1935 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट (Government of India Act of 1935)

1935 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट ब्रिटिश शासन द्वारा भारत में प्रशासनिक और संवैधानिक ढाँचे […]

1935 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट ब्रिटिश शासन द्वारा भारत में प्रशासनिक और संवैधानिक ढाँचे को पुनर्गठित करने का एक महत्त्वपूर्ण प्रयास था। यह अधिनियम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने और ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों को बनाए रखने की रणनीति का हिस्सा था।

अंग्रेजी हुकूमत की रणनीति और पृष्ठभूमि

Table of Contents

1932-33 के दौरान ब्रिटिश सरकार ने सविनय अवज्ञा आंदोलन और अन्य राष्ट्रीय गतिविधियों को कठोर दमन के माध्यम से नियंत्रित किया था। अंग्रेजों को यह स्पष्ट हो गया था कि केवल दमन की नीति दीर्घकालिक समाधान नहीं हो सकती। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की ताकत और व्यापक जनसमर्थन को देखते हुए भविष्य में और अधिक शक्तिशाली आंदोलन शुरू होने की संभावना थी, जिन्हें केवल बल प्रयोग से दबाना असंभव था। इसलिए ब्रिटिश हुकूमत ने एक ऐसी रणनीति अपनाई, जिसका उद्देश्य भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को आंतरिक रूप से कमजोर करना और राष्ट्रीय आंदोलन की एकता को तोड़ना था। इस रणनीति का मूल लक्ष्य कांग्रेस में फूट डालना था, ताकि इसके संविधानवादी और उदारवादी नेताओं को औपनिवेशिक प्रशासन में शामिल कर लिया जाए। इससे उनके मन में संवैधानिक सुधारों के प्रति आस्था पैदा हो सकती थी और वे क्रांतिकारी आंदोलन से अलग हो सकते थे। इसके बाद आंदोलन की शेष ताकत को पुलिस और सैन्य दमन के बल पर समाप्त करने की योजना थी। इस रणनीति के तहत अंग्रेजों ने संवैधानिक सुधारों का एक जाल बिछाया, जिससे भारतीय नेताओं का एक वर्ग प्रशासनिक ढाँचे में उलझ जाए और स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र या जनांदोलन की राह छोड़ दे। यह रणनीति ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों को बनाए रखने और भारत पर अपनी पकड़ को लंबे समय तक कायम रखने का एक सुनियोजित प्रयास था।

गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 का पारित होना

अपनी रणनीति को लागू करने के लिए ब्रिटिश संसद ने अगस्त 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 पारित किया। यह अधिनियम ब्रिटिश भारत के प्रांतों और देशी रियासतों को एक संघीय ढाँचे के तहत एकजुट करने का एक महत्वाकांक्षी प्रयास था। इसके तहत एक संघीय विधायिका की स्थापना का प्रावधान था, जिसमें रियासतों के प्रतिनिधियों को उनके शासकों द्वारा मनोनीत किया जाना था। इस व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रवादी ताकतों को नियंत्रित करना और स्वतंत्रता संग्राम के किसी भी प्रयास को विफल करना था। अधिनियम में मतदान का अधिकार केवल भारत की वयस्क आबादी के छठे हिस्से (लगभग तीन करोड़ लोगों) को दिया गया, जो संपत्ति, आय या शिक्षा की न्यूनतम योग्यता पर आधारित था। इससे यह सुनिश्चित हुआ कि जनता की व्यापक भागीदारी संभव न हो और मताधिकार उच्च और मध्यम वर्ग तक सीमित रहे। महत्त्वपूर्ण क्षेत्र, जैसे रक्षा और विदेशी मामले, संघीय विधायिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखे गए थे और ये गवर्नर जनरल और ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण में रहे। इसके अलावा, वायसरॉय (गवर्नर जनरल) को विशेषाधिकार प्राप्त थे, जिसके तहत वह लगभग किसी भी मामले में हस्तक्षेप कर सकता था और प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर सकता था। इस प्रकार, यह अधिनियम सतही तौर पर संवैधानिक सुधारों का आभास देता था, लेकिन वास्तव में यह ब्रिटिश सत्ता को बनाए रखने और भारतीय स्वतंत्रता की आकांक्षाओं को दबाने का एक औपनिवेशिक उपकरण था।

प्रांतीय स्वायत्तता और गवर्नर की शक्तियाँ

1935 के अधिनियम ने प्रांतीय प्रशासन में महत्त्वपूर्ण बदलाव किए, जिसमें प्रांतीय स्वायत्तता की स्थापना सबसे प्रमुख थी। इसके तहत, 1919 के अधिनियम में लागू द्वैधशासन को समाप्त कर सभी प्रांतीय विभागों का कार्यभार निर्वाचित मंत्रियों के मंत्रिमंडल को सौंप दिया गया। यह व्यवस्था सतही तौर पर प्रांतीय शासन को भारतीय नेताओं के हाथों में सौंपने का दावा करती थी, क्योंकि मंत्रिमंडल प्रांतीय विधायिका के प्रति जवाबदेह था। हालांकि, वास्तव में यह स्वायत्तता सीमित थी, क्योंकि गवर्नरों को व्यापक विशेषाधिकार प्राप्त थे। गवर्नर किसी भी मामले में हस्तक्षेप कर सकता था, विशेष रूप से अल्पसंख्यकों की रक्षा, कानून-व्यवस्था और ब्रिटिश हितों से संबंधित मामलों में। गवर्नर को यह अधिकार था कि वह जब चाहे प्रांतीय प्रशासन को अपने नियंत्रण में ले ले और जब तक चाहे उस पर कब्जा बनाए रखे। उदाहरण के लिए, आपातकालीन स्थिति में गवर्नर पूरे प्रशासन को अपने हाथ में ले सकता था और अध्यादेश जारी कर सकता था। इसके अतिरिक्त, कुछ क्षेत्र, जैसे आदिवासी क्षेत्र या संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्र गवर्नर के प्रत्यक्ष नियंत्रण में थे। यह व्यवस्था सुनिश्चित करती थी कि वास्तविक राजनीतिक और आर्थिक सत्ता ब्रिटिश प्रशासन के पास ही रहे। प्रांतीय स्वायत्तता का यह ढाँचा भारतीय नेताओं को सत्ता का आंशिक स्वाद देने के लिए बनाया गया था, लेकिन पूर्ण स्वतंत्रता या नियंत्रण से उन्हें वंचित रखने का उद्देश्य था। यह ब्रिटिश रणनीति का हिस्सा था, जिसके तहत उपनिवेशक अपनी पकड़ को ढीला करने के बजाय और मजबूत करना चाहते थे।

लिनलिथगो का बयान और अंग्रेजों की मंशा

1935 की संयुक्त संसदीय कमेटी के अध्यक्ष और 1936 से भारत के वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने स्पष्ट किया कि 1935 का अधिनियम भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व को बनाए रखने का सबसे प्रभावी तरीका था। उन्होंने लिखा कि इस अधिनियम का उद्देश्य भारतीयों के हित में सत्ता हस्तांतरण या संवैधानिक सुधार करना नहीं था, बल्कि भारत को यथासंभव लंबे समय तक ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बनाए रखना था। लिनलिथगो का यह बयान अधिनियम की औपनिवेशिक प्रकृति को स्पष्ट करता है। यह अधिनियम भारतीय स्वशासन की दिशा में एक कदम होने का दावा करता था, लेकिन इसका वास्तविक लक्ष्य राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करना और ब्रिटिश शासन की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करना था। इस बयान से यह भी स्पष्ट होता है कि अंग्रेजों की मंशा भारतीयों को सत्ता सौंपने की नहीं, बल्कि उन्हें संवैधानिक ढाँचे में उलझाकर स्वतंत्रता संग्राम की तीव्रता को कम करने की थी।

कांग्रेस में फूट डालने की रणनीति

ब्रिटिश शासन ने 1935 के अधिनियम को इस तरह डिज़ाइन किया था कि यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर वैचारिक और गुटबाजी के आधार पर मतभेद पैदा करे। अंग्रेजों का मानना था कि संवैधानिक सुधारों के सवाल पर कांग्रेस के संविधानवादी, दक्षिणपंथी और वामपंथी नेताओं के बीच टकराव होगा। संवैधानिक रियायतें देकर संविधानवादी नेताओं को प्रशासन में शामिल कर लिया जाता, तो वे सत्ता के प्रति निष्ठावान हो सकते थे और जनांदोलन की क्रांतिकारी राह से अलग हो सकते थे। यदि संविधानवादी अंग्रेजों की ओर झुक जाते, तो वामपंथी ताकतें या तो असहमति के कारण कांग्रेस से अलग हो जातीं या उनकी आक्रामक दक्षिणपंथ-विरोधी राजनीति के कारण दक्षिणपंथी खेमा उन्हें कांग्रेस से बाहर कर देता। ऐसी स्थिति में, वामपंथी ताकतों को पुलिस दमन के बल पर आसानी से समाप्त किया जा सकता था। इस प्रकार अंग्रेजों की रणनीति थी कि कांग्रेस के भीतर वैचारिक और गुटबाजी को बढ़ावा देकर राष्ट्रीय आंदोलन की एकजुटता को तोड़ा जाए। संविधानवादी नेताओं को प्रशासन में शामिल करके और वामपंथियों को अलग-थलग करके अंग्रेज राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने की योजना बना रहे थे। यह रणनीति उनकी “फूट डालो और राज करो” की नीति का हिस्सा थी, जिसका उद्देश्य भारतीय नेतृत्व को बाँटना और स्वतंत्रता संग्राम को कमजोर करना था।

प्रांतीय स्वायत्तता की कुटिल चाल

प्रांतीय स्वायत्तता के पीछे भी अंग्रेजों की एक गहरी रणनीति थी। वे मानते थे कि इस व्यवस्था से कांग्रेस के भीतर कई प्रभावशाली प्रांतीय नेता उभरेंगे, जो अपने-अपने प्रांतों में प्रशासकीय अधिकारों का उपयोग अपने ढंग से करेंगे। ये नेता धीरे-धीरे अपने प्रशासकीय विशेषाधिकारों को सुरक्षित करने में माहिर हो जाएँगे और स्वायत्त सत्ता के केंद्र बन जाएँगे। इससे कांग्रेस का प्रांतीयकरण होगा और अखिल भारतीय स्तर पर इसका केंद्रीय नेतृत्व कमजोर पड़ जाएगा। लॉर्ड लिनलिथगो ने 1936 में लिखा था कि प्रांतीय स्वायत्तता सीधे संघर्ष से बचने और कांग्रेस को कमजोर करने का सबसे अच्छा तरीका है। उनके अनुसार इस व्यवस्था के माध्यम से कांग्रेस, जो स्वतंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा हथियार थी, को आंतरिक रूप से नष्ट किया जा सकता था। प्रांतीय स्वायत्तता ने नेताओं को स्थानीय सत्ता में उलझाकर राष्ट्रीय एकता को कमजोर करने का काम किया। यह अंग्रेजों की उस रणनीति का हिस्सा था, जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय आंदोलन की एकजुटता को तोड़ना और भारतीय नेताओं को प्रांतीय स्तर पर सीमित रखना था। इस प्रकार प्रांतीय स्वायत्तता का प्रावधान सतही तौर पर स्वशासन का आभास देता था, लेकिन वास्तव में यह ब्रिटिश शासन की पकड़ को और मजबूत करने का एक कुटिल उपाय था।

कांग्रेस का विरोध और संविधान सभा की माँग

1935 के अधिनियम का भारतीय नेताओं और संगठनों, विशेषकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने तीव्र विरोध किया। कांग्रेस ने इसे पूरी तरह अस्वीकार कर दिया और इसे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को मजबूत करने का एक उपकरण माना। कांग्रेस का मानना था कि यह अधिनियम भारतीयों की स्वतंत्रता और स्वशासन की आकांक्षाओं को पूरा करने में असमर्थ था। इसके बदले, कांग्रेस ने संविधान सभा के गठन की माँग की, जिसमें सभी सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर हो। यह माँग भारतीयों की स्वशासन की आकांक्षा को दर्शाती थी और ब्रिटिश शासन द्वारा पेश किए गए सीमित और नियंत्रित सुधारों के प्रति उनकी असंतुष्टि को उजागर करती थी। कांग्रेस का यह रुख स्वतंत्रता संग्राम को और तेज करने और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुटता बनाए रखने का प्रयास था। इस अधिनियम की औपनिवेशिक प्रकृति और इसकी सीमाओं ने भारतीय नेताओं को और अधिक संगठित और आक्रामक रणनीति अपनाने के लिए प्रेरित किया।

अधिनियम की संरचना और विशेषताएँ

1935 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट एक अत्यंत विस्तृत और जटिल संवैधानिक दस्तावेज था, जिसमें 14 खंड, 10 अनुसूचियाँ और 451 धाराएँ शामिल थीं। इसे एच. वी. हॉडसन जैसे विशेषज्ञों ने एक प्रभावशाली संरचना माना, जिसकी प्रशंसा स्वाभाविक थी। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं:

भारतीय संघ की स्थापना का प्रयास: अधिनियम का उद्देश्य ब्रिटिश भारत के प्रांतों और देशी रियासतों को एक भारतीय संघ के तहत एकजुट करना था। इस संघीय ढाँचे में एक संघीय विधायिका की स्थापना का प्रावधान था, जिसमें दो सदन थे: काउंसिल ऑफ स्टेट (ऊपरी सदन, 260 सदस्य, जिनमें 156 ब्रिटिश भारत और 104 रियासतों के लिए) और संघीय असेंबली (निचला सदन, 375 सदस्य, जिनमें 250 ब्रिटिश भारत और 125 रियासतों के लिए)। रियासतों के प्रतिनिधि उनके शासकों द्वारा मनोनीत किए जाते थे, जबकि ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों का चयन आंशिक रूप से प्रत्यक्ष और आंशिक रूप से अप्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से होता था। यद्यपि यह योजना रियासतों की सहमति पर निर्भर थी और पर्याप्त संख्या में रियासतों के शामिल न होने के कारण यह लागू नहीं हो सकी।

प्रांतीय स्वायत्तता

अधिनियम ने 1919 के अधिनियम के द्वैधशासन को समाप्त कर सभी प्रांतीय विषयों को निर्वाचित मंत्रियों के मंत्रिमंडल के नियंत्रण में सौंप दिया। यह सतही तौर पर स्वशासन का आभास देता था, लेकिन गवर्नर की विशेष शक्तियों ने इस स्वायत्तता को सीमित कर दिया।

गवर्नर जनरल की दोहरी भूमिका

गवर्नर जनरल ब्रिटिश भारत में ब्रिटिश ताज का प्रतिनिधि था और रियासतों के लिए ब्रिटिश सम्राट का प्रतिनिधि था। उसे व्यापक शक्तियाँ प्राप्त थीं, जैसे विधेयकों को अस्वीकार करना, अध्यादेश जारी करना और आपातकाल में प्रशासन को अपने नियंत्रण में लेना।

आंशिक कार्यान्वयन

अधिनियम के अधिकांश हिस्से 1 अप्रैल 1937 से लागू हो गए, जिसमें प्रांतीय स्वायत्तता शामिल थी। हालांकि, इसका दूसरा खंड (संघीय ढाँचे से संबंधित) लागू नहीं हो सका, क्योंकि रियासतें इसमें शामिल होने को तैयार नहीं थीं। इस अधिनियम की जटिल संरचना ने इसे एक प्रभावशाली दस्तावेज बनाया, लेकिन इसकी औपनिवेशिक प्रकृति और भारतीय स्वतंत्रता की माँग को अनदेखा करने के कारण इसे व्यापक रूप से अस्वीकार किया गया।

प्रांतीय संविधान और वित्तीय स्वायत्तता

1935 के अधिनियम ने पहली बार प्रांतों को एक स्वतंत्र संवैधानिक और कानूनी दर्जा प्रदान किया। प्रांतीय विधायी शक्तियाँ सातवीं अनुसूची के तहत तीन सूचियों—संघीय, प्रांतीय और समवर्ती में विभाजित की गई थीं। यह व्यवस्था 1919 के अधिनियम से भिन्न थी, क्योंकि शक्तियाँ संविधान से प्राप्त थीं, न कि विकेंद्रीकरण के आधार पर। प्रांतों को कुछ वित्तीय स्वायत्तता भी प्रदान की गई, जिसके तहत वे भारत मंत्री की अनुमति के बिना विदेशों से ऋण ले सकते थे। इसके अलावा, प्रांत केंद्र और भारत मंत्री के नियंत्रण से काफी हद तक मुक्त थे, सिवाय कुछ विशिष्ट परिस्थितियों के, जैसे आपातकाल या ब्रिटिश हितों से संबंधित मामलों के। यद्यपि गवर्नर की विशेष शक्तियों, जैसे प्रशासन को अपने नियंत्रण में लेने का अधिकार और विधायी हस्तक्षेप ने इस स्वायत्तता को सीमित कर दिया। यदि केंद्र और प्रांतीय कानूनों में टकराव होता था, तो संघीय कानून को प्राथमिकता दी जाती थी, जिससे केंद्र की सर्वोच्चता बनी रही। यह वित्तीय और संवैधानिक स्वायत्तता सतही तौर पर प्रांतों को अधिक स्वतंत्र बनाने का प्रयास थी, लेकिन गवर्नर की शक्तियों और केंद्र के नियंत्रण ने इसे खोखला कर दिया।

प्रशासनिक परिवर्तन

1935 के अधिनियम ने भारत में ब्रिटिश प्रशासनिक ढाँचे में कई महत्त्वपूर्ण बदलाव किए। इनका उद्देश्य प्रांतीय स्वायत्तता को लागू करना, प्रशासन को व्यवस्थित करना और ब्रिटिश शासन की पकड़ को बनाए रखते हुए भारतीयों को सीमित शक्तियाँ प्रदान करना था। प्रमुख बदलाव निम्नलिखित थे:

बर्मा का अलग होना

3 मार्च 1936 से बर्मा को ब्रिटिश भारत से अलग कर एक स्वतंत्र उपनिवेश बनाया गया। बर्मा की भौगोलिक, सांस्कृतिक और जातीय विशिष्टता के कारण यह निर्णय लिया गया। इसे एक अलग गवर्नर के अधीन शासित किया गया, जिससे ब्रिटिश भारत का भौगोलिक दायरा कम हुआ।

सिंध और उड़ीसा का गठन

सिंध को बंबई प्रेसीडेंसी से अलग कर और उड़ीसा को बिहार और बंगाल के कुछ हिस्सों से मिलाकर नए प्रांत बनाए गए, जो 3 मार्च 1936 से प्रभावी हुए। यह भाषाई और सांस्कृतिक आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन का प्रारंभिक उदाहरण था।

पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत का पूर्ण प्रांत दर्जा

पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत को पूर्ण प्रांत का दर्जा दिया गया, जो पहले मुख्य आयुक्त के अधीन था। इसकी रणनीतिक स्थिति के कारण यह निर्णय लिया गया।

11 प्रांतों में विभाजन

इन परिवर्तनों के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश भारत को 11 प्रांतों में विभाजित किया गया: बंगाल, मद्रास, बंबई, संयुक्त प्रांत, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रांत, पंजाब, सिंध, असम और पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत।

द्विसदनी और एकल सदन वाली विधायिकाएँ: मद्रास, बंगाल, बंबई, संयुक्त प्रांत और बिहार में द्विसदनी विधायिकाएँ (विधान सभा और विधान परिषद) स्थापित की गईं, जबकि अन्य प्रांतों में एकल सदन वाली विधायिका थी। यह व्यवस्था विधायी प्रक्रिया में संतुलन बनाए रखने और ब्रिटिश हितों को सुरक्षित रखने के लिए थी।

मताधिकार

मताधिकार संपत्ति के आधार पर था, जिसके विस्तृत प्रावधान अनुसूची 10 में थे। मतदाताओं की संख्या बढ़कर तीन करोड़ हो गई, जो 1919 की तुलना में अधिक थी, लेकिन यह भारत की वयस्क आबादी का केवल छठा हिस्सा था। ये परिवर्तन प्रशासनिक दक्षता बढ़ाने और प्रांतीय स्वायत्तता का आभास देने के लिए थे, लेकिन गवर्नर की शक्तियों और सामुदायिक आधार पर सीटों के बँटवारे ने इस स्वायत्तता को सीमित कर दिया। यह ब्रिटिश रणनीति का हिस्सा था, जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करना था।

विधायी शक्तियों का बँटवारा

1935 के अधिनियम ने विधायी शक्तियों को सातवीं अनुसूची के तहत तीन सूचियों—संघीय, प्रांतीय और समवर्ती में विभाजित किया। यह बँटवारा केंद्र और प्रांतों के बीच शक्तियों के स्पष्ट विभाजन का प्रयास था।

संघीय सूची

इसमें रक्षा, विदेशी मामले, मुद्रा और सिक्के, डाक और तार, रेलवे, और केंद्र सरकार की वित्तीय व्यवस्था जैसे राष्ट्रीय महत्त्व के विषय शामिल थे। इन पर केवल केंद्र कानून बना सकता था।

प्रांतीय सूची

इसमें पुलिस और कानून-व्यवस्था, शिक्षा, कृषि, स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन और प्रांतीय वित्त जैसे स्थानीय विषय शामिल थे। इन पर प्रांतों को कानून बनाने का अधिकार था।

समवर्ती सूची

इसमें नागरिक और आपराधिक कानून, विवाह और तलाक, श्रम कल्याण, फैक्ट्री और उद्योग, और संक्रामक रोगों का नियंत्रण जैसे विषय शामिल थे, जिन पर केंद्र और प्रांत दोनों कानून बना सकते थे। यदि टकराव होता था, तो संघीय कानून को प्राथमिकता दी जाती थी।

अवशिष्ट शक्तियाँ

जो विषय किसी सूची में शामिल नहीं थे, वे गवर्नर जनरल के अधिकार क्षेत्र में थे, जो आपातकाल में प्रांतीय विषयों पर भी कानून बना सकता था। यह व्यवस्था 1919 के अधिनियम से भिन्न थी, क्योंकि शक्तियाँ संविधान से प्राप्त थीं, न कि विकेंद्रीकरण के आधार पर। हालांकि, संघीय कानून की प्राथमिकता और गवर्नर की विशेष शक्तियों ने प्रांतीय स्वायत्तता को सीमित कर दिया। यह बँटवारा ब्रिटिश हितों को बनाए रखने और राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने का एक साधन था।

गवर्नर की शक्तियाँ और मंत्रिमंडल

1935 के अधिनियम ने प्रांतीय शासन में गवर्नर को केंद्रीय भूमिका दी। प्रांतीय प्रशासन का संचालन निर्वाचित मंत्रिमंडल द्वारा किया जाना था, लेकिन गवर्नर की विशेष शक्तियों ने इस स्वायत्तता को सीमित कर दिया।

मंत्रिमंडल की भूमिका

मंत्रिमंडल प्रांतीय विधायिका से चुने गए मंत्रियों का समूह था, जो शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि जैसे विभागों का संचालन करता था। यह संसदीय प्रणाली के अनुरूप था, लेकिन गवर्नर की शक्तियों ने इसे गौण बना दिया।

विवेकाधीन शक्तियाँ

गवर्नर कुछ मामलों में अपने विवेक से कार्य कर सकता था, जैसे विधानसभा का अधिवेशन बुलाना, विधेयकों को अस्वीकार करना और आपातकाल में प्रशासन को अपने नियंत्रण में लेना।

व्यक्तिगत विचार

विशेष जिम्मेदारियों, जैसे शांति और व्यवस्था, अल्पसंख्यकों की रक्षा, सरकारी कर्मचारियों की रक्षा और ब्रिटिश हितों की रक्षा में गवर्नर मंत्रियों की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं था।

विशेष जिम्मेदारियाँ

गवर्नर को प्रांत में शांति, अल्पसंख्यकों, सरकारी कर्मचारियों, ब्रिटिश व्यापार और देशी रियासतों के हितों की रक्षा का दायित्व था। वह गवर्नर जनरल के निर्देशों का पालन करता था।

विधायी शक्तियाँ

गवर्नर विधेयकों को अस्वीकार कर सकता था, अध्यादेश जारी कर सकता था और आपातकाल में गवर्नर एक्ट पारित कर सकता था।

वित्तीय नियंत्रण

कुछ व्यय, जैसे गवर्नर और मंत्रियों का वेतन विधायिका के नियंत्रण से मुक्त थे। यह व्यवस्था सुनिश्चित करती थी कि वास्तविक सत्ता गवर्नर और ब्रिटिश प्रशासन के पास रहे और प्रांतीय स्वायत्तता केवल नाममात्र की हो।

संघीय शासन और रियासतों की भूमिका

1935 के अधिनियम में संघीय ढाँचे की स्थापना के लिए रियासतों की सहमति आवश्यक थी। काउंसिल ऑफ स्टेट में 260 सीटें (156 ब्रिटिश भारत, 104 रियासतों) और संघीय असेंबली में 375 सीटें (250 ब्रिटिश भारत, 125 रियासतों) थीं। रियासतों के प्रतिनिधि उनके शासकों द्वारा मनोनीत किए जाते थे। संघ की स्थापना के लिए विलय के प्रपत्र पर हस्ताक्षर आवश्यक थे, जिसमें कम से कम 52 सीटें भरने और रियासतों की आधी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व जरूरी था। रियासतों की भागीदारी स्वैच्छिक थी, और उनकी अनिच्छा के कारण यह योजना विफल रही।

अधिनियम का कार्यान्वयन और विफलता

1935 के अधिनियम का दूसरा खंड, जो संघीय ढाँचे से संबंधित था, लागू नहीं हो सका, क्योंकि रियासतें इसमें शामिल होने को तैयार नहीं थीं। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने पर वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने घोषणा की कि अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण संघ की प्रक्रिया को निरस्त करना आवश्यक है। इस प्रकार अधिनियम का यह हिस्सा अधूरा रहा और स्वतंत्रता तक केंद्र में 1919 का अधिनियम ही प्रभावी रहा। प्रांतीय स्वायत्तता के प्रावधान 1 अप्रैल 1937 से लागू हुए, लेकिन गवर्नर की शक्तियों ने इसे सीमित कर दिया।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रावधान

1935 के अधिनियम में कई अन्य प्रावधान शामिल थे, जो इसके संवैधानिक ढाँचे को व्यापक बनाते थे।

न्यायपालिका

अधिनियम ने सभी प्रांतों में उच्च न्यायालयों और एक संघीय न्यायालय की स्थापना की। संघीय न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और छह सहायक न्यायाधीश थे, जो संवैधानिक और कानूनी विवादों का समाधान करता था। कुछ मामलों में प्रिवी कौंसिल में अपील का अधिकार था। यह व्यवस्था ब्रिटिश नियंत्रण में थी।

संघीय रेलवे प्राधिकरण

रेलवे के संचालन और रखरखाव के लिए एक संघीय रेलवे प्राधिकरण स्थापित किया गया, जिसमें 44% सदस्य गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत थे। यह रेलवे पर ब्रिटिश नियंत्रण बनाए रखने का साधन था।

इंडिया कौंसिल का अंत

1858 में स्थापित इंडिया कौंसिल को समाप्त कर भारत मंत्री के लिए 3-6 सलाहकारों की नियुक्ति का प्रावधान किया गया। इंडिया ऑफिस का खर्च अब ब्रिटिश करदाताओं पर डाला गया। ये प्रावधान ब्रिटिश शासन की सर्वोच्चता को बनाए रखने और भारत की महत्त्वपूर्ण संस्थाओं पर नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिए थे।

अधिनियम की समीक्षा और भारतीय प्रतिक्रिया

1935 का अधिनियम एक जटिल और दुरुह संवैधानिक दस्तावेज था, जिसने 1950 के भारतीय संविधान के लिए कई आधार प्रदान किए। लेकिन इसमें सत्ता हस्तांतरण की तुलना में गवर्नर जनरल और गवर्नरों की शक्तियों को बढ़ाने वाले प्रावधान अधिक थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसे स्वतंत्रता संग्राम के साथ विश्वासघात माना और पूरी तरह अस्वीकार किया। फिर भी, 1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने हिस्सा लिया और 1585 में से 711 सीटें जीतीं। जवाहरलाल नेहरू ने इसे ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को भारत छोड़ने की चेतावनी बताया। मुस्लिम लीग ने प्रांतीय संविधान को स्वीकार किया, लेकिन संघीय ढाँचे को दोषपूर्ण माना। अधिनियम का सबसे दुखद पहलू यह था कि सात वर्षों की चर्चा और समितियों के बाद भी भारतीय संघ की स्थापना नहीं हो सकी। रियासतों की असहमति और विश्व युद्ध ने इसे एक मरीचिका बना दिया। यह अधिनियम ब्रिटिश साम्राज्यवाद का एक औपनिवेशिक उपकरण था, जिसका उद्देश्य भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करना और ब्रिटिश शासन को बनाए रखना था। इसकी जटिल संरचना और नियंत्रित सुधारों ने इसे भारतीयों के लिए अस्वीकार्य बना दिया और यह स्वतंत्रता की आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रहा।

1935 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट एक जटिल और औपनिवेशिक दस्तावेज था, जिसने प्रांतीय स्वायत्तता, संघीय ढाँचे और गवर्नर की शक्तियों के माध्यम से भारत में ब्रिटिश शासन को मजबूत करने का प्रयास किया। यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने और कांग्रेस में फूट डालने की रणनीति का हिस्सा था। लेकिन रियासतों की असहमति और विश्व युद्ध के कारण इसका संघीय ढाँचा लागू नहीं हो सका। प्रांतीय स्वायत्तता सतही थी, और गवर्नर की शक्तियों ने इसे खोखला कर दिया। भारतीय नेताओं, विशेषकर कांग्रेस ने इसे अस्वीकार कर संविधान सभा की माँग की। यह अधिनियम स्वतंत्रता तक पूर्ण रूप से लागू नहीं हो सका और भारतीय स्वतंत्रता की आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रहा।

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