राजपूतों की पराजय अथवा तुर्कों की सफलता के कारण (Due to the defeat of the Rajputs or the success of the Turks)

राजपूतों की पराजय और तुर्कों की सफलता के कारण 12वीं और 13वीं शताब्दी में तुर्कों […]

राजपूतों की पराजय अथवा तुर्कों की सफलता के कारण (Due to the defeat of the Rajputs or the success of the Turks)

राजपूतों की पराजय और तुर्कों की सफलता के कारण

12वीं और 13वीं शताब्दी में तुर्कों की भारत में विजय और राजपूतों की पराजय भारतीय इतिहास की एक युगांतकारी घटना थी, जिसने उत्तर भारत के सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिदृश्य को स्थायी रूप से परिवर्तित कर दिया। मुहम्मद गोरी के 1173 ई. में गजनी में राज्यारोहण और 1181 ई. में उत्तर-पश्चिम भारत में उनके प्रवेश से प्रारंभ हुई यह प्रक्रिया केवल सैन्य टकरावों का परिणाम नहीं थी, अपितु एक दीर्घकालीन ऐतिहासिक प्रक्रिया का चरमोत्कर्ष थी, जो 12वीं शताब्दी के दौरान धीरे-धीरे परिपक्व हुई। इतिहासकार ए.बी.एम. हबीबुल्लाह ने ठीक ही लिखा है कि यह ‘एक ऐसी प्रक्रिया का अंतिम परिणाम थी जो समूची 12वीं सदी में जारी रही।’ राजपूत, जो अपने अद्वितीय शौर्य, साहस तथा युद्ध-कौशल के लिए विख्यात थे, तुर्कों के समक्ष पराजित हो गए, जबकि तुर्कों ने अपनी सीमित संख्या और संसाधनों के बावजूद पेशावर से बंगाल तक के विशाल भू-भाग पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। यह प्रश्न स्वाभाविक है कि आखिर वे कौन से कारक थे, जिन्होंने राजपूतों की पराजय और तुर्कों की अभूतपूर्व सफलता को सुनिश्चित किया? यह विश्लेषण केवल सैन्य रणनीतियों तथा युद्धक्षेत्र की घटनाओं तक सीमित नहीं है, अपितु इसमें राजनीतिक विखंडन, सामंतवादी व्यवस्था की अंतर्निहित कमजोरियाँ, सामाजिक संरचना की कठोरता, धार्मिक दृष्टिकोण, तुर्कों की श्रेष्ठ सैन्य तकनीक, उनकी मध्य एशियाई (अल्पाइन या पर्वतीय) उत्पत्ति तथा ठंडे क्षेत्रों के पर्यावरणीय अनुकूलन का मूल्यांकन शामिल है।

प्राचीन स्रोतों जैसे फख्र-ए-मुदब्बिर की आदाब-उल-हरब वश-शुजा, अलबिरूनी की किताब-उल-हिंद, चंदबरदाई की पृथ्वीराज रासो और आधुनिक इतिहासकारों जैसे रामशरण शर्मा, जदुनाथ सरकार, के.एस. लाल तथा डॉ. बी.के. मजूमदार के दृष्टिकोणों के आधार पर इस जटिल ऐतिहासिक परिघटना के कारणों को तर्कसंगत, क्रमबद्ध तथा विस्तृत रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है।

राजनीतिक विखंडन और एकता का अभाव

12वीं शताब्दी में उत्तर भारत में राजनीतिक एकता का पूर्ण अभाव राजपूतों की पराजय का प्राथमिक तथा मूलभूत कारण था। गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य (8वीं-10वीं सदी) के पतन के पश्चात् किसी केंद्रीकृत शक्ति का उदय नहीं हुआ, जिसके परिणामस्वरूप कन्नौज में गहड़वाल, मालवा में परमार, गुजरात में चालुक्य, अजमेर में चौहान, दिल्ली में तोमर तथा बुंदेलखंड में चंदेल जैसे छोटे-छोटे क्षेत्रीय राज्य स्थापित हो गए। ये राज्य आपसी प्रतिद्वंद्विता, क्षेत्रीय विस्तार की महत्वाकांक्षाओं तथा अंतहीन संघर्षों में उलझे रहे, जिससे कोई सामूहिक रक्षा प्रणाली विकसित नहीं हो सकी। 13वीं सदी के फख्र-ए-मुदब्बिर ने आदाब-उल-हरब वश-शुजा में स्पष्ट रूप से लिखा है कि भारतीय शासकों की परस्पर फूट तथा ईर्ष्या से तुर्कों को सैन्य अभियानों में बड़ी आसानी हुई, क्योंकि वे एक-दूसरे के विरुद्ध सहायता करने के स्थान पर स्वयं को मजबूत करने में लगे रहे। पृथ्वीराज चौहान और जयचंद गहड़वाल के बीच कन्नौज की प्रभुता को लेकर वैमनस्य तथा पारिवारिक विवाद इतना प्रबल था कि तुर्कों ने इस अवसर का भरपूर लाभ उठाया और एक-एक राज्य को अलग-अलग निशाना बनाया। रामशरण शर्मा के अनुसार राजपूतों की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाएँ तथा आपसी फूट ने उनकी सामूहिक शक्ति को न केवल कमजोर किया, अपितु एकजुट प्रतिरोध की संभावना को भी समाप्त कर दिया, जिसके फलस्वरूप वे तुर्कों के आक्रमणों का मुकाबला करने में असमर्थ सिद्ध हुए। यह विखंडन वास्तव में 11वीं सदी से ही प्रारंभ हो गया था, जब महमूद गजनी के छापामार अभियानों (1001-1027 ई.) के दौरान राजपूत राजाओं ने कोई संयुक्त मोर्चा नहीं गठित किया। 13वीं सदी के मिन्हाज-उस-सिराज की तबकात-ए-नासिरी के अनुसार 1018 ई. में कन्नौज के राजा त्रिलोचनपाल ने महमूद के विरुद्ध एकाकी प्रतिरोध किया, लेकिन अन्य राजपूत शासकों ने उनकी कोई सहायता नहीं की, जिसके कारण उनकी हार निश्चित हो गई। इसके विपरीत, तुर्की शासक जैसे महमूद गजनवी तथा मुहम्मद गोरी एक केंद्रीकृत तथा अनुशासित नेतृत्व के तहत कार्य करते थे, जो उनकी सैन्य रणनीतियों को अत्यंत प्रभावी तथा समन्वित बनाता था। तुर्कों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को कुशलतापूर्वक अपनाया, जिसमें उन्होंने राजपूत राज्यों के आपसी विवादों का लाभ उठाते हुए एक-एक को अलग से आक्रमण का शिकार बनाया, जिससे उनकी सफलता सुनिश्चित हो गई। इस राजनीतिक विखंडन ने न केवल सैन्य कमजोरी को जन्म दिया, अपितु आर्थिक तथा प्रशासनिक संसाधनों का अपव्यय भी प्रोत्साहित हुआ, जिससे राजपूतों की शक्ति और कम हो गई।

सामंतवादी व्यवस्था की कमजोरियाँ

राजपूतों की सामंतवादी व्यवस्था उनकी सैन्य तथा प्रशासनिक कमजोरी का एक प्रमुख तथा संरचनात्मक कारण सिद्ध हुई। 12वीं शताब्दी में राजपूत शासन पूरी तरह सामंतवाद पर आधारित था, जिसमें भू-राजस्व, सैन्य शक्ति तथा स्थानीय प्रशासन सामंतों के हाथों में केंद्रित था। ये सामंत अकसर स्वतंत्रता की अतिरिक्त महत्वाकांक्षा रखते थे और केंद्रीय शासक के प्रति उनकी निष्ठा संदिग्ध तथा परिस्थिति-निर्भर रहती थी, जिससे केंद्रीय सत्ता लगातार कमजोर होती गई। प्राचीन ग्रंथों जैसे मनुस्मृति (7.105-120) तथा महाभारत (शांतिपर्व, 12.67) में सामंतों के कर्तव्यों तथा निष्ठा के आदर्शों का वर्णन तो मिलता है, किंतु व्यावहारिक रूप में सामंत केंद्रीय शक्ति को आंतरिक रूप से कमजोर करते थे, क्योंकि उनकी प्राथमिकता स्वयं की क्षेत्रीय प्रभुता होती थी। जदुनाथ सरकार के अनुसार सामंतवादी सेनाएँ एकीकृत नेतृत्व तथा समन्वय के अभाव में अत्यंत अक्षम सिद्ध होती थीं, क्योंकि प्रत्येक सामंत अपनी टुकड़ी का स्वतंत्र तथा स्वेच्छाचारी नियंत्रण करता था, जिससे युद्धक्षेत्र में एकरूपता तथा रणनीतिक गहराई का पूर्णतः अभाव रहता था। उदाहरणस्वरूप, तराइन के द्वितीय युद्ध (1192 ई.) में पृथ्वीराज चौहान की विशाल सेना में अनेक सामंतों की टुकड़ियाँ शामिल थीं, किंतु इनमें समन्वय तथा एकीकृत नेतृत्व का पूर्णतः अभाव था, जिसके कारण तुर्कों की छोटी, किंतु अनुशासित सेना ने उन्हें पराजित कर दिया। इसके ठीक विपरीत, तुर्कों की इक्ता प्रथा अधिक केंद्रीकृत तथा प्रभावी थी, जिसमें भूमि-अनुदान (इक्ता) सुल्तान की कृपा तथा नियंत्रण पर निर्भर होते थे। फख्र-ए-मुदब्बिर ने स्पष्ट किया है कि इक्ता धारक (अमीर) सुल्तान के प्रति पूर्णतः निष्ठावान रहते थे, क्योंकि उनकी स्थिति तथा सत्ता सुल्तान की इच्छा पर आधारित होती थी, जिससे विद्रोह की संभावना न्यूनतम रहती थी। के.एस. लाल के अनुसार सामंतवाद ने राजपूतों की सैन्य रणनीति को जटिल तथा अप्रभावी बना दिया था, क्योंकि सामंतों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा, स्वार्थ तथा क्षेत्रीय विवाद एकजुट प्रयासों को निरंतर बाधित करते थे। इसके अतिरिक्त, सामंतवादी व्यवस्था के कारण राजपूत शासकों को स्थायी तथा पेशेवर सेना विकसित करने में कठिनाई होती थी तथा युद्ध के समय वे सामंतों की अनियमित तथा अनुशासनहीन सेनाओं पर पूर्णतः निर्भर रहते थे। दूसरी ओर तुर्की सेनाएँ नियमित वेतनभोगी सैनिकों या इक्ता के माध्यम से प्राप्त संसाधनों पर आधारित थीं, जिससे उनकी निष्ठा, अनुशासन तथा सक्रियता बनी रहती थी। इस प्रकार सामंतवाद ने राजपूतों को आंतरिक कलह तथा बिखराव की ओर धकेल दिया, जबकि तुर्कों को एकजुट तथा कुशल सैन्य मशीनरी प्रदान की।

सैन्य संगठन और नेतृत्व की कमी

राजपूत सेनाओं में संगठनात्मक ढाँचे तथा नेतृत्व की कमी तुर्कों की सफलता का एक महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक कारण सिद्ध हुई। तुर्की सेनाएँ स्थायी, कठोर अनुशासित तथा पूर्णतः एकीकृत होती थीं, जिनका नेतृत्व सुबुक्तगीन, महमूद गजनी तथा मुहम्मद गोरी जैसे कुशल तथा दूरदर्शी सेनानायकों द्वारा किया जाता था। ये सेनानायक मध्य एशियाई युद्ध परंपराओं में दीर्घ प्रशिक्षित थे, जो कठोर अनुशासन, गतिशील रणनीतियों तथा सामरिक गहराई पर आधारित होती थीं। मिन्हाज-उस-सिराज ने तबकात-ए-नासिरी में महमूद गजनवी की सैन्य संगठन क्षमता तथा रणनीतिक प्रतिभा की अत्यधिक प्रशंसा की है, जो उनकी लगातार विजयों का मूल आधार थी। इसके विपरीत, राजपूत सेनाएँ सामंतों द्वारा लाई गई असंगठित, विविध तथा मिश्रित टुकड़ियों का एक अनियमित संग्रह मात्र थीं, जिनमें कोई एकीकृत नेतृत्व संरचना या रणनीतिक समन्वय का अभाव रहता था। चंदबरदाई के पृथ्वीराज रासो के अनुसार राजपूत शासक स्वयं व्यक्तिगत शौर्य प्रदर्शन के लिए युद्धक्षेत्र में उतर जाते थे, जिससे वे समग्र युद्ध संचालन, रणनीतिक अवलोकन तथा टुकड़ियों के समन्वय पर आवश्यक ध्यान नहीं दे पाते थे। उदाहरणस्वरूप, तराइन के प्रथम युद्ध (1191 ई.) में पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गोरी को पराजित तो किया, किंतु उसे जीवित छोड़ कर एक घातक रणनीतिक भूल की, जो द्वितीय युद्ध में उनकी हार का प्रमुख कारण बनी। फख्र-ए-मुदब्बिर ने तुर्की सेनाओं की एक अन्य श्रेष्ठता का उल्लेख किया है कि वे पृष्ठभाग से युद्ध का संचालन करती थीं और उनके पास सुरक्षित तथा आरक्षित टुकड़ियाँ होती थीं, जिनका उपयोग निर्णायक क्षणों में किया जाता था, जिससे युद्ध का परिणाम उनके पक्ष में हो जाता था। जदुनाथ सरकार के अनुसार तुर्की दास प्रथा ने निष्ठावान, कुशल तथा पूर्णतः समर्पित सेनानायकों का एक विशाल समूह प्रदान किया, जो सुल्तानों के प्रति अटूट निष्ठा रखते थे। रामशरण शर्मा के अनुसार तुर्कों की सैन्य संगठन क्षमता, नियमित प्रशिक्षण तथा एकीकृत कमान ने उन्हें राजपूतों की व्यक्तिगत निष्ठाओं तथा बिखरी हुई संरचना पर स्पष्ट बढ़त प्रदान की। राजपूत सेनाएँ मुख्य रूप से व्यक्तिगत वीरता तथा कुलीन निष्ठाओं पर आधारित होती थीं, जिससे बड़े पैमाने पर एकीकृत नेतृत्व तथा रणनीतिक योजना असंभव हो जाती थी। इस कमी ने राजपूतों को तुर्कों की गतिशील तथा समन्वित सैन्य रणनीति के समक्ष असहाय बना दिया।

तुर्कों की श्रेष्ठ सैन्य तकनीक और रणनीति

तुर्कों की सैन्य तकनीक तथा रणनीति राजपूतों की तुलना में कहीं अधिक उन्नत, गतिशील तथा अनुकूल सिद्ध हुई। तुर्की घुड़सवार सेना मध्य एशिया के तीव्रगामी, बलिष्ठ तथा सहनशील घोड़ों पर आधारित थी, जो अत्यधिक गतिशीलता तथा तीरंदाजी में निपुण सैनिकों को पर्याप्त सहायता मिलती थी। 11वीं सदी के अलबिरूनी ने किताब-उल-हिंद में तुर्कों की घुड़सवारी कौशल तथा युद्ध-तकनीकों की प्रशंसा की है, जो उनकी तेज गति, सटीक निशाना साधने की क्षमता तथा पीछे हटने की रणनीति पर आधारित थी। तुर्की सैनिक लोहे की रकाबों का उपयोग करते थे, जो उन्हें घोड़े पर पूर्ण स्थिरता तथा संतुलन प्रदान करती थी, जिससे वे भाला, तलवार तथा तीरंदाजी का संचालन अत्यंत प्रभावी ढंग से करते थे। रामशरण शर्मा के अनुसार लोहे की रकाब का उपयोग भारत में 8वीं सदी से प्रचलित तो था, किंतु इसका व्यापक तथा व्यवस्थित उपयोग राजपूत सेनाओं में नहीं हुआ, जिससे उनकी घुड़सवार इकाइयाँ तुर्कों की तुलना में कम कुशल सिद्ध हुईं। तुर्कों की रणनीति में ‘नकली पीछे हटना’ तथा बगल से आकस्मिक हमला परिष्कृत तकनीकें शामिल थीं, जो राजपूतों की धीमी, भारी तथा सीधी रेखा वाली सेनाओं को पूर्णतः भ्रमित तथा विक्षिप्त कर देती थीं। फख्र-ए-मुदब्बिर ने लिखा है कि तुर्कों की गतिशीलता, त्वरित गति तथा एकीकृत रणनीति ने उन्हें युद्धक्षेत्र में बहुत लाभ पहुँचाया, क्योंकि वे शत्रु की कमजोरियों का तत्काल लाभ उठा लेते थे। तराइन के द्वितीय युद्ध (1192 ई.) में तुर्कों ने रात्रि के अंधेरे का लाभ उठाकर हमला किया, जिससे राजपूत सेना की पंक्तियाँ पूर्णतः अव्यवस्थित हो गईं और भगदड़ मच गई। तुर्कों की युद्ध नीति संपूर्ण विनाश, लूटपाट तथा मनोवैज्ञानिक आतंक पर आधारित थी, जिसमें नागरिकों तथा संसाधनों पर भी हमला शामिल था, जो शत्रु की इच्छाशक्ति को तोड़ देती थी। इसके विपरीत, राजपूत धर्मयुद्ध की अवधारणा से बँधे थे, जिसमें शरणागत को क्षमा कर देना, गैर-सैनिकों पर हमला न करना तथा युद्ध के नियमों का पालन करना अनिवार्य माना जाता था। यू.एन. घोषाल के अनुसार राजपूतों की इस नैतिक तथा सांस्कृतिक बाध्यता ने युद्ध में उनकी रणनीतिक प्रभावशीलता को सीमित कर दिया, जबकि तुर्कों की कोई ऐसी नैतिक बाधा नहीं थी। इस तकनीकी तथा रणनीतिक श्रेष्ठता ने तुर्कों को संख्या में कम होने के बावजूद निर्णायक विजय दिलाई।

ठंडे क्षेत्रों का पर्यावरणीय प्रभाव

तुर्कों की उत्पत्ति मध्य एशिया के अल्पाइन (पर्वतीय) तथा ठंडे क्षेत्रों से होने के कारण उनकी सैन्य क्षमता में एक स्वाभाविक तथा पर्यावरणीय श्रेष्ठता प्राप्त हुई, जो राजपूतों की तुलना में उनके अनुकूलन तथा सहनशक्ति को बढ़ाती थी। मध्य एशिया के कठोर पर्यावरण, विशेषकर ठंडे पठारों, बर्फीली घाटियों तथा पथरीले इलाकों ने तुर्कों को बचपन से ही शारीरिक सहनशक्ति, अनुशासित जीवनशैली तथा कठिन परिस्थितियों में जीवित रहने की कला सिखाई थी। अलबिरूनी ने मध्य एशियाई खानाबदोश तुर्कों की कठोर जीवनशैली तथा युद्ध कौशल की प्रशंसा की है, जो ठंडे क्षेत्रों की चरम कठिनाइयों, जैसे बर्फीले तूफान, लंबी यात्राएँ तथा सीमित संसाधन से विकसित हुई थी। ये तुर्क सैनिक कठोर जलवायु, लंबी पैदल या घुड़सवारी यात्राओं तथा न्यूनतम भोजन पर प्रशिक्षित थे, जिसने उन्हें भारत के गर्म, आर्द्र तथा मैदानी क्षेत्रों में युद्ध लड़ने के लिए पूर्णतः अनुकूल बना दिया और वे थकान, गर्मी तथा रोगों से कम प्रभावित होते थे। इसके विपरीत, राजपूत मुख्य रूप से भारत के उपजाऊ मैदानों तथा नदी घाटियों में बसे थे, जहाँ उनकी सेनाएँ स्थानीय जलवायु के अनुकूल तो थीं, किंतु लंबी दूरी की तीव्र गतिशीलता, कठोर मौसमी परिवर्तनों तथा विस्तृत अभियानों के लिए पर्याप्त रूप से तैयार नहीं थीं। के.एस. लैंबटन के अनुसार तुर्कों की खानाबदोश तथा पर्वतीय पृष्ठभूमि ने उन्हें तेज, गतिशील तथा सहनशील घुड़सवारी में निपुण बनाया, जो राजपूतों की भारी, पैदल-प्रधान तथा मंथर सेनाओं के विरुद्ध अत्यंत प्रभावी सिद्ध हुई। ठंडे क्षेत्रों में घोड़ों का प्रजनन तथा प्रशिक्षण भी तुर्कों को उच्च गुणवत्ता वाले युद्ध घोड़े प्रदान करता था, जो अधिक शक्तिशाली, तेज तथा सहनशील होते थे, जबकि भारत में उपलब्ध घोड़े अपेक्षाकृत कमजोर तथा धीमे माने जाते थे। यह पर्यावरणीय तथा सांस्कृतिक लाभ तुर्कों की सैन्य श्रेष्ठता का एक अंतर्निहित कारक था, जिसने उन्हें भारत की विविध भौगोलिक चुनौतियों का सामना करने में सहायक बनाया। उदाहरणस्वरूप, महमूद गजनवी के अभियानों में तुर्क सैनिकों ने हिमालयी दर्रों को पार करने में जो सहनशक्ति दिखाई, वह राजपूतों के लिए असंभव-सा था। इस प्रकार तुर्कों की अल्पाइन उत्पत्ति ने न केवल उनकी शारीरिक क्षमता को मजबूत किया, अपितु उनकी मानसिक दृढ़ता तथा अनुकूलन क्षमता को भी बढ़ावा दिया।

हाथियों का प्रयोग और रणनीतिक कमियाँ

राजपूत सेनाओं में हाथियों का व्यापक उपयोग एक मिश्रित तथा अंतर्विरोधी कारक सिद्ध हुआ, जो कभी लाभकारी तो कभी घातक साबित हुआ। हाथी युद्धक्षेत्र में स्थायित्व, मनोवैज्ञानिक भय तथा भारी हथियारों के लिए उपयोगी थे, किंतु उनकी गतिशीलता सीमित, रखरखाव महँगा तथा नियंत्रण कठिन होता था। मिन्हाज-उस-सिराज के अनुसार आनंदपाल के युद्ध (1008 ई.) में उनके प्रमुख हाथी के अचानक भड़क जाने तथा दिशाहीन हो जाने से पूरी सेना में अव्यवस्था तथा भगदड़ फैल गई, जिसका लाभ महमूद गजनवी ने उठाया। लेकिन हाथी सदैव हानिकारक सिद्ध हुए, पूर्णतः सत्य नहीं है क्योंकि महमूद गजनी स्वयं भारत से अनेक हाथी अपने साथ ले गया, जो उनकी उपयोगिता को प्रमाणित करता है। के.एस. लाल के अनुसार हाथियों का वास्तविक प्रभाव तब अधिकतम होता जब उन्हें तेज घुड़सवार सेना के साथ समन्वित तथा संतुलित किया जाता, जो राजपूत रणनीतियों में नहीं था। तुर्कों की तीव्र तथा गतिशील घुड़सवार सेना की तुलना में राजपूतों की सेना हाथियों के कारण और भी भारी तथा धीमी हो जाती थी, जिससे वे तुर्कों के त्वरित हमलों तथा घेराबंदी का प्रभावी सामना नहीं कर पाते थे। इसके अतिरिक्त, तुर्की सेनाएँ पूर्णतः पृष्ठभाग से नियंत्रित होती थीं, जबकि राजपूत शासक स्वयं हाथी पर सवार होकर युद्ध में भाग लेते थे, जिससे रणनीतिक टुकड़ियों के समन्वय में कमी आ जाती थी। फख्र-ए-मुदब्बिर ने भी हाथियों की कमजोरी का उल्लेख किया है। इस प्रकार हाथियों का अति प्रयोग राजपूतों की सैन्य गतिशीलता को सीमित कर दिया, जबकि तुर्कों ने अपनी घुड़सवार श्रेष्ठता का पूर्ण लाभ उठाया।

सामाजिक संरचना और जाति व्यवस्था

राजपूतों की सामाजिक संरचना, विशेषकर कठोर जाति व्यवस्था, उनकी सैन्य क्षमता तथा सामूहिक एकजुटता को गंभीर रूप से प्रभावित करने वाली सिद्ध हुई। हिंदू समाज में युद्ध तथा सैन्य दायित्व मुख्य रूप से क्षत्रिय वर्ण पर केंद्रित था, जिसके कारण समाज का विशाल हिस्सा, जैसे वैश्य, शूद्र तथा अन्य निम्न वर्ण, सैन्य प्रशिक्षण तथा हथियारों से पूर्णतः वंचित रह गया। मनुस्मृति (1.88-91) में वर्ण व्यवस्था के आधार पर कर्तव्यों का स्पष्ट वर्णन है, जिसमें युद्ध को क्षत्रियों का विशेषाधिकार बताया गया है, किंतु इससे समाज की कुल सैन्य क्षमता सीमित हो गई। अछूत की अवधारणा, मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध तथा अंतर्जातीय विवाहों का निषेध ने सामाजिक एकता तथा गतिशीलता को न्यूनतम कर दिया, जिससे जनता शासकों के प्रति उदासीन तथा विभाजित रही। अलबिरूनी ने हिंदू समाज की इस संकीर्णता, अहंकार तथा बाहरी प्रभावों के प्रति अस्वीकृति की तीखी आलोचना की है, जो विदेशी युद्ध तकनीकों, रणनीतियों तथा नवाचारों को अपनाने में बाधक बनी। जदुनाथ सरकार के अनुसार इस्लाम की समानता, भाईचारा तथा धार्मिक एकता की भावना ने तुर्कों को सामाजिक गतिशीलता तथा सैन्य उत्साह प्रदान किया, क्योंकि उनके समाज में कोई जन्म-आधारित पदानुक्रम नहीं था। तुर्की समाज में दास प्रथा ने योग्य तथा निष्ठावान सेनानायकों का निर्माण किया, जो विभिन्न पृष्ठभूमियों से आते थे, किंतु सुल्तानों के प्रति पूर्ण समर्पित रहते थे। के.एस. लैंबटन ने लिखा है कि तुर्की समाज में देशभक्ति की पारंपरिक भावना का अभाव था, किंतु इस्लाम ने उन्हें धार्मिक प्रचार, जिहाद तथा लूट के प्रलोभन से प्रेरित किया, जिससे उनकी एकजुटता मजबूत हुई। डॉ. ए.के. निजामी के अनुसार जाति प्रथा ने न केवल सामाजिक एकता को नष्ट किया, अपितु राजनीतिक स्थिरता को भी क्षति पहुँचाई, क्योंकि निम्न वर्णों की उदासीनता ने राजपूत शासकों को जनसमर्थन से वंचित कर दिया। इस सामाजिक कठोरता के कारण राजपूत एक व्यापक तथा समावेशी सैन्य बल विकसित करने से असफल रहे, जबकि तुर्कों की लचीली संरचना ने उन्हें विविध संसाधनों का लाभ उठाने में सक्षम बनाया।

राजपूतों की पराजय अथवा तुर्कों की सफलता के कारण (Due to the defeat of the Rajputs or the success of the Turks)
राजपूतों की पराजय अथवा तुर्कों की सफलता के कारण
धार्मिक और सांस्कृतिक कारक

हिंदू धर्म के कुछ अंतर्निहित तत्वों तथा सांस्कृतिक मान्यताओं ने राजपूतों की सैन्य शक्ति तथा मनोबल को अप्रत्यक्ष रूप से कमजोर किया। बौद्ध तथा जैन धर्म के अहिंसा सिद्धांतों का प्रभाव, कर्मवाद की अवधारणा तथा भाग्यवाद ने हिंदू समाज में आत्मविष्वास तथा सक्रिय प्रतिरोध की भावना को कमजोर किया। छांदोग्य उपनिषद (5.10.7) में कर्म तथा पुनर्जन्म के आधार पर सामाजिक स्थिति तथा परिणामों का उल्लेख है, जिसने जनता को पराजयों को भाग्य का फल मानने तथा प्रयासों से निराश होने के लिए प्रेरित किया। के.एम. पणिक्कर के अनुसार हिंदू समाज में नैतिक पतन, वाममार्गी तांत्रिक प्रथाएँ, मंदिरों में व्याप्त अनाचार तथा मदिरापान जैसे सामान्य दुर्गुणों ने धार्मिक तथा सांस्कृतिक शक्ति को आंतरिक रूप से कमजोर किया, जिससे सैनिकों का मनोबल प्रभावित हुआ। इसके विपरीत, तुर्कों में जिहाद की धार्मिक भावना प्रबल थी, जो उन्हें धार्मिक उत्साह, बलिदान की प्रेरणा तथा सामूहिक एकता प्रदान करती थी। फख्र-ए-मुदब्बिर ने तुर्कों के इस धार्मिक उत्साह को उनकी सैन्य सफलता का प्रमुख कारक बताया है। जदुनाथ सरकार ने लिखा है कि इस्लाम ने तुर्कों को मदिरापान, जुआ तथा बहुविवाह जैसे दुर्गुणों से दूर रखा, जबकि राजपूत समाज में ये प्रचलित थे, जो उनकी नैतिक दृढ़ता तथा अनुशासन को प्रभावित करते थे। तुर्की संस्कृति में इस्लाम की समावेशी प्रकृति ने विभिन्न जातियों तथा समूहों को एक सूत्र में बाँधा, जबकि हिंदू सांस्कृतिक संकीर्णता ने राजपूतों को बाहरी नवाचारों से वंचित कर दिया। इस धार्मिक-सांस्कृतिक अंतर ने तुर्कों को प्रेरित तथा राजपूतों को हतोत्साहित किया।

रक्षात्मक दृष्टिकोण और दूरदर्शिता का अभाव

राजपूतों की रक्षात्मक तथा निष्क्रिय युद्ध नीति उनकी पराजय का एक प्रमुख तथा रणनीतिक कारण बनी। ए.बी.एम. हबीबुल्लाह तथा डॉ. बी.के. मजूमदार के अनुसार राजपूत शासक शत्रु के किले या सीमा तक पहुँचने की प्रतीक्षा करते थे, जबकि तुर्क आक्रामक, पूर्वानुमानित तथा गतिशील रणनीति अपनाते थे। अलबिरूनी ने भारतीयों की संकीर्णता, बाहरी दुनिया के प्रति अज्ञानता तथा विदेशी सैन्य परंपराओं के प्रति उदासीनता की तीखी आलोचना की है, जिसने उन्हें तुर्की युद्ध तकनीकों से अनभिज्ञ रखा। कुषाण साम्राज्य के पतन तथा बौद्ध धर्म के हृास के पश्चात् भारत अंतर्मुखी तथा गतिहीन हो गया, जिससे विदेशी सैन्य रणनीतियों, नवाचारों तथा गठबंधनों का अनुकरण न्यूनतम हो गया। तुर्कों ने मध्य एशियाई युद्ध परंपराओं, जैसे सल्जूक तथा ख्वारिज्मी रणनीतियों से सीख ली, जिसने उन्हें रणनीतिक रूप से श्रेष्ठ बना दिया। राजपूतों ने कभी संयुक्त मोर्चा गठित कर तुर्कों का सामना करने की दूरदर्शी योजना नहीं बनाई, न ही उन्होंने गुप्तचर तंत्र या पूर्व चेतावनी प्रणाली विकसित की। इस रक्षात्मक दृष्टिकोण के कारण वे आक्रमणों का शिकार बन गए।

तुर्कों की दास प्रथा और सामाजिक गतिशीलता

तुर्कों की दास प्रथा (गुलाम प्रथा) ने उनकी सैन्य सफलता में महत्त्वपूर्ण तथा परिवर्तनकारी योगदान दिया। स्टेनली लेन-पूल के अनुसार दास अपने स्वामियों के गुणों, कौशलों तथा निष्ठा को पूर्णतः अपनाते थे, जिससे तुर्कों को योग्य, प्रशिक्षित तथा अटूट निष्ठावान नेतृत्व प्राप्त हुआ। कुतुबुद्दीन ऐबक तथा इल्तुतमिश जैसे दास-सेनापति बाद में सुल्तान बने तथा दिल्ली सल्तनत की मजबूत नींव रखी। तुर्की समाज में सामाजिक गतिशीलता प्रबल थी, जिसमें निम्न वर्गों तथा गुलामों को योग्यता के आधार पर उन्नति का अवसर मिलता था। इसके विपरीत, राजपूतों में वंशानुगत तथा जन्म-आधारित व्यवस्था तथा जाति प्रथा ने सामाजिक गतिशीलता को पूर्णतः सीमित कर दिया। तुर्की समाज में इस्लाम की समानता की भावना ने विभिन्न समूहों, जैसे तुर्क, अफगान, ईरानी को एकजुट किया, जिससे युद्ध में उनकी शक्ति कई गुना बढ़ जाती थी।

आकस्मिक और व्यक्तिगत भूलें

कुछ आकस्मिक घटनाएँ तथा राजपूत शासकों की व्यक्तिगत भूलें भी तुर्कों की सफलता का कारण बनीं। मिन्हाज-उस-सिराज के अनुसार जयपाल शाही (1001 ई.) को अचानक तूफान तथा बर्फबारी का सामना करना पड़ा, जिससे उनकी सेना शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर हो गई। आनंदपाल के युद्ध में उनके प्रमुख हाथी का भड़कना अव्यवस्था का कारण बना। चंदबरदाई के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने तराइन के प्रथम युद्ध में मुहम्मद गोरी को क्षमा कर जीवित छोड़ दिया, जो द्वितीय युद्ध में घातक सिद्ध हुआ। जयचंद गहड़वाल की आँख में तीर लगने से उनकी सेना तितर-बितर हो गई। बख्तियार खिलजी को पूर्णिया में घोड़े का व्यापारी समझना लक्ष्मणसेन पर हमले का कारण बना। इन घटनाओं ने संरचनात्मक कमजोरियों के साथ मिलकर राजपूतों की पराजय को अपरिहार्य बना दिया।

तुर्कों की आर्थिक और व्यापारिक श्रेष्ठता

तुर्कों की आर्थिक तथा व्यापारिक व्यवस्था ने उनकी सैन्य शक्ति को मजबूत आधार प्रदान किया। अलबिरूनी ने मध्य तथा पश्चिम एशिया में घोड़ों के व्यापार का उल्लेख किया है, जो भारत के साथ प्रचलित था तथा तुर्कों को उच्च गुणवत्ता वाले युद्ध घोड़े उपलब्ध कराता था। 12वीं सदी में उत्तर भारत में मुस्लिम अश्व-व्यापारियों की बस्तियाँ स्थापित हो चुकी थीं, जो तुर्की सेनाओं को घोड़ों, हथियारों तथा अन्य संसाधनों की आपूर्ति करती थीं। तुर्कों की इक्ता प्रथा ने सैन्य खर्चों को व्यवस्थित तथा केंद्रीकृत किया, जबकि राजपूत सामंतों पर निर्भर रहते थे, जो राजस्व संग्रह तथा सैन्य सहायता में अनियमितता करते थे। इस आर्थिक श्रेष्ठता ने तुर्कों को लंबे अभियानों के लिए सक्षम बना दिया था।

तुर्कों की विजय का ऐतिहासिक महत्त्व

तुर्कों की विजय ने उत्तर भारत में इस्लामी शासन की स्थापना कर एक नए युग की शुरुआत की। मिन्हाज-उस-सिराज के अनुसार तुर्कों ने एक केंद्रीकृत तथा प्रशासनिक रूप से मजबूत साम्राज्य स्थापित किया, जिसने राजपूतों के छोटे-छोटे राज्यों तथा सामंतवादी अराजकता को समाप्त कर दिया। इस्लाम की समानता तथा धार्मिक उत्साह ने तुर्कों को एकजुट रखा। तुर्की विजय ने भारत को मध्य तथा पश्चिम एशिया से पुनः सांस्कृतिक तथा व्यापारिक रूप से जोड़ा, जिससे नई तकनीकें तथा विचार आए। मंदिरों के विनाश तथा धार्मिक प्रतिबंधों ने हिंदू धर्म को अंतर्मुखी बनाया, जिससे भक्ति आंदोलन को अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहन मिला। के.एम. पणिक्कर के अनुसार भक्ति आंदोलन ने निम्न जातियों को धार्मिक समावेश का अवसर दिया, जिससे हिंदू समाज में एकता तथा सामाजिक परिवर्तन को गति मिली। तुर्कों की विजय ने सामाजिक गतिशीलता को प्रोत्साहित किया, जिसमें शूद्रों तथा अन्य वर्गों को प्रशासनिक तथा सैन्य अवसर प्राप्त हुए। कुल मिलाकर यह विजय भारतीय इतिहास में एक संक्रमण काल का प्रारंभ था।

इस प्रकार राजपूतों की पराजय तथा तुर्कों की सफलता एक दीर्घकालीन तथा बहुआयामी प्रक्रिया का परिणाम थी, जिसमें राजनीतिक विखंडन, सामंतवादी कमजोरियाँ, सैन्य संगठन की कमी, रक्षात्मक दृष्टिकोण, सामाजिक संरचना की कठोरता, धार्मिक-सांस्कृतिक बाधाएँ, तुर्कों की श्रेष्ठ सैन्य तकनीक, उनकी अल्पाइन उत्पत्ति तथा ठंडे क्षेत्रों का पर्यावरणीय लाभ प्रमुख कारण थे। तुर्कों की गतिशीलता, एकीकृत नेतृत्व तथा इस्लाम की धार्मिक प्रेरणा ने उनकी सफलता को अपरिहार्य बना दिया। राजपूतों की नैतिकता तथा धर्मयुद्ध की अवधारणा ने उनकी सैन्य प्रभावशीलता को सीमित किया। अलबिरूनी की टिप्पणी कि भारतीयों में बाहरी दुनिया के प्रति संकीर्णता थी, उनकी रणनीतिक कमियों को सही रूप से उजागर करती है। तुर्कों की विजय से भारतीय समाज, शासन तथा संस्कृति में स्थायी परिवर्तन आए, जो मध्यकालीन भारत की नींव बन गए।

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