उत्तर वैदिक संस्कृति (Post-Vedic Culture 1000–500 BC)

उत्तर वैदिक संस्कृति

ऋक्-संहिता से इतर संहिता ग्रंथों, ब्राह्मणों, आरण्यकों, उपनिषदों का रचनाकाल लगभग ई.पू. 1000 से 500 ई.पू. माना जाता है। उत्तर वैदिककालीन साहित्य के अनुशीलन से स्पष्ट है कि सप्तसैंधव प्रदेश से पूरब की ओर बढ़ते हुए आर्यों ने यमुना, गंगा एवं सदानीरा (गंडक) नदियों के मैदानों को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। गंगा-यमुना दोआब एवं उसके आसपास का क्षेत्र ब्रह्मर्षि देश कहलाता था। इसके बाद यहीं से आर्य संस्कृति पूर्व की ओर प्रस्थान कर कोशल, काशी एवं विदेह (उत्तरी बिहार) तक फैली। अब सभ्यता का केंद्र हिमाचल और विंध्याचल के बीच का मध्यदेश (आर्यावर्त्त) हो गया। इस काल में आर्यों का विस्तार अधिक क्षेत्र पर इसलिए हुआ क्योंकि अब वे लोहे के हथियार एवं अश्वचालित रथ का उपयोग करने लगे थे।

शतपथ ब्राह्मण से पता चलता है कि विदेध माधव ने वैश्वानर अग्नि को मुख में धारण किया था। घृत का नाम लेकर ही वह अग्नि माधव के मुँह से निकल कर पृथ्वी पर जा पहुँचा। उस समय विदेध माधव सरस्वती के तट पर निवास करते थे। वह अग्नि सब कुछ जलाता हुआ पूरब दिशा की ओर आगे बढ़ा और उसके पीछे-पीछे विदेध माधव तथा उसका पुरोहित गौतम राहुगण चला। वह नदियों को जलाता गया, किंतु वह सदानीरा नदी को नहीं जला पाया जो उत्तरगिरि (हिमालय) से बहती थी। मगध और अंग प्रदेश आर्य क्षेत्र से बाहर थे और इस प्रकार दक्षिणी बिहार ‘असनातनी संप्रदायों’ का प्रवृत्ति-केंद्र था। विंध्य प्रदेश को उत्तर वैदिककालीन साहित्य पर आधारित भौगोलिक पृष्ठभूमि की दक्षिणी सीमा माना जा सकता है। संभवतः दक्षिण में आंध्र, शबर, पुलिंद आदि जातियों की सत्ता बनी हुई थी, जो वैदिक सभ्यता से दूर थीं।

पुरातात्त्विक प्रमाण

उत्तर वैदिककालीन साहित्य की पुरातात्विक पुष्टि के लिए अपेक्षाकृत अधिक प्रमाण उपलब्ध हैं। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश से प्राप्त होनेवाले चित्रित धूसर मृद्भांड (पी.जी. डब्लू.) तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार में केन्द्रित उत्तरी काली पालिशवाले मृद्भांडों की संस्कृतियाँ अपने भौगोलिक विस्तार और तिथिक्रम में उत्तर वैदिककालीन संस्कृति का अवशेष हैं जो अपेक्षाकृत अधिक स्थायी जीवन की ओर संकेत करती हैं।

उत्तर वैदिक संस्कृति (Post-Vedic Culture 1000–500 BC)
उत्तर वैदिककालीन पाॅलिशवाले मृद्भांड

प्रौद्योगिकी के विकास की दृष्टि से उत्तर वैदिक काल में ही उत्तरी भारत में लौह-तकनीक का आगमन हुआ और व्यवस्थित कृषि की शुरूआत हुई। लोहे के अर्थ में ‘श्याम अयस’ अथवा ‘कृष्ण अयस’ के अनेक उल्लेख उत्तर वैदिक साहित्य में मिलते हैं। गंधार, बलूचिस्तान, पूर्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश से 1000 ई.पू. में लोहे का प्रयोग किये जाने के प्रमाण मिले हैं। गंधार से कब्र में मृतकों के साथ लोहे के उपकरण मिले हैं।

यद्यपि कृषि में प्रयोग किये जानेवाले लोहे के विशिष्ट औजार नहीं मिले हैं, किंतु हस्तिनापुर, आलमगीरपुर, अतरंजीखेड़ा, बटेसर आदि स्थलों से लोहे के बाणाग्र तथा भाले के अग्रभाग जैसे कुछ युद्धास्त्र पाये गये हैं। अतरंजीखेड़ा से ही एक दरांती (हँसिया) और नोह से लोहे की एक कुल्हाड़ी मिली है। इसके अलावा चाकू, चिमटे, पिन, कीलें जैसी वस्तुएँ भी मिली हैं, किंतु हल के फाल लगभग अनुपस्थित हैं। केवल अतरंजीखेड़ा से हल का फाल मिला है, किंतु यह चित्रित धूसर मृद्भांड काल के अंत का बताया जाता है। हरियाणा के कुरुक्षेत्र के निकट भगवानपुरा से एक पकी ईंटों का तेरह कक्षीय भवन प्रकाश में आया है। इससे लगता है कि इस काल में लोग गंगाघाटी में स्थायी रूप से बस गये थे और समृद्ध ग्रामीण जीवन व्यतीत करने लगे थे।

इस प्रकार उत्तर वैदिक काल में अधीनस्थ श्रम और खाद्य-उत्पादन की परिष्कृत तकनीकों के साथ आर्य जनजातियाँ पूरब की ओर बढ़ते हुए दोआब क्षेत्र में नई स्थायी बस्तियाँ बसाने लगी थीं। इस संस्कृति का आधार लोहा, व्यापक अश्वपालन, हल-कृषि का विस्तार और पूर्ववर्ती काल की अपेक्षा अधिक परिष्कृत अर्थव्यवस्था थी।

उत्तर वैदिक संस्कृति के प्रमुख तत्त्व

दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. के अंतिम चरण में दोआब या पश्चिमी गांगेय मैदान में आदिम कृषकों की छोटी-छोटी बस्तियों के स्थान पर अधिक उन्नत कृषकों की बड़ी-बड़ी बस्तियाँ स्थापित हो गईं, जिन्होंने प्रथम सहस्राब्दी ई.पू. के पूर्वार्द्ध तक धीरे-धीरे लौह-प्रौद्योगिकी अपना ली। उससे और पूरब की ओर मध्य गांगेय मैदान और दक्षिण बिहार में लौह-प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को स्पष्टतया एक अलग प्रकार के जनसमूह (कृष्ण-लाल-मृद्भांड संस्कृति) से बल मिला।

क्षेत्रीय जनपदों का उदय

उत्तर वैदिक काल में कबायली संगठन में दरार पड़ गई थी जिसके कारण छोटे कबीले एक दूसरे में विलीन होकर बड़े क्षेत्रागत जनपदों कोरूप ले रहे थे। इसी काल में पुरु और भरत कबीला मिलकर कुरु तथा तुर्वश और क्रिवि कबीला मिलकर पंचाल (पांचाल) कहलाये। इन कुरु और पांचालों का आधिपत्य दिल्ली एवं दोआब के मध्य एवं ऊपरी भागों तक था। अनेकों ब्राह्मण ग्रंथों में कुरु-पांचाल युग्म का भी उल्लेख मिलता है। वस्तुतः उत्तर वैदिक कालीन राजनीतिक गतिविधियों में कुरु-पांचाल और इनके जैसे बड़े जनपदों का ही बोलबाला था। शतपथ ब्राह्मण में इन्हें वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कहा गया है। संभवतः इस प्रक्रिया में लौह-तकनीक की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी क्योंकि अतरंजीखेड़ा, हस्तिनापुर, आलमगीरपुर, नोह, बटेसर आदि स्थान कुरु-पांचाल प्रदेश में ही पड़ते हैं जहाँ से बरछी-शीर्ष एवं बाणाग्र जैसी अधिकांश लौह-वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं।

उत्तर वैदिक साहित्य में कुरु-पांचाल के अनेक शासकों द्वारा अश्वमेध यज्ञ कराए जाने का उल्लेख मिलता है, जिससे लगता है कि इन राज्यों की सैन्य-शक्ति इनके विकास का प्रमुख कारक थी। ऐतरेय एवं जैमिनीय ब्राह्मण में उल्लिखित है कि विदर्भ, पुंड एवं आदि राज्य भी आर्यों के अधीन आ चुके थे। उत्तर वैदिक ग्रंथों में त्रिककुद, कैज तथा मैनाम (हिमालय क्षेत्र में स्थित) पर्वतों का उल्लेख भी मिलता है।

राजनीतिक व्यवस्था

उत्तर वैदिक काल में पैतृक राजतंत्र और राष्ट्र की अवधारणा का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद के एक परिच्छेद में कहा गया है कि राजा राष्ट्र (क्षेत्र) का स्वामी होता है और राजा को वरुण, बृहस्पति, इंद्र तथा अग्नि देवता दृढ़ता प्रदान करते हैं। अथर्ववेद, तैत्तिरीय संहिता तथा शतपथ ब्राह्मण में क्रमशः कहा गया है कि कर्मकांड को पूर्णरूपेण संपन्न कर राजा राष्ट्र प्राप्त करता है तथा राजा राष्ट्रभृत अर्थात् साम्राज्य का पोषक है। शतपथ ब्राह्मण में ही दुष्टरीतु पौंसायन का प्रसिद्ध उदाहरण है, जिससे पता चलता है कि वह सृंजयों में राजतंत्र की दसवीं पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता था और इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण में ‘दश-पुरुषं राज्यं’ का वर्णन है। राजा का पद बहुत बड़ी सीमा तक धार्मिक अनुमोदन पर टिका हुआ था, जैसाकि उर्वरता और समृद्धि के साथ राजपद के संबंधित होने से स्पष्ट होता है।

शतपथ ब्राह्मण में राजा के निर्वाचन की चर्चा है और ऐसे राजा विशपति कहलाते थे। अथर्ववेद में भी प्रजा द्वारा राजा के चुनाव की स्वीकृति को आवश्यक बताया गया है। संभवतः राजा का चुनाव पहले जनता (विश) द्वारा होता था, जो अंततः वंशानुगत हो गया। उत्तर वैदिक साहित्य में ही राजा के दैवी उत्पत्ति के सिद्धांत की चर्चा मिलती है। शतपथ ब्राह्मण से पता चलता है कि राजा का राज्याभिषेक होता था और इस अवसर पर राजसूय यज्ञ के आयोजन की परंपरा थी। राजसूय यज्ञ के अवसर पर राजा राज्य के तेरह रत्नियों (अधिकारियों) के घर जाकर उनका समर्थन एवं सहयोग प्राप्त करता था। शतपथ ब्राह्मण में भरतों के दो राजाओं भरत दौषयंति और शतनिक सत्राजित द्वारा अश्वमेघ यज्ञ कराने का उल्लेख है।

ऋग्वेद काल की अपेक्षा इस काल में राजा के अधिकार में कुछ बढ़ोत्तरी हुई। अब उसे बड़ी-बड़ी उपाधियाँ मिलने लगीं, जैसे- अधिराज, राजाधिराज, सम्राट, एकराट्। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार प्राच्य (पूर्व) का शासक सम्राट की उपाधि धारण करते थे, पश्चिम के स्वराट, उत्तर के विराट्, दक्षिण के भोज तथा मध्य देश के राजा होते थे। अथर्ववेद में कहा गया है कि समुद्र-पर्यंत पृथ्वी का शासक एकराट् होता है

कृषि के विकास ने राजा के लिए शक्ति के एक अलग किस्म के आधार को बढ़ावा दिया जिसमें क्षेत्र की अवधारणा ने परिवर्तित होकर भूमि पर स्वामित्त्व कोरूप ले लिया। प्रदेश का संकेत करने वाला शब्द ‘राष्ट्र’ सर्वप्रथम उत्तर वैदिक काल में ही प्रयोग किया गया। शतपथ ब्राह्मण में उस राज्य के लिए ‘राष्ट्री’ शब्द का प्रयोग किया गया है जो निरंकुशतापूर्वक जनता की संपत्ति का उपभोग करता था।

उत्तर वैदिक काल में ‘कर’ इकट्ठा करने की प्रथा आरंभ हो चुकी थी। संभवतः प्रारंभ में यह स्वेच्छा से दी जानेवाली भेंट थी और लोग ‘क्षत्र’ अथवा राजसत्ता के निमित्त पहले ही से एक मुख्य भाग अलग कर देते थे। इस काल के अंतिम चरण में यह ‘बलि’ अनिवार्य ‘कर’ में बदल गई। मुद्रा प्रणाली का आविर्भाव अभी तक नहीं हुआ था, इसलिए बलि, शुल्क आदि जो राजा को दिये जाते थे, वे वस्तुओं के रूप में ही रहे होगे। ‘कर’ सामान्य जनों (विश अथवा कृषकों) से ही लिया जाता था। कहा गया है कि मनुष्यों में वैश्य तथा पशुओं में गाय का दूसरों के हितार्थ उपयोग किया जाता है। तैत्तिरीय संहिता के अनुसार राज्य भक्षक है तथा लोग भक्ष्य हैं, राज्य हरिण है, तो लोग जौ हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में राजा को ‘विशमत्ता’ अर्थात् उत्पादक वर्गों का भक्षक बताया गया है। उन कृषकों अथवा ‘विश’ की तीव्र भर्त्सना की जाती थी जो राजा को तुच्छ समझते थे, उसकी आज्ञा का पालन नहीं करते थे तथा विद्रोह करते थे।

कृषकों पर क्षत्रियों का प्रभुत्त्व स्थापित करने के लिए ब्राह्मणों ने अनुष्ठानों की क्रिया-विधि का विकास किया। ब्राह्मण तथा राजन्य (क्षत्रिय) ‘कर’ से मुक्त थे। यही नहीं, ब्राह्मण से शुल्क लेनेवाले राज्य की अत्यंत कड़े शब्दों में निंदा भी की गई है। यद्यपि अन्य दो वर्णों की तुलना में वैश्य अधिक थे, किंतु सैन्य-श्रेष्ठता और आनुष्ठानिक समर्थन के कारण अभिजात वर्ग प्रबल था।

कृषकों से प्राप्त करों और भेंटों में मुख्यतः राजन्यों (क्षत्रियों) तथा ब्राह्मणों की ही भागीदारी होती थी। इस प्रकार ब्राह्मण ग्रंथ वैदिक काल के अंतिम चरण में उत्पन्न दस्तकारों तथा चरवाहों सहित कृषक वर्ग एवं योद्धा-राजाओं के पारस्परिक संबंधों के वास्तविक स्वभाव को प्रकट करते हैं।

प्रजा के अनुकूल न होने या अत्याचारी होने पर प्रजा राजा को पदच्युत् कर सकती थी। तैतरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण में प्रजा द्वारा राजा को निष्कासित करने का प्रमाण मिलता है। सृजंयों ने दुष्ट ऋतु से पौषायन को निष्कासित कर दिया था। ताण्ड्य ब्राह्मण में प्रजा के द्वारा राजा के विनाश के लिए एक विशेष यज्ञ किये जाने का उल्लेख है। सभा और समिति जैसी संस्थाएँ राजा की निरंकुशता पर अंकुश लगाती थीं।

अथर्ववेद में सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है। राजा को इन दोनों संस्थाओं के आदेशों का पालन करना पड़ता था। सभा इतना महत्त्वपूर्ण थी कि प्रजापति स्वयं सभा के बिना कार्य करने में असमर्थ थे। सभासद और सभापति शब्द का प्रयोग वाजसनेयी एवं अथर्ववेद में मिलता है।

स्थायी सेना की अवधारणा

उत्तर वैदिक काल में भावी स्थायी सेना की अवधारणा के बीज भी सीमित रूप से दृष्टिगोचर होते हैं क्योंकि वह सजातीयता के नियम पर आधारित थी। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि कुरु नरेश सदा तैयार 64 योद्धाओं से घिरा रहता है जो उसके पुत्र एवं पौत्र हैं। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि पांचाल नरेश शोण सात्रसाह द्वारा अश्वमेध यज्ञ संपन्न कराये जाते समय 6,033 बख्तरबंद योद्धा तैयार रहते थे। निश्चित एवं नियमित करारोपण के अभाव में किसी प्रकार की केंद्रीय सेना का विकास संभव नहीं था।

रत्निन् या ‘वीर

राजकीय कार्यों के सफल निष्पादन और राजा की सहायता के लिए ‘रत्नि’ (रत्निन्) या ‘वीर’ नामक पदाधिकरियों का एक वर्ग था जिसमें ब्राह्मण (राजपुरोहित), राजन्य (राजपुत्र ), बवाता (राजमहिषी), परिवृत्ती (राजा की उपेक्षित प्रथम पत्नी), सेनानी (सेना का नायक), सूत (सारथी), ग्रामणी (ग्राम प्रधान), क्षत्र (रक्षक), संगहीता (कोषाध्यक्ष), भाग्दुध (कर संग्रहकर्ता), अक्षवाप (जुए का अध्यक्ष), गोविकर्तन (आखेटक) और पालागल (संदेशवाहक) थे।

सेना का प्रबंध सेनानी नामक पदाधिकारी करता था। रथपति राज्य के भाग-विशेष का शासक होता था जो प्रशासन और न्याय दोनों प्रकार के कर्त्तव्यों का निर्वाह करता था। पुलिस के अधिकारी ‘उग्र’, अथवा ‘जीवग्रम’ कहे जाते थे। गुप्तचर का कार्य करनेवाले दूत या प्रहित कहलाते थे।

इस काल में न्यायिक कार्य राजा के अधीन होते थे। स्थानीय स्तर पर पंचायतें ग्रामों के न्याय-संबंधी कार्य देखती थीं। तैतरीय संहिता में ‘ग्राम्यवादिन’ को गाँव का न्यायाधीश बताया गया है। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ‘ग्राम’ थी और सौ ग्रामों के लिए एक प्रमुख ‘शतिपति’ होता था। सीमांत प्रदेशों का शासक ‘रथपति’ कहलाता था। इसके अलावा आर्यों द्वारा पराजित आदिवासी क्षेत्रों के प्रमुख ‘निषाद रथपति’ कहे जाते थे।

आर्थिक जीवन

ऋग्वेद के मध्य भागों में वर्णित समाज जहाँ मूलतः पशुचारी था, वहीं उत्तर वैदिक काल में कृषि लोगों कोएक मुख्य व्यवसाय बन चुकी थी। यद्यपि अथर्ववेद में मवेशियों की वृद्धि के लिए अनेक प्रार्थनाएँ हैं, किंतु इस काल में कृषि ही लोगों का प्रमुख धंधा था। अथर्ववेद में उल्लेख है कि सर्वप्रथम पृथुवेन्य ने ही कृषि कार्य किया था। तैतरीय उपनिषद् के अनुसार अन्न का उपार्जन ही हमारा व्रत होना चाहिए (अन्नं बहुकुर्वीत तद व्रतम्)। शतपथ ब्राह्मण में खेत की जुताई के लिए कर्षण, बुआई के लिए वपन, कटाई के लिए कर्तन तथा मड़ाई के लिए ‘मर्दन’ का उल्लेख मिलता है।

शतपथ ब्राह्मण व तैतरीय संहिता में ऋतु के अनुसार फसलों को बोने एवं काटने का उल्लेख है। उत्तर वैदिक साहित्य में चार, छह, आठ, बारह और यहाँ तक कि चौबीस बैलों द्वारा खींचे जानेवाले हलों का वर्णन है। उत्पादन का मुख्य उपकरण लकड़ी का बना हल का फाल था, किंतु लोगों को धातुओं का तुलनात्मक रूप से अच्छा ज्ञान हो चला था। ‘खदिर’ अथवा ‘खैर’ के हल के फाल से प्रार्थना की जाती थी कि वह लोगों को गाय, बकरी, बच्चा तथा अनाज प्रदान करें। शतपथ ब्राह्मण में खदिर को बहुत कठोर कहा गया है तथा इसकी तुलना हड्डियों से की गई है। किंतु कुछ उत्तर वैदिक ग्रंथों में ‘प्रवीरवंत’ तथा ‘पवीरव’ (धातु की चोंचवाला फाल) का भी उल्लेख है, जिसकी व्याख्या बल्लम के समान धातु के फाल से युक्त हल के रूप में की गई है। अतरंजीखेड़ा से उत्खनन में दात्र (दरांती) के कुछ अवशेष मिले हैं।

उत्तर वैदिक ग्रंथ तथा चित्रित धूसर मृद्भांड दोनों ही धान तथा अन्य अनेक अनाजों की खेती का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। छांदोग्य उपनिषद् में अन्न के महत्त्व पर जोर दिया गया है। इस काल के लोगों को जौ, चावल (ब्रीहि), उड़द (माष) तथा तिल का ज्ञान था (ब्रहिमत्वम् यवमथो माशवथो तिलम्)। बाजरे (श्यामाक) का भी उल्लेख मिलता है। उत्तर वैदिक ग्रंथों में साठ दिनों में पकनेवाली धान की फसल का नाम ‘षष्टिक’ प्राप्त होता है। यह एक प्रकार का साधारण मोटा चावल है और साठी के नाम से संपूर्ण उत्तरी भारत में आज भी प्रचलित है।

यही नहीं, यजुर्वेद में पाँच प्रकार के चावल का उल्लेख है- महाव्रीहि, कृष्णव्रीहि, शुक्लव्रीही, आशुधान्य और हायन। अतरंजीखेड़ा से जौ, चावल और गेहूँ के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। हस्तिनापुर से चावल तथा जंगली किस्म के गन्ने के अवशेष मिले हैं।

प्राकृतिक गोबर खाद का प्रयोग, खेतों की सिंचाई और ऋतुओं के ज्ञान का कृषि-प्रक्रिया में उपयोग तत्त्कालीन विकसित कृषि-प्रणाली का सूचक है। अथर्ववेद में ‘कृषिदासियों’ का उल्लेख मिलता है, इसी ग्रंथ में सिंचाई के लिए नहर खोदने तथा टिड्डियों द्वारा फसल नष्ट होने की सूचना भी है श्रमिक वर्ग के अंतर्गत भूसी साफ करनेवाले को ‘उपप्रक्षणी’ कहा जाता था। भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व शुरू हो गया था जिसके लिए वैदिक संहिताओं में उर्वरासा, उर्वरापत्ति, क्षेत्रसा और क्षेत्रपति जैसे शब्द मिलते हैं।

खिल्य’ भूमि की माप इकाई थी। मवेशियों का महत्त्व अभी भी बना हुआ था। पशुओं के कानों पर स्वामित्व के चिन्ह लगाये जाते थे। गाय को ‘अवटकर्णी’ कहा जाता था। इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि कृषक अपने भरण-पोषण की आवश्यकता से अधिक उत्पादन करते थे जिसके परिणामस्वरूप वे पुरोहितों एवं कर्मचारियों सहित राजाओं जैसी उत्पादन से असंबद्ध इकाइयों का भी भरण-पोषण कर सकते थे, जो ऋग्वेद के पशुचारी समाज में संभव नहीं था।

कृषि के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के शिल्पों एवं व्यवसायों का उदय भी उत्तर वैदिककालीन अर्थव्यवस्था की अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता है। लौह-प्रौद्योगिकी के ज्ञान ने तो उत्तर वैदिक कालीन भौतिक जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया। वाजसनेयी संहिता में सोना (हिरण्य), ताँबा (लोहा), सीसा आदि का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद से पता चलता है कि ताँबे का प्रयोग गेंद बनाने में किया जाता था। वाजसनेयी संहिता एवं पुरुषमेघ के विवेचन में महुआ, सारथी, व्याघ्र, गड़ेरिया, धीवर, मणिकार, रस्सी बाँटनेवाले, टोकरी बुननेवाले, धोबी, लुहार, नाई, रंगसाज, जुलाहे, खटिक, धातु शोधक, रथकार, बढ़ई, चर्मकार, स्वर्णकार, कुम्हार, व्यापारी आदि व्यवसायों का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण में पेशेवर नट तथा बांसुरी बजानेवाले का उल्लेख मिलता है। स्त्रियाँ रंगाई और सुई से कसीदाकारी करती थीं। नाव बनाने का उद्योग भी प्रचलित था क्योंकि वाजसनेयी में सौ पतवारोंवाली नाव का उल्लेख मिलता है।

ब्राह्मण ग्रंथों में वणिकों एवं व्यापारियों के संगठन का उल्लेख भी मिलता है जिनका प्रमुख ‘श्रेष्ठी’ कहलाता था। नियमित मुद्रा के प्रचलन का साक्ष्य नहीं मिलता है, किंतु निष्क, अष्टप्रद, शतमान् आदि का उल्लेख कदाचित् मुद्रा के अर्थ में किया गया है। तैत्तिरीय संहिता में ऋण के लिए ‘कुसीद’ शब्द तथा शतपथ ब्राह्मण में उधार देनेवाले को कुसीदिन् कहा गया है।

व्यवस्थित कृषक जीवन के कारण संपत्ति एवं दान की अवधारणा में भी परिवर्तन परिलक्षित होता है। मुख्यतः भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति हेतु तथा कुछ सीमा तक स्वर्ग प्राप्त करने के निमित्त कृषकां के साथ सामान्य जनों को भी कर्मकांड की परिधि में लाने की कोशिश की गई ताकि अधिक दक्षिणा की उगाही की जा सके। मवेशियों और घोड़ों के साथ दासियों, रथों और स्वर्ण से आगे बढ़कर आर्थिक मूल्य की वस्तु के रूप में भूमि को भी संपत्ति में शामिल कर लिया गया और ब्राह्मणों के निमित्त गाय, बछड़े, बैल, स्वर्ण, पका हुआ चावल, झोंपड़ियाँं तथा भली प्रकार बनाये गये व जुते हुए खेत के भेंट की अनुशंसा की गई।

इष्ट’ और ‘पूर्त

दान-विनिमय के लिए ‘इष्ट’ और ‘पूर्त’ के बीच भेद पर बल दिया गया है। पूर्त-दान में कुएं, तालाब, मंदिर, बगीचे और भूमि का दान किया जाता है। जहाँ इष्ट का संपादन कर्मकांडी दृष्टि से शुद्ध व्यक्ति ही कर सकता था, वहीं पूर्त-दान, जो आर्थिक दृष्टि से अधिक प्रभावकारी और विशेषरूप से ब्राह्मणों के लिए मंगलकारी था, का संपादन शूद्र भी कर सकते थे। इस प्रकार एक ओर राजन्यों ने ‘विश’ अथवा कृषकों से गैर-धिर्मक भेंट अथवा कर प्राप्त करने का एकाधिकार प्राप्त कर लिया था, तो दूसरी ओर राजाओं, अभिजातों तथा कृषकों से प्राप्त आनुष्ठानिक भेंटों पर ब्राह्मणों का एकाधिकार स्थापित हो गया था।

सामाजिक संरचना

उत्पादन व्यवस्था का प्रभाव

उत्तर वैदिककालीन जटिल उत्पादन व्यवस्था ने धीरे-धीरे सामाजिक व्यवस्था एवं उसकी संरचना को प्रभावित किया। समुदाय के अधिकतर लोग अब तक कृषक में तब्दील हो चुके थे। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच विभाजन का एक भौतिक आधार पशुपालन के ही दौर से मौजूद था। ऋग्वेद की दान-स्तुतियों में जो दो समूह एक-दूसरे को प्रतिष्ठा-पद देते हैं, वे ब्राह्मण और राजन्य-क्षत्रिय ही हैं। ब्राह्मण, राजन्य की ओर से देवताओं से प्रार्थना करता है और उसके लिए युद्ध तथा गो-हरण में सफलता सुनिश्चित करता है और यह सफलता राजन्य को शक्ति और राजनीतिक प्रतिष्ठा से संपन्न करती है। उधर राजन्य, ब्राह्मणों को संपत्ति प्रदान करते हैं और उन्हें आय का एक प्रमुख स्रोत उपलब्ध कराते हैं।

वर्ण-व्यवस्था

उत्तर वैदिक समाज स्पष्टतः वर्ण-व्यवस्था पर आधारित था। इनमें ब्राह्मण धर्म और धार्मिक अनुष्ठानों का प्रतिष्ठापक (सामान्य रूप में बुद्धि व्यवसायी) था, क्षत्रिय, योद्धा और शासक थे, वैश्य का धंधा कृषि और पशुपालन था। उत्पादन के अपने नियमित कर्तव्य के अतिरिक्त वैश्यों को सैनिक सेवाएं भी देनी पड़ती थीं। विश् का संबंध सेना से भी था और बल की तादात्म्यता विश् से की जाती थी। शूद्र उक्त तीनों उच्च वर्णों के सामूहिक दास थे। इस सामाजिक संरचना में वर्णों का विभाजन इस प्र्रकार किया गया था कि ब्राह्मण एवं क्षत्रिय अनुत्पादी होते हुए भी विशेषाधिकार संपन्न थे, क्योंकि वे ही उत्पादन के नियंत्रणकर्त्ता थे। वैश्य एवं शूद्र निम्न वर्ग के थे और वे उत्पादन के लिए उत्तरदायी थे। ऐसा विभाजन आदर्श के लिए उत्तम हो सकता था, किंतु यथार्थ में क्षत्रिय, ब्राह्मणों के अधिक निकट थे और शूद्र, वैश्यों के अथवा वैश्य, शूद्रों के। शूद्रों की स्थिति सबसे दयनीय थी, सभी ऊँचे वर्णों की सेवा करना उनका कर्तव्य तो था ही, राजा अपनी इच्छानुसार उन्हें आतंकित कर सकता था और पीट भी सकता था। इस प्रकार प्राचीन भारतीय समाज का चार वर्णों में विभाजन भारतीय दास-प्रथा का एक विशिष्ट रूप था। वस्तुतः प्राचीन भारत में चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का उद्भव एवं विकास शूद्रों और वैश्यों पर ब्राह्मण-क्षत्रिय प्रभुत्त्व-वर्चस्व का सैद्धांतिक आधार था।

उत्तर वैदिक कालीन सामाजिक जीवन के अन्य पहलुओं में ‘कुल’ का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है जो ऋग्वेद में नहीं मिलता है। यद्यपि एक पत्नी विवाह की मान्यता थी, किंतु बहुपत्नीविवाह का भी पर्याप्त प्रचलन था और पहली पत्नी को मुख्य पत्नी होने का विशेषाधिकार प्राप्त था। संभवतः प्राचीन काल में विवाह के लिए लड़कियों का क्रय-विक्रय होता था, किंतु इसे अच्छा नहीं माना जाता था। पितृप्रधान समाज में पुत्र-जन्म की कामना की जाती थी।

पुत्री को सभी दुःखों का स्रोत और पुत्र को परिवार का रक्षक बताया गया है। उपनिषदों में याज्ञवल्क्य-गार्गी संवाद से लगता है कि समाज में कुछ स्त्रियाँ उच्चतम् शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं, किंतु उसकी भी एक सीमा थी। संभवतः स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आई क्योंकि मैत्रायणी संहिता में उसे पासा और सुरा के साथ-साथ तीन प्रमुख प्रमुख बुराइयों में गिनाया गया है। स्त्रियों का उपयोग ऋण लेते समय बंधक के रूप में भी किया जाता था। एक स्थल पर नारद और विष्णु सुझाव देते हैं कि ‘स्त्रियों को गायों की भाँति उधार में दिया जा सकता है।’ ब्याज पर उधार में दिये जानेवाली वस्तुओं में स्वर्ण, अन्न और गायों के साथ स्त्रियों का भी उल्लेख आता है। यदि स्त्री को उधार लिया जाता था, तो स्वामी को वापस लौटाते समय उधार काल में उससे पैदा हुई एक संतान भी वापस देनी होती थी। स्त्रियों को संपत्ति में कोई भाग नहीं मिलता था, शूद्र स्त्रियों की दशा तो और भी अधिक शोचनीय थी। वशिष्ट धर्मसूत्र के अनुसार ‘काले वर्णोंवाली शूद्र नारी केवल आमोद-प्रमोद के लिए हैं, धार्मिक कृत्यों के लिए नहीं।’

धार्मिक अनुष्ठानों द्वारा ब्राह्मणों तथा राजन्यों का वैश्यों एवं शूद्रों पर प्रभुत्त्व दृढ़ हो गया था, किंतु राजाओं एवं पुरोहितों के संबंध भी सदैव मधुर नहीं थे। इस आपसी द्वंद्व की प्रतिध्वनियाँ उत्तर वैदिक ग्रंथों में उपलब्ध हैं। सुदास तथा उसके पुरोहित वशिष्ठ के मध्य द्वंद्व की सूचना मिलती है। शृंजय वैतहव्यस तथा उनके पुरोहित भृगुओं के मध्य युद्ध हुआ था जिसके परिणामस्वरूप शृंजय वैतहव्यस का नाश हो गया यज्ञ की दक्षिणा के ऊपर विवाद के कारण श्यपर्णो को उनके यजमान विश्वंतर सौशदमन् ने पौरोहित्य से अलग कर दिया, किंतु अंत में विवाद सुलझ गया। जनमेजय और उसके पुरोहित असित्मृगस् के मध्य भी विवाद की सूचना है। राजाओं और पुरोहितों के मध्य लंबे संघर्ष की जो परंपराएँ महाकाव्यों और पुराणों में उल्लिखित हैं, वे संभवतः उत्तर-वैदिक काल के संदर्भ में हैं। दूसरी ओर राजाओं का संरक्षण प्राप्त करने के लिए पुरोहितों के परिवारों के मध्य संघर्ष के उदाहरणों तथा तनावों के संकेतों का भी साहित्य में अभाव नहीं है।

वैदिक काल के अंतिम चरणों में जब सामाजिक अधिशेष को लेकर संघर्ष जोर पकड़ने लगा, तो शतपथ ब्राह्मण जैसे ग्रंथों में क्षत्रियों और ब्राह्मणों के मध्य एकता तथा सहयोग पर बल दिया जाने लगा। यद्यपि वैश्यों अथवा कृषकों के विरोध का उल्लेख नहीं मिलता, किंतु धार्मिक अनुष्ठानों एवं कर्मकांडों से लगता है कि धार्मिक अधिरचना का वर्चस्व विद्रोहों की संभावना को क्षीण बनाना था। संभवतः इसी प्रकार के विद्रोह को दबाने के लिए उपनिषदों में कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया। वस्तुतः कृषकों से ‘बलि’ और याज्ञिक दक्षिणा प्राप्त करने की निरंतर आवश्यकता तथा शूद्रों की सेवाओं की माँग ने दोनों उच्च सामाजिक वर्गों को एक साथ खड़ा कर दिया।

उत्तर वैदिक सामाजिक संरचना की तुलना एक सीमा तक यूनान और ईरान के आदिम समाजों की व्यवस्थाओं से की जा सकती है। ब्राह्मण वर्ग के उत्थान और विकास का श्रेय भारोपियों के प्राक्-आर्यों से सम्मिश्रण को दिया जाता है। प्राक्-चित्रित धूसर मृद्भांड संस्कृतियों तथा चित्रित धूसर मृद्भांड स्थलों, दोनों ही में कुछ याज्ञिक गढ्ढ़े प्राप्त हुए हैं। अतरंजीखेड़ा से पाये गये कुछ वृत्ताकर अग्निकुंड शायद इसी उद्देश्य के लिए थे। पुरुषमेध के संदर्भ में कोशांबी से एक यज्ञवेदी प्राप्त करने का दावा किया गया है। श्रावस्ती में कुछ बड़े गड्ढों में कुछ बहुत छोटे-छोटे मृद्भांड प्राप्त हुए थे। इससे लगता है कि अनुष्ठानों का प्राचीन प्रकार चित्रित धूसर मृद्भांड काल अर्थात् उत्तर वैदिक काल में भी चलता रहा।

धर्म और धार्मिक विश्वास

उत्तर वैदिक काल के लोगों की धार्मिक आस्थाएँ एवं गतिविधियाँ भी तत्कालीन भौतिक पृष्ठभूमि से प्रभावित थीं। इस युग में एक ओर तो ब्राह्मणों द्वारा प्रतिपादित एवं पोषित यज्ञ-अनुष्ठान एवं कर्मकांडीय व्यवस्था थी, तो दूसरी ओर इसके विरुद्ध उठाई गई उपनिषदों की आवाज।

इस काल में देश-काल एवं परिस्थिति के अनुसार उपासना के प्रकारों एवं देवी-देवताओं की श्रेणी में परिवर्तन हुआ। यद्यपि यज्ञादि का आभास ऋग्वेद में मिलता है, किंतु एक स्वतंत्र पंथ के रूप में यज्ञीय-कर्मकांडों का इसी युग में विकास हुआ। भोजन एकत्र करने के लिए आद्य एवं प्राक्-वर्णी समाज में संपन्न किये जानेवाले जादुई-कर्मकांडों का स्थान उत्तर वैदिक काल के वर्ण-विभाजित समाज में विशाल एवं रहस्यमय यज्ञीय-कर्मकांडों ने ले लिया। इसमें अनुत्त्पादी ब्राह्मण वर्ग ने अपनी धार्मिक श्रेष्ठता बनाये रखने के लिए तथा क्षत्रिय वर्ग ने अधिशेष हथियाने के लिए एक-दूसरे का सहयोग दिया।

उत्तर वैदिक साहित्य में अग्निष्टोम, दर्श और पूर्णमास, चातुर्मास्य, आग्रयण, निरुढ़-पशुवध, सौत्रामणि, पिंडपितृ, षोडसी, अतिरात्र, पुरुषमेध आदि विविध प्रकार के यज्ञों का उल्लेख मिलता है। पुरुषमेध में पुरुष बलि का विधान था (यदस्मिन् मेध्यान्पुरुषाना लभते तस्मादेव पुरुषमेधः)। इन कर्मकांडीय यज्ञों के समय ब्राह्मणों को गाय, सोना, वस्त्र आदि के साथ-साथ भूमि, तालाब, बाग दान दिया जाता था जो उनके लिए मंगलकारी सिद्ध हुआ।

राजनीतिक शक्ति के द्योतक कहे जानेवाले अश्वमेध, वाजपेय, राजसूय जैसे महत्त्वपूर्ण यज्ञों का उद्देश्य मूलतः कृषि-उत्पादन को बढ़ाना था। प्रायः सभी यज्ञों में किसी न किसी रूप में सम्भोग-क्रिया का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जो भूमि की उर्वरता एवं प्रजनन-शक्ति की प्रतीक थी। इस कर्मकांडीय व्यवस्था के माध्यम से ही क्षत्रियों को आर्य सभ्यता की सीमा पर रहनेवाले अनार्य-प्रमुखों के बीच अपना प्रभुत्व बढ़ाने का अवसर मिला। अथर्ववेद तथा पंचविंश ब्राह्मण से पता चलता है कि मगध के व्रात्य मुखिया को वैदिक समाज में प्रवेश देने के लिए विशाल कर्मकांड का आयोजन किया गया था। राजसूय यज्ञ के अवसर पर राजा जिन रत्निनों के घर जाता था, उनमें चार स्त्रियाँ होती थीं। इससे लगता है कि अनार्य जातियों के मातृकुलीय परंपराओं को भी महत्त्व दिया जाता था। इस प्रकार इन कर्मकांडों ने बृहत्तर समुदाय के संगठन में सहयोग दिया।

इस काल में ऋग्वैदिक देवता वरुण और इंद्र का महत्व कम हो गया और उनका स्थान प्रजापति, विष्णु एवं रुद्र-शिव जैसे देवताओं ने ले लिया। प्रजापति को सर्वश्रेष्ठ देव माना गया और उन्हें विश्व का निर्माता और नियामक बताया गया। कालांतर में प्रजापति को ब्रह्मा के नाम से अभिहित किया गया और उनके चतुर्मुखी स्वरूप की परिकल्पना की गई। रुद्र का विरुद अब शिव हो गया। शिव के संहारक स्वरूप का वर्णन अथर्ववेद में मिलता है। ऋग्वेदकालीन गौण देवता विष्णु इस काल के एक और महान् देव हो गये। इन तीनों देवताओं के संयुक्त रूप ‘त्रिमूर्ति’ (ब्रह्म, विष्णु, महेश) की उपासना आरंभ हुई। इनमें विष्णु सभी देवताओं से अधिक सम्माननीय और श्रेष्ठ थे।

ऋग्वैदिक काल में देवी-उपासना गौण थी, किंतु इस काल में देवी को शक्ति के रूप में परिकल्पित किया गया और दुर्गा एवं उनके विभिन्न रूपों का महिमा-मंडन किया गया। यद्यपि मिट्टी के कुछ खिलौने मिले हैं जिनपर पशुओं का अंकन है, किंतु साहित्यिक साक्ष्यों के अनुरूप पशु पूजा का कोई अवशेष नहीं मिला है। आर्य एवं अनार्य विचारधाराओं के सम्मिश्रण के परिणामस्वरूप उत्तर वैदिक धर्म में अनेक नवीन तत्त्वों का भी समावेश हुआ। भूत-प्रेत, जादू-टोना, इंद्रजाल, वशीकरण जैसे अंध-विश्वासों को धर्म में स्थान मिला। अप्सरा, गंधर्व, नाग आदि की देवरूप में कल्पना की गई। इसी समय पहली बार स्वर्ग और नरक की परिकल्पना की गई।

उत्तर वैदिक काल के धार्मिक जीवन की दूसरी धारा उपनिषदों के अद्वैत सिद्धांत में दृष्टिगोचर होती है। लगभग ई.पू. 600 के आसपास मुख्यतः अवैदिक विचारधारा के प्रभाव के कारण और अंशतः ब्राह्मणों के यज्ञीय कर्मकांडों के विरुद्ध उपनिषदों की रचना हुई। उपनिषदों में यज्ञादि-कर्मकांडों को ऐसी कमजोर नौका बताया गया जिसके द्वारा यह भवसागर पार नहीं किया जा सकता है। उपनिषदीय विचारकों ने मानव को जीवन के चक्र से मोक्ष दिलाने के लिए ज्ञान मार्ग का प्रतिपादन किया और जगत् के एकमात्रा तत्त्व ब्रह्मन् का मानव के सारभूत तत्त्व आत्मन् से एकीकरण कर दिया। ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘सर्वखल्विदं ब्रह्म’, ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्य इसी तादात्म्य के सूचक हैं। इस प्रकार ब्रह्मन् एवं आत्मन् के अद्वैत द्वारा कबायली जीवन के विघटन से उत्पन्न आध्यात्मिक अराजकता को जीतने का प्रयास किया गया।

इस प्रकार वैदिक एवं अवैदिक विचारधाराओं के सम्मिश्रण से निवृत्तिमार्गी प्रवृत्तियों का विकास हुआ और काया-क्लेश तथा संन्यास को भी एक जीवन-दर्शन के रूप में मान्यता मिली ब्राह्मण चिंतकों ने इसी निवृत्तिमार्गी विचारधारा को अपनी संस्कृति में स्थान देने के लिए मानव जीवन के लिए आश्रमों का विधान किया।

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