ईजियन सभ्यता (Aegean Civilization)

क्लासिकी यूनानियों के आगमन से पूर्व यूरोप में ऐतिहासिक सभ्यता का आविर्भाव विस्तृत ईजियन प्रदेश […]

क्लासिकी यूनानियों के आगमन से पूर्व यूरोप में ऐतिहासिक सभ्यता का आविर्भाव विस्तृत ईजियन प्रदेश तथा पार्श्ववर्ती देशों में हुआ था। ईजियन सभ्यता कांस्य युग की सभ्यताओं के लिए एक सामान्य शब्द है, जो 3000-1200 ई.पू. के बीच ग्रीस और ईजियन सागर के बेसिन में विकसित हुई थीं। ईजियन प्रदेश भौगोलिक दृष्टि से तीन अलग-अलग क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है- क्रीट, साइक्लेडीज और यूनान। क्रीट प्रारंभिक कांस्य युग से मिनोअन सभ्यता से जुड़ा हुआ है, जबकि साइक्लेड्स और मुख्य भूमि की संस्कृतियाँ अलग-अलग हैं। साइक्लेड्स प्रारंभिक हेलाडिक (हेलाडिक) काल के दौरान मुख्य भूमि के साथ और मध्य मिनोअन काल में क्रीट के साथ अभिसरण का सूचक है। ईजियन सभ्यता को समझने के लिए यह एक ‘सांस्कृतिक पुल’ है, जो मिस्र, मेसोपोटामिया और बाद की क्लासिकल यूनानी सभ्यता को जोड़ती है। यहाँ की संस्कृतियाँ न केवल स्थानीय थीं, बल्कि समुद्री व्यापार के माध्यम से पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र से प्रभावित हुईं, जिससे कला, लिपि और धार्मिक प्रतीकों में मिश्रित तत्व दिखाई देते हैं। उदाहरणस्वरूप, मिनोअन कला में मिस्री प्रभाव, जैसे कमल के फूल और अनातोलियन तत्व, जैसे द्विपरशु स्पष्ट हैं।

भौगोलिक क्षेत्र

ईजियन प्रदेश के चार प्रमुख भाग हैं- यूनान, क्रीट, साइक्लेडीज और एशिया माइनर का पश्चिमी तट। यूनान बाल्कन प्रायद्वीप का दक्षिणी-पूर्वी भाग है। यह ईजियन एड्रियाटिक एवं आयोनियन समुद्रों के बीच स्थित है। ईजियन समुद्र इसे पूर्व में एशिया माइनर से, तो एड्रियाटिक तथा आयोनियन समुद्र पश्चिम में इटली तथा सिसिली से पृथक् करते हैं। यूनान कोरिन्थ तथा सारोनिक खाड़ियों द्वारा दो भागों में बँटा है। यहाँ की भूमि उर्वर है, किंतु ये उर्वर मैदान पर्वतों से घिरे यत्र-तत्र फैले हुए हैं।

क्रीट द्वीप ईजियन सागर तथा भूमध्यसागर को एक-दूसरे से अलग करता है। क्रीट की स्थिति एक प्रकार से एशिया, अफ्रीका एवं यूरोप महाद्वीपों के मिलन-बिंदु पर है। डेलोस द्वीप के चारों ओर स्थित द्वीपसमूह साइक्लेडीज के नाम से जाने जाते हैं। इनमें पैरोस, नक्सोस, मेलोस, एंड्रोस, सिफ्नोस इत्यादि विशेष प्रसिद्ध हैं। एशिया माइनर का पश्चिमी तट यद्यपि भौगोलिक दृष्टि से एशिया महाद्वीप में स्थित है, किंतु सांस्कृतिक दृष्टि से प्राचीन काल में ईजियन एवं यूनानी सभ्यता के अंतर्गत था। यह भाग अत्यंत कटा-फटा तथा अनेक टापुओं से सुरक्षित है। इनमें इम्ब्रोस, लेम्नोस, खियोस, सामोस इत्यादि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। यह भौगोलिक विविधता ईजियन सभ्यता की सफलता का मूल आधार थी। द्वीपों की श्रृंखला ने प्राकृतिक बंदरगाह और सुरक्षित मार्ग प्रदान किए, जिससे समुद्री व्यापार फला-फूला। उदाहरण के लिए साइक्लेडीज के द्वीपों ने ‘द्वीप-हॉपिंग’ को संभव बनाया, जो नौकायन की प्रारंभिक तकनीक थी। एशिया माइनर का तट ट्रॉय जैसे केंद्रों के माध्यम से हित्ती और मेसोपोटामियन प्रभावों का प्रवेश द्वार था, जबकि क्रीट की केंद्रीय स्थिति ने इसे व्यापारिक केंद्र के रूप में स्थापित किया।

 ईजियन कांस्य युग की काल-विभाजन तालिका
क्षेत्र (Region)काल (Period)अवधि (BCE)संक्षिप्त व्याख्या (Brief Explanation)
क्रीट (Crete)प्रारंभिक मिनोअन (EM – Early Minoan)3650–2160प्रारंभिक बस्तियाँ, मिट्टी के बर्तन का विकास, कृषि-आधारित समाज।
मध्य मिनोअन (MM – Middle Minoan)2160–1600महल-संस्कृति का उदय (जैसे नोसोस), लेखन प्रणाली (लाइनियर ए), व्यापार विस्तार।
स्वर्गीय मिनोअन (LM – Late Minoan)1600–1170मिनोअन सभ्यता का चरम (कुषल संकट के बाद), माइसीनियन प्रभाव, थेरा ज्वालामुखी विस्फोट का प्रभाव।
साइक्लेड्स (Cyclades)प्रारंभिक साइक्लेडिक (EC – Early Cycladic)3300–2000संगमरमर की मूर्तियाँ (जैसे विओलिन आकृतियाँ), द्वीप-आधारित व्यापार, कब्र-संस्कृति।
कास्त्री (EH II-III के समकक्ष – Kastri phase)लगभग 2500–2100साइक्लेडिक और हेलाडिक संस्कृतियों का मिश्रण, किले-निर्माण, धातु-कला।
एमएम के साथ अभिसरण (Convergence with MM)2000 ई.पू.मिनोअन प्रभाव से सांस्कृतिक एकीकरण, व्यापार नेटवर्क का विस्तार।
मुख्य भूमि (Mainland)प्रारंभिक हेलाडिक (EH – Early Helladic)2800–2100प्रारंभिक बस्तियाँ, तांबे के औजार, एजियन व्यापार का आरंभ।
मध्य हेलाडिक (MH – Middle Helladic)2100–1500कब्र-संस्कृति, इंडो-यूरोपीय प्रवास, मिट्टी के बर्तनों में परिवर्तन।
स्वर्गीय हेलाडिक (LH – Late Helladic)1500–1100माइसीनियन सभ्यता का उदय, महल (जैसे माइसीनी), लाइनियर बी लिपि, ट्रोजन युद्ध काल।
अतिरिक्त स्पष्टीकरण:

सभी तिथियाँ ईसा पूर्व (Before Common Era) की हैं। यह तालिका एजियन पुरातत्व की मानक काल-रेखा पर आधारित है (जैसे आर्थर एविट्स या सर आर्थर इवांस के कार्यों से प्रेरित)। तिथियाँ रेडियोकार्बन डेटिंग और पुरातात्विक साक्ष्यों पर निर्भर हैं, इसलिए मामूली भिन्नताएँ संभव हैं। ये काल मिनोअन (शांतिपूर्ण, समुद्री व्यापार) और माइसीनियन (योद्धा-संस्कृति) सभ्यताओं को समझने में सहायक हैं, जो यूनानी मिथकों (जैसे मिनोटॉर) की जड़ें हैं।

यह विभाजन मुख्य रूप से मृद्भाँड शैलियों, स्थापत्य और विनाश स्तरों पर आधारित है, जैसे मध्य मिनोअन काल में प्रासादों का निर्माण चरम पर था, जबकि उत्तर काल में माइसीनी प्रभाव में वृद्धि हुई। साइक्लेड्स में अभिसरण से सांस्कृतिक आदान-प्रदान स्पष्ट होता है, जैसे संगमरमर की मूर्तियों का प्रसार।

प्रमुख नगर एवं नामकरण

ईजियन सभ्यता के उत्कर्षकाल में यूनान में माइसीनी, क्रीट में क्नोसोस तथा एशिया माइनर के पश्चिमी तट में ट्रॉय नामक नगरों ने विशेष ख्याति अर्जित की। ईजियन प्रदेश में 2500 ई.पू. या उससे पहले से 1100 ई.पू. तक विकसित सभ्यता ही ईजियन सभ्यता के नाम से प्रसिद्ध है। इसका सर्वप्रथम आविर्भाव क्रीट में क्नोसोस में हुआ था, इसलिए इसे क्रीटन सभ्यता भी कहा जाता है। पुरातात्त्विक खोजों के आधार पर आर्थर इवान्स ने क्रीट के पौराणिक शासक मिनोस के आधार पर इसे मिनोअन सभ्यता नाम दिया है, जबकि श्लीमैन ने माइसीनी नगर में विकसित सभ्यता को होमर की इलियड से जोड कर माइसीनी सभ्यता कहा है। ट्रॉय के सात स्तरों में से छठा होमरिक ट्रॉय माना जाता है, जो व्यापारिक महत्त्व का परिचायक है। सामान्यतः ईजियन सभ्यता को मिनोअन-माइसीनियन सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है।

भौगोलिक लाभ

ईजियन प्रदेश के निवासियों को अपनी भौगोलिक स्थिति का विशेष लाभ मिला। मिस्र तथा मेसोपोटामिया सभ्यताओं के समीप स्थित होने के कारण इन सभ्यताओं के निकट संपर्क में आने का इन्हें पूर्ण अवसर मिला। तटीय भाग के कटे-फटे होने के कारण यहाँ अनेक बंदरगाह विकसित हुए। समुद्र के प्रत्येक हिस्से में कोई न कोई द्वीप स्थित था, जो मार्ग में प्रकाशस्तंभ का काम कर रहा था। समुद्र एवं स्थल की निकटता के कारण यहाँ निर्विघ्न यात्राएँ हो जाती थीं। नौकाचालन में हवा के रुखों का विशेष महत्त्व था। इनके प्रतिकूल होने पर इन्हें सुरक्षा का विशेष ध्यान रखना पड़ता था। इसलिए ये नौचालन विद्या में अत्यंत निपुण हो गए। ईजियन सागर एक प्रकार से यहाँ के निवासियों के लिए बाल-विहार था। भूमि की अनुर्वरता के कारण ईजियन प्रदेश के निवासियों का जीवन सागर पर अधिक आश्रित हो गया। इनके लिए डाँड़ का वही महत्त्व था जो कृषक के लिए हल तथा चरवाहे के लिए लाठी का। यह लाभ समुद्री प्रभुत्व (थैलासोक्रेसी) का आधार बना। मिनोस को होमर ने ‘समुद्र का स्वामी’ कहा है, जो जलदस्युता दमन और व्यापार नियंत्रण का सूचक है। अनुर्वर भूमि ने मछली पालन, जैतून और अंगूर की खेती को बढ़ावा दिया, जिनका निर्यात किया जाता था।

ऐतिहासिक स्रोत

यूनानी कवि होमर के महाकाव्यों-इलियड तथा ओडिसी में ट्रॉय के राजकुमार द्वारा हेलेन नामक सुंदरी के अपहरण, यूनानियों द्वारा ट्रॉय निवासियों को दंडित करने तथा उनके नगरों को नष्ट करने जैसी घटनाएँ वर्णित हैं। किंतु उन्नीसवीं सदी के अंत तक अन्य विश्वसनीय साक्ष्यों के अभाव में इन घटनाओं को पूर्णतः काल्पनिक माना जाता था। उस समय की आम धारणा यही थी कि यूनान का इतिहास लगभग 1200 ई.पू. के आसपास लोहे का प्रयोग करने वाली भारोपीय वर्ग की किसी शाखा के आगमन के साथ शुरू हुआ। 1870 ई. के बाद हुए पुरातात्त्विक अनुसंधानों ने यह धारणा पूरी तरह बदल दी।

ईजियन सभ्यता के तत्त्वों को प्रकाश में लाने का श्रेय पुरातात्विक विज्ञान के जनक हेनरिक श्लीमैन (1822-1890 ई.) तथा सर आर्थर इवान्स को है। श्लीमैन का जन्म 1822 ई. में जर्मनी में हुआ था। उनके पिता को अतीत की घटनाओं से गहरा लगाव था और वह निरंतर श्लीमैन को ट्रॉय की घेराबंदी की कहानी सुनाया करते थे। फलस्वरूप बचपन से ही श्लीमैन का ध्यान प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्त्व की ओर आकृष्ट हो गया। मात्र आठ वर्ष की आयु में उन्होंने विलुप्त ट्रॉय का पता लगाने का संकल्प ले लिया। दस वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने पिता के समक्ष ट्रोजन युद्ध पर लैटिन भाषा में एक निबंध लिखकर प्रस्तुत किया। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद 1836 ई. में वह व्यापार में लग गए और शीघ्र ही एक समृद्ध व्यापारी बन गए। किंतु पुरातत्त्व के प्रति उनका बचपन का आकर्षण धीरे-धीरे मन पर हावी होता गया। अंततः छत्तीस वर्ष की आयु में उन्होंने अपना पेशा छोड़कर पुरातत्त्व की ओर पूरी तरह ध्यान दिया।

व्यापारी जीवन के दौरान श्लीमैन ने अनेक देशों की भाषाएँ और लिपियाँ सीखीं, जिनमें अंग्रेजी, फ्रेंच, डच, पुर्तगाली, इतालवी, रूसी, स्पेनी, स्वीडिश, पोलिश और अरबी प्रमुख हैं। यूनानी भाषा एवं लिपि पर तो उनका विशेष प्रभुत्व था। 1870 ई. में उन्होंने ट्रॉय जाकर किसी प्रकार तुर्की सरकार से उत्खनन की अनुमति प्राप्त कर 1871 ई. में ट्रॉय का उत्खनन प्रारंभ किया। 1872 ई. में उन्हें सोने-चाँदी के आभूषणों का एक विशाल भंडार मिला, जिसे उन्होंने अपने मित्रों को संदेश भेजते समय ‘प्रियम कोष’ कहकर संबोधित किया।

इसके बाद 1876 ई. में एगमेम्नन की ऐतिहासिकता सिद्ध करने के लिए उन्होंने माइसीनी में उत्खनन शुरू किया, जहाँ उन्हें माइसीनी गढ़ की प्राचीरें, मीनारें, हेराल्डिक सिंहों वाला द्वार तथा विशाल ‘एट्रियस का खजाना’ मिला। 1884 ई. में टिरिंस की खुदाई से उन राजप्रासादों एवं प्राचीरों का पता चला जिनका वर्णन इलियड में किया गया है। 1900 ई. तक जब श्लीमैन ने द्वार के भीतर कब्रों की सामग्री उजागर की, तब विद्वानों को प्रागैतिहासिक निवासियों की उन्नत कला का वास्तविक स्तर समझ में आया।

श्लीमैन के बाद सर आर्थर इवान्स ने 1893 ई. में यूनानी महिलाओं द्वारा पहने हुए कुछ श्वेत पत्थर प्राप्त किए, जिन पर चित्रलिपि में लेख था, लेकिन कोई इसे पढ़ नहीं सका। इवान्स ने इनका संबंध क्रीट से जोड़ा और वहाँ समानता खोजने लगे। 1900 ई. में उन्होंने क्नोसोस को खोदकर मिनोस के राजमहलों का उद्घाटन किया, जिससे प्राचीन क्नोसोस का सही तादात्म्य स्थापित हुआ। सर आर्थर इवान्स ने एजियन सभ्यता को नौ स्तरों में विभाजित किया- प्राचीन मिनोई युग, मध्य मिनोई युग, उत्तर मिनोई युग। प्रत्येक युग को पुनः तीन उप-युगों में विभाजित किया गयारू प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय। इसके बाद फेस्टोस, वासिलिकी, मालिया, गूर्निया आदि स्थलों से इस सभ्यता के अनेक तत्त्व प्रकाश में आए।

इस प्रकार हेनरिक श्लीमैन और सर आर्थर इवान्स जैसे पुरातत्त्वविदों के अथक प्रयासों से एजियन सभ्यता, विशेषकर मिनोअन और माइसीनियन का रहस्य विश्व के समक्ष आया, जिसने यूनानी इतिहास को हजारों वर्ष पीछे धकेल दिया। श्लीमैन की खोजों ने होमर को ऐतिहासिक सिद्ध किया, जबकि इवान्स ने मिनोअन को ‘शांतिप्रिय’ सभ्यता के रूप में स्थापित किया। आधुनिक डीएनए अध्ययन माइसीनियनों को इंडो-यूरोपीय प्रवासियों से जोड़ते हैं, जो स्रोतों की पुष्टि करते हैं।

ईजियन सभ्यता के निर्माता

ईजियन सभ्यता के निर्माता कौन थे और कहाँ से आए थे, अद्यतन निश्चित नहीं हो सका है। ईजियन संज्ञा तो इन्हें केवल इस प्रदेश में रहने के कारण मिली है। आज की कौन कहे, स्वयं यूनानी भी यह नहीं निश्चित कर पाए थे कि ट्रॉय के निवासी यूनानी थे अथवा एशियाई। कुछ विद्वान इन्हें आर्य अथवा भारोपीय वर्ग से संबंधित करते हैं, किंतु इसे मानने में अनेक कठिनाइयाँ हैं। ईजियन सभ्यता के विकास में पाषाणकाल तथा कांस्यकाल में कोई अंतराल नहीं दिखाई पड़ता। अतः कांस्यकालीन ईजियन सभ्यता के निर्माता भारोपीय थे तो यह मानना पड़ेगा कि वे नवपाषाणकाल से ही यहाँ रह रहे थे। किंतु इस प्रकार का निष्कर्ष ऐतिहासिक दृष्टि से भ्रामक होगा। इतना ही नहीं, अपितु क्नोसोस तथा फेस्टोस शब्दांशों से अंत होने वाले शब्द भारोपीय नहीं माने जा सकते। अधिकांश विद्वान इन्हें भूमध्यसागरीय प्रजाति से संबंधित करते हैं। आर्थर इवान्स के अनुसार मिनोस काल में उत्पन्न अव्यवस्था के कारण मिस्रियों की एक शाखा नील नदी के मुहाने वाले भाग से हटकर क्रीट में आकर बस गई। हाल, मैकेंजी इत्यादि ने इवान्स के मत का समर्थन किया है। ऑग्लर तो ईजियन सभ्यता को मिस्री सभ्यता का अंग मानते हैं। ब्रेस्टेड के अनुसार प्रारंभिक ईजियन एशिया माइनर से आए थे, किंतु इनमें अधिकांशतः भूमध्यसागरीय समुदाय के ही थे। इससे यह प्रतीत होता है कि ईजियनों का संबंध भूमध्यसागरीय प्रजातियों के साथ-साथ एशिया माइनर की हित्ती जातियों से भी था। आधुनिक शोधों से पता चलता है कि मिनोअन अनातोलियन किसानों के वंशज थे, जबकि माइसीनियन में स्टेप प्रवासियों का मिश्रण था। यह ‘मिश्रित उत्पत्ति’ सिद्धांत को मजबूत करता है, जहाँ स्थानीय नवपाषाणीय जनसंख्या पर पूर्वी प्रभाव पड़ा।

ईजियन सभ्यता का काल विभाजन

ईजियन सभ्यता के प्रमुख केंद्र क्रीट की संस्कृति को (प) प्राचीन मिनोअन (3000-2000 ई.पू.), (पप) मध्य मिनोअन (2000-1600 ई.पू.) एवं परवर्ती मिनोअन (1600-1150 ई.पू.);

यूनान की संस्कृति को (प) प्राचीन हेलाडिक (3000-1900 ई.पू.), (पप) मध्य हेलाडिक (1900-1600 ई.पू.) तथा (पपप) परवर्ती हेलाडिक (1600-1150 ई.पू.);

साइक्लेडीज की संस्कृति को (प) प्राचीन साइक्लेडिक (3000-2000 ई.पू.), (पप) मध्य साइक्लेडिक (2000-1600 ई.पू.) तथा (पपप) परवर्ती साइक्लेडिक (1500-1400 ई.पू.) तथा ट्रॉय की संस्कृति को (प) ट्रॉय प्रथम (3000-2400 ई.पू.), (पप) ट्रॉय द्वितीय (2400-2200 ई.पू.), (पपपदृअ) ट्रॉय तृतीय से पंचम (2200-1900 ई.पू.) तथा (अपदृअपप) ट्रॉय षष्ठ एवं सप्तम (1900-1500 ई.पू.) नामक उपकालों में विभाजित किया जाता है।

प्राचीन काल

तीन हजार ई.पू. के आस-पास क्रीट, ट्रॉय, मेलोस तथा साइक्लेडीज सभी स्थानों पर नवपाषाणकालीन सभ्यता के स्थान पर ताम्रकालीन सभ्यता का उदय हुआ। क्रीट के प्राचीन मिनोअन, साइक्लेडीज के प्राचीन साइक्लेडिक, यूनान के प्राचीन हेलाडिक तथा ट्रॉय के प्रथम से पंचम स्तर इसी काल के अंतर्गत आते हैं।

प्राचीन मिनोअन को भी प्रथम (3000-2300 ई.पू.), द्वितीय (2300-2100 ई.पू.) एवं तृतीय (2100-2000 ई.पू.) तीन उपकालों में विभाजित किया गया है। प्राचीन मिनोअन काल के अंत तक क्रीट के निवासी कांस्य एवं चित्राक्षर लिपि का आविष्कार कर चुके थे। यूनान में भी लगभग इसी समय नवपाषाणकालीन सभ्यता का स्थान धातुकालीन सभ्यता ने लिया।

ट्रॉय के प्रथम स्तर में ट्रॉय नगर न होकर प्राचीर से सुरक्षित एक दुर्ग मात्र था। द्वितीय स्तर में भी कोई विशेष परिवर्तन न हुआ। तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम स्तरों में ट्रॉय नगर तीन बार बना और बिगड़ा। यह काल संक्रमण का था, जहाँ ताँबे के औजारों ने कृषि और व्यापार को बढ़ावा दिया। इस काल की साइक्लेडिक मार्बल मूर्तियाँ विशिष्ट हैं, जो प्रजनन पूजा का प्रतीक हैं।

मध्यकाल

मिनोअनकाल में प्रथम, द्वितीय एवं तृतीयकृतीन सांस्कृतिक स्तर प्राप्त हुए हैं। प्रथम एवं द्वितीय काल में फेस्टोस तथा मालिया में अनेक प्रासाद, भंडारगृह, उद्योगशालाएँ, देवालय तथा चाक की सहायता से अनेक प्रकार के बर्तन बनाए गए एवं जलनिकास की समुचित व्यवस्था की गई। रैखिक ‘अ’ लिपि का विकास इसी समय में हुआ, किंतु मध्य मिनोअन काल के द्वितीय स्तर के अंत तक किसी विपत्ति के आगमन से फेस्टोस, क्नोसोस तथा गूर्निया के भव्य भवन अग्नि की ज्वाला में नष्ट हो गए तथा मिट्टी के बर्तनों में मलवा भर गया। ट्रॉय का यह षष्ठ स्तर का काल था। श्लीमैन महोदय ने ट्रॉय के इस सांस्कृतिक स्तर को द्वितीय स्तर से जोड़ते हुए छोटी लिडियन बस्ती मानकर उपेक्षित कर दिया था, किंतु बाद में यहाँ जो उत्खनन हुए उसके आधार पर डोर्फेल्ड को यहाँ एक ऐसे नगर का पता लगा, जो द्वितीय स्तर के नगर से बड़ा था। इसमें तराशे गए पाषाणखंडों द्वारा भवन बनाए गए थे तथा इसे चारों ओर से प्राचीर से सुरक्षित किया गया था। अब यह माना जाने लगा है कि होमर द्वारा वर्णित ट्रॉय नगर यही है तथा प्रियम कोष का तादात्म्य इसी से किया जा सकता है, जिसे श्लीमैन ने द्वितीय स्तर से संबंधित किया था। मध्यकाल में साइक्लेडिक सभ्यता पर क्रीट का प्रभाव था। मध्य हेलाडिक काल में ही यूनान में भारोपीय वर्ग की आयोनियन तथा एकियन शाखाओं का आगमन हुआ। यह कोई सैनिक विजय नहीं बल्कि एक घुसपैठ थी। एकियनों की शक्ति के केंद्र माइसीनी, टिरिंस, पाइलोस, थीब्स, एजिना तथा एथेन्स इत्यादि नगर थे। इनकी सभ्यता स्पष्टतः क्रीट से प्रभावित थी। मध्य काल प्रासाद अर्थव्यवस्था का था, जहाँ केंद्रीकृत भंडारण और वितरण प्रणाली थी। विनाश (लगभग 1700 ई.पू.) भूकंप या आक्रमण से हो सकता है, जो पुनर्निर्माण को प्रेरित करता है।

परवर्ती काल

परवर्ती मिनोअन काल को भी प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय कालों में विभाजित किया गया है जिनमें प्रथम एवं द्वितीय काल का समय 1600 ई.पू. से 1500 ई.पू. तक तथा तृतीय का 1400 से 1150 ई.पू. तक स्वीकार किया गया है। इसी काल में क्नोसोस, फेस्टोस, टाइलिसिस, हेगिया-ट्रियाडा तथा गूर्निया में शानदार प्रासाद बनाए गए। ये पाँच मंजिले तक थे। पेरिक्लीज काल के पूर्व यूनान में भी इस प्रकार की समृद्धि नहीं दिखाई पड़ती। किंतु क्रीट के निवासी समृद्धि का उपभोग अधिक दिन तक न कर सके। यहाँ के निवासियों को 1450 ई.पू. में किसी महाविपत्ति का सामना करना पड़ा, जिसकी प्रचण्ड ज्वाला में फेस्टोस, हेगिया-ट्रियाडा तथा टाइलिसिस का अस्तित्व न बच सका। इनके भव्य भवन उसी प्रकार विनष्ट हो गए जैसे किसी समय मध्य मिनोअन काल में विनष्ट हुए थे। क्नोसोस पर माइसीनी के एकियनों का अधिकार स्थापित हो गया। 1400 ई.पू. के आसपास क्नोसोस भी नष्ट हो गया। क्नोसोस के विनाश के कुछ दिन बाद ही गूर्निया, जाक्रो, पालैकास्त्रो आदि भी नष्ट हो गए। क्नोसोस के विनाश के बाद क्रीट की सभ्यता जीवित अवश्य रही, किंतु उसका क्रमशः ह्रास होता गया। बारहवीं शती ई.पू. के अंत तक इस पर यूनानियों की डोरियन शाखा का प्रभुत्व स्थापित हो गया तथा ईजियन प्रदेश से क्रीट-सभ्यता समाप्त हो गई।

परवर्ती काल में हेलाडिक सभ्यता का अधिक विकास हुआ। इस काल में यूनान के माइसीनी नगर को पूर्ण विकसित होने का अवसर मिला इसलिए इसे माइसीनी काल भी कहा जाता है। परवर्ती हेलाडिक को भी प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय उपकालों में विभाजित किया गया है, जिनका समय क्रमशः 1600-1500 ई.पू., 1500-1400 ई.पू. तथा 1400-1150 ई.पू. तक स्वीकार किया गया है। सोलहवीं शती ई.पू. के अंत तक माइसीनी पर जिन शासकों का प्रभुत्व स्थापित हुआ था उनके वंश को शाफ्ट समाधि वंश नाम दिया गया है। श्लीमैन महोदय को इन समाधियों से बहुमूल्य आभूषण, स्वर्णपत्र, मुकुट, कांस्य की सुवर्णजटित तलवारें तथा स्वर्ण वक्षस्त्राण मिले थे। माइसीनी पर इस वंश के राजाओं का प्रभुत्व लगभग 1500 ई.पू. तक बना रहा। इसके पश्चात् जिन शासकों ने शासन किया उन्हें थोलोस समाधि वंश से संबंधित किया गया है। थोलोस समाधि वंश के शासकों का माइसीनी पर 1500 ई.पू. से 1400 ई.पू. तक प्रभुत्व बना रहा। इस काल में माइसीनी सभ्यता क्रीटन सभ्यता से प्रभावित थी। इसी काल में इन्होंने क्रीट की लिपि रैखिक ‘अ’ को अपना कर उसमें कुछ रूपपूर्ण परिवर्तन करके उसे रैखिक ‘ब’ के नाम से प्रचलित किया। 1500 ई.पू. में क्रीट में जो भूकंप आया, जिसका लाभ इन्हें मिला क्योंकि इसी के बाद इन्होंने क्नोसोस पर अधिकार कर लिया। इसके बाद माइसीनी सभ्यता के बहुत से तत्त्व मिनोअन सभ्यता में मिलने लगते हैं। भित्तिचित्रों में प्रयुक्त माइसीनी प्रकार के स्तंभों तथा माइसीनी परंपरा में निर्मित समाधियों का उल्लेख इस प्रसंग में किया जा सकता है। माइसीनियनों की रैखिक ‘ब’ में लिखे गए लेख भी यहाँ से प्राप्त हुए हैं। किंतु क्नोसोस पर स्थापित प्रभुत्व स्थाई न सिद्ध हुआ। क्नोसोस पर 1400 ई.पू. के आस-पास पुनः विपत्ति का अथाह सागर उमड़ पड़ा। संभवतः यह विपत्ति स्थानीय विद्रोह के कारण आई थी, किंतु यह थोलोस समाधि वंश के शासकों के लिए विशेष अहितकर न सिद्ध हुई, क्योंकि इसी समय (1350 ई.पू. के आस-पास) एक्रोपोलिस दुर्ग तथा 7 मीटर मोटी एवं लगभग 18 मीटर ऊँची प्राचीर का निर्माण कराया गया। इस दुर्ग में दो द्वार थे, जिसमें पश्चिमी द्वार सिंहद्वार नाम से प्रसिद्ध था। माइसीनी काल के शासकों में एट्रियस, थाइस्टीस तथा एगमेम्नन के विषय में कुछ संकेत मिलते हैं। अंतिम के नेतृत्व में ही एकियनों द्वारा ट्रॉय नगर विनष्ट किया गया था। यह घटना 1184 ई.पू. की है। थ्यूसिडिडीज के अनुसार इस अधःपतन के 80 वर्ष बाद ही डोरियनों द्वारा दक्षिण यूनान पर अधिकार कर लिया गया। इसका नायक हेराक्लीड था। इस आक्रमण में नगर नष्ट-भ्रष्ट कर दिए गए तथा शासक मार डाले गए। इससे माइसीनी संस्कृति को पर्याप्त आघात पहुँचा और इसका स्वतंत्र इतिहास समाप्त हो गया।

यह कहना कठिन है कि ये आक्रमणकारी कौन थे। इस संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं। कुछ उन्हें मूल ग्रीक मानते हैं, कुछ एशियाई, कुछ डोरियाई, कुछ हित्ती, कुछ अनातोलिया के निवासी। परंतु प्रायः सभी कम से कम आंशिक रूप में यह मानते हैं कि आक्रांता आर्य जाति के थे और संभवतः उत्तर से आए थे जो अपने मिनोई शत्रुओं को नष्ट कर उनकी ही बस्तियों में बस गए। नाश के कार्य में वे प्रधानतः प्रवीण थे क्योंकि उन्होंने एक ईंट दूसरी ईंट पर न रहने दी। आक्रांता धारावत् एक के बाद एक आते गए और ग्रीक नगरों को ध्वस्त करते गए। फिर उन्होंने सागर लाँघ क्रीट के समृद्ध राजमहलों को लूटा जिनके ऐश्वर्य के कुछ प्रमाण उन्होंने उनके स्थलवर्ती उपनिवेशों में ही पा लिए थे और इन्होंने वहाँ के आकर्षक जनप्रिय मुदित जीवन का अंत कर डाला। क्नोसोस और फाइस्तोस के महलों में सदियों से समृद्धि संचित होती आई थी, रुचि की वस्तुएँ एकत्र होती आई थीं, उन सबको, आधार और आधेय के साथ, उन बर्बर आक्रांताओं ने अग्नि की लपटों में डाल भस्मसात् कर दिया। सहस्राब्दियों क्रीट की वह ईजियाई सभ्यता समाधिस्थ पड़ी रही, जब तक 19वीं सदी में आर्थर इवान्स ने खोदकर उसे जगा न दिया। 1450 ई.पू. का विनाश संभवतः संतोरीनी ज्वालामुखी विस्फोट से जुड़ा (थेरा इरप्शन), जिसने सुनामी और राख पैदा की। माइसीनी विजय सैन्य थी, लेकिन सांस्कृतिक निरंतरता बनी रही। डोरियन आक्रमण (लगभग 1100 ई.पू.) ‘ग्रीक डार्क एज’ की शुरुआत था।

राजनीतिक संगठन

ईजियन निवासियों के राजनीतिक संगठन के विषय में अधिक ज्ञात नहीं है। समकालीन साक्ष्य इस विषय में मौन है। केवल परवर्ती परंपराओं से इस विषय में कुछ जानकारी मिलती है। यूनानी आख्यानों में मिनोस को एक महान समुद्राधीश्वर की उपाधि दी गई है। थ्यूसिडिडीज के अनुसार मिनोस प्रथम व्यक्ति था, जिसने एक नौसेना का गठन किया था। हेलेनिक समुद्र के अधिकांश भाग पर इसका नियंत्रण था। इसने साइक्लेडीज पर शासन किया, इसके अधिकांश भाग पर पहली बार उपनिवेश स्थापित किया तथा केरियनों को बहिष्कृत कर अपने पुत्रों को गवर्नर नियुक्त किया। इसके मानने के लिए पर्याप्त आधार हैं कि इसने अपने राजत्व को सुरक्षित करने के लिए जल-दस्युता को समाप्त करने का पूर्ण प्रयास किया। इलियड में क्रीट के नब्बे नगरों का उल्लेख हुआ है।

बाद में मिनोस क्रीट के शासकों की उपाधि बन गई जिसे क्रीट के शासक मिस्र के शासक फराओ तथा रोम के शासक सीजर की भाँति धारण करते थे। भग्नावशेषों से प्रतिध्वनित होता है कि राजा की शक्ति धर्म एवं कानून पर आधारित थी। शासक ही राज्य का प्रधान पुजारी, धर्माधीश, प्रधान सेनापति तथा मुख्य न्यायाधीश था। इसके पुरोहित इसे वेलोस का वंशज मानते थे। इसे कानून इसी देवता से मिले थे। प्रति नवें वर्ष देवता शासक के सक्षम एवं उदार रहने पर इसे दैवी शक्ति से पुनः अभिषिक्त करता था।

शासक की सहायता के लिए अनेक अधिकारी जैसे मंत्री, कार्यालय सहायक एवं लिपिक नियुक्त किए जाते थे। शासक उपज के रूप में जनता से कर प्राप्त करता था। इस दृष्टि से अनाज, तेल तथा शराब का विशेष महत्त्व था। इसे राजकीय कोषागार में बड़े-बड़े भंडारों में सुरक्षित किया जाता था। इसी से प्रशासन का खर्च चलता था। एक न्यायाधीश के रूप में इसकी इतनी प्रतिष्ठा थी कि मृत्यु के बाद यह मृतकों की दुनिया के न्यायाधीश का पद प्राप्त करता था। मिनोस असीरियन अथवा पारसीक शासकों की भाँति न तो युद्ध का संचालन करता था, न किसी बड़ी सेना का स्वामी था। इसकी सैनिक शक्ति बहुत कम थी। जलबेड़े का उपयोग बाह्याक्रमणों को रोकने तथा व्यापारिक नियंत्रण के लिए किया जाता था, न कि जनता को आतंकित करने के लिए। सैनिक बरछियाँ, धनुष तथा ढाल धारण करते थे।

सामाजिक संगठन

मिस्र तथा मेसोपोटामिया की भाँति ईजियनों में कठोर वर्गभेद एवं सामाजिक असमानता नहीं थी। प्रायः प्रत्येक वर्ग के सदस्य सुखी एवं समृद्ध जीवन यापन कर रहे थे। समाज का कोई भी वर्ग ऐसा नहीं था, जिसे पिछड़ा माना जा सके। दासता प्रायः नहीं थी। गूर्निया जैसे औद्योगिक नगर के गरीबों के भवनों में भी छह से आठ कमरे होते थे, जो इनके सुखी जीवन का प्रमाण है। श्रीमंतों का जीवन तो और आनंदपूर्ण था। इनके राजप्रासाद इसके साक्ष्य हैं। इसमें वातायन, प्रकाशकूप एवं नाट्यगृहों की व्यवस्था रहती थी। इसकी स्वच्छता का समुचित ध्यान रखा जाता था। श्रीमंत सादा वस्त्र धारण करते थे। प्रायः जाँघिए के ऊपर एक कपड़ा लपेट लेते थे। शरीर का ऊपरी भाग प्रायः खुला रहता था। इनके वस्त्र रंगीन तथा आकर्षक थे। ये भी हित्तियों के सदृश पैर में ऊँचे जूते धारण करते थे। लंबे केश तथा आभूषण को अलंकरण का साधन तथा क्षीण कटि को सौंदर्य का प्रतीक माना जाता था। सामाजिक संगठन में पारिवारिक संस्था का विशेष महत्त्व था। कई परिवार मिलकर समूह का निर्माण करते थे। एक परिवार में माता-पिता के अतिरिक्त पुत्र-पुत्री, बंधु-बांधव तथा सेवक रहते थे। इस तरह परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक थी। संभवतः इसी कारण यहाँ के भवनों में कई कमरे बनाए जाते थे। वासिलिकी में मिनोअन काल के भवनों में दो-तीन मंजिलों के होने के प्रमाण मिले हैं। निचली मंजिल में लगभग बीस कमरे थे। धीरे-धीरे भवनों का आकार-प्रकार छोटा होता गया। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि शनैः शनैः संयुक्त पारिवारिक व्यवस्था का स्थान एकाकी परिवार लेता जा रहा था। समाज में स्त्रियों का स्थान महत्त्वपूर्ण था। प्रधान देवी शक्ति देवता नहीं बल्कि देवी के रूप में प्रतिष्ठित थी। प्लूटार्क के अनुसार क्रीट के निवासी अपने देश को पितृभूमि न कहकर मातृभूमि कहते थे। खेलों तथा उत्सवों में स्त्रियाँ पुरुषों के समान भाग लेती थीं। भित्तिचित्रों में इन्हें बिना किसी भेदभाव के पुरुषों के साथ रथ हाँकते, आखेट करते, महिषयुद्ध करते तथा सार्वजनिक समारोहों में भाग लेते हुए दिखाया गया है। मिनोअन स्त्रियाँ आधुनिक वस्त्रों के समान वस्त्र धारण करती थीं। इनका विन्यास अठारहवीं शती ई. की यूरोपियन स्त्रियों के समान था। यह मैट्रिआर्कल तत्व का परिचायक है, जहाँ स्त्रियाँ बैल-जंपिंग जैसे खतरनाक खेलों में भाग लेती थीं। दासता सीमित थी और मुख्यतः युद्ध कैदी ही दास बनाए जाते थे।

आर्थिक संगठन

ईजियन सभ्यता के आर्थिक गठन में राजकीय हस्तक्षेप अधिक था। शासक ही राज्य का सबसे बड़ा पूँजीपति था। नगर की सभी उद्योगशालाएँ तथा कर्मशालाएँ राजप्रासाद से संलग्न रहती थीं। इन्हीं में भाँड, वस्त्र तथा धातु के उपकरणों का उत्पादन होता था। उत्पादन का कुछ अंश शासक के व्यक्तिगत कार्य में लगाया जाता था तथा शेष का व्यापार किया जाता था। यद्यपि यहाँ व्यक्तिगत उद्योगों को पनपने की छूट थी, किंतु शासकीय उद्योगों की अपेक्षा सुविधाओं के अभाव में वे अधिक प्रगति नहीं कर सकते थे। राजधानी से दूर कुछ व्यक्तिगत उद्योगशालाएँ स्थापित थीं। कृषि तथा व्यापार पर भी व्यक्तिगत नियंत्रण था। गूर्निया ताम्रोद्योग, थेरा तेलशोधन तथा फेस्टोस भाँड उद्योग में विशेष ख्याति अर्जित कर चुके थे। यहाँ कर्मशालाओं में पर्याप्त संख्या में श्रमिक कार्यरत थे। संभवतः श्रम-विभाजन क्रियाशील था। साम्राज्ञी की निगरानी में वस्त्रोद्योग में सैकड़ों महिल महिलाएँ कार्यरत थीं। इनके व्यापारिक संबंध सुदूर देशों से थे। राजप्रासादों के अलंकरण से संबंधित सामग्रियों की तलाश में ईजियन व्यापारी ईजियन प्रदेश, इटली तथा मध्य यूरोप तक चक्कर लगाते थे। मुख्यतः भाँड और तेल का निर्यात किया जाता था और टिन, एम्बर का आयात किया जाता था। ईजियन भाँडों की मिस्र में उपस्थिति इनके मिस्री संबंध की पुष्टि करती है।

धार्मिक जीवन
देवमंडल

ईजियनवासियों का धर्म एक प्रकार का मिश्रित धर्म था, जिसमें सर्वाधिक प्रतिष्ठा मातृदेवी को मिली थी। यही समस्त ब्रह्मांड का अधिशासन करती थी। पृथ्वी, समुद्र तथा आकाश सभी इसके अधीन थे। सभी दृश्य वस्तुएँ इसी से प्रकट हुई थीं। मनुष्य, पशु तथा वनस्पतियों में यही प्राण संचारित करती थी। कबूतर एवं नाग इसके प्रतीक थे। प्रजनन शक्ति की अधिष्ठात्री के रूप में इसे प्रायः अनावृत्त स्तनवाली, एक बालक को धारण किए हुए तथा उसका पालन-पोषण करती हुई और कभी-कभी सिंहरक्षित एवं फूले हुए वृक्ष के नीचे विराजमान दिखाया गया है। यद्यपि ईजियन देवमंडल में प्रथम स्थान मातृदेवी को मिला था, किंतु आगे चलकर इन्होंने इसके पुत्र एवं कुछ समय बाद पति के रूप में जियस नामक एक युवा देवता की कल्पना की। यूनानी इसे वेलोस कहकर संबोधित करते थे। प्रारंभ में तो इस देवता की स्थिति साधारण थी, किंतु बाद में इसकी महत्ता बढ़ गई और इसे उर्वर-वृष्टि का प्रतीक मान लिया गया। मिस्र के ओसिरिस की भाँति यह भी मर कर पुनर्जीवित हुआ था। कभी-कभी कृषिदेव के रूप में इसे पवित्र वृषभ में अवतरित स्वीकार कर लिया जाता था। इसी पवित्र वृषभ से मिनोस की पत्नी पैसिफे से मिनोटॉर की उत्पत्ति हुई थी।

मातृदेवी एवं जियस के साथ-साथ यहाँ पशु, पक्षी (वृष, नाग, कबूतर), वृक्ष, द्विपरशु, स्तंभ, क्रास जैसे प्रतीकों, पर्वत, गुफा, पाषाण, चंद्र, सूर्य, तीन की संख्या इत्यादि की उपासना भी प्रचलित थी। प्रत्येक ईजियन निवासी के घर में एक स्तंभ स्थापित रहता था, जिस पर पवित्र चिह्न रख दिए जाते थे। यह एनिमिस्टिक और फर्टिलिटी-आधारित था, जो बाद में यूनानी पैंथियन में विलीन हो गया। बैल हॉर्न्स शक्ति के प्रतीक थे।

कर्मकांड

ईजियन धर्म में कर्मकांड को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला था। मातृशक्ति की प्रधानता के कारण कर्मकांड में स्त्रियाँ आगे थीं। शासक भी दैवी अनुष्ठान में स्त्रियों के समान वस्त्र धारण करते थे। प्रारंभ में यहाँ न तो मंदिर थे, न उपासनागृह और न मूर्तियाँ। ये अभीष्ट देवी-देवताओं की उपासना उन्मुक्त आकाश में, खुले स्थानों पर, वृक्षों के नीचे तथा पर्वत की चोटियों पर करते थे। बाद में पवित्रता की रक्षा तथा उपहारों के संग्रह के लिए उक्त उपासना स्थलों पर एक कमरा बनाया जाने लगा। इस प्रकार उपासनागृह तथा मंदिर अस्तित्व में आए। किंतु इस प्रकार के मंदिर सामूहिक उपासना के लिए ही थे। व्यक्तिगत उपासना अभी भी घरों में मूर्तियाँ, स्तंभया वेदिका बना कर की जाती थी। उपासना में पवित्रीकरण संस्कार तथा भेंट का विशिष्ट महत्त्व था। किसी भी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान के संपादन के पूर्व पवित्रीकरण संस्कार आवश्यक था। इसे जल एवं तेल की सहायता से संपन्न किया जाता था। देवता को प्रसन्न करने के लिए पेय, फल-फूल, पशु इत्यादि अर्पित किए जाते थे। पशुबलि में वृष, गाय, भेड़ तथा बकरी का वध किया जाता था। विशिष्ट धार्मिक अवसरों पर मातृदेवी तथा उसके पुत्र के लिए सैकड़ों पशुओं की बलि दी जाती थी। खास मौसमी त्योहारों, जैसे बसंत ऋतु, जैतून की फसल के आगमन तथा शीत ऋतु के समय बड़ी-बड़ी दावतों, नृत्यों एवं समारोहों का आयोजन किया जाता था। बैल-जंपिंग धार्मिक रिचुअल था, जो साहस और पुनर्जन्म का प्रतीक था। वर्तमान समय में यह कहना कठिन है कि इन धार्मिक अनुष्ठानों से इन्हें किसी प्रकार की पापमुक्ति मिलती थी अथवा नहीं।

पारलौकिक मान्यताएँ

ईजियन धर्म में जिस प्रकार नैतिक तथा आध्यात्मिक तत्त्वों का अभाव था, उसी प्रकार पारलौकिक जीवन के विषय में भी ये अन्यमनस्क थे। मृत्यु के बाद परलोक में ये सुखमय जीवन अवश्य व्यतीत करना चाहते थे, लेकिन इसके लिए इस लोक में सदाचरण की आवश्यकता थी, ऐसी मान्यता का विकास इन्होंने नहीं किया था। इस संबंध में ये प्राचीन एवं मध्यराज्यकालीन मिस्रवासियों से बहुत पीछे थे। किंतु परलोक में मृतजनों की सुख-सुविधा के प्रति ये अत्यन्त सजग प्रतीत होते हैं। मृतकों को यहाँ अत्यन्त सावधानी से खाद्यपदार्थ, पेयसामग्री, प्रसाधनोंपकरण, दीप, चाकू, दर्पण तथा क्रीड़ा संबंधित विभिन्न उपकरणों के साथ दफनाया जाता था। इनकी मात्रा एवं संख्या का निश्चय मृतकों के स्तर के अनुरूप किया जाता था। मृतकों को दफनाते समय उनकी रुचि एवं उनके व्यवसाय का भी विशेष ध्यान रखा जाता था। जैसे शिकारी के साथ भाले, नाविक के साथ छोटी नौकाएँ तथा बच्चों के साथ खेल की सामग्रियाँ रखी जाती थीं। श्रीमंतों के साथ दास के पुतले दफनाए जाते थे। समय-समय पर समाधियों पर खाद्य पदार्थों की भेंट चढ़ाने की प्रथा भी थी।

कला एवं स्थापत्य
सामान्य विशेषताएँ

ईजियन सभ्यता का सर्वाधिक ज्ञात, आदर्श एवं उत्कृष्ट तत्त्व इनकी कला है। इसी के माध्यम से हम इनकी जीवनशक्ति एवं स्वातन्त्र्यभावना से परिचित होते हैं। यूनान के अतिरिक्त प्राचीन विश्व में कहीं भी इसकी बराबरी नहीं मिलती। ईजियन कला अपनी विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध है। यह परंपरा के बंधन से मुक्त होकर सर्वजनीन बन गई। इसमें शासकीय कला एवं लोककला जैसा अंतर नहीं था। शासकों की मूर्तियाँ उतनी ही सजीव थीं, जितनी सर्वसाधारण की। सजीवता एवं स्वाभाविकता की दृष्टि से ईजियन कला-कृतियाँ अपना वैशिष्ट्य रखती हैं। ईजियन कलाकृतियाँ पूर्ण नैसर्गिक हैं। इनमें गति, भाव एवं चेतना का अभूतपूर्व समन्वय है। एक गड़ेरिये का बालक एक बैल के कान एवं सींग पकड़ने का प्रयास करता है। यह सब कार्य एक क्षण में संपन्न हो जाता है। इस एक क्षण की भावनाओं एवं गतियों का अत्यंत सावधानी से चित्रण किया गया है। सूखी शाखाओं के भार से दबे बिना पत्ते वाले वृक्ष जिस आतुरता से बसंत ऋतु की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उसका प्रदर्शन अत्यन्त सहज एवं स्वाभाविक है। ईजियन कला में प्रकृति के विभिन्न उपादानों के चित्रण का सफल प्रयास किया गया है। पत्ते, पुष्प, पादप, लता, कुंज, जल, पशु, पक्षी इत्यादि सभी का प्रदर्शन मिलता है। राजप्रासाद से संबंधित उपकरणों से लेकर सर्वसाधारण जनों की सामान्य आवश्यकता की वस्तुओं तक का इसमें अंकन मिलता है। राजसिंहासन पर विराजमान शासक का इनके लिए उतना ही महत्त्व था, जितना समुद्र के किनारे विहार करते हुए अर्धनग्न धीवर का। शिकार की मुद्रा में बैठी बिल्ली तथा मदोन्मत्त वृषभ दोनों इनके लिए बराबर थे। ईजियन कलाकारों ने जीवन एवं कला के पारस्परिक संबंध को समझते हुए सिद्ध कर दिया कि कला ही जीवन है। ईजियन कला में ग्रहणशीलता थी। समकालीन कलाशैलियों को ग्रहण करने में इन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता था। बेबिलोनियन सिलिंडरों तथा मिस्र के पाषाणपात्रों की नकल इन्होंने की, किंतु ग्रहणशीलता के प्रवाह में मौलिकता में कोई बाधा न आई। अन्य देशों से ग्रहण किए गए कला तत्त्व ईजियन कलाकारों के हाथ देशज बन गए। जैसे मिस्र के सपक्ष सिंह को ग्रहण तो किया गया, किंतु अपनी रुचि एवं स्वभाव के अनुरूप उन्हें क्षिप्र गति से उड़ते हुए दिखाया गया, जबकि मिस्र में वे ऐसा नहीं दिखाए गए थे। ईजियन कलाकार लघुता में विश्वास करते थे। यहाँ न तो पिरामिड एवं कार्नाक तथा लक्जोर मंदिर के सदृश वास्तुकृतियाँ बनाई गईं, न स्फिंक्स के समान विशाल मूर्तियाँ। इनके भवन, मूर्तियाँ, चित्र इत्यादि सभी छोटे हैं। प्यालों एवं तश्तरियों के सृजन में इन्होंने उतनी ही रुचि ली, जितनी राजप्रासादों के निर्माण में। यह लाइफ-एफर्मिंग कला थी, जो युद्ध के बजाय प्रकृति और आनंद पर केंद्रित। फ्रेस्को तकनीक (गीला प्लास्टर पर) जीवंतता प्रदान करती थी।

वास्तुकला

वास्तुकला में मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की बराबरी करने वाले नगर नहीं मिले हैं, पर क्नोसोस, माइसीनी, टिरिंस, फेस्टोस, ट्रॉय, हेगिया-ट्रियाडा इत्यादि स्थलों से इनके नगरों एवं भवनों के जो अवशेष मिले हैं, उनके आधार पर इस विषय में जानकारी होती है। नगरों की आंतरिक योजना, जिसमें जलनिकास एवं प्रशस्त मार्गों की समुचित व्यवस्था थी, से प्रतीत होता है कि ईजियन नगरों का विकास अत्यंत स्वच्छ एवं स्वस्थ वातारण में हुआ था। ईजियन राजप्रासाद अलंकरण अथवा कला के सम्वर्द्धन के लिए नहीं, बल्कि उपयोगिता के लिए बनाए गए थे। प्रशासनिक दृष्टि से राजप्रासादों का विस्तार आवश्यक था। ईजियन वास्तुकला के सर्वाेत्कृष्ट उदाहरण के रूप में क्नोसोस के राजप्रासाद को प्रस्तुत किया जा सकता है। क्नोसोस पैलेस को 1300 कमरों वाला लेबिरिंथ कहा गया है। मिनोस शासकों का यह भवन क्नोसोस पहाड़ी के ढाल पर 2.43 हेक्टेयर भूमि में बनाया गया था। दक्षिणी द्वार पर सीढ़ीदार द्वारमण्डप बना था। यहाँ फेस्टोस से आने वाली सड़क मिलती थी। द्वारमण्डप में प्रवेश करने पर एक विशाल प्रांगण मिलता था। इसका विस्तार लगभग 62×16 मीटर था। इस प्रांगण के चतुर्दिक भंडारगृह, उद्योगशालाएँ, विद्यालय, राजकीय कार्यालय, सिंहासन-कक्ष तथा आवास बने थे। राजप्रासाद की योजना में एकरूपता नहीं दिखाई पड़ती। कुछ भाग अवश्य सुनियोजित बनाए गए थे, किंतु शेष समय-समय पर आवश्यकतानुसार निर्मित किए गए थे। भूकंप के कारण इस भवन को पर्याप्त क्षति पहुँची थी। 1600 ई.पू. में इसका जीर्णाेद्धार किया गया था, इसलिए देखने में यह भवन एक गाँव के समान लगता था। स्वच्छता की दृष्टि से इसमें स्नानगृह, शौचालय, प्रकाशछिद्र इत्यादि उचित स्थान पर बनाए गए थे तथा जलनिकास की समुचित व्यवस्था थी। विशेषज्ञों का मत है कि इस प्रकार की जलनिकास प्रणाली उन्नीसवीं शती ई. के मध्यकाल तक नहीं मिलती है। राजप्रासाद के एक विशाल कक्ष में द्विपरशु का चित्र बना था। इसलिए इसे हाल ऑव डबल ऐक्स नाम दिया गया था। राजप्रासाद से लगे हुए राजकुमार एवं पदाधिकारियों के भवन थे। इनमें भी उक्त सभी सुविधाएँ विद्यमान थीं। क्नोसोस के पश्चात् क्रीट का सबसे बड़ा भवन फेस्टोस में बना था। हेगिया-ट्रियाडा में बना ग्रीष्म भवन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। माइसीनी युग के भवन टिरिंस एवं माइसीनी में बनाए गए थे। टिरिंस के राजप्रासाद में स्त्रियों के आवास पुरुषों से पृथक् बनाए गए थे। यह प्रथा बाद में यूनानी लोक वास्तुकला में मिलती है। इस भवन में राजा एवं रानी के कमरे एक-दूसरे के निकट अवश्य स्थित थे, किंतु दोनों में कोई संबंध नहीं था। दोनों के मार्ग भिन्न-भिन्न थे। राजा एवं रानी के कमरों की योजना वैसे ही थी जैसे ट्रॉय के पहाड़ी नगर के भवन की। माइसीनी का भवन पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर स्थित था। इसकी योजना का पूर्ण ज्ञान तो नहीं हो सका है, पर हम इतना जानते हैं कि इसके कमरों की फर्श का निर्माण अच्छी सीमेंट द्वारा किया गया था। खुले प्रांगण में सीमेंट के साथ छोटे-छोटे गोल पत्थर भी मिले हैं। फर्श एवं दीवालें रंगी तथा चित्रों से सजाई गई थीं। क्रीट एवं फेस्टोस और माइसीनी एवं टिरिंस के भवनों की योजना में कतिपय विभिन्नताएँ थीं। उदाहरणार्थ क्रीट एवं फेस्टोस के भवनों की किलेबंदी नहीं की गई थी, जबकि टिरिंस एवं माइसीनी के भवन सुदृढ़ प्राचीरों से सुरक्षित थे। क्रीट के सुहावने मौसम में कमरों को गर्म रखने के लिए चलती-फिरती भट्टियाँ ही पर्याप्त थीं। अतएव धुआँ निकलने के लिए भवनों में छिद्र की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। इसके विपरीत माइसीनी तथा टिरिंस की जलवायु ऐसी थी कि यहाँ भवनों में स्थाई भट्टियाँ रखनी पड़ती थीं, जिसके धुएँ निकलने के लिए छत में एक छिद्र आवश्यक था। यह कक्ष इनके प्रासाद का एक महत्त्वपूर्ण अंग था।

मूर्तिकला

वास्तुकला की अपेक्षा मूर्तिकला में ईजियन कलाकार अधिक सफल हुए। ईजियन कलाकारों की लघुता की प्रवृत्ति इनकी मूर्तिकला में ही दिखाई पड़ती है। मूर्तियों को जितना संभव हो सका, इन्होंने छोटा बनाया। मिस्र एवं बेबिलोन के कलाकारों की भाँति दंभ प्रदर्शन इन्हें तनिक भी प्रिय नहीं था। इनका वास्तविक उद्देश्य प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करना था। यहाँ से प्राप्त सभी मूर्तियाँ, चाहे वे देवता की हों अथवा मनुष्य की, अपने स्वाभाविक आकार से भी छोटी हैं। मूर्तियाँ मिट्टी, हाथीदाँत तथा धातु की सहायता से बनाई गई थीं। प्रमुख मूर्तियों में सर्वाेत्कृष्ट परवर्ती मिनोअन काल की एक नागदेवी अथवा उसकी पुजारिन की मूर्ति हैं। हाथीदाँत द्वारा बनी यह अर्ध नाग एवं नारी की मूर्ति है। इनके हाथ नाग से सुशोभित हैं तथा इसने स्वर्णपत्र-निर्मित वस्त्र धारण किया है। वस्त्र का आकार-प्रकार आधुनिक स्कर्ट के समान है। वक्षस्थल एक वेस्टन तथा शीश उष्णीष से अलंकृत हैं। यह 16.5 सेंटीमीटर ऊँची है तथा संप्रति बोस्टन संग्रहालय में सुरक्षित है। ब्रेस्टेड के अनुसार इसके माध्यम से कलाकारों ने अपने समय की एक आदर्श महिला का चित्रण प्रस्तुत किया है। क्रीट के कलाकारों के हाथ निर्मित इस छोटी मूर्ति में जो ओजस्विता एवं सौम्यता है, उसकी बराबरी यूनानी कलाकारों द्वारा निर्मित मूर्तियों में भी नहीं मिलती।

उद्भुत कला

ईजियन उद्भुत कला भी अत्यंत आकर्षक है। इस दृष्टि से परवर्ती मिनोअन काल के शस्य संग्राहक पात्र का उल्लेख कर सकते हैं। यह हेगिया-ट्रियाडा से मिला है तथा इसका केवल ऊपरी भाग अवशिष्ट है। इसमें कृषकों के एक समूह को एक पुजारी के नेतृत्व में, संभवतः खेत से, लौटते हुए चित्रित किया गया है। इनके हाथ औजार से सुशोभित हैं तथा ये आनन्द विभोर गा रहे हैं। पुजारी खल्वाट है तथा हाथ में वाद्ययंत्र ग्रहण किए है। विल ड्युराँट इसे एक प्रकार का फसलों का उत्सव मानते हैं। इसकी गणना विश्व की सर्वोत्तम कलाकृतियों में की गई है। हेगिया-ट्रियाडा से ही एक अन्य पात्र मिला है, जिसे मुष्टि योद्धा का पात्र कहा गया है। इसमें मुष्टियुद्ध की विभिन्न अवस्थाओं का अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण किया गया है। मुष्टिका प्रहार, उससे आत्मरक्षा के प्रयत्न, आघात से धराशाई होने तथा विजयोपरान्त आनन्द मनाने का पृथक्-पृथक् अत्यन्त सहज एवं स्वाभाविक तक्षण है। एक अन्य पात्र में, जिसे राजपात्र नाम दिया गया है, एक शासक को एक योद्धा तथा उसके साथियों का स्वागत करते हुए अथवा विदा करते हुए तक्षित किया गया है। योद्धा शासक के समक्ष सावधान मुद्रा में खड़ा है तथा उसका अनुगमन पंक्तिबद्ध सैनिक कर रहे हैं। वाफियों से माइसीनी युग के दो स्वर्णनिर्मित कटोरे मिले हैं, जिन पर कलात्मक ढंग से वन्य वृषभ की मूर्तियाँ तक्षित हैं। ईजियन कलाकार चित्रकला में सर्वाधिक सफल माने जा सकते हैं। इनकी चित्रकला में भित्तिचित्रों की अधिकता है। इनके अधिकांश चित्र लेपचित्र शैली में बनाए गए थे, जिसमें भित्ति पर गीले प्लास्टर पर चूने का लेप लगाकर चित्र बनाया जाता था। ये चित्र यहाँ की राजसमाधियों, प्रासादों एवं व्यक्तिगत भवनों की भित्तियों पर मिलते हैं। इनमें प्राकृतिक दृश्यों, मृगया तथा समुद्री जीवन का चित्रण है। चित्रों को आकर्षक एवं रमणीय बनाने के लिए वास्तविकता से हटने में भी इन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी। गुलाब को उसकी प्रकृति के विपरीत हरे रंग में रंगने तथा पौधों को उल्टा दिखाने में ये तनिक भी संकोच का अनुभव नहीं करते थे। परंपरया स्त्रियों को सफेद अथवा पीले एवं पुरुषों को काले रंग में रंगते थे। ईजियन चित्रकला के आदर्श उदाहरण के रूप में सर्वप्रथम उस चित्र का उल्लेख किया जा सकता है जिसे साकी नाम दिया गया है। यह चित्र संप्रति हेराक्लियोन संग्रहालय में सुरक्षित है। इसमें एक स्वस्थ एवं लम्बे युवक को एक चषक धारण किए हुए दिखाया है। इसका वर्ण श्याम है। युवक एक हाथ से चषक के नीचे का आधार तथा दूसरे हाथ से ऊपरी भाग पकड़े हैं। अपने स्वभाव के अनुरूप ईजियन कलाकारों ने युवक की कटि को अत्यंत क्षीण दिखाया गया है। इसके मणिबंध, बाहु, कण्ठ तथा कर्ण आभूषण से सुशोभित हैं। बहुमूल्य वेष्ठन इसके प्रमाण हैं कि यह चित्र किसी दास का नहीं, अपितु अभिजात का है। हेगिया-ट्रियाडा से प्राप्त एक मार्जार का चित्र भी अत्यंत आकर्षक है। मार्जार शनैः शनैः तीतर की ओर बढ़ रहा है। शिलाओं के प्रदर्शन में तो मध्य उड़ते हुए नील पक्षी तथा उड़ती हुई मछली के चित्र भी कम आकर्षक नहीं हैं। समूह ईजियन कलाकार और अधिक सफल थे। समूह को ये रेखाओं के माध्यम से व्यक्त करते थे। माइसीनी काल के भित्ति-चित्रों में समूह प्रदर्शन का उत्कृष्ट प्रयास दर्शनीय है।

मृद्भाँड कला

वास्तु, मूर्ति, उद्भुत एवं चित्रकला के अतिरिक्त ईजियन कलाकारों ने मृद्भाँडकला में अच्छी प्रगति की थी। प्राचीन मिनोअन काल में मृद्भाँड हाथ की सहायता से बनाए जाते थे, इसलिए कलात्मक दृष्टि से उनका विशेष महत्त्व नहीं है। मध्य मिनोअन काल तक ये चाक का आविष्कार कर चुके थे, जिसके फलस्वरूप इनकी मृद्भाँडकला का अत्यधिक विकास हुआ। कलाकारों ने काले एवं भूरे, श्वेत एवं लाल, नारंगी एवं पीले तथा किरमिजी एवं सिंदूरी रंगों को स्वच्छन्दतापूर्वक मिलाकर नया रूप दिया। इन्होंने इनकी सतह इतने विश्वास एवं दक्षता के साथ बनाई कि इनमें से कुछ की सतह एक मिलीमीटर तक पतली हो गई। इन्हें अंड-कवच नाम दिया गया है। परवर्ती मिनोअन (प्रथम) काल में इन्हें अधिक अलंकृत एवं आकर्षक बनाया गया। अब मृद्भाँडों की सतह को प्राकृतिक दृश्यों तथा जनजीवन की सामान्य घटनाओं से अलंकृत किया गया। शस्यसंग्राहकपात्र तथा मुष्टियोद्धा पात्र इसी काल की देन हैं। किंतु इसके बाद ईजियन मृद्भाँडों की कलात्मकता धीरे-धीरे क्षीण होने लगी और इसकी रमणीयता समाप्त हो गई।

बौद्धिक उपलब्धियाँ

ईजियनों की लिपि की अभी पूरी-पूरी वाचना नहीं हो पाई है। आर्थर इवान्स के अनुसार यहाँ तीन, एक चित्राक्षरात्मक तथा दो रैखिक लिपियाँ प्रचलित थीं। प्रारंभ में यहाँ चित्रलिपि का प्रचलन था, जिसका विकास संभवतः व्यापारिक आवश्यकताओं के निमित्त किया गया था। इसमें लगभग 135 प्रतीक थे। इनमें वृषभ, सिर, अक्ष, द्वार, जलपात्र, पक्षी, जहाज एवं भवन के चित्रों की बहुलता थी। वृषभ, सिर, द्वार तथा आँख एक ही शब्द को व्यक्त करते थे। इनमें से कुछ चित्र मिस्री तथा कुछ हित्ती चित्रलिपि के समान थे।

किंतु ईजियन चित्रलिपि बेबिलोनियन कीलाक्षर की भाँति मिट्टी की पाटियों पर शलाका की सहायता से उत्कीर्ण की जाती थी। चित्रात्मक लिपि का एक उदाहरण क्रीट में फेस्टोस से प्राप्त एक मृचक्र पर मिलता है जिसके दोनों ओर चित्राक्षरों की निर्वाध सर्पिल पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इसका उपयोग अक्ष के लिए किया जाता था और ऐसी मान्यता है कि लेख का संबंध किसी धार्मिक मंत्र से है। बरी के अनुसार इसका संबंध क्रीट से नहीं था। संभवतः इसे लीसिया से मँगाया गया था।

चित्रात्मक लिपि के लिखने में ईजियनों को बड़ी कठिनाई होती थी। अतएव अठारहवीं शती ई.पू. में क्रीट में रैखिक प्रतीकों के माध्यम से भाव व्यक्त किए जाने लगे। इसे रैखिक ‘अ’ नाम दिया गया है। इसमें लगभग 90 चिह्न थे। इसका विकास एक प्रकार से चित्रलिपि को ही सरल करके किया गया था। सी.एच. गॉर्डन प्रस्तावित करते हैं कि इस पर सेमिटिक प्रभाव था। रैखिक ‘अ’ के आधार पर बाद में माइसीनी काल में रैखिक ‘ब’ लिपि का विकास किया गया। इसमें लगभग 64 चिह्न थे, जिसमें से 48 तो पूरी तरह से रैखिक ‘अ’ से संबंधित थे। प्रारंभ में इसके लेख केवल क्नोसोस से मिले थे, किंतु बाद में पाइलोस तथा माइसीनी में सहस्रों की संख्या में इनकी प्राप्ति हुई। यह लिपि कुछ-कुछ फीनिशियन वर्णमाला से मिलती-जुलती है।

तीनों लिपियों में से प्रथम दो चित्रलिपि एवं रैखिक ‘अ’ का पाठ अभी तक नहीं प्रस्तुत किया जा सका है। रैखिक ‘ब’ लिपि के विषय में सही जानकारी प्राप्त करने का सर्वप्रथम श्लाघनीय प्रयास अमेरिका की विदुषी कुमारी एलिस कोबेर ने शुरू किया था, पर उनकी अचानक मृत्यु के कारण इस काम में रुकावट आ गई। कोबेर के बाद 1953 ई. में माइकेल वेंट्रिस ने रैखिक ‘ब’ के पाठ प्रस्तुत करने की विधि की घोषणा की और यह लिपि पढ़ी गई। वर्तमान में यह स्पष्ट नहीं है कि इनकी भाषा क्या थी? इसे भारोपीय नहीं माना जा सकता। संभवतः इसका संबंध लूसियन तथा एशिया माइनर के अन्य प्राचीन निवासियों की भाषा से था। पूर्वी क्रीट में बहुत बाद तक एक आश्चर्यजनक भाषा प्रचलित थी, जबकि शेष द्वीप का यूनानीकरण हो गया था। इस भाषा के कुछ लेख मिले हैं, जिन्हें पढ़ तो लिया गया है, लेकिन जिनका भाव नहीं ज्ञात हो सका है। संभवतः यही वह भाषा थी, जो प्राक्हेलेनिक काल में प्रचलित थी।

लिपि के अनुद्वाचित होने के कारण ईजियनवासियों के साहित्य, दर्शन एवं विज्ञान संबंधी प्रगति के विषय में हमारा ज्ञान न के बराबर है। माइसीनी रैखिक ‘ब’ के जो लेख पढ़े भी गए हैं, वे अधिकांशतः भंडारगृहों में रखी गई वस्तुओं के विवरण हैं। अभिलेखों में प्रयुक्त अंक-चिह्नों से पता लगता है कि ये दशमलव विधि से परिचित थे। भिन्न के लिए चिह्न बनाए गए थे। जिन लेखों में वस्तुओं एवं संख्याओं का अंकन अधिक है, उन्हें भंडारगृहों का विवरण मान सकते हैं। क्रीट के निवासी भारप्रणाली से परिचित थे। इनका मानदंड बेबिलोनियन हल्के टैलेंट पर आधारित था।

विनियम में सोने, चाँदी एवं ताँबे के टुकड़ों का प्रयोग किया जाता था। डोरियन परंपराओं के अनुसार इनके पास एक पंचांग भी था। परवर्ती आख्यानों में इनके तकनीक एवं अभियंत्रिकी ज्ञान की प्रशंसा की गई है। एक आख्यान में एक भूलभुलैया के निर्माण का उल्लेख है। इसका रचनाकार दैदेलस था। मूलतः यह एथेंस का निवासी था किंतु देश-निष्कासन का दण्ड मिलने के कारण इसने क्रीट द्वीप के राजा के दरबार में शरण ली और शीघ्र ही अपने गुणों के कारण शासक का प्रधान वास्तुकार एवं अभियंता बन गया। इसी ने शासक के निर्देशन में प्रसिद्ध भूलभुलैया का निर्माण किया था। इसी में मिनोस ने मिनोटॉर को बंदी बनाया था। बाद में मिनोस दैदेलस से किसी कारण अप्रसन्न हो गया तथा उसे उसके पुत्र इकारस के साथ बंदी बना कर उसी भूलभुलैया में कैद कर दिया। किंतु वहीं पर दैदेलस अपने तथा अपने पुत्र के लिए पक्षियों के परों और मोम से पंख बनाकर दीवाल लाँघ कर भाग निकला। दैदेलस के मना करने पर इकारस इतना ऊँचा पहुँच गया कि सूर्य की निकटता से उसके मोम के पंख पिघल गए तथा वह समुद्र में गिर पड़ा। दैदेलस सिसिली पहुँचा तथा वहाँ क्रीट की औद्योगिक एवं कलात्मक संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। क्नोसोस में जलनिकास की उत्तम व्यवस्था इनके तकनीकी ज्ञान की पुष्टि करती है, जिसके फलस्वरूप सत्रहवीं शती ई.पू. में क्रीटवासियों ने जिन सुविधाओं का उपभोग किया, उसे सत्रहवीं शती ई. के समृद्ध शासक भी न कर सके।

महत्ता एवं देन

ईजियन संस्कृति के प्रमुख केंद्र क्नोसोस, ट्रॉय एवं माइसीनी विनष्ट हो गए, किंतु इनकी सांस्कृतिक परंपराएँ जीवित रहीं तथा यूनानी सभ्यता के विकास के लिए आधार बनीं। जिस प्रकार भारत में आर्य आक्रमणकारियों ने सिंधु सभ्यता को नष्ट अवश्य कर दिया, किंतु इसके प्रभाव से अछूते न रह सके, उसी प्रकार यूनानी आक्रमणकारियों ने ईजियन सभ्यता को विनष्ट अवश्य कर दिया, किंतु इनके प्रभाव से बच न सके। ईजियन समाज वर्गभेद, दासता, दंड की कठोरता, निरंकुशता, अनिवार्य सैनिक सेवा तथा बेगार प्रथा से मुक्त था। इस प्रकार के तत्व एशियाई साम्राज्यों में प्रायः नहीं थे। अतएव यूनानी जगत का इनसे अनुप्रेरित होना सहज एवं स्वाभाविक था। यूनान के माध्यम से इन तत्वों का प्रभाव यूरोप की अन्य संस्कृतियों पर पड़ा। डियोडोरस ने लिखा है कि क्रीटवासियों का यह दावा था कि इनकी उपासना विधियों एवं धार्मिक संस्कारों का प्रभाव परवर्ती विश्व पर पड़ा था। ईजियन विश्व की मातृशक्ति की अधिष्ठात्री मातृदेवी एटिका, आर्केडिया तथा साइप्रस में प्रतिष्ठित हुई थी। संभवतः क्रीट के अनुकरण पर ही यूनान में पूजागृहों की स्थापना पर्वत शिखरों पर की गई थी। क्रीटवासी सौंदर्य एवं मनोरंजनप्रिय थे। संगीत, वादन, नाटक, मल्लयुद्ध इत्यादि में इनकी विशेष रुचि थी। प्लूटार्क ने तो यहाँ तक कहा है कि शारीरिक शिक्षा के अनेक नियम स्पार्टा में क्रीट के अनुकरण पर ही बनाए गए थे। नौविद्या का विकास सर्वप्रथम ईजियनवासियों ने किया। किस ऋतु में किस मार्ग से यात्रा की जानी चाहिए, इसका सर्वप्रथम ज्ञान ईजियनवासियों को प्राप्त हुआ और इन्हीं से यूनानियों को मिला। ईजियनवासियों ने समुद्रशास्त्र को ज्योतिष-शास्त्र से जोड़कर इसका पूर्ण विकास किया तथा बाद में इसे यूनानियों को दिया। ईजियनवासियों के संबंध साइप्रस, सीरिया, फिलिस्तीन, मिस्र आदि देशों से थे। इस संबंध के फलस्वरूप ईजियन सांस्कृतिक तत्वों को उन भागों में पहुँचने का अवसर मिला। मिस्रवासियों ने ईजियनों से कुछ औषधियों तथा यूनानियों ने कुछ सुगंधित औषधियों एवं जड़ी-बूटियों जैसे पुदीना, नागदमन तथा दौकोस नामक विशिष्ट औषधि, जिसका उपयोग स्थूलता दूर करने के लिए किया जाता था, को प्राप्त किया। इस प्रकार ईजियन सभ्यता का सब कुछ नष्ट हो जाने पर भी कुछ भी नष्ट नहीं हुआ। एजियन संस्कृतियों ने शास्त्रीय यूनानी सभ्यता की नींव रखी।

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