इल्तुतमिश (1211-1236)
शम्सुद्दीन इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में गुलाम वंश का एक प्रमुख शासक था। ‘इल्तुतमिश’ शब्द का अर्थ है ‘साम्राज्य का रक्षक’, जो उसके शासनकाल की विशेषताओं को प्रतिबिंबित करता है। वह दिल्ली के उन सुल्तानों में से एक था, जिसने दिल्ली सल्तनत की नींव को मजबूत किया और उसे एक स्थायी राजनीतिक इकाई के रूप में स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इल्तुतमिश इल्बारी कबीले का तुर्क था और उसका पिता इस्लाम खान अपने कबीले का प्रधान था। प्रारंभ से ही उसमें बुद्धिमत्ता एवं चतुराई के लक्षण प्रकट होते थे, जो उसके जीवन की विपरीत परिस्थितियों में भी उसके साथ बने रहे।
इल्तुतमिश का शासनकाल (1211-1236 ई.) दिल्ली सल्तनत के इतिहास में एक संक्रमण काल था, जहाँ आंतरिक विद्रोह, बाहरी खतरे और प्रशासनिक अस्थिरता ने सल्तनत को संकट में डाल दिया था। फिर भी, इल्तुतमिश की दूरदर्शिता, सैन्य कौशल और प्रशासनिक कुशलता ने सल्तनत को विघटन से बचाया और इसे एक मजबूत आधार प्रदान किया। उसके शासन ने न केवल मुस्लिम शासन को भारत में जड़ें जमाने का अवसर दिया, बल्कि सांस्कृतिक और आर्थिक सुधारों के माध्यम से एक नई व्यवस्था की नींव रखी। इतिहासकारों द्वारा इल्तुतमिश को गुलाम वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है, क्योंकि कुतुबुद्दीन ऐबक के अल्पकालिक शासन के बाद ही सल्तनत को स्थिरता प्रदान करने का श्रेय मुख्य रूप से इल्तुतमिश को है।
प्रारंभिक जीवन
इल्तुतमिश का प्रारंभिक जीवन विपत्तियों और संघर्षों से भरा हुआ था, जो उसके चरित्र की मजबूती का प्रमाण है। इल्बारी तुर्क कबीले में जन्मे इल्तुतमिश को उसके भाइयों ने ईर्ष्या वश बेच दिया और वह बुखारा के एक व्यापारी के हाथ पड़ गया। इस व्यापारी से जमालुद्दीन नामक व्यक्ति ने इल्तुतमिश को खरीद लिया। विपरीत परिस्थितियों ने इल्तुतमिश के गुणों को नष्ट नहीं किया; उल्टे, उन्होंने उसके व्यक्तित्व को और अधिक निखारा। जमालुद्दीन के अधीन इल्तुतमिश ने सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त किया, जो उसके भविष्य के लिए आधारभूत सिद्ध हुआ। इल्तुतमिश की बुद्धिमत्ता और साहस ने दिल्ली के तत्कालीन राजप्रतिनिधि कुतुबुद्दीन ऐबक का ध्यान आकृष्ट किया। ऐबक ने अधिक मूल्य देकर इल्तुतमिश को खरीद लिया और अपनी योग्यता के बल पर इल्तुतमिश धीरे-धीरे अपना दर्जा बढ़ाता गया। अंततः उसे बदायूँ का शासक बना दिया गया। कुतुबुद्दीन ऐबक उसे अपना पुत्र मानता था और उसने अपनी एक कन्या का विवाह इल्तुतमिश के साथ कर दिया। खोखरों के विरुद्ध उसकी कार्य-कुशलता से प्रभावित होकर मुहम्मद गोरी ने उसे ‘अमीरुल उमरा’ नामक महत्त्वपूर्ण पद प्रदान किया था और सुल्तान के आदेश द्वारा उसे दासत्व से मुक्त कर दिया गया था। इस प्रकार गुलामी की बेड़ियों से मुक्त होकर इल्तुतमिश ने सल्तनत की सेवा में प्रवेश किया, जहाँ उसकी प्रतिभा को पूर्ण रूप से पहचान मिली। उसके प्रारंभिक संघर्षों ने उसे एक मजबूत और दूरदर्शी नेता के रूप में ढाला, जो बाद में दिल्ली सल्तनत की रक्षा का प्रतीक बना।
सिंहासनारोहण के बाद आंतरिक और बाहरी चुनौतियाँ
जिस समय इल्तुतमिश दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हुआ (1211 ई.), उस समय दिल्ली सल्तनत की स्थिति बड़ी शोचनीय थी। कुतुबुद्दीन ऐबक की असामयिक मृत्यु के बाद सत्ता की शून्यता ने कई संकटों को जन्म दिया था। इल्तुतमिश के समक्ष निम्नलिखित प्रमुख समस्याएँ उपस्थित थीं, जो सल्तनत के अस्तित्व को ही खतरे में डाल रही थीं।
तुर्की अमीरों की समस्या: सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। दिल्ली के कुछ अमीर इल्तुतमिश के शासन के विरुद्ध अपना क्रोध प्रकट कर उसके कष्टों को और बढ़ा रहे थे। इल्तुतमिश को सर्वप्रथम ‘कुत्बी’ अर्थात् कुतुबुद्दीन ऐबक के समय के अमीरों तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद गोरी के समय के अमीरों के विद्रोह का सामना करना पड़ा, जो इल्तुतमिश को सिंहासन से हटाकर स्वयं गद्दी पर बैठने के लिए तत्पर थे। ये अमीर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के कारण सल्तनत को विखंडित करने पर तुले हुए थे, जिससे आंतरिक स्थिरता एक बड़ा प्रश्न बन गई थी।
प्रमुख प्रतिद्वंद्वी: मुहम्मद गोरी के दो दास ताजुद्दीन यल्दौज तथा नासिरुद्दीन कुबाचा इल्तुतमिश के दो प्रबल प्रतिद्वंद्वी थे। कुबाचा सिंध व मुल्तान का गवर्नर था, जबकि ताजुद्दीन एल्दौज गजनी का सूबेदार। नासिरुद्दीन कुबाचा ने सिंध में स्वतंत्रता स्थापित कर ली और पंजाब पर भी अपना आधिपत्य जमाना चाहता था। ताजुद्दीन एल्दौज, जो गजनी पर अधिकार किए हुए था, अब भी गोरी के भारतीय प्रदेशों पर प्रभुता का अपना दावा कर रहा था। बिहार और बंगाल पर अलीमर्दान खाँ का अधिकार था। ये सभी प्रांतीय गवर्नर इल्तुतमिश को हटाकर दिल्ली पर अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहते थे, जिससे साम्राज्य के विभाजन का खतरा उत्पन्न हो गया था।
हिंदू राजाओं और सरदारों का असंतोष: हिंदू राजा और सरदार स्वतंत्रता खोकर असंतोष से उद्विग्न थे। आरामशाह के कमजोर शासनकाल में साम्राज्य में फैली अराजकता का लाभ उठाकर चौहान, चंदेल तथा प्रतिहार राजपूत राज्य स्वतंत्र हो गए थे और वे मुस्लिम साम्राज्य को समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील थे। कुतुबुद्दीन ऐबक ने जिस साम्राज्य का निर्माण किया था, उसे वह अपने अल्प शासनकाल में सुव्यवस्थित नहीं कर पाया था। ऐसे अव्यवस्थित और दुर्बल साम्राज्य को स्थायी बनाना भी इल्तुतमिश के लिए एक जटिल चुनौती थी। एक खिलजी सरदार अलीमर्दान ने, जो 1206 ई. में इख्तियारुद्दीन की मृत्यु के पश्चात् कुतुबुद्दीन द्वारा बंगाल का शासक नियुक्त हुआ था, उसके (कुतुबुद्दीन के) मरने पर दिल्ली के प्रति अपनी राजभक्ति को ताक पर रख सुल्तान अलाउद्दीन की उपाधि धारण कर ली थी। इन समस्याओं के अतिरिक्त, इल्तुतमिश के समक्ष उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा की समस्या तथा खोखर जाति के विद्रोह की समस्या और भी अधिक प्रबल थी। मंगोल आक्रमणकारी चंगेज खान के आक्रमणों का भय भी निरंतर बढ़ता जा रहा था।
उपलब्धियाँ : संकटों का समाधान और सल्तनत का विस्तार
इल्तुतमिश बहुत वीर और धैर्यवान सुल्तान था। वह विकट परिस्थितियों में भी हार मानकर बैठ जाने वाला नहीं था। वह शीघ्र ही दृढ़ता एवं तत्परता के साथ इस संकटापन्न स्थिति को निश्चयात्मक रूप से सुलझा देने के लिए जुट गया और अपनी समस्याओं का समाधान किया। उसके शासनकाल की उपलब्धियाँ न केवल सैन्य विजयों तक सीमित थीं, बल्कि प्रशासनिक और कूटनीतिक कौशल से भी सल्तनत को मजबूत बनाने में सहायक सिद्ध हुईं।
तुर्की अमीरों का दमन और चालीसा का गठन: तुर्की अमीर सरदार उसे एक शासक के रूप में स्वीकार करने के लिए राजी नहीं थे। इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात् कुतुबुद्दीन ऐबक के समय के सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद गोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया, जिससे प्रतिद्वंद्वियों के महत्त्वाकांक्षा से भरे मनसूबे विफल हो गए। इल्तुतमिश ने विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने स्वामिभक्त और विश्वासपात्र गुलामों में से चालीस योग्य एवं बुद्धिमान गुलामों का एक संगठित दल या गुट बनाया, जो इतिहास में ‘तुर्कान-ए-चिहलगानी’ या चालीसा के नाम से प्रसिद्ध है। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है। उसने प्रशासन के सभी महत्त्वपूर्ण पदों पर इन्हीं सरदारों को नियुक्त किया। यह संगठन सल्तनत की आंतरिक स्थिरता का आधार बना और इल्तुतमिश को विद्रोहों से निपटने में सहायता प्रदान किया।
प्रमुख प्रतिद्वंद्वियों पर विजय: 1215 से 1217 ई. के बीच इल्तुतमिश को अपने दोनों प्रबल प्रतिद्वंद्वियों— एल्दौज और नासिरुद्दीन कुबाचा से संघर्ष करना पड़ा। इल्तुतमिश का प्रबल प्रतिद्वंद्वी एल्दौज गजनी का शासक था। 1215 ई. में ख्वारिज्म के शाह ने उसे गजनी से भागने पर विवश कर दिया। वह भारत आया और अवसर पाकर पश्चिमी पंजाब पर अपना अधिकार जमा लिया। इल्तुतमिश को यह सहन नहीं हुआ और इल्तुतमिश ने 1215 ई. में एल्दौज को तराइन के मैदान में निर्णायक रूप से पराजित किया। अब दिल्ली की गद्दी पर इल्तुतमिश का अधिकार मजबूत हो गया। इसके बाद गजनी के किसी शासक ने दिल्ली की सत्ता पर अपना दावा पेश नहीं किया। एल्दौज को बंदी बनाकर बदायूँ के दुर्ग में रखा, जहाँ उसकी मृत्यु हो गई।
नासिरुद्दीन कुबाचा ने पंजाब तथा उसके आसपास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लाहौर तक बढ़ आया था। इल्तुतमिश ने 1217 ई. में कुबाचा पर आक्रमण किया और मंसूरा नामक स्थान पर हुए युद्ध में कुबाचा को पराजित कर लाहौर छीन लिया। किंतु इसी समय मंगोलों के आक्रमण के भय से कुबाचा की पूरी तरह दमन नहीं किया जा सका और सिंध, मुल्तान, उच्छ तथा सिंध-सागर दोआब पर कुबाचा का नियंत्रण बना रहा। कालांतर में कुबाचा ने ख्वारिज्म के शाह को पराजित कर अपनी शक्ति में वृद्धि कर ली। बाद में, 1228 ई. में इल्तुतमिश ने उच्छ पर अधिकार कर कुबाचा को पराजित किया। कुबाचा ने सिंधु नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली और सिंध दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। इन विजयों ने सल्तनत की सीमाओं को मजबूत किया और इल्तुतमिश को एक कुशल योद्धा के रूप में स्थापित किया।
मंगोल आक्रमण से सल्तनत की रक्षा: इल्तुतमिश के शासनकाल में मंगोल आक्रमणकारी सर्वप्रथम अपने प्रसिद्ध नेता चंगेज खान के नेतृत्व में ख्वारिज्म शाह के पुत्र जलालुद्दीन माँगबर्नी का पीछा करते हुए लगभग 1220-21 ई. में सिंध तक आ गए। चंगेज खान मध्य एशिया का क्रूर और बर्बर मंगोल नेता था। उसने विद्युत-वेग से मध्य एवं पश्चिम एशिया के देशों को रौंद डाला और जब उसने ख्वारिज्म अथवा खीवा के अंतिम शाह जलालुद्दीन माँगबर्नी पर आक्रमण किया, तो जलालुद्दीन माँगबर्नी पंजाब भाग आया और इल्तुतमिश से शरण माँगी। चंगेज खान ने इल्तुतमिश को संदेश भेजा कि वह माँगबर्नी की मदद न करें। दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने मंगोल जैसे शक्तिशाली आक्रमणकारी से बचने के लिए और चंगेज खान की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए जलालुद्दीन माँगबर्नी की कोई सहायता नहीं की और उसे अपने यहाँ शरण देने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। माँगबर्नी खोखरों से मिल गया और मुल्तान के नासिरुद्दीन कुबाचा को पराजित कर सिंध एवं उत्तरी गुजरात को लूटा। 1228 ई. में माँगबर्नी के फारस वापस जाने पर मंगोल आक्रमण का भय टल गया। अंत में, चंगेज खान भारत पर आक्रमण किए बिना ही वापस लौट गया। इस प्रकार इल्तुतमिश ने अपनी दूरदर्शिता के कारण मंगोल आक्रमण जैसे भयानक संकट से भारत को बचा लिया। परंतु अगले युगों में दिल्ली के सुल्तान मंगोल आक्रमणों के भय से व्याकुल रहे। इस कूटनीतिक सफलता ने सल्तनत को एक महत्त्वपूर्ण सांस दी और इल्तुतमिश की बुद्धिमत्ता को प्रमाणित किया।
बंगाल और पूर्वी क्षेत्रों का पुनर्संगठित: कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद अलीमर्दान ने बंगाल में अपने को स्वतंत्र सुल्तान घोषित कर लिया तथा ‘अलाउद्दीन’ की उपाधि ग्रहण की। दो वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद उसका पुत्र हिसामुद्दीन इवाज उत्तराधिकारी बना। उसने बिहार, कामरूप, तिरहुत एवं जाजनगर आदि पर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ‘गयासुद्दीन आजम’ की उपाधि धारण की तथा अपने नाम के सिक्के चलाए और ‘खुतबा’ पढ़वाया। मंगोल आक्रमण का खतरा टल जाने के बाद इल्तुतमिश ने पूर्व की ओर ध्यान दिया। 1225 ई. में इल्तुतमिश ने बंगाल में स्वतंत्र शासक हिसामुद्दीन इवाज के विरुद्ध अभियान छेड़ा। इवाज ने बिना युद्ध के ही उसकी अधीनता में शासन करना स्वीकार कर लिया, किंतु इल्तुतमिश के दिल्ली लौटते ही उसने पुनः विद्रोह कर दिया। इस बार इल्तुतमिश के पुत्र नसीरुद्दीन महमूद ने 1226 ई. में लगभग उसे पराजित कर लखनौती पर अधिकार कर लिया। दो वर्ष के उपरांत नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु हो गई और मलिक इख्तियारुद्दीन बल्का खिलजी ने बंगाल की गद्दी पर अधिकार कर लिया। 1230-1231 ई. के जाड़े में स्वयं इल्तुतमिश ने शाह बल्का के विरुद्ध अभियान किया। इस संघर्ष में बल्का खिलजी (खलजी मलिक) मारा गया और एक बार फिर बंगाल दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया। इस पुनर्संगठित ने पूर्वी सीमाओं को सुरक्षित किया और सल्तनत की आर्थिक शक्ति को बढ़ाया।
राजपूत राज्यों और अन्य क्षेत्रों पर विजय: इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम 1226 ई. में रणथंभौर को जीता तथा 1227 ई. में परमारों की राजधानी मंदौर पर अधिकार कर लिया। ग्वालियर को, जो कुतुबुद्दीन की मृत्यु के पश्चात् पुनः स्वतंत्र हो गया था, 1232 ई. के अंत में सुल्तान ने वहाँ के हिंदू शासक मंगलदेव से पुनः छीन लिया। 1233 ई. में चंदेलों के विरुद्ध अभियान किया और कालिंजर, नागौर, बयाना, अजमेर, चित्तौड़ और गुजरात आदि क्षेत्रों की विजय की। सुल्तान ने 1234-35 ई. में मालवा के राज्य पर आक्रमण कर भिलसा के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद, उसने उज्जैन पर आक्रमण कर विख्यात विक्रमादित्य की एक प्रतिमा दिल्ली लाया। उसने नागदा के गुहिलोतों और गुजरात चालुक्यों पर भी आक्रमण किया, किंतु सफलता नहीं मिली। इल्तुतमिश ने दिल्ली राज्य के विभिन्न भागों एवं बदायूँ, अवध (पिथू विद्रोह का दमन कर), बनारस तथा शिवालिक आदि उसके अधीन राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया। इन विजयों ने सल्तनत को उत्तर भारत के अधिकांश भागों में विस्तृत कर दिया और हिंदू राज्यों के असंतोष को कम करने में सहायक सिद्ध हुईं।
उत्तराधिकार का एक अभूतपूर्व निर्णय
अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिंतित था। उसके सबसे बड़े पुत्र नसीरुद्दीन महमूद की, जो अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल पर शासन कर रहा था, अप्रैल 1229 ई. में मृत्यु हो गई। सुल्तान के शेष जीवित पुत्र शासन-कार्य के योग्य नहीं थे। इसलिए इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु-शैया पर अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और इसके लिए अपने सरदारों और उलामाओं को भी राजी कर लिया। यद्यपि स्त्रियों ने प्राचीन मिस्र और ईरान में रानियों के रूप में शासन किया था और शासक राजकुमारों के छोटे होने के कारण राज्य का कारोबार सँभाला था, फिर भी इस प्रकार पुत्रों के होते हुए सिंहासन के लिए स्त्री को चुनना बिल्कुल एक नया कदम था। यह निर्णय इल्तुतमिश की प्रगतिशील सोच का परिचायक है, हालांकि बाद में इससे सल्तनत में अस्थिरता आई।
प्रशासनिक और आर्थिक सुधार
इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत को उत्तराधिकार में नहीं, वरन् अपने बाहुबल से प्राप्त किया था, इसलिए शांतिपूर्ण व्यवस्था को स्थापित करने के उद्देश्य से उसने बगदाद के अब्बासी खलीफा अल-मुस्तंसर बिल्लाह से 1229 ई. में दिल्ली का सुल्तान होने का प्रमाण-पत्र माँगा। फरवरी 1229 ई. में बगदाद के खलीफा ने इल्तुतमिश को ‘खिलअत’ (सम्मान का जामा) एवं विशिष्ट अधिकार-पत्र देकर भारत के विजित क्षेत्रों पर न केवल उसके अधिकार की पुष्टि कर दी, बल्कि उसे ‘सुल्तान-ए-आजम’ (महान सुल्तान) की उपाधि भी प्रदान की। इस प्रकार इल्तुतमिश वैधानिक रूप से ‘सुल्तान-ए-हिंद’ हो गया। इससे इल्तुतमिश की सत्ता को नया बल प्राप्त हुआ तथा उसे मुस्लिम संसार में एक दर्जा मिल गया। अब इल्तुतमिश ने ‘नासिर अमीर उल मोमिनीन’ की उपाधि धारण की, अपने नाम के सिक्के ढलवाए और खलीफा का नाम भी खुतबे में लिखवाया।
इल्तुतमिश पहला तुर्क सुल्तान था, जिसने शुद्ध अरबी सिक्के ढलवाए। उसने सल्तनतकालीन दो महत्त्वपूर्ण सिक्के— चाँदी का ‘टंका’ (लगभग 175 ग्रेन) तथा ताँबे का ‘जीतल’ चलवाया। उसने सिक्कों पर टकसाल का नाम अंकित करवाने की परंपरा को आरंभ किया। सिक्कों पर उसने अपना उल्लेख खलीफा के प्रतिनिधि के रूप में किया। ग्वालियर विजय के बाद इल्तुतमिश ने अपने सिक्कों पर कुछ गौरवपूर्ण शब्दों, जैसे— ‘शक्तिशाली सुल्तान’, ‘साम्राज्य व धर्म का सूर्य’, ‘ईश्वर के सेवकों का सहायक’ को अंकित करवाया। इल्तुतमिश ने ‘इक्ता व्यवस्था’ का प्रचलन किया और राजधानी को लाहौर से दिल्ली स्थानांतरित किया। इन सुधारों ने सल्तनत की आर्थिक और प्रशासनिक संरचना को मजबूत किया, जिससे कर संग्रह और सैन्य वित्तपोषण में सुधार हुआ।
सांस्कृतिक और स्थापत्य योगदान
इल्तुतमिश एक कुशल शासक होने के साथ-साथ कला एवं विद्या का पोषक भी था। स्थापत्य कला के अंतर्गत सुल्तान ने कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा आरंभ किए गए कुतुबमीनार को 1231-1232 ई. में पूरा करवाया। यह उसकी महत्ता का अमर प्रमाण है। उसने बदायूँ की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाजे का भी निर्माण करवाया। अजमेर की मस्जिद का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था। उसने दिल्ली में एक विद्यालय की स्थापना की। भारत में संभवतः पहला मकबरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जा सकता है। इल्तुतमिश का मकबरा दिल्ली में स्थित है, जो एक कक्षीय मकबरा है। उसके दरबार में विद्वानों और सूफियों को संरक्षण प्राप्त था, जिससे इस्लामी संस्कृति का प्रसार हुआ। इल्तुतमिश के बारे में मिन्हाज-उस-सिराज लिखता है कि ऐसा गुणवान, दयालु हृदय तथा विद्वानों एवं धर्मोपदेशकों का आदर करने वाला सुल्तान कभी सिंहासन पर नहीं बैठा है। इल्तुतमिश अत्यंत धर्मनिष्ठ सुल्तान था तथा नमाज पढ़ने में बड़ा तत्पर रहा करता था।
इल्तुतमिश का अंतिम आक्रमण और मृत्यु
इल्तुतमिश का अंतिम आक्रमण बयाना पर हुआ, किंतु मार्ग में उसे ऐसा भयंकर रोग हुआ कि वह डोली में दिल्ली वापस लाया गया। यह रोग घातक सिद्ध हुआ तथा छब्बीस वर्ष राज्य करने के पश्चात् 29 अप्रैल 1236 ई. को उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु से पूर्व इल्तुतमिश ने अपनी पुत्री रजिया को उत्तराधिकारी घोषित किया, जो एक साहसी निर्णय था।
इल्तुतमिश का मूल्यांकन
इल्तुतमिश की गणना दिल्ली के उन सुल्तानों में की जा सकती है, जिन्होंने दिल्ली सल्तनत की नींव मजबूत की। वस्तुतः इल्तुतमिश दिल्ली की प्रारंभिक तुर्की सल्तनत का, जो 1290 ई. तक कायम रही, सर्वश्रेष्ठ शासक है। भारत के नव-स्थापित मुस्लिम राज्य को भंग होने से बचाने तथा कुतुबुद्दीन के द्वारा जीते गए प्रदेशों को एक शक्तिशाली एवं ठोस राज्य के रूप में संगठित करने का श्रेय इल्तुतमिश को ही प्राप्त है। यह राज्य उसकी मृत्यु के समय कतिपय बाहरी प्रांतों को छोड़कर सारे हिंदुस्तान (उत्तर भारत) में फैला हुआ था।
इल्तुतमिश एक निर्भीक योद्धा था और साथ ही साथ वह मनुष्य के रूप में देदीप्यमान गुणों से संपन्न था। उसने अपने शत्रुओं को दृढ़ता से पराजित किया तथा अपने जीवन के अंतिम वर्ष तक सैनिक विजयों में व्यस्त रहा। गुलाम का भी गुलाम होकर वह अपनी योग्यता और प्रतिभा के बल पर सुल्तान पद को प्राप्त करने में सफल हुआ था। इल्तुतमिश पहला सुल्तान था, जिसने दोआब के आर्थिक महत्त्व को समझा और उसमें सुधार किया। इल्तुतमिश को गुलाम वंश का वास्तविक संस्थापक मानते हुए ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं कि निः संदेह इल्तुतमिश गुलाम वंश का वास्तविक संस्थापक था। यही वह व्यक्ति था जिसने अपने स्वामी कुतुबुद्दीन की विजयों को संगठित किया था।
इल्तुतमिश दिल्ली का पहला ऐसा सुल्तान था जो अपनी योग्यता, विजय और खलीफा के प्रमाण-पत्र से दिल्ली सल्तनत का वैधानिक शासक बन गया। खलीफा की स्वीकृति से इल्तुतमिश को सुल्तान के पद को वंशानुगत बनाने और दिल्ली के सिंहासन पर अपनी संतानों के अधिकार को सुरक्षित करने में सहायता मिली। कहा जा सकता है कि इल्तुतमिश भारत में मुस्लिम संप्रभुता का वास्तविक संस्थापक था। उसके शासन ने न केवल सैन्य विस्तार किया, बल्कि प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से एक नई राजनीतिक संस्कृति की नींव रखी, जो बाद के सुल्तानों के लिए मार्गदर्शक बनी।









