1857 का भारतीय विद्रोह भारतीय इतिहास की सबसे महत्त्वपूर्ण घटनाओं में से एक था। यह केवल सैनिक असंतोष का परिणाम नहीं था, बल्कि भारत के विभिन्न वर्गों- सैनिकों, किसानों, जमींदारों, रियासतों और आम जनता की गहरी पीड़ा और असंतोष का परिणाम था। इसने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी और अंग्रेजों को अपनी नीतियों, शासन व्यवस्था तथा भारत के साथ संबंधों पर पुनर्विचार करने के लिए विवश कर दिया। विद्रोह के दौरान दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, झाँसी और अन्य स्थानों पर हुए संघर्षों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की कमजोरियों को उजागर किया, जहाँ हिंदू-मुस्लिम एकता और स्थानीय शासकों के समर्थन ने विद्रोह को व्यापक बना दिया। यद्यपि यह विद्रोह असफल हो गया, परंतु इसके परिणाम अत्यंत गहरे और स्थायी सिद्ध हुए। ब्रिटिश शासन ने यह समझ लिया कि भारत जैसा विशाल और विविध देश केवल बल प्रयोग से नहीं, बल्कि सतर्क प्रशासन, नीतिगत संतुलन और स्थानीय सहयोग से ही चलाया जा सकता है। इसके फलस्वरूप प्रशासनिक, सैन्य, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन किए गए, जो ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत करने के साथ-साथ अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय राष्ट्रवाद की नींव रखने वाले भी सिद्ध हुए।
प्रशासनिक परिवर्तन
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Toggleशासन का हस्तांतरण और भारत सरकार अधिनियम 1858
1857 के व्यापक विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार को यह अहसास करा दिया कि ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से भारत पर शासन करना अब संभव नहीं रहा। कंपनी का प्रशासनिक ढाँचा भ्रष्ट, असंवेदनशील और ब्रिटिश संसद से जवाबदेही से मुक्त था। विद्रोह से कंपनी की शासन प्रणाली की विफलता उजागर हो गई, जहाँ भ्रष्टाचार, सैनिक असंतोष और नीतिगत भूलों, जैसे एनफील्ड राइफल कारतूस विवाद ने स्थिति को विस्फोटक बना दिया। ब्रिटेन में यह मत दृढ़ हो गया कि भारत का शासन अब सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन होना चाहिए, ताकि उत्तरदायित्व और नियंत्रण दोनों सुनिश्चित किए जा सकें।
इसी पृष्ठभूमि में ब्रिटिश संसद ने 2 अगस्त 1858 को भारत सरकार अधिनियम 1858 पारित किया। यह अधिनियम भारत के प्रशासनिक इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन-बिंदु़ था, जिसने भारत के शासन को कंपनी से ब्रिटिश ताज को स्थानांतरित कर दिया। इसके अंतर्गत निम्नलिखित प्रमुख प्रावधान किए गए-
- ईस्ट इंडिया कंपनी की समाप्ति: ईस्ट इंडिया कंपनी को विधिवत समाप्त कर दिया गया। उसके सभी अधिकार, संपत्ति, देनदारियाँ और प्रशासनिक शक्तियाँ ब्रिटिश सम्राट के अधीन कर दी गईं। इस प्रकार भारत अब किसी व्यापारिक संस्था की मिल्कियत नहीं रहा, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गया। कंपनी के शासनकाल में हुए वित्तीय घोटालों, जैसे बंगाल में भ्रष्टाचार के बाद यह कदम आवश्यक हो गया था।
- भारत सचिव का पद: ब्रिटिश सरकार में एक नए मंत्रीस्तरीय पद की स्थापना की गई, जिसे भारत सचिव कहा गया। यह ब्रिटिश मंत्रिमंडल का सदस्य था और भारत से संबंधित सभी प्रशासनिक मामलों की जिम्मेदारी इसी के अधीन आ गई। भारत सचिव को 15 सदस्यीय भारत परिषद की सहायता प्राप्त थी, जो सलाहकार निकाय के रूप में कार्य करती थी। यह परिषद लंदन में स्थित थी और ब्रिटिश संसद के प्रति जवाबदेह थी। परंतु वास्तविक शक्ति भारत सचिव के पास ही केंद्रित थी।
- वायसरॉय की नियुक्ति: भारत में शासन की सर्वाेच्च सत्ता अब ‘गवर्नर-जनरल’ के पास नहीं, बल्कि ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि ‘वायसरॉय’ के हाथ चली गई। वायसरॉय अब ब्रिटिश सम्राट का आधिकारिक प्रतिनिधि था और भारत सरकार के कार्यकारी प्रमुख के रूप में कार्य करता था। लॉर्ड कैनिंग, जो 1857 के विद्रोह के समय गवर्नर-जनरल थे और जिन्हें विद्रोह दमन के दौरान ‘क्लेव कैनिंग’ कहा गया, उन्हें भारत का प्रथम वायसरॉय नियुक्त किया गया। इस प्रकार भारत के प्रशासन का ढ़ाँचा कंपनी के वाणिज्यिक शासन से बदलकर राजशाही शासन में परिवर्तित हो गया।
- द्वैध शासन का अंत: पिट्स इंडिया एक्ट (1784) द्वारा स्थापित द्वैध शासन व्यवस्था, जिसमें बोर्ड ऑफ कंट्रोल और कंपनी के डायरेक्टरों के बीच सत्ता विभाजित थी, को समाप्त कर दिया गया। अब भारत से संबंधित सभी निर्णय ब्रिटिश संसद और क्राउन के नियंत्रण में आ गए।
- राजनीतिक उत्तरदायित्व की स्थापना: यह अधिनियम भारतीय शासन को औपचारिक रूप से ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी बनाता था। भारत सचिव ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था, जिससे भारतीय शासन में पारदर्शिता और राजनीतिक जवाबदेही का आभास पैदा हुआ।
परिवर्तन का महत्त्व और प्रभाव
भारत सरकार अधिनियम 1858 केवल औपचारिक परिवर्तन नहीं था, बल्कि इसने भारत की राजनीतिक स्थिति को मूल रूप से बदल दिया। अब भारत:कंपनी की मिल्कियत’ नहीं, बल्कि ‘ब्रिटिश साम्राज्य का मुकुटमणि’ बन गया। ब्रिटिश सम्राट का नाम और प्रतिष्ठा सीधे भारत के शासन से जुड़ गई, जिससे ब्रिटेन की वैष्विक प्रतिष्ठा भी बढ़ी। इस अधिनियम ने प्रशासनिक ढाँचे को अधिक केंद्रीकृत कर दिया। भारत सचिव और वायसरॉय दोनों के बीच स्पष्ट पदानुक्रम स्थापित हुआ, जहाँ अंतिम निर्णय का अधिकार ब्रिटिश संसद और भारत सचिव के पास था। भारतीय जनता के दृष्टिकोण से यह परिवर्तन स्वतंत्रता या स्वशासन की दिशा में नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद को एक संगठित और स्थायी स्वरूप प्रदान करने की दिशा में एक निर्णायक कदम था।
केंद्रीय प्रशासन का पुनर्गठन
1858 के भारत सरकार अधिनियम के बाद ब्रिटिश सरकार का मुख्य उद्देश्य भारत के शासन को अधिक केंद्रीकृत, नियंत्रित और संगठित बनाना था। 1857 के विद्रोह ने यह स्पष्ट कर दिया था कि प्रशासनिक ढाँचे की ढिलाई और अस्पष्ट अधिकार-संरचना विद्रोह और असंतोष को जन्म दे सकती है। इसलिए ब्रिटिश शासकों ने एक ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की, जिसमें सत्ता का केंद्र स्पष्ट रूप से लंदन और वायसरॉय के कार्यालय में निहित हो। इस प्रकार 1858 के बाद भारत का शासन ‘केंद्रीकृत नौकरशाही शासन’ में परिवर्तित हो गया।
वायसरॉय और कार्यकारिणी परिषद की स्थापना
भारत में शासन की सर्वोच्च सत्ता अब वायसरॉय के हाथों में केंद्रित कर दी गई। वह ब्रिटिश सम्राट का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि था और उसके अधीन एक कार्यकारिणी परिषद नियुक्त की गई। इस परिषद के सदस्य विभिन्न प्रशासनिक विभागों, जैसे गृह, वित्त, सेना, कानून और विदेश के प्रमुख होते थे। प्रत्येक सदस्य अपने विभाग के संचालन के लिए उत्तरदायी था, परंतु सभी महत्त्वपूर्ण नीतिगत निर्णय वायसरॉय की स्वीकृति से ही लिए जाते थे। कार्यकारिणी परिषद का स्वरूप ब्रिटिश शासन के ‘सामूहिक प्रशासन’ की भावना को प्रदर्शित करता था, परंतु वस्तुतः इसमें शक्ति का केंद्र वायसरॉय ही था। परिषद केवल सलाहकारी भूमिका निभाती थी; किसी भी मतभेद की स्थिति में अंतिम निर्णय वायसरॉय का ही माना जाता था।
भारत सचिव की सर्वोच्चता और लंदन से नियंत्रण
यद्यपि वायसरॉय भारत में सर्वोच्च प्रशासक था, परंतु वास्तविक शक्ति लंदन में स्थित भारत सचिव के पास थी। भारत सचिव को इस हद तक अधिकार प्राप्त थे कि वह भारत सरकार के सभी निर्णयों में हस्तक्षेप कर सकता था। किसी भी प्रशासनिक नीति, सैन्य खर्च या राजनीतिक निर्णय के लिए भारत सचिव की स्वीकृति आवश्यक थी। इस प्रकार भारत का शासन कागज पर भले ही वायसरॉय के हाथ में था, लेकिन वास्तविक नियंत्रण लंदन से संचालित होता था। भारत सचिव के इस प्रभावशाली पद के कारण वायसरॉय का स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार सीमित हो गया। भारत सचिव ब्रिटिश संसद के प्रति जवाबदेह था, अतः भारत का प्रशासन अंततः ब्रिटिश संसद और क्राउन के नियंत्रण में आ गया।
ब्रिटिश पूँजीपतियों और उद्योगपतियों का प्रभाव
लंदन में स्थित भारत सचिव का कार्यालय केवल सरकारी तंत्र नहीं था, बल्कि यह ब्रिटिश उद्योगपतियों, व्यापारियों और बैंकरों के हितों से भी गहराई से जुड़ा हुआ था। ब्रिटिश पूँजीपति वर्ग का भारत की आर्थिक और प्रशासनिक नीतियों पर प्रत्यक्ष प्रभाव बढ़ गया। रेलवे, कोयला, जूट, चाय और नील जैसे उद्योगों में ब्रिटिश पूँजी का निवेश किया गया और इन क्षेत्रों से संबंधित प्रशासनिक निर्णय ब्रिटेन के व्यावसायिक हितों के अनुरूप लिए जाने लगे। इस प्रभाव के परिणामस्वरूप शासन अधिक प्रतिक्रियावादी बन गया अर्थात, प्रशासनिक नीतियाँ भारतीय जनता के हितों की बजाय ब्रिटिश आर्थिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए बनाई जाने लगीं। यही कारण है कि भारतीयों को शासन की प्रक्रिया से लगभग बाहर रखा गया।
केंद्रीकरण के परिणाम
इस केंद्रीकृत प्रशासनिक ढाँचे का भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा। स्थानीय और प्रांतीय प्रशासनिक संस्थाओं की स्वायत्तता घट गई। निर्णय लेने की प्रक्रिया जटिल और दूरस्थ हो गई, क्योंकि अंतिम आदेश लंदन से आते थे। भारतीय जनता और शासकों के बीच दूरी बढ़ती चली गई। शासन का स्वरूप नौकरशाही और आदेश-प्रधान बन गया। यह सही है कि इस केंद्रीकरण से प्रशासनिक कुशलता और ब्रिटिश नियंत्रण में स्थिरता आई, लेकिन इससे भारतीयों में विदेशी भावना, अलगाव और असंतोष भी गहराता होता गया, जिसने आगे चलकर राष्ट्रवादी आंदोलन को जन्म दिया।
इस प्रकार केंद्रीय प्रशासन के पुनर्गठन ने भारत में ब्रिटिश शासन को अधिक संगठित और शक्तिशाली तो बना दिया, परंतु यह संगठन भारत के लोगों के लिए नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य की स्थिरता और उसके आर्थिक हितों की रक्षा के लिए था।
प्रांतीय, वित्तीय और स्थानीय विकेंद्रीकरण
विधायी शक्तियों का पुनर्गठन
1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत में शासन प्रणाली को अत्यधिक केंद्रीकृत रूप दे दिया था। 1858 के भारत सरकार अधिनियम के परिणामस्वरूप समस्त प्रशासनिक और विधायी शक्तियाँ वायसरॉय तथा लंदन में स्थित भारत सचिव के अधीन केंद्रित हो गईं। यद्यपि इस केंद्रीकरण से ब्रिटिश शासन की स्थिरता सुनिश्चित हुई, परंतु इससे प्रांतीय प्रशासन निष्क्रिय और पराश्रित हो गया। स्थानीय आवश्यकताओं की उपेक्षा होने लगी और भारत जैसा विशाल देश प्रभावी ढंग से प्रशासित नहीं हो पा रहा था। अतः ब्रिटिश सरकार ने धीरे-धीरे शासन में विकेंद्रीकरण की दिशा में कदम बढ़ाया ताकि प्रशासनिक बोझ को बाँटा जा सके और शासन को व्यवहारिक रूप दिया जा सके।
भारतीय परिषद अधिनियम 1861: विधायी शक्तियों का पुनर्वितरण
इस दिशा में पहला बड़ा कदम भारतीय परिषद अधिनियम 1861 था। इस अधिनियम ने भारत की विधायी संरचना में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए-
- इस अधिनियम ने मद्रास और बंबई जैसे प्रांतों को पुनः सीमित विधायी शक्तियाँ प्रदान कीं, जिन्हें 1833 के अधिनियम द्वारा छीन लिया गया था।
- वायसरॉय को यह अधिकार दिया गया कि वह अपनी कार्यकारिणी परिषद में नामांकित गैर-सरकारी सदस्यों (भारतीय अथवा यूरोपीय) को शामिल कर सके।
- परिषद में 6 से 12 तक अतिरिक्त सदस्य जोड़े जा सकते थे, जिनमें से कम से कम आधे गैर-सरकारी हों।
यद्यपि यह परिषद केवल सलाहकार स्वरूप की थी, फिर भी यह भारतीयों को शासन में प्रतीकात्मक भागीदारी देने की दिशा में एक आरंभिक कदम था।
इस प्रकार 1861 का अधिनियम ब्रिटिशों की ‘सहभागिता के माध्यम से नियंत्रण’ की नीति का प्रतिनिधि था अर्थात भारतीयों को शासन की प्रक्रिया में सीमित रूप से सम्मिलित कर असंतोष को कम करना और साम्राज्य के प्रति निष्ठा बनाए रखना।
विकेंद्रीकरण की दिशा में प्रारंभिक प्रयास
1861 के अधिनियम ने वायसरॉय को यह अधिकार भी दिया कि वह प्रांतों में स्थानीय विधायी परिषदें स्थापित कर सके। इसके परिणामस्वरूप मद्रास (1861), बंबई (1962) और बाद में बंगाल तथा उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में भी परिषदें गठित की गईं। यद्यपि इन परिषदों की शक्तियाँ सीमित थीं, लेकिन इससे प्रांतीय शासन को कुछ हद तक सजीवता प्राप्त हुई। इस अधिनियम ने एक नई राजनीतिक प्रक्रिया को जन्म दिया, भारतीय समाज के अभिजात वर्गों, जैसे राजे-रजवाड़े, जमींदारों और शिक्षित भारतीयों को शासन में नाममात्र की भागीदारी दी गई, जिससे ब्रिटिश सरकार को भारतीयों का सहयोग प्राप्त हुआ और शासन को स्थायित्व मिला।
वित्तीय विकेंद्रीकरण
1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासन का स्वरूप अत्यधिक केंद्रीकृत हो गया था। भारत का संपूर्ण प्रशासन-राजनीतिक, वित्तीय और विधायी वायसरॉय तथा लंदन में स्थित भारत सचिव के नियंत्रण में था। लेकिन इतनी विशाल जनसंख्या और विविध आवश्यकताओं वाले देश को पूरी तरह केंद्र से नियंत्रित करना कठिन सिद्ध हो रहा था। प्रत्येक प्रांत की अपनी स्थानीय आवश्यकताएँ थीं, जिनका समाधान केंद्रीय स्तर से संभव नहीं था। इसी कारण ब्रिटिश सरकार ने प्रशासनिक सुधारों के साथ-साथ वित्तीय क्षेत्र में भी विकेंद्रीकरण की नीति अपनाई।
लॉर्ड मेयो की वित्तीय विकेंद्रीकरण नीति (1870)
भारत में आर्थिक विकेंद्रीकरण की शुरुआत वायसरॉय लॉर्ड मेयो (1869-1872) के काल में हुई। उन्होंने 1870 में एक नीति लागू की, जिसके अंतर्गत प्रांतीय सरकारों को कुछ विभागों के लिए निश्चित राजस्व का आवंटन किया गया।
शिक्षा, पुलिस, सड़कों, जेल और स्वास्थ्य जैसे विभागों का खर्च अब संबंधित प्रांतों द्वारा वहन किया जाने लगा। इन विभागों के लिए प्रांतों को निश्चित वित्तीय स्रोत दिए गए ताकि वे अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार व्यय कर सकें। केंद्र सरकार ने केवल उन विषयों पर सीधा नियंत्रण रखा, जो साम्राज्य के लिए रणनीतिक दृष्टि से आवश्यक माने जाते थे, जैसे-सेना, विदेश नीति और बड़े सार्वजनिक निर्माण कार्य।
यह नीति भारत में वित्तीय उत्तरदायित्व की भावना विकसित करने और केंद्रीय शासन का बोझ घटाने की दिशा में एक व्यावहारिक कदम थी। मेयो की 1872 में अंडमान में हत्या के बाद भी यह नीति जारी रही।
लॉर्ड लिटन के काल में प्रांतीय जिम्मेदारियाँ (1877)
वायसरॉय लॉर्ड लिटन (1876-1880) ने मेयो की नीति को और आगे बढ़ाया। 1877 में उन्होंने भू-राजस्व और सामान्य प्रशासन जैसे क्षेत्रों को प्रांतीय सरकारों के अधीन कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप प्रांतों को राजस्व संग्रहण और खर्च के संबंध में अधिक प्रत्यक्ष भूमिका मिली।
प्रत्येक प्रांत के लिए वार्षिक बजट तैयार करना अनिवार्य किया गया, ताकि खर्च और आय का संतुलन सुनिश्चित हो सके। यद्यपि केंद्र का नियंत्रण अभी भी बना रहा, फिर भी प्रांतों को वित्तीय मामलों में एक प्रकार की सीमित स्वायत्तता प्राप्त हुई। इस व्यवस्था ने प्रशासनिक कार्यक्षमता में वृद्धि की, क्योंकि प्रांतीय अधिकारी स्थानीय आवश्यकताओं को अधिक अच्छी तरह समझ सकते थे। लिटन के काल में अफगान युद्ध (1878-1880) के कारण वित्तीय दबाव बढ़ा, लेकिन विकेंद्रीकरण जारी रहा।
लॉर्ड रिपन और वित्तीय विभाजन (1882)
1882 में वायसरॉय लॉर्ड रिपन (1880-1884) ने वित्तीय प्रणाली में एक और महत्त्वपूर्ण सुधार किया। उन्होंने राजस्व और व्यय को तीन श्रेणियों में विभाजित किया-
- केंद्रीय राजस्व, जो आय और व्यय केवल केंद्र के नियंत्रण में रहते थे, जैसे-सेना, डाक, टेलीग्राफ, विदेश नीति और रेलवे।
- प्रांतीय राजस्व के विषय, जो पूरी तरह प्रांतीय शासन के अधीन थे, जैसे-शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कों, स्थानीय प्रशासन, पुलिस आदि।
- साझा राजस्व ऐसे स्रोत जिनकी आय केंद्र और प्रांतों के बीच बाँटी जाती थी, जैसे-वन कर, स्टांप शुल्क, उत्पाद शुल्क आदि। इस प्रणाली ने वित्तीय प्रशासन अधिक सुव्यवस्थित और उत्तरदायी बनाया।
नीति का उद्देश्य और सीमाएँ
यद्यपि इन सुधारों से भारत में वित्तीय विकेंद्रीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ, परंतु इसका उद्देश्य भारतीयों को स्वशासन देना बिल्कुल नहीं था। इस नीति का वास्तविक लक्ष्य ब्रिटिश शासन को व्यावहारिक, कुशल और कम खर्चीला बनाना था। प्रांतों को सीमित अधिकार तो दिए गए, लेकिन वे केंद्रीय सरकार के आदेशों के अधीन ही कार्य करते थे। राजस्व के मुख्य स्रोत जैसे सीमा शुल्क, रेलवे आय, डाक और सैन्य व्यय केंद्र के पास ही रहे। भारतीयों को वित्तीय नीति निर्धारण या बजट निर्माण में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं मिली। इस प्रकार आर्थिक विकेंद्रीकरण ब्रिटिशों के प्रशासनिक हितों को सुदृढ़ करने का माध्यम था, ताकि स्थानीय प्रशासन अपने खर्चों के लिए स्वयं जिम्मेदार बने और ब्रिटिश खजाने पर बोझ न बढ़े।
स्थानीय स्वशासन का विकास
1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासन ने यह महसूस किया कि भारत जैसे विशाल और विविध देश का प्रशासन केवल केंद्रीकृत प्रणाली से प्रभावी ढंग से नहीं चलाया जा सकता। प्रत्येक प्रांत, नगर और गाँव की अपनी विशिष्ट आवश्यकताएँ थीं, जिनके समाधान के लिए स्थानीय स्तर पर प्रशासनिक संस्थाओं की आवश्यकता थी। इसके अतिरिक्त, ब्रिटिश सरकार यह भी चाहती थी कि स्थानीय जनता शासन में सहयोग करे ताकि प्रशासन पर खर्च कम हो और असंतोष भी न बढ़े। इसी दृष्टि से धीरे-धीरे स्थानीय स्वशासन की अवधारणा विकसित हुई।
प्रारंभिक चरण (1864-1882)
स्थानीय स्वशासन की नींव 1860 के दशक में पड़ी, जब कुछ प्रमुख नगरों में पहली बार नगरपालिकाओं और जिला बोर्डों की स्थापना की गई। इन संस्थाओं की संरचना नाममात्र की लोकतांत्रिक थी और अधिकांश सदस्य सरकार द्वारा नामांकित किए जाते थे तथा स्थानीय जनता को प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया था। इन संस्थाओं के मुख्य कार्य स्थानीय करों का संग्रह और नगर व्यवस्था की देखरेख तक सीमित थे। इनका उद्देश्य जनसहभागिता नहीं, बल्कि ब्रिटिश प्रशासन का बोझ हल्का करना था। फिर भी, यही संस्थाएँ आगे चलकर भारतीय स्थानीय स्वशासन की बुनियाद बनीं।
लॉर्ड मेयो का प्रस्ताव (1870) : वायसरॉय लॉर्ड मेयो (1869-1872) ने स्थानीय प्रशासन को व्यावहारिक रूप से मजबूत करने के लिए एक ऐतिहासिक कदम उठाया। 1870 में उन्होंने वित्तीय विकेंद्रीकरण के साथ-साथ स्थानीय निकायों को प्रशासन में शामिल करने का प्रस्ताव रखा, जिसके अनुसार शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कों और पुलिस जैसे विभाग प्रांतीय सरकारों को हस्तांतरित किए गए। प्रांतों को स्थानीय कर लगाने और अपने खर्चों की पूर्ति करने का अधिकार मिला। नगरपालिकाओं और जिला परिषदों के गठन को प्रोत्साहन दिया गया ताकि प्रशासन में जनसहभागिता बढ़े।
यद्यपि यह सुधार सीमित था, लेकिन इसने भारत में स्थानीय स्वशासन की औपचारिक शुरुआत की।
लॉर्ड रिपन का प्रस्ताव (1882) : वायसरॉय लॉर्ड रिपन (1880-1884) को भारत में ‘स्थानीय स्वशासन का जनक’ कहा जाता है। 1882 में उन्होंने एक व्यापक नीति घोषित की, जिसने भारत में स्थानीय शासन की संरचना को नया स्वरूप दिया। उनकी नीति के मुख्य सिद्धांत निम्न थे-
- स्थानीय संस्थाएँ केवल प्रशासनिक इकाइयाँ नहीं, बल्कि जनता की राजनीतिक शिक्षा का माध्यम बननी चाहिए।
- स्थानीय निकायों में गैर-सरकारी सदस्यों को बहुमत मिलना चाहिए, ताकि वास्तविक जनप्रतिनिधित्व हो सके।
- अध्यक्ष का चुनाव गैर-सरकारी सदस्यों में से किया जाए, ताकि संस्थाओं की स्वायत्तता बनी रहे।
- सरकार का हस्तक्षेप न्यूनतम होना चाहिए, ताकि स्थानीय संस्थाएँ स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकें।
लॉर्ड रिपन की यह नीति भारतीय लोकतंत्र की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम थी। यद्यपि इसके व्यावहारिक परिणाम सीमित रहे क्योंकि मताधिकार बहुत संकीर्ण था, अधिकारियों का नियंत्रण अधिक था और वित्तीय संसाधन अपर्याप्त थे। फिर भी, रिपन के सुधारों ने भारत में स्थानीय उत्तरदायित्व और राजनीतिक चेतना का विकास किया। लॉर्ड रिपन की नीति ने स्थानीय शासन के बीज तो बो दिए, पर इसे पूर्ण रूप तब मिला, जब 20वीं शताब्दी में ब्रिटिश भारत में संवैधानिक सुधार शुरू हुए।
- विकेंद्रीकरण आयोग (1908): लॉर्ड मिंटो के काल में गठित इस आयोग ने ग्राम पंचायतों और नगरपालिकाओं को अधिक अधिकार देने की सिफारिश की। आयोग ने माना कि स्थानीय संस्थाएँ जनता की भागीदारी के बिना सफल नहीं हो सकतीं।
- भारत शासन अधिनियम 1919: इस अधिनियम ने स्थानीय स्वशासन को ‘हस्तांतरित विष’ घोषित किया। अब प्रांतीय सरकारें शिक्षा, स्वास्थ्य और स्थानीय निकायों के संचालन में अधिक भूमिका निभाने लगीं।
- भारत शासन अधिनियम 1935: इस अधिनियम ने प्रांतीय स्वशासन को और सशक्त बनाया। स्थानीय निकायों को अधिक वित्तीय स्वतंत्रता मिली और चुनाव की प्रक्रिया को विस्तारित किया गया।
- स्वतंत्र भारत में संवैधानिक दर्जा: स्वतंत्र भारत के संविधान ने अनुच्छेद 40 के अंतर्गत यह निर्देश दिया कि राज्य पंचायतों का संगठन करे। 1992 में 73वें और 74वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं और नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया। अब वे न केवल स्थानीय प्रशासन की इकाइयाँ हैं, बल्कि लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ के रूप में मान्यता प्राप्त हैं।
स्थानीय स्वशासन का ऐतिहासिक महत्त्व
ब्रिटिश काल में स्थानीय स्वशासन की शुरुआत का उद्देश्य भले ही प्रशासनिक सुविधा और खर्च में कमी रहा हो, परंतु इसके परिणामस्वरूप भारतीय समाज में राजनीतिक भागीदारी, नेतृत्व और उत्तरदायित्व की भावना विकसित हुई। रिपन की नीतियों ने भारतीयों को शासन की प्रक्रियाओं से परिचित कराया, जो आगे चलकर राष्ट्रीय आंदोलन और लोकतांत्रिक संस्थाओं की नींव बने।
इस प्रकार स्थानीय स्वशासन की यात्रा 1864 की सीमित नगरपालिकाओं से लेकर 1992 के पंचायती राज तक भारत में जनतांत्रिक विकेंद्रीकरण की एक दीर्घ प्रक्रिया रही है। यह भारत के लोकतांत्रिक ढाँचे का अभिन्न हिस्सा है, जिसकी जड़ें ब्रिटिश शासनकाल की इन्हीं प्रारंभिक संस्थाओं में निहित हैं।
सीमाएँ और प्रभाव
यद्यपि इन सुधारों से प्रांतीय शासन और स्थानीय निकायों को कुछ स्वायत्तता मिली, परंतु केंद्रीय नियंत्रण समाप्त नहीं हुआ। भारत सचिव और वायसरॉय की सर्वोच्चता बनी रही। स्थानीय निकायों के वित्तीय संसाधन सीमित थे। मताधिकार बहुत संकीर्ण था और अधिकांश सदस्य सरकार द्वारा नामांकित किए जाते थे। फिर भी, इन परिवर्तनों ने भारत में लोकतांत्रिक भागीदारी और राजनीतिक चेतना की नींव रखी। भारतीय शिक्षित वर्ग ने इन्हीं परिषदों को राजनीतिक प्रशिक्षण का माध्यम बनाया और आगे चलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किए।
राजनीतिक परिवर्तन
व्यपगत सिद्धांत का अंत
1857 से पूर्व लॉर्ड डलहौजी (1848-1856) ने ‘व्यपगत सिद्धांत की नीति’ यानी विलय की नीति के तहत कई भारतीय रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया था। इस नीति के अनुसार यदि किसी देशी शासक की मृत्यु बिना जैविक उत्तराधिकारी के हो जाती थी, तो उसकी रियासत ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर ली जाती थी और गोद लिए गए उत्तराधिकारी को मान्यता नहीं दी जाती थी। इस नीति के कारण झाँसी, नागपुर, सतारा, अवध आदि अनेक राज्य ब्रिटिश शासन के अधीन आ गए। इससे भारतीय राजघरानों में गहरा असंतोष और अविश्वास पैदा हो गया, जो 1857 के विद्रोह के प्रमुख कारणों में से एक बन गया। विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार को अपनी भूल का एहसास हुआ।
1858 में भारत का शासन ब्रिटिश क्राउन के अधीन आने के बाद ‘व्यपगत सिद्धांत की नीति’ को औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया गया। अब भारतीय शासकों को गोद लेने का अधिकार प्रदान किया गया और रियासतों की स्वतंत्र स्थिति को मान्यता दी गई। इस नीति परिवर्तन से भारतीय रियासतों का ब्रिटिश शासन पर कुछ हद तक पुनः विष्वास स्थापित हुआ तथा उन्हें साम्राज्य के ‘वफादार सहयोगी’ के रूप में प्रस्तुत किया गया।
क्वीन विक्टोरिया की उद्घोषणा (1858)
भारत सरकार अधिनियम, 1858 के बाद 1 नवंबर 1858 को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने एक ऐतिहासिक उद्घोषणा जारी की, जो भारतीय राजनीति के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह उद्घोषणा इलाहाबाद में लॉर्ड कैनिंग द्वारा सार्वजनिक की गई। इस उद्घोषणा में मुख्य रूप से कहा गया था कि :
- ब्रिटिश सरकार भारतीयों के धर्म, आस्था और परंपराओं का सम्मान करेगी।
- किसी भी व्यक्ति के साथ जाति, धर्म या रंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
- सरकारी सेवाओं में नियुक्ति योग्यता के आधार पर की जाएगी, न कि किसी नस्लीय भेदभाव के अनुसार।
- ब्रिटिश सरकार भारत के प्राचीन राज्यों और शासकों के अधिकारों की रक्षा करेगी।
- अनावश्यक युद्धों और विलयों से बचने की नीति अपनाई जाएगी।
इस प्रकार इस उद्घोषणा के द्वारा ब्रिटिश शासन की ‘मानवीय’ और ‘न्यायपूर्ण’ छवि को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया। लेकिन व्यवहार में यह नीति अधिकतर औपचारिक रही और धार्मिक सहिष्णुता तथा समान अवसरों के दावे सीमित रूप में ही लागू किए गए। फिर भी, राजनीतिक दृष्टि से यह उद्घोषणा एक कूटनीतिक हथियार सिद्ध हुई, जिसने भारतीय रियासतों और जनता के एक वर्ग को ब्रिटिश शासन के प्रति आष्वस्त किया।
‘फूट डालो और राज करो’ की नीति
1857 के विद्रोह ने यह स्पष्ट कर दिया था कि हिंदू और मुसलमानों की एकता ब्रिटिश शासन के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकती है। अतः विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने सांप्रदायिक विभाजन की नीति अपनाई, जिसे ‘फूट डालो और राज करो’ कहा जाता है। इस नीति के अंतर्गत ब्रिटिश प्रशासन ने धार्मिक, जातीय और भाषाई भेदभाव को बढ़ावा दिया। शिक्षा, नौकरियों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में समुदाय-आधारित विभाजन की नीति लागू की गई। मुस्लिम अभिजात वर्ग को हिंदू समाज से अलग कर विशेष सुविधाएँ दी गईं, ताकि दोनों समुदायों के बीच अविष्वास पैदा हो। 1871 के बाद से जनगणना में जाति आधारित वर्गीकरण शुरू किया गया, जिसने सामाजिक विभाजन को संस्थागत रूप दे दिया।
इन नीतियों का दीर्घकालिक प्रभाव अत्यंत घातक साबित हुआ। इससे भारतीय समाज में सांप्रदायिकता की जड़ें गहरी हुईं, जो आगे चलकर 1909 के मिंटो-मॉर्ले सुधारों और 1947 के विभाजन तक जारी रहीं।
रियासतों की नई नीति
1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने यह महसूस किया कि देशी रियासतों को शत्रु नहीं, बल्कि सहयोगी बनाकर रखना अधिक लाभदायक होगा। इसलिए विद्रोह के बाद रियासतों के प्रति एक नई सहयोगपरक नीति अपनाई गई। ब्रिटिश सरकार ने रियासतों के सुरक्षा और उत्तराधिकार के अधिकार की गारंटी दी। अब किसी शासक की मृत्यु पर उसकी रियासत को ब्रिटिश भारत में विलय नहीं किया जाता था। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें स्वायत्तता के सीमित अधिकार प्रदान किए, बशर्ते वे ब्रिटिश नीतियों के प्रति वफादार रहें। ऽ 1876 में महारानी विक्टोरिया को ‘कैसर-ए-हिंद’ की उपाधि दी गई, जिससे रियासतों की निष्ठा को औपचारिक रूप से राजसत्ता से जोड़ा गया। प्रत्येक रियासत में एक ब्रिटिश रेजिडेंट नियुक्त किया गया, जो शासन के नाम पर अप्रत्यक्ष ब्रिटिश नियंत्रण सुनिश्चित करता था। इस नीति के द्वारा अंग्रेजों ने भारत के शासक वर्ग को अपने पक्ष में बनाए रखा। रियासतें अंग्रेजों के ‘सहयोगी’ के रूप में कार्य करने लगीं, और भारत की एकता का राजनीतिक स्वरूप विखंडित बना रहा। लगभग 562 रियासतें इस व्यवस्था के अधीन आ गईं, जो ब्रिटिश भारत के 40 प्रतिषत क्षेत्र को नियंत्रित करती थीं।
इस प्रकार राजनीतिक दृष्टि से 1857 के बाद का काल ब्रिटिश शासन के स्थायित्व और पुनर्गठन का काल था। व्यपगत नीति के अंत और विक्टोरिया की उद्घोषणा से जहाँ रियासतों और जनता का विष्वास पुनः अर्जित करने का प्रयास किया गया, वहीं ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति ने भारत की सामाजिक एकता को कमजोर कर दिया। अंग्रजों की इन नीतियों ने भारत के राजनीतिक भविष्य को गहराई से प्रभावित कियज्ञं इसने एक ओर औपनिवेशिक शासन को सुदृढ़ किया और दूसरी ओर भारतीय राष्ट्रवाद के उदय की नींव भी रखी।
सैन्य परिवर्तन
1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासन के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि ऐसा विद्रोह दोबारा न हो। ब्रिटिश सरकार ने यह महसूस किया कि विद्रोह की सफलता में भारतीय सेना की निर्णायक भूमिका रही थी, इसलिए सेना का पुनर्गठन और नियंत्रण उनकी प्रधान प्राथमिकता बन गया। विद्रोह के बाद के वर्षों में भारतीय सेना की संरचना, संगठन, भर्ती नीति और उद्देश्य सभी में गहरे परिवर्तन किए गए। 1857 के बाद ब्रिटिश सैन्य सुधारों के मुख्य उद्देश्य दो थे-
- विद्रोह की पुनरावृत्ति रोकना: 1857 के विद्रोह ने दिखाया कि यदि भारतीय सैनिक एकजुट हो जाएँ, तो ब्रिटिश शासन की नींव हिल सकती है। अतः ब्रिटिशों का प्राथमिक उद्देश्य थाकृभारतीय सैनिकों में ऐसी स्थिति कभी दोबारा न बनने देना जिसमें वे संगठित होकर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर सकें।
- ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा और विस्तार सुनिश्चित करना: नई सेना को इस प्रकार संगठित किया गया कि वह केवल भारत के भीतर नहीं, बल्कि एशिया और अफ्रीका के अन्य हिस्सों में भी ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा और विस्तार में काम आ सके। सेना अब केवल युद्ध का नहीं, बल्कि औपनिवेशिक नियंत्रण का उपकरण बन गई।
प्रमुख परिवर्तन
1857 के बाद भारतीय सेना में निम्नलिखित परिवर्तन किए गए-
(क) जातीय एवं प्रांतीय आधार पर वर्गीकरण: अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों को ‘लड़ाकू जातियाँ’ और ‘गैर-लड़ाकू जातियाँ’ में बाँट दिया। इसका उद्देश्य सैनिकों के बीच एकता और समानता की भावना को तोड़ना था। गईं सिख, गोरखा, पठान, राजपूत, जाट आदि लड़ाकू जातियाँ घोषित की गईं, बंगाली, मराठी, तमिल आदि गैर-लड़ाकू जातियाँ मानी गईं, जिन्हें सेना से लगभग बाहर कर दिया गया। इस नीति से सेना में क्षेत्रीय और जातीय विभाजन बढ़ा, जिससे सैनिकों की सामूहिक पहचान कमजोर पड़ गई।
(ख) यूरोपीय सैनिकों की संख्या में वृद्धि: विद्रोह के समय भारतीय सैनिकों की संख्या ब्रिटिश सैनिकों से बहुत अधिक थी और लगभग 6ः1 का अनुपात था। विद्रोह के बाद यह अनुपात बदल दिया गया। यूरोपीय सैनिकों की संख्या बढ़ाकर लगभग 65,000 कर दी गई, जबकि भारतीय सैनिकों की संख्या घटाकर लगभग 1,40,000 कर दी गई। इस प्रकार ब्रिटिश अधिकारियों और सैनिकों को सेना की निर्णायक इकाइयों में वर्चस्व प्राप्त हो गया। अब प्रत्येक भारतीय सैनिकों की टुकड़ी में कुछ यूरोपीय सैनिक या अधिकारी अनिवार्य रूप से नियुक्त किए जाने लगे, ताकि विद्रोह की स्थिति में उन्हें नियंत्रित रखा जा सके।
(ग) कमान और नियंत्रण पर ब्रिटिश प्रभुत्व: भारतीय सेना के प्रमुख विभाग, जैसे तोपखाना, सिग्नल कोर, इंजीनियरिंग और रॉयल कैवेलरी पूरी तरह यूरोपियनों के नियंत्रण में कर दिए गए। भारतीय सैनिकों को केवल पैदल सेना या सहायक कार्यों तक सीमित कर दिया गया। भारतीयों को नीचे के पदों तक सीमित रखा गया, जबकि उच्च पदों पर केवल ब्रिटिश अधिकारी ही नियुक्त होते थे।
(घ) हथियारों और संसाधनों में भेदभाव: भारतीय सैनिकों को निम्न स्तर के हथियार, पुरानी बंदूकें और कमजोर तोपें दी जाती थीं, जबकि यूरोपीय सैनिकों को आधुनिक और शक्तिशाली हथियार मिलते थे। यह भेदभाव अंग्रेजों के ‘अविश्वास’ की नीति का परिणाम था, जिससे भारतीय सेना की क्षमता और आत्मविष्वास दोनों घट गए।
(ङ) सेना की भूमिका का पुनर्परिभाषण: 1857 से पहले सेना का मुख्य कार्य बाहरी सुरक्षा था, पर अब इसका प्राथमिक उद्देश्य बदल दिया गया। सेना का उपयोग मुख्यतः आंतरिक शांति बनाए रखने, भारतीय जन आंदोलनों को दबाने और ब्रिटिश प्रशासन की रक्षा के लिए किया जाने लगा। सेना अब भारतीय जनता के विरुद्ध शासन का उपकरण बन गई।
परिणाम
भारतीय सेना अब पूरी तरह राजनीतिक रूप से विश्वसनीय बन गई। अंग्रजों का नियंत्रण सभी कूटनीतिक और तकनीकी विभागों पर दृढ़ हो गया।
भारतीय सैनिकों के बीच भाईचारे और एकता की भावना कमजोर हो गई। सेना का झुकाव भारतीय हितों के बजाय औपनिवेशिक हितों की सेवा की ओर हो गया, जिससे ब्रिटिश शासन की जड़ें तो मजबूत हुईं, लेकिन भारतीय राष्ट्रवाद को भी यह एहसास हुआ कि सच्चा परिवर्तन केवल स्वदेशी नेतृत्व से ही संभव है।
सैन्य सुधारों ने ब्रिटिश शासन की सुरक्षा को तो मजबूत किया, परंतु इन सुधारों ने भारतीय सैनिकों में असमानता, अविश्वास और हीनभावना भी पैदा की। लड़ाकू जातियों की नीति, यूरोपीय प्रभुत्व और आंतरिक नियंत्रण की प्रवृत्ति ने भारतीय सेना को एक औपनिवेशिक उपकरण बना दिया।
यद्यपि अंग्रेजों को अपने शासन को सुरक्षित करने में सफलता मिल गई, लेकिन इन्हीं नीतियों ने आगे चलकर भारतीय सैनिकों में राष्ट्रवादी चेतना का बीज बो दिया, जो प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) और द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान स्पष्ट रूप से दिखाई दीं।
लोक सेवाओं में परिवर्तन
भारतीय सिविल सेवा का स्वरूप
1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासन ने यह महसूस किया कि भारत में प्रशासन की स्थिरता और ब्रिटिश सत्ता की निरंतरता बनाए रखने के लिए एक निष्ठावान, प्रशिक्षित और पूरी तरह ब्रिटिश नियंत्रण में रहने वाली प्रशासनिक सेवा की आवश्यकता है। इसी उद्देश्य से भारतीय सिविल सेवा को ब्रिटिश शासन का सबसे सशक्त स्तंभ बनाया गया। इसे ‘ब्रिटिश साम्राज्य की रीढ़’ कहा गया है, क्योंकि यही सेवा पूरे भारत के प्रशासनिक ढाँचे को नियंत्रित करती थी। भारतीय सिविल सेवा का पूरी तरह यूरोपीयकरण किया गया। यद्यपि 1858 की विक्टोरिया की उद्घोषणा में यह वादा किया गया था कि सभी योग्य व्यक्तियों को जाति, धर्म या नस्ल के भेदभाव के बिना सरकारी सेवाओं में प्रवेश का अवसर मिलेगा, किंतु व्यवहार में यह केवल एक औपचारिक घोषणा रह गई। वास्तव में, उच्च प्रशासनिक पदों पर केवल ब्रिटिश अधिकारी ही नियुक्त किए जाते थे। भारतीयों को निचले स्तर के पदों, जैसे तहसीलदार, मुंशी या अधीनस्थ क्लर्क तक ही सीमित रखा गया।
प्रतियोगी परीक्षा और उसका स्थान
भारतीयों की भागीदारी को सीमित रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने प्रतियोगी परीक्षा को जानबूझकर कठिन बनाया और उसे लंदन में आयोजित किया। परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी था और विषय अत्यधिक कठिन रखे गए, जैसे लैटिन, यूनानी, विज्ञान और उच्च गणित। परीक्षा की आयु-सीमा को पहले 23 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दिया गया, ताकि अधिकांश भारतीय छात्र, जो इतनी कम उम्र में इंग्लैंड जाकर परीक्षा नहीं दे सकते थे, बाहर हो जाएँ।
इस प्रकार अधिकांश भारतीय प्रतिभाशाली होने के बावजूद इस सेवा में प्रवेश नहीं कर पाए। 1860 के दशक तक आईसीएस में 1 प्रतिशत से भी कम भारतीय थे।
यूरोपियनों का वर्चस्व
भारतीय सिविल सेवा पर यूरोपीय अधिकारियों का लगभग पूर्ण वर्चस्व था। उच्च प्रशासनिक पद, जैसे जिला कलेक्टर, कमिश्नर, न्यायाधीश, सचिव और विभागाध्यक्ष केवल अंग्रेजों के लिए आरक्षित थे। भारतीयों को केवल अधीनस्थ नौकरियों में रखा गया, जिन्हें निर्णय लेने का अधिकार नहीं था। ब्रिटिश अधिकारी स्वयं को भारतीयों से श्रेष्ठ समझते थे और अकसर नस्लीय अहंकार का प्रदर्शन करते थे। इस कारण भारतीय प्रशासन में एक विदेशी शासन की भावना सदैव बनी रही।
भारतीयों की सीमित भागीदारी
यद्यपि ब्रिटिश सरकारयह दावा करती थी कि भारतीय भी सिविल सेवा में सम्मिलित हो सकते हैं, परंतु व्यावहारिक रूप से यह अत्यंत कठिन था। फिर भी, कुछ भारतीय युवाओं ने कठिनाइयों के बावजूद इस परीक्षा में सफलता प्राप्त की, जिनमें सत्येंद्रनाथ टैगोर (1863) प्रथम भारतीय सिविल सेवक बने। उनके बाद धीरे-धीरे कुछ और भारतीय, जैसे रमेशचंद्र दत्त, सूरेंद्रनाथ बनर्जी और बिहारी लाल गुप्ता भी इस सेवा में आए, परंतु उनकी संख्या बहुत कम रही। 1880 तक कुल आईसीएस अधिकारियों में भारतीयों का हिस्सा मात्र 10 प्रतिशत था।
परिणाम और प्रभाव
भारतीय सिविल सेवा का ढ़ाँचा भारतीय जनभावनाओं से पूरी तरह अलग था। इसमें भारतीयों के लिए अवसरों की कमी ने राष्ट्रीय असंतोष को जन्म दिया। बुद्धिजीवी वर्ग में यह भावना प्रबल होने लगी कि जब तक शासन के उच्च पदों पर भारतीयों की भागीदारी नहीं होगी, तब तक भारत में न्यायपूर्ण प्रशासन संभव नहीं। इसी असमानता और भेदभाव के विरोध में बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ‘भारतीयकरण की माँग’ उठाई।
इस प्रकार 1857 के बाद की सिविल सेवा ने ब्रिटिश शासन को संगठित और प्रभावी बनाया, परंतु यह सेवा भारत के हित में नहीं, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य के हित में काम करती रही। यह वह तंत्र था, जिसने भारत में ब्रिटिश शासन को स्थायित्व दिया, लेकिन साथ ही भारतीय राष्ट्रवाद के बीज भी बोए।
सामाजिक परिवर्तन
प्रतिक्रियावादी नीति
1857 के विद्रोह ने ब्रिटिश शासन को यह स्पष्ट संदेश दे दिया था कि भारतीय समाज की धार्मिक और पारंपरिक भावनाओं से छेड़छाड़ उनके शासन के लिए खतरा बन सकती है। विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारतीय समाज के प्रति अपने दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन किया। अब उनकी प्राथमिकता सामाजिक सुधार नहीं, बल्कि शासन की स्थिरता और साम्राज्य की सुरक्षा बन गई। इसी कारण 1858 के बाद ब्रिटिश नीति अधिक प्रतिक्रियावादी, संकीर्ण और विभाजनकारी होती चली गई और ब्रिटिश सरकार ने सामाजिक सुधारों से दूरी बना ली। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जब ब्रिटिश प्रशासक जैसे लॉर्ड बेंटिक या विलियम जोन्स भारतीय समाज में सुधारों के समर्थक थे, जैसे सती प्रथा का अंत (1829), बाल विवाह विरोध या विधवा पुनर्विवाह अधिनियम (1856), वहीं अब अंग्रेजों ने ऐसी किसी भी पहल से बचना शुरू कर दिया। अब उनका उद्देश्य यह था कि वे भारतीय समाज की धार्मिक या सांस्कृतिक भावनाओं को आहत न करें, ताकि पुनः विद्रोह की संभावना न रहे। इस प्रकार अंग्रेजों ने सामाजिक सुधार के बजाय सामाजिक यथास्थिति बनाए रखने की नीति अपनाई।
‘फूट डालो और राज करो’ की नीति
1857 के विद्रोह के दौरान हिंदू और मुस्लिम सैनिकों तथा आम जनता की एकता ने ब्रिटिश सरकार को भयभीत कर दिया था। अंग्रेजों ने समझ लिया कि यदि भारतीय एकजुट रहे तो उनका साम्राज्य टिक नहीं पाएगा। इसी अनुभव से प्रेरित होकर उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को औपचारिक रूप से अपनाया। इसके लिए धार्मिक और सांप्रदायिक भेदभाव को प्रोत्साहित किया गया। मुसलमानों को सरकारी सेवाओं में पुनः प्रोत्साहन देकर हिंदू शिक्षित वर्ग से अलग किया गया, विद्यालयों और विष्वविद्यालयों में धर्म आधारित छात्रवृत्तियाँ और नियुक्तियाँ दी जाने लगीं। क्षेत्रीय और जातीय आधार पर भी भेदभाव को बढ़ाया गया, जिससे भारतीय समाज में आपसी अविष्वास गहराने लगा। इस नीति के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में सांप्रदायिकता की नींव पड़ी, जिसका अंतिम परिणाम भारत विभाजन के रूप में सामने आया।
जमींदारों और अभिजात वर्ग को समर्थन
अंग्रेजों ने यह महसूस किया कि 1857 के विद्रोह में किसानों और छोटे जमींदारों ने सक्रिय भूमिका निभाई थी, जबकि बड़े जमींदारों और अभिजात वर्ग का रुझान तटस्थ या ब्रिटिश समर्थक रहा था। इसलिए अब उन्होंने इन वर्गों को शासन का सहयोगी बना लिया।
विद्रोह के बाद जब्त की गई कई जमींदारियाँ बहाल की गईं और जमींदारों को ‘सर’, ‘राजा’, ‘नवाब’ आदि सम्मानसूचक उपाधियाँ दी गईं। इन वर्गों को करों और प्रशासनिक नियंत्रण में विशेष छूटें दी गईं। ब्रिटिश सरकार ने इन प्रभावशाली वर्गों का उपयोग शिक्षित मध्यवर्ग और उभरते राष्ट्रवाद को दबाने में किया। इस प्रकार जमींदार वर्ग ब्रिटिश शासन का सामाजिक आधार बन गया, जिससे ग्रामीण समाज में वर्गीय विषमता और कृषक शोषण की प्रवृत्ति और गहरी हो गई।
सामाजिक सेवाओं की उपेक्षा
ब्रिटिश शासन की नीतियाँ पूरी तरह साम्राज्यिक हितों पर केंद्रित थीं। शासन और सेना के व्यय को प्राथमिकता दी गई, जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता और जनकल्याण के क्षेत्र उपेक्षित रहे। सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएँ केवल शहरों या यूरोपीय बस्तियों तक सीमित थीं। शिक्षा पर सरकारी खर्च बहुत कम था; ग्रामीण शिक्षा लगभग समाप्त हो गई। जलापूर्ति, स्वच्छता और रोग-निवारण जैसे विषय स्थानीय निकायों पर छोड़ दिए गए, जिनके पास पर्याप्त संसाधन नहीं थे। इसका परिणाम हुआ कि आम जनता का जीवन स्तर निम्न बना रहा और वह गरीबी, अशिक्षा तथा रोग से जूझती रही। इस उपेक्षा के कारण भारतीय समाज में विकास का संतुलन पूरी तरह बिगड़ गया। ग्रामीण क्षेत्र पिछड़ते चले गए, जबकि प्रशासनिक और औद्योगिक केंद्र कुछ हद तक विकसित हुए।
1857 के बाद ब्रिटिश सामाजिक नीति का मूल उद्देश्य भारतीय समाज को स्थिर परंतु विभाजित रखना था। सुधारों की जगह अब दमन और विभाजन पर बल दिया गया। जमींदारों और उच्च वर्गों को तुष्ट कर ब्रिटिश शासन ने अपने लिए सुरक्षा कवच तैयार किया, जबकि भारतीय समाज में असमानता, सांप्रदायिकता और गरीबी बढ़ती गई।
आर्थिक परिवर्तन
औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का उदय
1857 के विद्रोह के बाद भारत में ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीति पूरी तरह साम्राज्यवादी उद्देश्यों पर केंद्रित हो गई। भारत अब केवल ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल का स्रोत और तैयार वस्तुओं का बाजार बन गया। इस औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था ने भारतीय समाज की आर्थिक संरचना को पूरी तरह बदल दिया और सदियों से चले आ रहे स्वावलंबी ग्रामीण जीवन को अस्थिर कर दिया। 1858 के बाद ब्रिटिश सरकार ने अपने साम्राज्य की आर्थिक नीति में भारत को एक ‘उपनिवेश’ के रूप में संगठित किया। ब्रिटिश उद्योगों के तीव्र विकास और औद्योगिक क्रांति के बाद उन्हें सस्ते कच्चे माल और तैयार वस्तुओं के लिए एक विशाल बाजार की आवश्यकता थी, जो भारत से पूरी होती थी। भारत से कपास, जूट, चाय, कोयला, नील, अफीम और गेहूँ जैसे उत्पाद ब्रिटेन भेजे जाते थे। बदले में ब्रिटेन से मशीन निर्मित वस्त्र, लोहे के औजार और उपभोक्ता वस्तुएँ भारत में बेची जाती थीं। इस व्यापारिक असंतुलन ने भारत के स्वदेशी उद्योगों को नष्ट कर दिया। कुटीर उद्योग, बुनाई, धातुकर्म और हस्तशिल्प के पारंपरिक केंद्र जैसे ढाका, मुर्शिदाबाद, और काँचीपुरम बर्बाद हो गए। इस प्रकार भारत एक कृषि-प्रधान और आयात-निर्भर अर्थव्यवस्था बन गया, जो ब्रिटिश उद्योगों का ‘आर्थिक उपनिवेश’ था।
परिवहन और संचार का विकास
ब्रिटिश शासन ने 1857 के बाद भारत में रेल, सड़क, टेलीग्राफ और डाक जैसी आधुनिक सुविधाओं का विस्तार किया, जिनका वास्तविक उद्देश्य भारत का विकास नहीं, बल्कि साम्राज्यिक हितों की पूर्ति था।
रेलवे: ब्रिटिश पूँजी से रेलवे का तेजी से विस्तार हुआ- 1900 तक लगभग 25,000 मील रेलमार्ग बन चुके थे, जिसका उद्देश्य सैनिकों की त्वरित आवाजाही, कच्चे माल की बंदरगाहों तक ढुलाई और ब्रिटिश वस्तुओं का आंतरिक बाजार तक वितरण था। रेलवे कंपनियों को 5 प्रतिषत न्यूनतम लाभ की गारंटी दी गई।
टेलीग्राफ और डाक प्रणाली: प्रशासनिक नियंत्रण मजबूत करने और साम्राज्यिक संचार को सुचारू रखने के लिए टेलीग्राफ व डाक व्यवस्था विकसित की गई।
नहरें और सिंचाई परियोजनाएँ: पंजाब और उत्तर प्रदेश में नहर प्रणाली विकसित की गई, लेकिन इनका उद्देश्य कृषि उत्पादकता से अधिक राजस्व-संग्रह और नील व कपास जैसी निर्यात फसलों की पैदावार बढ़ाना था।
इस प्रकार परिवहन और संचार के साधन भी औपनिवेशिक नियंत्रण के उपकरण बन गए।
भूमि और कर नीति
1857 के बाद भूमि राजस्व नीति ब्रिटिश राजस्व-संग्रह की रीढ़ बन गई। राजस्व की दरें इतनी ऊँची थीं कि किसानों के लिए जीविका चलाना कठिन हो गया।
जमींदारी, रैयतवारी और महालवारी तीनों प्रणालियों को ब्रिटिश प्रशासनिक हितों के अनुसार ढाला गया। बंगाल में जमींदारों को राजस्व संग्रह का अधिकार देकर किसानों के शोषण की खुली छूट दी गई। मद्रास और बॉम्बे में रैयतवारी प्रणाली के तहत किसानों को सीधे सरकार से कर देना पड़ता था। उत्तर भारत में महालवारी प्रणाली में गाँव के प्रमुखों को राजस्व वसूली का दायित्व दिया गया।
वर्षा की अनिश्चितता और अकाल की स्थिति में भी कर वसूली जारी रहती थी, जिसके परिणाम किसानों की निर्धनता, ऋणग्रस्तता और लगातार अकाल के रूप् में सामने आए। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बार-बार आने वाले अकाल (1860, 1876-78, 1896-97 और 1899-1900) इसी भूराजस्व नीति की परिणति थे, जिसमें करोड़ों लोगों की मौतें हुईं।
पूँजी का निर्गमन
भारत की आर्थिक निर्बलता का सबसे गंभीर कारण था-धन-निकासी (ड्रेन ऑफ वेलथ)। भारत में उत्पादित धन का एक बड़ा भाग इंग्लैंड भेजा दिया जाता था, जिससे ब्रिटिश अर्थव्यवस्था समृद्ध होती गई और भारत निर्धन होता गया। ब्रिटिश अधिकारी अपनी उच्च वेतन, पेंशन और लाभांश इंग्लैंड भेजते थे। रेल, डाक और सिंचाई जैसी परियोजनाओं में निवेश से होने वाला मुनाफा भी ब्रिटिश कंपनियों को मिलता था। भारत सरकार के ऋण और ब्याज का भुगतान भी ब्रिटिश बैंकों में होता था। दादाभाई नौरोजी ने इसे ‘भारत का आर्थिक रक्तस्राव’ कहा। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘पावर्टी एंड अनब्रिटिष रूल इन इंडिया’ (1901) में सिद्ध किया कि यह धन-निकासी भारतीय निर्धनता और ब्रिटिश समृद्धि का प्रत्यक्ष कारण थी, जिसमें लगभग भारत के राजस्व का एक-तिहाई भाग बह जता था।
1857 के बाद की ब्रिटिश आर्थिक नीति ने भारत को एक शोषित उपनिवेश में बदल दिया। कृषि का व्यापारीकरण, स्वदेशी उद्योगों का पतन, पूँजी का निर्गमन और असमान विकास ने भारतीय समाज की आर्थिक नींव हिला दी। यह वह दौर था जब भारत धीरे-धीरे ‘समृद्ध उपजाऊ भूमि’ से ‘निर्धन उपनिवेश’ बन गया और यही आर्थिक शोषण कालांतर में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रबल आर्थिक आधार का कारण बना।
इस प्रकार 1857 का विद्रोह भले ही तत्कालीन दृष्टि से असफल रहा हो, परंतु इसके परिणाम अत्यंत दूरगामी और व्यापक सिद्ध हुए। यह केवल एक सैनिक विद्रोह नहीं था, बल्कि ब्रिटिष भारत के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य ढाँचे को हिला दिया था। इस विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासन ने अपने पूरे तंत्र को नए आधार पर पुनर्गठित किया, ताकि ऐसी कोई घटना पुनः घटित न हो। परंतु विडंबना यह रही कि इन्हीं परिवर्तनों ने उस भारतीय राष्ट्रीय चेतना को जन्म दिया, जिसने आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम की दिशा तय की। कुल मिलाकर 1857 ‘भारतीय इतिहास का महान संक्रमण बिंदु’ था, जहाँ से भारत की यात्रा विद्रोह से राष्ट्रवाद और पराधीनता से स्वतंत्रता की ओर आरंभ हुई।