वल्लभी के मैत्रक (Vallabhi’s Maitrak)

गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक रिक्तता, अस्थिरता और अराजकता का […]

वल्लभी के मैत्रक (Vallabhi's Maitrak)

गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में राजनीतिक रिक्तता, अस्थिरता और अराजकता का वातावरण बन गया। हूण नेताओं तोरमाण और मिहिरकुल के आक्रमणों तथा मालवा में यशोधर्मन के उदय ने गुप्त साम्राज्य को गहरी चोट पहुँचाई, जिसके परिणामस्वरूप उत्तर भारत में विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियाँ तेज हो गईं और गुप्त साम्राज्य के अवशेषों पर विभिन्न क्षेत्रीय शक्तियों का उदय हुआ। कई स्थानीय राजवंशों ने इस रिक्तता को भरने के लिए अपनी शक्ति बढ़ाई, जिससे देश छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया। कुछ सामंत राजवंशों ने मगध और आसपास के क्षेत्रों पर कब्जा कर साम्राज्यवादी शक्ति बनने का प्रयास किया। इस प्रकार गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद लगभग आधी शताब्दी तक उत्तर भारत का इतिहास विघटन और छोटे राज्यों के आपसी संघर्षों का रहा। इस गुप्तोत्तर काल में वल्लभी के मैत्रकों का एक प्रमुख शक्ति के रूप में उदय हुआ।

मैत्रक वंश की स्थापना

मैत्रक वंश की नींव भट्टारक ने लगभग 475 ई. में सौराष्ट्र में रखी, जिन्होंने अपनी राजधानी वल्लभी में स्थापित की। भट्टारक और उनके पुत्र धरसेन प्रथम को गुप्तों के अधीन सेनापति कहा गया है। ये संभवतः गुप्तों को अधीष्वर मानते हुए स्वतंत्र शासकों जैसा व्यवहार करते थे।

धरसेन के उत्तराधिकारी द्रोणसिंह को नरसिंहगुप्त बालादित्य ने ‘महाराज’ की उपाधि दी, जिससे उनकी स्वतंत्रता को मान्यता मिली। द्रोणसिंह के बाद ध्रुवसेन प्रथम ने शासन किया। उनके समय गुप्त संवत् 206 (526 ई.) का एक लेख मिलता है, जिसमें उन्हें महाराज, महाप्रतिहार, महादंडनायक और महाकार्तिक जैसी उपाधियाँ दी गई हैं। ध्रुवसेन प्रथम के 16 दानपत्र प्राप्त हुए हैं। संभवतः गुप्त शासक भानुगुप्त की मृत्यु के बाद मैत्रकों ने पूर्ण स्वतंत्रता हासिल की।

मैत्रक वंश का विस्तार

ध्रुवसेन प्रथम के बाद धरपट्ट, गुहासेन, धरसेन द्वितीय और शीलादित्य प्रथम धर्मादित्य (606-612 ई.) शासक हुए। गुहासेन के दानपत्रों में गुप्तों की अधीनता का उल्लेख नहीं मिलता है, जिससे प्रतीत होता है कि 550 ई. के आसपास मैत्रक गुप्तों से पूरी तरह स्वतंत्र हो गए थे। हूणों और यशोधर्मन के पतन के बाद मैत्रकों को अपनी शक्ति विस्तार का अवसर मिल गया। छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में उनकी एक शाखा ने पश्चिमी मालवा पर भी कब्जा कर लिया।

शीलादित्य प्रथम धर्मादित्य के शासनकाल में वल्लभी एक शक्तिशाली राज्य बन गया, जो गुजरात, कच्छ और पश्चिमी मालवा तक विस्तृत था। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने शीलादित्य की प्रशंसा की है, जो बौद्ध धर्म का अनुयायी था। उसने एक बौद्ध मंदिर बनवाया और प्रतिवर्ष विशाल धार्मिक समारोह आयोजित किए।

ध्रुवसेन द्वितीय ‘बालादित्य’

मैत्रकों का सबसे शक्तिशाली शासक ध्रुवसेन द्वितीय (629-640 ई.) था, जो हर्षवर्धन का समकालीन था। उनके अभिलेख 629 से 640 ई. के बीच के हैं। ह्वेनसांग ने प्रयाग सम्मेलन में उनकी उपस्थिति का उल्लेख किया है और उन्हें बौद्ध धर्म का अनुयायी बताया है, यद्यपि उसे उतावले स्वभाव और संकुचित विचार वाला भी बताया है। हर्षवर्धन ने अपनी पुत्री का विवाह ध्रुवसेन से कर वर्धनों और मैत्रकों की मैत्री को सुदृढ़ किया। ध्रुवसेन द्वितीय, जिसे ध्रुवभट्ट भी कहा गया है, के शासनकाल में वल्लभी बौद्ध धर्म और शिक्षा का प्रमुख केंद्र बन गया।

धरसेन चतुर्थ और पतन

ध्रुवसेन द्वितीय के बाद धरसेन चतुर्थ (645-650 ई.) शासक बना। उसने परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेष्वर और चक्रवर्ती जैसी सार्वभौम उपाधियाँ धारण कीं। उसने गुर्जरों से संघर्ष किया और संभवतः भड़ौच पर कब्जा किया, जिससे मैत्रकों की साख को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। इसके बाद मैत्रकों की शक्ति कमजोर पड़ने लगी। अंतिम ज्ञात शासक शीलादित्य सप्तम (766 ई.) था। आठवीं शताब्दी के अंत तक चालुक्य, गुर्जर-प्रतिहार, राष्ट्रकूट और विशेष रूप से अरब आक्रमणों ने मैत्रकों की शक्ति को समाप्त कर दिया। अंततः अरबों ने वल्लभी पर कब्जा कर लिया।

सांस्कृतिक योगदान

मैत्रक शासक बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और उन्होंने बौद्ध मठों व विहारों को दान दिया। वल्लभी शिक्षा का प्रमुख केंद्र था, जहाँ एक विष्वविद्यालय था, जिसकी ख्याति नालंदा के समान थी। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार यहाँ 100 विहार थे, जिनमें 6,000 भिक्षु रहते थे। यहाँ न्याय, विधि, अर्थशास्त्र, साहित्य और धर्म की शिक्षा दी जाती थी। गुणमति और स्थिरमति जैसे आचार्य यहाँ के प्रमुख विद्वान थे। वल्लभी व्यापार-वाणिज्य का भी महत्त्वपूर्ण केंद्र था।

मैत्रक वंश ने गुप्तोत्तर काल में सौराष्ट्र और गुजरात में एक शक्तिशाली राज्य स्थापित किया। उनकी स्वतंत्रता, शक्ति विस्तार और सांस्कृतिक योगदान ने वल्लभी को पश्चिमी भारत का महत्त्वपूर्ण केंद्र बना दिया। लेकिन अरब आक्रमणों ने उनकी सत्ता को समाप्त कर दिया।

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