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कर्नाटक में आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिद्वंद्विता
18वीं सदी में जब मुगल सत्ता क्षीण हो रही थी, अंग्रेजों और फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी में हुए संघर्ष के फलस्वरूप अंग्रेजों का दक्षिण में फैलाव हुआ। आंग्ल-फ्रांसीसी दोनों कंपनियों का उद्देश्य व्यापार से अधिकाधिक मुनाफा कमाना था, इसलिए व्यापारिक एकाधिकार को बनाये रखने के लिए वे एक-दूसरे को हटाने में लग गईं।
दक्षिण भारत फ्रांसीसी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। पांडिचेरी उनकी राजधानी थी और हैदराबाद तथा मैसूर जैसे राज्यों पर उनका अच्छा खासा प्रभाव था। अंग्रेजों को अपने व्यापारिक एकाधिकार को स्थापित करने के लिए इस क्षेत्र से फ्रांसीसियों को हटाना जरूरी था। अंततः 1761 ई. तक अंग्रेजों को इसमें सफलता मिल भी गई।
ब्रिटिश और फ्रांसीसी कंपनियों की स्थिति
फ्रांसीसी और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी यूरोप में विकसित हो रहे व्यापारिक पूँजीवाद का प्रतिफलन थीं। पूँजीवाद के विजय और सुदृढ़ीकरण के इस दौर को ‘तैयारी का काल’ माना जाता है, जिसमें एशिया और लैटिन अमेरिका से व्यापार कर पूँजी इकट्ठी की गई। भारत में बने माल की यूरोप में बहुत माँग थी और ये कंपनियाँ भारत का माल यूरोप में बेचती थीं।
दोनों कंपनियों ने पूर्व के व्यापार से फायदा उठाया, परंतु दोनों के फायदे में काफी अंतर था। ब्रिटिश कंपनी के पास तो बड़े जहाजी बेड़े थे, जबकि फ्रांसीसियों के पास वाणिज्य का ज्ञान भी सीमित था। ब्रिटिश कंपनी के पास धन भी ज्यादा था और उसके जहाज शीघ्रता से आते-जाते थे। फ्रांसीसी कंपनी फ्रांसीसी राज्य के संरक्षण की उपज थी, जिसका राजस्व मुख्य रूप से तंबाकू के व्यापार से आता था। तंबाकू के व्यापार पर उनकी सरकार का एकाधिकार था।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी एक बड़ी निजी निगम थी, जो व्यक्तिगत उद्यम पर आधारित थी और किसी भी तरह से राज्य पर निर्भर नहीं थी। वस्तुतः ब्रिटिश सरकार कंपनी की ऋणग्रस्त थी। दूसरी तरफ, फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1664 ई. में हुई। ब्रिटिश कंपनी की स्थापना इससे पहले 1600 ई. में हो चुकी थी। 1613 ई. में बादशाह जहाँगीर से उन्हें एक फरमान भी मिल गया था जिससे उन्हें भारत के साथ कपड़े और धागे का व्यापार करने की अनुमति मिल गई। इसके अंतर्गत उन्हें सूरत, अहमदाबाद, कैंबे तथा गोवा के पश्चिमी तटों पर व्यापार करने की अनुमति मिली।
फ्रांसीसी कंपनी ने भी अपना पहला कारखाना 1668 ई. में सूरत में स्थापित किया। 1669 ई. में फ्रांसीसियों ने दूसरा कारखाना मसुलीपट्टनम में स्थापित किया। इसके बाद 1674 ई. में फ्रैंक्वाइस मार्टिन ने पांडिचेरी में कारखाना खोला, जो भविष्य में भारत में फ्रांसीसियों की राजधानी बनी। यह क्षेत्र मद्रास के प्रतिद्वंद्वी क्षेत्र के रूप में सामने आया। इसकी शक्ति और आकार में वृद्धि हुई तथा यह मद्रास में स्थापित अंग्रेजी अड्डे के समतुल्य हो गया। परंतु पांडिचेरी वाणिज्य के मामले में मद्रास से सदैव पीछे ही रहा। 1690 ई. और 1692 ई. के बीच पूरब में चंद्रनगर में एक कारखाना खोला गया। परंतु इसने कलकत्ता में स्थापित अंग्रेजों के अड्डे को कभी चुनौती नहीं दी।
अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया के सितारे गर्दिश में जाने लगे थे और सूरत, बंटम, मसुलीपट्टम स्थित अपने कारखानों को उन्हें छोड़ना पड़ा था। किंतु यह अस्थायी आघात था और 1720 ई. के दशक के आते-आते फ्रांसीसी कंपनी ने पुनः अपना अधिकार स्थापित कर लिया। कंपनी का पुनर्गठन किया गया और इसे एक नया नाम दिया गया ‘परपेच्युअल कंपनी ऑफ द इंडीज।’
फ्रांसीसी नौसेना की शक्ति में काफी वृद्धि हुई और इसने मारीशस को अपना अड्डा बनाया। इस बात की भी सूचना मिलती है कि फ्रांसीसी कंपनी ने अपने लिए 10-12 जहाजों का निर्माण इंग्लैंड में करवाया था। फ्रांसीसियों ने 1725 ई. में मलाबार तट पर माही में और 1739 ई. में पूर्वी तट पर कारिकल में अपने पैर जमा लिये।
यूरोप में आंग्ल-फ्रांसीसी शाश्वत शत्रु थे और ज्यों ही यूरोप में उनका आपसी युद्ध आरंभ होता, संसार के प्रत्येक कोने में जहाँ ये दोनों कंपनियाँ कार्य करती थीं, आपसी युद्ध आरंभ हो जाते थे। भारत में आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध आस्ट्रिया के उत्तराधिकर युद्ध से आरंभ हुआ। उस समय फ्रांसीसियों का मुख्य कार्यालय पांडिचेरी में था और मसुलीपट्टनम, कारिकल, माही, सूरत तथा चंद्रनगर में उनके उपकार्यालय थे। इसी प्रकार अंग्रेजों की मुख्य बस्तियाँ मद्रास, बंबई और कलकत्ता में थीं तथा अनेक उपकार्यालय थे।
प्रथम कर्नाटक युद्ध (1746-48 ई.)
पहला कर्नाटक युद्ध आस्ट्रियाई उत्तराधिकार के युद्ध का नतीजा था और यह उसी का विस्तारमात्र था। बार्नेट के अधीन अंग्रेजी नौसेना ने कुछ फ्रांसीसी जलपोतों पर कब्जा कर लिया। डूप्ले, जो 1741 ई. से पांडिचेरी का फ्रांसीसी गवर्नर जनरल था, ने मारीशस स्थित फ्रांसीसी गवर्नर ला बूर्डोने की सहयता से मद्रास को जल और जल दोनों ओर से घेर लिया। 21 सितंबर को मद्रास ने आत्म-समर्पण कर दिया। डुप्ले फोर्ट सेंट डेविड किले को जीत नहीं पाया जो पांडिचेरी से मात्र 18 मील दूर था। इस बीच एक अंग्रेजी स्क्वाड्रन रीयल एडमिरल बोस्कावे ने पांडिचेरी को जीतने का असफल प्रयास किया।
सेंट टोमे का युद्ध
सेंट टोमे का युद्ध फ्रांसीसी सेना और कर्नाटक के नवाब अनवरूद्दीन के नेतृत्व में भारतीय सेना के बीच लड़ा गया। जब फ्रांसीसियों ने मद्रास को जीत लिया तो अंग्रेजों ने कर्नाटक के नवाब अनवरूद्दीन से संरक्षण और सहायता की माँग की। इस सिलसिले में नवाब ने फ्रांसीसी गर्वनर डुप्ले से मद्रास का घेरा उठा लेने का आग्रह किया। डुप्ले ने नवाब को मद्रास देने का लालच दिया, लेकिन बाद में अपनी बात से मुकर गया। फलतः नवाब ने अपनी सेना के बल पर अपनी बात मनवाने का प्रयास किया।
कैप्टन पैराडाइज के अधीन एक छोटी-सी फ्रांसीसी सेना ने महफूज खाँ के नेतृत्ववाली भारतीय सेना को अडयार नदी के निकट सेंट टोमे के स्थान पर हरा दिया। इस लड़ाई से यूरोपवासियों के सामने एक बात स्पष्ट हो गई कि छोटी-सी अनुशासित यूरोपीय सेना भी काफी बड़ी भारतीय सेना को आसानी से हरा सकती है।
पहली बार मद्रास पर फ्रांसीसियों के अधिकार स्थापित करने में एडमिरल ला बूर्डोने के सैनिक बेड़े का बड़ा हाथ था। यह बेड़ा मारीशस से आया था। एडमिरल ला बूर्डोन ने फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले से परामर्श किये बिना अंग्रेजों से एक संघि कर ली, जिसके अनुसार उसने घूस लेकर मद्रास अंग्रेजों को लौटा दिया। किंतु डुप्ले किसी भी कीमत पर मद्रास का कब्जा नहीं छोड़ना चाहता था।
एडमिरल ला बूर्डोने भारत में अपने काम को पूरा कर माॅरीशस लौट गया। डुप्ले ने सितंबर, 1746 ई. में मद्रास पर पुनः आक्रमण किया और पहले की तरह इस बार भी आसानी से मद्रास पर कब्जा कर लिया। अंग्रेज कैदियों को पांडिचेरी ले जाया गया और वहाँ उन्हें बंदी बनाकर रखा गया।
इस विजय के बाद फ्रांसीसियों ने सेंट डेविड किले पर आक्रमण किया। यह पांडिचेरी के दक्षिण में स्थित था और अंग्रेजों के नियंत्रण में था। सेंट डेविड किले पर अठारह महीने तक फ्रांसीसियों का अधिकार बना रहा। यह अधिकार 1848 ई. में यूरोप में हुई एक्स-ला-शैपेल की संधि के बाद ही समाप्त हो सका।
एक्स-ला-शैपल की संधि (1748 ई.) से यूरोप में युद्ध बंद हो गया, तो कर्नाटक का प्रथम युद्ध भी समाप्त हो गया। दोनों कंपनियों ने एक-दूसरे के जीते हुए क्षेत्रों को वापस कर दिया जिससे मद्रास फिर अंग्रेजों को मिल गया। इस प्रथम चरण में कोई निर्णयक फैसला नहीं हो पाया, लेकिन फ्रांसीसी शक्ति का प्रभुत्व दक्षिण के भारतीय राज्यों पर जम गया और भारतीय नरेश अपनी राजनीतिक समस्याओं के समाधान के लिए फ्रांसीसी सहायता प्राप्त करने को उत्सुक हो गये।
यद्यपि अंग्रेज पांडिचेरी को नहीं जीत पाये, किंतु युद्ध में नौसेना का महत्त्व स्पष्ट हो गया। इसके अलावा, भारतीय राजनीतिक दुर्बलता और खोखलेपन का ज्ञान फ्रांसीसियों और अंग्रेजों दोनों को हो गया। इसलिए दोनों में भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप कर अपना-अपना राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षा अधिकाधिक बलवती हो गई।
द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1749-54 ई.)
प्रथम कर्नाटक युद्ध के विपरीत द्वितीय कर्नाटक युद्ध में यूरोपीय युद्ध की कोई भूमिका नहीं थी। इसके लिए भारतीय परिस्थितियाँ ही उत्तरदायी थीं। भारत में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के हितों को लेकर ही यह युद्ध हुआ। यह युद्ध भारत में फ्रांसीसी और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के जीवन-मरण से संबद्ध था।
कर्नाटक और हैदराबाद में उत्तराधिकार का संघर्ष
कर्नाटक के प्रथम युद्ध से डुप्ले की राजनैतिक पिपासा जाग उठी और उसने फ्रांसीसी राजनैतिक प्रभाव के विस्तार के लिए भारतीय राजाओं के परस्पर झगड़ों में हस्तक्षेप कर लाभ उठाने की योजना बनाई। यह सुअवसर हैदराबाद तथा कर्नाटक के विवादास्पद उत्तराधिकारों के कारण शीघ्र प्राप्त हो गया।
कर्नाटक का राज्य हैदराबाद के निजाम के अधीन था। प्रथम कर्नाटक युद्ध के पहले 1740 ई. में मराठों ने कर्नाटक पर आक्रमण कर नवाब दोस्तअली को मार डाला था और उसके दामाद चंदासाहब को बंदी बनाकर सतारा ले गये थे। 1743 ई. में निजाम ने कर्नाटक में विश्वस्त अधिकारी अनवरुद्दीन खाँ को कर्नाटक का नवाब बनाया था।
निजाम आसफजाह की 21 मई, 1748 ई. को मृत्यु हो गई और उसका पुत्र नासिरजंग (1748-50 ई.) उसका उत्तराधिकरी बना। निजाम के पोते मुजफ्फर जंग ने नासिरजंग के उत्तराधिकार को चुनौती दी। दूसरी ओर कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन को उसके बहनोई चंदासाहब ने उत्तराधिकार को लेकर चुनौती दिया। इस प्रकार मुजफ्फरजंग और चंदासाहब ने मिलकर क्रमशः हैदराबाद और कर्नाटक की गद्दी हासिल करने के लिए संघर्ष करने की योजना बनाई।
डुप्ले का हस्तक्षेप
डुप्ले ने इस राजनीतिक अनिश्चितता का लाभ उठाने के लिए मुजफ्फरजंग को दकन का सूबेदार और चंदासाहब को कर्नाटक का नवाब बनाने के लिए समर्थन देने की सोची और चंदासाहब और मुजफ्फरजंग के साथ गुप्त संधियाँ की।
मुजफ्फरजंग, चंदासाहब और फ्रांसीसी सेनाओं ने 1749 ई. के अगस्त में वैल्लौर के निकट अंबर के युद्ध में अनवरुद्दीन को हराकर मार डाला। उसके पुत्र मुहम्मदअली ने भागकर त्रिचनापल्ली में शरण ली। 1751 ई. में चंदासाहब भी कर्नाटक का नवाब बन गया। इस समय डुप्ले अपने राजनैतिक सफलता के चरर्मोत्कर्ष पर था।
अंग्रेजों को लगा कि मामला उनके हाथ से निकलता जा रहा है। फलतः अंग्रेजों को नासिरजंग तथा अनवरुद्दीन का समर्थन करना पड़ा।उन्होंने हैदराबाद के निजाम नासिरजंग से दोस्ती कायम की और उससे कर्नाटक में स्थित अपने दुश्मनों का सफाया करने तथा त्रिचनापल्ली में मुहम्मदअली को सहायता भेजने का अनुरोध किया। परंतु अपने दुश्मनों को दबाने के क्रम में दिसंबर 1750 ई. में नासिरजंग मारा गया। फ्रांसीसियों ने मुजफ्फरजंग को दकन का सूबेदार बना दिया। इसके बदले मुजफ्फरजंग ने अपने हितैषियों को बहुत-सा उपहार दिया।
डुप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिण के भाग में मुगल प्रदेशों का गवर्नर नियुक्त कर दिया। उत्तरी सरकारों के कुछ जिले भी फ्रांसीसियों को मिले। मुजफ्फरजंग की प्रार्थना पर एक फ्रांसीसी सेना भी बुसी के नेतृत्व में हैदराबाद में रख दी गई। डुप्ले जानता था कि हैदराबाद के दरबार में दबदबा बनाये रखने का यह आसान तरीका है और इस प्रकार वह संपूर्ण दकन पर अपना प्रभाव जमा सकता है।
अनवरुद्दीन के पुत्र मुहम्मदअली ने त्रिचनापल्ली में शरण ले रखी थी। फ्रांसीसी और चंदासाहब मिलकर भी त्रिचनापल्ली को नहीं जीत पाये। अंग्रेजों की स्थिति फ्रांसीसी विजय से डावाँडोल हो गई थी। क्लाइव, जो त्रिचनापल्ली में फ्रांसीसी घेरा को तोड़ने में असफल रहा, त्रिचनापल्ली पर दबाव करने के लिए छोटी-सी ब्रिटिश सेना, जिसमें 200 यूरोपीय और 300 भारतीय सैनिक थे, की सहायता से अर्काट को जीत लिया।
चंदासाहब ने 400 सैनिकों को भेजा, किंतु वे अर्काट को नहीं जीत सके। क्लाइव ने 53 दिन तक इस सेना का प्रतिरोध किया। इससे फ्रांसीसियों की प्रतिष्ठा को काफी ठेस पहुँची। 1751 ई. में मुजफ्फरजंग भी एक छोटी लड़ाई में मारा गया। 1752 ई. में लारेंस के नेतृत्व में एक अंग्रेजी सेना ने त्रिचनापल्ली को बचा लिया और उसका घेरा डालनेवाली फ्रांसीसी सेना ने आत्म-समर्पण कर दिया।
द्वितीय कर्नाटक युद्ध के अंत में 1754 ई. पांडिचेरी की संधि हुई। इस संधि के अनुसार अंग्रेजी और फ्रांसीसी कंपनियों ने एक-दूसरे के विजित भागों को लौटा दिया। हैदराबाद में बुसी के अधीन एक फ्रांसीसी सेना के रहने के लिए स्वीकृति मिल गई। संधि को दोनों कंपनियों के संबंधित सरकारों के अनुमोदन के बाद अंतिम रूप दिया जाना था।
त्रिचनापल्ली में फ्रांसीसी हार से डुप्ले का सत्यानाश हो गया। फ्रांसीसी कंपनी के निदेशकों ने डुप्ले को वापस बुला लिया क्योंकि इसमें धन की हानि अधिक हुई थी। पहली अगस्त 1754 ई. को डुप्ले के स्थान पर गोडेहू को भारत में फ्रांसीसी प्रदेशों का गवर्नर जनरल तथा डुप्ले का उत्तराधिकरी बनाकर भेजा गया। डुप्ले के विपरीत गोडेहू ने अंग्रेजों के साथ समझौते की नीति अपनाई और 1755 ई. में दोनों कंपनियों में अस्थायी संधि हो गई।
इस प्रकार झगड़े का दूसरा दौर भी अनिश्चित रहा। लेकिन इस यद्ध से यह स्पष्ट हो गया कि फ्रांसीसी और अंग्रेज दोनों ही अपने व्यापार की आड़ में भारत की राजनीति में अपने साम्राज्यवादी स्वार्थों की पूर्ति के लिए खुलकर खेलना चाहते थे। इस बार स्थल पर अंग्रेजी शक्ति की महत्ता सिद्ध हो गई और उनका प्रत्याशी मुहम्मदअली कर्नाटक का नवाब बन गया। इस युद्ध में फ्रांसीसियों को गहरा आघात लगा, फिर भी वे निराश नहीं हुए। उनकी स्थिति फिर भी अच्छी बनी रही।
हैदाराबाद में अभी भी फ्रांसीसी सेना तैनात थी और उन्होंने नये सूबेदार सालारजंग से और अधिक सुविधाएँ प्राप्त कर ली थीं। पांडिचेरी की संधि से अंग्रेजों को जो भूमि प्राप्त हुई थी उसकी वार्षिक आय केवल 1,00,000 रुपये थी, जबकि फ्रांसीसियों के पास अब भी 8,00,000 रुपये वार्षिक आयवाली भूमि थी। किंतु भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करके भारत में राज्य कौन करेगा, ये लगभग निश्चित हो गया।
तृतीय कर्नाटक युद्ध (1756-63 ई.)
तीसरा कर्नाटक युद्ध भी यूरोपीय संघर्ष का हिस्सा था। ब्रिटिश और फ्रांसीसी कंपनियों के बीच पांडिचेरी संधि स्थायी नहीं हो सकी। दोनों ही पक्ष एक दूसरे के विरुद्ध अप्रत्यक्ष रूप से गतिविधियाँ संचालित करते रहे। इसलिए यूरोप में 1756 ई. में जब सप्तवर्षीय युद्ध आरंभ हुआ और इंग्लैंड और फ्रांस इसमें एक-दूसरे के विरुद्ध युद्धरत हो गये, तो भारत में भी शांति भंग हो गई। इस बीच अंग्रेज बंगाल में सिराजुद्दौला को हराकर अपना अधिकार स्थापित कर चुके थे और उनका मनोबल बढ़ा हुआ था।
फ्रांसीसी सरकार ने अप्रैल, 1757 ई. को काउंट लाली को भारत भेजा, जो अप्रैल, 1758 ई. में भारत पहुँचा। दक्षिण भारत में अपने हितों की रक्षा करने के लिए जब तक काउंट लाली के नेतृत्व फ्रांसीसी सेना पहुँची, तब तक अंग्रेजी बेड़ा बंगाल से विजयी होकर वापस आ चुका था और फ्रांसीसियों का मुकाबला करने को तैयार था। काउंट लाली ने तेज गति से आक्रमण कर 2 जून 1758 ई.को फोर्ट सेंट डेविड पर अधिकार कर लिया।
इसी समय, हैदराबाद से बुसी उत्तरी भाग में स्थित अंग्रेजों के इलाकों पर आक्रमण कर रहा था। उसने इन सभी इलाकों पर अधिकार करने के साथ-साथ 24 जून 1758 ई. को विजयनगरम के किले पर भी अधिकार कर लिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण से अंग्रेज स्वाभाविक रूप से चिंतित हो गये। उन्हें लगा कि कहीं भारत से उनका अस्तित्व ही न समाप्त हो जाये। जेम्स मिल के अनुसार, ‘‘अगर दुश्मन के पास डुप्ले का नेतृत्व और संचालन होता तो इस बात की पूरी संभावना थी कि उनका अनुमान यथार्थ में परिवर्तित हो जाता।’’
लाली ने मद्रास का घेरा डाला, किंतु शक्तिशाली अंग्रेजी सेना के आ जाने के कारण उसे यह घेरा उठाना पड़ा। इसी समय लाली ने युद्ध में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए बुसी को हैदराबाद से बुला लिया जो उसकी सबसे बड़ी भूल सिद्ध हुई। इससे वहाँ फ्रांसीसियों की स्थिति कमजोर हो गई। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए अंग्रेजों ने बंगाल से अपनी सेना उत्तरी सरकार की ओर भेज दी। उन्होंने राजमुंदरी और मसुलीपट्टम पर अधिकार जमा लिया और निजाम सलाबत जंग के साथ संधि कर ली। पोकाक के नेतृत्व में अंग्रेजी बेड़े ने डआश के नेतृत्ववाली फ्रांसीसी बेड़े को तीन बार पराजित किया और उसे भारतीय समुद्र में वापस जाने पर बाध्य कर दिया।
वांडीवाश का युद्ध
तृतीय कर्नाटक युद्ध की निर्णायक लड़ाई वांडीवाश में 22 जनवरी, 1760 ई. को लड़ी गई। अंग्रेजी सेना ने सर आयरकूट के नेतृत्व में लाली के नेतृत्ववाली फ्रांसीसी सेना को बुरी तरह पराजित किया। बुसी को अंग्रेजी सेना ने कैद कर लिया। जनवरी, 1761 ई. में अपनी पूर्ण पराजय के बाद फ्रांसीसी पांडिचेरी लौट गये। 10 मई, 1760 ई. को अंग्रेजों ने पांडिचेरी का भी घेरा डाल दिया और आठ माह बाद 16 जनवरी, 1761 ई. को फ्रांसीसियों से पांडिचेरी को छीन लिया।
विजयी सेना ने शहर को पूरी तरह बरबाद कर दिया और इसकी किलेबंदी को ध्वस्त कर दिया। एक समकालीन विवरण के अनुसार ‘‘एक समय फले-फूले और भरे-पूरे इस शहर में एक भी छत सही सलामत नहीं रह गई।” इसके पश्चात् मलाबार तट पर स्थित फ्रांसीसी अड्डे जिंजी तथा माही पर भी अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
1763 ई. में पेरिस संधि पर हस्ताक्षर से युद्ध समाप्त हो गया। अंग्रेजों ने चंद्रनगर को छोड़कर शेष अन्य प्रदेश, जो फ्रांसीसियों के अधिकार में 1749 ई. तक थे, वापस कर दिये और ये क्षेत्र भारत के स्वतंत्र होने तक इनके पास बने रहे। इस प्रकार तीसरा एंग्लो-फ्रेंच संघर्ष निर्णायक सिद्ध हुआ, जिससे आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिद्वंद्विता का नाटक खत्म हो गया और भारत से फ्रांसीसियों का पत्ता साफ हो गया।
तृतीय कर्नाटक यद्ध के बाद भारत में अंग्रेजों का वर्चस्व कायम हो गया। उनके यूरोपीय प्रतिद्वंद्वी समाप्त हो गये, अब उन्हें केवल भारतीय राजाओं को कुचलना था। दक्षिण भारत में मैसूर राज्य और मराठे अंग्रेजों की राह के सबसे बड़े रोड़े थे। अठारहवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में ईस्ट इंडिया कंपनी का मुख्य सरदर्द यही दोनों शक्तियाँ थीं।
फ्रांसीसी पराजय के कारण
सवाल यह उठता है कि भारत में फ्रांसीसी असफलता के क्या कारण थे? क्या फ्रांसीसी सरकार द्वारा डुप्ले को वापस बुलाना एक भूल थी? संभवतः भारत से डुप्ले की वापसी के बाद ही भारत में फ्रांसीसियों का पतन आरंभ हुआ या फ्रांसीसी नौसेना का कमजोर होना प्रमुख कारण था। वस्तुतः फ्रांसीसियों के पास स्थायी नौसेना नहीं थी, जबकि अंग्रेजों के पास एक मजबूत और स्थाई नौसेना थी। जब मारीशस से फ्रांसीसी नौसेना भारत में अपने सहकर्मियों की सहायता के लिए आई तो उसने समस्याएँ ही पैदा की।
इसके अलावा, कुछ अन्य कारण भी थे जिसके कारण अंग्रेजों की स्थिति मजबूत हो गई। इसमें अंग्रेजों का बंगाल पर अधिकार होना प्रमुख कारण था। बंगाल-विजय से अंग्रेजों को एक आधार प्राप्त हुआ, जहाँ से वे लगातार रकम और सैनिक मद्रास भेज सकते थे और इधर-उधर आक्रमण कर फ्रांसीसियों का ध्यान बँटा सकते थे। ऐसा उन्होंने उत्तरी सरकार पर आक्रमण करके किया।
फ्रांसीसियों की पराजय के कई अन्य कारण थे। एक, फ्रांसीसी अपनी महत्त्वाकांक्षा के कारण यूरोप में अपनी प्राकतिक सीमा इटली, बेल्जियम तथा जर्मनी तक बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे, और भारत के प्रति गंभीर नहीं थे। दूसरे, दोनों कंपनियों में गठन तथा संरक्षण की दृष्टि से काफी अंतर था। फ्रांसीसी कंपनी पूरी तरह राज्य पर निर्भर थी, जबकि ब्रिटिश कंपनी व्यक्तिगत स्तर पर कार्य कर रही थी। डुप्ले की वापसी, ला बोर्दने तथा डंडास की भूलें भी फ्रांस की असफलता के लिए उत्तरदायी थे। इसके अलावा, डुप्ले की नीति और फ्रांस की सरकार के बीच समन्वय का अभाव तथा हैदराबाद से बुसी का वापस बुलाया जाना फ्रांसीसियों के लिए घातक साबित हुए।
डुप्ले की उपलब्धियाँ
डुप्ले का पूरा नाम जोसेफ फ्रैक्वाय डुप्ले था। वह फ्रांसीसी ईस्ट कंपनी की व्यापारिक सेवा में भारत आया और बाद को 1731 ई. में चंद्रनगर का गवर्नर बन गया। 1741 ई. में वह पांडिचेरी का गवर्नर-जनरल बनाया गया और 1754 ई. तक इस पद पर रहा, जहाँ से वह वापस बुला लिया गया। वह योद्धा न होते हुए भी एक कुशल राजनीतिज्ञ और राजनेता था। भारतीय इतिहास में हुए कर्नाटक युद्धों में डुप्ले ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इन युद्धों के माध्यम से डुप्ले ने अपनी एक अमिट छाप भारतीय इतिहास में छोड़ी है।
डुप्ले ने अपनी दूरदृष्टि से तत्कालीन दक्षिण भारत की राजनीतिक व्यवस्था की कमजोरियों को समझा और इस बात का अनुभव किया कि एक छोटी-सी यूरोपियन सेना लंबी दूरी की मार कर सकनेवाली तोपों, जल्दी गोली दागनेवाली पैदल सिपाहियों की बंदूकों और प्रशिक्षित सैनिकों की सहायता से दक्षिण भारत की राजनीति में निर्णायक भूमिका अदा कर सकती है।
इस समय फ्रांस और इंग्लैंड के बीच युद्ध चल रहा था। डुप्ले का उद्देश्य मद्रास पर कब्जा करके ब्रिटिश शक्ति को पंगु बना देना था। इसी उद्देश्य से उसने फ्रांसीसी नौ सेनापति ला बोद्रने को अपना जहाजी बेड़ा सशक्त करने के लिए धन दिया और सितंबर, 1746 ई. में मद्रास अंग्रेजों से छीन लिया। ला बोद्रने घूस लेकर मद्रास अंग्रेजों को वापस कर देना चाहता था। लेकिन डुप्ले ने बड़ी चतुराई से ऐसा नहीं होने दिया। बरसात आने पर ला बोद्रने के बेड़े ने जब मद्रास से हटकर आयल्स आफ फ्रांस में अड्डा जमाया, तो डुप्ले ने स्वयं जाकर मद्रास पर अधिकार किया।
डुप्ले की सफलताएँ
डुप्ले अंग्रेजों के निकटवर्ती सेट डेविड के किले को जीतना चाहता था, लेकिन विफल हो गया। किंतु अन्य स्थानों पर उसे उल्लेखनीय सफलताएँ मिली। कर्नाटक के नावब अनवरुद्दीन ने एक बड़ी सेना मद्रास पर कब्जा करने के लिए भेजी, लेकिन उसे दो बार फ्रांसीसी सेना ने परास्त किया गया। यूरोप में फ्रांस और इंग्लैंड के बीच 1748 ई. में एक्स-ला-चैपल की संधि हुई, जिसके अनुसार मद्रास अंग्रेजों को वापस कर दिया गया।
इस प्रकार डुप्ले ने जो श्रम किया, वह व्यर्थ गया। कुछ भी हो, डुप्ले ने यह सिद्ध कर दिया कि यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित और आधुनिक शास्त्रों से लैस छोटी-सी फ्रांसीसी भारतीय सेना इस देश की विशाल भारतीय सेनाओं की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ है।
डुप्ले ने अपने इस अनुभव का प्रयोग करके दक्षिण भारत की रियासतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया। 1748 ई. में हैदराबाद के निजाम के मरने पर जब उत्तराधिकार का झगड़ा हुआ तो डुप्ले ने निजाम के पुत्र नासिरजंग के विरुद्ध उसके पोते मुजफ्फरजंग का पक्ष लिया। इसी रीति से डुप्ले ने कर्नाटक में नवाब अनवरुद्दीन के विरुद्ध चंदासाहब का समर्थन किया। इसमें आरंभ में डुप्ले को कुछ सफलता भी मिली और 1749 ई. में अंबूर की लड़ाई में अनवरुद्दीन मारा गया। उसका पुत्र मुहम्मदअली भागकर त्रिचनापल्ली पहुँच गया, जहाँ चंदासाहब और फ्रांसीसियों की सेना ने उसे घेर लिया।
दूसरी ओर हैदराबाद में 1750 ई. में नासिरजंग मारा गया और फ्रांसीसी जनरल बुस्सी के संरक्षण में मुजफ्फरजंग निजाम बन गया। नये निजाम ने डुप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिण में समस्त मुगल प्रदेश का निजाम मान लिया। नये निजाम ने पांडिचेरी के आसपास के क्षेत्र तथा उड़ीसा के तटीय क्षेत्र और मसुलीपट्टम भी फ्रांसीसियों को दे दिये। इस प्रकार डुप्ले ने भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना के स्वप्न को साकार होते देखा।
डुप्ले की विफलताएँ
लेकिन बाद में डुप्ले का पासा पलटने लगा। वह जिन फ्रांसीसियों जनरलों पर निर्भर था, वे बड़े अयोग्य साबित हुए, फलतः उसकी योजनाएँ विफल होने लगीं। फ्रांसीसी सेनापति त्रिचनापल्ली पर कब्जा नहीं कर सके। फ्रांसीसियों के द्वारा त्रिचनापल्ली की घेराबंदी इतने लंबे समय तक चली कि अंग्रेजी सेना कर्नाटक के शहजादे की मदद के लिए आ गई। दूसरी ओर राबर्ट क्लाइब के नेतृत्व में एक अंग्रेजी सेना ने कर्नाटक की राजधानी अर्काट के किले को घेर लिया। यह घेरा 50 दिन तक चला। कुछ और अंग्रेजी सेना आ जाने पर क्लाइब ने चंदासाहब का पराजित करके मार डाला।
इसी बीच नया निजाम मुजफ्फरजंग भी मारा गया। उसकी जगह सलारजंग गद्दी पर बैठा। उसने भी फ्रांसीसियों से मैत्री कायम रखी। डुप्ले त्रिचनापल्ली पर कब्जा करने का बराबर प्रयत्न करता रहा। जब यह सब कुछ हो रहा था, फ्रांस की सरकार ने डुप्ले की नीतियों का महत्त्व नहीं समझा और भारत में होनेवाली इन लड़ाइयों के भारी खर्चे से वह परेशान हो उठी। फ्रांसीसी सरकार ने डुप्ले का कार्य पूरा होने के पहले ही उसे 1754 ई. में वापस बुला लिया और उसके स्थान पर 1 अगस्त, 1754 ई. को जनरल गोडेहू को नया गवर्नर-जनरल बना दिया।
गोडेहू ने आते ही 1755 ई. में अंग्रेजों से संधि कर ली। इस संधि के अनुसार तय हुआ कि अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों ही भारतीय रियासतों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और जितना-जितना क्षेत्र अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के पास है, वह उनके पास ही बना रहेगा।
इस प्रकार से फ्रांसीसी सरकार ने ही डुप्ले की नीति को विफल कर दिया। यह अवश्य हुआ कि हैदराबाद के निजाम के दरबार में फ्रांसीसियों का प्रभाव बना रहा और वहाँ जनरल बुसी के नेतृत्व में फ्रांसीसी भारतीय फौज तैनात रही। निराश डुप्ले की मृत्यु फ्रांस में 1763 ई. में गरीबी की दशा में हुई।
डुप्ले भले ही असफल रहा, पर यह मानना पड़ेगा कि उसने जिस राजनीतिक दूरदृष्टि का परिचय दिया, उससे अंग्रेजों ने बाद में स्वयं लाभ उठाया। यद्यपि फ्रांसीसी भारतीय साम्राज्य की स्थापना करने का डुप्ले का स्वप्न साकार नहीं हुआ, तथापि ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की स्थापना मुख्यतः डुप्ले की दूरदृष्टि के ही आधार पर हुई।
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