यूरोप में धर्मसुधार आंदोलन (The Reformation Movement in Europe)

धर्मसुधार आंदोलन यूरोपीय धर्मसुधार का ऐतिहासिक परिदृश्य 16वीं शताब्दी में यूरोप में धर्मसुधार आंदोलन एक […]

यूरोप में धर्मसुधार आंदोलन (The Reformation Movement in Europe)

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धर्मसुधार आंदोलन

यूरोपीय धर्मसुधार का ऐतिहासिक परिदृश्य

16वीं शताब्दी में यूरोप में धर्मसुधार आंदोलन एक ऐसी क्रांतिकारी घटना थी जिसने पश्चिमी यूरोप के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को स्थायी रूप से बदल दिया। यह आंदोलन न केवल रोमन कैथोलिक चर्च की सर्वोच्चता और प्रथाओं को चुनौती देने वाला था, बल्कि इसने राष्ट्रीयता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और तर्कवादी चिंतन को भी प्रोत्साहित किया। इसकी शुरुआत धार्मिक सुधार की माँग के रूप में हुई, लेकिन इसका प्रभाव सामाजिक संरचना, शासन व्यवस्था और सांस्कृतिक मूल्यों तक फैल गया।

16वीं शताब्दी के आरंभ तक पश्चिमी यूरोप धार्मिक दृष्टि से एकजुट था। समस्त यूरोपीय समाज ईसाई था और रोमन कैथोलिक चर्च के अधीन था। लोग चर्च की परंपरागत शिक्षाओं को स्वीकार करते थे और रोम के पोप को धार्मिक मामलों में सर्वोच्च प्राधिकारी मानते थे। मध्ययुग में यूरोपीय समाज पूर्णतः धर्मकेंद्रित, धर्मप्रेरित और धर्मनियंत्रित था। चर्च न केवल धार्मिक जीवन का नियंता था, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में भी उसका गहरा प्रभाव था। पोप का अधिकार केवल आध्यात्मिक नहीं था; वह राजाओं की ताजपोशी, युद्धों और शांति समझौतों में हस्तक्षेप करता था। चर्च की विशाल संपत्ति और जागीरें उसे आर्थिक रूप से भी शक्तिशाली बनाती थीं। इस समय बाइबिल का लैटिन में होना और उसका अध्ययन केवल पादरियों तक सीमित होना सामान्य जनता को चर्च की व्याख्याओं पर निर्भर बनाता था। यह एकता और चर्च का प्रभुत्व धर्मसुधार आंदोलन के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता था, क्योंकि इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार और शोषण ने असंतोष को जन्म दिया।

16वीं शताब्दी के दूसरे दशक में विशेष रूप से 1517 ई. में मार्टिन लूथर द्वारा विटेनबर्ग में 95 प्रश्न प्रस्तुत करने के साथ यूरोप में धर्मसुधार आंदोलन की शुरुआत हुई। यह आंदोलन शुरू में कैथोलिक चर्च की प्रथाओं, जैसे पापमोचन पत्रों (इंडलजेंस) की बिक्री, पादरियों के भ्रष्टाचार और पोप की विलासिता के विरूद्ध था। लूथर और अन्य सुधारकों ने चर्च की परंपरागत शिक्षाओं और पोप के निरंकुश अधिकारों पर सवाल उठाए। आंदोलन ने जल्द ही व्यापक रूप ले लिया, क्योंकि यह केवल धार्मिक सुधार तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों को भी प्रेरित करने लगा। इस आंदोलन ने पुनर्जागरण के तर्कवादी और मानववादी विचारों से प्रेरणा ली, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और बाइबिल के प्रत्यक्ष अध्ययन पर जोर देता था। मुद्रण कला के आविष्कार ने सुधारकों के विचारों को जन-जन तक पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे यह आंदोलन एक जन-आंदोलन बन गया।

धर्मसुधार आंदोलन के प्रमुख लक्ष्य

धर्मसुधार आंदोलन के दो प्रमुख लक्ष्य थे:

धार्मिक और नैतिक पुनरुत्थान: आंदोलन का पहला लक्ष्य ईसाइयों में धार्मिकता, नैतिकता और आध्यात्मिकता को पुनरुत्थान और उन्नत करना था। सुधारकों का मानना था कि कैथोलिक चर्च ने बाइबिल के मूल सिद्धांतों से भटककर भ्रष्ट प्रथाओं को बढ़ावा दिया है। जैसे लूथर ने जोर दिया कि मुक्ति केवल ईश्वर में विश्वास और आस्था से प्राप्त हो सकती है, न कि चर्च के अनुष्ठानों या पापमोचन पत्रों से।

पोप के अधिकारों का सीमांकन: दूसरा लक्ष्य था रोम के पोप और उसके अधीनस्थ धर्माधिकारियों के व्यापक धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों को कम करना। सुधारकों ने पोप की निरंकुशता और चर्च की सत्ता को राष्ट्रीय शासकों और जनता के हितों के खिलाफ माना। यह लक्ष्य राष्ट्रीय चर्चों की स्थापना और पोप के प्रभाव को समाप्त करने की दिशा में ले गया। इन लक्ष्यों ने धार्मिक सुधार के साथ-साथ राष्ट्रीयता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की भावना को भी प्रोत्साहित किया।

धर्मसुधार आंदोलन के परिणामस्वरूप पश्चिमी यूरोप की धार्मिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई। मध्ययुग में जहाँ समस्त यूरोप एक कैथोलिक चर्च के अधीन था, वहीं इस आंदोलन ने कई नए संप्रदायों को जन्म दिया। लूथरवाद (मार्टिन लूथर, जर्मनी), काल्विनवाद (जॉन काल्विन, स्विटजरलैंड), एंग्लिकनवाद (इंग्लैंड) और प्रेस्बिटेरियनवाद (स्कॉटलैंड) जैसे संप्रदाय उभरे। प्रत्येक संप्रदाय ने बाइबिल की व्याख्या और धार्मिक प्रथाओं में अपने-अपने सिद्धांत स्थापित किए। लूथरवाद ने आस्था पर जोर दिया, जबकि काल्विनवाद ने पूर्वनियति के सिद्धांत को अपनाया। इंग्लैंड में एंग्लिकन चर्च ने कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट तत्वों का मिश्रण किया। इस विभाजन ने यूरोप को धार्मिक रूप से विविध बना दिया और कैथोलिक चर्च का एकछत्र प्रभुत्व समाप्त हो गया।

धर्मसुधार आंदोलन के दो प्रमुख स्वरूप

16वीं शताब्दी के आरंभ तक समस्त पश्चिमी यूरोप धार्मिक दृष्टि से एकजुट था। सभी ईसाई थे और रोमन कैथोलिक चर्च के सदस्य थे, जो उसकी परंपरागत शिक्षाओं को मानते थे और धार्मिक मामलों में रोम के पोप के अधिकार को स्वीकार करते थे। किंतु 16वीं शताब्दी के दूसरे दशक में यूरोप में एक सुधार आंदोलन शुरू हुआ, जिसे ‘धर्मसुधार आंदोलन’ कहा जाता है। यह आंदोलन शीघ्र ही चर्च की परंपरागत शिक्षाओं और पोप के अधिकारों का विरोध करने लगा।

धार्मिक स्वरूप

धार्मिक दृष्टि से, इस आंदोलन ने ईसाइयों में धार्मिकता, नैतिकता और आध्यात्मिकता को बढ़ावा दिया। सुधारकों ने बाइबिल को क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद कर जनसाधारण को उपलब्ध कराया, जिससे लोग स्वयं धार्मिक ग्रंथों को पढ़ और समझ सकें। इसने पादरियों की मध्यस्थता को कम किया और व्यक्तिगत आस्था को प्रोत्साहित किया। साथ ही, चर्च की भ्रष्ट प्रथाओं, जैसे पापमोचन पत्रों की बिक्री और पादरियों की विलासिता, की आलोचना ने नैतिकता को पुनरुत्थान में मदद की।

राजनीतिक स्वरूप

राजनीतिक दृष्टि से यह आंदोलन पोप के विशेषाधिकारों और उसके राजनीतिक हस्तक्षेप के खिलाफ राष्ट्रीय राजतंत्रों और पोप के बीच संघर्ष का कारण बन गया। कई शासकों, जैसे इंग्लैंड के हेनरी अष्टम और जर्मनी के प्रोटेस्टेंट राजकुमारों ने पोप की सत्ता को चुनौती देकर राष्ट्रीय चर्चों की स्थापना की। यह संघर्ष राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत करने और राज्यों की स्वायत्तता को बढ़ाने में सहायक हुआ। ये दोनों स्वरूप परस्पर जुड़े हुए थे, क्योंकि धार्मिक सुधार ने राजनीतिक परिवर्तनों को प्रेरित किया।

धर्मसुधार आंदोलन केवल धार्मिक सुधार तक सीमित नहीं रहा; इसने यूरोपीय समाज के हर पहलू को प्रभावित किया। यह मध्ययुग की धर्मकेंद्रित व्यवस्था के खिलाफ एक असाधारण प्रक्रिया थी, जिसने न केवल चर्च की सत्ता को कम किया, बल्कि व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्वतंत्रता को भी प्रोत्साहित किया। इसने राज्यों को पोप के प्रभाव से मुक्त कर उनकी शक्ति बढ़ाई, जिससे राष्ट्रीय राजतंत्रों का उदय हुआ। सामाजिक स्तर पर इसने शिक्षा, तर्कवाद और व्यक्तिगत जिम्मेदारी को बढ़ावा दिया। पुनर्जागरण और मुद्रण कला के साथ मिलकर धर्मसुधार ने यूरोप को आधुनिक युग की ओर ले जाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस आंदोलन ने धार्मिक विविधता को जन्म दिया, जिसके परिणामस्वरूप यूरोप में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट खेमों के बीच बँट गया और लंबे समय तक तीस वर्षीय युद्ध (1618-1648 ई.) चला।

यूरोपीय धर्मसुधार आंदोलन 16वीं शताब्दी में एक ऐसी क्रांति थी जिसने पश्चिमी यूरोप की धार्मिक एकता को तोड़कर धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों की नींव रखी। इसने कैथोलिक चर्च की निरंकुशता को चुनौती दी और नए संप्रदायों को जन्म दिया। इसके धार्मिक लक्ष्य नैतिकता और आध्यात्मिकता का पुनरुत्थान और राजनीतिक लक्ष्य ने पोप की सत्ता का सीमांकन ने यूरोप को एक अधिक विविध और स्वतंत्र समाज की ओर अग्रसर किया। इस आंदोलन ने राष्ट्रीयता, तर्कवाद और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बढ़ावा देकर आधुनिक यूरोप की नींव रखी, जिसके प्रभाव आज भी देखे जा सकते हैं।

यूरोपीय धर्मसुधार का ऐतिहासिक विकास

13वीं शताब्दी में चर्च में कुछ परिवर्तन किए गए थे, किंतु वे आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं थे। पुनर्जागरण के प्रभाव और आधुनिक युग के आगमन से यूरोप की जनता तर्कवादी हो चुकी थी और अंधविष्वासों व पाखंडों को स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। कुछ सुधारकों ने पोप की आचरणहीनता और विलासिता को अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से जनता के सामने उजागर किया। धीरे-धीरे धर्मसुधार आंदोलन शक्तिशाली हुआ और इसका प्रभाव पूरे यूरोप पर दिखाई देने लगा।

जर्मनी के मार्टिन लूथर ने इस आंदोलन को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने पोप का कड़ा विरोध किया और एक नए संप्रदाय प्रोटेस्टेंट को जन्म दिया। जर्मनी में लूथर द्वारा शुरू किया गया सुधार आंदोलन विभिन्न रूपों में समस्त यूरोप को प्रभावित कर गया।

स्विटजरलैंड में दो प्रमुख नेता थे: ज्विंगली (1484-1531 ई.) और काल्विन (1509-1564 ई.)। बाद में इनके अनुयायी एक ही संप्रदाय काल्विनवाद में एकीकृत हो गए। यह संप्रदाय हॉलैंड, स्कॉटलैंड और फ्रांस के कुछ भागों में फैल गया। स्कॉटलैंड में इसे प्रेस्बिटेरियन धर्म कहा गया। फ्रांस में पहले लूथर का प्रभाव था, किंतु बाद में अधिकांश प्रोटेस्टेंट, जो यूग्नो कहलाते थे, काल्विन के अनुयायी बन गए।

इंग्लैंड में राजा हेनरी अष्टम ने व्यक्तिगत कारणों से 1534 ई. में कैथोलिक चर्च को रोम से अलग कर दिया। इस प्रकार धर्मसुधार आंदोलन के कारण यूरोप की ईसाई एकता टूट गई और शासन की दृष्टि से स्वतंत्र संप्रदायों का उदय हुआ, जो एक ही ईसा और बाइबिल को मानते हुए भी मूलभूत धार्मिक सिद्धांतों पर भिन्न मत रखते थे।

धर्मसुधार आंदोलन के कारण

15वीं शताब्दी के आरंभ में कैथोलिक जनता की दयनीय स्थिति, पोप की निष्क्रियता, राजनेताओं की चर्च की संपत्ति हड़पने की इच्छा, पुनर्जागरण के कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानववादी आंदोलन का प्रसार और मुद्रण के आविष्कार जैसे कारकों ने धर्मसुधार आंदोलन को बढ़ावा दिया। इसके अतिरिक्त, निम्नलिखित कारण भी इसकी सफलता के लिए उत्तरदायी थे:

चर्च और पोप के प्रति श्रद्धा की कमी

शताब्दियों से चली आ रही कैथोलिक चर्च के प्रति श्रद्धा 14वीं शताब्दी में कम होने लगी। 1309 ई. में एक फ्रांसीसी पोप का चुनाव हुआ, जो फ्रांस के एविन्यो में रहा। 1378 ई. में दो पोप हो गए: एक फ्रांस में और एक रोम में। दोनों ने एक-दूसरे को ‘नास्तिक’ कहकर कैथोलिक संसार को 1417 ई. तक दो भागों में विभक्त कर दिया। इससे पोप के प्रति श्रद्धा कम हुई और उनकी शक्ति के पतन के लक्षण दिखाई देने लगे।

चर्च के केंद्रीय संगठन की दुर्दशा के अलावा विभिन्न धर्मप्रांतों की स्थिति भी असंतोषजनक थी। उस समय पश्चिमी यूरोप लगभग सात सौ धर्मप्रांतों में विभक्त था, जिनके शासक बिशप थे। ये बिशप प्रायः अभिजात वर्ग से चुने जाते थे और जर्मनी में अकसर राजनीतिक शासक भी थे। वे धर्म की अपेक्षा राजनीति में अधिक रुचि लेते थे, जिसके कारण धार्मिक प्रशासन पुरोहितों के हाथों में रहता था। इस स्थिति ने सुधार की आवश्यकता को अनिवार्य बना दिया।

राजनीतिक कारण

चर्च और पोप के पास व्यापक राजनीतिक और आर्थिक अधिकार थे। पोप से लेकर गाँव के पादरी तक, सभी चर्च अधिकारी राजा की सत्ता से स्वतंत्र थे। उनके पास विशाल जागीरें थीं और वे राज्य के करों से मुक्त थे, किंतु जनता से विभिन्न कर वसूलते थे। चर्च के स्वतंत्र न्यायालय भी थे, जो जनता के मुकदमों का फैसला करते थे। पोप राज्यों के आंतरिक और बाहरी मामलों में हस्तक्षेप करता था और वह राजा को ईसाई धर्म से बहिष्कृत करने या चर्च के अधिकारियों की नियुक्ति का आदेश दे सकता था। उभरते राष्ट्रीय राजतंत्रों ने इन अधिकारों का विरोध किया, क्योंकि ये उनके विकास में बाधक थे।

राष्ट्रीय भावना का विकास

जनसाधारण में यह भावना उभरी कि पोप एक विदेशी सत्ता है। विभिन्न देशों की जनता को लगा कि अपने देश की उन्नति के लिए पोप के प्रभाव और अधिकारों को समाप्त करना आवश्यक है। शासक वर्ग भी चर्च की संपत्ति और जागीरों को हड़पने के लिए उत्सुक था।

आर्थिक कारण

मध्ययुग में सामंतवादी व्यवस्था में कृषकों और श्रमिकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं थी। किंतु 16वीं शताब्दी में सामंतवाद का विघटन हुआ, और व्यापार, वाणिज्य, और उद्योगों के विकास से एक समृद्ध वणिक वर्ग और उद्योगपतियों का उदय हुआ। चर्च ब्याज और मुनाफे को वर्जित करता था, जिसका नए पूँजीवादी वणिक वर्ग ने विरोध किया। वे चर्च की विशाल संपत्ति को अपने व्यापार और उद्योगों के लिए हड़पना चाहते थे, क्योंकि उनका मानना था कि यह अनुत्पादक है।

चर्च की भू-स्वामित्व वाली जागीरों, करों, चंदों और अनुदानों से अकूत संपत्ति संग्रहीत हो गई थी, जिसका उपयोग पादरी और अधिकारी सांसारिक भोग-विलास में करते थे। इससे जनसाधारण में रोष व्याप्त था, जिसने धर्मसुधार आंदोलन को समर्थन दिया।

धार्मिक कारण

आधुनिक युग के आरंभ तक चर्च और पोपशाही में कई दोष उत्पन्न हो चुके थे। अधिकांश पादरी और धर्माधिकारी अपने धार्मिक कर्तव्यों की उपेक्षा कर अनैतिक और विलासमय जीवन जी रहे थे। रोम में पोप का दरबार व्यभिचार और भ्रष्टाचार का केंद्र बन गया था। पोप एलेक्जेंडर षष्ठ (1492-1503 ई.) ने विलासिता के लिए एक हरम रखा था और अपने अवैध पुत्रों के लिए जागीरें खोजता था।

चर्च में नियुक्तियाँ योग्यता के बजाय धन के आधार पर होने लगी थीं। प्लुरेलिटिज प्रथा के तहत एक पादरी कई गिरजाघरों का अध्यक्ष हो सकता था, जिससे उसकी सत्ता और संपत्ति बढ़ती थी। चर्च विभिन्न करों, उपहारों और दानों के माध्यम से जनता का शोषण करता था। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आय का दसवाँ हिस्सा (टाइथ) देना अनिवार्य था। इस आर्थिक शोषण और रोम को धन भेजे जाने से जनता और शासक वर्ग दोनों में आक्रोश था।

पोप को ईसाई जगत का अनधिकृत सम्राट माना जाता था, जो स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि समझता था। उसके पास इंटरडिक्ट (किसी देश के गिरजाघरों को बंद करने का आदेश) और एक्सकम्यूनिकेशन (राजा को धर्म से बहिष्कृत करने का अधिकार) जैसे विशेषाधिकार थे, जिनसे जनता और राजा दोनों भयभीत रहते थे। आधुनिक काल में कई देशों की जनता ने इस निरंकुशता को समाप्त करने का प्रयास किया।

पुनर्जागरण का प्रभाव

पुनर्जागरण ने यूरोपीय समाज को तर्कवादी बनाया। जनता बिना प्रमाण या तर्क के किसी सिद्धांत को स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। बाइबिल का क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद और मुद्रण के आविष्कार से यह जनसाधारण को आसानी से उपलब्ध होने लगी। कई सुधारकों ने इटली की यात्रा कर पोप और चर्च की बुराइयों को उजागर किया, जिससे धर्मसुधार आंदोलन को व्यापक स्वीकार्यता मिली।

तात्कालिक कारण

धर्मसुधार आंदोलन का सूत्रपात पापमोचन पत्रों (इंडलजेंस) की बिक्री से हुआ। पोप लियो दशम ने सेंट पीटर के विशाल गिरजाघर के निर्माण के लिए धन संग्रह हेतु इन पत्रों को बेचना शुरू किया। कोई भी व्यक्ति धन देकर अपने पापों से मुक्ति खरीद सकता था। पोप ने प्रचार किया कि मृत्यु से पूर्व पापमोचन पत्र खरीदने वाला स्वर्ग प्राप्त करेगा।

1517 ई. में पोप का प्रतिनिधि टेटजेल क्षमा-पत्र बेचता हुआ जर्मनी के विटेनबर्ग पहुँचा। उसने दावा किया कि भविष्य के पापों के लिए भी क्षमा-पत्र खरीदे जा सकते हैं। मार्टिन लूथर ने इसका कड़ा विरोध किया और 31 अक्टूबर 1517 ई. को विटेनबर्ग के कैसल गिरजाघर की दीवारों पर अपने 95 प्रश्नों चिपका दिए। इनमें उन्होंने पापमोचन पत्रों की बिक्री के औचित्य को चुनौती दी और कहा कि मोक्ष धन से नहीं, बल्कि ईश्वर पर विश्वास, दया और अच्छे कर्मों से प्राप्त होता है। इस घटना ने धर्मसुधार आंदोलन को औपचारिक रूप से शुरू किया।

धर्मसुधार आंदोलन के प्रमुख प्रणेता

मार्टिन लूथर से पहले कई सुधारकों ने 14वीं शताब्दी से चर्च और पोपशाही की अनैतिकता, भ्रष्टाचार और शोषण के खिलाफ आवाज उठाई थी। प्रमुख सुधारक निम्नलिखित हैं:

जान वाइक्लिफ (1320-1384 ई.)

जान वाइक्लिफ को प्रोटेस्टेंट धर्मसुधार का ‘प्रभात तारा’ कहा जाता है। वह 14वीं शताब्दी के इंग्लैंड के एक प्रमुख विद्वान, धर्मशास्त्री और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थे। वाइक्लिफ ने कैथोलिक चर्च की गलत परंपराओं, भ्रष्टाचार और निरंकुशता की कटु आलोचना की, जिसने बाद में मार्टिन लूथर और अन्य सुधारकों के लिए प्रेरणा का काम किया। उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी बाइबिल का अंग्रेजी में अनुवाद, जिसने साधारण जनता को ईसाई धर्म के मूल सिद्धांतों से जोड़ दिया।

जान वाइक्लिफ का जन्म लगभग 1320 ई. में इंग्लैंड के यॉर्कशायर में हिप्सवेल गाँव के एक कुलीन परिवार में हुआ। 1340 के दशक में उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दाखिला लिया, जहाँ उन्होंने धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र का गहन अध्ययन किया। वाइक्लिफ ने अपनी विद्वता और तार्किक क्षमता के कारण बाद में विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बन गए। ऑक्सफोर्ड में रहते हुए वाइक्लिफ ने कैथोलिक चर्च की प्रथाओं और पोपशाही की नीतियों पर सवाल उठाने शुरू किए, जो उस समय यूरोप में धार्मिक जीवन का आधार थीं।

वाइक्लिफ ने कैथोलिक चर्च की कई परंपराओं और गतिविधियों को अनैतिक और गैर-बाइबिल बताया। उनका मानना था कि चर्च ने अपनी शक्ति और संपत्ति का दुरुपयोग किया और ईसाई धर्म के मूल सिद्धांतों से भटक गया है। विशेष रूप से, उन्होंने निम्नलिखित बिंदुओं पर तीखी आलोचना की:

पोप की सर्वोच्चता: वाइक्लिफ ने तर्क दिया कि पोप का दावा कि वह ईश्वर का प्रतिनिधि है, बाइबिल में आधारहीन है। उन्होंने पोप को ‘मसीह-विरोधी’ तक कहा, क्योंकि उनका मानना था कि पोप की सांसारिक शक्ति और भ्रष्टाचार ईसाई धर्म के विपरीत था।

चर्च की संपत्ति: वाइक्लिफ ने चर्च की विशाल संपत्ति और जागीरों की आलोचना की, जो मध्ययुग में सामंती व्यवस्था का हिस्सा थी। उनका मानना था कि चर्च को सांसारिक संपत्ति से मुक्त होकर केवल आध्यात्मिक कार्यों पर ध्यान देना चाहिए।

पादरियों का भ्रष्टाचार: वाइक्लिफ ने पादरियों की अनैतिकता और विलासिता पर प्रहार किया। उस समय कई पादरी योग्यता के बजाय धन या प्रभाव के आधार पर नियुक्त किए जाते थे और वे धार्मिक कर्तव्यों की उपेक्षा करते थे।

पापमोचन पत्र और कर्मकांड: वाइक्लिफ ने पापमोचन पत्रों की बिक्री और जटिल कर्मकांडों को खारिज किया, क्योंकि उनका मानना था कि ये प्रथाएँ बाइबिल के सिद्धांतों के खिलाफ थीं और जनता का आर्थिक शोषण करती थीं।

इन आलोचनाओं ने वाइक्लिफ को चर्च के लिए खतरा बना दिया, लेकिन उनकी विद्वता और जनसमर्थन ने उन्हें तत्काल दंड से बचा लिया।

बाइबिल का अंग्रेजी अनुवाद

वाइक्लिफ की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी बाइबिल का लैटिन से अंग्रेजी में अनुवाद। वाइक्लिफ का मानना था कि प्रत्येक ईसाई को बाइबिल पढ़ने और इसके सिद्धांतों को समझने का अधिकार है। 1380 के दशक में, उन्होंने और उनके सहयोगियों, जैसे जॉन पुरवी ने बाइबिल का पहला पूर्ण अंग्रेजी अनुवाद तैयार किया।

यह अनुवाद मध्ययुगीन इंग्लैंड में एक क्रांतिकारी कदम था, क्योंकि इसने साधारण जनता को ईसाई धर्म के मूल स्रोत से जोड़ा। वाइक्लिफ का तर्क था कि बाइबिल ही ईश्वर का वचन है और इसके अध्ययन के लिए पादरियों की मध्यस्थता अनावश्यक है। चर्च ने इस अनुवाद को विधर्मी घोषित किया, क्योंकि यह उनकी सत्ता को कमजोर करता था।

लोलार्ड आंदोलन और जन समर्थन

वाइक्लिफ के विचारों ने लोलार्ड आंदोलन को जन्म दिया, जो 14वीं और 15वीं शताब्दी में इंग्लैंड में एक लोकप्रिय धार्मिक और सामाजिक आंदोलन था। लोलार्ड्स वाइक्लिफ के अनुयायी थे, जिनमें अधिकांश साधारण लोग, छोटे जमींदार और कुछ विद्वान शामिल थे। उन्होंने वाइक्लिफ के सिद्धांतों, जैसे बाइबिल की सर्वोच्चता, चर्च की संपत्ति का विरोध और पादरियों की मध्यस्थता की अस्वीकृति को अपनाया।

वाइक्लिफ को इंग्लैंड के कुछ शक्तिशाली लोगों, जैसे लंकास्टर के ड्यूक जॉन ऑफ गॉन्ट का समर्थन प्राप्त था, जो राजनीतिक कारणों से चर्च और पोप के प्रभाव को कम करना चाहते थे। 1382 ई. में ऑक्सफोर्ड में एक सभा ने उनके विचारों को विधर्मी घोषित किया और उन्हें विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया। इसके बाद, वाइक्लिफ अपने अंतिम वर्ष लटरवर्थ में एक पादरी के रूप में बिताए, जहाँ वे 1384 ई. में एक स्ट्रोक से मृत्यु तक अपने विचारों का प्रचार करते रहे।

वाइक्लिफ की मृत्यु के बाद कैथोलिक चर्च ने उनके विचारों को पूरी तरह दबाने का प्रयास किया। 1428 ई. में, उनके अवशेषों को खोदकर जलाया गया और उनकी राख को स्विफ्ट नदी में बहा दिया गया। यह कार्य चर्च की कट्टरता का प्रतीक था, लेकिन वाइक्लिफ के विचारों को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सका।

वाइक्लिफ के समकालीन और बाद के सुधारकों, जैसे जान हस, सेवोनारोला और इरेस्मस ने भी चर्च की बुराइयों की आलोचना की, लेकिन वाइक्लिफ की तुलना में उनके दृष्टिकोण और प्रभाव भिन्न थे।

जान हस

जान हस बोहेमिया (चेक गणराज्य) के प्राग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थे। उन्होंने यह मत प्रतिपादित किया कि साधारण ईसाई बाइबिल के सिद्धांतों का अनुसरण कर मुक्ति प्राप्त कर सकता है और इसके लिए गिरजाघर या पादरी की आवश्यकता नहीं है। उनकी आलोचना के कारण 1415 ई. में उन्हें नास्तिकता के आरोप में जीवित जला दिया गया। जान हस ने वाइक्लिफ के विचारों को बोहेमिया में फैलाया और बाइबिल की सर्वोच्चता पर बल दिया, लेकिन उनकी कट्टरता ने उन्हें 1415 ई. में जीवित जलाए जाने का दंड दिलाया।

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जान हस

सेवोनारोला

इटली के फ्लोरेंस के विद्वान पादरी सेवोनारोला (1452-1498 ई.) ने पोप की अनैतिकता, भ्रष्टाचार और कैथोलिक चर्च के दोषों की कटु आलोचना की। इसके परिणामस्वरूप, 1498 ई. में उन्हें भी जीवित जला दिया गया। सेवोनारोला ने फ्लोरेंस में नैतिक और धार्मिक सुधारों की माँग की, लेकिन उनकी उग्रता ने उन्हें भी 1498 ई. में मृत्युदंड का शिकार बनाया।

इरेस्मस

हॉलैंड के इरेस्मस (1466-1536 ई.) ने लैटिन साहित्य और ईसाई धर्मशास्त्र का अध्ययन किया। 1492 ई. तक उन्होंने पादरी के रूप में कार्य किया और चर्च व मठों में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखा। 1499 ई. में इंग्लैंड में टॉमस मूर, जान कालेट जैसे विद्वानों के संपर्क में आए। उनकी रचनाएँ, जैसे ‘दि प्रेज ऑफ फॉली’ (1511 ई.) में उन्होंने व्यंग्य और परिहास के माध्यम से धर्माधिकारियों की अनैतिकता को उजागर किया। इरेस्मस ने 1515 ई. में बाइबिल का लैटिन में अनुवाद किया, किंतु उनके विचार लूथर जितने उग्र नहीं थे और उन्होंने कभी चर्च का खुला विरोध नहीं किया। इरेस्मस ने व्यंग्य और बौद्धिकता के माध्यम से चर्च की आलोचना की, लेकिन उन्होंने कभी खुला विद्रोह नहीं किया।

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इरेस्मस

जर्मनी में धर्मसुधार और लूथरवाद

जर्मनी में धर्मसुधार आंदोलन का प्रणेता मार्टिन लूथर (1483-1546 ई.) था। टाइम पत्रिका के अनुसार इतिहास में शायद ही किसी व्यक्ति पर लूथर जितनी पुस्तकें लिखी गई हों, सिवाय यीशु मसीह के। लूथर ने जर्मन भाषा में बाइबिल का अनुवाद किया और कैथोलिक धर्म के सप्त संस्कारों के सिद्धांत का खंडन किया। उन्होंने प्रोटेस्टेंट संप्रदाय की स्थापना की।

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मार्टिन लूथर
मार्टिन लूथर का जीवन

लूथर का जन्म 10 नवंबर 1483 को जर्मनी के सेक्सनी क्षेत्र के आइबेन गाँव में एक साधारण किसान परिवार में हुआ। उनके पिता उन्हें वकील बनाना चाहते थे, किंतु लूथर ने इरफर्ट विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र और मानववादी शास्त्र का अध्ययन किया। 1505 ई. में वे एरफर्ट के अगस्तीन मठ में शामिल हुए। 1508 ई. में वे विटेनबर्ग विश्वविद्यालय में धर्म और दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर बने। उन्होंने ईसाई धर्म और संतों के सिद्धांतों का गहन अध्ययन किया और निष्कर्ष निकाला कि मोक्ष के लिए ईश्वर में श्रद्धा और उसकी क्षमाशीलता में विश्वास आवश्यक है।

1511 ई. में रोम यात्रा के दौरान लूथर ने पोप की विलासमय जीवन-शैली देखी और हतप्रभ रह गए। उन्होंने कहा रू “ईसाई धर्म रोम के जितना निकट है, उतना ही दोषयुक्त है।” इसके बावजूद उन्होंने तत्काल विरोध नहीं किया, बल्कि चर्च में सुधार की संभावनाओं पर विचार किया।

क्षमा-पत्रों का विरोध

1517 ई. में पोप के प्रतिनिधि टेटजेल ने विटेनबर्ग में क्षमा-पत्र (इंडलजेंस) बेचना शुरू किया, यह दावा करते हुए कि ये पत्र भविष्य के पापों से भी मुक्ति दिलाएँगे। लूथर ने इसे धन उगाही का साधन बताकर इसका कड़ा विरोध किया। 31 अक्टूबर 1517 को उन्होंने विटेनबर्ग के कैसल गिरजाघर की दीवारों पर अपने 95 प्रश्न (95 थीसिस) चिपका दिए, जिनमें क्षमा-पत्रों की बिक्री के औचित्य को चुनौती दी गई थी।

लूथर ने तर्क दिया कि क्षमा-पत्र केवल चर्च के दंड से मुक्ति दे सकते हैं, न कि ईश्वर के दंड या पापों के परिणामों से। उन्होंने अपने प्रश्नों की प्रतियाँ मायेंज के आर्चबिशप और अन्य विद्वानों को भेजीं और उन्हें छपवाकर जनता में वितरित किया। इससे सुधार आंदोलन एक व्यापक बहस का विषय बन गया, और लूथर जर्मनी में प्रसिद्ध हो गए।

यूरोप में धर्मसुधार आंदोलन (The Reformation Movement in Europe)
विटेनवर्ग के कैसल गिरजाघर की दीवार पर 95 प्रश्नों को टाँगते मार्टिन लूथर
पोप का हुक्मनामा और बहिष्करण की धमकी

लूथर के 95 प्रश्नों ने 1517 ई. में जर्मनी में तीव्र बहस छेड़ दी, क्योंकि उन्होंने पापमोचन पत्रों की बिक्री को अनैतिक और गैर-बाइबिल करार दिय थाा। ये प्रश्न मायेंज के आर्चबिशप और अन्य विद्वानों को भेजे गए और मुद्रण प्रौद्योगिकी के कारण ये जल्दी ही पूरे जर्मनी और यूरोप में फैल गए। पोप लियो दशम (1513-1521 ई.) ने लूथर के विचारों को कैथोलिक चर्च की एकता और अधिकार के लिए खतरा माना। 1518 ई. में पोप ने लूथर को रोम बुलाया और उनके विचारों को वापस लेने का आदेश दिया। लूथर ने रोम जाने से इनकार कर दिया, क्योंकि उन्हें डर था कि उन्हें वहाँ कैद या दंडित किया जाएगा।

1520 ई. में, पोप ने लूथर को हुक्मनामा ‘एक्सर्ज डोमिन’ जारी किया, जिसमें उनके 41 विचारों को विधर्मी घोषित किया गया और उन्हें 60 दिनों के भीतर अपने विचार वापस लेने या धर्म-बहिष्करण का सामना करने की चेतावनी दी गई। लूथर ने इस हुक्मनामे को न केवल अस्वीकार किया, बल्कि 10 दिसंबर 1520 ई. को विटेनबर्ग में इसे सार्वजनिक रूप से जला दिया। इस कार्य ने पोप के प्रति उनकी अवज्ञा को स्पष्ट कर दिया और यूरोप में उनके समर्थकों की संख्या बढ़ाने में मदद की। लूथर का यह साहसिक कदम धर्मसुधार आंदोलन को एक व्यापक जन-आंदोलन में बदलने का प्रतीक बना।

धर्म-बहिष्करण और वर्म्स की सभा

लूथर की अवज्ञा से क्रुद्ध होकर पोप लियो दशम ने 3 जनवरी 1521 ई. को लूथर को औपचारिक रूप से धर्म-बहिष्कृत कर दिया, जिसे हुक्मनामा ‘डिक्रीटम पॉन्टिफिक्स’  के माध्यम से घोषित किया गया। इस बहिष्करण का अर्थ था कि लूथर को अब कैथोलिक चर्च का सदस्य नहीं माना जाएगा और कोई भी कैथोलिक उनके साथ संपर्क रखने या उनकी सहायता करने से मना था। यह एक गंभीर धार्मिक दंड था, जिसका उद्देश्य लूथर को सामाजिक और धार्मिक रूप से अलग-थलग करना था।

पोप ने पवित्र रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम (1519-1556 ई.), जो कट्टर कैथोलिक थे, से लूथर को दंडित करने की माँग की। चार्ल्स ने 1521 ई. में जर्मनी के वर्म्स शहर में एक शाही सभा बुलाई, जिसमें लूथर को अपने विचारों का बचाव करने के लिए बुलाया गया। 17-18 अप्रैल 1521 को लूथर ने सभा के समक्ष अपने विचारों का दृढ़ता से बचाव किया। उन्होंने प्रसिद्ध रूप से कहा: ‘जब तक मुझे बाइबिल या तर्क से गलत साबित नहीं किया जाता, मैं अपनी बात वापस नहीं लूँगा। मैं अपनी अंतरात्मा के खिलाफ नहीं जा सकता। यहाँ मैं खड़ा हूँ, मैं और कुछ नहीं कर सकता। ईश्वर मेरी सहायता करे।’ इस दृढ़ता ने लूथर को प्रोटेस्टेंट आंदोलन का प्रतीक बना दिया।

चार्ल्स पंचम ने लूथर को अपराधी घोषित कर दिया और वर्म्स का आदेश जारी किया, जिसमें लूथर की रचनाओं पर प्रतिबंध लगाया गया और उन्हें गिरफ्तार करने का आदेश दिया गया। इस आदेश ने लूथर को साम्राज्य में एक भगोड़ा बना दिया और उनकी जान को खतरा हो गया।

सेक्सनी के फ्रेडरिक का संरक्षण और लूथर की रचनाएँ

लूथर की जान को खतरे को देखते हुए सेक्सनी के इलेक्टर फ्रेडरिक तृतीय, जो लूथर के समर्थक थे, ने उनकी रक्षा का बीड़ा उठाया। वर्म्स की सभा के बाद फ्रेडरिक ने लूथर को गुप्त रूप से वार्ट्सबर्ग कैसल में छिपा दिया, जहाँ उन्हें ‘युन्कर यॉर्ग’ के छद्म नाम से रखा गया। इस दौरान 1521-1522 ई. में लूथर ने बाइबिल का जर्मन भाषा में अनुवाद शुरू किया, जो 1534 ई. में पूर्ण हुआ। यह अनुवाद लूथरवाद के प्रसार और जर्मन भाषा के मानकीकरण में ऐतिहासिक सिद्ध हुआ। जर्मन बाइबिल ने साधारण जनता को धार्मिक ग्रंथों से जोड़ा और लूथर के विचारों को व्यापक स्वीकृति दिलाई।

1525 ई. में लूथर ने काटरीना फॉन बोरा नामक एक पूर्व नन से विवाह किया, जो कैथोलिक परंपरा के खिलाफ था, क्योंकि पादरियों को अविवाहित रहना अनिवार्य था। इस विवाह ने लूथर के सिद्धांत को कि पादरियों को विवाह की अनुमति होनी चाहिए, को बल दिया। लूथर की रचनाएँ, जैसे ‘लूथर्स टिशरेडन’, जिसमें उनके अनौपचारिक विचारों और चर्चाओं को संकलित किया गया है, जर्मन भाषा की दूसरी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक बन गई। इस पुस्तक ने लूथर के विचारों को जन-जन तक पहुँचाया और जर्मन साहित्य व संस्कृति को समृद्ध किया।

प्रोटेस्टेंट संप्रदाय का जन्म

लूथर और पोप के बीच विवाद को सुलझाने के लिए पवित्र रोमन साम्राज्य में कई सभाएँ बुलाई गईं। 1526 और 1529 ई. में स्पीयर की सभाएँ आयोजित की गईं। 1526 की सभा में प्रोटेस्टेंट राजकुमारों को कुछ छूट दी गई, लेकिन 1529 की सभा में कैथोलिक सम्राट चार्ल्स पंचम ने लूथरवाद के खिलाफ कठोर आदेश जारी किए। इन आदेशों में प्रोटेस्टेंटों को अपनी धार्मिक प्रथाएँ छोड़ने और कैथोलिक धर्म अपनाने का दबाव डाला गया।

लूथर के समर्थकों, जिनमें सेक्सनी और अन्य रियासतों के राजकुमार शामिल थे, ने इसका कड़ा विरोध किया। इस विरोध को ‘प्रोटेस्ट’ कहा गया, जिसके कारण लूथर के अनुयायी प्रोटेस्टेंट के नाम से जाने गए। 1530 ई. में आग्सबर्ग कन्फेशन में लूथर के अनुयायी फिलिप मेलांक्थन ने प्रोटेस्टेंट सिद्धांतों को औपचारिक रूप से प्रस्तुत किया, जिसने प्रोटेस्टेंट संप्रदाय की विधिवत स्थापना की। यह दस्तावेज लूथरवाद के सिद्धांतों का संक्षिप्त और व्यवस्थित विवरण था, जिसने प्रोटेस्टेंट आंदोलन को संगठित स्वरूप दिया।

प्रभाव और परिणाम

लूथर के खिलाफ पोप की कार्रवाइयाँ न केवल विफल रहीं, बल्कि उन्होंने प्रोटेस्टेंट आंदोलन को और मजबूत किया। धर्म-बहिष्करण और वर्म्स का आदेश लूथर के विचारों को दबाने में असमर्थ रहे, क्योंकि जर्मनी के कई शासकों और जनता ने उनका समर्थन किया। सेक्सनी के फ्रेडरिक जैसे शक्तिशाली संरक्षकों ने लूथर को न केवल संरक्षण दिया, बल्कि उनके विचारों को पूरे यूरोप में फैलने का अवसर दिया।

लूथर की जर्मन बाइबिल और उनकी अन्य रचनाओं, जैसे ‘टिशरेडन’ ने जर्मन भाषा को एक साहित्यिक और राष्ट्रीय पहचान दी। प्रोटेस्टेंट संप्रदाय का जन्म न केवल धार्मिक सुधारों का प्रतीक था, बल्कि इसने जर्मन राष्ट्रीयता को भी प्रोत्साहित किया। लूथर के विचारों ने कैथोलिक चर्च की एकछत्र सत्ता को तोड़ दिया और धार्मिक स्वतंत्रता की नींव रख दी। इन कार्रवाइयों ने 1555 ई. की आग्सबर्ग की संधि की पृष्ठभूमि तैयार की, जिसने लूथरवाद को वैधता प्रदान की और यूरोप में धार्मिक सहिष्णुता का पहला कदम उठाया।

प्रोटेस्टेंट संप्रदाय का जन्म

लूथर और पोप के बीच विवाद को सुलझाने के लिए 1526 और 1529 ई. में स्पीयर में धार्मिक सभाएँ बुलाई गईं। 1529 की सभा में लूथरवाद के खिलाफ कठोर आदेश जारी किए गए। लूथर के समर्थकों ने इसका विरोध (प्रोटेस्ट) किया, जिसके कारण यह संप्रदाय प्रोटेस्टेंट कहलाया। 1530 ई. में इसकी विधिवत स्थापना हुई।

लूथरवाद के सिद्धांत

लूथरवाद मार्टिन लूथर (1483-1546 ई.) द्वारा शुरू किए गए धर्मसुधार आंदोलन का केंद्रीय संप्रदाय था, जिसने 16वीं शताब्दी में यूरोप के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित किया। यह रोमन कैथोलिक चर्च की निरंकुशता और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक विद्रोह था, जिसने ईसाई धर्म के मूल सिद्धांतों का पुनरुत्थान करने का प्रयास किया। लूथर के सिद्धांत न केवल धार्मिक सुधारों पर केंद्रित थे, बल्कि उन्होंने व्यक्तिगत आस्था, राष्ट्रीय स्वायत्तता और सामाजिक समानता जैसे विचारों को भी प्रोत्साहित किया।

बाइबिल और ईसा की सर्वोच्चता, पोप की निरंकुशता का निषेध

लूथरवाद का मूल सिद्धांत था कि बाइबिल और ईसा मसीह ही धार्मिक सत्ता के सर्वोच्च स्रोत हैं, न कि पोप या कैथोलिक चर्च। मार्टिन लूथर ने तर्क दिया कि बाइबिल ईश्वर का वचन है और यह प्रत्येक ईसाई के लिए धार्मिक मार्गदर्शन का एकमात्र स्रोत होना चाहिए। उन्होंने पोप की सर्वोच्चता और चर्च की निरंकुशता को चुनौती दी, क्योंकि उनका मानना था कि पोप और पादरी स्वयं को अनुचित रूप से ईश्वर का प्रतिनिधि मानते थे। लूथर ने पोप के विशेषाधिकारों, जैसे इंटरडिक्ट (गिरजाघरों को बंद करने का आदेश) और एक्सकम्यूनिकेशन (धर्म-बहिष्करण) को अनुचित ठहराया। इस सिद्धांत ने कैथोलिक चर्च की केंद्रीकृत सत्ता को कमजोर किया और व्यक्तिगत आस्था को प्रोत्साहित किया, जिसने प्रोटेस्टेंट आंदोलन को एक मजबूत आधार प्रदान किया।

आस्था और श्रद्धा की प्राथमिकता

लूथरवाद ने ‘केवल आस्था द्वारा मुक्ति’ के सिद्धांत पर बल दिया। लूथर का मानना था कि मनुष्य की मुक्ति केवल ईश्वर में विश्वास और आस्था के माध्यम से संभव है, न कि अच्छे कर्मों, दान या चर्च की मध्यस्थता से। यह सिद्धांत कैथोलिक चर्च की उस शिक्षाओं के खिलाफ था, जो पापमोचन पत्रों (इंडलजेंस) की बिक्री और कर्मकांडों को मोक्ष का आधार मानती थी। लूथर ने तर्क दिया कि ईश्वर की कृपा स्वतंत्र रूप से प्राप्त होती है और इसके लिए कोई भौतिक मूल्य नहीं चुकाया जा सकता है। इस विचार ने जनसाधारण को चर्च की आर्थिक शोषण की प्रथाओं (टाइथ और पापमोचन पत्र) से मुक्त करने का प्रयास किया और धार्मिक जीवन में व्यक्तिगत विश्वास को केंद्र में लाया।

संस्कारों की संख्या में कमी

कैथोलिक चर्च सात संस्कारों- नामकरण, दृढ़ीकरण, प्रायश्चित, प्रसाद, विवाह, दीक्षा और अंतिम संस्कार को मान्यता देता था। लूथर ने इनमें से केवल तीन संस्कारों- नामकरण, प्रायश्चित और प्रसाद को वैध माना, क्योंकि उनका मानना था कि ये बाइबिल में स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं। अन्य संस्कारों को उन्होंने मानव-निर्मित परंपराएँ करार दिया। इस सिद्धांत ने चर्च की कर्मकांडीय जटिलताओं को सरल बना दिया और धार्मिक प्रथाओं को अधिक बाइबिल-केंद्रित बनाया। साथ ही, इसने पादरियों की मध्यस्थता की आवश्यकता को कम कर दिया, जिससे जनता और ईश्वर के बीच का संबंध अधिक प्रत्यक्ष हुआ।

अंधविश्वासों और चमत्कारों का खंडन

लूथर ने कैथोलिक चर्च के कुछ चमत्कारों और कर्मकांडों, विशेष रूप से रोटी और शराब का मांस और खून में परिवर्तन को अंधविश्वास करार दिया। कैथोलिक सिद्धांत के अनुसार पवित्र प्रसाद के दौरान रोटी और शराब यीशु के मांस और खून में परिवर्तित हो जाते हैं। लूथर ने इस विचार को अस्वीकार किया और इसके बजाय सह-उपस्थिति का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसमें रोटी और शराब प्रतीकात्मक रूप से यीशु की उपस्थिति के सूचक हैं, न कि भौतिक परिवर्तन। इसके अतिरिक्त, लूथर ने संतों की मूर्तिपूजा, अवशेष पूजा और चमत्कारों की कहानियों को भी अस्वीकार कर दिया, जो उनके अनुसार बाइबिल के सिद्धांतों से मेल नहीं खाते थे। इस सिद्धांत ने धार्मिक प्रथाओं को अधिक तर्कसंगत और बाइबिल-आधारित बनाने में मदद की।

राष्ट्रीय चर्च की स्थापना और रोम के प्रभुत्व का अंत

लूथरवाद ने राष्ट्रीय चर्चों की स्थापना को प्रोत्साहित किया और रोम के केंद्रीकृत प्रभुत्व को समाप्त करने का आह्वान किया। लूथर का मानना था कि प्रत्येक देश को अपने धार्मिक मामलों में स्वायत्त होना चाहिए और पोप का हस्तक्षेप राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए हानिकारक है। इस सिद्धांत ने जर्मनी के कई छोटे शासकों को प्रोत्साहित किया कि वे लूथरवाद को अपनाएँ और कैथोलिक चर्च की संपत्ति पर कब्जा करें, जैसे सेक्सनी और अन्य जर्मन रियासतों ने राष्ट्रीय चर्च स्थापित किए, जो स्थानीय शासकों के नियंत्रण में थे। इसने न केवल धार्मिक स्वायत्तता को बढ़ावा दिया, बल्कि जर्मन राष्ट्रीयता की भावना को भी मजबूत किया, क्योंकि लूथर ने पोप को श्विदेशी सत्ताश् के रूप में चित्रित किया।

धर्मग्रंथों की समान पहुँच

लूथरवाद ने इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया कि बाइबिल सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध होनी चाहिए और इसके अध्ययन पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। लूथर ने 1522-1534 ई. में बाइबिल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया, ताकि साधारण जनता इसे पढ़ और समझ सके। यह कैथोलिक परंपरा के खिलाफ था, जिसमें बाइबिल मुख्य रूप से लैटिन में थी और केवल पादरियों के लिए सुलभ थी। लूथर के अनुवाद ने जर्मन भाषा को साहित्यिक और राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बना दिया और जनता को धार्मिक ज्ञान से जोड़ दिया। इस सिद्धांत ने ‘पुजारीत्व सभी का’ की अवधारणा को बल दिया, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को बाइबिल के आधार पर ईश्वर से सीधा संबंध स्थापित करने का अधिकार है।

समान न्याय-व्यवस्था

लूथरवाद ने सभी के लिए समान न्याय-व्यवस्था की वकालत की, जिसमें पोप और पादरी भी शामिल हों। लूथर ने तर्क दिया कि पोप और चर्च के अधिकारी सामान्य कानून से ऊपर नहीं हैं और उन्हें भी सांसारिक न्याय के अधीन होना चाहिए। यह सिद्धांत कैथोलिक चर्च के स्वतंत्र न्यायालयों और विशेषाधिकारों के खिलाफ था, जो पादरियों को सामान्य कानूनों से छूट प्रदान करते थे। इस विचार ने सामाजिक और धार्मिक समानता को बढ़ावा दिया और चर्च की निरंकुशता को कमजोर किया। इसने जर्मनी के शासकों को प्रोत्साहित किया कि वे चर्च के अधिकारों को अपने नियंत्रण में लें और राष्ट्रीय कानूनों को लागू करें।

पादरियों के विवाह की अनुमति

लूथरवाद ने पादरियों के अविवाहित रहने की कैथोलिक परंपरा को खारिज कर दिया और पादरियों को विवाह की अनुमति दी। लूथर ने स्वयं 1525 ई. में एक पूर्व नन काटरीना फॉन बोरा से विवाह किया, जो इस सिद्धांत का प्रतीक बना। लूथर का तर्क था कि अविवाहित रहना बाइबिल में अनिवार्य नहीं है और यह पादरियों के लिए अनैतिक व्यवहार का कारण बन सकता है। इस सिद्धांत ने पादरियों को सामान्य जीवन जीने की स्वतंत्रता दी और जनता के साथ उनके संबंध को अधिक मानवीय बनाया। साथ ही, इसने कैथोलिक चर्च की पादरी-प्रथा को कमजोर किया, जो अविवाहित जीवन को धार्मिक श्रेष्ठता का प्रतीक मानता था।

लूथरवाद के सिद्धांतों का प्रभाव

लूथरवाद के इन सिद्धांतों ने जर्मनी में कैथोलिक चर्च के खिलाफ व्यापक विरोध को जन्म दिया। जर्मनी के कई छोटे शासकों, जैसे सेक्सनी के फ्रेडरिक और अन्य प्रोटेस्टेंट राजकुमारों ने लूथरवाद को संरक्षण दिया, क्योंकि यह उनकी राजनीतिक स्वायत्तता और आर्थिक हितों को बढ़ावा देता था। प्रोटेस्टेंटों ने कैथोलिक चर्च की विशाल संपत्ति और जागीरों पर कब्जा कर लिया, जिससे उनकी आर्थिक शक्ति बढ़ी। मठों और चर्च की संपत्ति को राष्ट्रीय खजाने में शामिल किया गया, जिसने प्रोटेस्टेंट रियासतों को मजबूत किया।

लूथरवाद ने पवित्र रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम के खिलाफ विद्रोह को प्रोत्साहित किया, जो कैथोलिक एकता को बनाए रखना चाहते थे। 1530 ई. में आग्सबर्ग कन्फेशन में लूथर के अनुयायियों ने अपने सिद्धांतों को औपचारिक रूप से प्रस्तुत किया, जिसने प्रोटेस्टेंट आंदोलन को संगठित स्वरूप दिया। इन सिद्धांतों ने न केवल जर्मनी, बल्कि स्कैंडिनेविया, बाल्टिक क्षेत्रों और अन्य यूरोपीय देशों में भी प्रोटेस्टेंटवाद के प्रसार को बढ़ावा दिया। लूथरवाद ने धार्मिक स्वतंत्रता, राष्ट्रीयता और व्यक्तिगत आस्था को प्रोत्साहित कर यूरोप के आधुनिक युग की नींव रखी।

लूथरवाद के सिद्धांतों ने न केवल धार्मिक सुधारों को प्रेरित किया, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तनों को भी आकार दिया। बाइबिल की सर्वोच्चता, आस्था द्वारा मुक्ति और राष्ट्रीय चर्च की स्थापना जैसे विचारों ने कैथोलिक चर्च की निरंकुशता को चुनौती दी और जनता को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की। इन सिद्धांतों ने जर्मन राष्ट्रीयता को मजबूत किया, जर्मन भाषा को लोकप्रिय बनाया और प्रोटेस्टेंट आंदोलन को एक वैश्विक शक्ति बनाया। लूथरवाद की विरासत ने आधुनिक यूरोप की धार्मिक और राजनीतिक संरचना को गहराई से प्रभावित किया, जिसके प्रभाव आज भी देखे जा सकते हैं।

आग्सबर्ग की संधि (1555 ई.)

आग्सबर्ग की संधि 1555 ई. में पवित्र रोमन साम्राज्य के भीतर लंबे समय से चले आ रहे धार्मिक संघर्षों को समाप्त करने के लिए एक ऐतिहासिक समझौता था। यह संधि धर्मसुधार आंदोलन के प्रमुख चरणों में से एक मानी जाती है, जो मार्टिन लूथर के प्रोटेस्टेंट विचारों के प्रसार के बाद उत्पन्न हुए कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट विवादों का परिणाम थी। यह संधि जर्मनी के आग्सबर्ग शहर में आयोजित हुई थी। इसने यूरोप में धार्मिक सहिष्णुता का पहला व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत किया, लेकिन यह पूर्ण समाधान न साबित हो सकी। संधि के पीछे का प्रमुख कारण लूथरवाद के तेजी से फैलाव और इससे उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता थी, जो साम्राज्य को गृहयुद्ध की ओर धकेल रही थी।

लूथरवाद के बढ़ते प्रभाव से चिंतित पवित्र रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम (1519-1556 ई.) ने प्रोटेस्टेंट आंदोलन का दमन शुरू कर दिया था। 1521 ई. में वर्म्स की डाइट में लूथर को बहिष्कृत करने के बाद भी प्रोटेस्टेंट राजकुमारों और शहरों ने विद्रोह जारी रखा। 1546 ई. में मार्टिन लूथर की मृत्यु के बाद प्रोटेस्टेंट आंदोलन ने और गति पकड़ी और यह धार्मिक विवाद से राजनीतिक गृहयुद्ध में बदल गया। चार्ल्स पंचम ने 1546-1547 ई. में श्माल्काल्डिक युद्ध लड़ा, जिसमें उन्होंने प्रोटेस्टेंटों को अस्थायी रूप से पराजित किया, लेकिन यह विजय स्थायी न रही। प्रोटेस्टेंट राजकुमारों ने विद्रोह जारी रखा और साम्राज्य में अराजकता फैल गई। चार्ल्स पंचम की उम्र और थकान के कारण उन्होंने अपने भाई फर्डिनेंड प्रथम (जो बाद में सम्राट बने) को सौंप दिया। फर्डिनेंड ने 1555 ई. में आग्सबर्ग में एक सभा बुलाई, जिसमें कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट प्रतिनिधियों के बीच समझौता हुआ। यह संधि आग्सबर्ग की संधि के नाम से जानी जाती है, जो यूरोप के धार्मिक इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुई।

संधि के प्रमुख प्रावधान

आग्सबर्ग की संधि के प्रावधानों ने पवित्र रोमन साम्राज्य के धार्मिक ढाँचे को नया रूप दिया। संधि के मुख्य बिंदु निम्नलिखित थे:

शासक का धर्म, प्रजा का धर्म: प्रत्येक शासक को अपनी और अपनी प्रजा की धार्मिक पसंद चुनने का अधिकार मिला। यदि शासक कैथोलिक था, तो प्रजा भी कैथोलिक रहेगी; यदि लूथरवादी (प्रोटेस्टेंट), है तो प्रजा भी लूथरवादी होगी। यह सिद्धांत साम्राज्य के 300 से अधिक छोटे-छोटे राज्यों में लागू हुआ, जिसने धार्मिक विविधता को वैधता प्रदान की।

संपत्ति और जागीरों की मान्यता: प्रोटेस्टेंटों द्वारा 1552 ई. तक छीनी गई कैथोलिक चर्च की संपत्ति और जागीरों को वैध मान लिया गया। इससे प्रोटेस्टेंट राजकुमारों को आर्थिक लाभ हुआ और कैथोलिकों को नुकसान। लेकिन इसके विपरीत कैथोलिकों द्वारा छीनी गई प्रोटेस्टेंट संपत्ति को वापस नहीं लिया गया।

साम्राज्यिक परिषद में समान प्रतिनिधित्व: साम्राज्य की रीच्सटाग या परिषद में कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंटों को समान प्रतिनिधित्व दिया गया। इससे राजनीतिक निर्णयों में दोनों पक्षों की भागीदारी सुनिश्चित हुई, जो पहले कैथोलिक-प्रधान थी।

अन्य संप्रदायों का बहिष्कार: संधि ने केवल दो संप्रदायों- कैथोलिक और लूथरवाद (प्रोटेस्टेंट) को मान्यता दी। अन्य उभरते संप्रदायों जैसे काल्विनवाद, ज्विंगलीवाद या एनाबैप्टिस्ट को मान्यता नहीं दी गई। यह प्रावधान बाद में विवाद का कारण बना, क्योंकि काल्विनवाद तेजी से फैल रहा था।

आग्सबर्ग की संधि के प्रावधान पूर्ण शांति की बजाय अस्थायी स्थिरता प्रदान करने का प्रयास थे। संधि पर हस्ताक्षर करने वाले प्रमुख व्यक्ति फर्डिनेंड प्रथम और प्रोटेस्टेंट नेता मॉरिस ऑफ सैक्सनी थे।

संधि के प्रभाव और सीमाएँ

आग्सबर्ग की संधि ने तात्कालिक रूप से धार्मिक युद्धों को रोक दिया और पवित्र रोमन साम्राज्य को विघटन से बचा लिया। इसने प्रोटेस्टेंट राजकुमारों को वैधता प्रदान की और कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट सह-अस्तित्व का पहला कानूनी ढाँचा स्थापित किया। जर्मनी में धार्मिक विविधता को स्वीकार कर लिया गया और यह यूरोप में ‘धार्मिक सहिष्णुता’ का प्रारंभिक उदाहरण बना। संधि ने राष्ट्रीय राजतंत्रों को मजबूत किया, क्योंकि शासकों को धार्मिक मामलों में स्वायत्तता मिली।

संधि की सीमाएँ स्पष्ट थीं। ‘शासक का धर्म, प्रजा का धर्म’ सिद्धांत ने व्यक्तिगत धार्मिक स्वतंत्रता को नकार दिया, जिससे असहमत प्रजा को पलायन या विद्रोह का सामना करना पड़ा। अन्य संप्रदाया, जैसे काल्विनवाद को बाहर रखने से नए संघर्ष उत्पन्न हुए। 1552 ई. के बाद काल्विनवाद का प्रसार हुआ और 1562 ई. में फ्रांस में यूग्नो युद्ध शुरू हो गया। जर्मनी में भी धार्मिक तनाव बरकरार रहा, जो 1618-1648 ई. के तीस वर्षीय युद्ध का कारण बना। इस युद्ध का समापन वेस्टफेलिया की संधि (1648 ई.) ने किया, जिसमें काल्विनवाद को भी मान्यता दी गई और धार्मिक स्वतंत्रता को विस्तार मिला। आग्सबर्ग की संधि ने यूरोप को पूर्ण युद्ध से बचाया, लेकिन यह एक अस्थायी व्यवस्था साबित हुई, जो बाद के परिवर्तनों की नींव रखी।

लूथर का व्यापक योगदान

मार्टिन लूथर का महत्त्व केवल धर्मसुधार आंदोलन को प्रारंभ करने तक सीमित नहीं था; उन्होंने जर्मन राष्ट्रीयता को भी प्रोत्साहित किया। उनके जर्मन भाषा में बाइबिल अनुवाद (1522-1534 ई.) ने साधारण जनता को धार्मिक ग्रंथों से जोड़ दिया और जर्मन भाषा को साहित्यिक और राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाया। लूथर के लेखों और भाषणों ने पोपशाही को ‘विदेशी सत्ता’ के रूप में चित्रित कर जर्मन एकता की भावना जगाई। आग्सबर्ग की संधि ने लूथरवाद को वैधता प्रदान कर उनके योगदान को अमर बना दिया, जो बाद में जर्मन राष्ट्रवाद का आधार बना। लूथर की विरासत ने न केवल धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवर्तनों को भी प्रभावित किया।

स्विटजरलैंड में धर्मसुधार: काल्विनवाद

स्विटजरलैंड में धर्मसुधार आंदोलन लूथरवाद से भिन्न था। इसके दो प्रमुख नेता थे: ज्विंगली और काल्विन।

ज्विंगली

ज्विंगली (1484-1531 ई.) का जन्म स्विटजरलैंड के टोगेनबर्ग में एक समृद्ध किसान परिवार में हुआ था। उन्होंने वियना और बासेल विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त की और प्राचीन साहित्य व मानववाद में रुचि ली। कैथेड्रल के धर्मोपदेशक के रूप में उन्होंने पोप की सर्वोच्चता को अस्वीकार कर बाइबिल की सर्वोच्चता पर जोर दिया। 1523 ई. में उन्होंने कैथोलिक चर्च से नाता तोड़ लिया और एक नए प्रोटेस्टेंट चर्च की स्थापना की।

ज्विंगली के विचारों के कारण 1529 ई. में स्विटजरलैंड में गृहयुद्ध शुरू हो गया। 1531 ई. में ज्विंगली मारा गया, लेकिन उसी वर्ष कापेल की संधि के तहत प्रत्येक कैंटन को अपना धर्म चुनने का अधिकार मिल गया।

काल्विन

काल्विन (1509-1564 ई.) का जन्म फ्रांस के नीओ में हुआ। उन्होंने पेरिस विश्वविद्यालय में धर्म और साहित्य, और ऑर्लियाँ विश्वविद्यालय में कानून की शिक्षा प्राप्त की। 1533 ई. में लूथर के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने प्रोटेस्टेंट धर्म अपनाया। फ्रांस में प्रोटेस्टेंटों के दमन के कारण वे स्विटजरलैंड के बासेल में शरण ले गए।

1536 ई. में काल्विन ने ‘ईसाई धर्म की स्थापनाएँ’ लिखी, जो प्रोटेस्टेंट विचारधारा का समन्वित संकलन थी। यह पुस्तक प्रोटेस्टेंटवाद की सबसे प्रभावशाली रचना मानी जाती है। काल्विन के विचार उग्र थे। उन्होंने त्योहारों, आमोद-प्रमोद, और थिएटरों पर प्रतिबंध की माँग की, और यौन-व्यभिचार के लिए मृत्युदंड का समर्थन किया। उनकी असहिष्णुता के कारण असहमत लोगों को दंडित किया गया।

काल्विन ने बाइबिल की सर्वोच्चता और पूर्वनियति सिद्धांत पर बल दिया, जिसके अनुसार मनुष्य का उद्धार जन्म के समय ही तय हो जाता है। इस सिद्धांत ने व्यापारियों में उत्साह और दैवीय प्रेरणा का संचार किया। काल्विन ने सूद लेने को उचित ठहराया, जिससे व्यापारियों का समर्थन मिला।

काल्विनवाद का प्रसार स्विटजरलैंड, डच नीदरलैंड, स्कॉटलैंड और जर्मन पैलेटिनेट में हुआ। इंग्लैंड, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका में भी इसके अनुयायी थे।

इंग्लैंड में धर्मसुधार: एंग्लिकनवाद

इंग्लैंड में धर्मसुधार आंदोलन यूरोप के अन्य देशों में हुए सुधारों से मौलिक रूप से भिन्न था। जहाँ जर्मनी, स्विटजरलैंड और फ्रांस जैसे देशों में यह आंदोलन धार्मिक सुधारकों, जैसे मार्टिन लूथर या जॉन काल्विन के नेतृत्व में जनता की धार्मिक जागृति से प्रेरित था, वहीं इंग्लैंड में यह मुख्य रूप से राजनीतिक और व्यक्तिगत कारणों से संचालित हुआ। यहाँ कोई प्रमुख धार्मिक सुधारक नहीं उभरा जो पोपशाही की आलोचना करता; इसके बजाय, यह राजा हेनरी अष्टम जैसे शासकों की महत्त्वाकांक्षाओं और राष्ट्रीय हितों से जुड़ा था। इस प्रक्रिया ने इंग्लैंड को रोमन कैथोलिक चर्च से अलग कर एक स्वतंत्र राष्ट्रीय चर्च, एंग्लिकन चर्च की स्थापना की, जो कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट तत्वों का एक अनोखा मिश्रण था।

यूरोप में धर्मसुधार आंदोलन (The Reformation Movement in Europe)
इंग्लैंड में प्रति धर्मसुधार
प्रारंभिक विरोध: पोपशाही के विरूद्ध संघर्ष

इंग्लैंड में पोप और रोमन कैथोलिक चर्च के विरोध की जड़ें 11वीं शताब्दी से ही फैली हुई थीं, जब इंग्लैंड ने अपनी राष्ट्रीय पहचान को मजबूत करने के प्रयास शुरू किए। विलियम द कॉंकरर (1066-1087 ई.) ने नॉर्मन विजय के बाद पोप के प्रभाव को सीमित करने का प्रयास किया, लेकिन वह स्वयं कैथोलिक थे और पूर्ण अलगाव का साहस न कर सके। इसी तरह हेनरी द्वितीय (1154-1189 ई.) ने क्लेरेंडन संविधि (1164 ई.) के माध्यम से इंग्लैंड में चर्च के मामलों पर राज्य का नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की, लेकिन पोप के साथ संघर्ष के कारण यह पूरी तरह सफल नहीं हुआ।

14वीं शताब्दी में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के विद्वान और प्रारंभिक सुधारक जॉन वाइक्लिफ (1320-1384 ई.) ने पोपशाही की आलोचना की। उन्होंने बाइबिल का अंग्रेजी अनुवाद कर जनता को चर्च की बुराइयों से अवगत कराया और पादरियों के भ्रष्टाचार पर प्रहार किया। सम्राट एडवर्ड तृतीय (1327-1377 ई.) ने भी पोप के प्रभुत्व को कम करने का प्रयास किया। इन प्रारंभिक विरोधों के बावजूद 1529 ई. तक पोप का प्रभाव इंग्लैंड में मजबूत बना रहा, क्योंकि इंग्लैंड के शासक प्रायः कैथोलिक थे और पूर्ण विद्रोह के लिए साहसिक कदम न उठा सके। ये विरोध धीरे-धीरे राष्ट्रीय भावना को मजबूत करते गए, जो बाद में हेनरी अष्टम के समय फूट पड़े।

हेनरी अष्टम और धर्मसुधार

इंग्लैंड में धर्मसुधार आंदोलन का वास्तविक प्रारंभ हेनरी अष्टम (1509-1547 ई.) के शासनकाल में हुआ, लेकिन यह धार्मिक जागृति से अधिक उनकी निजी और राजनीतिक इच्छाओं से प्रेरित था। हेनरी की पहली पत्नी कैथरिन ऑफ अरागॉन (अरागॉन की कैथरीन) 18 वर्षों के विवाह में केवल एक पुत्री मेरी ट्यूडर को जन्म दे सकी। हेनरी को एक पुत्र की आवश्यकता थी, क्योंकि ट्यूडर राजवंश की निरंतरता के लिए पुरुष उत्तराधिकारी अनिवार्य था। उन्होंने पोप क्लेमेंट सप्तम से अपने विवाह को अमान्य घोषित करने का आग्रह किया, ताकि वे ऐन बोलिन से विवाह कर सकें। लेकिन पोप ने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि कैथरिन सम्राट चार्ल्स पंचम (कैथरिन की भतीजी) की बुआ थीं और चार्ल्स की सेना रोम की रक्षा करती थी। पोप चार्ल्स को नाराज नहीं कर सकता था।

इस अस्वीकृति ने हेनरी को विद्रोह के लिए प्रेरित किया। 1534 ई. में संसद ने ऐक्ट ऑफ सुप्रीमेसी पारित किया, जिसके तहत हेनरी को इंग्लैंड के चर्च का सर्वोच्च अधिकारी (सुप्रीम हेड) घोषित कर दिया गया। इससे इंग्लैंड रोमन कैथोलिक चर्च से आधिकारिक रूप से अलग हो गया और पोप को श्रोम का विदेशी बिशपश् करार दिया गया। हेनरी ने कैथोलिक मठों और मरम्मों की विशाल संपत्ति को जब्त कर लिया, जिसे ‘डिसॉल्यूशन ऑफ द मॉनेस्ट्रीज’ (1536-1541 ई.) कहा जाता है। इस संपत्ति को राष्ट्रीय खजाने में जमा किया गया, जिससे हेनरी की आर्थिक शक्ति बढ़ी।

उन्होंने थॉमस क्रैनमर को कैंटरबरी का आर्चबिशप नियुक्त किया, जिसने हेनरी के कैथरिन से विवाह को अमान्य घोषित कर दिया। हेनरी ने ऐन बोलिन से विवाह किया, लेकिन बाद में ऐन को भी दोषी ठहराकर मृत्युदंड दे दिया गया। हेनरी का उद्देश्य धार्मिक सुधार नहीं, बल्कि पोप की सत्ता को समाप्त कर राष्ट्रीय चर्च की स्थापना करना था। उनके शासनकाल में इंग्लैंड का चर्च न तो पूर्णतः कैथोलिक रहा, न ही प्रोटेस्टेंट। यह एक संक्रमणकालीन अवस्था थी, जिसे बाद के शासकों ने परिपक्व किया।

एडवर्ड षष्ठ और धर्मसुधार

हेनरी अष्टम की मृत्यु के बाद उनका उत्तराधिकारी एडवर्ड षष्ठ (1547-1553 ई.) सिंहासन पर बैठा, लेकिन वह मात्र नौ वर्ष का बालक था। इसलिए शासन उनके संरक्षकों- ड्यूक ऑफ समरसेट (एडवर्ड का चाचा) और बाद में ड्यूक ऑफ नॉर्थम्बरलैंड के हाथों में रहा। इन संरक्षकों ने प्रोटेस्टेंट सिद्धांतों को बढ़ावा दिया, जो यूरोप के अन्य प्रोटेस्टेंट आंदोलनों से प्रेरित था।

समरसेट ने राजद्रोह के पुराने कानूनों को रद्द कर दिया और हेनरी के छह धाराओं वाले कानूनों को समाप्त किया, जिससे यूरोप के कई प्रोटेस्टेंट धर्मप्रचारक इंग्लैंड पहुँच सके। आर्चबिशप क्रैनमर ने गिरजाघरों की बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया। 1549 ई. में क्रैनमर ने बुक ऑफ कॉमन प्रेयर तैयार की, जो पूर्णतः प्रोटेस्टेंट सिद्धांतों पर आधारित थी। यह प्रार्थना-पुस्तक अंग्रेजी भाषा में थी, जो जनता को धार्मिक अनुष्ठानों से जोड़ने का माध्यम बनी।

1552 ई. में नॉर्थम्बरलैंड के प्रभाव में दूसरी प्रार्थना-पुस्तक जारी हुई, जो पहली से अधिक प्रोटेस्टेंट और काल्विनवादी विचारों से प्रभावित थी। इसमें पादरियों के विवाह को अनुमति दी गई और कैथोलिक कर्मकांडों को कम किया गया। इन परिवर्तनों के फलस्वरूप इंग्लैंड का चर्च का एंग्लिकन चर्च के रूप में उदय हुआ, जो राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक बन गया। लेकिन एडवर्ड की असामयिक मृत्यु (मात्र 15 वर्ष की आयु में) ने इस प्रक्रिया को अस्थिर कर दिया।

मेरी ट्यूडर और प्रतिधर्मसुधार

एडवर्ड षष्ठ की मृत्यु के बाद हेनरी अष्टम और कैथरिन की पुत्री मेरी ट्यूडर (1553-1558 ई.) सिंहासन पर बैठीं। वह कट्टर कैथोलिक थीं और अपनी माँ के अपमान को कभी न भूल सकीं। मेरी ने प्रोटेस्टेंट सुधारों को उलटने का प्रयास किया और कैथोलिक धर्म तथा पोप की सर्वोच्चता को पुनः स्थापित करने की कोशिश की। संसद को हेनरी और एडवर्ड के कानूनों को बदलना पड़ा।

मेरी ने लगभग 300 प्रोटेस्टेंट सुधारकों, जिसमें आर्चबिशप क्रैनमर, बिशप रिडले और बिशप लेटीमर शामिल थे, को नास्तिकता के आरोप में जिंदा जला दिया। इन क्रूरताओं के कारण उन्हें ‘खूनी मेरी’ (ठसववकल डंतल) कहा गया है। अपनी कैथोलिक नीतियों को मजबूत करने के लिए मेरी ने स्पेन के कट्टर कैथोलिक सम्राट फिलिप द्वितीय से विवाह किया (1554 ई.), लेकिन ब्रिटिष जनता ने इस विवाह का भारी विरोध किया, क्योंकि इससे स्पेन का प्रभाव बढ़ने का डर था। इस प्रकार मेरी का शासन प्रोटेस्टेंट आंदोलन को दबाने में विफल रहा और उलटे प्रोटेस्टेंट भावनाओं को और मजबूत कर दिया। उनकी मृत्यु (1558 ई.) के बाद एंग्लिकनवाद की राह आसान हो गई।

एलिजाबेथ और धर्मसुधार

मेरी ट्यूडर की निःसंतान मृत्यु के बाद हेनरी अष्टम और ऐन बोलिन की पुत्री एलिजाबेथ प्रथम (1558-1603 ई.) सिंहासन पर बैठीं। एलिजाबेथ को धर्म से उतना लगाव नहीं था जितना राजनीतिक हितों के लिए आवश्यक था। वह व्यक्तिगत रूप से पोप की विरोधी थीं, क्योंकि पोप ने उन्हें हेनरी की ‘अवैध संतान’ घोषित कर दिया था। इसके अलावा, पोप और कैथोलिक समर्थक एलिजाबेथ के स्थान पर स्कॉटलैंड की कैथोलिक मेरी स्टुअर्ट को इंग्लैंड की रानी बनाना चाहते थे।

1559 ई. में एलिजाबेथ ने सर्वोच्चता और एकरूपता का कानून पारित किया, जिसके तहत वह स्वयं चर्च की प्रधान अधिकारी बनीं। उन्होंने एडवर्ड षष्ठ की प्रार्थना-पुस्तक के 42 सिद्धांतों में से कैथोलिकों को अस्वीकार्य धाराओं को हटाकर 39 सिद्धांत तैयार करवाए, जो एंग्लिकनवाद का आधार बने। रविवार को चर्च में प्रार्थना को अनिवार्य कर दिया गया और उल्लंघन पर प्रति रविवार एक शिलिंग का जुर्माना लगाया गया।

एलिजाबेथ ने मध्यम मार्ग अपनाया: उन्होंने न तो इंग्लैंड को उग्र प्रोटेस्टेंट (प्यूरिटन) बनाया और न ही कैथोलिकों का कठोर दमन किया। उन्होंने कैथोलिकों को प्रोटेस्टेंट सेवा में भाग लेने की अनुमति दी, लेकिन पोप के प्रति निष्ठा को अपराध माना। इस संतुलित नीति ने एंग्लिकन चर्च को स्थायी रूप प्रदान किया, जो प्रशासनिक रूप से प्रोटेस्टेंट (राजा का नियंत्रण), कर्मकांड में रोमन कैथोलिक (अनुष्ठान) और धर्मशास्त्र में काल्विनवादी (सिद्धांत) था। एलिजाबेथ की दूरदृष्टि ने इंग्लैंड को धार्मिक युद्धों से बचा लिया और राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया।

इस प्रकार इंग्लैंड में धर्मसुधार ने एक ऐसा राष्ट्रीय चर्च स्थापित किया जो धार्मिक सुधार से अधिक राजनीतिक स्वायत्तता का प्रतीक था। हेनरी अष्टम की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं से शुरू होकर एलिजाबेथ की संतुलित नीतियों तक यह प्रक्रिया इंग्लैंड को यूरोप के धार्मिक युद्धों से अलग रखने में सफल रही। एंग्लिकनवाद ने ब्रिटिश राष्ट्रीयता को मजबूत किया और आधुनिक ब्रिटेन की धार्मिक संरचना का आधार रखा, जहाँ चर्च राज्य के अधीन है।

धर्मसुधार आंदोलन की प्रकृति

16वीं शताब्दी का धर्मसुधार आंदोलन यूरोप के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तनकारी घटना थी। इस आंदोलन की प्रकृति विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न थी, विशेष रूप से इंग्लैंड और यूरोप के अन्य देशों, जैसे जर्मनी, स्विटजरलैंड और फ्रांस में। जहाँ यूरोप के अधिकांश हिस्सों में यह आंदोलन जनता द्वारा शुरू हुआ और मुख्य रूप से धार्मिक था, वहीं इंग्लैंड में यह शासकों के नेतृत्व में हुआ और इसका स्वरूप प्रायः राजनीतिक था।

यूरोप के अधिकांश देशों, विशेष रूप से जर्मनी और स्विटजरलैंड में धर्मसुधार आंदोलन का स्वरूप मुख्य रूप से धार्मिक था और इसकी षुरूआत जनता के बीच से हुई। इस आंदोलन की शुरुआत रोमन कैथोलिक चर्च और पोपशाही की अनैतिकता, भ्रष्टाचार और निरंकुशता के खिलाफ जनता के असंतोष से हुई। मार्टिन लूथर (जर्मनी), ज्विंगली (स्विटजरलैंड) और काल्विन (जेनेवा) जैसे सुधारकों ने चर्च की प्रथाओं, जैसे पापमोचन पत्रों (इंडलजेंस) की बिक्री, टाइथ कर और पादरियों की विलासिता, की कटु आलोचना की।

लूथर के 95 प्रश्नों (1517 ई.) ने जर्मनी में एक व्यापक बहस को जन्म दिया, जिसने जनसाधारण को चर्च के खिलाफ संगठित किया। यह आंदोलन धार्मिक सिद्धांतों को सरल बनाने, बाइबिल की सर्वोच्चता को स्थापित करने और व्यक्तिगत आस्था पर जोर देने पर केंद्रित था, जैसे लूथर ने सात संस्कारों में से केवल तीन को मान्यता दी,और काल्विन ने पूर्वनियति सिद्धांत का प्रतिपादन किया। स्विटजरलैंड में ज्विंगली और काल्विन ने धार्मिक प्रथाओं को और कठोर बनाया, जैसे त्योहारों और आमोद-प्रमोद पर प्रतिबंध।

इसके अतिरिक्त, पुनर्जागरण और मुद्रण के आविष्कार ने जनता को तर्कवादी बनाया और बाइबिल के क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद ने धार्मिक ग्रंथों को सुलभ बनाया। यह जनता का आंदोलन था, जिसमें किसानों, मध्यम वर्ग और कुछ स्थानीय शासकों ने समर्थन दिया। इस प्रकार यूरोप में धर्मसुधार आंदोलन एक धार्मिक क्रांति था, जिसका उद्देश्य चर्च को सुधारना और ईसाई धर्म को शुद्ध करना था।

इंग्लैंड में धर्मसुधार आंदोलन की प्रकृति यूरोप के अन्य हिस्सों से मौलिक रूप से भिन्न थी, क्योंकि यह शासकों द्वारा शुरू किया गया और इसका स्वरूप प्रायः राजनीतिक था। इस आंदोलन का नेतृत्व हेनरी अष्टम (1509-1547 ई.) ने किया, जिनका प्राथमिक उद्देश्य रोमन कैथोलिक चर्च और पोप की सत्ता को समाप्त करना था, न कि धार्मिक सिद्धांतों में सुधार लाना।

हेनरी अष्टम का यह कदम उनकी व्यक्तिगत और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं से प्रेरित था। उनकी पहली पत्नी कैथरिन ऑफ अरागॉन से केवल एक पुत्री मेरी हुई, जबकि उन्हें उत्तराधिकारी पुत्र की आवश्यकता थी। जब पोप क्लेमेंट सप्तम ने उनके विवाह को अमान्य करने से इनकार कर दिया, तो हेनरी ने 1534 ई. में ऐक्ट ऑफ सुप्रीमेसी पारित कर स्वयं को इंग्लैंड के चर्च का सर्वोच्च अधिकारी घोषित किया। इसने इंग्लैंड के चर्च को रोम से पूरी तरह अलग कर दिया और एंग्लिकन चर्च की नींव रखी।

हेनरी ने कैथोलिक मठों की संपत्ति और जागीरों को हड़प लिया, जिससे राजकोष की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई। हेनरी का उद्देश्य धार्मिक सुधार नहीं था; उन्होंने कैथोलिक सिद्धांतों को बनाए रखा और प्रोटेस्टेंट विचारों का समर्थन नहीं किया। इस प्रकार इंग्लैंड में धर्मसुधार का स्वरूप शासक-प्रधान और राजनीतिक था, जिसमें धार्मिक परिवर्तन गौण थे।

धार्मिक बनाम राजनीतिक प्रेरणा

यूरोप और इंग्लैंड में धर्मसुधार की प्रेरणाएँ भी भिन्न थीं। यूरोप में, विशेष रूप से जर्मनी और स्विटजरलैंड में आंदोलन की प्रेरणा धार्मिक थी। लूथर और काल्विन जैसे सुधारक चर्च की भ्रष्ट प्रथाओं, जैसे पापमोचन पत्रों की बिक्री और पादरियों की अनैतिकता को समाप्त करना चाहते थे। उनका लक्ष्य ईसाई धर्म को उसकी मूल शुद्धता में लौटाना और व्यक्तिगत आस्था को बढ़ावा देना था। इन सुधारकों ने बाइबिल को सर्वोच्च मानते हुए पोप की मध्यस्थता को अनावश्यक बताया।

इसके विपरीत, इंग्लैंड में धर्मसुधार की प्रेरणा मुख्य रूप से राजनीतिक और व्यक्तिगत थी। हेनरी अष्टम का पोप से विवाद उनके निजी जीवन और राष्ट्रीय सत्ता को मजबूत करने की इच्छा से जुड़ा था। पोप को एक विदेशी सत्ता के रूप में देखा गया, जो इंग्लैंड की संप्रभुता के लिए खतरा था। हेनरी ने पोप की सत्ता को समाप्त कर राष्ट्रीय चर्च की स्थापना की, जिससे उनकी शक्ति और संपत्ति में वृद्धि हुई। बाद में, एलिजाबेथ प्रथम (1558-1603 ई.) ने इस आंदोलन को मध्यम मार्ग अपनाकर स्थायित्व प्रदान किया, जिसमें कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट तत्वों का समन्वय किया गया।

सामाजिक और सांस्कृतिक आयाम

धर्मसुधार आंदोलन की प्रकृति केवल धार्मिक और राजनीतिक तक सीमित नहीं थी; इसके सामाजिक और सांस्कृतिक आयाम भी थे। यूरोप में, विशेष रूप से प्रोटेस्टेंट क्षेत्रों में इस आंदोलन ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता, तर्कवाद और शिक्षा को प्रोत्साहन दिया। बाइबिल के क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद और मुद्रण के प्रसार ने जनसाधारण को धार्मिक ग्रंथों तक पहुँच प्रदान की, जिससे धार्मिक जागरूकता और स्वतंत्र चिंतन बढ़ा। काल्विनवाद ने मेहनत, अनुशासन और व्यक्तिगत जिम्मेदारी को बढ़ावा दिया, जो बाद में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के विकास का आधार बना।

इंग्लैंड में धर्मसुधार ने राष्ट्रीय पहचान को मजबूत किया। एंग्लिकन चर्च की स्थापना ने इंग्लैंड को एक स्वतंत्र राष्ट्रीय इकाई के रूप में स्थापित किया, जो पोप की विदेशी सत्ता से मुक्त थी। यद्यपि इंग्लैंड में धार्मिक सुधार जनता के बीच उतना उत्साहपूर्ण नहीं था, क्योंकि यह शासकों द्वारा थोपा गया था। फिर भी, एलिजाबेथ के शासनकाल में एंग्लिकन चर्च ने कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट तत्वों के मिश्रित स्वरूप के साथ सामाजिक एकता को बढ़ावा दिया।

क्षेत्रीय अंतर और प्रभाव

धर्मसुधार आंदोलन की प्रकृति के क्षेत्रीय अंतरों ने इसके प्रभावों को भी आकार दिया। यूरोप के प्रोटेस्टेंट क्षेत्रों में, जैसे जर्मनी और स्विटजरलैंड में आंदोलन ने धार्मिक और सामाजिक सुधारों को प्राथमिकता दी। जर्मनी में लूथरवाद ने छोटे शासकों और किसानों को संगठित किया, जिससे सामंती और चर्च की सत्ता कमजोर हुई। स्विटजरलैंड में काल्विनवाद ने व्यापारियों और मध्यम वर्ग को आकर्षित किया, जिसने आर्थिक गतिशीलता को बढ़ाया।

इंग्लैंड में आंदोलन ने राष्ट्रीय राजतंत्र को सुदृढ़ किया और चर्च की संपत्ति के पुनर्वितरण से आर्थिक समृद्धि बढ़ी। लेकिन धार्मिक सुधारों की तुलना में राजनीतिक और प्रशासनिक परिवर्तन अधिक प्रमुख थे। आग्सबर्ग की संधि (1555 ई.) और वेस्टफेलिया की संधि (1648 ई.) जैसे समझौतों ने यूरोप में धार्मिक सह-अस्तित्व को स्थापित किया, जबकि इंग्लैंड में एलिजाबेथ के मध्यम मार्ग ने धार्मिक स्थिरता सुनिश्चित की।

धर्मसुधार आंदोलन की प्रकृति यूरोप और इंग्लैंड में भिन्न थी। यूरोप में यह जनता द्वारा शुरू हुआ एक धार्मिक आंदोलन था, जिसका उद्देश्य चर्च की भ्रष्ट प्रथाओं को सुधारना और ईसाई धर्म को शुद्ध करना था। इसके विपरीत, इंग्लैंड में यह शासकों द्वारा शुरू किया गया और मुख्य रूप से राजनीतिक था, जिसमें हेनरी अष्टम जैसे शासकों ने पोप की सत्ता को समाप्त कर राष्ट्रीय संप्रभुता और आर्थिक शक्ति को बढ़ाया। फिर भी, दोनों क्षेत्रों में इस आंदोलन ने धार्मिक, सामाजि, और राजनीतिक परिवर्तनों को प्रेरित किया, जिसने आधुनिक यूरोप के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

धर्मसुधार आंदोलन के परिणाम

16वीं शताब्दी का धर्मसुधार आंदोलन यूरोप के धार्मिक, सामाजिक, और राजनीतिक परिदृश्य में एक क्रांतिकारी परिवर्तन का प्रतीक था। इस आंदोलन ने न केवल रोमन कैथोलिक चर्च की सर्वोच्चता को चुनौती दी, बल्कि यूरोपीय समाज के विभिन्न पहलुओं को भी गहराई से प्रभावित किया।

प्रोटेस्टेंट संप्रदायों का उदय और विस्तार

धर्मसुधार आंदोलन का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम प्रोटेस्टेंट संप्रदायों का उदय और उनका व्यापक प्रसार था। मार्टिन लूथर, ज्विंगली और काल्विन जैसे सुधारकों के नेतृत्व में शुरू हुआ यह आंदोलन कैथोलिक चर्च की एकछत्र सत्ता के खिलाफ था। 16वीं शताब्दी के अंत तक प्रोटेस्टेंटवाद उत्तरी जर्मनी, स्कैंडिनेविया (स्वीडन, डेनमार्क, नॉर्वे), बाल्टिक प्रांतों, स्विटजरलैंड, डच नीदरलैंड, स्कॉटलैंड और इंग्लैंड में स्थापित हो चुका था। इन क्षेत्रों में लूथरवाद, काल्विनवाद और एंग्लिकनवाद जैसे संप्रदायों ने मजबूत जड़ें जमा लीं।

इसके अतिरिक्त, फ्रांस में यूग्नो के रूप में प्रोटेस्टेंट अनुयायियों की संख्या बढ़ी और बोहेमिया, पोलैंड और हंगरी जैसे क्षेत्रों में भी प्रोटेस्टेंटवाद के अनुयायी उभरे। यद्यपि विभिन्न प्रोटेस्टेंट शाखाओं, जैसे लूथरवाद, काल्विनवाद और ज्विंगलीवाद के बीच सिद्धांतों को लेकर मतभेद थे, लेकिन सभी का एक साझा उद्देश्य था- रोमन कैथोलिक चर्च की निरंकुशता का विरोध। इस प्रकार धर्मसुधार ने यूरोप के ईसाई संसार को दो परस्पर विरोधी गुटों में विभाजित कर दिया, जिसने धार्मिक विविधता को जन्म दिया।

कैथोलिक चर्च में सुधार

धर्मसुधार आंदोलन ने कैथोलिक चर्च को भी अपनी कार्यप्रणाली और संरचना में सुधार करने के लिए बाध्य किया। प्रोटेस्टेंट आंदोलन के बढ़ते प्रभाव और कैथोलिक चर्च की आलोचनाओं के प्रत्युत्तर में कैथोलिक चर्च ने ट्रेंट की विश्वसभा (1545-1563 ई.) का आयोजन किया। इस सभा में कई महत्त्वपूर्ण सुधार किए गए, जैसे पुरोहितों के लिए बेहतर शिक्षण और प्रशिक्षण की व्यवस्था, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण और चर्च की संगठनात्मक संरचना को सुदृढ़ करना।

इसके साथ ही, इस अवधि में अधिक प्रतिभाशाली और नैतिक पोपों का चुनाव हुआ, जिन्होंने चर्च की छवि को पुनर्स्थापित करने में मदद की। बिशपों की सामंती प्रवृत्तियों को समाप्त कर धार्मिक और नैतिक व्यक्तियों की नियुक्ति की गई। इन सुधारों ने, जिन्हें प्रति-धर्मसुधार कहा जाता है, कैथोलिक चर्च को प्रोटेस्टेंट चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाया और उसका सम्मान पुनः स्थापित किया। इस प्रकार धर्मसुधार आंदोलन का सबसे गहरा प्रभाव शायद कैथोलिक चर्च पर ही पड़ा।

राजाओं की शक्ति में वृद्धि

धर्मसुधार आंदोलन ने यूरोप के राजतंत्रों की शक्ति और प्रभाव को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। पहले, रोमन कैथोलिक चर्च और पोप राजाओं से स्वतंत्र थे और उनके पास व्यापक धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकार थे। किंतु धर्मसुधार के परिणामस्वरूप कई क्षेत्रों में चर्च और पोप की सत्ता राजाओं के अधीन हो गई। इंग्लैंड में हेनरी अष्टम ने ऐक्ट ऑफ सुप्रीमेसी (1534 ई.) के तहत स्वयं को चर्च का सर्वोच्च अधिकारी घोषित किया। इसी तरह, जर्मनी और स्कैंडिनेविया के शासकों ने प्रोटेस्टेंट संप्रदायों को अपनाकर चर्च की संपत्ति और जागीरों पर नियंत्रण स्थापित किया। मठों और चर्च की संपत्ति पर राज्य का अधिकार होने से राजाओं की आर्थिक समृद्धि बढ़ी, जिसने उनकी सैन्य और प्रशासनिक शक्ति को और सुदृढ़ किया। इस प्रकार धर्मसुधार ने राष्ट्रीय राजतंत्रों को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

राष्ट्रीय भावनाओं का उदय

धर्मसुधार आंदोलन ने यूरोप में राष्ट्रीय भावनाओं के जन्म और विकास को प्रोत्साहन दिया। कैथोलिक चर्च और पोपशाही को एक विदेशी सत्ता के रूप में देखा जाने लगा, जिसके खिलाफ विभिन्न देशों की जनता और शासकों ने एकजुट होकर राष्ट्रीय पहचान को मजबूत किया। लूथरवाद ने जर्मन राष्ट्रीयता को प्रेरित किया, विशेषकर मार्टिन लूथर के जर्मन भाषा में बाइबिल अनुवाद और उनके लेखों ने जर्मन जनता में एकता और गौरव की भावना जागृत की।

इसी तरह काल्विनवाद ने डच और स्कॉटिश राष्ट्रीयता को बढ़ावा दिया। स्कॉटलैंड में काल्विनवादी सिद्धांतों पर आधारित प्रेस्बिटेरियन चर्च ने राष्ट्रीय पहचान को मजबूत किया। इंग्लैंड में एंग्लिकनवाद ने ब्रिटिश राष्ट्रीयता को आकार दिया। धर्मसुधार ने जन-जागृति को बढ़ावा दिया, जिससे स्वतंत्र विचारों की अभिव्यक्ति और तर्कवादी चिंतन की प्रवृत्ति प्रबल हुई। इस प्रकार धर्मसुधार ने यूरोप में राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता की भावना को बल प्रदान किया।

राजनीतिक परिणाम

धर्मसुधार आंदोलन ने यूरोप में धार्मिक और राजनीतिक उथल-पुथल को जन्म दिया। ईसाई धर्म के दो परस्पर विरोधी गुटों- कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के उदय से यूरोप में कई धार्मिक युद्ध लड़े गए। इनमें तीसवर्षीय युद्ध (1618-1648 ई.) जर्मनी में एक प्रमुख उदाहरण है, जिसमें कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट शासकों के बीच संघर्ष ने भारी विनाश किया।

फ्रांस में यूग्नो युद्ध (1562-1598 ई.) कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंट यूग्नो के बीच लड़े गए, जिन्होंने फ्रांसीसी समाज को गहरे रूप से विभाजित कर दिया। डच नीदरलैंड में प्रोटेस्टेंटों ने कैथोलिक शासक चार्ल्स पंचम और उनके उत्तराधिकारी फिलिप द्वितीय के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम (1568-1648 ई.) लड़ा, जो अंततः डच स्वतंत्रता में परिणत हुआ। इन युद्धों ने यूरोप के राजनीतिक परिदृश्य को नया रूप दिया और राष्ट्रीय सीमाओं व शक्ति संतुलन को प्रभावित किया।

सामाजिक परिणाम

धर्मसुधार आंदोलन ने यूरोपीय समाज के सामाजिक ढाँचे में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाए। चर्च की शक्ति और संपत्ति पर नियंत्रण से सामाजिक संतुलन में बदलाव आया। पहले चर्च के पास विशाल जागीरें और संपत्ति थी, जो सामंती व्यवस्था का हिस्सा थी। किंतु धर्मसुधार के बाद कई क्षेत्रों में यह संपत्ति शासकों और नए भू-स्वामियों के हाथों में चली गई। इस प्रक्रिया से एक नया भू-स्वामी वर्ग उभरा, जिसने सामाजिक और आर्थिक शक्ति को पुनर्वितरित किया।

चर्च के अधिकारियों और पादरियों का प्रभाव कम हुआ, जिससे जनसाधारण में चर्च के प्रति भय और निर्भरता घटी। साथ ही, प्रोटेस्टेंट सिद्धांतों, विशेषकर काल्विनवाद ने मेहनत, अनुशासन और व्यक्तिगत जिम्मेदारी को प्रोत्साहित किया, जिसने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और मध्यम वर्ग के उदय में योगदान दिया। इस प्रकार, धर्मसुधार ने सामाजिक गतिशीलता और आर्थिक परिवर्तनों को बढ़ावा दिया।

धर्मसुधार आंदोलन ने यूरोप के धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को स्थायी रूप से बदल दिया। इसने न केवल प्रोटेस्टेंट संप्रदायों को जन्म दिया, बल्कि कैथोलिक चर्च में सुधार, राजतंत्रों की शक्ति में वृद्धि, राष्ट्रीय भावनाओं का उदय और सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों को भी प्रेरित किया। इस आंदोलन ने यूरोप को एक अधिक विविध, तर्कवादी और राष्ट्रीयता-प्रधान समाज की ओर अग्रसर किया, जिसके प्रभाव आधुनिक युग तक देखे जा सकते हैं।

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