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वल्लभी के मैत्रक
गुप्त राजवंश के अवनति काल में उत्तर भारतीय राजनीति में रिक्तता के साथ-साथ अस्थिरता एवं अराजकता का वातावरण भी उत्पन्न हुआ। हूण विभिन्ननेता तोरमाण तथा मिहिरकुल के आक्रमणों और मालवा के यशोधर्मन् के उदय ने गुप्त साम्राज्य पर तीव्र आघात किया। फलतः उत्तर भारत में एक बार पुनः विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियाँ सक्रिय हो उठीं और गुप्त साम्राज्य के अवशेषों पर विभिन्न क्षेत्रीय शक्तियों का उत्कर्ष हुआ।
प्रतिभाशाली गुप्त सम्राटों के अधीन उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शासन करनेवाले अनेक स्थानीय राजवंश इस रिक्तता को भरने के लिए अपनी शक्ति के संवर्धन में लग गये, जिससे देश कई छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त हो गया। कुछ सामंत राजवंश मगध और उसके पार्श्ववर्ती क्षेत्रों पर अधिकार स्थापितकर साम्राज्यवादी शक्ति बनने का स्वप्न देखने लगे।
इस प्रकार गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद लगभग आधी शताब्दी तक उत्तरी भारत का इतिहास विघटन और छोटे-छोटे राज्यों के परस्पर संघर्ष का इतिहास है। गुप्तोत्तरकालीन भारत की राजनीति में सक्रिय शक्तियों का में वल्लभी के मैत्रक भी एक थे।
सम्राट गुप्त वंश के अवसान काल में जब पूर्वोत्तर भारत में नवीन राजनीतिक शक्तियों का उदय हो रहा था, पश्चिम में सौराष्ट्र में भी नई शक्तियाँ अंगड़ाई ले रही थीं। सौराष्ट्र क्षेत्र पहले गुप्तों के अधीन था, किंतु स्कंदगुप्त के बाद यह स्वतंत्र हो गया।
मैत्रक वंश की स्थापना मैत्रक सरदार भट्टारक ने लगभग 475 ई. में की थी। भट्टारक ने बुधगुप्त के शासनकाल में भट्टारक ने अपनी राजधानी वल्लभी में स्थापित की और स्वतंत्र हो गया, किंतु भट्टारक और उसके पुत्र धरसेन प्रथम को सेनापति ही कहा गया है।
इतिहासकार अनुमान करते हैं कि आरंभिक मैत्रक शासकों ने गुप्तों से पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की थी। वे संभवतः सेनापति के पद पर रहते हुए स्वतंत्र शासक के समान आचरण करते थे, यद्यपि वे गुप्तों को ही अपना अधीश्वर मानते थे। धरसेन के उत्तराधिकारियों को ‘महाराज’ अथवा ‘महासामंत महाराज’ कहा गया है।
मैत्रक वंश का तीसरा नरेश द्रोणसिंह था, जिसे अपने सार्वभौम शासक से ‘महाराज’ की उपाधि प्राप्त हुई थी। नरसिंहगुप्त बालादित्य ने परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उसकी स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान कर दी थी। द्रोणसिंह के बाद उसका छोटा भाई ध्रुवसेन प्रथम महाराज बना। इन दोनों ने भूमिदान दिया था। ध्रुवसेन अपने को ‘परमभट्टारकपादानुध्यात्’ कहता है, जिससे लगता है कि उसके समय तक वल्लभी के मैत्रक गुप्तों की अधीनता स्वीकार करते थे।
मैत्रकों का पहला तिथियुक्त लेख गुप्त संवत् 206 अर्थात् 526 ई. का है जिसमें ध्रुवसेन प्रथम को महाराज, महाप्रतिहार, महादंडनायक तथा महाकार्तिक जैसी उपाधियों से विभूषित किया गया है। ध्रुवसेन प्रथम के सोलह दानपत्र प्राप्त हुए हैं। संभवतः गुप्त शासक भानुगुप्त की मृत्यु के पश्चात् मैत्रकों ने अपनी पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इस प्रकार ध्रुवसेन प्रथम ने मैत्रकों की शक्ति का और अधिक विस्तार किया।
ध्रुवसेन के बाद मैत्रक वंश के महाराज धरनपट्ट एवं गुहासेन राजा हुए। गुहासेन के दानपत्रों में ‘परमभटटारकपादानुध्यात्’ का प्रयोग नहीं हुआ है। इससे लगता है कि मैत्रक वंश 550 ई. के आसपास गुप्त सम्राटों की अधीनता से मुक्त हो गया था। इसी समय गुप्तों का पतन भी हुआ।
हूणों के पराभव एवं यशोधर्मन् के अंत के बाद मैत्रकों को अपनी शक्ति के विस्तार का अवसर मिल गया। छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मैत्रकों की एक शाखा ने पश्चिमी मालवा पर भी अपना अधिकार कर लिया। गुहासेन के बाद उसका पुत्र धरसेन द्वितीय तथा फिर धरसेन का पुत्र विक्रमादित्य प्रथम धर्मादित्य (606-612 ई.) मैत्रक वंश के शासक हुए।
चीनी यात्री ह्वेनसांग मो-ला-पा के राजा विक्रमादित्य का उल्लेख करता है, जो बौद्ध था। ह्वेनसांग शीलादित्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि वह योग्य एवं उदार शासक था। उसने एक बौद्ध मंदिर का निर्माण करवाया था, वह प्रतिवर्ष विशाल धार्मिक समारोह आयोजित करता था। इस शीलादित्य का समीकरण मैत्रकवंशी विक्रमादित्य प्रथम धर्मादित्य से किया जा सकता है।
लगता है कि इस समय मैत्रकों का राज्य संपूर्ण गुजरात, कच्छ तथा पश्चिमी मालवा तक विस्तृत हो गया था। वल्लभी पश्चिमी भारत का एक शक्तिशाली राज्य था। शीलादित्य प्रथम के बाद खरग्रह तथा फिर धरसेन तृतीय शासक हुए। उन्होंने लगभग 629 ई. तक शासन किया।
ध्रुवसेन द्वितीय ‘बालादित्य’
मैत्रकों का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक ध्रुवसेन द्वितीय था। ध्रुवसेन द्वितीय के अभिलेख 629 से 640 ई. के मध्य के पाये गये हैं। ध्रुवसेन द्वितीय हर्षवर्धन का समकालीन था क्योंकि प्रयाग सम्मेलन में उसकी उपस्थिति का उल्लेख ह्वेनसांग ने किया है। ह्वेनसांग के अनुसार ‘ ध्रुवसेन द्वितीय उतावले स्वभाव तथा संकुचित विचार का व्यक्ति था, किंतु वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था।’
हर्षवर्धन ने ध्रुवसेन द्वितीय के साथ अपनी पुत्री का विवाहकर वर्धनों एवं मैत्रकों की मैत्री को सुदृढ़ किया। ध्रुवसेन द्वितीय का नाम ध्रुवभट्ट भी मिलता है। ध्रुवसेन द्वितीय के समय में ही समय ह्वेनसांग ने वल्लभी की यात्रा की थी और वल्लभी को बौद्ध धर्म एवं शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र बताया है।
ध्रुवसेन के पश्चात् उसका पुत्र धरसेन चतुर्थ (645-650 ई.) मैत्रक वंश का शासक हुआ। धरसेन चतुर्थ एक शक्तिशाली नरेश था। मैत्रक वंश का धरसेन चतुर्थ पहला शासक था जिसने परमभटटारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर, चक्रवर्तिन् जैसी सार्वभौम उपाधियाँ धारण की। धरसेन चतुर्थ ने गुर्जरों से संघर्ष किया और संभवतः भड़ौच पर अधिकार भी कर लिया। इस प्रकार धरसेन चतुर्थ ने मैत्रकों की गिरती साख को पुनस्र्थापित करने का प्रयत्न किया।
धरसेन चतुर्थ के पश्चात् मैत्रकों की शक्ति कमजोर पड़ने लगी। मैत्रक वंश का अंतिम ज्ञात शासक शीलादित्य सप्तम है, जो 766 ई. में शासन कर रहा था। आठवीं शती के अंत तक वल्लभी का मैत्रक वंश स्वतंत्र रूप से शासन करता रहा। चालुक्यों, गुर्जर प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों के उदय तथा सबसे बढ़कर अरबों के आक्रमण ने मैत्रकों की शक्ति को समाप्त कर दिया। कालांतर में अरबों ने वल्लभी पर अधिकार कर लिया।
मैत्रक वंश के शासक बौद्ध धर्मानुयायी थे। उन्होंने बौद्ध मठों व बिहारों को दान दिया। मैत्रकों के शासनकाल में वल्लभी शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। यहाँ एक विश्वविद्यालय था, जिसकी पश्चिमी भारत में वही ख्याति थी जो पूर्वी भारत में नालंदा विश्वविद्यालय की थी। चीनी यात्री इत्सिंग ने इस शिक्षा-केंद्र की बड़ी प्रशंसा की है। इत्सिंग के अनुसार यहाँ एक सौ विहार थे, जिनमें छः हजार भिक्षु रहते थे। देश के विभिन्न भागों से विद्यार्थी यहाँ शिक्षा ग्रहण करने आते थे। यहाँ न्याय, विधि, अर्थशास्त्र, साहित्य, धर्म आदि की शिक्षा दी जाती थी। सातवीं शताब्दी में यहाँ के प्रमुख आचार्य गुणमति और स्थिरमति थे। यहाँ के विद्यार्थी ऊँचे-ऊँचे पदों पर नियुक्त किये जाते थे। शिक्षा का प्रमुख केंद्र होने के साथ ही साथ वल्लभी व्यापार-वाणिज्य का भी प्रमुख केंद्र था।
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