सांप्रदायिक निर्णय, पूना पैक्ट और गांधीजी का हरिजनोद्धार आंदोलन (Communal Decision, Poona Pact and Gandhiji’s Harijoddhar movement)

सांप्रदायिक निर्णय (कम्युनल अवार्ड)

गोलमेज सम्मेलन में मुस्लिमों एवं सिखों के साथ अनुसूचित जाति के महत्त्वपूर्ण राजनीतिज्ञ डॉ. भीमराव आंबेडकर ने अछूतों के लिए भी पृथक् निर्वाचन की माँग की थी। हिंदुओं तथा मुसलमानों के इस गतिरोध का लाभ उठाकर प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनॉल्ड ने 16 अगस्त, 1932 को ‘सांप्रदायिक निर्णय’ (कम्युनल अवार्ड) की घोषणा की। इसके अनुसार प्रत्येक अल्पसंख्यक समुदाय के लिए विधानमंडलों में कुछ सीटें सुरक्षित की गई थीं, जिनके लिए सदस्यों का चुनाव पृथक् निर्वाचनमंडलों से होना था, अर्थात् मुसलमान सिर्फ मुसलमान को और सिख केवल सिख को ही वोट दे सकते थे। सांप्रदायिक निर्णय में अल्पसख्यकों के साथ-साथ अछूत वर्ग को भी अलग प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई थी। अछूत वर्ग के मतदाताओं को सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों तथा विशेष निर्वाचन क्षेत्रों, दोनों जगह मतदान का अधिकार दिया गया था। यह व्यवस्था बीस वर्षों के लिए थी। बंबई प्रांत में सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में से सात स्थान मराठों के लिए आरक्षित किये गये थे।

इस प्रकार ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने सांप्रदायिक निर्णय के द्वारा धर्म के आधार पर मुसलमानों के लिए और जाति के आधार पर अछूतों के लिए पृथक् निर्वाचन की व्यवस्था की। यह सांप्रदायिक निर्णय 1909 के भारतीय शासन-विधान में निहित सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत पर आधारित था। कांग्रेस ने 1916 में मुस्लिम लीग के साथ हुए लखनऊ समझौते में मुसलमानों के लिए पृथक् निर्वाचनमंडल की बात मान ली थी, किंतु वह मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों और अछूतों के लिए पृथक् निर्वाचनमंडल के सिद्धांत के विरुद्ध थी।

पूना समझौता

सांप्रदायिक निर्णय (कम्युनल अवार्ड) के समय गांधीजी यरवदा जेल में थे। उन्होंने सांप्रदायिक निर्णय को राष्ट्रीय एकता एवं भारतीय राष्ट्रवाद पर हमला बताया। उनका कहना था कि यह हिंदुओं एवं अछूतों, दोनों के लिए खतरनाक है। गांधी का मानना था कि अछूतों की सामाजिक हालत सुधारने के लिए इसमें कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। एक बार यदि पिछड़े एवं अछूत वर्ग को पृथक् समुदाय का दर्जा प्रदान कर दिया गया, तो अस्पृश्यता को दूर करने का मुद्दा पीछे छूट जायेगा और हिंदू समाज में सुधार की प्रक्रिया अवरुद्ध हो जायेगी। उन्होंने स्पष्ट किया कि पृथक् निर्वाचकमंडल का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यह अछूतों के सदैव अछूत बने रहने की बात सुनिश्चित करता है। अछूतों के हितों की सुरक्षा के नाम पर न तो विधानमंडलों या सरकारी सेवाओं में सीटें आरक्षित करने की आवश्यकता है और न ही उन्हें पृथक् समुदाय बनाने की जरूरत है, बल्कि सबसे बड़ी आवश्यकता समाज से अस्पृश्यता की कुरीति को जड़ से उखाड़ फेंकने की है। गांधीजी ने माँग की कि अछूत जातियों के प्रतिनिधियों का निर्वाचन आत्म-निर्वाचनमंडल के माध्यम से वयस्क मताधिकार के आधार पर होना चाहिए। किंतु उन्होंने अछूतों के लिए बड़ी संख्या में सीटें आरक्षित करने की माँग का विरोध नहीं किया।

सांप्रदायिक निर्णय, पूना पैक्ट और गांधीजी का हरिजनोद्धार आंदोलन (Communal decision, Poona Pact and Gandhiji's Harijoddhar movement)
‘भारतरत्न’ डॉ. भीमराव आंबेडकर

गांधीजी 20 सितंबर, 1932 को जेल में ही प्राणों की बाजी लगाकर सरकार के निर्णय का विरोध करने के लिए आमरण अनशन पर बैठ गये। कुछ राजनीतिज्ञों ने इस अनशन को राजनीतिक आंदोलन का ‘सही राह से विमुख’ होना बताया, किंतु जनता ने इसे गंभीरता से लिया और प्रायः सभी जगहों पर जनसभाएँ हुईं। 20 सितंबर का दिन ‘उपवास और प्रार्थना दिवस’ के रूप में मनाया गया। पूरे देश में कुँओं और मंदिरों को दलितों के लिए खोल दिया गया। विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के नेता, जिनमें मदनमोहन मालवीय, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पुरुषोत्तमदास टंडन, सी. राजगोपालाचारी, एम.सी. राजा और डॉ. भीमराव आंबेडकर शामिल थे, सक्रिय हो गये। अनशन के कारण गांधी का स्वास्थ्य दिन-ब-दिन तेजी से गिरने लगा।

अंततः गांधी और आंबेडकर के मध्य 24 सितंबर, 1932 को एक समझौता हुआ, जिसे ‘पूना समझौता’ (पूना पैक्ट) के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के अंतर्गत अछूत वर्ग के लिए पृथक् निर्वाचकमंडल समाप्त कर दिये गये और व्यवस्थापिका सभा में अछूतों के स्थान हिंदुओं के अंतर्गत ही सुरक्षित रखे गये। लेकिन प्रांतीय विधानमंडलों में अछूतों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 47 से बढ़ाकर 147 कर दी गईं। मद्रास में 30, बंगाल में 30, मध्य प्रांत एवं संयुक्त प्रांत में 20-20, बिहार एवं उड़ीसा में 18-18, बंबई एवं सिंध में 15-15, पंजाब में 8 तथा असम में 7 स्थान अछूतों के लिए सुरक्षित किये गये।

केंद्रीय विधानमंडल में अछूतों को उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए संयुक्त व्यवस्था को मान्यता दी गई और केंद्रीय विधानमंडल में सुरक्षित सीटों की संख्या में 18 प्रतिशत की वृद्धि कर दी गई। मुसलमानों की सीटें अपरिवर्तित रहीं। अछूत वर्ग को सार्वजनिक सेवाओं तथा स्थानीय संस्थाओं में उनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर उचित प्रतिनिधित्व देने की भी व्यवस्था की गई।

सांप्रदायिक निर्णय, पूना पैक्ट और गांधीजी का हरिजनोद्धार आंदोलन (Communal decision, Poona Pact and Gandhiji's Harijoddhar movement)
पूना पैक्ट

किंतु इस समझौते से सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व की समस्या का कोई संतोषजनक समाधान नहीं हो सका। चूंकि उस समय इससे अच्छा कोई दूसरा समाधान नहीं था, इसलिए सभी दलों ने इसे स्वीकार कर लिया। ब्रिटिश सरकार ने भी पूना समझौते को सांप्रदायिक निर्णय का संशोधित रूप मान लिया।

गांधीजी का हरिजनोद्धार आंदोलन

सांप्रदायिक निर्णय द्वारा भारतीयों को विभाजित करने तथा पूना पैक्ट के द्वारा हिंदुओं से अछूतों को पृथक् करने की व्यवस्था ने गांधीजी को बुरी तरह आहत कर दिया था। फिर भी, गांधी ने ‘पूना समझौते’ के प्रावधानों का पूरी तरह पालन किये जाने का वचन दिया। उन्होंने उपवास तोड़ने के बाद ‘पूना समझौते’ के बारे में कहा था, ‘‘मैं अपने हरिजन भाइयों को इसके पूरी तरह पालन करने का विश्वास दिलाता हूँ। आदमी कितना मूर्ख है, खुद ही मिट्टी की मूर्ति बनायेगा खुद ही उसे पूजेगा और खुद ही उससे डरेगा।”

सांप्रदायिक निर्णय, पूना पैक्ट और गांधीजी का हरिजनोद्धार आंदोलन (Communal decision, Poona Pact and Gandhiji's Harijoddhar movement)
गांधीजी का हरिजनोद्धार आंदोलन

अगस्त, 1933 में जेल से रिहा होने के बाद गांधीजी पूरी तरह से हरिजनोत्थान और छुआछूत-निवारण आंदोलन में जुट गये। कारावास की अवधि में ही उन्होंने सितंबर, 1932 में ‘अखिल भारतीय छुआछूत-विरोधी लीग’ का गठन किया था। जनवरी, 1933 में उन्होंने ‘हरिजन’ नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। 7 नवंबर, 1933 को वर्धा से गांधीजी ने अपनी ‘हरिजन यात्रा’ प्रारंभ की। नवंबर, 1933 से जुलाई, 1934 तक गांधीजी ने पूरे देश में घूम-घूमकर छुआछूत उन्मूलन के लिए प्रचार किया। उन्होंने सामाजिक कार्यकर्त्ताओं को सब कुछ छोड़कर, हरिजनों के सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक उत्थान के लिए काम करने की अपील की। गांधी ने ही अछूतों को ‘हरिजन’ नाम दिया था।

गांधीजी छुआछूत को जड़ से समाप्त करना चाहते थे। उन्होंने 8 मई व 16 अगस्त, 1933 को दो बार अनशन किया और अपने समर्थकों से कहा, ‘‘या तो छुआछूत को जड़ से समाप्त करो या फिर मुझे अपने बीच से हटा दो।’’

गांधीजी जानते थे कि, ‘हरिजनों की सामाजिक स्थिति कुष्ठरोगियों जैसी है, वे आर्थिक रूप से दरिद्र हैं, धार्मिक स्तर पर उनकी स्थिति ऐसी है कि उनके अपने ही हिंदू भाई उन्हें मंदिरों में, जिन्हें हम झूठ-मूठ में ईश्वर का घर कहते हैं, घुसने नहीं देते। सार्वजनिक स्कूलों, सड़कों, अस्पतालों, कुँओं इत्यादि का भी वे प्रयोग नहीं कर सकते। नगरों और गाँवों में इन्हें ऐसी जगह बसाया जाता है, जहाँ किसी भी तरह की कोई सुविधा नहीं होती।’ इसलिए उन्होंने छुआछूत की कुरीति को समूल नष्ट करने और मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश के अधिकार की माँंग की।

गांधीजी का हरिजनोद्धार आंदोलन और उनकी रणनीति, मानवता व मानवीय चेतना पर आधारित थी। किंतु वे अपनी बात को वजन देने के लिए हिंदू शास्त्रों का भी उल्लेख करते थे। उनका कहना था कि समाज में छुआछूत की कुरीति का जो स्वरूप है, उसका हिंदू शास्त्रों में कहीं कोई जिक्र नहीं है। हिंदू शास्त्र इसे मान्यता नहीं देते। उनका कहना था कि यदि किसी शास्त्र या किताब में इस कुुरीति को मान्यता दी भी गई हो, तो भी हरिजनों को चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सत्य किसी पुस्तक का बंधक नहीं है। यदि शास्त्र मानव गरिमा की अवहेलना करते हैं, तो उन्हें नकार दिया जाना चाहिए।

गांधीजी ने हरिजनों पर होनेवाले अत्याचार और भेदभाव की कड़ी निंदा की। वे अपने लेखों और भाषणों में बार-बार कहते थे कि ‘‘हम हिंदू लोग सदियों से हरिजनों और अछूतों पर अत्याचार करते आये हैं, अब हमें उसका प्रायश्चित करना चाहिए।’’ संभवतः यही कारण है कि गांधीजी आंबेडकर या दूसरे अछूत नेताओं की आलोचना को कभी बुरा नहीं मानते थे। गांधी स्वयं कहते थे कि ‘‘उन्हें मुझ पर भरोसा न करने का पूरा अधिकार है। आखिर मैं भी तो उसी उच्चवर्गीय हिंदू समाज का हूँ जिसने हरिजनों पर अत्याचार किये हैं, उनका शोषण किया है।’’ उन्होंने हिंदू समाज को चेतावनी देते हुए कहा कि ‘‘यदि छुआछूत का रोग खत्म नहीं हुआ, तो हिंदू समाज खत्म हो जायेगा। यदि हिंदूवाद को जीवित रखना है, तो छुआछूत को समाप्त करना ही होगा।’’

गांधीजी छुआछूत निवारण के मुद्दे को अंतर्जातीय विवाह और अंतर्जातीय भोज जैसे मुद्दों के साथ जोड़ने के पक्षधर नहीं थे। उनका मानना था कि ये चीजें स्वयं हिंदू सवर्ण समाज एवं हरिजनों के बीच में भी हैं। उनका कहना था कि उनके हरिजन अभियान का मुख्य उद्देश्य, उन कठिनाइयों एवं कुरीतियों को दूर करना है जिससे हरिजन समाज शोषित और पिछड़ा है। उन्होंने छुआछूत निवारण और जाति-प्रथा निवारण में अंतर किया। वह डा. आंबेडकर के इन विचारों से सहमत नहीं थे कि छुआछूत की बुराई जातिप्रथा की देन है और जब तक जातिप्रथा बनी रहेगी, यह बुराई भी जीवित रहेगी, इसलिए जातिप्रथा को समाप्त किये बिना अछूतों का उद्धार संभव नहीं है।

गांधीजी का कहना था कि वर्णाश्रम व्यवस्था के अपने कुछ दोष हो सकते हैं, किंतु इसमें कोई पाप नहीं है, छुआछूत अवश्य पाप है। उनका मानना था कि छुआछूत जातिप्रथा के कारण नहीं, बल्कि ‘उच्च’ और ‘निम्न’ के कृत्रिम बँटवारे का प्रतिफल है। जातियाँ यदि एक-दूसरे का पूरक होकर काम करें, तो जातिप्रथा में कोई बुराई नहीं है। कोई भी जाति न उच्च है, न निम्न। उन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक एवं विरोधियों दोनों का आह्वान किया कि वे आपस में मिलकर काम करें क्योंकि दोनों ही छुआछूत के विरुद्ध हैं। गांधी का विचार था कि छुआछूत के उन्मूलन से सांप्रदायिकता एवं इस प्रकार के अन्य मुद्दों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। छुआछूत से गैर-हिंदू वर्ग भी प्रभावित था और गांधी का मानना था कि छुआछूत मिटाने से सभी भारतीय एक हो जायेंगे।

अपने ‘हरिजन आंदोलन’ के दौरान गांधीजी को कट्टरपंथियों और सामाजिक प्रतिक्रियावादियों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। उन्हें काले झंडे दिखाये गये, उनके पुतले फूँके गये, उनकी सभाओं में उत्पात किया गया, उनके विरुद्ध अपमानजनक पर्चे निकाले गये और यहाँ तक कि उन्हें जान से मारने की कोशिश तक की गई। सरकार ने भी प्रतिक्रियावादी शक्तियों का पूरा साथ दिया, जिसके कारण अगस्त, 1934 में मंदिर-प्रवेश विधेयक पारित नहीं हो सका। बंगाल में कट्टरपंथी हिंदू विचारकों ने पूना समझौते द्वारा हरिजनों को हिंदू-अल्पसंख्यक का दर्जा दिये जाने की अवधारणा को पूर्णतया खारिज कर दिया।

गांधीजी की अहिंसा में अटूट निष्ठा थी, वे सहमति से समाधान खोजने के पक्षधर थे। उन्होंने प्रतिक्रियावादियों पर किसी तरह का कोई दबाव नहीं डाला। वे इन्हें ‘सनातनी’ कहते थे। उनका कहना था कि ये जो कुछ कर रहे हैं, उसे सहन करो और इन्हें समझा-बुझाकर सहमति से सही रास्ते पर लाओ। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनके अनशन का उद्देश्य, उनके द्वारा चलाये जा रहे छुआछूत-विरोधी आंदोलन के संबंध में उनके मित्रों एवं अनुयायियों के उत्साह को बढ़ाना है।

गांधीजी अपने हरिजनोद्धार आंदोलन को राजनीतिक आंदोलन नहीं मानते थे। उनके अनुसार यह हिंदू समाज एवं हिंदुत्व का शुद्धीकरण आंदोलन है। उन्होंने इस आंदोलन के माध्यम से कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओं को बताया कि जन-आंदोलन के निष्क्रिय या समाप्त हो जाने पर वे स्वयं को किस प्रकार के रचनात्मक कार्यों में लगा सकते हैं। हरिजन आंदोलन के माध्यम से गांधीजी ने राष्ट्रवाद का संदेश उन हरिजनों तक पहुँचाया, जिनमें अधिकांश खेतिहर-मजदूर थे।

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