महेंद्रवर्मन प्रथम (600-630 ई.) पल्लव वंश का एक महान राजा था, जिसने दक्षिण भारत के उत्तरी तमिलनाडु और दक्षिणी आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों पर शासन किया। वह एक विद्वान, चित्रकार, अभिनेता और नाटककार भी थे, जिसने संस्कृत और तमिल साहित्य को प्रोत्साहित किया। प्रारंभ में वह जैन धर्म के अनुयायी थे, लेकिन बाद में शैव धर्म अपना लिया। उनके समय में पल्लव साम्राज्य सांस्कृतिक और साहित्यिक रूप से चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। उसने मत्तविलास प्रहसन जैसे व्यंग्यात्मक नाटक की रचना की और मंदिर वास्तुकला को नया रूप दिया। महेंद्रवर्मन प्रथम ने कई युद्ध लड़े, जिनमें उसने चालुक्य सम्राट पुलकेशिन द्वितीय का भी सामना किया और काँचीपुरम में अपनी सत्ता बनाए रखी। वह न केवल एक शक्तिशाली राजा था, बल्कि एक बहुआयामी कलाकार और सांस्कृतिक संरक्षक भी था। उसके पुत्र नरसिंहवर्मन प्रथम ने पल्लव साम्राज्य को और भी सुदृढ़ किया।
सिंहविष्णु के बाद उसका पुत्र महेंद्रवर्मन प्रथम लगभग 600 ई. में पल्लव सिंहासन पर आसीन हुआ। कुछ विद्वानों के अनुसार 609 ई. में सिंहविष्णु ने महेंद्रवर्मन को कन्नड़ क्षेत्र की विजय का नेतृत्व सौंपा था। जो भी हो, महेंद्रवर्मन प्रथम ने अपने पिता से प्राप्त छोटे से पल्लव राज्य को अपनी कूटनीतिक कुशलता और सैन्य शक्ति के बल पर एक शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में प्रतिष्ठित किया।
महेंद्रवर्मन प्रथम की सैन्य उपलब्धियाँ
महेंद्रवर्मन प्रथम को दक्षिण भारत में अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करने के लिए समकालीन साम्राज्यवादी शक्तियों- उत्तर-पश्चिम में वातापि (बादामी) के चालुक्यों और दक्षिण में पांड्यों से संघर्ष करना पड़ा।
पल्लव-चालुक्य संघर्ष का प्रारंभ
महेंद्रवर्मन के शासनकाल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना पल्लव-चालुक्य संघर्ष का प्रारंभ थी। इस समय उत्तर में वातापि के चालुक्य और दक्षिण में मदुरा के पांड्य शक्तिशाली हो चुके थे और अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन में लगे थे।
महेंद्रवर्मन का समकालीन और प्रमुख प्रतिद्वंद्वी वातापि का चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय था। ऐहोल प्रशस्ति (634-35 ई.) के अनुसार चालुक्यों का उत्कर्ष पल्लवों को स्वीकार्य नहीं था। पल्लव-चालुक्य संघर्ष का तात्कालिक कारण था- पुलकेशिन द्वितीय द्वारा बनवासी के कदंबों और गंगों को, जो पहले पल्लवों के सामंत थे, अपदस्थ कर वेंगी पर अधिकार करना और अपने भाई विष्णुवर्धन को वहाँ शासक नियुक्त करना। चेर्जला अभिलेख से पता चलता है कि महेंद्रवर्मन के शासन के प्रारंभ में आंध्र के वर्तमान गुंटूर जिले का क्षेत्र पल्लवों के अधीन था। लेकिन 610 से 616 ई. के बीच यह क्षेत्र पुलकेशिन द्वितीय ने अधिकृत कर लिया। पल्लवों ने चालुक्यों की इस साम्राज्यवादी नीति का विरोध किया, जिससे दोनों वंशों के बीच शत्रुता का बीजारोपण हो गया।
ऐहोल प्रशस्ति में कहा गया है कि पुलकेशिन ने कोशल, कलिंग और पिष्ठपुर जैसे नगरों पर विजय प्राप्त करने के बाद पल्लव राज्य पर आक्रमण किया और ‘पल्लवपति’ के प्रताप को अपनी सेना की धूल से धूमिल कर उसे काँची की चहारदीवारी में शरण लेने के लिए विवश किया (प्राकारान्तरितप्रतापरमकरोध पल्लवानाम्पतिम्)। अधिकांश विद्वान इस पल्लवपति की पहचान महेंद्रवर्मन प्रथम से करते हैं, यद्यपि टी.वी. महालिंगम इससे सहमत नहीं हैं। इस पराजय के परिणामस्वरूप पल्लव राज्य के उत्तरी क्षेत्र चालुक्यों के अधिकार में चले गए, यद्यपि द्रविड़ क्षेत्र में पल्लवों की सत्ता बनी रही।
परवर्ती पल्लव शासक नंदिवर्मन द्वितीय के कशाक्कुडि अभिलेख के अनुसार महेंद्रवर्मन प्रथम ने पुल्लिलूर के युद्ध में अपने प्रमुख शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी (पुल्लिलूरे द्विषतां विशेषान्)। इस अभिलेख में शत्रुओं के नाम नहीं दिए गए हैं, लेकिन कुछ विद्वान मानते हैं कि पराजित शत्रुओं में पुलकेशिन द्वितीय भी शामिल था। चूंकि अभिलेख में शत्रुओं के लिए बहुवचन (द्विषतां) का प्रयोग हुआ है, इससे प्रतीत होता है कि महेंद्रवर्मन ने दक्षिण के कुछ छोटे शासकों पर विजय प्राप्त की होगी।
टी.वी. महालिंगम का अनुमान है कि तेलुगु-चोड शासक नल्लडि ने कुछ समय के लिए काँची के निकटवर्ती क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था और पुल्लिलूर के युद्ध में महेंद्रवर्मन ने संभवतः नल्लडि और उसके कुछ सहयोगी राजाओं को पराजित किया था।
ऐहोल प्रशस्ति में कहा गया है कि पल्लव शासकों को पराजित करने के बाद पुलकेशिन द्वितीय ने कावेरी नदी को पारकर पांड्य, चोल और केरल राज्यों से मित्रता की और उनकी समृद्धि में वृद्धि की। टी.वी. महालिंगम का अनुमान है कि पुलकेशिन ने संभवतः नल्लडि चोल की सहायता कर उसे पल्लव आधिपत्य से मुक्त कराया और अन्य शासकों को भी सहायता प्रदान की। लेकिन किसी साक्ष्य से न तो महेंद्रवर्मन द्वारा नल्लडि की पराजय का संकेत मिलता है और न ही पुलकेशिन द्वारा चोल शासक की सहायता का।
महेंद्रवर्मन के शासन के प्रारंभ में पल्लव राज्य उत्तर में नर्मदा और विष्णुकुंडिन राज्यों तक विस्तृत था। तिरुचिरापल्ली अभिलेख के अनुसार उसकी दक्षिणी सीमा कावेरी नदी थी, जिसे ‘पल्लवों की प्रिया’ कहा गया है। संभवतः पल्लवों ने कावेरी क्षेत्र चोलों से छीना था, किंतु पुलकेशिन द्वारा पराजित होने के बाद उसका राज्य उत्तर में तिरुपति के पर्वतीय क्षेत्र और दक्षिण में तिरुचिरापल्ली तक सीमित हो गया।
महेंद्रवर्मन प्रथम की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
महेंद्रवर्मन प्रथम के शासनकाल में पल्लव साम्राज्य न केवल राजनीतिक दृष्टि से सुदृढ़ हुआ, बल्कि सांस्कृतिक, कलात्मक और साहित्यिक दृष्टि से भी उन्नति के शिखर पर पहुँच गया।
एक महान विजेता होने के साथ-साथ महेंद्रवर्मन कला, साहित्य और संगीत का संरक्षक भी था। उसकी साहित्यिक रुचि और विद्वता का प्रमाण उसकी रचना मत्तविलासप्रहसन है। कुछ विद्वान उसे भगवदज्जुकीयम् नामक प्रहसन की रचना का भी श्रेय देते हैं, जो संदिग्ध है। महेंद्रवर्मन ने अपने अभिलेखों को संस्कृत में उत्कीर्ण करवाया, जिनमें व्यास और वाल्मीकि की प्रशंसा की गई है।
महेंद्रवर्मन एक कुशल संगीतज्ञ भी था और उसने सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ रुद्राचार्य के निर्देशन में संगीत का अध्ययन किया था। कहा जाता है कि उसने संगीतशास्त्र पर एक ग्रंथ की रचना की और संगीत के छात्रों के लिए वीणाशास्त्र पर भी कुछ लिखा, जिसे उसकी आज्ञा से कुडिमियामलै (तमिलनाडु ) के संस्कृत अभिलेख में उत्कीर्ण करवाया गया। इस अभिलेख में संगीत से संबंधित जानकारी, विशेष रूप से वीणा (संगीत वाद्य) और संगीत के सात स्वरों (सप्तक) के बारे में उल्लेख है।
कुछ विद्वान उसे चित्रकला से संबंधित दक्षिणचित्र नामक पुस्तक की रचना का भी श्रेय देते हैं।
महेंद्रवर्मन ने स्थापत्य के क्षेत्र में शैलकृत मंदिर निर्माण शैली को प्रोत्साहन दिया। दक्षिणी अर्काट जिले के मंडपट्ट अभिलेख के अनुसार विचित्रचित्त (महेंद्रवर्मन) ने ब्रह्मा, ईश्वर और विष्णु के लिए एकाश्मक मंदिरों का निर्माण करवाया। उसके समय के मंदिर तिरुचिरापल्ली, महेंद्रवाड़ी (अरकोणम के निकट), दलवानूर (दक्षिणी अर्काट) और वल्लम (चिंगलपुट के निकट) में विद्यमान हैं। उसने महेंद्रवाड़ी में एक जलाशय का भी निर्माण करवाया।
महेंद्रवर्मन प्रारंभ में जैन धर्म का अनुयायी था, किंतु पेरियपुराणम के अनुसार संत अप्पर के प्रभाव से वह बाद में शैव हो गया। तिरुचिरापल्ली अभिलेख में गुणभर (महेंद्रवर्मन) को शिवलिंग का उपासक बताया गया है (गुणभरनामनि राजनयन लिंगिनिज्ञानम्)। धर्म-परिवर्तन के बाद उसने पारलिपुरम (कडलूर) के जैन विहारों को तुड़वाकर तिरुवाडि में एक शिवमंदिर का निर्माण करवाया। चूंकि पेरियपुराणम में पल्लव राजा का नाम स्पष्ट नहीं है, इसलिए टी.वी. महालिंगम इसे महेंद्रवर्मन से जोड़ना संदिग्ध मानते हैं। उसके शासनकाल में भक्ति आंदोलन ने जोर पकड़ा और शैव एवं वैष्णव संप्रदायों का व्यापक प्रचार हुआ।
महेंद्रवर्मन ने मत्तविलास (विलासिता में आसक्त), गुणभर (सद्गुणों का आगार), विचित्रचित्त (अद्भुत अभिरुचि वाला), महेंद्रविक्रम, ललितांकुर, अवनिभाजन, अलुप्तकाम, कलहप्रिय, चेत्थकारी (मंदिरों का निर्माणकर्ता), चित्रकारिपुल (महान चित्रकार), शत्रुमल्ल और संकीर्णजाति जैसी उपाधियाँ धारण की, जो उसकी बहुमुखी प्रतिभा परिचायक हैं।
आर. कृष्णमूर्ति को महेंद्रवर्मन के दो सिक्के प्राप्त हुए हैं- एक चाँदी का और दूसरा ताँबे का। इनके अग्रभाग पर खड़े वृषभ की आकृति और सातवीं शताब्दी की ग्रंथलिपि में उसकी उपाधि अंकित है।
इतिहासकारों का अनुमान है कि महेंद्रवर्मन ने 600 से 630 ई. तक शासन किया। किंतु हाल ही में उत्तरी अर्काट के सात्तणूर से प्राप्त उसके शासन के 39वें वर्ष के अभिलेख के आधार पर उसका शासनकाल 640 ई. तक माना जाना चाहिए।