मूर्तियाँ बनी हैं। प्रवेशद्वार के पार्श्वों पर कूर्मवाहिनी यमुना और मकरवाहिनी गंगा अंकित हैं।
नचना-कुठारा का पार्वती मंदिर
नचना-कुठारा (पन्ना, मध्य प्रदेश) का पार्वती मंदिर वर्गाकार चबूतरे पर निर्मित है, जिसके चारों ओर सीढ़ियाँ हैं। मंदिर की छत सपाट है। गर्भगृह के चारों ओर आच्छादित प्रदक्षिणा-पथ है। गर्भगृह की दीवारें अलंकरणों से सजाई गई हैं। गर्भगृह के सामने स्तंभ-युक्त मंडप है।
भूमरा का शिव मंदिर
भूमरा (सतना, मध्य प्रदेश) के शिव मंदिर का केवल गर्भगृह अवशिष्ट है। गर्भगृह में एकमुखी शिवलिंग स्थापित है। प्रवेशद्वार पर मकरवाहिनी गंगा और कूर्मवाहिनी यमुना की आकृतियाँ अंकित हैं। गर्भगृह के सामने मंडप और चारों ओर प्रदक्षिणा-पथ है।
सतना जिले के पिपरिया में 1968 ई. में कृष्णदत्त वाजपेयी ने एक विष्णु मंदिर और मूर्ति की खोज की थी। यहाँ गर्भगृह का अलंकृत द्वार मिला है। द्वार-स्तंभों और सिरदल पर पूर्णघट, पत्रावली, नगरमुख, व्याघ्रमुख आदि अलंकरण हैं। वाराह और नवग्रह भी द्वार पर अंकित हैं। विष्णु की प्रतिमा मंदिर के पास मिली है। इसके अलावा, एरण (सागर, मध्य प्रदेश) में वराह और विष्णु के मंदिर हैं। खोह (सतना, मध्य प्रदेश) के शिव मंदिर में शुभ-गणों की मूर्तियाँ थीं, जो वर्तमान में प्रयाग के नगरपालिका संग्रहालय में संरक्षित हैं।
भीतरगाँव का मंदिर
भीतरगाँव (कानपुर, उत्तर प्रदेश) का मंदिर भगवान विष्णु के सम्मान में वर्गाकार चबूतरे पर निर्मित है। इसके वर्गाकार गर्भगृह के सामने मंडप है। देवगढ़ की तरह यह मंदिर भी शिखर-युक्त है, जिसकी ऊँचाई लगभग 70 फीट है। शिखर में चैत्याकार मेहराबें बनी हैं। बाहरी दीवारों के ताखों में गणेश, आदि वराह और दुर्गा की मृदमूर्तियाँ रखी गई हैं। दीवारें रामायण, महाभारत और पुराणों के आख्यानों से सजाई गई हैं। इस मंदिर में सादगी के साथ-साथ अनेक वास्तुगत नवीनताएँ हैं।
सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर
सिरपुर (छत्तीसगढ़) का लक्ष्मण मंदिर ईंटों से निर्मित है, जिसका शिखर भीतरगाँव के मंदिर के शिखर से मिलता-जुलता है। इसके तोरण पर शेषशायी विष्णु की प्रतिमा है, जिसकी नाभि से उद्भूत कमल पर ब्रह्मा आसीन हैं, और विष्णु के चरणों में लक्ष्मी बैठी हैं। गर्भगृह में लक्ष्मण की मूर्ति पाँच फनों वाले सर्प पर आसीन है, जो संभवतः शेषनाग का प्रतीक है। इस मंदिर का केवल गर्भगृह अवशिष्ट है।
मुकुंद दर्रा मंदिर
राजस्थान के कोटा में मुकुंद दर्रा मंदिर प्राप्त हुआ है, जिसका गर्भगृह चार स्तंभों पर टिका है। इसे प्रारंभिक गुप्त देवालय का उदाहरण माना जाता है। इसका निर्माण ऊँचे आयताकार चबूतरे पर किया गया, जिस पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं। लाड़खान मंदिर वर्गाकार, निम्न और समतल छत वाला है। इसकी दीवारों में ताखे बने हैं, जिनमें मूर्तियों का अंकन है।
बौद्ध मंदिर और स्तूप
बौद्ध मंदिर साँची और बोधगया में पाए गए हैं। गुप्तकाल में दो बौद्ध स्तूपों के अवशेष मिले हैं: सारनाथ का लगभग 128 फीट ऊँचा धमेख स्तूप, जो ईंटों से निर्मित है,और राजगृह का ‘जरासंध की बैठक’।
धमेख स्तूप समतल भूमि पर बनाया गया है, जिसके चारों कोनों पर बौद्ध मूर्तियों के लिए ताखे बने हैं। स्तूप पर लतापत्रक और ज्यामितीय आकृतियाँ सुंदर हैं।
मीरपुर खास (सिंध) का स्तूप प्रारंभिक गुप्तकाल में निर्मित प्रतीत होता है। इसमें तीन छोटे चैत्य हैं। मुख्य चैत्य में ईंट की मेहराब बनी है। अलंकृत ईंटों और मिट्टी की बनी बुद्ध प्रतिमाएँ सुंदर हैं।
रत्नगिरि (ओडिशा) से भी स्तूप प्राप्त हुए हैं। नरसिंहगुप्त बालादित्य ने नालंदा में 300 फीट ऊँचा भव्य बुद्ध मंदिर बनवाया था, जो पूर्णतः नष्ट हो चुका है। पाँचवीं शताब्दी के बोधगया मंदिर में गर्भगृह की विशाल बुद्ध प्रतिमा भूमिस्पर्श मुद्रा में है। मुख्य प्रवेशद्वार पूरब की ओर है, जहाँ सीढ़ियाँ बनी हैं। मंदिर में वातायन या गवाक्ष नहीं हैं।
गुप्तकालीन मूर्तिकला
मूर्तिकला के विकास की दृष्टि से गुप्तकाल अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस काल में मथुरा, सारनाथ और पाटलिपुत्र भारतीय आकारमूलक अभिव्यक्ति के प्रमुख केंद्र थे। गुप्तकालीन मूर्तियाँ भद्रता, शालीनता, सरलता, आध्यात्मिकता और आनुपातिक संतुलन के कारण स्वाभाविक हैं। इस काल की अधिकांश मूर्तियाँ हिंदू देवी-देवताओं से संबंधित हैं, जिनमें विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, स्कंद, कुबेर, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा और सप्तमातृकाएँ शामिल हैं। इसके साथ ही बुद्ध, बोधिसत्त्व, और जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ भी बनाई गईं। इस काल में कुषाणकालीन नग्नता और कामुकता पूर्णतः समाप्त हो गई।
गुप्तकालीन मूर्तिकारों ने शारीरिक आकर्षण को छिपाने के लिए मोटे उत्तरीय वस्त्रों का प्रयोग शुरू किया, जिससे मूर्तियों में आध्यात्मिकता, भद्रता,और शालीनता झलकती है। सारनाथ केंद्र की मूर्तियों पर गांधार कला का प्रभाव नहीं दिखता। यहाँ की मूर्तियों में सुसज्जित प्रभामंडल बनाए गए, जबकि कुषाणकालीन मूर्तियों में प्रभामंडल सादा था।
वैष्णव मूर्तियाँ
वैष्णव धर्म के विकास के कारण वैष्णव मूर्तियों का निर्माण स्वाभाविक था। देवताओं को मानव आकार दिया गया, और विष्णु के अवतारों की प्रतिमाएँ बनाई गईं। जूनागढ़ लेख के अनुसार चक्रपालित ने एक विष्णु मंदिर बनवाया था (कारितमवक्रमतिना चक्रभृतः चक्रपालितेन गृहम्)। भितरी स्तंभ लेख में स्कंदगुप्त के काल में विष्णु मूर्ति की स्थापना का उल्लेख है (कर्तव्या प्रतिमा काचित् प्रतिमां तस्य शार्ङ्गिणः)। इस काल की विष्णु मूर्तियाँ चतुर्भुजी हैं। मथुरा, एरण, और देवगढ़ से प्राप्त मूर्तियाँ महत्त्वपूर्ण हैं। मथुरा के कलाकारों ने विष्णु की सुंदर मूर्तियाँ बनाईं। एक किरीटधारी मूर्ति में बाएँ हाथों में चक्र और शंख, दाएँ नीचे के हाथ में गदा और ऊपरी हाथ अभयमुद्रा में है। प्रलंबबाहु (लटकती भुजाओं वाली) मूर्ति का केवल धड़ अवशिष्ट है, जिसमें अलंकृत मुकुट, कानों में कुंडल और भुजाओं पर वनमाला का अंकन कलापूर्ण है। मथुरा संग्रहालय में त्रिविक्रम स्वरूप की दो विष्णु मूर्तियाँ हैं, जो संभवतः वामन अवतार के पाद-प्रक्षेपों द्वारा पृथ्वी और आकाश नापने की कथा को मूर्तरूप देती हैं।
विष्णु की सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रतिमा देवगढ़ के दशावतार मंदिर में है। मंदिर की तीन दीवारों पर चौकोर मूर्तिपट्ट लगाए गए हैं। दक्षिणी पट्ट में अनंतशायी विष्णु को शेषनाग की शय्या पर विश्राम करते दिखाया गया है। उनकी नाभि से निकलते कमल पर ब्रह्मा, और ऊपर आकाश में नंदी पर सवार शिव-पार्वती, मयूर पर कार्तिकेय, और ऐरावत पर इंद्र हैं। बैठी लक्ष्मी विष्णु के पैर दबा रही हैं। नीचे अस्त्र लिए पाँच पुरुष और एक स्त्री, जिनकी पहचान पांडवों से की जाती है। मधु और कैटभ राक्षस आक्रामक मुद्रा में हैं। कनिंघम के अनुसार “मूर्तियों का चित्रांकन ओजपूर्ण, अनंतशायी विष्णु का रेखांकन सहज और मनोहर और मुद्रा गौरवपूर्ण है।” पूर्वी पट्ट में नर-नारायण तपस्या का दृश्य और उत्तरी पट्ट में गजेंद्र मोक्ष का दृश्य अंकित है। काशी से प्राप्त गोवर्धन पर्वत को गेंद की तरह उठाए कृष्ण की मूर्ति भी सुंदर है।
इस काल में वराह अवतार की अनेक मूर्तियाँ बनाई गईं। उदयगिरि की विशाल वराह मूर्ति में शरीर मानव और मुख वराह का है। वराह पृथ्वी को दाँतों से उठाते दिखाए गए हैं। कंधे पर नारी-रूप में पृथ्वी की आकृति उत्कीर्ण है। वराहरूपी विष्णु का बायाँ पैर शेषनाग पर है, और पृष्ठभूमि में देवताओं और ऋषियों की पंक्तिबद्ध आकृतियाँ हैं। शेषनाग के पास गरुड़ की आकृति है। यह मूर्ति गुप्तकालीन कलाकारों की प्रतिभा का प्रमाण है।
एरण से वास्तविक आकार की वराह मूर्ति प्राप्त हुई है, जिसका निर्माण मातृविष्णु के भाई धान्यविष्णु ने करवाया था। इस पर हूण नरेश तोरमाण का लेख अंकित है। कूर्मवाहिनी यमुना और मकरवाहिनी गंगा की मूर्तियाँ भी इस काल में बनीं।
शैव मूर्तियाँ
इस काल की शैव मूर्तियाँ मानवीय और लिंग दोनों रूपों में मिलती हैं। एकमुखी और चतुर्मुखी शिवलिंग का निर्माण पहली बार इस काल में हुआ, जिन्हें मुखलिंग कहा जाता है। मथुरा, भीटा, कौशांबी, करमदंडा, खोह और भूमरा से ऐसे लिंग मिले हैं। करमदंडा से चतुर्मुखी शिवलिंग की प्रतिमा प्राप्त हुई, जिसका निर्माण कुमारामात्य पृथ्वीषेण ने करवाया। खोह से एकमुखी शिवलिंग मिला है। करमदंडा और बिलसद अभिलेखों में शिव प्रतिमाओं के निर्माण का उल्लेख है। शिव के अर्धनारीश्वर रूप की रचना भी इस काल में हुई। मथुरा संग्रहालय में अर्धनारीश्वर की दो मूर्तियाँ हैं, जिनमें दायाँ भाग पुरुष और बायाँ भाग स्त्री का है। विदिशा से शिव के हरिहर स्वरूप की प्रतिमा मिली है, जो दिल्ली संग्रहालय में सुरक्षित है।
बौद्ध मूर्तियाँ
गुप्तकालीन बुद्ध मूर्तियाँ अपनी सजीवता और मौलिकता के कारण उत्कृष्ट हैं। इनका प्रभाव दक्षिण-पूर्व और मध्य एशिया की कला पर परिलक्षित होता है। बुद्ध मूर्तियाँ पाँच मुद्राओं में मिलती हैं: ध्यान मुद्रा, भूमिस्पर्श मुद्रा, अभय मुद्रा, वरद मुद्रा और धर्मचक्र मुद्रा। गुप्तकालीन बुद्ध मूर्तियों के बाल घुँघराले, प्रभामंडल अलंकृत और मुद्राएँ विविध हैं। सारनाथ की बैठी हुई बुद्ध मूर्ति, मथुरा की खड़ी बुद्ध मूर्ति, और सुल्तानगंज की काँसे की बुद्ध मूर्ति महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें बुद्ध को शांत-चिंतन मुद्रा में दिखाया गया है। 448 ई. के मानकुँवर लेख में बुद्धिमित्र नामक भिक्षु द्वारा बुद्ध मूर्ति की स्थापना का उल्लेख है (सम्यक्संबुद्धस्य स्वमिताविरुद्धस्य इयं प्रतिष्ठापिता भिक्षु बुद्धिमित्रेण)। 476 ई. के सारनाथ लेख में अभयमित्र नामक बौद्ध भिक्षु द्वारा बुद्ध मूर्ति स्थापना का उल्लेख है।
जैन मूर्तियाँ
गुप्तकाल में जैन मूर्तियों की प्राप्ति का क्षेत्र विस्तृत हुआ। कुषाणकाल में मूर्तियाँ केवल मथुरा और चौसा से मिली थीं, किंतु गुप्तकाल में मथुरा, चौसा, राजगिरि, विदिशा, पन्ना, उदयगिरि, कहौम, वाराणसी और अकोटा (गुजरात) से भी मूर्तियाँ प्राप्त हुईं। जैन मूर्तिकला में तीर्थंकरों के साथ-साथ इंद्र-इंद्राणी, तीर्थंकरों के अनुचर, यक्ष-यक्षिणी, नाग-नागिन, सरस्वती और नवग्रह की प्रतिमाएँ मिलीं। तीर्थंकरों के लांछनों और यक्ष-यक्षी युगलों के निरूपण की परंपरा गुप्तकाल में शुरू हुई। इस काल की तीर्थंकर प्रतिमाओं में कुषाणकालीन विशेषताएँ हैं, किंतु उष्णीष अधिक सौंदर्यपूर्ण और घुँघराला है। प्रभामंडल में विशेष सजावट, आसन में अलंकारिता, धर्मचक्र के आधार में सादगी, परमेष्ठियों का चित्रण, गंधर्व-युगल, नवग्रह और प्रभामंडल का प्रतिरूपण इस काल की विशेषताएँ हैं। प्रतिमाओं की हथेली पर चक्र-चिह्न और तलुओं में चक्र व त्रिरत्न उत्कीर्ण हैं। छत्र और छत्रावली का अभाव इस काल की मूर्तियों में दिखता है।
मथुरा में भगवान पार्श्वनाथ की अपेक्षा भगवान ऋषभनाथ की अधिक मूर्तियाँ बनीं। मथुरा संग्रहालय में एक गुप्तकालीन जैन तीर्थंकर प्रतिमा है, जिसके सिंहासन पर एक ओर धनपति कुबेर और दूसरी ओर एक बालक को जाँघ पर बैठाए देवी की आकृति है। ऊपर दोनों ओर चार-चार कमलासीन प्रतिमाएँ हैं। अलंकरण के आधार पर यह प्रतिमा गुप्तकालीन है।
राजगिरि (बिहार) के पर्वत पर ध्वस्त जैन मंदिरों के अवशेष मिले हैं, जिनमें चौथी शताब्दी ई. की चार जिन मूर्तियाँ हैं। इनमें वैभार पहाड़ी के ध्वस्त मंदिर से बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा और तृतीय पर्वत पर फणयुक्त पार्श्वनाथ की प्रतिमा मिली है। इनकी शैलीगत विशेषताएँ सारनाथ और देवगढ़ की शैलियों से मिलती हैं।
चौसा (आरा, बिहार) से प्राप्त गुप्तकालीन जिन मूर्तियाँ पटना संग्रहालय में हैं। छठी शताब्दी ई. की एक ध्यानस्थ महावीर मूर्ति वाराणसी से मिली है। दुर्जनपुर (विदिशा, मध्य प्रदेश) से तीन मूर्तियाँ प्राप्त हुईं, जिनके लेखों की लिपि, निर्माण-शैली और ‘महाराजाधिराज’ उपाधि के साथ रामगुप्त के नामोल्लेख से स्पष्ट है कि ये चौथी शताब्दी ई. के अंतिम चतुर्थांश में बनीं। दो पीठिका लेखों में तीर्थंकरों के नाम चंद्रप्रभ और पुष्पदंत हैं। उदयगिरि (विदिशा) की गुफा संख्या 20 में गुप्त संवत 106 (425 ई.) के कुमारगुप्तकालीन शिलालेख में पार्श्वनाथ की प्रतिमा के निर्माण का उल्लेख है, जो सिर पर भयंकर नाग-फण के कारण भय-मिश्रित पूज्य भाव प्रेरित करती है।
नचना (पन्ना, मध्य प्रदेश) के सीरा पहाड़ी से जैन प्रतिमाओं का समूह मिला है, जिनमें तीर्थंकर पद्मासन मुद्रा में हैं। उनके सिर के पीछे विस्तृत प्रभामंडल और शीर्ष पर उड़ते गंधर्व-युगल अंकित हैं।
कहौम (देवरिया, उत्तर प्रदेश) के 461 ई. के स्तंभलेख में मद्र नामक व्यक्ति द्वारा पाँच जिन मूर्तियों की स्थापना का उल्लेख है। इन कायोत्सर्ग और दिगंबर मूर्तियों की पहचान ऋषभनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर से की गई है। सीतापुर (उत्तर प्रदेश) से भी एक जिन मूर्ति मिली है। अकोटा (बड़ौदा, गुजरात) से चार गुप्तकालीन काँस्य मूर्तियाँ मिली हैं। पाँचवीं-छठी शताब्दी ई. की ये श्वेतांबर मूर्तियाँ हैं, जिनमें दो ऋषभनाथ और दो जीवंतस्वामी महावीर की हैं। एक आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त ऋषभनाथ की खड्गासन काँस्य प्रतिमा विशुद्ध गुप्तकालीन शैली में है, जिसकी तुलना सुल्तानगंज की बुद्ध काँस्य प्रतिमा से की जाती है। एक ऋषभमूर्ति में धर्मचक्र के दोनों ओर दो मृग और पीठिका के छोरों पर यक्ष-यक्षिणी हैं। जीवंतस्वामी की दो काँस्य मूर्तियाँ (एक अभिलेखांकित पादपीठ सहित) जैन कला और प्रतिमा विज्ञान में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। पहली मूर्ति का मुकुटयुक्त शीर्ष पूर्णतः सुरक्षित है, और इसका मुखमंडल आध्यात्मिक ध्यान, आनंद और यौवन की आभा से प्रदीप्त है। दूसरी मूर्ति में जीवंतस्वामी को ऊँचे अभिलेखांकित पादपीठ पर खड्गासन ध्यानमुद्रा में दिखाया गया है।
देवगढ़ में मूर्तियों का निर्माण प्रचुरता से हुआ। उनकी संख्या और विविधता से प्रतीत होता है कि यहाँ मूर्ति निर्माण का बड़ा केंद्र था। देवगढ़ की मूर्तिकला की स्वतंत्र शैली गुप्तकाल में स्पष्ट हुई। अधिकांश मूर्तियों पर लांछन नहीं हैं और सभी शिलापट्टों पर उत्कीर्ण हैं। मूर्तियों में सजीवता और भावना का संचार करने में गुप्तकालीन कलाकार पूर्णतः सफल रहे।
मृदमूर्तियाँ
मिट्टी की मूर्तियाँ धार्मिक और धर्मेतर दोनों कार्यों में प्रयुक्त होती थीं। पहाड़पुर, राजघाट, भीटा, कौशांबी, श्रावस्ती, अहिछत्र और मथुरा से विष्णु, कार्तिकेय, दुर्गा, गंगा और यमुना की मृदमूर्तियाँ मिली हैं। अहिछत्र से प्राप्त गंगा, यमुना और पार्वती का सिर सुंदर हैं। मीरपुर खास (सिंध) स्तूप की मिट्टी की बुद्ध मूर्तियाँ गुप्तकालीन मृद्भांड कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
कुछ मृदमूर्तियों में उच्चकोटि की कारीगरी दिखती है। एक गोल फलक पर सूर्य का रथ, जिसे सात घोड़े खींच रहे हैं और उषा व प्रत्यूषा प्रकाश बिखेर रही हैं, चित्रित है। कुछ मृदफलक शिव के जीवन की घटनाओं से संबंधित हैं। पहाड़पुर से कृष्ण की लीलाओं की मृदमूर्तियाँ मिली हैं। श्रावस्ती की एक नारी-मृदमूर्ति में दो बालक लड्डू से भरी थाली के सामने बैठे हैं। गुप्तकालीन मृद्भांडों में लाल मृद्भांड सबसे विशिष्ट था।
गुप्तकालीन चित्रकला
गुप्तकाल को चित्रकला का स्वर्णयुग माना जाता है, जब यह अपनी पूर्णता पर पहुँची। वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ में चित्रकला को 64 कलाओं में गिना गया है। ‘विष्णुधर्मोत्तर पुराण’ में मूर्ति और चित्रकला के विधान मिलते हैं। इस युग के नाटकों और काव्यों के अनुसार सभी नागरिक चित्रकला का ज्ञान प्राप्त करते थे। ‘कामसूत्र’ से पता चलता है कि चित्रकला वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित थी और इसका अध्ययन-अध्यापन वैज्ञानिक ढंग से होता था। कालिदास की रचनाओं में चित्रकला के कई प्रसंग हैं। ‘मेघदूत’ में यक्ष-पत्नी द्वारा यक्ष के भावगम्य चित्र का उल्लेख है।
बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि चित्रकला का प्रचार बुद्ध के जीवनकाल में ही हो चुका था। विहारों में चित्र-अलंकरण का वर्णन मूल सर्वास्तिवादिन संप्रदाय के विनय में मिलता है। गुप्तकालीन चित्रकला के सर्वोत्तम उदाहरण अजंता (औरंगाबाद, महाराष्ट्र) और बाघ (ग्वालियर, मध्य प्रदेश) की गुफाओं से प्राप्त हुए हैं। इनमें ‘मध्यदेश शैली’ अपने चरमोत्कर्ष पर दिखती है।
हालाँकि, इन क्षेत्रों में चित्रकला के विकास का श्रेय गुप्त शासकों को नहीं दिया जा सकता, क्योंकि ये क्षेत्र उनके प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं थे।
अजंता की चित्रकला
अजंता की चित्रकला में गुप्तकालीन चित्रकला का सर्वोत्कृष्ट रूप दिखता है। औरंगाबाद (महाराष्ट्र) के जलगाँव स्टेशन के निकट अजंता में चट्टानों को तराशकर 29 गुफाएँ बनाई गई थीं, जिनमें से केवल छह (1, 2, 9, 10, 16, 17) शेष हैं। गुफा 1 और 2 गुप्तोत्तर काल (लगभग 628 ई.) की हैं, जबकि गुफा 9 और 10 प्रथम शताब्दी ई. की हैं। गुफा 16 और 17 गुप्तकालीन हैं।
अजंता के चित्रों के तीन मुख्य विषय हैं: अलंकरण, चित्रण और वर्णन। इनमें प्राकृतिक सौंदर्य के फूल-पत्तियाँ, वृक्ष, पशु-पक्षी, अप्सराएँ, किन्नर, नाग, गंधर्व, यक्ष, बुद्ध, बोधिसत्त्व और जातक कथाओं के दृश्य चित्रित हैं। चित्र फ्रेस्को और टेम्पेरा विधियों से बनाए गए हैं।
फ्रेस्को में गीले प्लास्टर पर चित्र बनाए जाते थे, और विशुद्ध रंगों का प्रयोग होता था। टेम्पेरा में सूखे प्लास्टर पर चित्र बनाए जाते थे, जिसमें रंग के साथ अंडे की सफेदी और चूना मिलाया जाता था। शेखचूर्ण, शिलाचूर्ण, सिता मिश्री, गोबर, सफेद मिट्टी और चोकर को फेंटकर गाढ़ा लेप तैयार किया जाता था। चित्र बनाने से पहले दीवार को रगड़कर साफ किया जाता था, फिर लेप चढ़ाया जाता था। चित्र का खाका लाल खड़िया से बनाया जाता था। रंगों में लाल, पीला, नीला, काला और सफेद का प्रयोग होता था। अजंता में नीले रंग का प्रयोग पहली बार देखा गया। लाल और पीले रंग का अधिक उपयोग हुआ।
गुफा संख्या 16
तकनीकी दृष्टि से अजंता के चित्र विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं। गुफा 16 में ‘मरणासन्न राजकुमारी’ का चित्र प्रशंसनीय है, जो करुणा, भाव और कथा को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में अद्वितीय है। पति के विरह में मरणासन्न राजकुमारी के चारों ओर शोकाकुल परिजन हैं। एक सेविका उसे सहारा दे रही है और दूसरी पंखा झल रही है। विद्वानों ने इसकी पहचान बुद्ध के सौतेले भाई नंद की पत्नी सुंदरी से की है।
इस गुफा में बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण का चित्रण है, जिसमें वे पत्नी, पुत्र और परिचारिकाओं को छोड़कर जाते दिखाए गए हैं। सुजाता का खीर-अर्पण, माया का स्वप्न-दर्शन और बुद्ध के जन्म व सात पग चलने की कथा को कमल के सात फूलों के प्रतीक द्वारा चित्रित किया गया है। बुद्ध की पाठशाला में क्रीड़ारत बच्चे भी चित्रित हैं।
गुफा संख्या 17
गुफा 17 के चित्र विविध हैं, जिन्हें ‘चित्रशाला’ कहा जाता है। विश्व कला के इतिहास में इस चित्रशाला का अद्वितीय महत्त्व है। इसमें बुद्ध के जन्म, जीवन, महाभिनिष्क्रमण और महापरिनिर्वाण की घटनाएँ उकेरी गई हैं। ‘माता और शिशु’ चित्र सर्वोत्कृष्ट है, जिसमें संभवतः बुद्ध की पत्नी अपने पुत्र को समर्पित करती दिखती हैं। अन्य चित्रों में पद्मपाणि अवलोकितेश्वर, बालक के साथ अंधे माता-पिता, मूर्छित रानी, बोधिसत्त्व द्वारा संन्यास की घोषणा, तुषिता स्वर्ग में बुद्ध का स्वागत, काले मृग, हाथी और सिंह के शिकार के दृश्य शामिल हैं। इन गुफाओं का निर्माण वाकाटक सामंत हरिषेण ने करवाया था।
बाघ की चित्रकला
बाघ की गुफाओं के भित्ति-चित्र गुप्तकालीन माने जाते हैं, यद्यपि इनके निर्माण में गुप्तों की स्पष्ट भूमिका नहीं थी। बाघ (धार, मध्य प्रदेश) में विंध्य पहाड़ियों को काटकर गुफाएँ बनाई गईं। स्मिथ के अनुसार अजंता में गुहा-निर्माण समाप्त होने के बाद बाघ की गुफाएँ बनाई गईं। ये गुफाएँ भगवान बुद्ध की दिव्य कथाओं को चित्रित करने के लिए निर्मित हुईं। 1818 ई. में डेंजरफील्ड ने नौ गुफाओं का पता लगाया, जिनमें पहली, सातवीं, आठवीं और नवीं नष्टप्राय हैं। चौथी और पाँचवीं गुफाओं के भित्ति-चित्र सबसे अधिक सुरक्षित हैं। इनमें बुद्ध, बोधिसत्त्व, राजदरबार, संगीत और पुष्पमाला दृश्य महत्त्वपूर्ण हैं।
गुफा 2 ‘पांडव गुफा’ के नाम से जानी जाती है, जिसमें ‘पद्मपाणि बुद्ध’ का चित्र प्रसिद्ध है। तीसरी गुफा ‘हाथीखाना’ और चौथी-पाँचवीं गुफाएँ ‘रंगमहल’ कहलाती हैं। रंगमहल में नृत्य और संगीत के दृश्य हैं, जिसमें अल्पवस्त्र धारण किए नर्तकियाँ घेरा बनाकर नृत्य करती दिखती हैं। वस्त्र, केश-विन्यास और वाद्य-यंत्र तत्कालीन वैभव के प्रतीक हैं। छह दृश्य उल्लेखनीय हैं: (1) राजकुमारी और सेविका (2) दो जोड़े शास्त्रार्थ में लीन, जिनमें एक जोड़े को राजा-रानी माना जाता है (3) स्त्री-समूह में वीणा बजाती नायिका (4) चक्राकार नृत्य ‘हल्लीसक’, जो कृष्ण की रासलीला से प्रेरित है (5) सामूहिक नृत्य को देखते सम्राट और घुड़सवार (6) हाथियों और घोड़ों पर सवार स्त्री-पुरुष, जिसमें भीमकाय पुरुष और कंचुकी पहने स्त्रियाँ हैं।
मार्शल के अनुसार “बाघ के चित्र जीवन की दैनिक घटनाओं से लिए गए हैं, किंतु वे केवल सच्ची घटनाओं को चित्रित नहीं करते, बल्कि उन अव्यक्त भावों को स्पष्ट करते हैं, जो उच्च कला का लक्ष्य है।”
संगीत, नृत्य और अभिनय
गुप्तकाल में संगीत, नृत्य और अभिनय कला का भी विकास हुआ। वात्स्यायन ने संगीत को प्रत्येक नागरिक के लिए आवश्यक बताया। समुद्रगुप्त स्वयं संगीतज्ञ और कुशल वीणावादक थे। ‘वेणु’ वाद्य-यंत्र प्रियतमा को आकर्षित करने का साधन था। ‘मालविकाग्निमित्र’ से पता चलता है कि नगरों में संगीत शिक्षा के लिए कला-भवन थे। गणदास को संगीत और नृत्य का आचार्य बताया गया। उच्च वर्ग की कन्याओं को नृत्य की शिक्षा दी जाती थी। नाटकों के अभिनय के लिए नाट्यशालाएँ थीं, जिन्हें ‘प्रेक्षागृह’ और ‘रंगशाला’ कहा जाता था।










