भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में उत्तर प्रदेश की महिलाएँ (Women of Uttar Pradesh in the Indian National Movement)

ब्रिटिश शासन की पृष्ठभूमि और प्रारंभिक विरोध भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना कई चरणों […]

ब्रिटिश शासन की पृष्ठभूमि और प्रारंभिक विरोध

भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना कई चरणों में हुई, जो व्यापारिक महत्वाकांक्षा से राजनीतिक वर्चस्व तक की यात्रा का प्रतीक बनी। 1600 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना से लेकर 1740 ई. तक अंग्रेज मुख्यतः व्यापार पर केंद्रित रहे, लेकिन उत्तर मुगल काल में केंद्रीय सत्ता के पतन के साथ क्षेत्रीय सत्ताओं का उदय हुआ, जो स्वतंत्र रूप से सार्वभौमिक स्वरूप ग्रहण करने लगीं। इससे अंतर्देशीय व्यापार जटिल हो गया, क्योंकि व्यापारियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने और खरीद-फरोख्त में कठिनाइयों का सामना होने लगा। इस राजनीतिक विकेंद्रीकरण का लाभ उठाते हुए उन्होंने दक्षिण भारत में हस्तक्षेप आरंभ किया, जहाँ प्रारंभिक सफलताओं ने उनकी महत्वाकांक्षा को बल प्रदान किया। यह वह समय था जब अंग्रेज अमेरिकी उपनिवेशों में स्वतंत्रता संग्राम का सामना कर रहे थे और यूरोप में भी आस्ट्रिया, फ्रांस, प्रशा, इटली तथा तुर्की जैसे देश नई राजनीतिक चेतना—साम्राज्यवाद, स्वतंत्रता, आर्थिक प्रगति तथा बौद्धिक जागरण से प्रभावित हो रहे थे। इस वैश्विक परिदृश्य में अंग्रेजों ने एशियाई देशों को अपना नया केंद्र बनाया और रणनीतिक तैयारी तेज कर दी। दक्षिण के तीन कर्नाटक युद्धों के बाद प्लासी (1757 ई.) तथा बक्सर (1764 ई.) की विजयों ने उनके मनोबल को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया, जिससे भारत में उनके लिए विस्तृत मैदान खुल गया। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में असफल सेना प्रमुखों के अनुभव पर ही भारत में ब्रिटिश प्रशासनिक ढाँचा खड़ा किया गया, जिसके फलस्वरूप भारतीय राज्य विभिन्न ब्रिटिश नीतियों, जैसे सहायक संधि तथा लैप्स का सिद्धांत, के शिकार होते हुए साम्राज्य के अंग बन गए। मुगलों ने सल्तनतें बख्शीं या मराठों ने क्षेत्रीय विस्तार किया, किंतु यथार्थ यह था कि भारत की जनता एक सर्वथा नवीन राजनीतिक पद्धति के अधीन आ गई, जिसका मूल उद्देश्य शोषण था। अन्य विदेशी शासकों की भाँति अंग्रेजों ने कभी भारत को अपना देश नहीं माना। उन्होंने हर संभव माध्यम से आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक शोषण किया, जिससे जनता में अलगाव तथा मनोवैज्ञानिक दूरी बढ़ती गई। राजाओं को यह बात थोड़ी देर में समझ आई, किंतु जनता ने इसे शीघ्र ही समझ लिया और अंग्रेजी शासन की स्थापना के साथ ही इसका विरोध भी प्रारंभ हो गया, किंतु छिटपुट विद्रोह पर्याप्त नहीं थे। विखंडन की राजनीति में नई चुनौतियों का सामना असंभव था, इसलिए समय का इंतजार ही एकमात्र उपाय था। इस बीच अंग्रेजों ने अपने हितों की पूर्ति के लिए आधुनिकता के औजारों का उपयोग किया और रेलवे, डाक व्यवस्था, कानूनी ढाँचा तथा प्रशासनिक संरचना का निर्माण किया। इनका भावनात्मक लाभ जनता को मिला, लेकिन आर्थिक शोषण चलता रहा। लॉर्ड डलहौजी का शासनकाल (1848-1856 ई.) साम्राज्य विस्तार तथा असंतोष दोनों का शीर्ष बिंदु सिद्ध हुआ, जिसके फलस्वरूप 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम फूट पड़ा। इसमें शत-प्रतिशत भागीदारी न सही, किंतु अधिकांश भारत ने अपना असंतोष व्यक्त किया और धर्म, जाति, लिंग तथा स्थान-भेद से ऊपर उठकर अंग्रेज-विरोध की भावना मुखरित हुई। संयोग से उत्तर प्रदेश इस विद्रोह का प्रमुख केंद्र बन गया। यद्यपि अधीनता की श्रेणी में यह राज्य देर से आया था, किंतु दिल्ली जैसे केंद्रीय सत्ता-स्थल की निकटता ने इसे विरोध का प्रथम केंद्र बना दिया। इस सशस्त्र संघर्ष में उत्तर प्रदेश की महिलाओं ने भी महत्त्चपूर्ण भूमिका निभाई, जो न केवल प्रत्यक्ष युद्ध में भागीदारी तक सीमित रही, अपितु नेतृत्व, सहयोग तथा प्रेरणा जैसे कई रूप में भी प्रकट हुई। 1857 से पूर्व के विद्रोहों में महिलाओं की भूमिका प्रत्यक्ष रूप से कम दिखाई देती है, जैसे बैरकपुर (1824 ई.) तथा बहादुरशाह ‘ज़फर’ से जुड़े विद्रोह (1830 ई.) में, किंतु अधिकांश विद्रोहों में उन्होंने सक्रिय भागीदारी की तथा अनेक का नेतृत्व भी किया। संन्यासी विद्रोह (1763-1800 ई.) की देवी चौधरानी, चुआर विद्रोह (1767-1833 ई.) की रानी शिरोमणि, कित्तूर की रानी चेनम्मा (1824 ई.) तथा शिवगंगा की वेलू नाचियार (1780 ई.) जैसे उदाहरण स्मरणीय हैं। इन महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया, मार्गदर्शन प्रदान किया और सहयोग दिया। विशेष रूप से कम उम्र की महिलाओं के कारनामे तो आज भी आश्चर्यजनक हैं। महिलाओं की भूमिका बहुआयामी रही, युद्ध में भागीदारी एक नमूना मात्र थी; आजाद हिंद फौज में उनकी संख्या 50,000 तक पहुँची, जहाँ वे ब्रिगेड की मुखिया भी बनीं। वर्तमान उत्तर प्रदेश की महिलाओं के योगदान को रेखांकित करते हुए क्रांतिकारी तत्वों के साथ-साथ उनकी अन्य भूमिकाएँ भी महत्त्चपूर्ण थीं।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख महिलाएँ

रानी लक्ष्मीबाई

रानी लक्ष्मीबाई उत्तर प्रदेश की वीरांगनाओं का प्रथम तथा प्रमुख नाम रानी लक्ष्मीबाई का है। ‘खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी’ इस गीत से ही देशवासियों के हृदय में आजादी के संघर्ष का प्रत्यय उतर जाता है। झाँसी के राजा गंगाधर राव की पत्नी लक्ष्मीबाई का जन्म बनारस के भदैनी मुहल्ले में हुआ था। घुड़सवार मनु के नाम से प्रसिद्ध इस बालिका का विवाह मराठा क्षत्रप गंगाधर राव से हुआ, किंतु संतान न होने के कारण उन्होंने जीवनकाल में ही दामोदर राव (आनंद राव) को गोद ले लिया। 1853 ई. में राजा की मृत्यु के पश्चात् लॉर्ड डलहौजी ने व्यपगत सिद्धांत के तहत झाँसी को कंपनी राज्य में मिलाने का प्रयास किया। उसने तर्क दिया कि यह राज्य 1817 ई. के मराठा युद्ध के बाद अंग्रेजों द्वारा निर्मित हुआ था। यह तर्क अनुचित था, क्योंकि अधिकांश राज्य इसी आधार पर अस्तित्व में आए थे। रानी ने इसका कड़ा विरोध किया और ‘अपनी झाँसी नहीं दूँगी’ का उद्घोष कर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष आरंभ किया। अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बाँधे घुड़सवार होकर वह कालपी पहुँचीं तथा जनरल ह्यूरोज की सेना का मुकाबला किया। अंततः रणभूमि में ‘हर हर महादेव’ का उद्घोष करते हुए उन्होंने प्राण त्याग दिए। उनकी वीरता ने स्वतंत्रता संग्राम की प्रतीक के रूप में अमरता प्राप्त की।

अजीजन बाई

वारांगना से वीरांगना का अनुपम उदाहरण अजीजन बाई हैं, जो कानपुर की प्रसिद्ध नर्तकी थीं। कोठे पर नृत्य, गायन तथा विलासी जीवन व्यतीत करने वाली अजीजन ने 1857 ई. में अपनी सैनिक प्रतिभा तथा देशभक्ति का अनोखा प्रदर्शन किया। नाना साहब तथा तात्या टोपे के नेतृत्व में कानपुर तथा बिठूर में चल रहे विद्रोह में उनकी भूमिका निर्णायक रही। उन्होंने ‘मस्तानी महिला मंडली’ का गठन कर महिलाओं को सैनिक प्रशिक्षण दिया तथा आवश्यकता पड़ने पर पुरुष वेश धारण कर सैनिकों को सहायता पहुँचाई। नृत्य-कला के संगम ने उन्हें हर चुनौती में अटल बनाए रखा; घुड़सवार होकर तलवार चलाते हुए बिजली की भाँति शत्रु सेना पर टूट पड़ना उनका कौशल था। 21 दिनों तक चले युद्ध के पश्चात् जनरल हैवलॉक ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। औरत सैनिक के रूप में पेश करने पर हैवलॉक आश्चर्यचकित हो गया और माफी की शर्त पर रिहाई का प्रस्ताव रखा, किंतु अजीजन ने मुस्कराते हुए इसे ठुकरा दिया। सभ्यता का दंभ भरने वाले अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें सरेआम गोली मार दी। फलतः नाना साहब के निर्देश कि स्त्रियों तथा बच्चों को न छूने को अनसुना कर उन्होंने बावी घाट में 125 अंग्रेजों की हत्या कर दी।

बेगम हजरत महल

बेगम हजरत महल लखनऊ में 1857 के विद्रोह के समय बेगम हजरत महल (महकपरी) का शासन था। उनके पति नवाब वाजिदअली शाह का शासन 1847 ई. में आरंभ हुआ, किंतु शासकीय कार्यों में उनकी अरुचि के कारण अंग्रेज रेजिडेंट के हस्तक्षेप से अवध को कुशासन के आधार पर ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। नवाब को गिरफ्तार कर कलकत्ता (कोलकाता) भेज दिया गया। बेगम ने अपने पुत्र बिरजिस कादिर के नाम पर विद्रोह में भाग लिया। 30 जून 1857 को चिनहट का प्रसिद्ध युद्ध हुआ, जहाँ फैजाबाद के मौलवी अहमद उल्लाह की प्रेरणा से विद्रोही सैनिक एकत्रित हुए तथा अनेक अंग्रेज सैनिक मारे गए। बेगम ने अपने पुत्र को ‘जनाब-ए-आलिया’ घोषित किया और 16 जुलाई को बैली गार्ड पर हमला कर मार्च 1858 तक लखनऊ के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया गया। लेकिन भेदियों के कारण उनकी सफलता क्षणिक साबित हुई और बेगम को नेपाल की ओर भागना पड़ गया। नेपाल सीमा पर बर्फबाग उनका अंतिम प्रवास स्थल बना, जहाँ अप्रैल 1859 में उनका निधन हो गया। आज भी वहाँ उनके महल, मस्जिद तथा इमामबाड़े के अवशेष विद्यमान हैं।

झलकारी बाई

मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियाँ ‘जाकर रण में जो ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी’ झलकारी बाई की वीरता का स्मरण कराती हैं। रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल तथा दुर्गा दल की मुखिया झलकारी का जन्म 22 नवंबर 1830 को झाँसी के निकट भोजला गाँव के कोली परिवार में हुआ था। पिता सदोवरसिंह झाँसी दरबार में सेवा करते थे। बचपन से सैनिक गुणों से परिपूर्ण झलकारी को तोप, तलवार, बंदूक तथा घुड़सवारी का शौक था। पति पूरनसिंह भी झाँसी की सेना में सैनिक थे। 1857 के विद्रोह में उन्होंने रानी का साथ दिया तथा किले की रक्षा का संकल्प लिया। अन्य सैनिक सरदारों के असहयोग से रानी को झाँसी छोड़ना पड़ गया, तब झलकारी ने रानी का भेष धारण कर किले की रक्षा की। जनरल ह्यूरोज के समक्ष भी अडिग रहीं, किंतु अप्रैल 1858 में गिरफ्तार करके फाँसी दी गई। दुर्भाग्य से मुख्यधारा के इतिहास में उनकी चर्चा बहुत कम है।

रानी ईश्वर कुमारी

गोंडा जिले के तुलसीपुर स्टेट की रानी ईश्वर कुमारी का योगदान निर्वासित संघर्ष का प्रतीक है। राजा दृगराज सिंह की 1857 के समय ही मृत्यु हो चुकी थी, किंतु तुलसीपुर के लोगों ने विद्रोही सैनिकों का साथ दिया। रानी स्वयं सैनिकों का नेतृत्व कर रही थीं। अंग्रेजों के प्रलोभनों को ठुकराकर उन्होंने बेगम हजरत महल की भाँति निर्वासन चुना तथा अंतिम समय तक ब्रिटिश अत्याचारों का मुकाबला किया। बेगम के नेपाल प्रस्थान पर अंचवा गढ़ में उन्हें तीन दिन आश्रय मिला तथा नेपाल सीमा तक सुरक्षित पहुँचाया गया। उन्होंने अपना शेष जीवन भी नेपाल सीमा पर व्यतीत किया। गोंडा में आज भी उनका नाम आदर से लिया जाता है। 1857 के बाद तुलसीपुर बलरामपुर का हिस्सा बन गया।

मालतीबाई लोधी

कवि खेम सिंह की पंक्तियाँ ‘मातृभूमि के लिए मालती ने अपने अनुजों को छोड़ दिया, छोड़ा अपने पूज्य पिता को, परिणय बंधन से मुख मोड़ा। याद रहेगी झाँसी रानी संग मालती, याद रहेगी…’ बुंदेलखंड की अमिट वीरांगना मालतीबाई का स्मरण कराती हैं। 1840 ई. में बेतवा नदी तट के लोधी किसान परिवार में जन्मी मालती ने माता की असमय मृत्यु के पश्चात् दो भाइयों तथा खेती की जिम्मेदारी संभाली। 1857 की क्रांति की ज्वाला ने उन्हें सैनिक प्रशिक्षण की ओर प्रेरित किया। उनके गाँव झाँसी रानी के राज्य में था; रानी के भ्रमण के दौरान उनकी नजर मालती पर पड़ी तथा प्रशिक्षण सामग्री भेजने का वचन दिया। वह रणकौशल में पारंगत होकर रानी की सेना में सम्मिलित हो गईं। झाँसी आक्रमण के समय छाया की भाँति रानी के साथ डटी रहीं तथा दत्तक पुत्र को बचाते हुए अंग्रेजी गोली का शिकार हो गईं। गुमनाम होते हुए भी उनका बलिदान बुंदेलखंड के जनमानस में अमर है।

सरस्वती बाई लोधी

ललितपुर छावनी के सूबेदार अर्जुनसिंह की पुत्री सरस्वती बाई (जन्म 1840 ई.) बाल्यकाल से सुंदरता तथा बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं। अंग्रेजी भाषा में निपुणता के साथ युद्ध कला का ज्ञान था। छावनी कप्तान थॉर्नटन ने 1855 के नववर्ष पर शकुंतला नाटक मंचित किया, जिसमें सरस्वती ने शकुंतला तथा थॉर्नटन दुष्यंत के रूप में भाग लिया। नाटक की कुशलता से प्रभावित थॉर्नटन ने विवाह प्रस्ताव रखा, किंतु सरस्वती ने अस्वीकार कर जागीरदार उमरावसिंह से विवाह किया। थॉर्नटन डिप्टी कमिश्नर बनकर लौटा तथा पिता के राज्य पर डाका डालने के साथ पति को गिरफ्तार कर लिया। रानी ने सेना संगठित कर थॉर्नटन के विरुद्ध युद्ध कर दिया, लेकिन मुखबिरों की गद्दारी से असफल रहीं और 1,360 देशभक्त सैनिकों की रक्षा हेतु थॉर्नटन से विवाह की शर्त स्वीकार की, किंतु विवाह पूर्व अंगूठी का हीरा खाकर आत्माहुति दे दी।

ऊदा देवी

1857 में महिलाओं की भूमिका की चर्चा ऊदा देवी के बिना अपूर्ण है। नवाब वाजिदअली शाह के महिला दस्ते की मुखिया ऊदा (पासी) ने 1847 से फूलों के नाम पर सैनिक दस्ते गठित किए। नवाब की गीत-संगीत तथा लखनवी संस्कृति की रुचि के बीच रेजिडेंट हस्तक्षेप बढ़ने पर दस्ते को काला वेश देकर पूर्ण सैनिक इकाई बनाया। पति मक्का भी नवाब की सेना में थे। चिनहट युद्ध (30 जून 1857) में मक्का शहीद हुए, जब मौलवी अहमद उल्लाह की सेनाएँ फैजाबाद से लखनऊ पहुँच रही थीं; लगभग 2,000 भारतीय सैनिक मारे गए। कानपुर से कैम्पबेल की सेना सिकंदरबाग पहुँची, तो ऊदा की टुकड़ी ने उनका सामना किया। उन्होंने पुरुष वेश में पीपल के पेड़ पर चढ़कर 32 अंग्रेज सैनिकों को गोली से मार गिराया, लेकिन गोला-बारूद समाप्त होने पर शहीद हो गईं। कैम्पबेल ने उनकी वीरता पर हैट उतार सम्मान दिया। इस दंपति का एक साथ बलिदान अनुपम है। प्रतिवर्ष 16 नवंबर को उनकी शहादत बड़े आदर से मनाई जाती है।

कुमारी मैना

नाना साहब की दत्तक पुत्री कुमारी मैना की कहानी हृदयविदारक है। कानपुर में विद्रोही सैनिकों द्वारा गिरफ्तार अंग्रेज स्त्रियों-बच्चों को नाना साहब ने रिहा करने का निर्णय लिया तथा मैना को दायित्व सौंप दिया, लेकिन प्रस्थान के दौरान अंग्रेजों ने हमला कर निर्दोषों को भी मार डाला। बदला लेने की तैयारी में मैना गिरफ्तार हो गईं और उनके साथी माधव शहीद हो गए। उन्हें विभिन्न यातनाएँ दी गईं, जैसे पेड़ से बाँधकर जलाने की धमकी, फिर भी उन्होंने नाना साहब का राज नहीं बताया। अंततः वह जीवित जला दी गईं और नाना साहब नेपाल भाग गए।

बाद के राष्ट्रीय आंदोलनों में उत्तर प्रदेश की महिलाएँ

उर्मिला देवी शास्त्री

मेरठ की उर्मिला देवी शास्त्री का जन्म 20 अगस्त 1909 को श्रीनगर में आर्य समाजी पिता चिरंजीति लाल के घर हुआ था। हिंदू धर्म की उचित शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने 1929 में प्रोफेसर धर्मेंद्र शास्त्री से विवाह किया। गांधी के आह्वान पर सविनय अवज्ञा (1930 ई.) में सक्रिय हुईं, 30 महिलाओं की टोली बनाकर स्वदेशी-बहिष्कार का प्रचार किया और नौचंदी मेले में विदेशी कपड़ों की दुकानें बंद कराईं। अपनी गिरफ्तारी के बावजूद उन्होंने जेल में जनजागरण जारी रखा। कारागार के अनुभव और संस्मरण उनकी चेतना का प्रमाण हैं। 1941 तक वह अनेक बार जेल गईं। 6 जुलाई 1942 को गर्भाशय कैंसर से उनका असमय निधन हो गया।

दुर्गा भाभी

इलाहाबाद में 1907 ई. जन्मी दुर्गा बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं। प्रमुख क्रांतिकारी और ‘बम का दर्शन’ के लेखक भगवती चरण बोहरा से विवाह के पश्चात् वह ‘दुर्गा भाभी’ के नाम से प्रसिद्ध हुईं और उनका घर क्रांतिकारियों का अड्डा बन गया। लाहौर षड्यंत्र तथा सांडर्स हत्या (1928 ई.) के बाद भगवती चरण भाग गए, लेकिन दुर्गा ने लाहौर जाकर भगत सिंह-राजगुरु को लखनऊ पहुँचाया। कलकत्ता होते दिल्ली में असेंबली बमकांड (1929 ई.) में सहयोगी रहीं। भगत सिंह को छुड़ाने हेतु बम निर्माण-परीक्षण किया, जिसमें उनके पति शहीद हो गए। तीन वर्षीय पुत्र संग भटकाव के बावजूद दुर्गा भाभी हिम्मत नहीं हारीं। उन्होंने भगतसिंह की फाँसी (1931 ई.) के बाद पुलिस कमिश्नर को गोली मारने का प्रयास किया और लेमिंगटन रोड पर दो अंग्रेजों को मार गिराया। समर्पण के पश्चात् उन्होंने 1982 तक लखनऊ में शिक्षा केंद्र चलाया। 1999 में गाजियाबाद में उनका निधन हो गया।

देवी मुसद्दी मारवाड़ी

देवी मुसद्दी के पति रामचंद्र अवस्थी इलाहाबाद के कटरा में व्यवसायी थे। क्रांतिकारी गतिविधियों में अरुचि होने पर भी पत्नी को सहायता से नहीं रोके। एक बार चंद्रशेखर आजाद उनके घर पहुँचे, पुलिस घेराबंदी पर देवी ने कुशाग्र बुद्धि से आजाद को नौकर वेश धारण कराया और रक्षाबंधन का बहाना बनाकर मिठाई की परात संग उन्हें बाहर निकल दिया। उनके स्वाभाविक अभिनय से पुलिस भ्रमित हो गई। बाद में अंग्रेजों ने सच्चाई जानने के बाद उन्हें छह मास की सजा दी।

सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रयाग के निहालपुर में 1904 ई. जन्मी सुभद्रा माता-पिता की सातवीं संतान तथा मेधावी बालिका थीं। क्राइस्ट वेथ गर्ल्स स्कूल से शिक्षा ग्रहण कर महादेवी वर्मा से परिचित हुईं। 14 वर्ष की आयु में लक्ष्मणसिंह चौहान से विवाह के पश्चात् काव्य-लेखन में लग गईं। उन्होंने जलियाँवाला बाग कांड (1919 ई.) पर राष्ट्रीय कविताएँ लिखीं, जो क्रांतिकारियों का गीत बनीं। 1923 ई. में जबलपुर में झंडा फहराने पर उनकी पहली गिरफ्तारी हुई। 1932 ई. में गांधीजी से मुलाकात के बाद उन्होंने चुनावी राजनीति में प्रवेश किया और प्रांतीय असेंबली सदस्य निर्विरोध चुनी गईं। व्यक्तिगत सत्याग्रह तथा भारत छोड़ो आंदोलन (1942 ई.) में अग्रणी भूमिका रही। ट्यूमर से स्वास्थ्य बिगड़ने के बाद 15 फरवरी 1948 को मोटर दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन ‘झाँसी की रानी’ काव्य आज भी अमर है।

स्वरूप रानी नेहरू

नेहरू परिवार की भूमिका मोतीलाल नेहरू से आरंभ होती है, जो कश्मीर से इलाहाबाद आए। पत्नी स्वरूप रानी वैष्णव परिवार से थीं। लेकिन पश्चिमी प्रभाव वाले पति के समक्ष उन्होंने आस्थाओं से समझौता नहीं किया और गीता-रामायण की कथाएँ पुत्र जवाहरलाल को सुनाईं। उन्होंने असमय वैधव्य सहते हुए आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। वह 1931 ई. में जवाहर की अनुपस्थिति में इलाहाबाद जुलूस का नेतृत्व कर लाठियों का शिकार हुईं, जिसका उल्लेख जवाहरलाल ने आत्मकथा में किया है। 1936 ई. में कमला नेहरू के निधन से जीवन सूना हो गया और वह विजयलक्ष्मी तथा जवाहर को छोड़कर स्वर्ग सिधार गईं। नेहरू ने लिखा: ‘माता के देहावसान से भूतकाल की अंतिम कड़ी टूट गई।’

सुनंदा (महारानी तपस्वी)

झाँसी रानी लक्ष्मीबाई की भतीजी सुनंदा के पिता नारायण राव पेशवा सरदार थे। सुनंदा ने जनक्रांति की पृष्ठभूमि तैयार की और बचपन में विधवा होने के बावजूद तपस्वी भेष धारण कर नैमिषारण्य में निवास किया। अंग्रेज निश्चिंत हो गए, किंतु 1857 के बिगुल पर वह पुनः सक्रिय हो गईं। उन्होंने साधु सैनिक टोली गठित कर घोड़े पर सवार हो छापामार हमले किए, लेकिन संगठित सेना के समक्ष असफल रहीं। वह नाना साहब के साथ नेपाल तराई में छिप गईं। उन्होंने कलकत्ता जाकर महाकाली पाठशाला खोली तथा क्रांतिकारी चेतना का प्रसार किया और विवेकानंद-तिलक से भेंट कर आंदोलन तेज करने की सलाह दी। वह 1905 के बंग-भंग विरोध आंदोलन में सक्रिय रहीं। उनका आध्यात्मिक चिंतन के साथ 50 वर्षों का क्रांतिकारी जीवन 1907 में उनकी मृत्यु के साथ समाप्त हो गया।

विजयलक्ष्मी पंडित

1900 ई. में जन्मी विजयलक्ष्मी चार वर्ष की आयु में फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने लगी थीं। गुजराती विद्वान रंजीत पंडित से उनका 19 वर्ष की आयु में विवाह हुआ। उन्होंने रंजीत की स्वतंत्रता-सेनानी भावना से प्रेरित होकर आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। वह अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं और 1932, 1941 तथा 1942 में जेल यात्राएँ करनी पड़ीं। 1937 के चुनाव में वह संयुक्त प्रांत में मंत्री बनीं। वह द्वितीय विश्व युद्ध में पति के निधन से निराशा हुईं, किंतु संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (1945 ई.) में बेटियों से मिलने के बहाने पहुँचकर भारत का पक्ष मजबूती से रखा। स्वतंत्र भारत में वह रूस में राजदूत रहीं। 1953 में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्षता की।

सुचेता कृपलानी

1908 ई. में पंजाब के अंबाला में जन्मी सुचेता ने बनारस आकर उच्च शिक्षा ग्रहण की तथा अध्यापन आरंभ किया। उन्होंने 1932 से सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया और 1939 में नौकरी त्यागकर कांग्रेस का पूर्णकालिक सदस्य बन गईं। गांधी ने 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में उन्हें सत्याग्रही माना और उन्हें जेल की सजा भुगतनी पड़ी। 1942 के आंदोलन में उन्होंने अरुणा आसफ अली के साथ भूमिगत स्वयंसेवक दल गठित कर राष्ट्रीय भावना का प्रसार किया। 1944 में वह गिरफ्तार हो गईं और जेल में ही जे.बी. कृपलानी से विवाह किया। आजादी के बाद वह राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य तथा दो बार लोकसभा सांसद रहीं। 1963-1967 तक वह उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला मुख्यमंत्री रहीं। 1975 में 67 वर्ष की आयु में निधन हो गया।

सरोजिनी नायडू

हैदराबाद में 13 फरवरी 1878 को जन्मी सरोजिनी नायडू के पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय वैज्ञानिक थे, किंतु घर भारतीयता से ओतप्रोत था। मद्रास विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण कर उन्होंने अल्पायु में ‘लेडी ऑफ द लेक’ काव्य की रचना की। गांधी-गोखले मुलाकात के बाद वह कांग्रेस के कार्यक्रमों में सक्रिय हो गईं। वह महिला मताधिकार आंदोलन से राजनीतिक शीर्ष पर पहुँचीं। उन्होंने 1919 ई. में होम रूल लीग प्रतिनिधि मंडल से लंदन जाकर जलियाँवाला बाग कांड की किंग्सवे हाल में निंदा की। 1925 ई. में कानपुर कांग्रेस सत्र की प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष रहीं। गोलमेज सम्मेलन, धरसना नमक सत्याग्रह (1930 ई.) तथा 1942 आंदोलन में वह अग्रणी रहीं और उत्तर प्रदेश की प्रथम राज्यपाल रहीं। व्यंग्य कला में ‘गांधी मिकी माउस’, ‘पटेल: नरकंकाल’, ‘नेहरू: सुंदर राजकुमार’ जैसी उक्तियाँ प्रसिद्ध हैं। 2 मार्च 1949 को उनका निधन हो गया।

ऐनी बेसेंट

ब्रिटिश मूल की सामाजिक कार्यकर्ता ऐनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर 1847 को लंदन में हुआ था। उन्होंने बनारस को सामाजिक-राजनीतिक केंद्र बनाया, अतः उत्तर प्रदेश की नारी सेनानियों में गणना उचित है। उनके पिता विलियम वुड थे। इंग्लैंड में शिक्षा के बाद फ्रैंक बेसेंट से उनका विवाह हुआ, किंतु वह थियोसोफी सोसाइटी से प्रभावित थीं। वह 1898 ई. में भारत आकर बनारस में बस गईं और भारतीय धर्म-संस्कृति का अध्ययन कर अनेक संस्थाएँ स्थापित कीं, जैसे 1913 में वसंत कालेज (नारी शिक्षा), 1917 में नेशनल हाई स्कूल तथा 1920 में सेंट्रल हिंदू कालेज, जो बाद में काशी हिंदू विश्वविद्यालय बन गया। उन्होंने स्वशासन पर जोर देकर तिलक के साथ होम रूल आंदोलन (1916 ई.) चलाया और अंग्रेज होते हुए भी आजादी की भावना जगाई। उन्होंने कांग्रेस का नेतृत्व संभाला। 20 सितंबर 1933 को मद्रास में उनका निधन हो गया। एक गैर-भारतीय के रूप में उनका योगदान अविस्मरणीय है।

इंदिरा गांधी

इंदिरा गांधी का जन्म 19 नवंबर 1917 को इलाहाबाद के आनंद भवन में हुआ था। नेहरू-कमला की संतान इंदिरा (इंदु) को प्रारंभिक शिक्षा के बाद शांतिनिकेतन जाकर रवींद्रनाथ टैगोर से ‘प्रियदर्शिनी’ नाम मिला। ऑक्सफोर्ड में प्रवेश न मिलने पर उन्होंने दूसरे कालेज में पढ़ाई की और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से डिग्री प्राप्त की। उनका 1942 ई. में फिरोज गांधी से विवाह हुआ और आजादी पूर्व उनके पुत्रों—राजीव और संजय—का जन्म हुआ। विद्यार्थी जीवन में उन्होंने इलाहाबाद में वानर सेना गठित कर राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लिया। 1942 आंदोलन में उन्हें 243 दिन जेल में रहना पड़ा। विभाजन के समय उन्होंने शरणार्थी शिविर संचालित किया। नेहरू के निधन (1964 ई.) के बाद वह राज्यसभा सदस्य हुईं और दलगत राजनीति में प्रवेश कीं।

इस प्रकार उत्तर प्रदेश का महिला नेतृत्व केवल इन नामों तक सीमित नहीं है, बल्कि उनकी सूची बहुत विस्तृत है। महिलाओं के योगदान के बिना स्वतंत्रता संग्राम असंभव था। उत्तर प्रदेश की ये महिलाएँ न केवल शौर्य की प्रतीक हैं, अपितु राष्ट्रीय एकता तथा समानता का प्रेरणास्रोत भी हैं।

error: Content is protected !!
Scroll to Top