कलचुरि राजवंश (Kalachuri Dynasty, 550-1850 AD))

कलचुरि राजवंश, जिसे हैहयवंशी कलचुरि भी कहा जाता है, भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण राजवंश […]

कलचुरि राजवंश (Kalachuri Dynasty, 550-1850 AD))

कलचुरि राजवंश, जिसे हैहयवंशी कलचुरि भी कहा जाता है, भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण राजवंश है, जिसने छठी शताब्दी ईस्वी से लेकर अठारहवीं शताब्दी के मध्य तक मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में शासन किया। यह राजवंश अपनी सैन्य शक्ति, प्रशासनिक कुशलता और सांस्कृतिक योगदान के लिए प्रसिद्ध है। कलचुरियों के प्रभाव और प्रसिद्धि का सबसे बड़ा प्रमाण त्रैकूटक-कलचुरी-चेदि संवत् है, जिसे मूलतः 248-249 ई. में आभीर ईश्वरसेन ने पश्चिमी भारत में प्रवर्तित किया था। इस संवत् का प्रयोग प्रारंभिक गुर्जरों, प्रारंभिक कलचुरियों, चालुक्यों और सेंद्रकों ने मध्य भारत, महाराष्ट्र और गुजरात में किया। परवर्ती कलचुरियों ने अपने लेखों में इस संवत् का इतना व्यापक प्रयोग किया कि यह संवत् कलचुरी संवत् के नाम से मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और बिहार के क्षेत्रों में प्रसिद्ध हो गया।

ऐतिहासिक स्रोत

कलचुरी राजवंश के ऐतिहासिक स्रोतों में अभिलेख तथा ताम्रपत्र, सिक्के, उत्खनित अवशेष, साहित्यिक ग्रंथ, दंतकथाएँ और किंवदंतियाँ शामिल हैं, जिनसे इस वंश के शासकों की शासनावधि और तत्कालीन राजनीतिक-सांस्कृतिक गतिविधियों की जानकारी मिलती है।

अभिलेख

कलचुरी शासकों द्वारा जारी किये गये अभिलेख उनके शासनकाल, प्रशासनिक व्यवस्था और धार्मिक मान्यताओं की जानकारी के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इस राजवंश के सबसे पुराने शिलालेख अभोना (नासिक, महाराष्ट्र) और संखेड़ा (गुजरात) में पाये गये हैं, जो क्रमशः उज्जैन (मालवा) और निर्गुंडीपद्रक (गुजरात) के विजयी शिविरों से निर्गत किये गये थे और आरंभिक कलचुरी शासक शंकरगण प्रथम (575-600 ई.) के शासनकाल के हैं। इन शिलालेखों से पता चलता है कि महिष्मती के कलचुरी शासकों का मालवा, गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार था।

कलचुरियों की त्रिपुरी शाखा से संबंधित महत्त्वपूर्ण अभिलेखों में लक्ष्मणराज द्वितीय का कारीतलाई अभिलेख, युवराजदेव का बिलहरी शिलालेख, लक्ष्मीकर्ण का रीवा प्रस्तरलेख, बनारस का कणमेरु मंदिरलेख और गोहरवा (प्रयाग) लेख, गांगेयदेव के शासनकाल का सारनाथ शिलालेख, मुकुंदपुर शिलालेख और प्यावाँ लेख, यशःकर्ण का खैरा तथा जबलपुर शिलालेख ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं। इन अभिलेखों से त्रिपुरी शाखा के कलचुरीकालीन राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक परिस्थितियों की सूचना मिलती है।

रतनपुर के कलचुरी शासकों के शिलालेख और ताम्रलेख छत्तीसगढ़ के कलचुरियों की प्रशासनिक व्यवस्था, धार्मिक कार्यों और सांस्कृतिक योगदान की जानकारी प्रदान करते हैं। रतनपुर के कलचुरी शासकों के शिलालेखों और ताम्रलेखों में रतनदेव प्रथम का महामाया मंदिर शिलालेख और रतनपुर शिलालेख, पृथ्वीदेवप्रथम का कोसगई शिलालेख, गोपालदेव का अमोदा ताम्रलेख, प्रतापमल्ल का पुजारी पाली से प्राप्त शिलालेख और बहारसाय के बिलाईगढ़ शिलालेख उपयोगी हैं, जिनसे छत्तीसगढ़ के कलचुरियों की वंशावली, सैन्य विजय, प्रशासनिक व्यवस्था, भूमिदान, मंदिर निर्माण और सांस्कृतिक उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है।

कलचुरी शासकों के शिलालेखों के साथ-साथ गुहिल राजा बालादित्य का चाटसू शिलालेख, चंदेलों का खजुराहो शिलालेख, परमारों की उदयपुर प्रशस्ति और गुजरात के चालुक्यों की वडनगर प्रशस्ति से भी कलचुरियों के इतिहास-निर्माण में सहायता मिलती है।

सिक्के

कलचुरी शासकों द्वारा जारी किये गये सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्के मध्य भारत और उत्तर प्रदेश के कई स्थानों से प्राप्त हुए हैं। प्रारंभिक कलचुरी शासक कृष्णराज (550-575 ई.) द्वारा जारी किये गये चाँदी के सिक्के राजस्थान एवं महाराष्ट्र से मिले हैं, जिन्हें ‘कृष्णराज रूपक’ कहा गया है। परवर्ती कलचुरी शासक गांगेयदेव के लक्ष्मी शैली के स्वर्ण सिक्कों के अग्रभाग पर पद्मासन मुद्रा में गजलक्ष्मी और पृष्ठ भाग पर तीन पंक्तियों में ‘श्रीमद्गांगेयदेव’ का अंकन है।

रतनपुर के कलचुरी शासकों के सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्के महानदी घाटी एवं अन्य अनेक स्थलों से मिले हैं, जिनपर गजलक्ष्मी, सिंह, घुड़सवार, हनुमान और खंजर का अंकन है। इन सिक्कों से कलचुरी राज्य के क्षेत्रीय विस्तार, आर्थिक समृद्धि, व्यापारिक संपर्क और कलात्मक विकास के साथ-साथ शासकों की धार्मिक अभिरूचि पर भी प्रकाश पड़ता है।

पुरातात्त्विक अवशेष

कलचुरी शासकों द्वारा त्रिपुरी, दमोह, भेड़ाघाट, पाली, तुम्माण, रतनपुर जैसे स्थानों पर बनवाये गये दुर्ग, मंदिर, महल, तालाब और अन्य संरचनाएँ उनकी सर्जनात्मक बुद्धि, कलात्मक अभिरूचि, धार्मिक मान्यताओं और सामाजिक सरोकारों की जानकारी प्रदान करते हैं। कलचुरीकालीन मूर्तिया, बर्तन, आभूषण, कलाकृतियाँ और अवशेष भी उनकी सांस्कृतिक और कलात्मक विकास के परिचायक हैं।

साहित्यिक स्रोत

साहित्यिक स्रोतों में राजशेखर द्वारा विरचित ‘विद्वशालभंजिका’ और ‘काव्यमीमांसा’ सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। इन ग्रंथों में राजशेखर ने युवराज की मालवा तथा कलिंग की विजय का उल्लेख करते हुये उसे चक्रवर्ती राजा बताया है। विल्हण कृत ‘विक्रमांकदेवचरित’ से कर्ण और चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम के संबंधों पर प्रकाश पड़ता है। हेमचंद्र के ‘द्वाश्रयकाव्य’ से कर्ण तथा पाल शासक विग्रहपाल के बीच संघर्ष का उल्लेख है। मेरुतुंग की ‘प्रबंधचिंतामणि’ से कलचुरी शासक कर्णदेव के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। सोमेश्वरदेव की ‘कीर्तिकौमुदी’ और अबुल-फजल बैहाक़ी की ‘तारीख-ए-बैहाकी’ ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हैं।

छत्तीसगढ़ के कलचुरियों की जानकारी के लिए बाबू रेवाराम की रचना ‘तवारीख हैहयवंश’, गोपालमिश्र की ‘खूब तमाशा’ जैसी रचनाएँ महत्त्वपूर्ण है।

दंतकथाएँ और किंवदंतियाँ

कुछ दंतकथाएँ और किंवदंतियाँ भी कलचुरियों के इतिहास-निर्माण में उपयोगी हैं, जैसे कलचुरी वंश के लोग बड़ी बड़ी ‘काली मूँछें’ और अपने साथ एक ‘छुरी’ (तेज चाकू) रखते थे। काली मूँछें तथा छुरी रखने के कारण ही उन्हें ‘कलचुरी’ कहा गया। यह भी कहा जाता है कि महिष्मती वंश में घोड़ा (हय) और नाग (अहि) का विशेष महत्त्व था, इसलिए उन्हें ‘हैहय’ कहा गया।

कलचुरियों की प्राचीनता

कलचुरियों का संबंध चेदि राज्य से रहा है। चेदि छठी शताब्दी ईसापूर्व के सोलह महाजनपदों में एक प्रमुख महाजनपद था। यह आधुनिक बुंदेलखंड क्षेत्र में, यमुना नदी के दक्षिण में, चंबल और केन नदियों के बीच स्थित था। बौद्ध ग्रंथ चेतिय जातक में इसकी राजधानी सोत्थिवती (शुक्तिमती) बताई गई है, जिसका समीकरण महाभारत में वर्णित शुक्तिमती से किया जाता है।

विष्णु पुराण और महाभारत में चेदिराज शिशुपाल का उल्लेख मिलता है, जो भगवान कृष्ण का समकालीन और प्रतिद्वंद्वी था। चेतिय जातक में चेदि के एक अन्य राजा उपरिचर (उपरिचर वसु) का वर्णन है, जिसे महाभारत में भी चेदिराज के रूप में उल्लेखित किया गया है। कुछ इतिहासकार कलिंग के राजा खारवेल को भी इस वंश से जोड़ते हैं, लेकिन इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है।

कलचुरियों का नामकरण और उत्पत्ति

कलचुरियों को शिलालेखों में कलच्चुरि, कटच्चुरी, कलत्सुरी, कालासुरी, कटाचुरी, करचुलि, कालचर्य, कलचुरि, कलचुरी, कुलचुरी, चैद्य, चेदिनरेश, हैहयवंशी या अहिहय कहा गया है। कलचुरी तुर्की भाषा के शब्द ‘कुल्चुर’ से आया है, जिसका अर्थ होता है- ‘उच्चउपाधिधारी’। कहा जाता है कि इस वंश के लोग बड़ी-बड़ी ‘काली मूंछें’ रखते थे और अपने साथ एक ‘छुरी’ रखा करते थे। काली मूंछें तथा छुरी रखने के कारण पहले ‘कालछुरी’ कहलाये, जो बाद में ‘कलचुरी’ बन गया।

कलचुरियों की उत्पत्ति स्पष्ट नहीं है। डी. आर. भंडारकर के अनुसार कलचुरी विदेशी आक्रामणकारी जातियों, जैसे शकों, पह्लवों के हिंदू वंशज थे। लेकिन कलचुरियों की विदेशी उत्पत्ति का सिद्धांत विद्वानों को स्वीकार्य नहीं है।

त्रिपुरी की कलचुरी शाखा के युवराजदेव द्वितीय के बिलहरी शिलालेख में कलचुरियों ने स्वयं को महाभारत के हैहयवंशीय शासक कार्तवीर्य अर्जुन का वंशज बताया है, जो अपनी शक्ति और युद्ध-कौशल के लिए प्रसिद्ध था। इसी प्रकार कोकल्ल प्रथम के पुत्र राजकुमार वल्लेका के गयारसपुर शिलालेख, कर्ण के वाराणसी शिलालेख और यशःकर्ण के खैरा शिलालेख भी कलचुरी स्वयं को पौरवों और भरत के माध्यम से कार्तवीर्य का वंशज बताते हैं।

दक्षिण कोसल के कलचुरियों ने भी अपने अभिलेखों में स्वयं को चंद्रवंशीय सहस्त्रार्जुन की संतान बताया है। 12वीं शताब्दी के पृथ्वीराज विजय से भी पता चलता है कि त्रिपुरी के कलचुरी चंद्रवंशीय पौराणिक शासक कार्तवीर्य से संबंधित थे। इस प्रकार त्रिपुरी के कलचुरियों को चंद्रवंशी क्षत्रिय माना जा सकता है।

वी.वी. मिराशी के अनुसार त्रिपुरी के कलचुरी महिष्मती के कलचुरियों से संबंधित थे। लेकिन ऐसा कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि दोनों राजवंश में कोई संबंध था। महिष्मती के कलचुरियों के किसी अभिलेख में उन्हें ‘हैहयवंशीय’ के रूप में वर्णित नहीं किया गया है, बल्कि यह नाम उनके पड़ोसी प्रारंभिक चालुक्यों के कुछ शिलालेखों में मिलता है, जो 7वीं और 8वीं शताब्दी ईस्वी के हैं।

इस प्रकार महिष्मती के कलचुरियों की उत्पत्ति के संबंध में निश्चित रूप से कुछ कह पाना कठिन है। संभव है कि वे किसी स्थानीय जनजाति से संबंधित रहे हों।

कलचुरी राजवंश की प्रमुख शाखाएँ

कलचुरी राजवंश की अनेक शाखाओं ने अलग-अलग समयों में मध्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर शासन किया, जिनमें से कुछ प्रमुख शाखाएँ निम्नलिखित हैं-

  1. महिष्मती के कलचुरी (550-620 ई.)
  2. सरयूपार के कलचुरी (650-1080 ई.)
  3. त्रिपुरी के कलचुरी (675-1212 ई.)
  4. छत्तीसगढ़ के कलचुरी (1000-1850 ई.)
  5. दक्षिणी भारत के कलचुरी (10वीं-12वीं शताब्दी)
महिष्मती के कलचुरी (550-620 ई.)

कलचुरियों की सबसे प्राचीन शाखा मध्य भारत में नर्मदा नदी के ऊपरी तट पर शासन करती थी, जिसकी राजधानी महिष्मती (वर्तमान महेश्वर) थी। इस आरंभिक शाखा का संस्थापक कृष्णराज (550-575 ई.) था। उसके बाद शंकरगण (575-600 ई.) और बुद्धराज (600-620 ई.) का उल्लेख मिलता है। आरंभ में इस राजवंश का अभोना, संखेड़ा, सरसावनी और वडनेर पर अधिकार था, लेकिन छठी शताब्दी के मध्य तक महिष्मती के कलचुरियों ने विदर्भ और उत्तरी कोंकण पर भी अधिकार कर लिया।

सातवीं शताब्दी के आरंभ में महिष्मती के अंतिम कलचुरी शासक बु़द्धराज को वातापी (बादामी) के चालुक्यों के हाथों पराजित होना पड़़ा और संभवतः उनकी अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। एलीफेंटा और एलोरा गुफाओं के सबसे प्राचीन स्मारक प्रारंभिक कलचुरी शासन के दौरान ही बनाये गये थे।

विस्तृत अध्ययन के लिए देखें-महिष्मती के कलचुरी

सरयूपार के कलचुरी (650-1080 ई.)

कलचुरियों की एक शाखा ने सातवीं शताब्दी ईस्वी से उत्तर प्रदेश के सरयूपार में वर्तमान गोंडा, बहराइच, बस्ती, संत कबीरनगर, गोरखपुर, देवरिया और कुशीनगर के क्षेत्रों पर शासन किया। 1077 ई. के सोढ़देव के कहला अभिलेख से पता चलता है कि ‘कलचुरीतिलक’ वामराजदेव ने कालंजर से आगे बढ़कर अयोमुख (प्रतापगढ़ और रायबरेली) की विजय कर अपने छोटे भाई लक्ष्मणराज को सरयूपार के कलचुरी क्षेत्रों का शासक नियुक्त किया था।

सरयूपार की कलचुरी शाखा का संस्थापक राजपुत्र था, जिसकी दसवीं पीढ़ी में सोढ़देव राजा हुआ। सरयूपार में कलचुरियों की दो शाखाएँ थीं- एक गोरखपुर की कहला शाखा और दूसरी देवरिया-कुशीनगर क्षेत्र की कसया शाखा।

राजपुत्र की दसवीं पीढ़ी में सोढ़देव सरयूपार की कलचुरी शाखा का शासक हुआ, जिसका 1077 ई. का कहला लेख मिला है। सोढ़देव सरयूपार की कलचुरी शाखा का अंतिम शासक था, जिसने गोंडा, बहराइच से लेकर देवरिया और कुशीनगर तक के क्षेत्रों पर शासन किया। जब कन्नौज के गहड़वालों ने वाराणसी और प्रयाग से लेकर अयोध्या तक के क्षेत्रों को जीत लिया, तो सरयूपार की कलचुरी शाखाएँ भी समाप्त हो गईं।

विस्तृत अध्ययन के लिए देखें-सरयूपार के कलचुरी

त्रिपुरी के कलचुरी (675-1212 ई.)

कलचुरियों की अनेक शाखाओं में त्रिपुरी की कलचुरी शाखा भारत के इतिहास में सबसे महत्त्वपूर्ण है। इस राजवंश की राजधानी त्रिपुरी थी, जिसकी पहचान मध्य प्रदेश के जबलपुर के निकट तेवर गाँव से की जाती है।

महिष्मती के कलचुरियों के पतन और संभवतः विस्थापन के बाद 7वीं शताब्दी के अंत में वामराजदेव ने कालिंजर को जीतकर पहले कालिंजर और फिर त्रिपुरी (तेवर, जबलपुर) को अपनी राजधानी बनाया। लेकिन त्रिपुरी की कलचुरी शाखा का संस्थापक कोकल्ल प्रथम (845-885 ई.) था। डाहल या चेदि क्षेत्र पर शासन के कारण त्रिपुरी के कलचुरियों को डाहल के कलचुरी और चैद्य (चेदि देश के स्वामी) आदि नाम से भी जाना जाता है।

त्रिपुरी के कलचर शासकों ने गुर्जर-प्रतिहारों, राष्ट्रकूटों, चंदेलों, कल्याणी के चालुक्यों, गुजरात के चौलुक्यों, मालवा के परमारों और गौड़ तथा उत्कल के समकालीन राजवंशों के साथ युद्ध, वैवाहिक संबंध और सैनिक गठबंधन करके कलचुरी क्षेत्र का विस्तार किया।

1030 के दशक में, कलचुरी राजा गांगेयदेव (1015-1041 ई.) ने अपनी पूर्वी और उत्तरी सीमाओं का विस्तार कर विक्रमादित्य, महाराजाधिराज और त्रिकलिंगाधिपति की उपाधि धारण की। उसके पुत्र लक्ष्मीकर्ण (1041-1073 ई.) के शासनकाल में कलचुरी राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा, जिसने कई पड़ोसी राज्यों के विरुद्ध सफल सैनिक अभियानों के बाद चक्रवर्ती की उपाधि धारण की। उसने कुछ समय के लिए मालवा और बुंदेलखंड के कुछ क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया।

लक्ष्मीकर्ण के बाद कलचुरी राजवंश धीरे-धीरे पतन की ओर अग्रसर हुआ। इस राजवंश के अंतिम ज्ञात शासक त्रैलोक्यमल्ल (1210-1212 ई.) ने कम से कम 1212 ईस्वी तक शासन किया। इसके बाद, कलचुरी क्षेत्र मालवा और बुंदेलखंड के नियंत्रण में चले गये और अंततः दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गये।

विस्तृत अध्ययन के लिए देखें-त्रिपुरी का कलचुरी राजवंश

छत्तीसगढ़ के कलचुरी (1000-1850 ई.)

छत्तीसगढ़ में कलचुरी शाखा का संस्थापक कोकल्ल द्वितीय का पुत्र कलिंगराज था, जिसने 11वीं शताब्दी में तुम्माण (तुमान) को अपनी राजधानी बनाकर शासन किया। बाद में, राजा रतनदेव प्रथम ने रतनपुर की स्थापना कर उसे कलचुरियों की राजधानी बनाया। कलचुरियों की इस शाखा ने 18वीं शताब्दी के मध्य तक शासन किया।

रघुनाथसिंह रतनपुर शाखा के अंतिम स्वतंत्र शासक थे। उनके शासनकाल में नागपुर के भोंसले शासक के सेनापति भास्कर पंत ने 1741 ई. में छत्तीसगढ़ के रतनपुर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। उसने रघुनाथसिंह को भोंसले का प्रतिनिधि नियुक्त कर रतनपुर का शासन सौंप दिया।

भोंसले शासक रघुजी प्रथम ने 1745 ई. में रघुनाथसिंह को पराजित कर पदच्युत कर दिया और मोहनसिंह (1745-1757 ई.) को रतनपुर की गद्दी पर बिठाया, जो 1757 ई. तक भोंसले की अधीनता में रतनपुर के राजा बने रहे।

1758 ई. में जब भोंसले राजकुमार बिम्बाजी ने छत्तीसगढ़ में अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया, तो हैहयवंशी कलचुरियों की सत्ता का भी अंत हो गया।

14वीं शताब्दी के अंत में रतनपुर के कलचुरियों के ही एक वंशज ने रायपुर की कलचुरी शाखा की स्थापना की, जो इतिहास में ‘लहुरी शाखा’ के नाम से प्रसिद्ध है।

यद्यपि इस शाखा की स्थापना लक्ष्मीदेव के पुत्र सिंहण के समय में हुई थी, लेकिन इस शाखा के संस्थापक केशवदेव (1420-1438 ई.) माने जाते हैं। रायपुर शाखा के अंतिम स्वतंत्र शासक अमरसिंह (1741-1753 ई.) थे। मराठों ने बिना किसी विरोध के 1753 ई. में अमरसिंहदेव को राज्यच्युत कर दिया और रायपुर की गद्दी छीन ली।

अमरसिंह के बाद उनके पुत्र शिवराजसिंहदेव (1753-1757 ई.) को जीवन-यापन करने के लिए बड़गाँव और कुछ कर (टिकोली) वसूल करने के अधिकार दिये गये, लेकिन जब शिवराजसिंह से बड़गाँव छीन लिया गया तो छत्तीसगढ़ से हैकयवंशी कलचुरियों की सत्ता समाप्त हो गई।

विस्तृत अध्ययन के लिए देखें-छत्तीसगढ़ के कलचुरियों का इतिहास

कल्याणी के कलचुरी (10वीं-12वीं शताब्दी)

दक्कन क्षेत्र, विशेष रूप से कर्नाटक में, 1156 से 1181 ई. तक एक अन्य कलचुरी वंश का शासन रहा, जिसकी राजधानी कल्याणी (बसवकल्याण, बीदर, कर्नाटक) थी। इस वंश को ‘दक्षिणी कलचुरी’ के नाम से भी जाना जाता है। कल्याणी के कलचुरियों का प्रारंभिक शासक जोगम था, जिसने 10वीं शताब्दी के अंत में मंगलवेढ़े को राजधानी बनाकर अपनी स्वतंत्रता सत्ता की स्थापना की।

बाद में, दक्षिण के कलचुरियों ने कल्याणी को राजधानी बनाया। इस शाखा का सबसे प्रसिद्ध शासक बिज्जल द्वितीय था, जिसके शासनकाल में बसव के नेतृत्व में वीरशैव (लिंगायत) संप्रदाय का उदय हुआ।  अंततः आंतरिक कलह, दुर्बल नेतृत्व और चालुक्यों तथा चोलों के आक्रमण के कारण 12वीं शताब्दी में इस शाखा का पतन हो गया। विस्तृत अध्ययन के लिए देखें- कल्याणी के कलचुरी

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