गणपतिदेव (Ganapatideva, 1199-1262 AD)

गणपतिदेव का उदय और प्रारंभिक संघर्ष गणपतिदेव काकतीय राजवंश के सबसे लंबे समय तक शासन […]

गणपतिदेव का उदय और प्रारंभिक संघर्ष

गणपतिदेव काकतीय राजवंश के सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले और प्रभावशाली शासक थे, जिन्होंने 1199 से 1262 ई. तक लगभग 63 वर्षों तक शासन किया। उनका काल काकतीय साम्राज्य के लिए स्वर्णयुग माना जाता है। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में सिंहासन प्राप्त किया था। उनके चाचा रुद्रदेव सेउण के यादवों के साथ युद्ध में मारे गए और स्वयं गणपतिदेव को यादव नरेश जैत्रपाल (जैतुगी) ने बंदी बना लिया था। यही नहीं, 1198-1199 ई. में उनके पिता महादेव भी सेउण (यादव) राज्य के विरुद्ध युद्ध करते हुए मारे गए। इस संकटकाल में महादेव के सेनापति रेचेर्ला रुद्र ने काकतीय राज्य की रक्षा का दायित्व संभाला। रेचेर्ला रुद्र ने गणपतिदेव के नाम पर प्रशासन चलाया, सामंतों के विद्रोहों को कुशलता से दबाया और नागति नामक एक अज्ञात शासक के आक्रमण को विफल किया। कुछ विद्वानों का मानना है कि उन्होंने चोल राजा कुलोत्तुंग तृतीय के आक्रमण को भी विफल किया, यद्यपि इसके लिए ठोस साक्ष्य नहीं हैं। कुलोत्तुंग तृतीय ने दक्षिण में वेलनाडु पर कब्जा करके वेंगी मंडल पर प्रभाव जमाया और वारंगल तक काकतीय साम्राज्य पर हमला किया था।

रेचेर्ला रुद्र ने विद्रोही सामंतों को दंडित करते हुए उनके सिर भाले पर लटका कर डर फैलाया, जिससे दुश्मन सेनाओं को पीछे हटना पड़ा। यहां तक कि नाटवाडि शासक भी काकतीय सेना के क्रूर रुख से भयभीत होकर अपनी राजधानी छोड़कर भाग गये। इन सफलताओं के लिए रुद्र को काकतीय राज्य के भार को संभालने वाले ‘काकतीयराज्यभरधौरेय’ और ‘काकतीय राज्यसमर्थ’ की उपाधियां प्रदान की गईं।

1199 ई. में यादव राजा जैत्रपाल ने गणपतिदेव को रिहा कर दिया। यादव शिलालेखों के अनुसार यह दया के कारण था, लेकिन लेकिन संभवतः यादवों ने होयसलों के साथ जारी दक्षिणी सीमा पर संघर्ष के कारण काकतीयों के साथ मैत्री संबंध बनाए ताकि अपनी पूर्वी सीमाओं को सुरक्षित रखा जा सके।

गणपतिदेव की उपलब्धियाँ

रिहाई के बाद गणपतिदेव ने 26 दिसंबर 1199 ई. को मंथेना शिलालेख में ‘सकलदेशप्रतिष्ठापनाचार्य’ (सारे राज्य का संस्थापक) के रूप में अपने पैतृक राज्य पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया।

तटीय आंध्र पर विजय
प्रारंभिक स्थिति और क्षेत्रीय अराजकता

गणपतिदेव के चाचा रुद्रदेव के द्राक्षारम और त्रिपुरांतकम शिलालेखों से ज्ञात होता है कि उनके शासनकाल के प्रारंभ में तटीय आंध्र क्षेत्र काकतीय नियंत्रण से बाहर था। कल्याणी के चालुक्यों और चोलों की आंतरिक अराजकता के कारण तटीय आंध्र में कई सामंत शासक सत्ता के लिए संघर्षरत थे। इनमें वेलनाडु के चोड शासक प्रमुख थे। 1181 ई. के आसपास चोड द्वितीय की मृत्यु के बाद वेलनाडु चोडों की शक्ति कमजोर हो गई। चोड द्वितीय के पोते पृथ्वीश्वर ने चंदवोलु से पीथापुरम में अपनी राजधानी स्थानांतरित कर कृष्णा डेल्टा में शक्ति की पुनर्स्थापना का प्रयास शुरू किया।

गणपतिदेव ने इस अवसर का लाभ उठाकर 1201 ई. तक वेलनाडु के शासक पृथ्वीसेन की सत्ता समाप्त कर तटीय आंध्र पर काकतीय प्रभुत्व स्थापित किया। इसकी पुष्टि उनके बहनोई नटवाड़ी प्रमुख वक्कडिमल्ल रुद्र के 1201 ई. के कनक दुर्गा मंदिर शिलालेख से होती है। संभवतः धरणीकोट के कोट प्रमुखों ने भी काकतीय आधिपत्य स्वीकार किया।

सैन्य अभियान और रणनीतिक विजय

तटीय आंध्र में गणपतिदेव को कई छोटे सरदारों और सामंतों के विरोध का सामना करना पड़ा। वेलनाडु के सरदारों का द्राक्षाराम, पीथापुरम, और श्रीकाकुलम जैसे समुद्र तटीय क्षेत्रों पर नियंत्रण था, जो विदेशी व्यापार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान थे। पृथ्वीश्वर इन क्षेत्रों और भीतरी भागों पर प्रभुत्व बनाए रखने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन स्थायी नियंत्रण स्थापित करने में असमर्थ रहे।

1201 ई. में गणपतिदेव ने समुद्र तटीय जिलों पर आक्रमण किया, विजयवाड़ा पर अधिकार किया और कृष्णा नदी के मुहाने पर स्थित दीवी द्वीप तक पहुंच गए। मलयाल सरदार चौंड के नेतृत्व में काकतीय सेना ने दीवी द्वीप पर आक्रमण किया और अय्या परिवार के सरदार पिन्नी चोडी (पिना चोडी) को परास्त किया, जो संभवतः पृथ्वीश्वर के अधीन शासन करते थे।

गणपतिदेव ने विजित क्षेत्रों को सीधे काकतीय साम्राज्य में मिलाने के बजाय स्थानीय सरदारों को उनके क्षेत्र लौटा दिए और वैवाहिक संबंधों के माध्यम से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए। पिन्नी चोडी की पुत्रियों नाराम्बा और पेरम्बा का विवाह गणपतिदेव से हुआ और उनके भाई जयपा ने काकतीय सेना में सेनापति के रूप में सेवा शुरू की। चौंडा और उनके पुत्र काटा ने दीवी द्वीप से लूटे गए हीरे काकतीयों को सौंपे, जिसके बदले उन्हें ‘द्वीपलुंतक’ और ‘द्वीपचुरकर’ की उपाधियां मिलीं।

पृथ्वीश्वर का पतन

द्राक्षारम और श्रीकुरमम शिलालेखों से पता चलता है कि पृथ्वीश्वर का नियंत्रण केवल कलिंग के एक छोटे हिस्से तक सीमित था। 1206 ई. में वेलनाडु पर पुनः नियंत्रण स्थापित करने के प्रयास में काकतीय अधीनस्थों के खिलाफ युद्ध के दौरान उनकी मृत्यु हो गई, जो उनके कोषाध्यक्ष अनंत के श्रीकुरमम शिलालेख से प्रमाणित होता है।

कई शिलालेख गणपतिदेव को ‘पृथ्वीश्वर शिरा कंडुका क्रीड़ा विनोद’ (पृथ्वीश्वर के सिर वाली गेंद का खिलाड़ी) के रूप में वर्णित करते हैं, जो उनकी निर्णायक विजय का प्रमाण हैं। बापटला के पास चेन्नकेशव मंदिर के शिलालेख से भी ज्ञात होता है कि 1209 ई. तक गणपतिदेव ने वेलनाडु और कर्मराष्ट्र (कम्मनाडु) क्षेत्रों को अपने राज्य में मिला लिया था।। 1213 ई. के चेब्रोलु शिलालेख के अनुसार उन्होंने जयपा को वेलनाडु का राज्यपाल नियुक्त किया।

कम्मनाडु और अन्य क्षेत्रों पर नियंत्रण

कम्मनाडु क्षेत्र के तेलुगु चोड प्रमुख कोनीदेना ने संभवतः स्वतंत्रता का दावा किया। गणपतिदेव के विश्वस्त अधीनस्थ ओपिली सिद्धि, जो तेलुगु चोडाओं की पोत्तपि शाखा से थे, ने इन विद्रोहियों को परास्त कर क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित किया। 1203 और 1241 के कोंडापर्ती शिलालेखों से ज्ञात होता है कि गणपतिदेव ने इन्हें पूर्व विद्रोही क्षेत्र का राज्यपाल नियुक्त किया। इसके अतिरिक्त, 1217-1218 ई. से पहले अड्डंकी के चक्रनारायण प्रमुखों ने काकतीय अधीनता स्वीकार की।1211 ई. के एक शिलालेख से पता चलता है कि वेलनाडु क्षेत्र लगभग पूरी तरह काकतीय नियंत्रण में था। इन विजयों के फलस्वरूप तटीय आंध्र क्षेत्र काकतीय साम्राज्य का अभिन्न अंग बन गया।

दक्षिण के राज्यों पर विजय
नेल्लोर में तेलुगु चोलों का उदय

चोल नरेश राजराज तृतीय की कमजोर स्थिति का लाभ उठाकर नल्लसिद्धि ने नेल्लोर में स्वतंत्र तेलुगु चोल राज्य स्थापित किया, जिसमें नेल्लोर, चिंगलपटेट और कुड्डलोर जनपद शामिल थे। लगभग 1180 ई. में चोल राजा कुलोत्तुंग तृतीय ने चोड शासक मनुमसिद्धि प्रथम (वीर गंडगोपाल) को परास्त कर उनके भाई नल्लसिद्धि को सिंहासन पर बैठाया। नल्लसिद्धि और उनके भाई तम्मुसिद्धि ने 1207-1208 ई. तक चोल जागीरदार के रूप में शासन किया।

मनुमसिद्धि के पुत्र टिक्का, जिन्होंने पहले पृथ्वीश्वर के खिलाफ गणपतिदेव की सहायता की थी, ने नेल्लोर के सिंहासन के लिए गणपतिदेव से सहायता मांगी। गणपतिदेव ने नेल्लोर पर सैनिक अभियान चलाकर तम्मुसिद्धि को भगाया और टिक्का को टिक्काभूपाल बनाकर स्थापित किया। टिक्का ने अपने शासन को मजबूत किया, लेकिन होयसलों से निरंतर संघर्ष करना पड़ा। बाद में, अपनी स्थिति सुरक्षित करने के लिए टिक्का ने कुलोत्तुंग तृतीय की अधीनता स्वीकार की।

प्रारंभिक दक्षिणी अभियान और जयपा की भूमिका

गणपतिदेव ने 1213 ई. से पहले ही दक्षिण में सत्ता विस्तार शुरू किया, जिसमें नेल्लोर के तेलुगु चोलों ने उनका समर्थन किया। नेल्लोर के सिंहासन के दो पक्षों के संघर्ष में हस्तक्षेप कर गणपतिदेव ने अपना प्रभाव स्थापित किया। 1213 ई. के चेब्रोलु शिलालेख के अनुसार दक्षिणी राजाओं के खिलाफ अभियान के बाद गणपतिदेव ने सेनापति जयपा को दक्षिणी क्षेत्र का आधिपत्य सौंपा, जिनमें नेल्लोर के चोल प्रमुख भी शामिल थे।

टिक्का ने गंगयसाहिनी नामक अधिकारी को नियुक्त किया, जो बाद में गणपतिदेव की सेवा में ऊपरी पकानाडु का राज्यपाल बना। टिक्का ने ने होयसलों के आक्रमणों का सफलतापूर्वक मुकाबला किया, जिसमें संभवतः गणपतिदेव ने उनका समर्थन किया।

वृहद सैन्य अभियान और क्षेत्रीय प्रभुत्व

1223 ई. के गणपेश्वरम शिलालेख के अनुसार गणपतिदेव ने चोल, कलिंग, सेउण, बृहत्कर्णाटक और लाट देशों के शासकों को परास्त कर दीवी द्वीप सहित वेलनाडु पर नियंत्रण कर लिया। टिक्का ने इस अभियान में सैन्य सहायता प्रदान की, जिसके बदले गणपतिदेव ने उन्हें नेल्लोर और काँची का शासक नियुक्त किया।

1228 ई. के मत्तेवदा शिलालेख में काकतीयों द्वारा चोल राजधानी (संभवतः काँची) हमला और लूट का उल्लेख है। 1231 ई. के गणपेश्वरम शिलालेख से सेनापति जयपा के नेतृत्व में इन विजयों की पुष्टि होती है। टिक्का को विभिन्न शासकों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा, है। टिक्का को कई शासकों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा, जिसमें गणपतिदेव ने उनका समर्थन किया।

कलिंग और वेंगी पर विजय

गणपतिदेव ने कलिंग और वेंगी में सैन्य प्रभुत्व स्थापित किया। 1222-23 ई. के ताल्लप्रोलदुटुरु शिलालेख के अनुसार तेलुगु चोल प्रमुख भीम ने वेंगी, उड़ीसा और बस्तर के कई हिस्सों पर विजय प्राप्त की। इस अभियान में भीम ने काकतीय सेना की सहायता ली। यह अभियान गोदावरी तट से शुरू हुआ, जिसमें तेककली, गोधुमराटि और पदियराज जैसे सामंत शासकों को पराजित किया गया, जो पूर्वी गंग नरेश राजराज तृतीय के अधीन थे।

गणपतिदेव ने बस्तर में चक्रकोट पर विजय प्राप्त की। पृथ्वीश्वर की मृत्यु के बाद (1206) गणपतिदेव ने सोम (इंदुलुरी परिवार) और राजनायक (रेचेर्ला परिवार) के नेतृत्व में सेनाएं भेजीं।

राजनायक ने 1212 ई. से पहले उत्तर-पूर्व में सफलताएं हासिल कीं। 1236 ई. के उप्परापल्ली शिलालेख में उनकी विजयों का उल्लेख है – मन्नियास के शासकों को अधीन करना, बोक्केरा के गोधुमारति को मारना, उदयगिरि पर कब्जा और मंथन को अधिगृहीत करना। 1212 ई. में राजनायक ने द्राक्षारामम में भगवान भीमेश्वर को दान दिया। पराजित शासक संभवतः पूर्वी गंग नरेश के अधीनस्थ थे।

15वीं शताब्दी के शिवयोगसार के अनुसार इंदुलूरी सोमप्रधानि ने कमलाकरपुरी (कोलानु) और पूर्वी तटीय क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की, हालांकि अभिलेखीय साक्ष्य इसकी पुष्टि नहीं करते। कोलानु पर काकतीय नियंत्रण 1231 ई. से पहले स्थापित नहीं हुआ। कलिंग विजयें कई वर्षों के प्रयासों का परिणाम थीं।

गणपतिदेव के कलिंग अभियान सैन्य दृष्टि से प्रभावशाली थे, लेकिन काकतीय राज्य का स्थायी विस्तार नहीं हुआ। पूर्वी गंग शासकों ने काकतीय सेना के लौटने के बाद अपने क्षेत्रों को पुनः प्राप्त किया और काकतीय प्रभाव द्राक्षारामम के उत्तर तक सीमित रहा।

कम्मनाडु और पूर्वी गंगों के साथ संघर्ष

कम्मनाडु के सामंत शासकों ने गणपतिदेव के प्रभुत्व को अस्वीकार किया। ओपिली सिद्धि ने इन विद्रोहियों को परास्त कर कम्मनाडु पर नियंत्रण स्थापित किया और प्रांतपति नियुक्त हुए। 1217-1218 ई. से पहले अड्डंकी के चक्रनारायण प्रमुखों ने काकतीय अधीनता स्वीकार की।

गणपतिदेव ने 1212 ई. के बाद कलिंग और वेंगी में कई अभियान चलाए। 1217 ई. में अनंग भीम तृतीय ने काकतीय सेनाओं को खदेड़ा, लेकिन 1223 ई. में गणपतिदेव ने उन्हें परास्त किया। 1238 ई. में नरसिंह प्रथम के अभियान को गणपतिदेव ने विफल किया।

दक्षिणी अभियान और पांड्य संघर्ष

1248 ई. में टिक्का की मृत्यु के बाद नेल्लोर में अशांति उत्पन्न हुई। गणपतिदेव ने मनुम सिद्धि द्वितीय को सहायता दी और कई शासकों को परास्त किया। 1251-57 ई. में जटावर्मन सुंदर पांड्य ने नेल्लोर और काँची पर कब्जा कर लिया।

गणपतिदेव ने यादव राजा कृष्ण और बाण राजाओं के साथ गठबंधन किया, लेकिन 1263 ई. में मुटुकूर के युद्ध में पांड्यों से पराजित हुए।

गणपतिदेव का मूल्यांकन

गणपतिदेव का 63 वर्षों का शासनकाल काकतीय इतिहास का स्वर्णयुग था। उन्होंने तेलुगु भाषी क्षेत्रों पर प्रभुत्व स्थापित किया, यादवों के साथ मैत्री कायम की, और होयसलों की दुर्बलता का लाभ उठाया। उन्होंने राजधानी वारंगल स्थानांतरित की, व्यापार तथा कृषि को बढ़ावा दिया और बंदरगाहों में करों को कम किया। उनके प्रमुख सेनानायक रुद्र, राजनायक और काट ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गणपतिदेव ने नाराम्बा और मलांबा से विवाह किया और उनकी पुत्री रुद्रमा देवी को 1260 ई. में उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उनकी मृत्यु (1262) के बाद जटावर्मन सुंदर पांड्य ने तेलुगु चोलों को परास्त किया और दक्षिणी क्षेत्र में शक्ति संघर्ष आरंभ हुआ।

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