मुहम्मद गोरी के आक्रमण (Muhammad Ghori’s Invasions)

गोर प्रदेश की स्थिति गोर का भौगोलिक और सांस्कृतिक परिदृश्य गोर, गज़नवी साम्राज्य और हेरात […]

मुहम्मद गोरी के आक्रमण (Muhammad Ghori's Invasions)

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गोर प्रदेश की स्थिति

गोर का भौगोलिक और सांस्कृतिक परिदृश्य

गोर, गज़नवी साम्राज्य और हेरात के सल्जूक साम्राज्य के मध्य एक दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में स्थित एक छोटा-सा पहाड़ी क्षेत्र था। यह क्षेत्र इतना दूरस्थ और अलग-थलग था कि बारहवीं सदी के अंत तक, छोटे-छोटे मुस्लिम राज्यों से घिरे होने के बावजूद, यहाँ गैर-इस्लामी परंपराएँ, विशेष रूप से महायान बौद्ध धर्म का एक रूप, जीवित रहा। हरी रूद (हरी नदी) के किनारे एक पहाड़ी चट्टान में तराशा गया बौद्ध मठ इसका प्रमाण है।

गज़नवियों का आधिपत्य और इस्लामीकरण

ग्यारहवीं सदी की शुरुआत में महमूद गज़नवी ने 1010 ई. में गोर पर आक्रमण कर इसे अपने अधीन कर लिया और वहाँ के निवासियों को इस्लाम धर्म में दीक्षित किया। महमूद ने इस्लाम के सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए मुस्लिम उपदेशकों को नियुक्त किया, जिससे गोर का इस्लामीकरण शुरू हुआ।

महमूद गज़नवी का साम्राज्य मुख्यतः सैन्य शक्ति पर आधारित था। उनकी मृत्यु (1030 ई.) के बाद उनके उत्तराधिकारियों के आंतरिक झगड़ों और गृहयुद्धों के कारण गज़नवी साम्राज्य कमज़ोर पड़ने लगा। इस दौरान, साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में रहने वाली जातियाँ, जैसे सल्जूक तुर्क, गुज़ तुर्क, गोर के सूरी और अफ़ग़ान कबीले, स्वतंत्र होने और अपने-अपने साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास करने लगे। इस प्रक्रिया में ख्वारिज़्म और गोर के नए साम्राज्यों का उदय हुआ। गजनी लगभग दस वर्षों तक गुज़ तुर्कमानों के कब्जे में रही, लेकिन बाद में गोर के शासकों ने इसे अपने नियंत्रण में ले लिया। गज़नवी शासक बहरामशाह का पुत्र और कमज़ोर उत्तराधिकारी खुसरवशाह गुज़ तुर्कमानों द्वारा गजनी से खदेड़ दिया गया और वह पंजाब भाग गया, जो उस समय उसके पूर्वजों के विशाल साम्राज्य का एकमात्र अवशेष था।

गोर का उत्थान और शंसबानी राजवंश

गोर का उत्थान बारहवीं सदी के मध्य में हुआ। गोर के शासकों का एक पूर्वज शंसब था, जिसके कारण इतिहासकार मिनहाज-उस-सिराज ने उन्हें ‘शंसबानी’ नाम दिया। शंसबानी सरदारों के प्रारंभिक इतिहास के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। उनके नाम के अंत में ‘सूरी’ शब्द होने के कारण कुछ लोग इन्हें भूलवश अफ़ग़ान मानते थे, जबकि शंसबानी वास्तव में गोर के पूर्वी फ़ारसी वंश के थे और मूल रूप से गज़नवी साम्राज्य के जागीरदार थे।

शंसबानी शुरू में एक पहाड़ी किले के साधारण सरदार थे, जिन्होंने बारहवीं सदी के मध्य में गज़नवी शासक बहरामशाह के शासनकाल में ख्याति प्राप्त की। गोर के शाह मलिक कुतुबुद्दीन हसन ने बहरामशाह के यहाँ शरण ली थी और उनकी एक पुत्री से विवाह किया था। लेकिन शंसबानियों की बढ़ती शक्ति से भयभीत होकर बहरामशाह ने विश्वासघात कर कुतुबुद्दीन की हत्या करवा दी। इसके प्रतिशोध में कुतुबुद्दीन के भाई सैफुद्दीन सूरी ने 1148 ई. में गजनी पर आक्रमण कर बहरामशाह को ‘कुर्रम’ भगा दिया। लेकिन बहरामशाह जल्द ही लौट आया और शत्रु सेना की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर ‘संग-ए-सुरख’ के युद्ध में सैफुद्दीन को बंदी बना लिया। सैफुद्दीन का सिर काटकर सल्जूक शासक संजर के पास भेज दिया गया।

सैफुद्दीन के छोटे भाई अलाउद्दीन हुसैनशाह ने प्रतिशोध में गजनी पर आक्रमण कर बहरामशाह को पराजित किया। अलाउद्दीन ने सात दिनों तक गजनी में भयानक लूटपाट की और नगर को जलाकर कई उत्कृष्ट भवनों को नष्ट कर दिया। इस कारण उन्हें ‘जहाँसोज़’ (विश्वदाहक) की उपाधि मिली। इस प्रकार अलाउद्दीन हुसैनशाह ने गज़नवियों के अंतिम पतन और इस्लामी जगत की सीमा पर गोर के सबसे शक्तिशाली राज्य के रूप में उदय को चिह्नित किया।

गोर-सल्जूक संबंध

गोरियों को खुरासान और मर्व के समृद्ध क्षेत्रों पर नियंत्रण के लिए सल्जूकों के साथ निरंतर युद्ध करना पड़ा। अलाउद्दीन ‘जहाँसोज़’ ने 1152 ई. में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर सल्जूकों को कर देने से इनकार कर दिया और बिना कारण हेरात व बल्ख पर कब्जा कर लिया। परिणामस्वरूप सल्जूक शासक अहमद संजर ने अलाउद्दीन को पराजित कर बंदी बना लिया। अलाउद्दीन दो वर्ष तक कैद में रहा, जब तक कि संजर ने भारी फिरौती के बदले उसे रिहा नहीं किया। संजर की मृत्यु (1157 ई.) के बाद अलाउद्दीन ने गोर की शक्ति का विस्तार किया।

1161 ई. में अलाउद्दीन जहाँसोज़ की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी सैफुद्दीन मुहम्मद गद्दी पर बैठे। उन्होंने साम के दोनों पुत्रों, गियासुद्दीन और मुइज़्ज़ुद्दीन को मुक्त किया, जिन्हें अलाउद्दीन ने कैद कर रखा था। सैफुद्दीन ने हेरात के एक हिस्से पर पुनः कब्जा किया, लेकिन 1162 ई. में गुज़ तुर्कमानों को बल्ख से भगाने के प्रयास में युद्ध में मारा गया। इसके साथ ही गजनी, जो बारह वर्षों तक गोरियों के कब्जे में थी, उनके हाथ से निकल गई।

सैफुद्दीन की मृत्यु के बाद उनके चचेरे भाई गियासुद्दीन ने 1163 ई. में गोर की सत्ता संभाली। गुज़ तुर्कमानों की घटती शक्ति का लाभ उठाकर गियासुद्दीन ने 1173 ई. में गजनी पर पुनः कब्जा किया और अपने छोटे भाई शहाबुद्दीन, जो ‘मुइज़्ज़ुद्दीन मुहम्मद बिन साम’ के नाम से प्रसिद्ध है, को गजनी का शासक नियुक्त किया। इसके बाद गियासुद्दीन ने मध्य और पश्चिमी एशिया की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया, जबकि मुइज़्ज़ुद्दीन ने भारत की विजय में अपनी शक्ति लगाई, जिसे इतिहास में मुहम्मद गोरी के नाम से जाना जाता है।

मुइज़्ज़ुद्दीन मुहम्मद गोरी

मुइज़्ज़ुद्दीन मुहम्मद गोरी का जन्म संभवतः 1149 ई. में खुरासान के गोर क्षेत्र में हुआ था। उनके पिता बहाउद्दीन साम प्रथम गोर के स्थानीय सरदार थे। उनके बड़े भाई गियासुद्दीन के साथ मुइज़्ज़ुद्दीन को उनके चाचा अलाउद्दीन हुसैनशाह ने कैद कर लिया था, लेकिन बाद में सैफुद्दीन मुहम्मद ने उन्हें मुक्त किया। 1163 ई. में सैफुद्दीन की मृत्यु के बाद गियासुद्दीन ने मुइज़्ज़ुद्दीन को गजनी का शासक नियुक्त किया।

मुहम्मद गोरी के आक्रमण (Muhammad Ghori's Invasions)
मुहम्मद गोरी

मुहम्मद गोरी के आक्रमणों के उद्देश्य

मुहम्मद गोरी का प्राथमिक उद्देश्य भारतीय क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर साम्राज्य स्थापित करना था। उस समय लाहौर में गज़नवियों का अंतिम शासक खुसरव मलिक शासन कर रहा था और मुल्तान करामतियों के नियंत्रण में था। गजनी के शासक के रूप में मुहम्मद गोरी स्वयं को पंजाब का वैध शासक मानता था, क्योंकि यह पहले गज़नवी साम्राज्य का हिस्सा था। वह भारत से धन संचय कर मध्य एशिया में अपने शत्रुओं, विशेष रूप से ख्वारिज़्म के शाह, को परास्त करना चाहता था, जो गोरियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती था। साथ ही, वह अपने सैन्य विजयों के माध्यम से इस्लाम का प्रचार और यश बढ़ाना चाहता था।

यह कहना कठिन है कि मुहम्मद गोरी के अभियान पूरी तरह सुनियोजित थे या उसने शुरू में ही साम्राज्य स्थापना की योजना बनाई थी। फिर भी, दो कारकों ने उसका कार्य आसान किया: पहला, उत्तर भारत की खंडित राजनीतिक स्थिति, जहाँ कोई शक्तिशाली सत्ता उसका प्रभावी प्रतिरोध नहीं कर सकी; दूसरा, उसके योग्य दास सेनापतियों (जैसे कुतुबुद्दीन ऐबक) का समर्पण, जिन्होंने उसके अभियानों को सफल बनाया।

मुहम्मद गोरी के आक्रमणों के समय उत्तर भारत की स्थिति

मुहम्मद गोरी के आक्रमणों के समय उत्तर भारत छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था, जो एक-दूसरे के खिलाफ शक्ति और क्षेत्र विस्तार के लिए युद्धरत थे। यहाँ प्रमुख राज्यों की स्थिति निम्नलिखित थी:

पंजाब

पंजाब और सीमांत क्षेत्रों को महमूद गज़नवी ने अपने साम्राज्य में मिला लिया था। 1160 ई. में गुज़ तुर्कों ने गजनी पर कब्जा कर लिया, जिसके बाद गज़नवी शासक खुसरवशाह पंजाब भाग गया और लाहौर को अपनी राजधानी बनाया। गज़नवी राजवंश 1186 ई. तक पंजाब में शासन करता रहा, जब तक कि मुहम्मद गोरी ने लाहौर पर कब्जा कर इस वंश को समाप्त नहीं किया।

मुल्तान

उत्तरी सिंध में मुल्तान को महमूद गज़नवी ने जीता था। उनकी मृत्यु के बाद यहाँ के शिया मतावलंबी शासकों ने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। मुहम्मद गोरी ने 1175 ई. में मुल्तान पर कब्जा कर लिया।

सिंध

निचले सिंध को भी महमूद गज़नवी ने जीता था, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद सुमरा नामक स्थानीय जाति ने स्वतंत्र सत्ता स्थापित की। सुमरा लोग मुस्लिम और संभवतः शिया मतावलंबी थे।

अन्हिलवाड़ के चालुक्य

पश्चिमी भारत (गुजरात) में चालुक्य राजपूतों का शासन था, जिनकी राजधानी अन्हिलवाड़ (अन्हिलपाटन) थी। इस वंश का सबसे प्रतापी शासक सिद्धराज जयसिंह था। मुहम्मद गोरी के समकालीन चालुक्य शासक मूलराज द्वितीय था। चालुक्यों का अपने पड़ोसियों—मालवा के परमारों, अजमेर के चौहानों और चित्तौड़ के गुहिलों के साथ युद्ध होता रहता था।

अजमेर के चौहान

चौहान राजवंश का उत्थान अजयपाल के शासनकाल में हुआ। इस वंश ने गुजरात, दिल्ली, और मथुरा की ओर अपने राज्य का विस्तार करने का प्रयास किया, जिसके कारण उन्हें गज़नवियों के उत्तराधिकारियों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। विग्रहराज तृतीय संभवतः इस वंश का सबसे महान शासक था, जिसने 1151 ई. में तोमरों से दिल्ली छीनकर अपने राज्य को शिवालिक पहाड़ियों और हाँसी तक विस्तृत किया, लेकिन तोमरों को अधीनस्थ शासक के रूप में शासन करने दिया।

पृथ्वीराज तृतीय (1178-1193 ई.) चौहान वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक था। वह 1177 ई. में लगभग 11 वर्ष की आयु में अजमेर के सिंहासन पर बैठा और 16 वर्ष की आयु में प्रशासन संभाला। उसने राजस्थान के छोटे राज्यों को जीतकर विस्तारवादी नीति अपनाई। उसका सबसे प्रसिद्ध अभियान खजुराहो और महोबा के चंदेलों के खिलाफ था, जिसमें चंदेल योद्धा आल्हा और ऊदल मारे गए। इस युद्ध को ‘पृथ्वीराज रासो’ और ‘आल्हा-खंड’ जैसे महाकाव्यों में वर्णित किया गया, हालाँकि इनकी ऐतिहासिक सत्यता संदिग्ध है। पृथ्वीराज को चंदेलों पर महत्वपूर्ण विजय प्राप्त हुई, जिससे उसे भारी लूट मिली, लेकिन उसके राज्य का विस्तार नहीं हुआ।

1182 और 1187 ई. के बीच पृथ्वीराज को गुजरात के चालुक्य शासक भीम द्वितीय से युद्ध करना पड़ा, जिसने पहले मुहम्मद गोरी को पराजित किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि भीम द्वितीय ने पृथ्वीराज को भी हराया, जिसके कारण पृथ्वीराज ने अपना ध्यान गंगा घाटी और पंजाब की ओर केंद्रित किया। परंपरा के अनुसार पृथ्वीराज और कन्नौज के गहड़वाल शासक जयचंद की पुत्री संयोगिता के स्वयंवर को लेकर दोनों के बीच संघर्ष हुआ। हालाँकि, समकालीन साक्ष्यों के अभाव में इस कहानी की सत्यता संदिग्ध है। फिर भी, दिल्ली और ऊपरी गंगा दोआब पर नियंत्रण के लिए चौहानों और गहड़वालों के बीच प्रतिद्वंद्विता स्पष्ट थी। अपनी आक्रामक नीतियों के कारण पृथ्वीराज ने पड़ोसी राज्यों से शत्रुता मोल ले ली, जिसके परिणामस्वरूप वह 1192 ई. में तराइन के दूसरे युद्ध में मुहम्मद गोरी से पराजित हुआ।

कन्नौज के गहड़वाल

गहड़वाल राजवंश का शासन आधुनिक उत्तर प्रदेश में था, जिसकी राजधानी कन्नौज और वाराणसी थी। गोविंदचंद्र इस वंश का प्रतापी शासक था। चौहानों के उदय से पहले गहड़वालों की सीमा सतलज तक थी और उन्होंने गज़नवी सेनापतियों का सामना किया था। लेकिन दिल्ली और पूर्वी सतलज क्षेत्र चौहानों के अधीन चले जाने के बाद दोनों राजवंशों में शत्रुता हो गई। इस शत्रुता का लाभ मुहम्मद गोरी ने उठाया। उसने 1192 ई. में चौहानों को हराने के बाद 1194 ई. में जयचंद को पराजित कर गहड़वाल राज्य पर कब्जा कर लिया।

बुंदेलखंड के चंदेल

जैजाकभुक्ति के चंदेलों ने महमूद गज़नवी का दो बार सामना किया था। धंग, गंड, और विद्याधर इस वंश के शक्तिशाली शासक थे। चौहानों और गहड़वालों के उदय के बाद चंदेलों की स्थिति कमज़ोर हो गई। उनके पड़ोसी राजवंशों—मालवा के परमार, चेदि के कलचुरि और कन्नौज के गहड़वाल के साथ युद्ध होते रहे। इस वंश का अंतिम शासक परमाल (परमार्दि) था, जिसे पृथ्वीराज तृतीय ने कई बार पराजित किया। 1202-03 ई. में मुहम्मद गोरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालिंजर पर कब्जा कर बुंदेलखंड को जीत लिया।

चेदि के कलचुरि

चेदि (डाहाल) के कलचुरि राजवंश का प्रतापी शासक गांगेयदेव (1019-1040 ई.) था। कलचुरियों का चंदेलों, परमारों, और चालुक्यों से संघर्ष होता रहता था, जिसके कारण वे कभी शक्तिशाली नहीं बन सके। गांगेयदेव के पुत्र लक्ष्मीकर्ण के बाद कलचुरि कमज़ोर हो गए और बारहवीं सदी के अंत में चंदेलों के अधीनस्थ सामंत बन गए।

मालवा के परमार

मुहम्मद गोरी के अभियानों के समय मालवा के परमार अत्यंत कमज़ोर थे और चालुक्यों के अधीन सामंत के रूप में शासन कर रहे थे। 1305 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया।

उत्तरी और दक्षिणी बंगाल

उत्तरी बंगाल में पाल राजवंश का शासन था, जो कुमारपाल (1126-1130 ई.) और मदनपाल (1130-1150 ई.) के समय एक छोटा-सा राज्य रह गया था। दक्षिणी बंगाल में सेन राजवंश के विजयसेन (1097-1159 ई.), बल्लालसेन (1159-1170 ई.), और लक्ष्मणसेन (1170-1203 ई.) ने शासन किया। 1204 ई. में तुर्क सेनापति बख्तियार खिलजी ने सेन राजधानी नादिया पर कब्जा कर लिया।

इस प्रकार मुहम्मद गोरी के आक्रमणों के समय उत्तर भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था, जो परस्पर युद्धों में व्यस्त थे। इन युद्धों ने उनकी शक्ति को कमज़ोर किया, जिसके कारण वे विदेशी आक्रमण का सामना करने में असमर्थ रहे।

मुहम्मद गोरी के प्रारंभिक आक्रमण

मुहम्मद गोरी के प्रारंभिक आक्रमणों का उद्देश्य पंजाब और सिंध पर कब्जा करना था। उसने खैबर दर्रे के बजाय गोमल दर्रे के रास्ते सिंध के मैदानी क्षेत्रों पर आक्रमण किया।

मुल्तान

1175 ई. में मुहम्मद गोरी ने मुल्तान के करामती (शिया या इस्माइली) शासकों को पराजित कर मुल्तान पर कब्जा किया। मुल्तान को जीतने का उद्देश्य इसे भविष्य के अभियानों का आधार बनाना और वहाँ के धार्मिक विचारों, जो इस्लाम और बौद्ध धर्म का मिश्रण थे, को नियंत्रित करना था।

उच्छ

1176 ई. में मुहम्मद गोरी ने उच्छ पर कब्जा कर लिया। कुछ इतिहासकारों (जैसे फरिश्ता) के अनुसार, यहाँ भट्टी राजपूतों का शासन था, जिनकी रानी ने दुर्ग समर्पित कर दिया। लेकिन अन्य (जैसे हबीब) के अनुसार उच्छ पर भी इस्माइली मुस्लिम शासक थे।

गुजरात पर आक्रमण

1178-79 ई. में मुहम्मद गोरी ने मुल्तान और उच्छ के रास्ते गुजरात के अन्हिलवाड़ पर आक्रमण किया। उस समय चालुक्य शासक भीमदेव द्वितीय ने आबू पर्वत के निकट गोरी को बुरी तरह पराजित किया। कहा जाता है कि चालुक्यों ने पृथ्वीराज से सहायता माँगी थी, लेकिन चौहानों और चालुक्यों की शत्रुता के कारण पृथ्वीराज ने सहायता नहीं दी। उस समय पृथ्वीराज केवल 12 वर्ष का था, अतः उसे इस निर्णय के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

पंजाब की विजय

गुजरात की असफलता के बाद मुहम्मद गोरी ने अपनी रणनीति बदली। 1179-80 ई. में पेशावर, उच्छ और मुल्तान जीतने के बाद, उसने 1181-82 ई. में लाहौर पर आक्रमण किया। कमज़ोर गज़नवी शासक खुसरव मलिक ने आत्मसमर्पण कर दिया। उसे कुछ समय तक शासन करने दिया गया, लेकिन 1186 ई. में मुहम्मद गोरी ने उसे बंदी बनाकर मार डाला और पूरे पंजाब व सिंध के समुद्र तट तक अपने नियंत्रण को सुदृढ़ किया।

राजपूत राज्यों की विजय

पंजाब में अपनी स्थिति मज़बूत करने के बाद मुहम्मद गोरी ने राजपूत राज्यों के खिलाफ अभियान शुरू किया। इनका सबसे अधिक दबाव चौहानों पर पड़ा, जिनके अधीन अजमेर से दिल्ली तक का क्षेत्र था।

तबरहिंद (भटिंडा) पर आक्रमण

1189 ई. में मुहम्मद गोरी ने सतलज नदी पार कर तबरहिंद (भटिंडा) के किले पर कब्जा किया, जो चौहान राज्य का सामरिक महत्व का सीमावर्ती दुर्ग था। पृथ्वीराज ने इसकी रक्षा के लिए कोई प्रबंध नहीं किया था। गोरी किले पर कब्जा कर वापस लौट गया। सूचना मिलते ही पृथ्वीराज ने तबरहिंद का घेरा डाला।

तराइन का पहला युद्ध (1191 ई.)

तबरहिंद के घेरे की खबर पाकर मुहम्मद गोरी वापस लौटा। 1191 ई. में तराइन के मैदान में पृथ्वीराज और गोरी के बीच युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज की पूर्ण विजय हुई। एक समकालीन विवरण के अनुसार एक खिलजी घुड़सवार ने घायल गोरी को बचाकर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। पृथ्वीराज ने तबरहिंद पर पुनः कब्जा कर लिया।

तराइन का दूसरा युद्ध (1192 ई.)

पृथ्वीराज ने गोरी के साथ संघर्ष को सीमावर्ती झड़प समझा और भविष्य के लिए कोई तैयारी नहीं की। ‘पृथ्वीराज रासो’ में उस पर राजकीय कर्तव्यों की उपेक्षा का आरोप है, जो ऐतिहासिक रूप से संदिग्ध है। दूसरी ओर, मुहम्मद गोरी ने अपनी हार से हताश न होकर गजनी में सावधानीपूर्वक युद्ध की तैयारी की और कई अमीरों को हटा दिया, जिन्होंने पहले युद्ध में उसका साथ नहीं दिया था।

मुहम्मद गोरी के आक्रमण (Muhammad Ghori's Invasions)
चौहान राजा पृथ्वीराज

मिनहाज-उस-सिराज के अनुसार गोरी 1,20,000 सैनिकों के साथ 1192 ई. में तराइन लौटा। फरिश्ता के अनुसार पृथ्वीराज की सेना में 3,000 हाथी, 3,00,000 घुड़सवार और भारी संख्या में पैदल सैनिक थे। यद्यपि ये संख्याएँ अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, पृथ्वीराज की सेना गोरी की सेना से बड़ी थी। लेकिन उसकी सेना में सामंती टुकड़ियों के कारण केंद्रीय नेतृत्व का अभाव था। गोरी ने तीव्रगामी अश्वारोही धनुर्धरों की रणनीति अपनाई, जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वीराज पराजित हुआ और युद्धक्षेत्र से भाग निकला। उसे सिरसा के निकट पकड़ लिया गया। मिनहाज के अनुसार उसकी तत्काल हत्या कर दी गई, जबकि हसन निज़ामी का कहना है कि उसे अजमेर में शासन करने दिया गया, जैसा कि उसके सिक्कों पर ‘श्री मुहम्मद साम’ के उल्लेख से पुष्ट होता है। बाद में पृथ्वीराज ने विद्रोह किया, जिसके कारण उसे मृत्युदंड दिया गया। ‘पृथ्वीराज रासो’ की कहानी कि उसे गजनी ले जाया गया और उसने गोरी को तीर मारकर मारा, ऐतिहासिक रूप से असत्य है।

तराइन के दूसरे युद्ध का महत्व

तराइन का दूसरा युद्ध (1192 ई.) भारतीय इतिहास की एक युगांतकारी घटना थी। इसने अजमेर और दिल्ली पर तुर्कों का कब्जा स्थापित किया और राजपूत राजाओं में निराशा फैल गई, जिसके कारण वे एकजुट प्रतिरोध नहीं कर सके। मुहम्मद गोरी ने विजित क्षेत्रों को अपने विश्वसनीय सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक के अधीन छोड़कर गजनी लौट गया। अगले दो वर्षों में ऐबक ने अजमेर में विद्रोहों का दमन किया और मेरठ, बरन (बुलंदशहर) और दिल्ली को तुर्क सत्ता का केंद्र बनाया।

ऊपरी गंगाघाटी में तुर्क सत्ता का विस्तार

तराइन के दूसरे युद्ध के बाद चौहान राज्य तुर्कों के अधीन आ गया। मुहम्मद गोरी ने यथार्थवादी नीति अपनाई। उसने शिवालिक क्षेत्र, हरियाणा के हिसार और सिरसा को अपने नियंत्रण में लिया। पृथ्वीराज को अजमेर की गद्दी वापस दी गई और बाद में उसके पुत्र गोविंदराज को अधीनस्थ शासक बनाया गया। दिल्ली तोमर वंश को सौंपा गया, लेकिन कुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में एक तुर्क सेना वहाँ तैनात की गई।

1192 ई. में ऐबक ने दिल्ली, मेरठ और बरन पर कब्जा किया। 1193 ई. में तोमर शासक को राजद्रोह के कारण हटा दिया गया। दिल्ली को तुर्कों ने अपनी राजधानी बनाया, क्योंकि यह पंजाब के निकट और पूर्वी अभियानों के लिए सुविधाजनक था। पृथ्वीराज के भाई हरिराज, जो राजपूत प्रतिरोध का नेतृत्व कर रहा था, को पराजित कर अजमेर पर कब्जा किया गया। हरिराज ने चिता में जलकर आत्मदाह कर लिया। अजमेर को तुर्क अधिकारी के अधीन कर दिया गया और पृथ्वीराज के पुत्र गोविंद को रणथंभौर भेजा गया।

गहड़वाल राज्य की विजय

दिल्ली में स्थिति सुदृढ़ करने के बाद तुर्कों ने कन्नौज के गहड़वाल राज्य को निशाना बनाया। 1194 ई. में मुहम्मद गोरी ने 50,000 घुड़सवारों के साथ चंदावर (इटावा) में जयचंद को पराजित किया। समकालीन स्रोतों के अनुसार जयचंद की सेना में 80,000 कवचबद्ध सैनिक, 30,000 घुड़सवार, 3,00,000 पैदल सैनिक और 2,00,000 तीरंदाज़ थे। जयचंद मारा गया और असनी (फतेहपुर) व वाराणसी को लूटा गया। कई मंदिर नष्ट किए गए, और तुर्कों ने बनारस व असनी में सैन्य अड्डे स्थापित किए। कन्नौज पर 1198 ई. तक कब्जा हुआ।

बयाना और ग्वालियर

1195-96 ई. में मुहम्मद गोरी ने बयाना के किले पर कब्जा किया। ग्वालियर, जो क्षेत्र का सबसे सुदृढ़ किला था, डेढ़ वर्ष की घेराबंदी के बाद 1196 ई. में जीता गया और बहाउद्दीन तुगरिल को वहाँ सैन्य अधिकारी नियुक्त किया गया।

बुंदेलखंड की विजय

मुहम्मद गोरी के गजनी लौटने के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1197-98 ई. में बदायूँ और 1198 ई. में कन्नौज पर कब्जा किया। 1202 ई. में उसने कालिंजर, महोबा और खजुराहो पर कब्जा कर चंदेल राजा परमाल को पराजित किया।

गुजरात की विजय

कुतुबुद्दीन ऐबक ने अन्हिलवाड़ पर आक्रमण किया, क्योंकि वहाँ के चालुक्य शासक ने पहले एक राजपूत विद्रोह में सहायता की थी। राय पराजित हुआ और अन्हिलवाड़ पर कब्जा किया गया, लेकिन तुर्कों का नियंत्रण अधिक समय तक नहीं रहा।

बिहार और बंगाल

बिहार और बंगाल की विजय का श्रेय तुर्क सेनापति बख्तियार खिलजी को है। उसने उदंतपुर, नालंदा और विक्रमशिला जैसे विद्याकेंद्रों को लूटा और नष्ट किया। 1204-05 ई. में उसने सेन राजधानी नादिया पर कब्जा किया, क्योंकि लक्ष्मणसेन ने रक्षा की कोई तैयारी नहीं की थी।

मुहम्मद गोरी की मृत्यु

1202 ई. में अपने भाई गियासुद्दीन की मृत्यु के बाद मुहम्मद गोरी गोर और दिल्ली का शासक बना। 1204 ई. में वह ख्वारिज़्म के शाह से ऑक्सस नदी के तट पर पराजित हुआ और अंदखुर्द में शत्रुओं से घिरने के बाद बड़ी मुश्किल से गजनी लौटा। इस पराजय और मृत्यु की अफवाहों के कारण पश्चिमी प्रदेशों में विद्रोह भड़क उठे। नमक के पहाड़ के सरदार रैसाल और खोकर जनजातियों ने चेनाब और झेलम के क्षेत्रों में लूटपाट शुरू की। नवंबर 1205 ई. में गोरी ने इन विद्रोहियों को पराजित किया, लेकिन 15 मार्च 1206 ई. को पंजाब से गजनी लौटते समय सिंधु नदी के किनारे दमयक में खोकरों ने उसकी हत्या कर दी।

मुहम्मद गोरी का मूल्यांकन

मुहम्मद गोरी उत्तर भारत में तुर्क सल्तनत का वास्तविक संस्थापक था। हालाँकि उनमें महमूद गज़नवी जैसी सैन्य प्रतिभा नहीं थी, लेकिन उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता और कार्य को पूर्ण करने की लगन उल्लेखनीय थी। उन्होंने भारत की खंडित राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर तुर्क सत्ता की नींव डाली। उनके सिक्कों पर ‘पृथ्वीराज’ और ‘मुहम्मद बिन साम’ के उल्लेख मिलते हैं, जो उनकी रणनीति को दर्शाते हैं।

मुहम्मद गोरी में परिस्थितियों को समझने की क्षमता, दृढ़ इच्छाशक्ति और कर्मठता थी। वह विपरीत परिस्थितियों में धैर्य रखता था और पराजय को स्वीकार नहीं करता था। इतिहासकार एलफिंस्टन के अनुसार उनकी भारतीय विजयें महमूद गज़नवी से अधिक महत्वपूर्ण थीं। वह मानव चरित्र का सूक्ष्म पारखी था और अपने दास सेनापतियों—कुतुबुद्दीन ऐबक, एल्दौज़, और तुगरिल के कारण सफल हुआ। अपने बड़े भाई गियासुद्दीन के प्रति उसकी निष्ठा उस युग का दुर्लभ गुण थी। उसके दरबार में फखरुद्दीन राजी जैसे दार्शनिक और निज़ामी उरुजी जैसे कवि थे।

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