नंदिवर्मन तृतीय (846-869 ई.) पल्लव वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक था, जिसने अपने पराक्रम और कूटनीतिक दक्षता से पल्लव साम्राज्य की खोई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया। दंतिवर्मन के पुत्र और कदंबवंशीय महारानी अग्गलनिम्मटि से जन्मे नंदिवर्मन ने चोल, पांड्य और चेर राज्यों पर विजय प्राप्त की, विशेष रूप से तेल्लारु युद्ध (लगभग 852 ई.) में पांड्य शासक श्रीमार श्रीवल्लभ को पराजित कर कावेरी घाटी पर पुनः नियंत्रण स्थापित किया। तमिल काव्य नंदिकलंबकम में उनकी वीरता और विजयों का वर्णन है, जिसमें विजय के बाद उसे तेल्लार्ररिंद (तेल्लारु का विनाशक) की उपाधि मिली। सैन्य उपलब्धियों के साथ-साथ, नंदिवर्मन ने सांस्कृतिक और व्यापारिक क्षेत्र में भी योगदान दिया, जिसमें मामल्लपुरम और मल्लै जैसे नगरों का विकास, दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापारिक संबंध और तमिल-संस्कृत साहित्य का संवर्धन शामिल है। शिव भक्त होने के कारण उसने मंदिर निर्माण को प्रोत्साहन दिया और तमिल कवि पेरुन्देवनार को आश्रय दिया। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष की पुत्री शंखा से विवाह कर उसने कूटनीतिक संबंधों को भी मजबूत किया। इस प्रकार नंदिवर्मन तृतीय पल्लव वंश के अंतिम पराक्रमी शासक के रूप में इतिहास में अमर हैं।
दंतिवर्मन के बाद नंदिवर्मन तृतीय 846 ई. में पल्लव सिंहासन पर बैठा। वह पल्लव वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक था, जो तमिल काव्य नंदिकलंबकम के नायक के रूप में प्रसिद्ध है। इस काव्य से उसकी विजयों के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है। उसने अपने पराक्रम से चोलों, पांड्यों और चेरों को पराजित कर पल्लव साम्राज्य की खोई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया।
नंदिवर्मन तृतीय की सामरिक उपलब्धियाँ
दंतिवर्मन के शासनकाल में पांड्यों ने पल्लव साम्राज्य के दक्षिणी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। नंदिवर्मन तृतीय ने पांड्य राज्य पर आक्रमण कर कावेरी घाटी को पुनः अपने नियंत्रण में कर लिया। इस कार्य में संभवतः गंगों और राष्ट्रकूटों ने उसकी सहायता की। उसने कूटनीतिक दक्षता का परिचय देते हुए शक्तिशाली राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किया और संभवतः राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष की पुत्री शंखा से विवाह किया। इससे उत्तर से राष्ट्रकूटों के संभावित आक्रमण का भय समाप्त हो गया, जिससे उसने अपने परंपरागत प्रतिद्वंद्वी पांड्यों के विरुद्ध निर्णायक युद्ध की योजना बनाई।
वैलूरपाल्यम अभिलेख में कहा गया है कि नंदिवर्मन तृतीय ने अपनी तलवार से शत्रुओं के अनेक हाथियों को मार गिराया और उनके मस्तक से निकले मोतियों से स्वयं को सुशोभित किया (खंगनिहितद्विपकुंभमुक्तफलप्रपा सिते समरांगणे यः शत्रुनिहत्य समवापदनन्यलब्ध्यां राजश्रियं स्वपुजविक्रमवशाली)। यह विजय उसे तेल्लारु के युद्ध में प्राप्त हुई। संदरेश्वर, तिरुवल्लभ और पेरुमल मंदिर अभिलेखों में भी तेल्लारु युद्ध की विजय का उल्लेख है। उसका पांड्य प्रतिद्वंद्वी श्रीमार श्रीवल्लभ (815-862 ई.) था, जिसे संभवतः अपने अधीनस्थ सामंतों से सहायता मिली थी। तमिल ग्रंथ नंदिकलंबकम में नंदिवर्मन तृतीय को तेल्लारु, वेल्लारु, कडम्बूर, वेरियलूर, तोंडी और कुरुक्कोटै जैसे युद्धों का विजेता बताया गया है, जिनमें तेल्लारु युद्ध सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था।
इस प्रकार नंदिवर्मन तृतीय ने पांड्यों के विरुद्ध निर्णायक सफलता प्राप्त की और अपने पिता के समय खोए दक्षिणी क्षेत्रों को पुनः विजित किया। इस सफलता के उपलक्ष्य में उसने तेल्लार्ररिंद (तेल्लारु का विनाशक) की उपाधि धारण की। चूँकि इस युद्ध का विवरण उसके शासनकाल के छठे वर्ष के वैलूरपाल्यम अभिलेख में मिलता है, अतः यह युद्ध 852 ई. के आसपास हुआ होगा।
पांड्यों पर विजय के परिणामस्वरूप न केवल कावेरी घाटी पर पल्लवों का पुनः नियंत्रण स्थापित हो गया, बल्कि दक्षिण भारत में नंदिवर्मन तृतीय की प्रतिष्ठा भी बढ़ गई। नंदिकलंबकम में उसे कावेरी क्षेत्र, कोंगु और अन्य राज्यों का अधिपति कहा गया है और उसे कोंगन (कोंगु) तथा शोणाडम् (चोल क्षेत्र) की उपाधियाँ दी गई हैं, जो उसके प्रभुत्व का द्योतक हैं।
नंदिवर्मन तृतीय महान् पल्लव शासकों की परंपरा में अंतिम पराक्रमी और सुयोग्य शासक था। उसने गंग, चोल और पांड्य राज्यों पर आक्रमण कर पल्लव साम्राज्य का विस्तार किया और दक्षिण में अपने शौर्य की धाक जमाई।
नंदिवर्मन तृतीय की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
नंदिवर्मन तृतीय का काल सैन्य उपलब्धियों के साथ-साथ सांस्कृतिक प्रगति के लिए भी प्रसिद्ध है। नंदिवर्मन के शासनकाल में मामल्लपुरम् (महाबलीपुरम्) और मल्लै जैसे नगरों की प्रतिष्ठा बढ़ी। मलय प्रायद्वीप के स्याम (थाईलैंड) के तकुआपा से प्राप्त एक तमिल अभिलेख के अनुसार मणिग्राम नामक व्यापारी वर्ग ने वहाँ एक तड़ाग का निर्माण कराया और इसका नाम नंदिवर्मन के सम्मान में अवनिनारणन रखा। इससे स्पष्ट होता है कि उस समय भारत का दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ व्यापारिक संबंध था।
इसके अतिरिक्त, नंदिकलंबकम नामक अभिलेख में नंदिवर्मन को चार समुद्रों का स्वामी कहा गया है, जो उसकी शक्तिशाली नौसेना और विस्तारवादी नीति का प्रमाण है। उसने बृहत्तर भारत के साथ राजनयिक और व्यापारिक संपर्क स्थापित किया। उसके शासनकाल में दक्षिण भारत की राजनीति, संस्कृति और व्यापार दोनों में वृद्धि हुई।
नंदिवर्मन तृतीय शिव का अनुयायी था। उसके शासनकाल में किलियणूर (दक्षिणी अर्काट) में एक विष्णु मंदिर और पल्लिकोंड (उत्तरी अर्काट) के शिव मंदिर का मुखमंडप निर्मित हुआ। उसने तमिल और संस्कृत साहित्य के संवर्धन पर विशेष ध्यान दिया। वह तमिल कवि पेरुन्देवनार का आश्रयदाता था, जिसने भारतवेणवा नामक ग्रंथ की रचना की। नंदिवर्मन तृतीय के व्यक्तित्व को उजागर करने के लिए तमिल काव्य नंदिकलंबकम की रचना हुई। उसे उग्रकोपन, वर्तुगन, आकुलकडपडै और अवनिनारणन जैसी उपाधियाँ प्राप्त थीं। उसने राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष प्रथम की पुत्री शंखा से विवाह किया और 846 ई. से 869 ई. तक सफलतापूर्वक शासन किया।