सिंधुघाटी की सभ्यता
विश्व की प्राचीनतम नदी घाटी सभ्यताओं में से एक हड़प्पा सभ्यता का विकास सिंधु और घग्घर (प्राचीन सरस्वती) नदियों के किनारे हुआ था। प्रागैतिहासिक युग के पश्चात् मानव ने अपने अनुभव, विवेक और शक्ति के प्रयोग के द्वारा प्रकृति तथा तत्कालीन वातावरण पर विजय प्राप्त किया, जिसके परिणामस्वरूप उसने नूतन आविष्कारों द्वारा अपने जीवन को सुखद, सुरक्षित और सुविधाजनक बनाने में सफलता प्राप्त की। इसी क्रम में ताम्रपाषाणिक पृष्ठभूमि पर सिंधु नदी की उपत्यका में एक पूर्ण विकसित नागर सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ। सबसे पहले चार्ल्स मैसन ने 1826 ई. में इस पुरानी सभ्यता की खोज की। इसके बाद 1872 ई. में अलेक्जेंडर कनिंघम ने इस सभ्यता के संबंध में सर्वेक्षण किया और फ्लीट ने इसके बारे में एक लेख लिखा।
किंतु भारतीय इतिहास के प्राचीनतम् वैभव की इस परिकल्पना को जोरदार समर्थन तब मिला, जब 1921 ई. में दयाराम साहनी ने हड़प्पा की और 1922 ई. में राखालदास बनर्जी ने मोहनजोदड़ो की खुदाई की। इन दोनों पुरास्थलों की खुदाई से भारत के उत्तरी पश्चिमी भाग में 2500 ई.पू. के लगभग विकसित एक ऐसी नगरीय सभ्यता का ज्ञान हुआ, जिसकी तुलना में तत्कालीन विश्व की मिस्र, मेसोपोटामिया जैसी अन्य विकसित सभ्यताएँ अपने विकास के क्रम में बहुत पीछे छूट गईं। इस प्रकार पश्चिमी विश्व जब आदिम सभ्यता के आँचल में ढका था, तो एशिया महाद्वीप के इस प्रायद्वीप में अत्यंत विकासमान सभ्य लोग निवास करते थे। विभिन्न अनुसंधानों से अब यह भी सिद्ध हो गया है कि भारत की सामाजिक, धार्मिक एवं भौतिक प्रवृत्तियों का मूल इसी विकसित सभ्यता में है।
नामकरण
आरंभ में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के प्रमाण मिले थे, और ये दोनों स्थल सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में थे, इसलिए इसे ‘सिंधुघाटी की सभ्यता’ नाम दिया गया था, किंतु बाद में रोपड़, लोथल, कालीबंगा, बनावली, रंगपुर, भगतराव, धौलावीरा आदि क्षेत्रों में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले, जो सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र से बाहर थे। इसलिए इस सभ्यता के प्रथम उत्खनित एवं विकसित केंद्र हड़प्पा के नाम पर पुरातत्त्वविदों ने इसे ‘हड़प्पा सभ्यता’ नाम दिया। आद्यैतिहासिककालीन होने के कारण इसे ‘आद्यैतिहासिक सभ्यता’ के नाम से भी जाना जाता है। पहली बार इस सभ्यता में काँस्य-उपकरणों का व्यापक स्तर पर प्रयोग किया गया, जिसके कारण इसे ‘काँस्यकालीन सभ्यता’ भी कहा जाता है। संप्रति कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हड़प्पा सभ्यता सिंधु से लेकर अदृश्य सरस्वती नदी तक के क्षेत्रों में विस्तृत थी। इसलिए हड़प्पा सभ्यता को ‘सरस्वती-सिंधु सभ्यता’ के नाम से भी अभिहित किया जाने लगा है।
प्रथम नगरीकरण
अन्य समकालीन सभ्यताओं की भाँति सिंधु सभ्यता भी नदी घाटियों में ही विकसित हुई। भूमि की उर्वरता और पानी की उपलब्धता के कारण इस क्षेत्र में बड़ी मात्रा में अधिशेष उत्पादन किया जा सकता था। अधिक अधिशेष-उत्पादन के कारण गैर-कृषक वर्ग, जैसे- व्यापारी, शिल्पकार और शासक उत्पन्न हुए जिससे धीरे-धीरे नगरीकरण की प्रक्रिया को बल मिला और पहली बार सैंधव सभ्यता में नगरों का उदय हुआ, इसलिए इस सभ्यता को ‘प्रथम नगरीकरण’ भी कहते हैं। वी. गार्डन चाइल्ड का कहना है कि नगरीकरण का तकनीकी विकास, धातु विज्ञान, अधिशेष उत्पादन, विशेषीकरण, वर्ग-स्तरीकरण और राज्य के निर्माण में नजदीकी संबंध है। इन सभी तत्त्वों ने लिपि के आविष्कार एवं विकास के साथ मिलकर नगरीय क्रांति को जन्म दिया, जो आगे चलकर सभ्यता के विकास की अग्रदूत बनी। इस प्रकार सभ्यता मानव के क्रमिक सामाजिक विकास की एक निश्चित अवस्था है जो शिकारी खाद्य-संग्राहक चरण से कहीं आगे की अवस्था है। साथ ही यह अवस्था नवपाषाण समाज से भी कहीं आगे की अवस्था है क्योंकि नवपाषाणिक समाज अधिशेष उत्पादन के लिए पर्याप्त विकसित नहीं था।
सिंधु सभ्यता के निर्माता
सैंधव सभ्यता के उदय और विकास के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद रहा है। सर जान मार्शल, गार्डन चाइल्ड, मार्टीमर ह्वीलर जैसे पुरातत्त्वविदों के अनुसार यह सभ्यता मेसोपोटामियाई सभ्यता की एक औपनिवेशिक शाखा थी जो सुमेरियनों द्वारा सिंधु क्षेत्र में लाई गई। इनके अनुसार सिंधु सभ्यता में मिलने वाले अवशेष पश्चिमी सभ्यता से काफी मिलते-जुलते हैं। ह्वीलर के अनुसार कालानुक्रम में सुमेरियन सभ्यता हड़प्पा सभ्यता से प्राचीन है, इसलिए सिंधु सभ्यता पर सुमेरियन सभ्यता का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। सिंधु सभ्यता के लोगों ने सुमेरियनों से बहुत कुछ सीखा। अपने तर्क के समर्थन में ह्वीलर जैसे विद्वानों ने दोनों सभ्यताओं की समानताओं को दिखाने का प्रयास किया है, जैसे- दोनों ही सभ्यताएँ नगरीय थीं और दोनों में ईंटों का प्रयोग होता था। हस्तकौशल दोनों की ही विशेषता है और दोनों सभ्यता के लोग लिपि तथा चाक का प्रयोग करते थे।
यद्यपि मेसोपोटामिया और सिंधु सभ्यता से प्राप्त मोहरों, नगर-नियोजन, बर्तन, उपकरण तथा ईंटों आदि में कुछ समानताएँ परिलक्षित होती हैं, किंतु सिंधु सभ्यता की नगरीय व्यवस्था, सुनियोजित नगर खंड, अपवाह प्रणाली आदि सुमेरियनों से अधिक विकसित थी। सुमेरियन ईंटें जहाँ कच्ची, अनगढ़ और धूप में सुखाई गई हैं, वहीं हड़प्पा सभ्यता की ईंटें पूर्णतया पकी हुई हैं। दोनों सभ्यताओं की लिपि में भी अंतर है। सैंधव लिपि चित्राक्षर है जिसमें 400 संकेत हैं, जबकि सुमेरियन लिपि में 900 अक्षर मिलते हैं। इस प्रकार सैंधव सभ्यता का उदय सुमेरियन सभ्यता से नहीं माना जा सकता है।
के.एन. शास्त्री, पुसाल्कर, भगवानसिंह जैसे इतिहासकार सिंधु सभ्यता और वैदिक सभ्यता दोनों का निर्माता आर्यों को ही मानते हैं। भगवानसिंह हड़प्पा और वैदिक संस्कृति को एक ही सिद्ध करने का प्रयास करते हैं।
द्रविड़ उत्पत्ति
राखालदास बनर्जी इस सभ्यता के निर्माण का श्रेय द्रविड़ों को देते हैं। ह्वीलर का मानना है कि ऋग्वेद में वर्णित ‘दस्यु’ एवं ‘दास’ सिंधु सभ्यता के निर्माता थे। वस्तुतः सिंधु सभ्यता के निर्माता द्रविड़ ही रहे होंगे क्योंकि ऋग्वेद में वर्णित घटनाओं से यह अनुमान किया जाता है कि इस विकसित सभ्यता का विनाश आर्यों द्वारा ही किया गया था।
स्थानीय उत्पत्ति
फेयर सर्विस, अल्चिन दंपति, स्टुअर्ट पिग्गट, अमलानंद घोष जैसे अधिकांश इतिहासकार हड़प्पा की स्थानीय उत्पत्ति को स्वीकार करते हैं जिसके अनुसार यह सभ्यता विभिन्न प्राक्-हड़पाई स्थलों में विकसित हुई है। सिंधु सभ्यता के मूल में वे स्थानीय संस्कृतियाँ रही हैं जो सिंधु सभ्यता के उद्भव के भी पहले यहाँ विद्यमान थीं।
वस्तुतः सैंधव सभ्यता की विशिष्टताओं में जो मौलिकता और निजी तत्त्व हैं, वे उसके स्थानीय उत्पत्ति की ओर संकेत करते हैं। दक्षिणी अफगानिस्तान, सिंधु, राजस्थान, गुजरात, मुंडीगाक, झाब, कुल्ली नाल, आमरी जैसे स्थलों से जो ग्रामीण एवं ताम्रपाषाणिक संस्कृतियाँ मिली हैं, वे ही धीरे-धीरे विकसित होकर सैंधव सभ्यता का मूलाधार बनीं। इन ग्रामीण संस्कृतियों के लोग कृषिकार्य करते थे और इन स्थलों की खुदाइयों में हड़प्पा से मिलते-जुलते उपकरण और मृद्भांड पाए गए हैं।
काल-निर्धारण
हड़प्पा सभ्यता के काल को निर्धारित करना निःसंदेह कठिन है। मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के सात स्तरों का पता चला है, जिससे लगता है कि यह सभ्यता कम से कम 1000 वर्षों तक अस्तित्व में रही। सबसे पहले सर जान मार्शल ने 1931 ई. में सारगोन की तिथि के आधार पर इस सभ्यता का काल ई.पू. 3250 से ई.पू. 2750 निर्धारित किया था। इस सभ्यता का काल-निर्धारण माधोस्वरूप वत्स ने ई.पू. 3500-2700, डेल्स ने ई.पू. 2900-1900, अर्नेस्ट मैके ने ई.पू. 2800-5500, सी.जे. गैड ने ई.पू. 2350-1700, डी.पी. अग्रवाल ने ई.पू. 2350-1750 और फेयर सर्विस ने ई.पू. 2000-1500 निर्धारित किया है।
मार्टीमर ह्वीलर ने मुख्यतः मेसोपोटामिया के उर और किश जैसे स्थलों से पाए गए हड़प्पाई मुद्राओं और ऋग्वेद के अंतःसाक्ष्य के आधार पर इस सभ्यता का काल ई.पू. 2500-1700 निर्धारित किया है। इस सभ्यता का मेसोपोटामिया के साथ व्यापारिक संबंध सारगोन युग में ही अधिक था, इसलिए यह संबंध ई.पू. 2500 के आसपास स्थापित हुआ होगा। ह्वीलर के अनुसार ऋग्वेद के इंद्र ने ही हड़प्पा के रक्षा-प्राचीरों को ध्वस्त किया था, इसलिए उसे पुरों को नष्ट करने वाला ‘पुरंदर’ कहा गया है। मोहनजोदड़ो के उत्खनन से पता चलता है कि वहाँ के निवासियों की निर्दयतापूर्वक हत्या की गई थी। इस नरसंहार का मुख्य अभियुक्त ‘इंद्र’ था। संभवतः आर्यों ने ही आक्रमण कर इस सभ्यता के नगरों को धवस्त किया और भागते हुए नागरिकों की सामूहिक हत्या की थी। भारत में आर्यों का आगमन ई.पू. 1500 के आसपास माना जाता है और यही सिंधु सभ्यता के अंत का समय भी है। ई.पू. 1500 के बाद की कोई मुहर मेसोपोटामियाई स्थलों से नहीं मिली है, इसलिए इस समय सिंधु सभ्यता का अंत माना जा सकता है।
कालांतर में इस सभ्यता के मोहनजोदड़ो, कोटदीजी, कालीबंगा, लोथल, रोजदी, सुरकोटदा तथा बाड़ा से रेडियो कार्बन-तिथियाँ प्राप्त की गईं। रेडियो कार्बन-विधि से इस सभ्यता को तीन चरणों- पूर्व हड़प्पाई चरण (लगभग ई.पू. 3500-2600 तक), परिपक्व हड़प्पाई चरण (लगभग ई.पू. 2600-1900) और उत्तर हड़प्पाई चरण (लगभग ई.पू. 1900-1300) में बाँटा गया है। इस प्रकार इस रेडियो कार्बन (सी-14) की नवीन विश्लेषण-पद्धति के द्वारा इस सभ्यता का सर्वमान्य काल ई.पू. 2500 से ई.पू. 1700 को माना जा सकता है। हड़प्पा सभ्यता ई.पू. 2500 में अपने विकास की चरमसीमा पर पहुँच चुकी थी।
हड़प्पा सभ्यता का प्रसार-क्षेत्र
हड़प्पा सभ्यता का प्रसार-क्षेत्र विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र से कई गुना विस्तृत था। यद्यपि इस नगरीय सभ्यता का केंद्र-स्थल पंजाब तथा सिंधु में था। किंतु इस सभ्यता के अंतर्गत पंजाब, सिंधु और बलूचिस्तान के क्षेत्र ही नहीं, बल्कि गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमांत भाग भी सम्मिलित थे। अब तो महाराष्ट्र और गंगा-यमुना के दोआब से भी इस विकसित सभ्यता के अवशेष मिलने की सूचनाएँ हैं। नवीन अनुसंधानों से स्पष्ट है कि इस सभ्यता का विस्तार उत्तरी पंजाब से लेकर नर्मदा-ताप्ती नदी की घाटी तक तथा पश्चिम में बलूचिस्तान से लेकर पूर्व में गंगा-यमुना की घाटी तक फैला हुआ था। इस प्रकार हड़प्पा सभ्यता पश्चिम में मकरान समुद्र तट के सुत्कागेनडोर से लेकर पूर्व में मेरठ के आलमगीरपुर (उ.प्र.) तक तथा उत्तर में जम्मू-कश्मीर के मांडा से लेकर दक्षिण में महाराष्ट्र के दायमाबाद तक फैली थी। क्षेत्रफल की दृष्टि से इसका प्रसार पूर्व से पश्चिम तक 1,600 कि.मी. तथा उत्तर से दक्षिण तक 1,400 कि.मी. क्षेत्र में था और इस त्रिभुजाकार क्षेत्र का क्षेत्रफल 12,99,600 वर्ग किमी है।

भारतीय उपमहाद्वीप में हड़प्पा सभ्यता के स्थल
भारतीय उपमहाद्वीप में अब तक इस सभ्यता के कुल 2,400 स्थलों का पता लग चुका है जिसमें से 925 केंद्र भारत में हैं। अभी तक कुछ गिने-चुने स्थलों का ही उत्खनन-कार्य किया गया है, जिनमें से कुछ पुरास्थल आरंभिक अवस्था के परिचायक हैं, कुछ परिपक्व अवस्था के और कुछ उत्तरवर्ती अवस्था के। हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न स्थल भारतीय उपमहाद्वीप के निम्नलिखित क्षेत्रों से प्रकाश में आये हैं-
बलूचिस्तान दक्षिणी बलूचिस्तान में हड़प्पा सभ्यता के कई पुरास्थल स्थित हैं जिसमें मकरान समुद्र तट पर मिलने वाले तीन स्थल पुरातात्त्विक दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं- सुत्कागेन-डोर (दाश्क नदी के मुहाने पर), सुत्काकोह (शादीकौर के मुहाने पर), बालाकोट (विंदार नदी के मुहाने पर) और डाबरकोट (सोन मियानी खाड़ी के पूर्व में विंदार नदी के मुहाने पर)।
उत्तर पश्चिमी सीमांत उत्तर पश्चिमी सीमांत की संपूर्ण पुरातात्त्विक सामग्री, गोमल घाटी में केंद्रित प्रतीत होती है जो अफगानिस्तान जाने का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण मार्ग है। गुमला जैसे स्थलों पर सिंधु-पूर्व सभ्यता के निक्षेपों के ऊपर सिंधु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
सिंधु सिंधु में कुछ स्थल प्रसिद्ध हैं, जैसे- मोहनजो-दड़ो, चान्हू-दड़ो, जूड़ी-रो-दड़ो, आमरी (जिसमें सिंधु पूर्व सभ्यता के निक्षेप के ऊपर सिंधु सभ्यता के निक्षेप मिलते हैं), कोट दीजी, अली मुराद, रहमान ढेरी, राना घुंडई इत्यादि।
पश्चिमी पंजाब इस क्षेत्र में अधिक स्थल प्रकाश में नहीं आये हैं। संभवतः पंजाब की नदियों के मार्ग बदलने के कारण कुछ स्थल नष्ट हो गए हैं। इसके अलावा डेरा इस्माइल खान, जलीलपुर, रहमान ढेरी, गुमला, चक-पुराना स्टाल आदि महत्त्वपूर्ण पुरास्थल हैं।
बहावलपुर यहाँ के स्थल सूखी हुई सरस्वती नदी के मार्ग पर स्थित हैं। इस मार्ग का स्थानीय नाम हकरा है। घग्घर/हकरा अर्थात् सरस्वती/दृषद्वती नदियों की घाटियों में हड़प्पा संस्कृति के अनेक स्थल पहचाने गए हैं, किंतु इस क्षेत्र में अभी तक किसी स्थल का उत्खनन नहीं हुआ है।
राजस्थान प्राचीन सरस्वती नदी के सूखे हुए मार्ग पर स्थित इस क्षेत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थल कालीबंगा है। इस पुरास्थल से हड़प्पा तथा मोहनजो-दड़ो की भाँति पश्चिम में गढ़ी और पूर्व में नगर के दो टीले विद्यमान हैं। राजस्थान के समस्त हड़प्पाई पुरास्थल गंगानगर और हनुमानगढ़ (भटनेर) जिले में हैं।
हरियाणा हरियाणा में इस सभ्यता का महत्त्वपूर्ण स्थल हिसार जिले में स्थित बनावली है। इसके अलावा, मिथतल, सिसवाल, राखीगढ़ी, वाड़ा तथा वालू आदि स्थलों का भी उत्खनन किया जा चुका है।
पूर्वी पंजाब इस क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण स्थल रोपड़ और संधोल हैं। हाल ही में चंडीगढ़ नगर में भी हड़प्पा संस्कृति के निक्षेप पाए गए हैं। इसके अतिरिक्त कोटला निहंग खान, चक 86 वाड़ा, ढेर-मजरा आदि पुरास्थलों से सिंधु सभ्यता से संबद्ध पुरावशेष प्राप्त हुए हैं।
गंगा-यमुना दोआब गंगा-यमुना क्षेत्र में हड़पाई पुरास्थल मेरठ जिले के आलमगीरपुर तक फैले हुए हैं। अन्य स्थल सहारनपुर जिले में स्थित हुलास तथा बाड़गाँव हैं। हुलास तथा बाड़गाँव की गणना परवर्ती हड़प्पा सभ्यता के पुरास्थलों में की जाती है।
जम्मू इस क्षेत्र से मात्र एक स्थल का पता लगा है, जो अखनूर के निकट मांडा में है। यह स्थल भी हड़प्पा सभ्यता के परवर्ती चरण से संबद्ध है।
गुजरात 1947 ई. के बाद गुजरात में हड़पाई स्थलों की खोज के लिए व्यापक स्तर पर उत्खनन किया गया। गुजरात में हड़प्पा सभ्यता से संबंधित 22 पुरास्थल हैं, जिसमें से चौदह कच्छ क्षेत्र में तथा शेष अन्य भागों में स्थित हैं। गुजरात प्रदेश में पाए गए प्रमुख पुरास्थलों में रंगपुर, लोथल, पाडरी, प्रभास-पाटन, रोजदी, देसलपुर, मेघम, वेतेलोद, भगवतराव, सुरकोटदा, नागेश्वर, कुंतासी, शिकारपुर तथा धोलावीरा आदि हैं।
महाराष्ट्र इस प्रदेश के दायमाबाद पुरास्थल से मिट्टी के ठीकरे प्राप्त हुए हैं, जिन पर चिरपरिचित हड़प्पा लिपि में कुछ लिखा हुआ है। ताम्र-मूर्तियों का एक निधान, जिसे प्रायः हड़प्पा संस्कृति से संबद्ध किया जाता है, महाराष्ट्र के दायमाबाद नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। इसमें रथ चलाते मनुष्य, सांड़, गैंडा और हाथी की आकृतियाँ प्रमुख रूप से प्राप्त हुई हैं। किंतु इनकी तिथि के विषय में विद्वानों में मतभेद है।
अफगानिस्तान हिंदुकुश के उत्तर में अफगानिस्तान में स्थित मुंडिगाक और शोर्तुगई दो पुरास्थल हैं। मुंडिगाक का उत्खनन जे.एम. कैसल द्वारा किया गया था, जबकि शोर्तुगई की खोज एवं उसका उत्खनन हेनरी फ्रैंकफोर्ट द्वारा कराया गया था। शोर्तुगई लाजवर्द की प्राप्ति के लिए बसाई गई व्यापारिक बस्ती थी।
यह बिडंबना है कि इन पुरातात्त्विक स्थलों की खोज एवं उत्खनन के बाद भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग व भारत सरकार इस सभ्यता से संबद्ध नवीन स्थलों की पहचान और खुदाई में उदासीन हैं। नवीन अनुसंधानों से इस विकसित सभ्यता के उदय और विनाश के लिए उत्तरदायी तत्त्वों की पहचान की जा सकती है।
प्रमुख पुरास्थल
भारतीय उपमहाद्वीप में इस सभ्यता के ज्ञात लगभग 2,400 स्थानों में से केवल छः को ही नगर की संज्ञा दी जा सकती है- हड़प्पा, मोहनजो-दड़ो (मुअनजो-दारो), चान्हू-दड़ो, लोथल, कालीबंगा और बनावली। इनमें से दो नगर बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं- पाकिस्तान के पंजाब का रावी नदी के तट पर स्थित हड़प्पा तथा सिंधु का मोहनजो-दड़ो (मृतकों का टीला)। दोनों ही पुरास्थल एक दूसरे से 483 कि.मी. दूर थे और सिंधु नदी द्वारा परस्पर जुड़े हुए थे। तीसरा नगर मोहनजो-दड़ो से 130 किमी दक्षिण में चान्हू-दड़ो है और चौथा नगर गुजरात के खंभात की खाड़ी के ऊपर स्थित लोथल है। इसके अतिरिक्त, राजस्थान के कालीबंगा (काले रंग की चूड़ियाँ) तथा हरियाणा के बनावली भी उल्लेखनीय स्थल हैं। इन सभी स्थलों पर परिपक्व एवं उन्नत सिंधु सभ्यता के दर्शन होते हैं। सुत्कागेन-डोर तथा सुरकोटदा के समुद्रतटीय नगरों में भी इस सभ्यता की परिपक्व अवस्था दिखाई देती है।
मोहनजो-दड़ो (मुअनजो-दारो)
मुअनजो-दारो या मोहनजो-दड़ो का सिंधी भाषा में शाब्दिक अर्थ ‘मृतकों का टीला’ है। यह पाकिस्तान के सिंधु प्रांत के लरकाना जिले में सिंधु नदी के दाहिने तट पर स्थित है। यह नगर लगभग पाँच कि.मी. के क्षेत्र में फैला हुआ है। इसे नियोजित रूप से बसा हुआ विश्व का सबसे प्राचीन नगर माना जाता है। 1922 ई. में मोहनजो-दड़ो के टीलों को खोजने का श्रेय राखालदास बनर्जी को प्राप्त है। 1922 ई. में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के महानिदेशक जान मार्शल के निर्देश पर मोहनजो-दड़ो पर खुदाई का कार्य शुरू हुआ था। मोहनजो-दड़ो के उत्खनन में मिस्र और मेसोपोटामिया जैसी ही प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं। यहाँ पूर्व और पश्चिम दिशा में प्राप्त दो टीलों के अतिरिक्त सार्वजनिक स्थलों में एक विशाल जलाशय एवं एक अन्नागार के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ विभिन्न आकार-प्रकार के सत्ताईस प्रकोष्ठ मिले हैं। इनके अतिरिक्त, सार्वजनिक भवन एवं अधिकारी-आवास के ध्वंसावशेष भी सार्वजनिक भवनों की श्रेणी में आते हैं। अधिकारी-आवास विशाल स्नानागार के उत्तर-पूर्व में स्थित था।
दुर्ग टीला
मोहनजो-दड़ो के पश्चिमी भाग में स्थित दुर्ग टीले को ‘स्तूप टीला’ भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ पर कुषाण शासकों ने एक स्तूप का निर्माण करवाया था। इसके अलावा मोहनजो-दड़ो से कुंभकारों के छः भट्ठों के अवशेष, सूती कपड़ा, हाथी का कपालखंड, गले हुए ताँबे के ढेर, सीपी की बनी हुई पटरी एवं काँसे की नृत्यरत नारी की मूर्ति के अवशेष भी मिले हैं।
मोहनजो-दड़ो नगर के एच.आर. क्षेत्र से जो मानव मूर्तियाँ मिली हैं, उसमें दाढ़ीयुक्त सिर विशेष महत्त्वपूर्ण है। मोहनजो-दड़ो के अंतिम चरण से नगर-क्षेत्र के अंदर मकानों तथा सार्वजनिक मार्गों पर 42 कंकाल अस्त-व्यस्त दशा में मिले हैं। इसके अतिरिक्त मोहनजो-दड़ो से लगभग 1,398 मुहरें (मुद्राएँ) भी प्राप्त हुई हैं जो कुल लेखन-सामग्री का 56.67 प्रतिशत हैं। पत्थर की मूर्तियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सेलखड़ी से निर्मित एक 19 सेमी. लंबा पुरुष का धड़ है। चूना पत्थर का बना एक पुरुष सिर (14 सेमी.), सेलखड़ी से बनी एक अन्य मूर्ति भी विशेष उल्लेखनीय हैं।
अन्य अवशेषों में सूती व ऊनी कपड़े का साक्ष्य और प्रोटो-आस्ट्रोलॉयड या काकेशियन जाति के तीन सिर महत्त्वपूर्ण हैं। कूबड़वाले बैल की आकृतियुक्त मुहर, बर्तन पकाने के छः भट्ठे, एक बर्तन पर नाव का चित्र, जालीदार अलंकरणयुक्त मिट्टी का बर्तन, गीली मिट्टी पर कपड़े का साक्ष्य, पशुपति शिव जैसी मूर्ति एवं ध्यान की आकृतिवाली मुद्रा उल्लेखनीय हैं। मोहनजो-दड़ो की एक मुद्रा पर एक संश्लिष्ट आकृति भी मिली है, जिसमें आधा भाग मानव का और आधा भाग बाघ का है। एक सिलबट्टा तथा मिट्टी का तराजू भी मिला है। मोहनजो-दड़ो के समाधि क्षेत्र के विषय में अधिक सूचना नहीं है। नगर के अंदर शव-विसर्जन के दो प्रकार के साक्ष्य मिले हैं- एक आंशिक शवाधान का और दूसरा पूर्ण समाधीकरण (दफनाने) का।
बृहत्स्नानागार
बृहत्स्नानागार मोहनजो-दड़ो ही नहीं, बल्कि सिंधु सभ्यता का भी सर्वाधिक उल्लेखनीय स्मारक है। इसका विस्तार पूर्व से पश्चिम की ओर 32.9 मी. तथा उत्तर से दक्षिण की ओर 54.86 मी. है। इसके मध्य में स्थित जलाशय (महाजलकुंड) 11.89 मी. लंबा, 7.01 मी. चौड़ा तथा 2.44 मी. गहरा है। इस जलकुंड के अंदर प्रवेश करने के लिए दक्षिणी और उत्तरी छोरों पर 2.43 मी. चौड़ी सीढ़ियाँ बनाई गई थीं। जलाशय की फर्श पक्की ईंटों की बनी थी। फर्श तथा दीवार की जुड़ाई जिप्सम से की गई है और बाहरी दीवार पर बिटूमन का एक इंच मोटा प्लास्टर है। स्नानागार के फर्श की ढाल दक्षिण-पश्चिम की ओर है जहाँ पानी निकलने की नाली बनी थी। कुंड के चारों ओर बरामदे एवं इनके पीछे अनेक छोटे-छोटे कमरे थे। कमरे संभवतः दोमंजिले थे, क्योंकि ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ भी मिली हैं। इन कमरों में शायद कपड़े बदले जाते थे। कुंड के पूर्व में स्थित एक कमरे से ईंटों की दोहरी पंक्ति से बने एक कुएं का साक्ष्य मिला है, जो संभवतः स्नानागार हेतु जल की आपूर्ति करता था। मैके के अनुसार इस बृहत्स्नानागार का निर्माण धार्मिक अवसरों पर जनता के सामूहिक स्नान हेतु किया गया था। जान मार्शल ने इसे तत्कालीन विश्व का ‘आश्चर्यजनक निर्माण’ बताया है।

अन्नागार
मोहनजो-दड़ो के स्नानागार के पश्चिम में 1.52 मीटर ऊँचे चबूतरे पर निर्मित विशाल भवन संभवतः संपूर्ण हड़प्पा संस्कृतिमाला में निर्मित पकी ईंटों की विशालतम् संरचना है, जो 45.72 मीटर लंबा एवं 22.86 मीटर चौड़ा था। इसमें ईंटों से बने हुए विभिन्न आकार-प्रकार के पच्चीस प्रकोष्ठ मिले हैं। मार्टीमर ह्वीलर ने इसे ‘अन्नागार’ (कोठार) बताया है, जबकि कुछ अन्य इतिहासकार इसे ‘राजकीय भंडारागार’ होने का अनुमान लगाते हैं। इसमें हवा के संचरण की भी व्यवस्था थी। इस भवन का मुख्य प्रवेश-द्वार नदी की ओर था, जिससे अनाज को लाकर रखने में सुविधा होती रही होगी। संभवतः यह राजकीय भंडारागार था, जिसमें जनता से कर के रूप में वसूल किये गए अनाज को रखा जाता था। मिस्र, मेसोपोटामिया से भी अन्नागारों के साक्ष्य पाए गए हैं।
सार्वजनिक भवन
दुर्ग के दक्षिण में 27.43 मीटर वर्गाकार का एक विशाल सार्वजनिक भवन का ध्वंसावशेष मिला है, जिसकी छत 20 चौकोर स्तंभों पर टिकी है जो पाँच-पाँच की चार कतारों में हैं। मुख्य प्रवेश-द्वार उत्तर की ओर था। भवन के भीतर बैठने के लिए चौकियाँ बनाई गई थीं। मैके इसे ‘सामूहिक बाजार’ बताते हैं, जबकि कुछ इतिहासकारों के अनुसार संभवतः इसका प्रयोग धर्म-चर्चा या धार्मिक सभाओं के लिए किया जाता था। मार्शल ने इसकी तुलना ‘बौद्ध गुफा मंदिर’ से करते हैं और यही उचित प्रतीत होता है।
अधिकारी आवास
विशाल स्नानागार के उत्तर-पूर्व से 70.01×23.77 मी. आकार के एक विशाल भवन का अवशेष प्राप्त हुआ है, जिसमें 10 मी. वर्गाकार का एक आंगन, तीन बरामदे एवं अनेक कमरे हैं। यह भवन संभवतः महत्त्वपूर्ण राजकीय अधिकारियों का निवास स्थान था। मैके के अनुसार इसमें पुरोहित जैसे विशिष्ट लोग निवास करते थे।
हड़प्पा
पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित मॉन्टगोमरी जिले में रावी नदी के बायें तट पर यह पुरास्थल स्थित है। हड़प्पा के ध्वंसावशेषों के संबंध में सबसे पहले जानकारी 1826 ई. में चार्ल्स मैसन ने दी थी। इसके बाद 1856 ई. में ब्रंटन बंधुओं ने हड़प्पा के पुरातात्त्विक महत्त्व को स्पष्ट किया। भारतीय पुरातात्त्विक विभाग के निर्देशक जान मार्शल के निर्देशन में 1921 ई. में दयाराम साहनी ने सबसे पहले इस स्थल का उत्खनन कार्य प्रारंभ करवाया। यहाँ से मिस्र और मेसोपोटामिया जैसी प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले। 1946 ई. में सर मार्टीमर ह्वीलर ने हड़प्पा के पश्चिमी दुर्ग टीले की सुरक्षा-प्राचीर का स्वरूप ज्ञात करने के लिए इसका उत्खनन करवाया। यह नगर करीब पाँच कि.मी. के क्षेत्र में बसा हुआ था। हाल ही में, 2014 ई. में हड़प्पा से एक बावड़ी का साक्ष्य मिला है, जो मोहनजो-दड़ो के विशाल स्नानागार से तीन गुना बड़ा है।
हड़प्पा से प्राप्त दो टीलों में पूर्वी टीले को नगर टीला तथा पश्चिमी टीले को दुर्ग टीला के नाम से संबोधित किया गया है। हड़प्पा का दुर्ग क्षेत्र सुरक्षा-प्राचीर से घिरा हुआ था। दुर्ग का आकार समलंब चतुर्भुज की भाँति था जिसकी उत्तर से दक्षिण लंबाई 420 मी. तथा पूर्व से पश्चिम चौड़ाई 196 मी. है। उत्खननकर्त्ताओं ने दुर्ग के टीले को माउंट ‘AB’ नाम दिया है। दुर्ग का मुख्य प्रवेश-द्वार उत्तर दिशा में तथा दूसरा प्रवेशद्वार दक्षिण दिशा में था। रक्षा-प्राचीर लगभग बारह मीटर ऊँची थी जिसमें स्थान-स्थान पर तोरण अथवा बुर्ज बने हुए थे। हड़प्पा के दुर्ग के बाहर उत्तर दिशा में स्थित लगभग छः मीटर ऊँचे टीले को ‘एफ’ नाम दिया गया है, जहाँ से अन्नागार, अनाज कूटने के वृत्ताकार चबूतरे और श्रमिक आवास के साक्ष्य मिले हैं।
अन्नागार
हड़प्पा से प्राप्त अन्नागार नगरगढ़ी के बाहर रावी नदी के निकट स्थित थे। यहाँ से छः-छः की दो पंक्तियाँ में निर्मित कुल बारह कक्षों वाले एक अन्नागार का अवशेष प्रकाश में आया है, जिनमें प्रत्येक का आकार 50×20 मी. का है, जिसका कुल क्षेत्रफल 2,745 वर्ग मीटर से अधिक है।
हड़प्पा के ‘एफ’ टीले में पकी हुई ईंटों से निर्मित 18 वृत्ताकार चबूतरे मिले हैं। इन चबूतरों में ईंटों को खड़े रूप में जोड़ा गया है। प्रत्येक चबूतरे का व्यास 3.20 मी. है। हर चबूतरे में संभवतः ओखली लगाने के लिए छेद था। इन चबूतरों के छेदों में राख, जले हुए गेहूँ तथा जौ के दाने एवं भूसा के तिनके मिले हैं। मार्टीमर ह्वीलर के अनुसार इन चबूतरों का उपयोग संभवतः अनाज पीसने के लिए किया जाता था।
श्रमिक आवास
श्रमिक आवास के रूप में विकसित 15 मकानों की दो पंक्तियाँ मिली हैं, जिनमें उत्तरी पंक्ति में सात एवं दक्षिणी पंक्ति में आठ मकानों के अवशेष पाए गए हैं। प्रत्येक मकान का आकार 17×7.5 मी. का है। प्रत्येक घर में कमरे तथा आंगन होते थे। इनमें मोहनजो-दड़ो के घरों की भाँति कुएं नहीं मिले हैं। श्रमिक आवास के निकट ही करीब चौदह भट्ठों और धातु बनाने की एक मूषा के अवशेष मिले हैं। इसके अतिरिक्त, यहाँ से एक बर्तन पर बना मछुआरे का चित्र, शंख का बना बैल, पीतल का बना इक्का, ईंटों के वृत्ताकार चबूतरे, जिनका उपयोग संभवतः फसल की मड़ाई में किया जाता था, साथ ही गेहूँ तथा जौ के दानों के अवशेष भी मिले हैं।
कब्रिस्तान
हड़प्पा के सामान्य आवास क्षेत्र के दक्षिण में एक कब्रिस्तान स्थित है जिसे ‘समाधि आर-37’ नाम दिया गया है। यहाँ की खुदाई में कुल 57 शवाधान पाए गए हैं। शव प्रायः उत्तर-दक्षिण दिशा में दफनाये जाते थे, जिनमें सिर उत्तर की ओर होता था। एक कब्र में लकड़ी के ताबूत में शव को रखकर दफनाया गया था। बारह शवाधानों से काँस्य-दर्पण भी प्राप्त हुए हैं। एक सुरमा लगाने की सलाई, एक समाधि से सीपी की चम्मच एवं कुछ अन्य से पत्थर के फलक (ब्लेड) मिले हैं। हड़प्पा से 1934 ई. में एक अन्य समाधि मिली थी, जिसे ‘समाधि-एच’ नाम दिया गया था। इसका संबंध हड़प्पा सभ्यता के बाद के काल से माना जाता है।
चान्हू-दड़ो
मोहनजो-दड़ो के दक्षिण में स्थित चान्हू-दड़ो नगर की खोज सर्वप्रथम 1931 ई. में एन. गोपाल मजूमदार ने किया और 1943 ई. में मैके द्वारा यहाँ उत्खनन करवाया गया। चान्हू-दड़ो को 4000 से 1700 ई.पू. में बसा हुआ नगर माना जाता है। सबसे निचले स्तर से हड़प्पा संस्कृति के साक्ष्य मिले हैं। यहाँ पर गुरिया (मनका) बनाने का एक कारखाना मिला है। ताँबे और काँसे के औजार तथा साँचों के भंडार मिलने से लगता है कि यहाँ मनके बनाने, हड्डियों के सामान तथा मुद्रा-निर्माण संबंधी दस्तकारी प्रचलित थी। वस्तुएँ निर्मित व अर्धनिर्मित दोनों रूपों में पाई गई हैं, जिससे पता चलता है कि यहाँ मुख्यतः शिल्पकार और कारीगर ही रहते थे। वस्तुएँ जिस प्रकार बिखरी हुई मिली हैं, उससे स्पष्ट लगता है कि यहाँ के लोग अचानक मकान छोड़कर भागे थे।
यहाँ से जला हुआ एक कपाल, चार पहियोंवाली गाड़ी और मिट्टी के मोर की एक आकृति का अवशेष मिला है। इसके अलावा, यहाँ से लिपिस्टिक का भी साक्ष्य मिला है। यहीं से एक ईंट पर कुत्ते और बिल्ली के पंजों के निशान मिले हैं। मिट्टी की एक मुद्रा पर तीन घड़ियालों और दो मछलियों का अंकन है। एक वर्गाकार मुद्रा की छाप पर दो नग्न-नारियों का अंकन है, जो हाथ में एक-एक ध्वज पकड़े हुए हैं और ध्वजों के बीच से पीपल की पत्तियाँ निकल रही हैं। चान्हू-दड़ो ही एक मात्र ऐसा पुरास्थल है जहाँ से वक्राकार ईंटें मिली हैं, किंतु किसी दुर्ग का अवशेष नहीं मिला है।
लोथल
यह पुरास्थल गुजरात के अहमदाबाद जिले में भोगवा नदी के किनारे सरगवाला नामक गाँव के समीप स्थित है। इसकी खुदाई 1954-55 ई. में रंगनाथ राव के नेतृत्व में की गई। यह ई.पू. से करीब 2400 साल पूर्व का एक प्राचीन नगर माना जाता है। इस स्थल से विभिन्न कालों के पाँच स्तर पाए गए हैं। यहाँ पर दो भिन्न-भिन्न टीले नहीं मिले हैं, बल्कि पूरी बस्ती एक ही दीवार से घिरी हुई थी। यह बस्ती छः खंडों में विभक्त थी, जो पूर्व से पश्चिम 117 मी. और उत्तर से दक्षिण की ओर 136 मी. तक फैली हुई थी।
बाजार और औद्योगिक क्षेत्र
लोथल नगर के उत्तर में एक बाजार और दक्षिण में एक औद्योगिक क्षेत्र था। यहाँ से मनके बनाने वाले, ताँबे तथा सोने का काम करनेवाले शिल्पियों और ताम्रकर्मियों की उद्योगशालाएँ भी प्रकाश में आई हैं। यहाँ एक मकान से सोने के दाने, सेलखड़ी की चार मुहरें, सीप एवं ताँबे की बनी चूड़ियाँ और रंगा हुआ एक मिट्टी का जार मिला है। लोथल नगर में जल को पुनर्शोधित कर उपयोग में लाया जाता था, एक बूँद जल व्यर्थ नहीं जाता था।
नगर दुर्ग के पश्चिम की ओर विभिन्न आकार के ग्यारह कमरे बने थे, जिनका प्रयोग मनके या दाना बनानेवाले कारखाने के रूप में किया जाता था। लोथल नगर क्षेत्र के बाहरी उत्तरी-पश्चिमी किनारे पर समाधि क्षेत्र था, जहाँ से बीस समाधियाँ मिली हैं। यहाँ तीन युग्मित समाधि के भी उदाहरण मिले हैं। लोथल की अधिकांश कब्रों में कंकाल के सिर उत्तर की ओर और पैर दक्षिण की ओर था। केवल अपवादस्वरूप एक कंकाल की दिशा पूर्व-पश्चिम की ओर मिली है।
बंदरगाह अथवा गोदीबाड़ा
लोथल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बंदरगाह अथवा गोदीवाड़ा का अवशेष है। इसका औसत आकार 214×36 मीटर एवं गहराई 3.3 मीटर है। इसके उत्तर में बारह मीटर चौड़ा एक प्रवेश-द्वार निर्मित था जिससे होकर जहाज आते-जाते थे और दक्षिण दीवार में अतिरिक्त जल के लिए निकास-द्वार था। इस बंदरगाह पर मिस्र तथा मेसोपोटामिया से जहाज आते-जाते थे।
लोथल में गढ़ी और नगर दोनों एक ही रक्षा-प्राचीर से घिरे हैं। यहाँ की सर्वाधिक प्रसिद्ध उपलब्धि हड़प्पाकालीन बंदरगाह के अतिरिक्त विशिष्ट मृद्भांड, उपकरण, मुहरें, बाट-माप एवं पाषाण-उपकरण हैं। इसके साथ ही धान (चावल), फारस की मुहरें एवं घोड़ों की लघु मृण्मूर्तियों के भी अवशेष मिले हैं। लोथल से प्राप्त एक मृद्भांड पर एक कौआ तथा एक लोमड़ी का चित्र उत्कीर्ण हैं जिसका समीकरण ‘पंचतंत्र’ की चालाक लोमड़ी की कथा से किया गया है। यहाँ से उत्तरकाल की एक कथित अग्निवेदी भी मिली है। नाव के आकार की दो मुहरें तथा लकड़ी का एक अन्नागार मिला है। अन्न पीसने की चक्की, हाथीदाँत तथा सीप का पैमाना, एक छोटा सा दिशा-मापक यंत्र भी मिला है। ताँबे का पक्षी, बैल, खरगोश व कुत्ते की आकृतियाँ भी मिली हैं, जिसमें ताँबे का कुत्ता विशेष महत्त्वपूर्ण है।
लोथल से मेसोपोटामियाई मूल की तीन बेलनाकार मुहरें प्राप्त हुई हैं। यहाँ से बटन के आकार की एक मुद्रा भी मिली है। आटा पीसने के दो पाट भी मिले हैं, जो हड़प्पा संस्कृति के एक मात्र उदाहरण हैं। लोथल के उत्खनन से जिस प्रकार की नगर-योजना और अन्य भौतिक वस्तुएँ प्रकाश में आई हैं, उनसे लोथल एक लघु-हड़प्पा या मोहनजो-दड़ो लगता है। समुद्र के तट पर स्थित यह स्थल पश्चिम एशिया के साथ व्यापार का एक प्रधान केंद्र था।
राजनैतिक जीवन
हड़प्पा सभ्यता की व्यापकता एवं विकास से अनुमान किया जा सकता है कि यह सभ्यता किसी केंद्रीय शक्ति द्वारा अवश्य संचालित होती थी। यद्यपि यह प्रश्न अभी अनिर्णीत है कि यहाँ किस प्रकार की शासन व्यवस्था थी और शासन प्रणाली का स्वरूप क्या था, किंतु इतना स्पष्ट है कि इस सुनियोजित नगर व्यवस्था और विदेशों से सुदृढ़ व्यापारिक-संबंध के पीछे कोई बड़ी राजनैतिक सत्ता अवश्य रही होगी। ह्वीलर ने सिंधु प्रदेश के लोगों के शासन को मध्यम वर्गीय जनतंत्रात्मक शासन बताया और उसमें धर्म की महत्ता को स्वीकार किया। उनके अनुसार मोहनजो-दड़ो की शासन-व्यवस्था धर्मगुरुओं और पुरोहितों के हाथों में केंद्रित थी, जो जन-प्रतिनिधियों के रूप में प्रशासनिक कार्य करते थे। मैके के अनुसार मोहनजो-दड़ो का शासन एक प्रतिनिधि शासक के द्वारा संचालित होता था। संभवतः सैंधव साम्राज्य में एक शासक होता था, जो पुरोहित होता था और देवता के प्रतिनिधि के रूप में शासन संचालित करता था। स्टुअर्ट पिग्गट के अनुसार मोहनजो-दड़ो का शासन राजतंत्रात्मक न होकर जनतंत्रात्मक था। शासन की अपरिवर्तनशीलता एक धर्मनिरपेक्ष शासन के स्थान पर एक धर्मप्रधान शासन की ओर संकेत करती है। अस्त्र-शस्त्रों की अत्यंत कम संख्या से स्पष्ट है कि हड़प्पाई शासक शांतिप्रिय थे।
प्रशासनिक दृष्टि से सैंधव नगर केंद्रीय राजधानी, प्रांतीय राजधानियों, व्यापारिक एवं आवासीय नगरों में विभक्त रहे होंगे। मोहनजो-दड़ो और हड़प्पा को स्टुअर्ट पिग्गट ने इस विस्तृत साम्राज्य की जुड़वाँ राजधानी बताया है। कुछ विद्वान कालीबंगा को सैंधव साम्राज्य की तीसरी राजधानी मानते हैं। नगरों का प्रशासन संभवतः सुदृढ़ दुर्गों से संचालित होता था जहाँ अधिकांश केंद्रीय अधिकारी निवास करते थे। नगरों की सुनियोजित व्यवस्था को देखकर लगता है कि यहाँ नगर निगम जैसी कोई स्थानीय संस्था भी कार्य करती थी। जनता से कर के रूप में अनाज लिया जाता था, जिसे राजकीय अन्नागारों में रखा जाता था। चूंकि हड़प्पावासी व्यापार-वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे, इसलिए कुछ विद्वानों का अनुमान है कि हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथों में था।
सामाजिक जीवन
सैंधव सभ्यता के विभिन्न स्थलों से पाए गए पुरावशेषों के आधार पर इस सभ्यता के सामाजिक जीवन, रहन-सहन आदि के बारे में कुछ अनुमान लगाया जा सकता है। भवनों के आकार-प्रकार एवं आर्थिक विषमता के आधार पर लगता है कि विश्व की अन्य सभ्यताओं की भाँति हड़प्पाई समाज भी वर्ग-विभेद पर आधारित था। उच्च वर्ग के लोग मूल्यवान धातु-पत्थरों के आभूषण प्रयोग करते थे, जबकि निम्नवर्गीय लोगों के आभूषण मिट्टी, सीप एवं घोंघे के होते थे। विशाल भवनों के निकट मिलने वाले छोटे आवासों से स्पष्ट है कि समाज में वर्ग-विभाजन विद्यमान था। प्राप्त पुरावशेषों से हड़प्पाई समाज में शासक, कुलीन वर्ग, विद्वान, व्यापारी तथा शिल्पकार, कृषक और श्रमिक जैसे विभिन्न वर्गों के अस्तित्व की सूचना मिलती है। दुर्ग के निकट श्रमिकों की झोपड़ियाँ मिली हैं। इन हड़प्पाई श्रमिक-बस्तियों के आधार पर ह्वीलर ने समाज में दासप्रथा के अस्तित्व का अनुमान किया है, यद्यपि कुछ पुराविद् इससे सहमत नहीं हैं। इस सभ्यता के लोग युद्धप्रिय कम, शांतिप्रिय अधिक थे। संभवतः समाज की इकाई परिवार था। उत्खनन में प्राप्त विशाल भवनों के आधार पर अनुमान है कि बड़े परिवारों में अनेक व्यक्ति रहते होंगे। खुदाई में प्राप्त बहुसंख्यक नारी-मूर्तियों से लगता है कि प्राक्-आर्य संस्कृतियों की भाँति सैंधव समाज भी मातृसत्तात्मक था।
भोजन और वस्त्र
इस सभ्यता के लोग सामिष और निरामिष दोनों प्रकार का भोजन करते थे। वे भोजन के रूप में गेहूँ, जौ, खजूर एवं भेड़, सुअर, मछली के माँस खाते थे और मिट्टी एवं धातु के बने कलश, थाली, कटोरे, तश्तरी, गिलास एवं चम्मच का प्रयोग करते थे। हड़प्पाई सूती एवं ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग करते थे। पुरुष ऊपरी कपड़े को चादर की तरह ओढ़ते थे। उच्च वर्ग के लोग रंगीन और कलात्मक वस्त्रों का प्रयोग करते थे। मोहनजो-दड़ो से प्राप्त योगी की मूर्ति तिपतिया चादर ओढ़े हुए है। वस्त्रों की सिलाई भी की जाती थी। स्त्रियाँ कमर में घाघरा (स्कर्ट) की तरह का वस्त्र पहनती थीं। वे सिर पर विशेष प्रकार का वस्त्र धारण करती थीं जो पंख की तरह उठा होता था।
सौंदर्य-प्रसाधन
पुरुष वर्ग दाढ़ी एवं मूँछों का शौकीन था। खुदाई में ताँबे के निर्मित दर्पण, हाथीदाँत का कंघा, उस्तरे, अंजन शलाकाएँ और शृंगारदान मिले हैं। इससे लगता है कि स्त्रियाँ आँखों में काजल लगाती थीं और होठों तथा नाखूनों को रंगती थीं। वे लिपिस्टिक के प्रयोग से परिचित थीं और बालों में पिन लगाती थीं। पुरुष और स्त्री दोनों ही आभूषणों के शौकीन थे। निम्न वर्ग के लोग मिट्टी, घोंघे, हड्डी या काँसे के आभूषणों का प्रयोग करते थे, तो उच्च वर्ग के लोग सोने, चाँदी, हाथीदाँत तथा बहुमूल्य पत्थरों से निर्मित आभूषण पहनते थे। खुदाई में कंठहार, भुजबंध, कर्णफूल, छल्ले, चूड़ियाँ (कालीबंगा से प्राप्त), करधनी, पायजेब, बाली जैसे आभूषण मिले हैं, जिन्हें स्त्री और पुरुष दोनों पहनते थे।
आमोद-प्रमोद
सैंधव सभ्यता के निवासी जीवन में आमोद-प्रमोद को भी महत्त्व देते थे। वे मनोरंजन के विभिन्न साधनों का प्रयोग करते थे, जिनमें मछली पकड़ना, शिकार करना, पशु-पक्षियों को आपस में लड़ाना, चौपड़, पासा खेलना आदि सम्मिलित थे। एक मुहर पर दो जंगली मुर्गों के लड़ने का चित्र अंकित है। काँसे की नर्तकी की मूर्ति एवं मुहरों पर विभिन्न वाद्य-यंत्रों के अंकन से स्पष्ट है कि वे नृत्य व संगीत में रुचि रखते थे। हड़प्पा, मोहनजो-दड़ो से प्राप्त पासों से लगता है कि चौपड़ और शतरंज का खेल भी पर्याप्त लोकप्रिय था। बच्चों के मनोरंजन के लिए मिट्टी के बने असंख्य खिलौना-गाड़ी, सीटी, झुनझुने आदि खुदाइयों में प्राप्त हुए हैं।
शव-विसर्जन
शव-विसर्जन प्रणाली के संबंध में उत्खननों से पता चलता है कि हड़प्पाई लोग अपने मृतकों को भूमि में गाड़ते या जलाते थे। इस सभ्यता में तीन प्रकार से अंत्येष्टि संस्कार किये जाने के प्रमाण मिले हैं- एक तो पूर्ण समाधिकरण, जिसमें संपूर्ण शव को भूमि में दफना दिया जाता था। मृतकों के साथ उनकी प्रिय वस्तुएँ भी गाड़ दी जाती थीं। यही प्रथा प्राचीन मिस्र के पिरामिडों में भी दिखाई देती है। पूर्ण समाधिकरण का सर्वोत्तम उदाहरण हड़प्पा का ‘आर-37’ का कब्रिस्तान है। दूसरे, आंशिक समाधिकरण में शव को किसी खुले स्थान पर रख दिया जाता था और पशु-पक्षियों के खाने के बाद शव के अवशेष भाग को भूमि में गाड़ दिया जाता था। तीसरे, दाह-संस्कार की प्रथा में शव को जलाने के बाद भस्मावशेषों को किसी बर्तन में रखकर नदी में प्रवाहित कर दिया जाता था। कभी-कभी उसकी राख को भूमि में भी गाड़ दिया जाता था। संभवतः कुछ लोग मृतकों का प्रवाह भी करते रहे होंगे।
हड़प्पा दुर्ग के दक्षिण-पश्चिम में स्थित कब्रिस्तान को ‘एच.कब्रिस्तान’ का नाम दिया गया है। लोथल में प्राप्त एक कब्र में शव का सिर पूर्व एवं पश्चिम की ओर करवट लिये हुए लिटाया गया है। यहीं से एक कब्र में दो शव आपस में लिपटे हुए मिले हैं। सुरकोटदा से अंडाकार शवाधान के अवशेष पाए गए हैं। रूपनगर (रोपड़) की एक कब्र में मनुष्य के साथ कुत्ते का भी अवशेष मिला है। मोहनजो-दड़ो के अंतिम स्तर से प्राप्त कुछ सामूहिक नर-कंकालों एवं कुँएं की सीढ़ियों पर पड़े स्त्री के बाल से मार्टीमर ह्वीलर ने अनुमान लगाया है कि ये नरकंकाल किसी बाहरी आक्रमण के शिकार हुए लोगों के हैं।
आर्थिक जीवन
सैंधव सभ्यता के समृद्ध आर्थिक जीवन में कृषि, पशुपालन, विभिन्न प्रकार के उद्योग-धंधों तथा व्यापार-वाणिज्य का प्रमुख योगदान था। कृषकों के अतिरिक्त उत्पादन और व्यापार-वाणिज्य के विकास के कारण ही इस नगरीय सभ्यता का विकास हुआ था।
कृषि
आज की अपेक्षा सिंधु प्रदेश की भूमि पहले बहुत ऊपजाऊ थी। ई.पू. चौथी सदी में सिकंदर के एक इतिहासकार ने कहा था कि सिंधु की गणना इस देश के ऊपजाऊ क्षेत्रों में की जाती थी। पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पतियाँ बहुत अधिक थीं जिसके कारण यहाँ अच्छी वर्षा होती थी। पकी ईंटों की सुरक्षा-प्राचीरों से संकेत मिलता है कि नदियों में बाढ़ प्रतिवर्ष आती थी। सिंधु तथा उसकी सहायक नदियों द्वारा प्रति वर्ष लाई गई उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी इस क्षेत्र की उर्वरता को बहुत बढ़ा देती थी, जो कृषि के लिए महत्त्वपूर्ण थी। यहाँ के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवंबर के महीने में बाढ़वाले मैदानों में बुआई कर देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ तथा जौ की फसल काट लेते थे।
सिंधु नदी घाटी के उपजाऊ मैदानों में मुख्यतः गेहूँ और जौ का उत्पादन किया जाता था। अभी तक नौ फसलों की पहचान की गई है। गेहूँ बहुतायत में उगाया जाता था। जौ की दो और गेहूँ की तीन किस्में उपजाई जाती थीं। गेहूँ के बीज की दो किस्में- स्पेल्टम तथा क्लब व्हीट उत्खनन में प्राप्त हुई हैं। बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है। चावल की खेती केवल गुजरात (लोथल) और संभवतः राजस्थान में की जाती थी। लोथल से धान तथा बाजरे की खेती के अवशेष मिले हैं। इसके अलावा, राई, खजूर, सरसों, तिल एवं कपास की भी खेती होती थी। संभवतः सबसे पहले कपास यहीं पैदा की गई, इसीलिए यूनानी इस प्रदेश को ‘सिंडन’ कहते थे। यही नहीं, सिंधुघाटी के निवासी अनेक प्रकार के फल व सब्जियाँ भी उपजाते थे। हड़प्पाई पुरास्थलों के उत्खनन में पीपल, खजूर, नीम, नींबू, अनार एवं केला आदि के प्रमाण मिले हैं।
इस समय खेती के कार्यों में प्रस्तर एवं काँसे के बने औजार प्रयुक्त होते थे। यहाँ कोई फावड़ा या हल का फाल तो नहीं मिला है, किंतु कालीबंगा की प्राक्-हड़प्पा सभ्यता के स्तर से जुते हुए खेत में जो कूंट (हलरेखा) मिले हैं, उनसे स्पष्ट है कि राजस्थान में इस काल में हलों द्वारा खेतों की जुताई की जाती थी। संभवतः हड़प्पाई लकड़ी के हल का प्रयोग करते थे। बनावली में मिट्टी का बना हुआ हल जैसा एक खिलौना मिला है। सिंचाई के लिए नदियों के जल का प्रयोग किया जाता था। फसलों की कटाई के लिए संभवतः पत्थर या काँसे की हंसिया का प्रयोग होता था। अनाज रखने की टोकरियों के भी साक्ष्य मिले हैं। अतिरिक्त उत्पादन को राज्य द्वारा नियंत्रित भंडार-गृहों (कोठारों या अन्नागारों) में रखा जाता था और अनाज को चूहों से बचाने के लिए मिट्टी की चूहेदानियों का प्रयोग किया जाता था। अनाज कूटने के लिए ओखली तथा मूसल का प्रयोग होता था। लोथल से आटा पीसने की पत्थर की चक्की (जाँता) के दो पाट मिले हैं।
पशुपालन
सैंधव सभ्यता में कृषि के साथ-साथ पशुपालन का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। मृद्भांडों तथा मुहरों पर बने चित्रों एवं अस्थि-अवशेषों से लगता है कि मुख्य पालतू पशुओं में डीलदार एवं बिना डीलवाले बैल, भैंस, गाय, भेड़-बकरी, कुत्ते, गधे, खच्चर और सुअर आदि थे। हड़प्पाई लोग संभवतः बाघ, हाथी तथा गैंडे से भी परिचित थे, किंतु हाथी व घोड़ा पालने के साक्ष्य प्रमाणित नहीं हो सके हैं। एस.आर. राव ने लोथल एवं रंगपुर से गाय एवं घोड़े का पुरातात्त्विक साक्ष्य मिलने का दावा किया है। सुरकोटदा से सैंधवकालीन घोड़े का अस्थिपंजर मिला है। बंदर, खरगोश, हिरन, मुर्गा, मोर, तोता, उल्लू जैसे कुछ पशु-पक्षियों के अवशेष खिलौनों और मूर्तियों के रूप में मिले हैं।
शिल्प एवं उद्योग-धंधे
विभिन्न प्रकार के शिल्प एवं उद्योग-धंधे सिंधु सभ्यता के निवासियों के विकसित नागरिक जीवन के मूलाधार थे। इस समय मुद्रा एवं मूर्ति निर्माण, वस्त्र उद्योग, मृद्भांड निर्माण, मनका उद्योग जैसे अनेक शिल्प और उद्योग पर्याप्त विकसित थे।

मुहरें और मूर्तियाँ
हड़प्पा सभ्यता में मुहरों (मुद्राओं) का विशिष्ट स्थान था। अब तक विभिन्न स्थानों से लगभग 2,000 मुहरें प्राप्त की जा चुकी हैं। इसमें लगभग 1,398 अकेले मोहनजो-दड़ो से मिली हैं। मुहरों का निर्माण अधिकतर सेलखड़ी से हुआ है, परंतु कुछ मुहरें काँचली मिट्टी, गोमेद, चर्ट और मिट्टी की बनी हुई भी प्राप्त हुई हैं। ये मुहरें आयताकार, वर्गाकार, गोल, घनाकार, वृत्ताकार एवं कुछ बेलनाकार भी हैं। मुहरों पर ठप्पे द्वारा विभिन्न चित्र उत्कीर्ण किये जाते थे। अधिकांश मुहरों पर संक्षिप्त लेख, एकशृंगी साँड़, भैंस, बाघ, गैंडा, हिरन, बकरी एवं हाथी के चित्र उकेरे गए हैं। इनमें से सर्वाधिक आकृतियाँ एकशृंगी साँड़ की हैं। लोथल और देसलपुर से ताँबे की मुहरें मिली हैं।
मोहनजो-दड़ो, हड़प्पा, लोथल, कालीबंगा आदि स्थानों से पत्थर, धातु और पकी मिट्टी की स्त्रियों, पुरुषों एवं पशु-पक्षियों की तमाम मूर्तियाँ मिली हैं, जिससे पता चलता है कि इस सभ्यता में बड़े पैमाने पर मूर्तियों का निर्माण भी होता था।

वस्त्र उद्योग
सैंधव क्षेत्र में कपास की खेती बड़े पैमाने पर की जाती थी, जिससे वस्त्र उद्योग को प्रोत्साहन मिला। यहाँ सूती एवं ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्र तैयार किये जाते थे। आलमगीरपुर से प्राप्त मिट्टी की एक नाद पर बुने हुए वस्त्र के निशान मिले हैं। मोहनजो-दड़ो से मजीठा से लाल रंग में रंगे हुए कपड़े के अवशेष चाँदी के बर्तन में पाए गए थे। ताँबे के दो उपकरणों में लिपटा हुआ सूती कपड़ा एवं सूती धागा भी मोहनजो-दड़ो से प्राप्त हुआ था। मोहनजो-दड़ो, लोथल, रंगपुर व कालीबंगा से सूती कपड़े की छाप मिली है। मोहनजो-दड़ो से प्राप्त पुरोहित की प्रस्तर-मूर्ति तिपतिया अलंकरण-युक्त शाल ओढ़े हुए है। इससे लगता है कि इस समय सूती वस्त्र एवं कताई-बुनाई उद्योग विकसित अवस्था में था। कताई-बुनाई में प्रयुक्त होनेवाली तकलियों एवं चरखियों के भी प्रमाण मिले हैं।
धातु उद्योग
यद्यपि सैंधव सभ्यता के लोग पत्थरों के औजारों एवं उपकरणों का प्रयोग करते थे, किंतु वे धातुकर्म से भी भली-भाँति परिचित थे। वे धातु को गलाना, ढालना तथा साँचे के द्वारा निर्माण करना जानते थे। टिन और ताँबा के 1:9 के मिश्रण से काँसा तैयार किया जाता था। उन्हें ताँबा राजस्थान के खेतड़ी की खानों से और टिन अफगानिस्तान से मँगाना पड़ता था क्योंकि इन दोनों में से कोई भी खनिज यहाँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं था। संभवतः कसेरों (काँस्य-शिल्पियों) का समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान था। खुदाई में ताँबे व काँसे के उपकरण अधिक मात्रा में मिले हैं। इनमें काँसे की बनी सुराही, कटोरा, तवा, लंबी एवं छोटी कुल्हाड़ियाँ, आरा, मछली पकड़ने की काँटिया और ताँबे की बनी तलवारें व छुरे प्रमुख हैं।
कसेरों के अतिरिक्त, हड़प्पाई समाज में राजगीरों एवं आभूषण-निर्माताओं का समुदाय भी सक्रिय था। आभूषणों के लिए सोना-चाँदी संभवतः अफगानिस्तान से एवं रत्न दक्षिण भारत से मँगाये जाते थे। लोथल से प्राप्त एक कंठहार, जो अनेक स्वर्ण मनकों से बना है, कारीगरी का अनूठा नमूना है। धातु की बनी कुछ मूर्तियाँ भी मिली हैं, जिनमें मोहनजो-दड़ो से प्राप्त काँसे की नर्तकी की मूर्ति सर्वाधिक प्रसिद्ध है। लोथल से प्राप्त ताँबे का कुत्ता कला की दृष्टि से बेजोड़ है। इसके अलावा, हड़प्पा से मिली ताँबे की इक्कागाड़ी तथा चान्हू-दड़ो से मिली ताँबे की दो गाड़ियों की अनुकृतियाँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। हड़प्पाई लोग सीसा से भी परिचित थे।
मृद्भांड उद्योग
हड़प्पा सभ्यता में कुम्हारी कला भी पर्याप्त विकसित थी। इस सभ्यता के कुम्हार भवनों के लिए ईंट तो बनाते ही थे, मिट्टी के बर्तन, खिलौनों और आभूषणों का भी निर्माण करते थे। इस समय चाक से निर्मित मृद्भांड काफी प्रचलित थे, यद्यपि हस्तनिर्मित मृद्भांड भी पाए गए हैं। हड़प्पाई बर्तनों में घड़े, प्याले, सुराहियाँ और नांद प्रमुख थे जो विधिवत पके हुए हैं और चित्रकारीयुक्त हैं। मिट्टी की बनी कुछ खानेदार थालियाँ और चूहेदानियाँ भी खुदाई में मिली हैं। पशु-पक्षियों की आकृतिवाले मिट्टी के खिलौने, खिलौना-गाड़ियाँ एवं मिट्टी की बनी मूर्तियाँ भी बड़ी संख्या में पाई गई हैं।

मनका उद्योग
काँस्ययुगीन सभ्यता होने के बावजूद हड़प्पाई शिल्पी पत्थर एवं धातु के मनके, मूर्तियाँ, आभूषण आदि बनाते थे। चान्हू-दड़ो तथा लोथल में मनका बनाने का कारखाना प्रकाश में आया है। सेलखड़ी, सीप, हाथीदाँत, घोंघा एवं मिट्टी आदि से बने मनकों का उपयोग खिलौनों और आभूषणों के रूप में होता था। इस सभ्यता के स्थलों से पत्थर के बाट-बटखरे बड़ी संख्या में मिले हैं। चान्हू-दड़ो में सेलखड़ी की मुहर और चर्ट के बाट भी बनाये जाते थे। बालाकोट तथा लोथल में सीप उद्योग विकसित अवस्था में था। हाथीदाँत से भी अनेक उपकरण और प्रसाधन-सामग्री का निर्माण किया जाता था। मोहनजो-दड़ो की मुहर पर नाव के चित्र तथा लोथल से प्राप्त गोदीबाड़ा से लगता है कि यहाँ नाव और जलयान निर्माण भी प्रमुख उद्योग था। इसके अलावा चिकित्सकों, राजगीरों एवं मछुआरों का व्यवसाय भी विकसित अवस्था में था।
उद्योग-धंधों एवं शिल्पकार्यों के लिए कच्चा माल गुजरात, सिंधु, राजस्थान, दक्षिणी भारत, बलूचिस्तान आदि क्षेत्रों से मँगाया जाता था। इसके अतिरिक्त, अफगानिस्तान, सोवियत तुर्कमेनिस्तान तथा मेसोपोटामिया (सुमेर) आदि से भी कच्चा माल आयात किया जाता था। मनके बनाने के लिए गोमेद गुजरात से आता था। फ्लिंट तथा चर्ट के प्रस्तर-खंड पाकिस्तान के सिंधु क्षेत्र में स्थित रोड़ी तथा सुक्कुर की खदानों से आते थे। ताँबा राजस्थान के झुंझुनू जिले में स्थित खेतड़ी (खेत्री) की खानों से मँगाया जाता था। सोना संभवतः कर्नाटक के कोलार की खानों से मिलता था।
व्यापार एवं वाणिज्य
सैंधव सभ्यता की आर्थिक समृद्धि का एक प्रमुख आधार विकसित व्यापार-वाणिज्य था। उनका आंतरिक एवं बाह्य व्यापार पर्याप्त उन्नत था। व्यापारिक गतिविधियों से संबंधित नगर मुख्यतः दो प्रकार के थे- मोहनजो-दड़ो, चान्हू-दड़ो, हड़प्पा, कोटदीजी जैसे नगर उत्पादन से जुड़े हुए थे, जबकि लोथल, सुरकोटदा और बालाकोट जैसे नगर विपणन से संबद्ध थे। हड़प्पाई लोग सिंधु सभ्यता के क्षेत्र के भीतर पत्थर, धातु शल्क आदि का व्यापार करते थे, लेकिन वे जो वस्तुएँ बनाते थे, उसके लिए अपेक्षित कच्चा माल उनके नगरों में उपलब्ध नहीं था। इसलिए उन्हें बाह्य देशों से व्यापारिक संपर्क स्थापित करना पड़ता था। उन्होंने उत्तरी अफगानिस्तान में एक वाणिज्यिक उपनिवेश स्थापित किया जिससे उन्हें व्यापारिक गतिविधियों में सहायता मिलती थी। तैयार माल को खपाने की आवश्यकता ने व्यापारिक संबंधों को प्रगाढ़ बनाया।
इस सभ्यता के लोगों का मेसोपोटामिया, मिस्र, बहरीन, क्रीट आदि देशों से घनिष्ठ व्यापारिक संबंध था। मेसोपोटामिया में प्रवेश के लिए ‘उर’ एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था। मेसोपोटामिया के अभिलेखों में ‘मेलुहा’ के साथ व्यापार के प्रमाण मिले हैं, साथ ही दो मध्यवर्ती व्यापार-केंद्रों- ‘दिल्मुन’ और ‘मकन’ का भी उल्लेख मिलता है। मेलुहा सिंधु क्षेत्र का ही प्राचीन भाग है। यहाँ से उर के व्यापारी सोना, चाँदी, लाल पत्थर, लाजवर्दमणि, हाथीदाँत की वस्तुएँ, खजूर, विविध प्रकार की लकड़ियाँ, खासकर काली लकड़ी (आबनूस), मोर पक्षी आदि प्राप्त करते थे। दिल्मुन की पहचान फारस की खाड़ी के बहरीन द्वीप से और मकन (मगन) की पहचान बलूचिस्तान के मकरान तट से किया गया है। गुजरात के लोथल से फारस की मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिससे लगता है कि लोथल बंदरगाह से समुद्री मार्ग द्वारा विभिन्न देशों के साथ व्यापार होता था। गोरिल्ला और ममी की आकृति से मिलते-जुलते कुछ पुरातात्त्विक प्रमाण एस.आर. राव को प्राप्त हुए हैं, जो मिस्र के साथ व्यापारिक संबंधों के द्योतक माने जा सकते हैं। इसी प्रकार क्रीट से प्राप्त मुद्राओं पर मातृदेवी, सिंह-मानव युद्ध आदि के चित्रांकन से व्यापारिक संबंधों का अनुमान किया जा सकता है।
आयात-निर्यात की वस्तुएँ
सैंधव सभ्यता के लोगों का व्यापारिक संबंध राजस्थान, अफगानिस्तान, ईरान एवं मध्य एशिया के साथ था। लाजवर्द एवं चाँदी अफगानिस्तान से आयात की जाती थी। ईरान से फिरोजा, टिन एवं चाँदी आयात की जाती थी। सोना दक्षिण भारत (मैसूर) से, ताँबा राजस्थान, बलूचिस्तान तथा अरब देश से, टिन अफगानिस्तान, ईरान तथा राजस्थान से, बहुमूल्य पत्थर, जैसे- लाजवर्द, गोमेद, पन्ना, मूंगा इत्यादि अफगानिस्तान, ईरान, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, राजस्थान और कश्मीर से मँगाते थे।
सिंधु से मेसोपोटामिया को निर्यात की जानेवाली वस्तुओं में सूती वस्त्र, इमारती लकड़ी, मसाले, हाथीदाँत, ताँबा, सोना, चाँदी एवं पशु-पक्षी रहे होंगे। उर के उत्खनन में हड़प्पा निर्मित ताँबे का शृंगारदान मिला है। मेसोपोटामिया से हड़प्पाई नगर मनके, धातुएँ, औषधियाँ एवं विलासिता की वस्तुएँ मँगाते थे। अभिलेखीय साक्ष्यों से पता चलता है कि दिल्मुन (बहरीन) से सोना, चाँदी, लाजवर्द, माणिक्य के मनके, हाथीदाँत की कंघी, पशु-पक्षी, आभूषण आदि आयात किया जाता था। सुमेर, उर, किश, लगश, निप्पुर, टेल अस्मर, टेपे, गावरा, उम्मा, असुर आदि मेसोपोटामियाई नगरों से हड़प्पा सभ्यता की लगभग एक दर्जन मुहरें मिली हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मेसोपोटामिया में सैंधव व्यापारियों की कोई बस्ती अवश्य रही होगी।
इस सभ्यता के लोग व्यापार में धातु के सिक्कों का प्रयोग नहीं करते थे, बल्कि उनका व्यापार वस्तु-विनिमय प्रणाली पर ही आधारित था। व्यापारिक वस्तुओं की गाँठों पर शिल्पियों एवं व्यापारियों द्वारा एक ओर अपनी मुहर (मुद्रा) की छाप डाली जाती थी और दूसरी ओर भेजे जानेवाली वस्तु का निशान अंकित किया जाता था। व्यापार मुख्यतः जलीय मार्गों से होता था, किंतु थल मार्ग का भी उपयोग किया जाता था। इस सभ्यता के लोग पहिये से परिचित थे और यातायात के रूप में दो पहियों एवं चार पहियोंवाली बैलगाड़ी अथवा भैंसागाड़ी का उपयोग करते थे। उनकी बैलगाड़ी में प्रयुक्त पहिये ठोस आकार के होते थे। मोहनजो-दड़ो की एक मुहर पर नाव का चित्र तथा लोथल से मिट्टी का नाव जैसा खिलौना मिला है, जिससे लगता है कि इस सभ्यता के लोग आंतरिक एवं बाह्य व्यापार में मस्तूलवाली नावों का उपयोग करते थे।
व्यापार में नाप-तौल के लिए बाट-माप का प्रयोग किया जाता था। मोहनजो-दड़ो, हड़प्पा, लोथल एवं कालीबंगा से बाट जैसी वस्तुएँ बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं। बाट घनाकार, वर्तुलाकार, बेलनाकार, शंक्वाकार एवं ढोलाकार होते थे, जो पहले दुगुने क्रम (द्विचर प्रणाली) में हैं, किंतु बाद में 16 के गुणन में, जैसे-1, 2, 4, 8, 16, 32, 64, 160, 320, 1600 तथा 3200। इस प्रकार मापतौल में 16 या उसके आवर्तकों का प्रयोग होता था। अभी कुछ समय पहले तक भारत में एक रुपया 16 आने का होता था। मोहनजो-दड़ो से सीप तथा लोथल से हाथीदाँत का एक-एक पैमाना भी प्राप्त हुआ है।
बौद्धिक प्रगति
लिपि और लेखन-कला
प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह हड़प्पा सभ्यता के लोग भी लिपि और लेखन-कला से परिचित थे। संभवतः सिंधुवासी भोजपत्रों पर लिखते थे, जो काल के प्रवाह में नष्ट हो गए हैं। हड़प्पाई पुरास्थलों के उत्खनन में असंख्य लिपिबद्ध मुहरें (मुद्राएँ), ताम्रपत्र व मृद्भांड प्राप्त हुए हैं। हड़प्पाई लिपि के मिलनेवाले नमूने बहुत संक्षिप्त हैं और सबसे लंबे लेख में भी मात्र 17 अक्षर ही मिलते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार यह लिपि संस्कृत भाषा पर आधारित है, जबकि कुछ इसे ब्राह्मी पर आधारित बताते हैं। 1934 ई. में हंटर ने बताया कि यह एक विशिष्ट लिपि है जो एलाम और सुमेर की लिपियों से समानता रखती है।
फादर हेरास के अनुसार यह लिपि द्रविड़ भाषा पर आधारित है। रूसी विद्वानों और फिनलैंड की चार सदस्यीय टीम (अस्कोर्पोला, पी. आल्टो, सिमो पार्पोला एवं एस. कोस्कोनेन्नेमी) ने भी इसे द्रविड़ भाषा से संबंधित माना है। अधिकांश विद्वानों के अनुसार यह चित्राक्षर लिपि है जो संभवतः दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी। यह लिपि गोमूत्रिका प्रकार की है जिसमें ऊपरी पंक्ति का नैरंतर्य होता रहता है। इस विधि को ‘बूस्ट्रोफेडन’ पद्धति कहा जाता है। तमाम सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों के बावजूद सैंधव लिपि को अभी तक संतोषजनक और सर्वमान्य ढंग से पढ़ा नहीं जा सका है।
वैज्ञानिक प्रगति
सिंधुवासी यद्यपि सुमेर या मिस्र जैसी वैज्ञानिक प्रगति तो नहीं कर सके थे, किंतु वे रसायन-विद्या, धातु-कर्म, औषधि-निर्माण एवं शल्यक्रिया से परिचित थे। वे टिन और ताँबे को मिलाकर काँसा तैयार करना जानते थे। उन्हें धातु गलाने की कला तथा रंगों के प्रयोग की जानकारी थी। मिट्टी के बर्तनों तथा ईंटों को वे एक निश्चित ताप पर पकाते थे। हड़प्पाई नगरों के नियोजन से स्पष्ट है कि वे ज्यामिति के सिद्धांतों से परिचित थे। संभवतः उन्हें दशमलव प्रणाली का भी ज्ञान था। खगोल और ज्योतिष-विद्या के क्षेत्र में भी उन्होंने कुछ प्रगति की थी। ग्रहों और नक्षत्रों की गतिविधियों के आधार पर वे बाढ़ और वर्षा का अनुमान कर लेते थे जिससे कृषिकार्य में सहायता मिलती थी।
औषधियों का निर्माण
इस सभ्यता के लोग विभिन्न रोगों की पहचानकर उससे छुटकारा पाने के लिए औषधियों का निर्माण करना भी जानते थे। वे शिलाजीत तथा बारहसिंगा के सींग से भस्म तैयार करके औषधि के रूप में प्रयोग करते थे। समुद्र-फेन का भी दवा के रूप में प्रयोग होता था। हड़प्पाई लोग शल्य-क्रिया से भी परिचित थे क्योंकि कालीबंगा और लोथल से मानव-मस्तिष्क की शल्य-चिकित्सा के प्रमाण मिले हैं।
कला-स्थापत्य
सैंधव सभ्यता में कला के विभिन्न रूपों का भी सम्यक् विकास हुआ था। हड़प्पाई कला के विविध पक्षों का विकसित रूप इस सभ्यता के विभिन्न स्थलों से पाए गए नगरों, भवनों के अलावा मूर्तियों, मुहरों, मनकों, मृद्भांडों आदि के निर्माण एवं उन पर उत्कीर्ण चित्रों में परिलक्षित होता है। सौंदर्य और तकनीक की दृष्टि से हड़प्पाई कला का भारतीय कला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
वास्तु कला
सैंधव सभ्यता के नगर नियोजन में वास्तुकला का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है। इस सभ्यता के लोग महान निर्माता थे। उनके स्थापत्य-कौशल का प्रमाण उनकी विकसित नगर योजना से संबंधित नगर-निवेश, सार्वजनिक तथा निजी भवन, सुरक्षा-प्राचीर, सार्वजनिक स्नानागार, सुनियोजित मार्ग व्यवस्था तथा सुंदर नालियों के प्रावधान में परिलक्षित होता है। इस सभ्यता जैसा उच्चकोटि का ‘वास्तु विन्यास’ समकालीन किसी भी अन्य सभ्यता में नहीं मिलता है। हड़प्पा सभ्यता की नगर बस्तियाँ चार विभिन्न इकाइयों में विभक्त थीं, जैसे- केंद्रीय राजधानी, प्रांतीय राजधानियाँ, व्यावसायिक नगर और दुर्गरक्षित बस्तियाँ। नगर निश्चित योजनानुसार बसाये गए हैं जो ‘ग्रिड पद्धति’ पर आधारित हैं। सैंधव नगर दो इकाइयों में स्पष्ट रूप से विभाजित थे- पश्चिमी दिशा में दुर्ग और पूर्व दिशा में मुख्य नगर। ऐसे प्रमाण हड़प्पा, मोहनजो-दड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा आदि स्थलों से मिले हैं। किंतु लोथल तथा सुरकोटदा में पूरी बस्ती एक ही रक्षा-प्राचीर से घिरी थी। गुजरात के धोलावीरा में तीन इकाइयों में विभाजित नगर का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।
दुर्ग क्षेत्र की प्रमुख विशेषता है- सुरक्षा-प्राचीर, जिनका निर्माण इंग्लिश बांड शैली में हुआ है। इन सुरक्षा प्राचीरों का भारतीय नगर योजना के इतिहास में विशेष महत्त्व है क्योंकि इन्हें नगर प्राचीर का प्राचीनतम रूप माना जा सकता है।
सैंधव सभ्यता के नगर नियोजन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष भवन निर्माण कला है। भवनों का निर्माण सुंदर पकी ईंटों की चिनाई करके किया गया है। दीवारों की चिनाई में पहले ईंटों को लंबाई के आधार पर और पुनः चौड़ाई के आधार पर जोड़ा गया है जो इंग्लिश बांड शैली से मिलती-जुलती है। संपन्न लोगों के घरों में शौचालय भी थे। कहीं-कहीं खिड़कियों के भी निशान मिलते हैं।
सैंधव नगरों में सड़कों का जाल-सा बिछा था जो नगरों को आयताकार खंडों में विभाजित करती थीं और एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं। मोहनजो-दड़ो की उत्तर से दक्षिण जाने वाली मुख्य सड़क को ‘राजपथ’ कहा गया है। मुख्य सड़कें लगभग तीस फीट और गलियाँ पाँच से दस फीट तक चौड़ी होती थीं। संभवतः सड़कों की स्वच्छता के लिए सड़कों के किनारे कूड़ा रखने के लिए गड्ढे बने थे अथवा कूड़ेदान रखे रहते थे। मोहनजो-दड़ो में जगह-जगह सड़कों के किनारे चबूतरे पाए गए हैं जो दुकानदारों के उपयोग के लिए थे।
अपवाह प्रणाली की दृष्टि से यह सभ्यता अपने समकालीन सभी सभ्यताओं से श्रेष्ठ थी। सभी नगरों में नालियों का निर्माण सुंदर पकी ईंटों से किया गया है जो नगरीय वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। ईंटों की जड़ाई जिप्सम से की गई है। नालियाँ प्रायः 30 से.मी. तक गहरी और 20-30 से.मी. चौड़ी होती थीं। नालियाँ ढकी हुई होती थीं, जिनमें स्थान-स्थान पर नरमोखे (मैनहोल) होते थे। अनेक नालियाँ एक-दूसरे से जुड़ी होती थीं। हड़प्पा, मोहनजो-दड़ो की कुछ नालियाँ सोख्ता-गड्ढों में गिरती थीं। नालियों में कहीं-कहीं दंतक मेहराब भी पाए गए हैं। प्रत्येक घर की नाली सड़क की मुख्य नाली से मिली रहती थी। वस्तुतः नालियों की ऐसी सुंदर व्यवस्था तत्कालीन विश्व की किसी अन्य सभ्यता में नहीं मिलती है।
इसके अलावा, सार्वजनिक एवं निजी भवन, भवनों में शौचालय एवं स्नानगृह की व्यवस्था, सार्वजनिक स्नानागार (महान स्नानागार), विशाल अन्नागार, कपड़े बदलने के कमरे, पकी ईंटों की सीढ़ियाँ, सभा भवन या सामूहिक बाजार हड़प्पाई स्थापत्य कला के विकसित तकनीक का द्योतक हैं।
मूर्तिकला
हड़प्पाई नगरों के उत्खनन में पत्थर, धातु एवं मिट्टी की असंख्य मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जो कला की दृष्टि से उच्चकोटि की हैं। मोहनजो-दड़ो से प्राप्त लगभग एक दर्जन मूर्तियों में से पाँच गढ़ीवाले टीले के एच.आर. क्षेत्र से मिली हैं, जिनमें अधिकांशतः खंडित और अपेक्षाकृत छोटी हैं। इनमें सबसे विशिष्ट सेलखड़ी निर्मित 19 से.मी. की खंडित पुरुष मूर्ति है जिसका सिर से वक्षस्थल तक का भाग अवशेष है। मूँछविहीन इस मूर्ति में दाढ़ी बनाने के लिए पत्थर से लकीर खींची गई है और बाल पीछे की ओर फीते से बाँधे गए हैं। मस्तक पर गोल अलंकरण है और बायाँ कंधा तिपतिया अलंकरणयुक्त शाल से ढका है। इसकी आँखें अर्धनिमीलित और दृष्टि नासाग्र पर टिकी है। मैके ने इसे पुजारी की मूर्ति बताया है, जबकि मार्शल के अनुसार यह ‘प्रोटो-शिव’ का रूप है।
मोहनजो-दड़ो से ही श्वेत पत्थर का लगभग सात इंच (17.8 से.मी.) का एक दाढ़ी युक्त पुरुष का सिर मिला है जिसकी मूँछें नहीं हैं। बालों का जूड़ा पीछे की ओर बँधा है और आँखों में पच्चीदार पुतली है, किंतु यह पहली मूर्ति जैसी कलात्मक नहीं है। इसी प्रकार सामान्य ढंग से बनाई गई ग्यारह इंच (29.5 से.मी.) की एक अल्बास्टर की मूर्ति का अधोभाग प्राप्त हुआ है जो पारदर्शी वस्त्र पहने हुए है तथा बाएँ कंधे पर उत्तरीय ओढ़े हुए है। इसके पीठ पर गूँथे हुए बालों का जूड़ा है। हड़प्पा से दो खंडित प्रस्तर-मूर्तियाँ मिली हैं जिसमें एक लाल बलुआ पत्थर से बना किसी नवयुवक का धड़ है। दूसरा चूना पत्थर की मूर्ति किसी नृत्य-मुद्रा की आकृति है। इसके अंगों का विन्यास कला के विकास की दृष्टि से रोचक है। मार्शल के अनुसार इस मूर्ति के तीन सिर रहे होंगे और इसे ‘नटराज शिव’ का पूर्वरूप माना जा सकता है, किंतु मूर्ति के क्षीण कटि, गुरु नितंब और अन्य नारी-सुलभ अंगों से लगता है कि यह किसी नवयुवती की मूर्ति है। इस प्रकार स्पष्ट है कि हड़प्पाई शिल्पी उच्चकोटि की स्वाभाविक प्रतिमाओं का निर्माण कर सकते थे।
मोहनजो-दड़ो, हड़प्पा, लोथल, कालीबंगा आदि स्थलों से काँसे और ताँबे की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं। मोहनजो-दड़ो के एच.आर. क्षेत्र से प्राप्त एक नृत्यांगना की काँस्य मूर्ति कलात्मक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। 4.5 इंच (12 से.मी.) लंबी इस निर्वस्त्र मूर्ति के पैरों का निचला भाग टूटा हुआ है, बाईं भुजा चूड़ियों से भरी है और हाथ में एक पात्र है। गले में कंठहार है जिसकी तीन लड़ियाँ नीचे स्तन को स्पर्श कर रही हैं। दाहिनी भुजा कटि पर अवलंबित है जिसमें अपेक्षाकृत कम चूड़ियाँ हैं। इसके बाल घुघराले हैं जिसमें पीछे की ओर जूड़ा बँधा है। आँखें बड़ी, किंतु अर्धनिमीलित हैं। इसकी भाव-भंगिमा और क्षीण-कटि की मुद्रा से लगता है कि यह किसी नृत्यकला में अभ्यस्त नर्तकी की मूर्ति है। जान मार्शल ने इसे आदिवासी युवती के रूपांकन का प्रयास बताया है। स्टुअर्ट पिग्गट ने इसकी तुलना कुल्ली (बलूचिस्तान) से प्राप्त मिट्टी की नारी आकृति से किया है। इस काँस्य मूर्ति की कलात्मक सुगढ़ता समस्त प्राचीन कलात्मक जगत् में अनूठी एवं अतुलनीय है। इसके अलावा मोहनजो-दड़ो से काँसे का भैंसा और भेड़ का मूर्ति, चान्हू-दड़ो से इक्कागाड़ी, कालीबंगा से ताम्र-वृषभ, लोथल से ताम्रनिर्मित पक्षी, बैल, खरगोश तथा कुत्ते की मूर्तियाँ मिली हैं जो कलात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट हैं और हड़प्पाई कलाकारों की तकनीकी ज्ञान के वैशिष्ट्य का प्रमाण हैं।

हड़प्पा सभ्यता की शिल्प-आकृतियों में मानव, पशु-पक्षी एवं खिलौनों की मृण्मूर्तियाँ बड़ी संख्या में मिली हैं जो काँचली मिट्टी व क्वार्ट्ज पत्थर के घिसे मिश्रण से बनाई गई हैं। मानव मृण्मूर्तियाँ ठोस हैं, जबकि अन्य खोखली हैं। कुछ पुरुष आकृतियाँ बैठी हैं, तो कुछ खड़ी हैं। चान्हू-दड़ो और मोहनजो-दड़ो की कुछ मृण्मयी पुरुष आकृतियों के गले में एक धागा-सा अंकित है, जो संभवतः जनेऊ की भाँति धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। मोहनजो-दड़ो के एच.आर. क्षेत्र से प्राप्त पुरुषमूर्ति आभूषणयुक्त है, जिससे ज्ञात होता है कि स्त्रियों की तरह पुरुष भी आभूषणों का प्रयोग करते थे। कालीबंगा से प्राप्त मिट्टी का मानव सिर भी महत्त्वपूर्ण है, जिसका माथा पीछे की ओर ढलुआ, सीधी नुकीली नाक, नीचे का होंठ कुछ मोटा तथा आँखें बादाम के आकार की बनी हैं। इसी प्रकार लोथल से दो पुरुष आकृतियाँ मिली हैं, जिसमें एक की दाढ़ी वर्गाकार कटी है तथा नाक तीखी है। एस.आर. राव के अनुसार यह सुमेरी पाषाण-मूर्तियों से बहुत मिलती-जुलती है।
नारी-मृण्मूर्तियाँ पुरुष मूर्तियों की अपेक्षा अधिक प्रभावोत्पादक हैं। आभूषणों से सुसज्जित नारी-मूर्तियों की आँखों एवं मुँह का निर्माण चीरा पद्धति से किया गया है। स्तनों और कभी-कभी आँखों को बनाने के लिए मिट्टी के गोल टुकड़ों को चिपकाया गया है। अधिकांश नारी मूर्तियों में मस्तक पर पंखे के समान फैला हुआ आभरण, कानों में गोलाकार कुंडल, बाँहों में भुजबंद, गले में कंठा, छाती पर कई लड़ियोंवाला हार, कमर में करधनी आदि प्रदर्शित किये गए हैं।
चान्हू-दड़ो की अधिकांश नारी आकृतियाँ पगड़ी पहनी हैं, जिनके गले में कंठाहार है, हार के दोनों ओर उभरे हुए स्तन हैं। पेट उभरे हुए हैं जो संभवतः गर्भवती होने के संकेत हैं। कामस्थान का त्रिकोण भाग उभारा गया है, किंतु नग्नता नहीं है। कभी-कभी नारी-आकृतियों के कटि-प्रदेश के पास एक बच्चा भी दर्शाया गया है, जिससे उसका मातृत्व सूचित होता है। मृण्मूर्तियाँ अधिकतर निर्वस्त्र हैं, किंतु कुछ के अधोभाग पर लहंगा जैसा वस्त्र है। समस्त नारी-मूर्तियों की शैली में एकरूपता तथा अलंकरण का सादृश्य परिलक्षित होता है। संभवतः इनका निर्माण धार्मिक भावनाओं से प्रेरित होकर किया गया था जो मातृदेवी के रूप में लोकप्रिय था।
मानव-मृण्मूर्तियों की तरह पशु-पक्षियों की आकृतियाँ भी आकर्षक और कलात्मक हैं। मृण्मयी पशु-पक्षियों में बैल (वृषभ), भैंसा, बंदर, भेड़ा, बकरा, कुत्ता, हाथी, गैंडा, भालू, सुअर, खरगोश, गिलहरी, साँप, कौआ, मुर्गा, कबूतर आदि की आकृतियाँ मिली हैं। सर्वाधिक संख्या वृषभ की है। अधिकांश मृण्मूर्तियाँ चिकनी मिट्टी से बनी हैं, जिन पर लाल पालिश का लेप है। कुछ पशु-आकृतियाँ सेलखड़ी, सीप तथा हड्डी से भी बनी हैं। मोहनजो-दड़ो से प्राप्त एक छोटी सींगवाले छोटे वृषभ की आकृति कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। उसका शरीर मांसल तथा भाव-भंगिमा आकर्षक है जो शिल्पकार के कला-चातुर्य का द्योतक है। इसकी तुलना किसी भी काल के उत्तम उदाहरणों से की जा सकती है। हड़प्पा से प्राप्त शंख में बने एक बैल के गले में माला पड़ी है। चान्हू-दड़ो से एक मिट्टी के हाथी की आकृति मिली है, जिसे किसी विशेष अवसर के लिए सजाया गया था। बनावली से प्राप्त हल की आकृति भी महत्त्वपूर्ण है।
चित्रकला
सैंधव सभ्यता की कला का सर्वोत्तम स्वरूप मोहनजो-दड़ो, हड़प्पा तथा चान्हू-दड़ो से प्राप्त मुहरों (ताबीजों) एवं मुद्राओं पर अंकित मिलता है। मुद्राएँ प्रायः सेलखड़ी तथा चीनी मिट्टी से बनी हैं, किंतु लोथल तथा देसलपुर से ताम्र-मुद्राएँ भी पाई गई हैं। मुद्राएँ वर्गाकार, आयताकार, बेलनाकार, चतुर्भुजाकार, बटन जैसी एवं गोलाकार मिली हैं। सेलखड़ी की वर्गाकार मुद्राएँ अधिक लोकप्रिय थीं। इन मुद्राओं पर वृषभ, हाथी, गैंडा, बाघ आदि पशुओं का अंकन एवं मुद्रालेख मिलता है। जिन पर पशु तथा लेख अंकित हैं, वे मुद्रा और ताबीज दोनों का काम करती थीं, किंतु जिन पर केवल पशु अंकित हैं, वे केवल ताबीज के रूप में प्रयुक्त होती थीं। लोथल और कालीबंगा से प्राप्त मुद्राओं पर एक ओर सैंधव लिपियुक्त मुहर की छाप तथा दूसरी ओर भेजे जाने वाली वस्तु का निशान अंकित है। इससे स्पष्ट है कि ये मुद्राएँ ही थीं, जिनके ठप्पे (छापे) सामानों, पार्सलों आदि को बंद करने के लिए प्रयुक्त किये जाते थे।
मुहरों पर अंकित कुछ विशिष्ट दृश्यों के अंकन भी कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। एक मुहर पर तीन सिरोंवाले पशु का अंकन है जिसका एक सिर हिरण का, मुख्य शरीर एकशृंगी पशु का और तीसरा सिर भेड़ का है। इसे ‘संश्लिष्ट पशु’ की संज्ञा दी गई है। योगी तथा पशुपति के रूप में रुद्रशिव कई मुद्राओं पर अंकित हैं। मैके को एक ऐसी मुद्रा मिली है, जिस पर संभवतः भगवान त्रिनयनशिव का अंकन है। इस पर छः अक्षरों का लेख है। इन मुद्राओं तथा ताबीजों का कलात्मक रूपायन अद्वितीय है। कुछ मुद्राओं पर स्वास्तिक का भी अंकन मिलता है।
सैंधव मृद्भांड और उन पर उत्कीर्ण चित्र कला और उपादेयता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। मृद्भांड मुख्यतः लाल तथा गुलाबी रंग के हैं जिनके ऊपर लाल रंग की चमकदार पॉलिश लगाई गई है। विशेष श्रेणी के बर्तनों पर लाल या पीले रंग की पालिश की जाती थी। मृद्भांड प्रायः चाक पर बनाये गए हैं, किंतु हस्तनिर्मित नमूने भी मिले हैं। चान्हू-दड़ो से प्राप्त मृद्भांड पर कूचियों द्वारा रंगे हुए कलात्मक चित्र आकर्षक हैं। मृद्भांडों पर वृषभ, हिरण, बारहसिंगा, मोर, सारस, बत्तख, मछली आदि पशु-पक्षियों की आकृतियों के अलावा त्रिभुज, वृत्त, वर्ग आदि ज्यामितीय अलंकरण भी मिलते हैं। हड़प्पा से प्राप्त कुछ मृद्भांडों पर उड़ते हुए कबूतर आकर्षक हैं जिनके बीच में तारे बने हैं तथा उनके पीठ पर अर्द्धमानव एवं पशु-आकृतियाँ अंकित हैं।
आभूषण
सिंधु सभ्यता के लोग विभिन्न प्रकार के आभूषणों के निर्माण में भी दक्ष थे। आभूषणों का एक बड़ा निधान हड़प्पा से और चार मोहनजो-दड़ो से मिले हैं। हड़प्पा के निधान में भुजबंद तथा सोने और मनके के हारों के लगभग पाँच सौ टुकड़े थे। छः लड़ियों की एक करधनी उत्कृष्ट स्वर्णकारी का नमूना है। मोहनजो-दड़ो से प्राप्त एक हार में सोने के मटर जैसे दानों की छः लड़ियाँ थीं जिसके दोनों सिरों पर अर्द्धचक्र है, जो संभवतः मटरमाला है।
धार्मिक जीवन एवं विश्वास
विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताओं की भाँति सिंधु सभ्यता के लोग भी बहुदेववादी और प्रकृतिपूजक थे। यहाँ मातृदेवी, पशुपति शिव, प्रजनन शक्ति, पशु, जल तथा पीपल, नीम आदि वृक्षों एवं नागादि जीव-जंतुओं की उपासना के प्रचलित होने का संकेत मिलता है।
मातृदेवी की उपासना
हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न स्थलों से प्राप्त होने वाली सुसज्जित नारी मूर्तिकाओं की बहुलता से स्पष्ट है कि इस सभ्यता में मातृदेवी की उपासना का अस्तित्व था। मातृदेवी की मूर्तियाँ क्रीट, एशिया माइनर और मेसोपोटामिया से भी पाई गई हैं, जिससे पता चलता है कि फारस से लेकर यूनान के निकट इजियन सागर तक के सभी देशों में मातृदेवी की उपासना प्रचलित थी। विद्वानों का अनुमान है कि मातृदेवी की उपासना पृथ्वीदेवी अथवा उर्वरता की देवी के रूप में की जाती थी। मोहनजो-दड़ो तथा हड़प्पा में खड़ी हुई अर्धनग्न नारी की मृण्मूर्तियाँ मिली हैं जिनके शरीर पर छोटा-सा लहँगा है, जिसे कटि-प्रदेश पर मेखला से बाँधा गया है। गले में हार है तथा पंखे के आकार की विचित्र शिरोभूषा है। मैके महोदय को कुछ ऐसी मूर्तियाँ मिली हैं जिन पर धुँएं का निशान है। संभवतः देवी को प्रसन्न करने के लिए तेल या धूपादि सुगंधित द्रव्य जलाया जाता था। व्यंकटेश ने मातृदेवी को ‘दीपलक्ष्मी’ बताया है। मुहरों पर अंकित कुछ मृण्मूर्तियों में शिशु को स्तनपान कराते हुए नारी को प्रदर्शित किया गया है जो मातृत्व का सूचक है। बलूचिस्तान से कुछ नारी मृण्मूर्तियाँ रौद्र रूप की भी पाई गई हैं।
सिंधु सभ्यता के लोग पृथ्वी को उर्वरता की देवी मानते थे और इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिस तरह मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस की। हड़प्पा से प्राप्त एक मुहर में सिर के बल खड़ी एक नग्न नारी के गर्भ से एक पौधा निकलता दिखाया गया है और पृष्ठ भाग पर एक तरफ चाकू लिये हुए एक पुरुष का अंकन है। दूसरी तरफ एक स्त्री अपने हाथों को ऊपर उठाये हुए है, जिसकी संभवतः बलि चढ़ाई जाने वाली है। कुछ विद्वानों के अनुसार पृथ्वीदेवी की इस प्रतिमा में मातृशक्ति की उत्पादक शक्ति का प्रतीकात्मक अंकन है जिसका संबंध पौधों के जन्म और वृद्धि से रहा होगा। एक दूसरी मुहर पर पीपल के वृक्ष की दो शाखाओं के बीच एक स्त्री का चित्रण है और उसके सामने एक बकरा बँधा है जिसके पीछे लोग ढोल बजाते हुए नाच रहे हैं। मार्शल के अनुसार उस समय देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि का विधान था। एक अन्य मूर्ति में पालथी मारे बैठी देवी के दोनों ओर पुजारी बैठे हैं तथा इसके सिर पर एक पीपल का वृक्ष है। इसे उर्वरता तथा सृजनशीलता का प्रतीक बताया गया है। इस प्रकार पृथ्वीपूजा से शक्ति की उपासना जुड़ी है और यहीं से शक्तिपूजा का आरंभ माना जाता है। शक्ति पूजा प्राचीन विश्व की प्रायः सभी सभ्यताओं में होती रही है, संभवतः इसीलिए शक्ति को आदिशक्ति माना जाता है। मार्शल के अनुसार माता भगवती की पूजा ने जितना अधिक भारत को प्रभावित किया, उतना किसी अन्य देश को नहीं। संभवतः प्रत्येक परिवार में इनकी प्रतिष्ठा और पूजा होती थी।

पशुपति की पूजा
सिंधु सभ्यता में एक पुरुष देवता की उपासना का भी प्रमाण मिलता है। मोहनजो-दड़ो की एक मुहर में एक त्रिमुखी पुरुष तिपाई पर पद्मासन की मुद्रा में नग्न बैठा है। उसके सिर पर त्रिशूल जैसा सींग और विचित्र शिरोभूषा है, हाथों में चूड़ियाँ और गले में हार है। इसके दाईं ओर चीता और हाथी तथा बाईं ओर गैंडा और भैंसा चित्रित हैं। चौकी के नीचे हिरण है। मार्शल और मैके इसे शिव की मूर्ति मानते हैं। पद्मासन में ध्यानावस्थित मुद्रा में इसकी नासाग्र दृष्टि शिव के योगेश्वर या महायोगी रूप को प्रदर्शित करती है। अनेक इतिहासकार इस पुरुष देवता को जैनों के पहले तीर्थंकर ऋषभनाथ से भी समीकृत करते हैं जिनका चिन्ह बैल था। हिरण तीर्थंकर शांतिनाथ का और बाघ या शेर तीर्थंकर महावीर का चिन्ह है। हाथी भगवान अजितनाथ का चिन्ह है।
कुछ इतिहासकारों ने मोहनजो-दड़ो की प्रसिद्ध शालधारिणी मूर्ति का संबंध योग से जोड़ा है। एक मुहर पर योगमुद्रा में ध्यान की स्थिति में बैठे शिव की आकृति का अंकन है। इसके सामने दो तथा दोनों ओर बगल में बैठी एक-एक सर्प की आकृति बनी है। यहाँ से प्राप्त दो कबंध प्रस्तर-मूर्तियाँ, जो पैरों की भाव-भंगिमा के कारण नृत्य की स्थिति का बोध कराती हैं, नटराज शिव की मानी जाती हैं। एक मुहर पर तीर-धनुष चलाते हुए एक आकृति मिली है जिसे किराती शिव का रूप बताया गया है। तीन अन्य मुहरें भी शिव के विभिन्न रूपों पर प्रकाश डालती हैं। एक में त्रिमुखी देवता चौकी पर योगासन में विराजमान है, हाथों को दोनों ओर फैलाये हुए है जिनमें चूड़ियाँ हैं। सिर पर सींगों के बीच से फूल या पत्ती निकलती हुई दिखाई गई है। दूसरी मुहर पर एकमुखी आकृति भूमि पर बैठी हुई है जो शृंगयुक्त है और जिसके सिर से वनस्पति निकलता प्रदर्शित है। तीसरी मुहर में शृंगयुक्त आकृति के बीच से फल और पत्तियाँ निकल रही हैं, जिसका आधा भाग मानव का है और आधा बाघ का। हड़प्पा से प्राप्त दो अन्य मुहरों पर भी देवता जैसी किसी आकृति का अंकन है जिसके सिर पर तीन पंखों का आभरण है। इस प्रकार सैंधव सभ्यता में मातृदेवी के समान शिव जैसे किसी पुरुष देवता की पूजा का भी विधान था।

विविध प्रकार की शिव मूर्तियों की प्राप्ति से अनुमान किया जाता है कि शिव आर्यों के पूर्व भारत के मूल निवासियों, जंगली कबीलों तथा आर्येतर जातियों के देवता रहे हैं। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि जंगली पशु जैसे- सर्प, साँड़ आदि उनके साथ जुड़े हैं। उत्पादन के देवता के रूप में भी शिव की पूजा होती थी। शिव के साथ साँड़ का साहचर्य उनके तत्कालीन उत्पादक देवता होने का बोधक है। आज भी कृषि में उत्पादन के लिए साँड़ों तथा बैलों का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार शिवपूजा का आरंभ हड़प्पा निवासियों के समय से ही माना जा सकता है। शिव के विविध रूप मानवाकृति, लिंगायत, पशुपति आदि इस समय प्रचलन में आ चुके थे, जो कालांतर में शैव परिवार में अलग-अलग धार्मिक संप्रदायों के रूप में प्रकट हुए।
प्रजनन-शक्ति की पूजा
सिंधुवासी प्रजनन-शक्ति के रूप में लिंग एवं योनि की पूजा भी करते थे, जो उनकी धार्मिक पद्धति में वैज्ञानिकता के समावेशन के प्रमाण हैं। यह लिंग-योनि कोद्वैत विश्व के उद्भव एवं रचनात्मकता का परिचायक है। हड़प्पा, मोहनजो-दड़ो से बड़ी संख्या में पत्थर, चीनी मिट्टी तथा सीप के बने शंकु तथा बेलन के आकार के लिंग मिले हैं। लिंग बड़े तथा छोटे दोनों आकार के पाए गए हैं। बड़े लिंग चूना पत्थर के और छोटे लिंग सीपों के बने हैं। इसी प्रकार पत्थर, काँच की मिट्टी, शंख आदि के बने छोटे और बड़े चक्र या छल्ले (योनि) बड़ी संख्या में मिले हैं। कुछ छोटे लिंगों और छल्लों में मिले छिद्रों से प्रतीत होता है कि सिंधुवासी किसी प्रकार के टोटका के रूप में छोटे-छोटे लिंगों को योनि के साथ ताबीज रूप में गले में धारण करते थे। ऋग्वेद में शिश्नपूजकों की निंदा की गई है। इससे लगता है कि पूर्वकाल के लोग लिंग एवं योनि पूजा करते थे। संभवतः लिंग एवं योनि पूजा का संबंध शिव एवं शक्ति से था।
वृक्ष-पूजा
मुहरों पर उत्कीर्ण विभिन्न प्रकार के वृक्षों की आकृतियों से ज्ञात होता है कि हड़प्पा की सभ्यता में पीपल, नीम जैसे वृक्षों की पूजा की जाती थी। एक ठीकरे पर बनी आकृति में एक सींगवाले पशु के दो सिर बने हैं जिनके ऊपर पीपल की कोमल पत्तियाँ फूटती हुई दिखाई देती हैं। मार्शल के अनुसार संभवतः यह एकशृंगी पशु पीपल देवता का वाहन था। एक दूसरी मुहर पर देवता की नग्न मूर्ति मिली है जिसके दोनों ओर पीपल की दो शाखाएँ चित्रित हैं। एक अन्य मुहर में पीपल के वृक्ष के बीच एक देवता का चित्रण है, जिसकी पूजा सात स्त्रियाँ कर रही हैं। इनमें एक पशु का भी अंकन है, जो बैल और बकरी से मिलता-जुलता है। यह संभवतः पीपल देवता का चित्र है और सात स्त्री मूर्तियाँ सप्तमातृकाओं का प्रतीक हैं। अन्य मुहरों में वृक्ष देवता के सम्मान में बकरी की बलि देने का दृश्य एवं पशुओं तथा सर्पों द्वारा वृक्षों की रक्षा करने का चित्र अंकित है, जो वृक्षपूजा की महत्ता का परिचायक है। ऋग्वेद में अश्वत्थ का उल्लेख पीपल का ही बोधक है। अन्य वृक्षों में नीम, खजूर, बबूल आदि का भी अंकन है। इस प्रकार पौराणिक काल से पीपल, नीम, आँवला आदि वृक्षों की पूजा समाज में की जाती रही है तथा इससे संबंधित अनेक त्योहारों की मान्यता आज भी है।
पशु-पूजा
सैंधव सभ्यता की मुहरों पर अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों के अंकन से प्रतीत होता है कि हड़प्पाई विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों की भी उपासना करते थे। पशुओं में हाथी, बैल, बाघ, भैंसें, गैंडे और घड़ियाल के चित्र अधिक मिले हैं। इनमें से अनेक पशुओं की आज देवताओं के वाहन रूप में पूजा की जाती है, किंतु यह कहना कठिन है कि उस समय इनकी वाहनों के रूप में प्रतिष्ठा थी या स्वतंत्र रूप में। पशु-अंकन की विविधता और अधिकता देखकर लगता है कि पशुओं को देवता का अंश माना जाता था। इसका प्रमाण यह है कि प्रायः प्रत्येक देवता के साथ एक पशु वाहन के रूप में जुड़ा हुआ है। इस सभ्यता में मानव के रूप में निर्मित देवताओं के सिर पर सींग की कल्पना से स्पष्ट है कि सींग शक्ति का प्रतीक माना जाता था।

सिंधु सभ्यता में बैल की पूजा विशेष रूप से होती थी क्योंकि इसके विविध प्रकारों का अंकन यहाँ के मुहरों पर बहुतायत में मिलता है, जैसे- एकशृंगी, कूबड़दार, लंबी लटकी लोरदार आदि। लगता है, शिव के साथ बैल का संबंध इसी सभ्यता से शुरू हुआ था क्योंकि यहाँ इन दोनों की आकृतियाँ एक साथ मुहरों पर बहुलता से अंकित हैं। कुछ पशु ऐसे भी चित्रित हैं, जो काल्पनिक लगते हैं और इनकी रचना विभिन्न पशुओं के अंगों के योग से की गई हैं। एक ठीकरे पर मानव-सिर से युक्त बकरे का अंकन है। एक मुहर पर ऐसा पशु चित्रित है, जिसका सिर गैंडे का, पीठ दूसरे पशु की तथा पूँछ किसी अन्य पशु की है। कुछ पशुओं की खोपड़ी धूपदानी की तरह कटोरानुमा है, जिनके किनारे धुएं के चिन्ह हैं। संभवतः पशु-पूजन में धूप जलाने का भी प्रचलन था।
कुछ विद्वानों के अनुसार सूर्य पूजा तथा स्वास्तिक के चिन्ह भी पाए गए हैं। एक मुद्रा पर एकशृंगी पशु के सामने सूर्य जैसी आकृति बनी हुई है। इस आधार पर कुछ इतिहासकार वैष्णव संप्रदाय का बीजारोपण इसी समय से मानते हैं। लोथल से प्राप्त तीन बर्तन के टुकड़ों पर सर्प की आकृति से लगता है कि साँपों को दूध पिलाने तथा नागपूजा का विचार भी हड़प्पाकालीन है। कुछ मुहरों पर घेरों के भीतर वृक्ष से फन निकाले नाग की आकृति लोक-जीवन की धार्मिक भावना का परिचायक है। वीर पुरुषों की पूजा करने का विचार भी संभवतः हड़प्पा सभ्यता में था। दो बाघों के साथ लड़ते हुए एक पुरुष की सुमेर के प्रसिद्ध वीर गिल्गामेश के साथ तुलना की गई है।
योग हड़प्पा सभ्यता का उज्ज्वल पक्ष है जिसके द्वारा वे अध्यात्म और विज्ञान का तादात्म्य धर्म से स्थापित कर सके थे। योग के विभिन्न आसनों का चित्रण यहाँ से प्राप्त योगी एवं मिट्टी की मूर्तियों से होता है। एक मूर्ति को मार्शल ने ‘कायोत्सर्ग’ आसन की मुद्रा में खड़ा बताया है। योगमुद्रा की विभिन्न मूर्तियों से स्पष्ट है कि योग क्रिया का विकास सिंधु सभ्यता से जुड़ा हुआ है और यह अनादिकाल से चली आ रही है।
इस प्रकार सैंधव सभ्यता से प्राप्त धड़विहीन ध्यानावस्थित संन्यासी की आकृति एक ओर आध्यात्मिक चेतना को उजागर करती है, तो दूसरी ओर देवी के सम्मुख पशुबलि के लिए बँधे बकरे की आकृति कर्मकांड की गहनतम भावना का प्रतीक है। मंत्र-तंत्र में भी इनका विश्वास था। मुहरों पर बने चिन्हों पर कुछ अपठनीय लिपि में लिखा गया है, जो संभवतः मंत्र रहे होंगे। मिट्टी के एक मुहर (ताबीज) पर एक व्यक्ति को ढोल पीटता हुआ तथा दूसरे व्यक्ति को नाचते हुए दिखाया गया है। लगता है कि आज की भाँति उस समय भी नृत्य और संगीत उपासना के अंग थे। मोहनजो-दड़ो की नर्तकी की प्रसिद्ध काँस्य-मूर्ति देवता के सम्मुख नाचनेवाली किसी देवदासी की प्रतिमा लगती है।
इस सभ्यता के किसी भी स्थल से किसी देवालय का साक्ष्य नहीं मिला है। मार्शल का अनुमान है कि इस सभ्यता के मंदिर काष्ठ निर्मित थे, जो नष्ट हो गए। किंतु हड़प्पाई मूर्तिपूजक थे, यह स्पष्ट है। लोथल और कालीबंगा से संदिग्ध यज्ञ-वेदिकाएँ मिली हैं जिनसे अग्निपूजा एवं बलि की प्रथा का अनुमान किया जाता है।
इस प्रकार सैंधव धर्म में देवीपूजा तथा पुरुष देवता की पूजा के साथ-साथ अनेक पशु-पक्षियों, वृक्षों, वनस्पतियों, मांगलिक प्रतीकों आदि की पूजा का विधान था। मार्शल के अनुसार कालांतर में हिंदू धर्म में प्रचलित अनेक कर्मकांड और अंधविश्वास सैंधव धर्म में पाए जाते हैं।
सिंधु सभ्यता का अवसान
सिंधु सभ्यता लगभग 1700 ई.पू. तक चलती रही। किंतु लगता है कि यह सभ्यता अपने अंतिम चरण में पतनोन्मुख हो गई थी। इस समय भवनों में पुरानी ईंटों के प्रयोग की सूचना है। इस विकसित सभ्यता के विनाश के कारणों पर विद्वान एकमत नहीं हैं। इसके पतन के कारणों के संबंध में विद्वानों ने विभिन्न तर्क दिये हैं, जैसे- बर्बर आक्रमण, जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक असंतुलन, बाढ़ तथा भू-तात्विक परिवर्तन, महामारी, आर्थिक दुर्व्यवस्था, प्रशासनिक शिथिलता आदि। सर जान मार्शल के अनुसार प्रशासनिक शिथिलता के कारण ही इस सभ्यता का विनाश हुआ था। डी.डी. कोसांबी का मानना है कि मोहनजो-दड़ो के लोगों की आग लगाकर हत्या की गई थी।
सर जान मार्शल, अर्नेस्ट मैके एवं एस.आर. राव जैसे विद्वान मानते हैं कि हड़प्पा सभ्यता का विनाश नदी की बाढ़ के कारण हुआ। हड़प्पाई नगर नदियों के किनारे पर बसे हुए थे जिनमें प्रतिवर्ष बाढ़ आती रहती थी। हड़प्पा, मोहनजो-दड़ो के उत्खनन से भी पता चलता है कि इन नगरों का कई बार पुनर्निर्माण किया गया था। मार्शल को मोहनजो-दड़ो की खुदाई में विभिन्न स्तरों पर बालू की परतें मिली हैं जो बाढ़ के कारण ही जमा हुई थीं। मैके महोदय को चान्हू-दड़ो के उत्खनन में बाढ़ के साक्ष्य मिले हैं। इनका मानना है कि बाढ़ की विभीषिका से बचने के लिए यहाँ के निवासियों ने ऊँचे स्थानों पर शरण ली होगी। एस.आर. राव को भी लोथल तथा भगतराव में बाढ़ आने के संकेत मिले हैं।
एक संभावना यह भी है कि ऋग्वेद में इंद्र द्वारा वृत्रासुर के वध करने का आशय यह भी हो सकता है कि जिन सुरक्षा-प्राचीरों (वृत्तों) से इस सभ्यता के लोग सुरक्षित थे, उन्हें आर्यों ने अपने कबीले के मुखिया (इंद्र) के नेतृत्व में ध्वस्त कर दिया हो, जिससे बाढ़ के कारण इस विकसित सभ्यता के अनेक समृद्ध बंदरगाह, व्यापारिक नगर और भवन जलप्लावित हो गए और इस सभ्यता का पतन हो गया।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बाढ़ के कारण सिंधु तट पर बसे नगरों का विनाश हुआ होगा, किंतु जो नगर सिंधु या अन्य नदियों के तट पर नहीं थे, उनका विनाश कैसे हुआ होगा? निश्चित रूप से अन्य अनेक नगरों के विनाश के अन्य कारण रहे होंगे। गार्डन चाइल्ड, मार्टीमर व्हीलर, डी.पी. अग्रवाल, स्टुअर्ट पिग्गट के अनुसार सैंधव सभ्यता विदेशी आर्यों के आक्रमण से नष्ट हुई।
व्हीलर महोदय ने ऋग्वेद के ‘हरियूपिया’ को हड़प्पा से समीकृत कर हड़प्पाई दुर्गों को ‘पुर’ और आर्यों के देवता इंद्र को ‘पुरंदर’ मानकर आर्य-आक्रमण के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। पुरंदर का अर्थ है- दुर्गों का विध्वंसक और हड़प्पाई नगरों का यह विनाशक पुरंदर ‘इंद्र’ ही था। आर्यों ने ई.पू. 1500 के आसपास अचानक आक्रमण करके सैंधव नगरों को ध्वस्त कर दिया और बड़े पैमाने पर नागरिकों की हत्या कर दी। किंतु कुछ इतिहासकार मानते हैं कि मोहनजो-दड़ो से प्राप्त नर-कंकाल किसी एक समय के नहीं हैं और इनसे किसी भीषण नर-संहार का संकेत नहीं मिलता है।
आरेल स्टाइन, ए.एन. घोष जैसे विद्वान मानते हैं कि जलवायु में हुए व्यापक परिवर्तन के कारण यह सभ्यता नष्ट हुई। सिंधु, राजस्थान, पंजाब आदि क्षेत्रों में पहले वर्षा अधिक होती थी और यह क्षेत्र घने वनों से युक्त था। किंतु इस सभ्यता के विकसित चरण में बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई से जलवायु में व्यापक परिवर्तन हुआ, जिससे अनाज की पैदावार कम हो गई और अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई। इस जलवायु परिवर्तन के कारण नदियाँ सूख गईं, व्यापार-वाणिज्य अवरुद्ध हो गया, जिससे सैंधव नगरों का पतन हो गया।
एम.आर. साहनी, आर.एल. राइक्स, जॉर्ज एफ. डेल्स एवं एच.टी. लैम्ब्रिक का अनुमान है कि भू-तात्विक परिवर्तन के कारण यह सभ्यता नष्ट हुई। पहले तो जलप्लावन के कारण जमीन दलदल हुई, जिससे यातायात बाधित हुआ और अनाज की पैदावार घट गई। दूसरे, इस प्राकृतिक आपदा के कारण लोगों को अपना घर-बार छोड़कर दूसरे स्थानों पर जाना पड़ा, जिससे इस सभ्यता का पतन हो गया।
लैम्ब्रिक और माधोस्वरूप वत्स जैसे इतिहासकारों का मानना है कि सिंधु तथा अन्य नदियों के मार्ग-परिवर्तन के कारण इस सभ्यता का विनाश हुआ। जी.एफ. डेल्स के अनुसार कालीबंगा का विनाश घग्घर तथा उसकी सहायक नदियों के मार्ग-परिवर्तन के कारण हुआ। नदियों के मार्ग परिवर्तन के कारण पीने के पानी और खेतों की सिंचाई के लिए पानी का अभाव हो गया। यही नहीं, इससे जलीय व्यापार भी बुरी तरह प्रभावित हुआ, जो बाद में इस सभ्यता के पतन का कारण बना।
के.यू.आर. केनेडी ने मोहनजो-दड़ो से प्राप्त नरकंकालों का परीक्षण कर बताया कि सैंधव निवासी मलेरिया, महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं का शिकार हुए। इन बीमारियों से हड़प्पाई लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया जिसके परिणामस्वरूप इस सभ्यता का पतन हो गया।
कुछ विद्वान आर्थिक दुर्व्यवस्था को सिंधु सभ्यता के पतन का कारण मानते हैं। वस्तुतः हड़प्पाई नगरों की समृद्धि का मुख्य आधार पश्चिम एशिया, विशेषकर मेसोपोटामिया की सुमेरियन सभ्यता से व्यापार था। ऐसी सूचना मिलती है कि ई.पू. 1750 के आसपास यह व्यापार अचानक अवरुद्ध हो गया। व्यापारिक गतिविधियों के सहसा बंद हो जाने के कारण हड़प्पा सभ्यता का नगरीय स्वरूप समाप्त हो गया और उसमें ग्रामीण संस्कृति के तत्त्व स्पष्ट होने लगे। संभवतः यही कारण है कि इस सभ्यता के पतनकाल में बड़े-बड़े भवनों का स्थान छोटे-छोटे भवन लेने लगे और इनके निर्माण में पुरानी ईंटों का प्रयोग किया जाने लगा।
रूसी इतिहासकार एम. दिमित्रियेव का दावा है कि इस सभ्यता का विनाश पर्यावरण में अचानक होने वाले किसी भौतिक-रसायनिक विस्फोट ‘अदृश्य गाज’ के द्वारा हुआ। इस विस्फोट से निकली हुई ऊर्जा तथा ताप 15000 डिग्री सेल्सियस के लगभग मानी जाती है, जिससे दूर-दूर तक सब कुछ विनष्ट हो गया। इससे पर्यावरण पूरी तरह विषाक्त हो गया। मोहनजो-दड़ो से प्राप्त नरकंकालों की स्थिति और पिघले पत्थरों के अवशेषों से इस विस्फोट का समर्थन भी होता है।
ऐसा लगता है कि इस सभ्यता के पतन का कोई एक कारण नहीं था, बल्कि विभिन्न कारणों ने इसके पतन में सहयोग किया। मोहनजो-दड़ो में नगर और जल-निकास की व्यवस्था से महामारी की संभावना कम रह जाती है। पुरातात्त्विक उत्खननों से इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिले हैं कि कोई आक्रमण जैसी आकस्मिक घटना अवश्य घटी थी। मोहनजो-दड़ो से लूटपाट और आगजनी के अवशेष पाए गए हैं। केवल एक ही कमरे में 14 मृत व्यक्तियों के अस्थि-पंजर और एक गली में कुछ स्त्रियों और बालकों के अस्थि-अवशेष बाढ़, आक्रमण, आगजनी और महामारी की ओर संकेत करते हैं। यह बात अलग है कि कुछ इतिहासकारों और पुराविदों को आर्य-आक्रमण की बात निराधार लगती है।
निरंतरता तथा उत्तरजीविता
हड़प्पा सभ्यता अपने पतन के बाद विलुप्त हो गई या चलती रही, यह विद्वानों के बीच विवाद का विषय रहा है। बी.बी. लाल, अमलानंद घोष, रामशरण शर्मा जैसे विद्वानों का विचार है कि हड़प्पा सभ्यता और बाद की भारतीय सभ्यता में कोई संबंध नहीं है। इसके विपरीत, अनेक विद्वान भारतीय सभ्यता पर हड़प्पा सभ्यता का गहरा प्रभाव मानते हैं। इन विद्वानों के अनुसार हड़प्पा सभ्यता विलुप्त नहीं हो गई, वरन दूसरे रूपों में चलती रही और इसने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को प्रभावित किया। वस्तुतः हड़प्पा सभ्यता का प्रसार जिस क्षेत्र में हुआ था, वहाँ इस सभ्यता के पतन के पश्चात् नई स्थानीय संस्कृतियों का उदय हुआ, जैसे- सिंधु में झुकर संस्कृति, पंजाब में कब्रिस्तान एच. संस्कृति, दक्षिण-पूर्व राजस्थान, महाराष्ट्र, मालवा, गंगा-यमुना दोआब इत्यादि स्थानों पर ताम्रपाषाणयुगीन संस्कृतियाँ। कब्रिस्तान एच. संस्कृति, झुकर, झंगर (चान्हू-दड़ो) और बनास संस्कृतियों में अनेक नये तत्त्व परिलक्षित होते हैं। मिट्टी के नये प्रकार के बर्तन भी प्रयोग में आने लगे थे, किंतु कुछ स्थानों पर हड़प्पा संस्कृति के तत्त्व बाद की सभ्यताओं में भी मिलते हैं। मैके ने झुकर संस्कृति के दो छेददार पत्थर की मुहरों को सिंधु संस्कृति से प्रभावित माना है। काठियावाड़ तथा कच्छ क्षेत्र में भी सैंधव सभ्यता की निरंतरता का प्रमाण मिलता है। यहाँ के निवासियों ने हड़प्पा संस्कृति के तत्त्वों को नया स्वरूप देकर एक नई संस्कृति की स्थापना की। रंगपुर में जिस प्रकार के चमकीले लाल मृद्भांड प्रयुक्त होते थे, वैसे बर्तन बाद में अहड़ (उदयपुर के निकट राजस्थान), नवदाटोली (मालवा) एवं अन्य स्थानों पर मिलते हैं। इस प्रकार उपलब्ध प्रमाणों से स्पष्ट है कि सीमित मात्रा में ही सही, हड़प्पा संस्कृति के तत्त्व मालवा और ऊपरी दकन के ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों को प्रभावित करते रहे। रंगपुर में पतनोन्मुख हड़प्पा संस्कृति ऐतिहासिक काल के उदय तक चलती रही। इसी प्रकार गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र के गेरुवर्णी मृद्भांड संस्कृति पर हड़प्पा संस्कृति के प्रभाव दिखाई देते हैं, जिसे एस.आर. राव ने निम्न या उत्तर हड़प्पा संस्कृति नाम दिया है। बड़गांव, अंबखेड़ी, अहिच्छत्र, हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, कौशांबी इत्यादि स्थानों पर भी हड़प्पा संस्कृति के प्रभाव दृष्टिगत होते हैं। ताम्रनिष्क संस्कृतियों के साथ भी हड़प्पा संस्कृति का संबंध जोड़ा जा सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि हड़प्पा संस्कृति पूरी तरह विलुप्त नहीं हुई, वरन पतनोन्मुख स्थिति में भी बाद तक चलती रही।
सिंधु सभ्यता का महत्त्व
हड़प्पा सभ्यता तो विनष्ट हो गई, किंतु उसने परवर्ती भारतीय सभ्यता और संस्कृति को स्थायी रूप से प्रभावित किया। परवर्ती भारतीय सभ्यता के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं कलात्मक पक्षों का आदि रूप सैंधव सभ्यता में दिखाई पड़ता है। कुछ इतिहासकारों ने भारतीय सामाजिक जीवन में विद्यमान चातुर्वर्ण व्यवस्था का बीज हड़प्पाई समाज में ढूँढ़ने का प्रयास किया है। सैंधव समाज के विद्वान, योद्धा, व्यापारी तथा शिल्पकार और श्रमिक संभवतः परवर्ती काल के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र का पूर्वरूप हैं।
आर्थिक क्षेत्र में कृषि, पशुपालन, उद्योग-धंधों, व्यापार-वाणिज्य आदि को हड़प्पावासियों ने ही संगठित रूप प्रदान किया। चावल, कपास का उत्पादन एवं बैलगाड़ी का आरंभ इन्हीं लोगों ने किया। सैंधव निवासियों ने ही सबसे पहले बाह्य जगत से संपर्क स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया, जो बाद की शताब्दियों तक विकसित होता रहा। संभवतः भारतीय अहात मुद्राओं पर अंकित प्रतीक और साँचे में ढालकर बनाई गई मुद्राएँ अपने आकार-प्रकार के लिए हड़प्पाई मुद्राओं की ऋणी हैं।
सैंधव सभ्यता का सर्वाधिक प्रभाव भारतीय धर्मों एवं धार्मिक विश्वासों पर परिलक्षित होता है। मार्शल के अनुसार भारतीय हिंदू धर्म का प्रमुख रूप सैंधव धर्म में प्राप्त होता है। प्राकृतिक शक्तियों की पूजा, बाद में भी भारतीय धर्म का अभिन्न अंग बनी रही। पशुओं को पूज्य मानने की परंपरा, शक्ति के विभिन्न रूपों की पूजा, शिव की आराधना, सूर्य एवं स्वास्तिक की पूजा, जादू-मंत्र, यज्ञबलि में विश्वास बाद के भारतीय धर्म में भी देखे जा सकते हैं। सिंधु सभ्यता में प्रकृति देवी के रूप में मातृदेवी की उपासना का प्रमुख स्थान था, जिसका विकसित रूप शाक्त धर्म में दिखाई देता है। सिंधु सभ्यता में जिस प्रधान पुरुष देवता की उपासना का प्रमाण मिलता है, उसे पशुपति शिव का आदि रूप बताया गया है। सैंधव मुद्राओं पर योगासन में बैठे योगी की मूर्ति का प्रभाव बुद्ध की मूर्तियों में दिखाई देता है। हड़प्पा सभ्यता की लिंग पूजा को कालांतर में शिव से संबद्ध कर दिया गया। कायोत्सर्ग योगासनवाली मूर्ति से लगता है कि योग की क्रिया, जो जैनियों में प्रचलित थी, यहीं से प्रारंभ हुई है। सिंधु घाटी की मूर्तियों में वृषभ की आकृतियाँ विशेष रूप से मिलती हैं, जिसे शिव के वाहन नंदी के रूप में मान्यता दे दी गई। जैन धर्म के प्रवर्तक आदिनाथ या वृषभनाथ का चिन्ह भी बैल है। सिंधु घाटी से प्राप्त बैल की आकृति से स्पष्ट है कि उस समय जैनधर्म का बीजारोपण हो चुका था। इस प्रकार विभिन्न भारतीय धर्मों का आदिरूप हड़प्पा सभ्यता में मिलने का दावा किया जाता है।
हड़प्पा सभ्यता में वृक्षों की पूजा का विधान था। विभिन्न मुहरों पर अंकित पीपल के वृक्ष, टहनी, पत्तियाँ आदि से स्पष्ट है कि पीपल को पवित्र माना जाता था। हिंदू तथा बौद्ध दोनों ही पीपल को पवित्र मानते हैं। इसी वृक्ष के नीचे गौतम को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। भरहुत, साँची के स्तूपों पर भी इस वृक्ष का अंकन मिलता है। हिंदू धर्म में तो पीपल को तैंतीस कोटि देवी-देवताओं का निवास-स्थान बताया जाता है।
हिंदू समाज में प्रचलित नागपूजा (बसंत-पंचमी के दिन) की परंपरा भी सैंधव सभ्यता की ही देन है। हड़प्पा सभ्यता में जल को भी पवित्र माना जाता था और धार्मिक समारोहों के अवसर पर सामूहिक स्नान का महत्त्व था। यह भावना आज भी हिंदू धर्म में विद्यमान है। पूजा के लिए धूप-दीप का प्रयोग हड़प्पा सभ्यता की ही देन माना जा सकता है। संभवतः हड़प्पाई स्वास्तिक, स्तंभ आदि प्रतीकों की पूजा करते थे और हिंदू धर्म में स्वास्तिक को मांगलिक चिन्ह माना जाता है। सैंधव सभ्यता के लोग मूर्तिपूजा करते थे और इसके लिए देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों की मूर्तियों का निर्माण करते थे। कालांतर में पौराणिक हिंदू धर्म में मूर्ति उपासना का प्रमुख आधार बन गई।
भारतीय कला के विभिन्न तत्त्वों का मूलरूप भी सैंधव कला में परिलक्षित होता है। भारतीयों को दुर्ग निर्माण और प्राचीर निर्माण की प्रेरणा हड़प्पाई कलाकारों ने ही दिया। संभवतः राजगृह की साइक्लोपियन दीवार तथा अन्य प्राचीन नगरों की प्राचीरों के निर्माण में हड़प्पाई नगर योजना और प्राचीरों का अनुसरण किया गया था। मोहनजो-दड़ो से प्राप्त स्तंभयुक्त भवन मौर्य कलाकारों के लिए प्रेरणास्रोत बने। मूर्तिकला का प्रारंभ सर्वप्रथम सिंधु सभ्यता में ही हुआ, जिसका प्रभाव परवर्ती भारत की मूर्तिकला पर पड़ा। संभवतः अशोक के लौरिया-नंदनगढ़ स्तंभ का नटवर बैल सिंधु सभ्यता के वृषभ का अनुकरण करके ही बनाया गया है। इस प्रकार ऐतिहासिक काल की मूर्तिकला सैंधव मूर्तिकला से प्रभावित है।
यद्यपि सिंधु सभ्यता का नगरीय स्वरूप स्थायी प्रभाव नहीं डाल सका, क्योंकि बाद की अनेक शताब्दियों तक भारत में नगरों का विकास नहीं हो सका, किंतु खान-पान, रहन-सहन, वस्त्र-आभूषण आदि की परंपरा न्यूनाधिक परिवर्तनों के साथ बाद के काल में भी चलती रही। मिट्टी के बर्तन, धातु का काम, लेखन-कला, मूर्तिकला, चित्रकारी और नृत्य-संगीत की कला बाद में भी भारत में विकसित होती रही। इस प्रकार भारतीय सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों पर हड़प्पा सभ्यता का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।










