यूरोप में पुनर्जागरण (Renaissance in Europe)

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यूरोप में पुनर्जागरण

पुनर्जागरण (Renaissance) का शब्दिक अर्थ होता हैः पुनर्जीवित होना, पुनर्जागृत होना इत्यादि। इस रूप में पुनर्जागरण शब्द का अर्थ, महत्व और प्रयोग मध्यकाल से आधुनिक काल के बीच संक्रमण के दौरान व्यक्त होनेवाले बौद्धिक, कलात्मक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में होनेवाले परिवर्तनों से जुड़ा हुआ है। पुनर्जागरण के कारण यूरोप के इतिहास में महत्वपूर्ण और खासकर मानव-जीवन से संबंधित समस्याओं के संबंध में लोगों के दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन आया। इसके साथ-साथ पुनर्जागरण की अभिव्यक्ति केवल कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं हुई, बल्कि राजनीतिक, अर्थिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में भी पुनर्जागरण की अभिव्यक्ति हुई। इस प्रकार पुनर्जागरण को वृहत तौर पर मध्ययुग की विरोधी विचारधारा माना जाता है और विशेषकर इटली के संदर्भ में पुनर्जागरण की चेतना को मानववाद से जोड़ दिया गया है। सही अर्थो में पुनर्जागरण विश्व और मानव की खोज था। इसने आधुनिक सभ्यता का आधार निर्मित किया, जिसकी अभिव्यक्ति गणतंत्रवादी स्वतंत्रता के रूप में हुई। यह अध्ययन की एक प्रणाली ही नहीं, वरन् एक विशेष प्रकार की मनोवृत्ति भी था।

पुनर्जागरण का अर्थ

चौदहवीं और सोलहवीं शताब्दी के बीच यूरोप में जो सांस्कृतिक प्रगति हुई, उसे ही ‘पुनर्जागरण’ कहा जाता है। पुनर्जागरण ने अपनी बुद्धि, तर्क के आधार पर अपने युग के सारे परंपरागत व्यवस्थाओं पर प्रश्न खड़ा किया तथा एक वैकल्पिक एवं आधुनिक व्यवस्था के कार्यक्रम की शुरुआत की। पुनर्जागरण के फलस्वरूप इसके परिणामस्वरुप मध्यकाल की आस्थावादी मनोदशा, तर्कवादी आधुनिक काल की मनोदशा में रुपांतरित हो गया जिससे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक नवीन चेतना आई। इसके साथ ही साथ सांस्कृतिक एवं वैचारिक भावनाओं को मूर्त रुप देने में पुनर्जागरण एक सर्वाधिक सशक्त आधार बना।

पुनर्जागरण (Renaissance) मनुष्य की बौद्धिक और कलात्मक ऊर्जाओं की एक ऐसी अभिव्यक्ति थी जिसके द्वारा यूरोप ने मध्यकाल से निकल कर आधुनिक काल में प्रवेश किया। इसने जीवन के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक पक्षों में भी व्यापक परिवर्तन लाया। दूसरे शब्दों में, पुनर्जागरण आंदोलन केवल पुराने ज्ञान के उद्धार तक ही सीमित नहीं था, बल्कि इस युद्ध में कला, साहित्य और विज्ञान के क्षेत्र में नवीन प्रयोग हुए। नये अनुसंधान हुए और ज्ञान-प्राप्ति के नये-नये तरीके खोज निकाले गये। इसने परलोकवाद और धर्मवाद के स्थान पर मानववाद को प्रतिष्ठित किया।

दरअसल पुनर्जागरण (Renaissance) वह आंदोलन था जिसके द्वारा पश्चिम के राष्ट्र मध्ययुग से निकलकर आधुनिक युग के विचार और जीवन-शैली अपनाने लगे। इस युग में लोगों ने मध्यकालीन संकीर्णता छोड़कर स्वयं को नई खोजों, नवीनतम विचारों तथा सामजिक, सांस्कृतिक एवं बौद्धिक उन्नति से सुसज्जित किया। यूरोप के निवासियों ने भौगोलिक, व्यापारिक, सामजिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्रों में प्रगति की। इस काल में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वथा नवीन दृष्टिकोण, आदर्श और आशा का संचार हुआ। पुनर्जागरणकालीन साहित्य मनुष्य और मनुष्य से संबंधित सभी अवयवों से जुडा था और इसकी रचना जनसामान्य की भाषाओं में हुई थी। इस दृष्टि से पुनर्जागरणकालीन साहित्य मध्ययुगीय साहित्य से भिन्न था जिसमें धर्म की बहुलता थी और जिसकी रचना लैटिन भाषा में हुई थी।

इसके अलावा, कला भी धार्मिक बंधनों से मुक्त होकर अधिक यथार्थवादी हो गई। कला अब जीवंत एवं आकर्षक हो गई। लियोनार्दो द विंसी, माइकल ऐंजलो एवं राफेल आदि इस युग के प्रसिद्व कलाकार थे। इस युग में मूर्तिकला स्थापत्य कला की अधीनता से मुक्त होकर एक स्वतंत्र कला के रुप में स्थापित हुई और साथ ही एक धर्मनिरपेक्ष उद्देश्य से भी प्रेरित होने लगी। पुनर्जागरण चेतना के प्रभाव में गोथिक स्थापत्य का अवसान हो गया। इस प्रकार पुनर्जागरण उस बौद्धिक आंदोलन का नाम है जिसने रोम और यूनान की प्राचीन सभ्यता-संस्कृति का पुनरुद्धार कर नई चेतना को जन्म दिया।

यूरोप में पुनर्जागरण (Renaissance in Europe)
यूरोप में पुनर्जागरण

पुनर्जागरण के मुख्य कारण

धर्मयुद्ध अर्थात् क्रूसेड

पुनर्जागरण के आगमन में धर्मयुद्ध का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पश्चिम एशिया में ईसाई धर्म के पवित्र स्थान येरूशलम की मुक्ति के लिए पोप की अध्यक्षता में पश्चिमी यूरोप के देशों से हजारों ईसाई योद्धा धर्मयुद्ध में भाग लेने के लिए गये। यह धर्मयुद्ध लगभग दो सौ वर्षों तक पूरब और पश्चिम के बीच चलता रहा। इन युद्धों के कारण पश्चिम यूरोप के लोग पूरब में विजेंटाइन साम्राज्य तथा तुर्कों के संपर्क में आये, जो ज्ञान के प्रकाश से आलोकित थे। आगे चलकर इन्हीं योद्धाओं ने यूरोप में पुनर्जागरण की नींव मजबूत की। पूर्वी देशों में अरब के लोगों ने यूनान तथा भारतीय सभ्यताओं के संपर्क से एक नई समृद्ध सभ्यता का विकास किया था। इसके कारण पश्चिमी यूरोप के लोगों में बौद्धिक परिवर्तन हुआ और अरबों से संपर्क से उन्होंने यूनानी दार्शनिकों के ग्रंथों, अरबी अंकगणित, बीजगणित, दिशासूचक यंत्र, कागज आदि बनाने की कला आदि को सीखा। आगे चलकर इन्हीं योद्धाओं ने यूरोप को ईसाई धर्म की संकीर्णता तथा अंधविश्वासों से मुक्त किया।

धर्मयुद्धों ने भौगोलिक खोजों को प्रोत्साहन दिया जिससे यूरोपवासियों के भौगोलिक ज्ञान में वृद्धि हुई और यूरोपीय नाविकों ने लंबी यात्राएँ किया जाना संभव हुआ और बौद्धिक विकास को बढ़ावा मिला। यूरोप के कई साहसिक नाविकों ने भौगोलिक जिज्ञासा के कारण पूर्वी देशों की यात्राएँ की और नवीन देशों तथा मार्गों का पता लगाया। 1492 में स्पेन के क्रिस्टोफर कोलंबस ने ‘नई दुनिया’ (अमरीका) की खोज की और इटली के अमेरिगो बेस्पुसी के नाम पर अमेरिका का नाम अमेरिका पड़ा। पहली बार स्पेन के मैजेलन ने समुद्र के मार्ग से पूरे विश्व का चक्कर लगाया और प्रशांत महासागर का नामकरण किया।

वाणिज्य-व्यापार का विकास

पुनर्जागरण का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण वाणिज्य-व्यापार का विकास था। क्रूसेड के कारण यूरोप के पूर्वी देशों के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित हुए और यूरोपीय व्यापारियों का येरूशलम तथा एशिया माइनर के तटों पर स्थायी रूप से जमघट होने लगा था जिसके परिणामस्वरूप व्यापार में वृद्धि हुई। व्यापारिक समृद्धि के कारण यूरोपीय व्यापारियों का नये-नये देशों के साथ लोगों का व्यापारिक संबंध कायम हुआ और उन्हें वहाँ की सभ्यता-संस्कृति को जानने का अवसर मिला, जैसे इटली के व्यापारिक नगरों- वेनिस, मिलान, फलोरेंस, न्यूरेमबर्ग और नेपल्स आदि का संपर्क विभिन्न क्षेत्रों से स्थापित हुआ। इसके कारण विचारों का भी आदान प्रदान संभव हुआ तथा ज्ञान के विकास में सहायता मिली।

व्यापारिक विकास ने एक नये धनी व्यापारी वर्ग को जन्म दिया। इस नवोदित व्यापारी वर्ग ने चिंतकों, विचारकों, साहित्यकारों और वैज्ञानिकों को प्रश्रय दिया और विद्यार्जन का लाभ उठाया। मध्ययुग में केवल पादरियों को यह अवसर प्राप्त था। इस प्रकार व्यापारी वर्ग की छत्रछाया में ज्ञान-विज्ञान की प्रगति हुई। विचारों के आदान-प्रदान से जनसाधारण का भी बौद्धिक विकास हुआ।

कुस्तुनतुनिया पर तुर्कों अधिकार

1453 ई. में पूर्वी रोमन साम्राज्य के पतन के बाद बाइजेंटाइन साम्राज्य की राजधानी कुस्तुनतुनिया पर महमदशाह के नेतृत्व में उस्मानी तुर्की ने अधिकार कर लिया। कुस्तुनतुनिया यूनानी, ज्ञान, दर्शन, विज्ञान, स्थापत्य कला एवं संस्कृति का मुख्य केंद्र थी। किंतु तुर्कों की विजय के बाद उनकी उपेक्षापूर्ण नीति के कारण कुस्तुनतुनिया के विद्वानों, कलाकारों, दार्शनिकों और स्थापत्यकारों ने अपने ग्रंथों और धन के साथ कुस्तुनतुनिया से भागकर यूरोप के देशों में शरण लेने को मजबूर हो गये। उन्होंने लोगों का ध्यान प्राचीन साहित्य और ज्ञान की ओर आकृष्ट किया।

कुस्तुनतुनिया के पतन का एक और महत्त्वपूर्ण प्रभाव हुआ कि यूरोप और पूर्वी देशों के बीच व्यापार का स्थल मार्ग बंद हो गया। अब जलमार्ग से पूर्वी देशों में पहुँचने के प्रयास होने लगे। पुर्तगाल के राजकुमार हेनरी दि नेवीगेटर के प्रयास से वास्कोडिगामा ने आशा अंतरीप के समुद्री मार्ग से भारत आने के रास्ते का पता लगाया।

पूरब से संपर्क

जिस समय यूरोप के निवासी बौद्धिक दृष्टि से पिछड़े हुए थे, पूरब के अरबवाले एक नई सभ्यता-संस्कृति को जन्म दे चुके थ। अरबों का साम्राज्य स्पेन और उत्तरी अफ्रीका तक फैला हुआ था। वे अपने साम्राज्य-विस्तार के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान को भी फैला रहे थे। अरबों से संपर्क के कारण पश्चिमवालों को भी लाभ हुआ। चीन ने प्राचीन युग में ही कागज और छापेखाने का आविष्कार कर लिया था। अरबों के संपर्क से यूरोपियों ने मध्यकाल में ही कागज बनाने की कला सीख ली थी।

कागज तथा मुद्रण कला का आविष्कार

15वीं शताब्दी के मध्यकाल में जर्मनी के जान गुटेनबर्ग ने टाईप मशीन का आविष्कार किया। 1477 ई. में केक्सटन ने इंग्लैंड में छापाखाना स्थापित किया। प्रारंभिक मुद्रण यंत्र के विकास ने बौद्धिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया। शीघ्र ही इटली, फ्रांस, स्पेन तथा अन्य देशों के नगरों में छापेखाने स्थापित हो गये। कागज और मुद्रण-यंत्र के आविष्कार से प्रकाशन तंत्र का विकास हुआ, जिससे जनसाधारण की भाषा में पुस्तकों की बड़े पैमाने पर छपाई होने लगी। अब अधिकाधिक लोग सस्ती दर पर पुस्तकें खरीदकर पढ़ सकते थे और जान सकते थे कि दुनिया में क्या हो रहा है। ज्ञान-विज्ञान अब मठों और विश्वविद्यालयों के दीवारों के पीछे ही सीमित न रह कर साधारण के व्यापक दायरे में फैलने लगा जिससे वैचारिक क्रांति संभव हो सकी। इस वैचारिक क्रांति ने एक बौद्धिक आंदोलन आरंभ किया, जिसे इतिहासकारों ने ‘क्लासिसिज्म’ कहा है। इस आंदोलन का उद्देश्य प्राचीन यूनान और रोम की संस्कृतियों को पुनर्जीवित करना था। इस बौद्धिक आंदोलन ने पश्चिमी यूरोप में मानववाद की स्थापना की।

विभिन्न भाषाओं में प्राचीन साहित्य के अनुवाद प्रकाशित किये गये जिससे सामान्य जनता भी विभिन्न विचारकों और दार्शनिकों के कृतित्व से अवगत होने लगी और उनमें बौद्धिक जागरूकता आई। अब राजनीतिक और दार्शनिक विचार ज्यादा से लोगों तक पहुँचने लगे और जिससे परिणामस्वरूप रुढि़वादिता और अंधविश्वास की नींव हिलने लगी।

मंगोल साम्राज्य का सांस्कृतिक महत्त्व

नवीन चेतना के प्रचार एवं प्रसार में मंगोल शासक कुबलाई खाँ के दरबार का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है, क्योंकि उसका दरबार पूरब और पश्चिम के विद्वानों, धर्म प्रचारकों, व्यापारियों का मिलन-स्थल था। मंगोल राज्यसभा पोप के दूतों, भारत के बौद्ध भिक्षुओं, पेरिस, इटली के विद्वानों तथा चीन के दस्तकारों, भारत के गणितज्ञों, ज्यातिषाचार्यो, धर्म-प्रचारकों और व्यापारियों से भरा रहता था। फलतः इस युग में पूर्व एवं पश्चिम के विद्वानों के बीच पारस्परिक विचार-विनमय से ज्ञान-विज्ञान की प्रगति में सहायता मिली। इस प्रकार मंगोल साम्राज्य ने पुनर्जागरण को आगे बढ़ाने में वाहन का काम किया।

नगरों का उत्थान एवं शिक्षित मध्यम वर्ग का उदय

पूर्वी देशों के साथ व्यापार होने से इटली तथा पश्चिमी यूरोप के देशों में नगरों का उदय हुआ। ये नगर उद्योग तथा व्यापार के केंद्र थे। यहाँ समृद्धशाली मध्यम वर्ग था । यहाँ नगर व्यापार के साथ-साथ शिक्षा और ज्ञान के केंद्र भी थे। धनी व्यापारी वर्ग शिक्षा तथा ज्ञान के प्रसार के लिए मुक्त हस्त होकर धन व्यय करते थे। विद्वानों को आश्रय देना प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी। इसमें फ्लोरेंस के मेडिसी परिवार का नाम विशेष उल्लेखनीय है। धनी लोग विद्वत् सभाओं का आयोजन करते थे, जहाँ विद्वान् वाद-विवाद करके सत्य का अन्वेषण करते थे। इससे तार्किक ज्ञान की स्थापना हुई। अनेक विदेशी व्यापारी भी इन नगरों में आते रहते थे जिससे विदेशों के बारे में भी जानकरी प्राप्त होती थी। शिक्षित मध्यम वर्ग ने बौद्धिक आंदोलन में सक्रियता प्रदान की। उन्होंने जिज्ञासा तथा आलोचनात्मक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन दिया। धर्म के क्षेत्र में अंधविश्वासों को त्यागकर मानववाद को अपनाया। ड्यूक आफ मांटुआ ने मानववाद के गहन अध्ययन के लिए एक शिक्षा केंद्र स्थापित किया।

नवीन आविष्कारों और खोजों का प्रभाव

पुनर्जागरण पर विभिन्न आविष्कारों एवं खोजों का भी प्रभाव पड़ा। यूरोप के यात्रियों ने अरबों से बारूद, कागज और जहाजी कंपास की निर्माण-विधि सीखकर अपने देश में इनका प्रयोग किया। बारूद के आविष्कार से सैन्य-प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ। इसके कारण मध्ययुगीन सामंतवादी व्यवस्था का पतन हुआ और शक्तिशाली राजतंत्रों की स्थापना हुई। दूसरा महत्वपूर्ण आविष्कार कुतुबनुमा (दिशा-सूचक यंत्र) था, जिसके कारण समुद्री यात्रा सुगम हो गई और सुदूर क्षेत्रों के नाविकों ने नवीन देशों की खोज की। कापरनिकस और गैलीलियो ने पृथ्वी और नक्षत्रों के बारे में नवीन सिद्धांत स्थापित किये। न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इन भौगोलिक एवं वैज्ञानिक खोजों से पुनर्जागरण को व्यापकता प्राप्त हुई।

सामंतवाद का पतन

सामंती प्रथा के कारण किसानों, व्यापारियों, कलाकारों और साधारण जनता को स्वतंत्र चिंतन का अवसर नहीं मिलता था। सामंती युद्धों के कारण वातावरण हमेशा विषाक्त रहता था। किंतु सामंती प्रथा के पतन से जन-जीवन संतुलित हो गया। शांति तथा व्यवस्था कायम हुई। शांतिपूर्ण वातावरण में लोग साहित्य, कला और व्यापार की प्रगति की ओर अधिक ध्यान देने लगे। सामंतवाद के पतन का महत्त्वपूर्ण परिणाम राष्ट्रीय राज्यों का विकास था जिससे लोगों में राष्ट्रीय भावना का जन्म हुआ।

पुनर्जागरण का प्रारंभ

पुनर्जागरण का प्रारंभ सबसे पहले इटली में हुआ और वहाँ से बाद में कई अन्य यूरोपीय देशों- स्पेन, पुर्तगाल, फांस, इंग्लैंड और जर्मनी में फैला। इटली में भी फ्लोरेंस नगर से पुनर्जागरण का प्रारंभ माना जाता है। दरअसल फ्लोरेंस नगर राज्य अपनी कला एवं संस्थाओं के लिए प्रसिद्ध था। 15वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मेडिसी नामक व्यापारियों तथा बैंकरों के परिवार ने इस नगर राज्य की सत्ता प्राप्त की। इस परिवार ने प्रजातंत्रीय संस्थाओं को बनाये रखा और कला को संरक्षण प्रदान किया। लोरेंजो डि मेडिसी (1449-1492 ई.) के शासनकाल में फ्लोरेंस इटली की कला एवं संस्कृति का मुख्य केंद्र बन गया। इस प्रकार पुनर्जागरण को आरंभ करने में मेडिसी वंश की सेवाएँ अत्यंत सराहनीय थीं।

पुनर्जागरण का आरंभ इटली में ही क्यों?

अकसर कहा जाता है कि पुनर्जागरण का आरंभ इटली में ही क्यों हुआ? वास्तव में यूरोप के अन्य राज्यों में जहाँ सामंतवादी व्यवस्था में भौतिक उन्नति तो सीमाबद्ध थी ही, बौद्धिक स्पंदनों की संभावना भी निम्नतर थी, वहीं इटली पूर्वी देशों के साथ व्यापार के पुनरुत्थान के बाद दिन-प्रतिदिन भौतिक दृष्टि से संपन्न होता जा रहा था। यहाँ वाणिज्यिक आधार पर विकसित शहर सामंती नियंत्रण से पूर्णतया मुक्त थे और इसी कारण यहाँ धर्मनिरपेक्ष विचारधारा की संभावना अधिक थी। इटली के नवसमृद्ध व्यवसायिक वर्ग महान् रोमन सभ्यता की परंपरा में ज्ञान-विज्ञान और कला को ही संरक्षण देने लगे थे। इस प्रकार इटली में नई विचारधारा के उद्भव के लिए उपयुक्त पृष्ठभूमि तैयार हुई।

1453 में जब बिजेंटाइन साम्राज्य की राजधानी कुस्तुन्तुनिया उस्मानी तुर्कों द्वारा जीत ली गई, तब इटली का हर समृद्ध परिवार पुनर्जागरण के मूल्यों का संरक्षक बन गया। कुस्तुन्तुनिया पर तुर्कों के अधिकार के बाद वहाँ के यूनानी विद्वान् पूर्वी देशों को छोड़कर पश्चिमी देशों की ओर रूख किये, जिसमें अधिकांश को इटली में आश्रय मिला। इन विद्वानों को व्यापारियों और शासकों से प्रश्रय और सहयोग मिला, जिससे प्राचीन यूनान के ज्ञान का विकास संपूर्ण इटली में हुआ। ज्ञान-विज्ञान का प्रसार होने से पुनर्जागरण की भावना समाज में दिखाई देने लगी। इस प्रकार पुनर्जागरण सर्वप्रथम इटली में ही हुआ। इटली में पुनर्जागरण आरंभ होने के कई अन्य कारण भी थे-

इटली की भौगोलिक संरचना

इटली की भौगोलिक संरचना कुछ ऐसी थी कि उसका यूरोप के अन्य देशों की अपेक्षा प्राचीन यूनानी साम्राज्य तथा उसकी संस्कृति के अधिक निकट संपर्क था। इटली पूर्व और पश्चिम के बीच का प्राकृतिक द्वार था और वेनिस, फ्लोरेंस, जेनेवा अदि नगरों का एशियाई देशों के साथ निर्बाध रूप के व्यापार चलता था।

स्वतंत्र नगर राज्यों का विकास

राजनीतिक दृष्टिकोण से भी इटली पुनर्जागरण के लिए उपयुक्त क्षेत्र था। इसका कारण यह था कि इटली में स्वतंत्र नगर राज्यों का विकास हो चुका था और सामंती प्रथा भी समाप्तप्राय थी। इस प्रकार तत्कालीन इटली पुनर्जागरण के लिए बिल्कुल अनुकूल था।

इटली की आर्थिक संपन्नता

आर्थिक दृष्टि से भी इटली एक संपन्न देश था। इटली के नगरों में धनी और समृद्धिशाली वर्ग था जो कला और साहित्य को संरक्षण देता था। इन नगरों में व्यापारिक प्रतिस्पर्धा ही नहीं थी, बल्कि वे कलाकारों और साहित्कारों को संरक्षण तथा प्रोत्साहन देने में भी प्रतिसपर्धा करते थे।

रोमन संस्कृति और पोप का योगदान

चूंकि रोम इटली का ही एक नगर था, इसलिए इटली में पहले से ही प्राचीन रोमन संस्कृति व्याप्त थी और पुनर्जागरण के लिए लोगों को प्रेरणा प्राचीन रोम से ही मिली थी। ईसाई धर्म का केंद्र और पोप का निवास-स्थान रोम ही था। आरंभ में कैथोलिक चर्च ने नवीन ज्ञान का विरोध किया था, किंतु धीरे-धीरे चर्च ने भी पुनर्जागरण को स्वीकार कर लिया। पोप निकोलस पंचम स्वयं प्राचीन रोमन तथा यूनानी साहित्य का विद्वान् था। पोप ने न केवल प्राचीन ग्रंथों की प्रतिलिपियों का संग्रह करवाया, बल्कि प्राचीन यूनानी ग्रंथों का लैटिन में अनुवाद भी करवाया। उसने होमर के महाकाव्य का पद्यबद्ध अनुवाद करवाया और वेटिकन में विशाल पुस्तकालय स्थापित किया। पोप लिओ दशम लारेंजों मेडिसी का पुत्र था। उसने नवीन ज्ञान को संरक्षण दिया, जिसके परिणामस्वरूप वेनिस, फ्लोरेंस और मिलान में विश्वविद्यालय स्थापित किये गये। इस प्रकार पोप के कार्यों और चर्च के समर्थन के कारण यूरोप के विभिन्न देशों में पुनर्जागरण को व्यापक समर्थन मिला।

यूरोप में पुनर्जागरण (Renaissance in Europe)
लियोनार्ड दि वंसी
महान् प्रतिभाओं का उदय

इटली में इस समय कई महान् विभूतियों का उदय हुआ, जिनमें प्रसिद्ध चित्रकार लियानार्डो दि विंसी, राफेल, दार्शनिक पेट्रार्क, माइकेल एंजिलो, फिलिप्पो, कवि दांते तथा कथाकार बोकासियो थे। इन कलाकरों तथा साहित्यकारों की प्रतिभा केवल एक विशिष्ट क्षेत्र में ही सीमित नहीं थी, बल्कि अनेक क्षेत्रों में उन्होंने असाधारण कुशलता और प्रवीणता प्राप्त की थी। माइकेल एंजिलो ने मूर्तिकला और चित्रकला में श्रेष्ठ कृतियाँ प्रस्तुत की, लेकिन इसके साथ ही उसने फ्लोरंस नगर का दुर्गीकरण किया था। इसी प्रकार लियोनार्डो दि विंसी और अलबर्ती सर्वतोन्मुखी प्रतिभा-संपन्न कलाकार थे। इन कलाकारों और साहित्यकारों ने इटली की जनता के मध्य पूनर्जागरण का संदेश पहुँचाया।

यूरोप में पुनर्जागरण का प्रसार

इटली के पुनर्जागरण का प्रभाव यूरोप के अन्य देशों पर भी पड़ा। सोलहवीं शताब्दी में यूरोप के अनेक देशों में प्राचीनतावाद और मानववाद का प्रभाव शिक्षित वर्गों में देखा जा सकता था। प्राचीन रोमन तथा यूनानी साहित्य का अध्ययन इंग्लैंड, स्काॅटलैंड, जर्मनी, हालैंड, स्वीडेन, फ्रांस में व्यापक रूप से किया जाने लगा था। इस नवीन ज्ञान ने यूरोपीय जन-जीवन के सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया।

पुनर्जागरण की प्रमुख विशेषताएँ

पुनर्जागरण काल में प्राचीन आदर्शों, मूल्यों और विचारों का तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति से समन्वय स्थापित करके एक नई संस्कृति का विकास किया गया। पुनर्जागरण ने धर्मिक आस्था के स्थान पर स्वतंत्र चिंतन को प्रतिष्ठित कर तर्कशक्ति का विकास किया। इसने मनुष्य को अंधविश्वासों, रूढि़यों तथा चर्च द्वारा आरोपित बंधनों से छुटकारा दिलाकर उसके व्यक्तित्त्व का स्वतंत्र रूप से विकास किया। इसके अलावा पुनर्जागरण ने मानववादी विचारधारा को प्रसारित किया और मानव जीवन को सार्थक बनाने की शिक्षा दी। साथ ही साथ, पुनर्जागरण के कारण देशज भाषाओं का विकास हुआ जन-साधारण की भाषा को गरिमा एवं सम्मान दिया। चित्रकला के क्षेत्र में पुनर्जागरण ने यथार्थ का चित्रण, वास्तविक सौंदर्य का अंकन करना सिखाया। इसी प्रकार विज्ञान के क्षेत्र में पुनर्जागरण ने निरीक्षण, अन्वेषण, जाँच और परीक्षण पर जोर दिया। पुनर्जागरण की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

स्वतंत्र चिंतन की प्रतिष्ठा

पुनर्जागरण ने मध्ययुगीन धर्म और परंपराओं से नियंत्रित चिंतन को मुक्तकर तर्क के आधार पर स्वतंत्र चिंतन की प्रतिष्ठा थी। इससे चर्च के आदेशों तथा सिद्धांतों के प्रति अंधविश्वास समाप्त हो गया। उसका स्थान तर्क और शक्ति ने ले लिया। इस युग के प्रारंभ में अरस्तु के तर्क का गहरा प्रभाव पड़ा। पेरिस, आक्सफोर्ड, कैंिब्रज आदि विश्वविद्यालय ने तर्क के सर्वोच्चता को स्थापित किया। मध्ययुग में चर्च के आदेशों को मानना पड़ता था और उसके आदेशों का उल्लंघन करने पर चर्च द्वारा कठोर दिया जाता था। ऐसी व्यवस्था में तर्क या आलोचना का कोई स्थान नहीं था। पुनर्जागरण ने इन परंपराओं को समाप्त कर स्वतंत्र चिंतन तथा तर्क को धार्मिक आस्था का आधार बनाया। अब चर्च के सिद्धांतों की उन्मुक्त आलोचना की जा सकती थी।

इसके अलावा, पुनर्जागरण ने व्यक्तिवाद का विकास किया और व्यक्ति को स्वतंत्रता प्रदान की। अब व्यक्ति चर्च तथा सामंतवादी नियंत्रण से मुक्त हो गया जो उसकी प्रगति में बाधक थे। पुनर्जागरण के कारण ही जनसाधारण में ज्ञान का प्रसार हुआ और इसके लिए छापेखाने का आविष्कार वरदान साबित हुआ। कम मूल्य और जनसाधारण की भाषा में होने के कारण अब मध्यम वर्ग के साथ ही साधारण जनता में भी पुस्तकों के प्रति रुचि उत्पन्न हुई और ज्ञान के इस प्रसार से पुनर्जागरण को व्यापक स्वरूप मिला।

मानववाद

पुनर्जागरण की एक प्रमुख विशेषता मानववाद थी। इस मानववाद का जन्म नवीन ज्ञान से हुआ था। मानववाद का अर्थ है- मानव जीवन में रुचि लेना, मानव की समस्याओं का अध्ययन करना, मानव का आदर करना। दूसरे शब्दों में, मानववाद का अर्थ था कि यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन को सफल बनाना चाहता था तो उसे आध्यात्मिक या पारलौकिक आनंद प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए, बल्कि जीवन में जो स्वाभाविक है, मानवतापूर्ण है या लौकिक है, उसे प्राप्त करना चाहिए। यही मानव जीवन की सफलता है। इटली के निवासी पेट्रार्क (1304-1367 ई.) को मानववाद का संस्थापक माना जाता है।

मानववादी के लिए बलिदान, आत्मरुचि या आत्मत्याग के स्थान पर संतोष प्राप्त करना श्रेयस्कर है। देवताओं की ओर देखने की अपेक्षा व्यक्ति को स्वयं की ओर या अपने पड़ोसी की ओर देखना चाहिए। मानववादी पारलौकिक सुख की अपेक्षा सांसारिक सुख को अधिक महत्व देता था। इस प्रकार नवीन ज्ञान का अध्ययन करनेवाले विद्वानों ने धर्मशास्त्र या देवत्व-ज्ञान की उपेक्षा करके मानववादी विषयों के अध्ययन पर जोर दिया और प्राचीन ज्ञान को मानव उत्थान के लिए आवश्यक बताया।

यूनान और रोम के प्रचीन साहित्य में रुचि

पुनर्जागरण की एक विशेषता क्लासिसिज्म थी। पुनर्जागरण के काल में पुस्तकों द्वारा प्राचीन यूनान और रोम की संस्कृतियों पर आधारित जिन विचारों और ज्ञान का प्रसार हुआ उसे ‘क्लासिसिज्म या प्राचीन साहित्यवाद कहा गया है। प्राचीन यूनान या रोम के साहित्य के प्रति पुनः रुचि जाग्रत होने को ही पुनर्जागरण या ‘नवीन ज्ञान’ कहा गया है। इस नवीन ज्ञान ने प्राचीन साहित्यवाद या क्लासिसिज्म का आंदोलन आरंभ किया। क्लासिसिज्म का अर्थ है कि साहित्यिक रचना, भवन-निर्माण को प्राचीन यूनान और रोम की शैली पर बनाया जाये, सुसंस्कृत बनाने के लिए इन भाषाओं का प्रयोग किया जाये और लेखन में उनका अनुकरण किया जाये। अब होमर, डेमोस्थनीज, वर्जिल को उद्धृत करना संस्कृति का प्रतीक माना जाने लगा।

तेरहवीं तथा चौदहवीं शताब्दी में विद्वानों ने प्राचीन साहित्य को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। दांते, पेट्रार्क और बेकन जैसे विद्वानों ने प्राचीन ग्रंथों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया और लोगों को गूढ़ विषयों से परिचित कराने का प्रयास किया। इससे लोगों में प्राचीन ज्ञान के प्रति श्रद्धा के साथ-साथ नवीन जिज्ञासा उत्पन्न हुई। यही जिज्ञासा पुनर्जागरण की आत्मा थी।

देशज भाषाओं एवं साहित्य का विकास

पुनर्जागरण की एक विशेषता यह भी थी कि इस काल में यूरोप के विभिन्न देशों में लोक भाषाओं एवं राष्ट्रीय साहित्य का विकास आरंभ हुआ। पुनर्जागरण के पहले पश्चिमी यूरोप के लोग लैटिन और यूनानी भाषा में साहित्यिक रचनाओं का निर्माण करते थे। पुनर्जागरण के कारण राष्ट्रीय भाषाओं को सम्मान मिला और उनमें साहित्य का सृजन किया जाने लगा। पुनर्जागरण द्वारा जटिल साहित्य, विज्ञान, कला एवं बौद्धिक जागृति ने सर्वसाधारण जनता को एक नई स्फूर्ति, स्पंदन और चिंतन से अनुप्राणित कर दिया। मार्टिन लूथर ने बाईबिल का जर्मन भाषा में अनुवाद किया। अंग्रेजी भाषा में क्रेनमर की पुस्तक ‘बुक ऑफ कामन प्रेयर’, फ्रांसीसी भाषा में काल्विन की इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिश्चियन रिलिजन, स्पेनी भाषा में सेंट टेरेसा की आत्मकथा आदि महत्वपूर्ण हैं।

दूसरे, मध्यकाल में साहित्य का मुख्य विषय धर्म था, किंतु पुनर्जागरणकाल में मानववादी विचारों का प्रसार होने के कारण बड़ी संख्या में धर्मनिरेपेक्ष साहित्य का भी निर्माण हुआ। इटली के महान कवि दांते (1260 -1321 ई.) को पुनर्जागरण का अग्रदूत माना जाता है। इनका जन्म फ्लोरेंस नगर में हुआ था। दांते ने प्राचीन लैटिन भाषा को छोड़कर तत्कालीन इटली की बोलचाल की भाषा टस्कन में ‘डिवाइन कामेडी’ नामक काव्य लिखा जो इटालियन भाषा में पहली रचना है। इसमें दांते ने स्वर्ग और नरक की एक काल्पनिक यात्रा का वर्णन किया है। राजनीतिक साहित्य में दांते की ‘दि मोनार्किया’ और मर्सिग्लियो की ‘डिफेंडर ऑफ पीस’ प्रसिद्ध कृतियाँ है।

दांते के बाद पुनर्जागरण की भावना का प्रश्रय देनेवाला दूसरा व्यक्ति पेट्रार्क (1304-1367 ई.) था। पुनर्जागरण काल का सर्वश्रेष्ठ निबंधकार इंग्लैंड का फ्रांसिस बेकन था जिसे ‘आधुनिक प्रर्योगात्मक विज्ञान का जन्मदाता’ कहा जाता है। इटालियन गद्य का जनक कहानीकार बोकेसियो (1313 -1375 ई.) था। बोकेसियो की प्रसिद्ध पुस्तक ‘डेकामेरान’ है।

आधुनिक विश्व का प्रथम राजनीतिक चिंतक फ्लोरेंस निवासी मैकियावली (1469-1567 ई.) को माना जाता है। मैकियावली की प्रसिद्द पुस्तक ‘द प्रिंस’, ‘डिस्कोर्सेज ऑफ लिपि’ और ‘फलोरेंटाइन हिस्ट्री’ हैं। मैकियावेली को ‘आधुनिक राजनीतिक दर्शन का जनक’ कहा जाता है। इस काल की अन्य रचनाओं में ग्यूसिआरडी की ‘हिस्ट्री ऑफ इटली’, बसरी की ‘लाइब्स ऑफ इटालियन आर्टिस्ट’, इंग्लैंड के टामस मूर की ‘यूटोपिया’, रिचर्ड हक्लूयट की ‘प्रिंसिपल नेवीगेशंस’, स्पेन में वोरटोलोमी की ‘हिस्ट्री आफ दि इंडीज’, मेरियाना की ‘हिस्ट्री ऑफ स्पेन’ आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में रेवेलियस की फ्रेंच भाषा में ‘गरगुअंटा एंड पेंटाग्रुयेल’ तथा क्रीवेनट्स की स्पेनिश भाषा में ‘डान क्रूजो’ प्रसिद्ध रचना है। हालैंड के इरैस्मस ने अपनी पुस्तक ‘द प्रेज ऑफ फोली’ में व्यंग्यात्मक ढंग से पादरियों के अनैतिक जीवन एवं ईसाई धर्म की कुरीतियों पर प्रहार किया है।

इस काल में महाकाव्यों और नाटकों की भी रचना हुई जिन पर प्राचीनतावाद और मानववाद का प्रभाव था। विलियम शेक्सपियर इस युग के प्रतिनिधि रचनाकार हैं। ‘रोमियो एंड जूलियट’ शेक्सपियर की अमर कृति है। अंग्रेजी भाषा में स्पेंसर की ‘फेयरी क्वीन’ सर्वश्रष्ठ काव्य रचना है। चौसर की रचना ‘केंटरबरी टेल्स’ पर बोकासियो की ‘डेकामेरान’ का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।

यूरोप में पुनर्जागरण (Renaissance in Europe)
यूरोपीय पुनर्जागरण
कला के क्षेत्र में प्राचीन आदर्शों की स्थापना

पुनर्जागरण की एक विशेषता कला के क्षेत्र में प्राचीन यूनानी और रोमन आदर्शों की स्थापना करना था। मध्ययुग की कला का आधार ईसाई धर्म था और उसमें ईसाई धर्म के विचारों की अभिव्यक्ति होती थी। पुनर्जागरण के कारण मानववादी विचारों और आदर्शों का प्रभाव कला के क्षेत्र पर भी पड़ा। फिलियों ब्रूनेलेस्की ने प्राचीन रोमन स्मारकों का अध्ययन करके नवीन शैली का विकास किया जिसमें मेहराबों तथा स्तंभों की प्रधानता थी। इससे कला के क्षेत्र में असाधारण प्रगति हुई। अब गोथिक शिखर के आधार पर रोमन गुंबद का प्रयोग होने लगा, नोंकदार मेहराबों के स्थान पर गोल मेहराबों का प्रयोग होने लगा। प्राचीन यूनान के डोरिक, आयोनिक और कोरिंथियन कला-रूपों को पुनः स्थापत्य में स्थान दिया गया। पुनर्जागरण काल के स्थापत्य कला के श्रेष्ठ उदाहरण रोम में निर्मित सेंट पीटर का गिरजाघर है।

चित्रकला और मूर्तिकला के क्षेत्र में भी प्राचीन रोम और यूनान के आदर्शों का अनुकरण किया गया। पुनर्जागरण की भावना की पूर्ण अभिव्यक्ति इटली के तीन कलाकारों की कृतियों में मिलती है। ये कलाकार थे- लिओनार्डो द विंसी, माइकेल एंजेलो और राफेल। लिओनार्डो द विंसी एक बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न व्यक्ति था। वह चित्रकार, मूर्तिकार, इंजीनियर, वैज्ञानिक, दार्शनिक, कवि और गायक था। लिओनार्डो द विंसी ‘द लास्ट सपर’ और ‘मोनालिसा’ नामक अमर चित्रों के रचयिता होने के कारण प्रसिद्ध है। माइकेल एंजेलो भी एक अद्भूत मूर्तिकार एवं चित्रकार था। सेंट पीटर गिरजाघर का गुंबद उसका आश्चर्यजनक निर्माण है। ‘द लास्ट जजमेंट’ एवं ‘द फाल ऑफ मैन’ माइकेल एंजेलो की कृतियाँ हैं। सिस्तान के गिरजाघर की छत में माइकेल एंजेलो के द्वारा ही चित्र बनाये गये है। उसकी ख्याति पेंता और डेविड की कृतियों के लिए भी है। पुनर्जागरण काल में चित्रकला का जनक जियटो को माना जाता है। राफेल भी इटली का एक चित्रकार था, इसकी सर्वश्रेठ कृति जीसस क्राइस्ट की माता मेडोना (कोलोना मोडेना) का चित्र है।

यूरोप में पुनर्जागरण (Renaissance in Europe)
‘द लास्ट सपर’
धार्मिक क्रांति व प्रोटेस्टेंट धर्म का उत्थान

पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप सर्वसाधारण जनता में स्वतंत्र चिंतन एवं धार्मिक विषयों का वैज्ञानिक अध्ययन प्रारंभ हुआ जिसके कारण यूरोप के लोगों अब आँख बंद करके किसी बात को तैयार नहीं थे। अब वे कैथलिक चर्च के अधिकारों एवं निर्देशों का विरोध करने लगे, क्योंकि कैथलिक चर्च का नैतिक स्तर काफी नीचे गिर गया था, अब चर्च की कटु आलोचनाएँ होने लगीं एवं चर्च के विरूद्ध आक्षेप एवं आरोप लगाये जाने लगे। इस प्रकार चर्च के विरूद्ध आलोचनाएँ आधुनिक युग के आगमन एवं मध्ययुग की समाप्ति की सूचक थीं।

सोलहवीं सदी के प्रारंभ तक यूरोप में सर्वथा नवीन वातावरण उत्पन्न हो चुका था। संदेहवाद एवं नास्तिकता की वृद्धि कैथलिक ईसाई-जगत के लिए बड़ी घातक सिद्ध हुई। इस नवीन जागृति ने एक महान धार्मिक क्रांति उत्पन्न कर दी, जिसके परिणामस्वरूप यूरोप में धर्म-सुधार आंदोलन का आरंभ हुआ और कैथोलिक धर्म में ही कई नवीन संप्रदाय उठ खड़े हुए।

यूरोप में पुनर्जागरण (Renaissance in Europe)
यूरोपीय पुनर्जागरण
भौगालिक खोजें

आधुनिक यूरोप के प्रारंभ में पुनर्जागरण के विकास के साथ ही भौगोलिक खोजें बड़ी महत्वपूर्ण विशेषता मानी जाती हैं। सोलहवीं सदी के प्रारंभ में विविध देशों के लोग अपने में ही सीमित थे एवं इन दिनों ‘विश्व-एकता की सभ्यता’ जैसी कोई धारणा न थी। परंतु सोलहवीं सदी के भौगोलिक अविष्कारों एवं खोजों के परिणामस्वरूप संसार के विविध क्षेत्र परस्पर जुड़ गये। अतः आधुनिक युग में यूरोपीय विस्तार के फलस्वरूप ‘विश्व-सभ्यता’ का सृजन संभव हो सका।

आधुनिक युग के प्रारंभ में यूरोपीय राजाओं द्वारा विश्वव्यापी भौगोलिक खोजों एवं प्रसार के दो मुख्य कारण आर्थिक एवं धार्मिक थे। आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु ही यूरोपवासियों ने संसार के विविध क्षेत्रों से संबंध स्थापित करने का प्रयास किया। निकट-पूर्व में उस्मानिया तुर्कों की प्रगति व आधिपत्य-स्थापन के परिणामस्वरूप पूर्वी देशों के साथ यूरोपीय व्यापार-संबंधों का विच्छेद हो गया। तुर्कों की युद्धप्रियता, व्यापारिक मार्गों की कठिनाइयाँ एवं आपत्तियाँ आदि व्यापार की अभिवृद्धि में बड़ी घातक सिद्ध र्हुइं। अतः अब भूमध्यसागर का व्यापारिक महत्व घटने लगा एवं नई भौगोलिक खोजों या व्यापारिक मार्गों के परिणामस्वरूप अटलांटिक महासागर का महत्व बढ़ने लगा। इस समय ‘कम्पास’ के अन्वेषण से दिशाओं का सही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता था। पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में बड़े उत्साह एवं लगन के साथ नये व्यापार मार्गों की खोजें आरंभ की गईं। पश्चिमी यूरोप के महत्त्वाकांक्षी राष्ट्रों या राजाओं ने अपने आर्थिक तथा व्यापारिक स्वार्थों एवं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु इन नाविकों एवं साहसिकों को पर्याप्त प्रोत्साहन तथा सहायता प्रदान की।

पुनर्जागरण का स्वरूप

पुनर्जागरण के लौकिक दृष्टिकोण का सबसे महत्त्वपूर्ण आधार था मानवतावाद। मानवतावाद ने न सिर्फ मानव का, बल्कि एक व्यक्ति के महत्त्व को भी स्थापित किया। अतः व्यक्तिवाद पुनर्जागरण की सांसारिक भावना का दूसरा महत्त्वपूर्ण स्वरूप है। सांसारिक पुनर्जागरणकालीन सभ्यता शहरी थी। यह मध्यकालीन देहाती सभ्यता से भिन्न प्राचीन यूनानी और रोमन साम्राज्य से मिलती-जुलती थी। पुनर्जागरण आंदोलन का मुख्य स्वरूप मध्यवर्गीय था। यह जनसाधारण का आंदोलन नहीं, बल्कि मध्यमवर्गीय धनी लोगों के संरक्षण में चलनेवाला आंदोलन था। धनी मध्यवर्ग ने समाज में अपने प्रभुत्व की स्थापना हेतु चर्च, पोप और सांमतों की तरह साहित्य और सत्ता को संरक्षण प्रदान किया। इसके अतिरिक्त पुनर्जागरण का स्वरुप तर्कप्रधान इसाई-विरोधी तथा सामंत-विरोधी था।

यूरोप के देशों में पुनर्जागरण आंदोलन का स्वरुप इटली से थोड़ा भिन्न था। इटली की तुलना में यूरोप के उत्तरी देशों में चित्रकारी, मूर्तिकला और स्थापत्य में कम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके विपरीत मानवतावादी दर्शन और साहित्य ने अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।

पुनर्जागरण की विभिन्न क्षेत्रों में अभिव्यक्ति

‘रिनेसां’ का अर्थ ‘पुनर्जन्म’ होता है। मुख्यतः यह यूनान और रोम के प्राचीन शास्त्रीय ज्ञान की पुनःप्रतिष्ठा का भाव प्रकट करता है। यूरोप में मध्ययुग की समाप्ति और आधुनिक युग का प्रारंभ इसी समय से माना जाता है। इटली में इसका आरंभ फ्रांसिस्को पेट्रार्क (1304-1367 ई.) जैसे लोगों के समय में हुआ, जब इन्हें यूनानी और लैटिन कृतियों में मनुष्य की शक्ति और गौरव-संबंधी अपने विचारों और मान्यताओं का समर्थन दिखाई दिया। 1453 ई. में जब कस्तुनतुनिया पर तुर्कों ने अधिकार कर लिया, तो वहाँ से भागनेवाले ईसाई अपने साथ प्राचीन यूनानी पांडुलिपियाँ पश्चिम लेते गये। इस प्रकार यूनानी और लैटिन साहित्य के अध्येताओं को अप्रत्याशित रूप से बाइजेंटाइन साम्राज्य की मूल्यवान् विचार-सामग्री मिल गई। चार्ल्स पंचम द्वारा रोम की विजय (1527 ई.) के पश्चात् पुनर्जागरण की भावना आल्पस के पार पूरे यूरोप में फैल गई।

पुनर्जागरण काल में पुराने से सामंजस्य कर नवीन के निर्माण की शुरूआत हुई। पुनर्जागरण के प्रसार के कारण यूरोप के देशों में साहित्य, स्थापत्य तथा ललित कलाओं की शैलियाँ अब प्राचीन रोम और यूनान के आदर्शों पर आधारित होने लगीं। स्थानीय भाषा में लिखने के लिए रोमन और यूनानी साहित्य का उद्धरण देना आवश्यक था। एक सुसंस्कृत यूरोपियन के लिए लैटिन और ग्रीक भाषाओं का ज्ञान आवश्यक माना जाने लगा। पुनर्जागरण की अभिव्यक्ति निम्न क्षेत्रों में हुई-

साहित्य के क्षेत्र में

पुनर्जागरणकाल से पूर्व सहित्य का सृजन केवल लैटिन भाषाओं में होता आ रहा था, किंतु पुनर्जागरण काल में इनका अध्ययन अध्यापन यूरोपीय भाषाओं में किया जाने लगा। विभिन्न देशों के लोग अपनी-अपनी मातृभाषाओं में सहित्य का सृजन करने लगे जिससे इटालियन, फ्रेंच, स्पेनिश, पुर्तगाली, जर्मन, अंग्रेजी, डच, स्वीडिश, आदि भाषाओं का विकास हुआ। पेट्रार्क को ‘इतावली पुनर्जागरण साहित्य का पिता’ कहा जाता है। पेट्रार्क की कविताओं में नवीनता दृष्टिगोचर होती है। पेट्रार्क ने समूचे यूरोप में मानववादी विचारधारा को प्रोत्साहित किया। बोकासियो ने गद्य साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। दांते को ‘इतावली कविता का पिता’ कहा जाता है। दांते की प्रसिद्ध कृति ‘डिवाइन कामेडी’ है जिसमें एक काल्पनिक जगत की यात्रा का वर्णन है। अब लेखकों की रुचि जीते-जागते लोगों में, उनकी खुशियों और दुखों में थी। उन्होंने अपने समय के जीवन के बारे में लिखा, अपनी कविताओं में जनता की भावनाओं को सशक्त रूप से व्यक्त किया।

पुनर्जागरण काल के साहित्य की दूसरी प्रमुख विशेषता विषय-वस्तु थी। मध्यकालीन साहित्य का मुख्य विषय धर्म था, पंरतु इस युग के साहित्य में धार्मिक विषय के स्थान पर मनुष्य के जीवन से संबंधित थे और इस युग के साहित्यकारों के विचार मध्ययुगीन धर्मसंबधी वाद-विवाद एवं मान्यताओं से मुक्त थे। अब साहित्य आलोचना प्रधान, मानवतावादी और व्यक्तिवादी हो गया।

स्पेन के लेखक सर्वातेस ने ‘डान क्विजोट’ में सामंतवादी मूल्यों की खिल्ली उडा़ई है। लोक साहित्य से उन्होनें मठवासियों और सामंतों की ओर लक्षित व्यंग्य और उपहास को ग्रहण किया। फ्रासीसी साहित्य के क्षेत्र में रेवेलास और मान्टेन इसी युग की देन है। रेवेलास ने धार्मिक कट्टरता एवं पुरातनंपथियों के विरोध में आवाज उठाई। उसने अधिकतम संपन्न लोगों, धार्मिक कट्टरता एवं अंधविश्वास पर व्यंग्य किये। इंग्लैंड के लेखक टामस मूर ने अपनी पुस्तक ‘यूटोपिया’ में आदर्श समाज का चित्र प्रस्तुत किया है। फ्रांसिस बेकन इस युग का सर्वोत्तम निबंधकार थे। इसने तर्क, अनुभव और प्रमाण पर जोर दिया। शेक्सपीयर द्वारा अपनी कृतियों में मानव के सभी संभव भावों और उनकी क्षमताओं तथा दुर्बालताओं का विवेचन किया है।

कला के क्षेत्र में

पुनर्जागरण के प्रसार के साथ कला के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। इस काल में स्थापत्य एवं मूर्तिकला एक दूसरे से स्वतंत्र होकर अलग-अलग विधा के रूप में स्थापित हुई। एक ओर साहित्य पुरातत्ववेदी प्राचीन ग्रीक और लैटिन लेखकों की नकल कर रहे थे, दूसरी ओर कलाकार, प्राचीन कला के अध्येता प्रयोगों में रुचि ले रहे थे और नई पद्धतियों का निर्माण कर कुछ सुप्रसिद्ध कलाकार जैसे लिओनार्दो दा विंची और माइकल एंजेलो नवोदित युग का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। लिओनार्दो दा विंची मूर्तिकार, वैज्ञानिक आविष्कारक, वास्तुकार, इंजीनियर, बैले नृत्य का आविष्कारक और प्रख्यात बहुविज्ञ था। पुनर्जागरणकालीन चेतना के प्रभाव में गोथिक स्थापत्य कला का अवसान हो गया। इतालवी पुनर्जागरण कालीन ललित कलाओं में वास्तुकला के उत्थान का अंश न्यूनतम् था। फिर भी, मध्ययुगीन और प्राचीन रूपों के एक विशेष पुनर्जागरण शैली का आविर्भाव हुआ। स्थापत्य की नई शैलियों का विकास पहले इटली में और बाद में यूरोप के अन्य भागों में हुआ।

यूरोप में पुनर्जागरण (Renaissance in Europe)
लिओनार्दो द विंची की प्रसिद्ध कृति ‘मोनालिसा’

पुनर्जागरण काल में सबसे अधिक विकास चित्रकला के क्षेत्र में हुआ। 15वीं शताब्दी तक चित्रकला न केवल धार्मिक विषयों पर सीमित थी, परंतु रंगों और विषयों का चयन भी सीमित था। उस काल के चित्रों में उदासी एवं एकरसता झलकती है। परंतु पुनर्जागरण काल में कालाकार की अपनी स्वतंत्र पहचान हो गई। इस समय तक आर्थिक समृद्धि एवं धर्मनिरपेक्ष भावना के प्रसार के कारण कला बहुत हद तक धर्म की सेवा से मुक्त हो गई।

पुनर्जागरण काल के कलाकारों ने कला को जीवन का रूप समझा। यद्यपि प्रयुक्त सामग्री बहुत सुंदर नहीं थी, तथापि उन चित्रकारों की कला यथार्थता, प्रकाश, छाया और दृश्य-भूमिका की दृष्टि से पूर्ण हैं। इस काल के कलाकारों ने प्रकाशिकी और ज्यामिति का अध्ययन किया और चित्रों में प्रक्षेपों का उपयोग प्रांरभ किया। मानव के हाव भावों की आंतरिक व्यवस्था को समझने के लिए शरीर-रचना विज्ञान के अध्ययन पर जोऱ दिया गया। इंद्रिय-सुख प्राप्त करना कला का न्यायोचित उद्देश्य हो गया। पुनर्जागरण कला के प्रांरभिक चित्रकारों में जियटो महत्वपूर्ण है, जिसे चित्रकला का जन्मदाता कहा जाता है। इसने परंपरागत शैली से हटकर मानव एवं प्रकृति पर अनेक चित्र चित्रित किये।

पुनर्जागरण काल में लियोनार्दो द विंची (द लास्टसपर, मोनालिसा), माइकल एंजेलो (लास्ट जजमेंट) और राफेल के चित्रों मे पुनर्जागरण चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति हुई। दोनाटेलो और गिबर्ती इस युग के प्रमुख मूर्तिकार थे। ड्यूयूरेस और हालवेन महान उत्कीर्णक हुए हैं। लारेंजों गिवर्टी पुनर्जागरणकालीन शिल्पकला का प्रथम महान अग्रदूत था। रोबिया अपनी चमकीली मीनाकारी के लिए विख्यात था तो एंजेलो अपने को शिल्पकला में महानतम् व्यक्ति मानता था, यद्यपि वह अन्य कलाओं में भी महान था।

दर्शन के क्षेत्र में

बुद्धिवादी विकास ने व्यापारियों और दर्शनिकों को प्रोत्साहित किया। इटली के दार्शनिकों ने विश्व को यथार्थ से जोड़ा और प्रकृति को सुव्यवस्थित दैविक नियमों से नियंत्रित बताया। पुनर्जागरण काल के मानववादियों ने अरस्तु की जगह सिसरो को अपना आदर्श माना और नैतिक दर्शन पर बल दिया। इसके बाद बहुत से दार्शनिक प्लेटोवादी हो गये और फलोरेंस मे प्लेटोनिक सोसाइटी की स्थापना हुई। मैकियावेली एक यथार्थवादी राजनीतिक दार्शनिक था, जिसने अपनी पुस्तक ‘द प्रिंस’ और ‘डिसकोर्सेज‘ में अपने विचार व्यक्त किये हैं। मैकियावेली ने मध्ययुग की आधारभूत राजनीतिक अवधारणा पर चोट की और राज्य की आधुनिक अवधारणा को प्रस्तुत किया । उत्तरी यूरोप में इरैसमस एवं बेकन महत्त्वपूर्ण विचारक हुए। इरैसमस ने चर्च के धार्मिक आडंबर पर चोट की और बेकन ने आगमनात्मक दर्शन पर जोर दिया।

विज्ञान के क्षेत्र में

पुनर्जागरण के काल में विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। इस वैज्ञानिक विकास के प्रमुख कारण थे- एक तो प्रोटेस्टेंट धर्म ने मनुष्य को धार्मिक नियंत्रण से मुक्तकर स्वतंत्र रुप से विचार करने का अवसर प्रदान किया। दूसरे, इस युग के विचारकों का मानना था कि ज्ञान प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका अन्वेषण, अध्ययन-अध्यापन है, न कि महज चिंतन करना। रोजर बेकन ने अपनी कृति ‘सालामंस हाउस’ में पुनर्जागरण की आदर्शवादी भावना को अभिव्यक्ति प्रदान की है। रोजर बेकन को ही ‘प्रयोगात्मक खोज प्रणाली का अग्रदूत’ माना जाता है। उसके अनुसार ज्ञान की प्राप्ति केवल प्रयोग करने से ही हो सकती है। बेकन के अनुसार जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, उसे स्वयं से प्रश्न करना चाहिए। प्रयोग के आधार पर ही गैलिलियों ने कापरनिकस के सिद्धांत को अकाट्य साबित किया। कापरनिकस ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घुमती है और अन्य ग्रहों के साथ, जो स्वयं अपनी धुरियों पर घूमते हैं, सूर्य की परिक्रमा करती है। खगोल विज्ञान के क्षेत्र में सर्वप्रथम पोलैंड निवासी कापरनिकस ने इस बात का खंडन किया कि ‘पृथ्वी सौरमंडल का केंद्र है’। उसने घोषणा की कि पृथ्वी अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है और वह सूर्य की परिक्रमा करती है। गैलेलियो ने भी काॅपरनिकस के सिद्दांत का समर्थन किया। जर्मन वैज्ञानिक केपलर ने गणित की सहायता से बताया कि ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं। ज्योतिषशास्त्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए और गणित, भौतिकी, रसायन शास्त्र, चिकित्सा, जीवविज्ञान और सामाजिक विज्ञानों में बहुमूल्य योगदान हुए। पोप ग्रेगरी ने कैलेंडर में संशोधन किया, कापरनिकस और कोलंबस ने क्रमशः ज्योतिष तथा भूगोल में योगदान किया।

आइजेक न्यूटन (1642-1726 ई.) ने यह सिद्ध किया कि सभी खगोलीय पिंड गुरुत्वाकर्षण के नियम के अंतर्गत यात्रा करते है। मानव शरीर और रक्त-संचारण के बारे में भी कई आविष्कार हुए। इस प्रकार वैज्ञानिक मनोवृत्ति ने दीर्घकाल से स्वीकृत विचारों और प्रथाओं की आलोचनात्मक परीक्षा की और मनुष्य को कला, व्यवसाय, शिक्षा और जीवन के अनेक क्षेत्रों से नये विचारो के संबध में परीक्षण करने के लिए प्रेरित किया।

पुनर्जागरण का महत्व और परिणाम

पुनर्जागरण ने प्राचीन प्रेरणाओं पर आधारित एक ऐसा प्रयोग आंरभ किया जो उस युग की परिस्थितियों से सांमजस्य स्थापित कर सका। साथ ही नितांत मौलिक एवं प्रगतिशील दिशाएँ भी तलाश सका।

भौतिकवादी दृष्टिकोण का विकास

पुनर्जागरण ने मनुष्य को उसकी महत्ता से अवगत कराया। पुनर्जागरण मूलतः मध्यकाल के ईश्वर-केंद्रित सभ्यता से आधुनिक युग के मानव-केंद्रित सभ्यता की ओर एक परिवर्तन था। पुनर्जागरण की चेतना से उत्पन्न व्यक्तिवाद ने यूरोपीय जनमानस को आंदोलित कर दिया। आर्थिक क्षेत्र में व्यक्तिवाद पूँजीवादी चेतना से जुड़ गया। पुनर्जागरण के अधिकांश विद्वानों ने मानव संसार को अधिक सुंदर एवं समृद्ध बनाने की शिक्षा दी जिससे भौतिकवादी दृष्टिकोण का विकास हुआ।

बुद्धिजीवी दृष्टिकोण का विकास

पुनर्जागरण ने तर्क और वितर्क को प्रतिष्ठित किया तथा पुरानी धार्मिक विचारधारा और पंरपराओं को झकझोर कर उन पर कठोर आघात किया। विचार की स्वतंत्रता को पुनर्जागरण का आधार स्तंभ माना जाता है। पुनर्जागरण काल की नई खोजों, वैज्ञानिक दृष्टिकोणों और तार्किक आलोचनाओं ने धर्मग्रंथों के अनेकों सिद्धांतों और विश्वासों को हिला दिया। उसने वैज्ञानिक और बौद्धिक आंदोलन का मार्ग प्रशस्त किया।

पुरातन के प्रति मोह जगाना

पुनर्जागरण से पूर्व लोगों को पुरातन ज्ञान में कोई अभिरूचि नहीं थी। इटलीवासी अपने प्राचीन स्मारकों को विस्मृत कर चुके थे, परंतु इस आंदोलन ने उनका ध्यान पुरातन की ओर आकृष्ट किया।

अभिव्यक्ति की प्रतिष्ठा

पुनर्जागरण ने अभिव्यक्ति की भावना को प्रतिष्ठित किया। इसका अर्थ है कि अब केवल लोगों को निःस्तब्ध भाव से बातों को सुनते जाना ही संतुष्टि प्रदान कर सकता था।

राज्य एवं धर्म का पृथक्करण

पुनर्जागरण काल में चर्च और राज्य के बीच पृथक्कता की कल्पना की गई। पुनर्जागरण के बाद न केवल कैथोलिक चर्च का एकाधिकार टूटा और सरल संप्रदायों का जन्म हुआ, बल्कि निकट भविष्य में राज्य और धर्म के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा अंकित हुई।

राष्ट्रीयता का विकास

धर्म और पोप की सत्ता के प्रभाव में कमी आने से लोगों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। पुनर्जागरण चेतना ने बहुत सी आधुनिक संस्थाओं के आधार निर्मित किये, जिनमें एक है- आधुनिक राष्ट्रीय-राज्य। आधुनिक राष्ट्रीय-राज्य के अंतर्गत यूरोप में कई राज्यों का उत्थान हुआ।

धार्मिक क्रांति व प्रोटेस्टेंट धर्म का उत्थान

सोलहवीं सदी के प्रारंभ में, यद्यपि सामान्यतः ईसाईयों पर कैथलिक धर्म का प्रभाव अक्षुण्ण बना रहा, परंतु पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप सर्वसाधारण जनता में स्वतंत्र चिंतन एवं धार्मिक विषयो का वैज्ञानिक अध्ययन प्रारंभ हो गया था। पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप यूरोप के विभिन्न राज्यों में लोक भाषाओं एवं राष्ट्रीय साहित्य का विकास आरंभ हुआ। पुनर्जागरण द्वारा जटिल साहित्य, विज्ञान, कला एवं बौद्धिक जागृति ने सर्वसाधारण जनता को एक नई स्फूर्ति, स्पंदन और चिंतन से अनुप्राणित कर दिया। अतः सदियों से प्रचलित कैथलिक धर्म के निर्देशों एवं अधिकारों का पालन करने के लिए अब लोग तैयार नहीं थे। अब चर्च की कटुआलोचनाएँ होने लगीं एवं चर्च के विरूद्ध आक्षेप एवं आरोप लगाये जाने लगे।

यद्यपि प्रारंभ में चर्च ने अलोचकों या विरोधियों को नास्तिक कहकर धर्म से निष्कासित किया तथा उन्हें समाज-शत्रु कहकर मृत्युदंड प्रदान किया, परंतु चर्च के विरूद्ध आलोचनाएँ निरंतर बढ़ती ही गईं। इस प्रकार चर्च के विरूद्ध आलोचनाएँ आधुनिक युग के आगमन एवं मध्ययुग की समाप्ति की सूचक थीं। सोलहवीं सदी के प्रारंभ तक यूरोप में सर्वथा नवीन वातावरण उत्पन्न हो चुका था। इस नवीन जागृति ने एक महान धार्मिक क्रांति उत्पन्न कर दी, जिसके परिणामस्वरूप कैथलिक ईसाई चर्च के परंपरागत अधिकारों के विरूद्ध सशस्त्र तथा सक्रिय विरोध-आंदोलन प्रारंभ हो गया। यही आंदोलन धर्म-सुधार के नाम से प्रख्यात है।

इस प्रकार पुनर्जागरण ने यूरोप के लोगों में एक नई ज्ञान-पिपासा पैदा की, तर्क को प्रतिष्ठित किया। मानवतावाद को विश्व के पटल पर स्थापित किया। विचार और स्वतंत्रता के मूल्यों को आगे बढ़ाया और भौतिकवाद का मार्ग प्रशस्त किया। पुनर्जागरणकालीन विचारधारा ने भविष्य में धर्मसुधार आंदोलन, वैज्ञानिक क्रांति, बौद्धिक क्रांति, राष्ट्रीय-राज्यों के उदय और पूँजीवाद तथा मध्यवर्ग के उदय का मार्ग प्रशस्त किया।

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