कांग्रेस के मतभेद (1934)
सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-34) की समाप्ति के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर गंभीर मतभेद उभरे, जैसा कि पहले असहयोग आंदोलन (1920-22) की वापसी के बाद देखा गया था। जहाँ महात्मा गांधी ने सक्रिय राजनीति से कुछ समय के लिए दूरी बना ली और हरिजनोद्धार जैसे रचनात्मक कार्यों में जुट गए, वहीं समाजवादी और अन्य वामपंथी तत्त्वों ने मई 1934 में ‘कांग्रेस समाजवादी पार्टी’ (कांसपा) का गठन किया। कांसपा ने निर्णय लिया कि वह कांग्रेस के भीतर रहकर कार्य करेगी, कांग्रेस के रुझान को समाजवादी कार्यक्रम की ओर मोड़ेगी, और रूढ़िवादी दक्षिणपंथी तत्त्वों के प्रभुत्व को कम करने का प्रयास करेगी। लेकिन इस दौरान कांग्रेस के भीतर भावी रणनीति को लेकर बहस छिड़ गई कि जब जनांदोलन सुसुप्तावस्था में हो, तो राजनीतिक गतिविधियों को किस प्रकार संचालित किया जाए?
गांधीजी का दृष्टिकोण
गांधीजी ने गाँवों में रचनात्मक कार्य करने और दस्तकारी को बढ़ावा देने पर बल दिया। उनके अनुसार “इन रचनात्मक कार्यों से जनशक्ति संगठित होगी, जनांदोलन के अगले चरण के लिए किसानों को संगठित करने में सहायता मिलेगी। कांग्रेस कार्यकर्ता हर समय सक्रिय रहेंगे और जब भी संघर्ष का आह्वान किया जाएगा, वे उसमें शामिल हो जाएँगे।”
विधानमंडलों में भागीदारी का प्रस्ताव
कांग्रेस का एक अन्य समूह मानता था कि राजनीतिक निराशा के इस दौर में विधानमंडलों में भाग लेकर और चुनाव लड़कर राजनीतिक संघर्ष को पुनर्जनन करना चाहिए, ताकि जनता का मनोबल बना रहे। अपरिवर्तनवादी नेता सी. राजगोपालाचारी ने भी नव-स्वराजियों की रणनीति का समर्थन किया और सुझाव दिया कि संसदीय कार्य सीधे कांग्रेस के निर्देशन में होना चाहिए। इस समूह में आसफ अली, सत्यमूर्ति, डॉ. एम.ए. अंसारी, भूलाभाई देसाई और बिधान चंद्र राय जैसे नेता प्रमुख थे।
वामपंथी दृष्टिकोण
कांग्रेस का वामपंथी समूह, जिसका नेतृत्व पंडित जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे, रचनात्मक कार्यों और विधानमंडलों में भागीदारी दोनों का विरोध करता था। नेहरू का मानना था कि लाहौर अधिवेशन (1929) में ‘पूर्ण स्वराज’ के लक्ष्य को स्वीकार करने के बाद भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन उस अवस्था में पहुँच चुका है, जहाँ औपनिवेशिक सत्ता से तब तक निरंतर संघर्ष करना होगा, जब तक इसे पूर्ण रूप से उखाड़ न फेंका जाए। नेहरू ने जोर देकर कहा कि कांग्रेस को ‘निरंतर संघर्ष’ की रणनीति अपनानी चाहिए और साम्राज्यवादी ढांचे से सहयोग या समझौते के जाल में नहीं फँसना चाहिए।
गांधीजी की दूरदर्शिता और कांग्रेस का एकीकरण
इस प्रकार जहाँ एक ओर भारतीय राष्ट्रवादी असमंजस में थे, वहीं दूसरी ओर ब्रिटिश सरकार यह मानकर चल रही थी कि कांग्रेस में सूरत विभाजन (1907) की तरह एक और विभाजन अवश्यंभावी है। किंतु गांधीजी ने अपनी दूरदर्शिता से कांग्रेस को टूटने से बचा लिया। उन्होंने विधानमंडलों में भागीदारी के समर्थकों की माँग को स्वीकार किया। मई 1934 में पटना में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में गांधीजी के निर्देशन में चुनावों में भाग लेने का निर्णय लिया गया। लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन (1936) में सी. राजगोपालाचारी और अन्य दक्षिणपंथी नेताओं के दबाव के बावजूद गांधीजी ने अध्यक्ष पद के लिए नेहरू के नाम का समर्थन करके वामपंथी गुट को भी संतुष्ट किया।
नेहरू और समाजवादियों का भी मानना था कि सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू करने से पहले औपनिवेशिक शासन का अंत आवश्यक है, और साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में कांग्रेस का सहयोग करना जरूरी है, क्योंकि कांग्रेस ही भारतीयों का एकमात्र प्रमुख संगठन था। नवंबर 1934 में हुए केंद्रीय विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन करते हुए भारतीयों के लिए आरक्षित 75 सीटों में से 45 सीटें जीत लीं। वायसराय विलिंगडन ने इसे “गांधीजी की बहुत बड़ी जीत” करार देते हुए इसे ब्रिटिश सरकार के लिए दुर्भाग्यपूर्ण बताया।
ब्रिटिश सरकार की रणनीति
ब्रिटिश सरकार 1932-33 के राष्ट्रीय आंदोलन को दमन के बल पर कुचलने में सफल रही थी, किंतु उसे यह भी एहसास हो गया था कि बलपूर्वक राष्ट्रवादी भावनाओं को लंबे समय तक दबाया नहीं जा सकता। इसलिए, सरकार ने राष्ट्रीय आंदोलन को स्थायी रूप से कमजोर करने के लिए एक रणनीति बनाई, जिसके तहत संवैधानिक सुधारों के माध्यम से कांग्रेस के एक गुट को संतुष्ट कर औपनिवेशिक प्रशासन में समाहित कर लिया जाए और शेष राष्ट्रवादी शक्ति को दमन द्वारा समाप्त कर दिया जाए।
गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935
इस अधिनियम के द्वारा एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना और प्रांतों में स्वायत्तता के आधार पर नई शासन-प्रणाली की व्यवस्था की गई। यह संघ ब्रिटिश भारत के प्रांतों और रियासतों पर आधारित था। केंद्र में दो सदनों वाली एक संघीय विधायिका की व्यवस्था थी, जिसमें रियासतों को भिन्न-भिन्न प्रतिनिधित्व दिया गया, किंतु उनके प्रतिनिधियों का चुनाव जनता द्वारा नहीं, बल्कि रियासतों के शासकों द्वारा मनोनयन के आधार पर होता था। ब्रिटिश भारत की केवल 14 प्रतिशत जनता (लगभग छठवाँ हिस्सा) को मताधिकार प्राप्त था।
विधायिका में राष्ट्रवादी तत्त्वों को नियंत्रित करने के लिए रियासतों के राजा-महाराजाओं का उपयोग किया गया, किंतु इसे वास्तविक शक्ति नहीं दी गई। रक्षा और विदेश विभाग इसके अधिकार-क्षेत्र से बाहर थे, जबकि अन्य विषयों पर गवर्नर जनरल का विशेष नियंत्रण था। गवर्नर जनरल और प्रांतीय गवर्नरों की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार करती थी, और वे केवल उसी के प्रति उत्तरदायी थे।
प्रांतों को अधिक स्थानीय अधिकार दिए गए, जिनके तहत प्रांतीय प्रशासन उत्तरदायी मंत्रियों के अधीन था। किंतु गवर्नरों को विशेषाधिकार प्राप्त थे, जिसके तहत वे जब चाहें प्रशासन को अपने नियंत्रण में ले सकते थे, विशेषकर अल्पसंख्यकों, अधिकारियों, कानून-व्यवस्था और ब्रिटिश हितों से संबंधित मामलों में। इस प्रकार अधिनियम में वास्तविक राजनीतिक और आर्थिक सत्ता ब्रिटिश सरकार के ही हाथों में थी और उपनिवेशवाद की पकड़ कहीं से भी कमजोर नहीं हुई थी।
ब्रिटिश सरकार को आशा थी कि उदारपंथी और संवैधानिक नरमपंथी, जो सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान जन-समर्थन खो चुके थे, इन सुधारों के द्वारा सरकार की ओर आकर्षित हो जाएँगे। संवैधानिक संघर्ष में विश्वास रखने वाले नेताओं को रियायतों और सुधारों के द्वारा सरकार के प्रति निष्ठावान बनाकर जनांदोलन की मुख्य धारा से अलग कर दिया जाएगा। सरकार का मानना था कि सत्ता का स्वाद चखने के बाद ये कांग्रेसी संघर्ष और बलिदान की राजनीति में वापस नहीं लौटेंगे।
1935 के अधिनियम की संयुक्त संसदीय समिति के अध्यक्ष और बाद में भारत के वायसराय (1936-43) लॉर्ड लिनलिथगो ने लिखा: “अधिनियम 1935 इसलिए पारित किया गया, क्योंकि हम समझते थे कि भारत पर ब्रिटिश प्रभुत्व को बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका यही है। भारतीयों के हित में संविधान में संशोधन करना हमारी नीति नहीं थी और न ही हम भारतीयों को सत्ता सौंपने की जल्दबाजी में थे। हमारा प्रयास यही था कि जब तक संभव हो, भारत ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बना रहे।”
ब्रिटिश सरकार को यह भी आशा थी कि सुधारों के मुद्दे पर कांग्रेस विभाजित हो जाएगी। उदारवादी, संविधानवादी, वामपंथी और दक्षिणपंथी तत्त्वों के बीच संघर्ष से कांग्रेस कमजोर होगी। यदि सरकार संविधानवादियों को अपनी ओर मोड़ने में सफल रही, तो वामपंथी तत्त्व या तो स्वयं कांग्रेस से अलग हो जाएँगे या दक्षिणपंथी ताकतें उन्हें कांग्रेस से बाहर कर देंगी। इसके बाद अलग-थलग पड़े वामपंथियों को दमन के द्वारा कुचल दिया जाएगा।

प्रांतीय स्वायत्तता की रणनीति
प्रांतीय स्वायत्तता भी ब्रिटिश सरकार की एक कुटिल चाल थी। अंग्रेजी हुकूमत जानती थी कि प्रांतीय स्वायत्तता लागू होने से सशक्त प्रांतीय नेताओं का उदय होगा, जो प्रशासनिक अधिकारों का अपने ढंग से उपयोग करेंगे। धीरे-धीरे ये प्रांतीय नेता स्वायत्त राजनीतिक शक्ति के केंद्र बन जाएँगे, जिससे कांग्रेस का प्रांतीयकरण होगा और उसका अखिल भारतीय केंद्रीय नेतृत्व महत्त्वहीन हो जाएगा। लिनलिथगो ने 1936 में लिखा: “सीधे संघर्ष से बचने का सबसे अच्छा तरीका प्रांतीय स्वायत्तता है, क्योंकि इसके माध्यम से ही क्रांति के सबसे बड़े हथियार कांग्रेस को नष्ट किया जा सकता है।”
जब ब्रिटिश सरकार को यह आभास हुआ कि कांग्रेस के भीतर दक्षिणपंथी और वामपंथी तत्त्व आपस में टकरा रहे हैं, तो उसने आंदोलन के प्रति आक्रामक रवैया छोड़ दिया। 1935 के बाद सरकार ने अप्रत्याशित रूप से नरमी दिखानी शुरू की। जब नेहरू संविधानवादियों और दक्षिणपंथियों की खुलकर आलोचना कर रहे थे और औपनिवेशिक सत्ता को क्रांतिकारी आंदोलन के माध्यम से उखाड़ फेंकने तथा समाजवादी समाज की स्थापना का आह्वान कर रहे थे, तब सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। सरकार का मानना था कि नेहरू के इस रवैये से कांग्रेस टूट जाएगी। मद्रास के गवर्नर एरस्किन ने वायसराय को सलाह दी: “नेहरू जितने अधिक ऐसे भाषण देंगे, उतना ही बेहतर है, क्योंकि उनके ये भाषण ही कांग्रेस के विभाजन का कारण बनेंगे। हमें नेहरू के प्रति उदार रुख अपनाना चाहिए, क्योंकि यह व्यक्ति अनजाने में कांग्रेस को भीतर से ढहा रहा है।”
सत्ता में भागीदारी का मुद्दा
ब्रिटिश सरकार ने न केवल गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 की घोषणा की, बल्कि उसे तुरंत लागू भी कर दिया। प्रांतीय स्वायत्तता के तहत 1937 के प्रारंभ में प्रांतीय विधानसभाओं के चुनावों की घोषणा कर दी गई। कांग्रेस ने एक स्वर में इस अधिनियम को ‘निराशाजनक’ करार देकर अस्वीकार कर दिया। किंतु यह सहमति थी कि व्यापक आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम के आधार पर कांग्रेस को चुनावों में भाग लेना चाहिए, ताकि जनता में साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना को और मजबूत किया जा सके। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि चुनावों के बाद क्या किया जाए? यदि कांग्रेस को प्रांतों में बहुमत प्राप्त हो, तो क्या उसे सरकार बनानी चाहिए? यह मुद्दा एक बार फिर राष्ट्रवादियों के बीच बहस का विषय बन गया।
विरोधी दृष्टिकोण
जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, कांसपा और अन्य वामपंथी नेताओं ने सत्ता में भागीदारी का विरोध किया। नेहरू ने स्पष्ट कहा: “सत्ता में भागीदारी का अर्थ अधिनियम 1935 को स्वीकार करना होगा, जो स्वयं को दोषी ठहराने के समान है। यह बिना अधिकार के उत्तरदायित्व वहन करना होगा, क्योंकि सत्ता का ढांचा अपरिवर्तित रहेगा। कांग्रेस जनता के लिए कुछ नहीं कर पाएगी, बल्कि वह दमनकारी साम्राज्यवादी सत्ता का हिस्सा बन जाएगी और जनता के शोषण में सहयोग करेगी। साथ ही, सत्ता में भागीदारी से जनांदोलन का क्रांतिकारी चरित्र समाप्त हो जाएगा और कांग्रेस संसदीय कार्यों में उलझकर स्वतंत्रता, सामाजिक-आर्थिक न्याय और गरीबी उन्मूलन जैसे लक्ष्यों से भटक जाएगी।”
समर्थक दृष्टिकोण
सत्ता में भागीदारी के समर्थक, जो पुराने स्वराजियों की तरह थे, चाहते थे कि विधानमंडलों में प्रवेश कर सरकारी कदमों का विरोध किया जाए और ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाएँ, जिनसे अधिनियम 1935 पर अमल ही न हो सके। नव-स्वराजियों ने दीर्घकालिक रणनीति के तहत सुझाव दिया कि मजदूरों और किसानों को वर्गीय आधार पर संगठित किया जाए और इन संगठनों को कांग्रेस से जोड़ा जाए, ताकि कांग्रेस को समाजवादी राह पर लाकर आंदोलन को पुनः प्रारंभ किया जा सके।
समर्थकों का तर्क था कि वे भी अधिनियम 1935 का विरोध करते हैं और इसे समाप्त करना चाहते हैं, किंतु सत्ता में भागीदारी एक अल्पकालिक रणनीति है। इससे स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होगी, लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में संसदीय संघर्ष ही श्रेयस्कर है, क्योंकि जनांदोलन का कोई अन्य विकल्प नहीं है। यद्यपि इसके खतरे हैं और सत्ता में शामिल होने वाला कोई भी कांग्रेसी गलत रास्ते पर जा सकता है, फिर भी इन खतरों से डरकर सत्ता में भागीदारी का बहिष्कार नहीं करना चाहिए। यदि कांग्रेस सत्ता में भाग नहीं लेगी, तो अन्य प्रतिक्रियावादी और सांप्रदायिक ताकतें सत्ता हथिया लेंगी, जिससे राष्ट्रीय आंदोलन कमजोर होगा। यदि प्रांतों में कांग्रेस की सरकारें बनती हैं, तो सीमित अधिकारों के बावजूद वे हरिजनोद्धार, खादी प्रचार, मद्यनिषेध, शिक्षा प्रसार और किसानों के लिए ऋण, लगान और मालगुजारी में कमी जैसे कार्य कर सकती हैं।
लखनऊ और फैजपुर कांग्रेस अधिवेशन
सत्ता में भागीदारी का टकराव 1936 के लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में किसी तरह टाल दिया गया। यहाँ राजेंद्र प्रसाद और वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में, और गांधीजी के आशीर्वाद से, प्रतिनिधियों के बहुमत ने स्वीकार किया कि अधिनियम 1935 के तहत होने वाले चुनावों में भाग लेने और प्रांतों में सत्ता स्वीकार करने से कांग्रेस का मनोबल बढ़ेगा, जब सीधी कार्रवाई का कोई विकल्प नहीं था। अगस्त 1936 में बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक ने चुनावों में भाग लेने का निर्णय लिया, किंतु सत्ता स्वीकार करने का निर्णय चुनावों के बाद तक टाल दिया गया। फैजपुर कांग्रेस अधिवेशन (1936) में भी प्रतिनिधियों ने चुनावों में भाग लेने का फैसला किया और सत्ता में भागीदारी के प्रश्न पर निर्णय को चुनावों के बाद तक के लिए स्थगित कर दिया।
कांग्रेस ने 1937 के चुनावों के लिए अपने घोषणा-पत्र में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 को पूरी तरह अस्वीकार किया। इसमें नागरिक स्वतंत्रता की बहाली, राजनीतिक कैदियों की रिहाई, कृषि ढांचे में व्यापक परिवर्तन, भू-राजस्व और लगान में कमी, किसानों को कर्ज से राहत और मजदूरों को हड़ताल, विरोध-प्रदर्शन और संगठन बनाने के अधिकार देने जैसे वादे शामिल थे।
कांग्रेस के तूफानी चुनाव प्रचार को जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ, यद्यपि गांधीजी ने किसी भी चुनावी सभा को संबोधित नहीं किया। फरवरी 1937 में हुए प्रांतीय विधानसभा चुनावों के परिणामों ने सिद्ध कर दिया कि जनता का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस के साथ है। कांग्रेस ने 1585 में से 1161 सीटों पर चुनाव लड़ा और 715 सीटें जीतकर ब्रिटिश सरकार को आश्चर्यचकित कर दिया। ग्यारह प्रांतों में से छह प्रांतों—मद्रास (159), बंबई (88), संयुक्त प्रांत (134), बिहार (98), मध्य प्रदेश (71) और उड़ीसा (36) में कांग्रेस को बहुमत प्राप्त हुआ। बंगाल (50), असम (35) और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत (19) में वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। केवल पंजाब (18) और सिंध (7) में कांग्रेस को कम सीटें मिलीं। अधिकांश भारतीयों, विशेषकर हिंदुओं की नजर में यह ‘गांधीजी और पीले बक्से के पक्ष में मतदान’ था, जो सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों की उनकी आशाओं का प्रतीक था।
मार्च 1937 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने नेहरू और कांसपा नेताओं की आपत्तियों को खारिज करते हुए सत्ता स्वीकार करने का निर्णय लिया। गांधीजी ने इस निर्णय का अनुमोदन किया, किंतु विधायिकाओं से बाहर अहिंसा और रचनात्मक कार्यक्रमों में अपनी आस्था व्यक्त की। नेहरू का विरोध इस तर्क पर आधारित था कि प्रांतीय सरकारें चलाने से कांग्रेस को ‘साम्राज्यवादी ढांचे का कार्यक्रम लागू करने’ का जिम्मेदार ठहराया जाएगा, जिससे वह उस जनता के साथ छल करेगी, जिसका मनोबल उसने स्वयं बढ़ाया था।
गांधीजी ने कांग्रेसियों को सलाह दी कि सत्ता में भागीदारी को सहजता से लें, न कि गंभीरता से। उन्होंने इसे “काँटों का ताज” करार देते हुए कहा कि इससे कोई गौरव प्राप्त नहीं होगा। ये पद केवल इसलिए स्वीकार किए गए हैं, ताकि यह पता लगाया जा सके कि राष्ट्रवादी लक्ष्य की ओर अपेक्षित गति से प्रगति हो रही है या नहीं। गांधीजी ने आगाह किया कि अधिनियम 1935 का उपयोग ब्रिटिश सरकार की अपेक्षाओं के अनुसार नहीं किया जाए और इसके दुरुपयोग से यथासंभव बचा जाए।
कांग्रेसी मंत्रिमंडलों का गठन
कांग्रेस ने मंत्रिमंडल गठन से पहले वायसराय से आश्वासन माँगा कि गवर्नर बिना कारण मंत्रिमंडलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। कुछ उठापटक के बाद 22 जून 1937 को सरकार ने आश्वासन दिया कि सभी गवर्नर मंत्रियों से, चाहे वे किसी भी पार्टी के हों, संघर्ष से बचने और इसे समाप्त करने का हरसंभव प्रयास करेंगे। इस आश्वासन के आधार पर जुलाई 1937 में कांग्रेस ने छह प्रांतों—मद्रास, बिहार, उड़ीसा, संयुक्त प्रांत, मध्य भारत और बंबई में अपने मंत्रिमंडल गठित किए। बाद में असम और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में भी कांग्रेस ने साझा सरकारें बनाईं। सिंध, बंगाल और पंजाब में गैर-कांग्रेसी मंत्रिमंडल बने। पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी और बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी व मुस्लिम लीग ने मिलकर सरकार बनाई।
कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के गठन से कांग्रेस की प्रतिष्ठा बढ़ी, और यह स्पष्ट हुआ कि यह न केवल जनता की विजय है, बल्कि जनता के कल्याण के लिए उसके प्रतिनिधियों को सौंपा गया उत्तरदायित्व भी है। चूँकि कांग्रेसी मंत्रियों के पास सीमित अधिकार और वित्तीय संसाधन थे, इसलिए उनसे साम्राज्यवादी ढांचे को बदलने या क्रांतिकारी युग की शुरुआत की उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
कांग्रेसी सरकारों की उपलब्धियाँ
कांग्रेसी मंत्रिमंडल भारत में ब्रिटिश प्रशासन के मूलभूत साम्राज्यवादी चरित्र को बदलने या क्रांतिकारी युग की शुरुआत करने में असफल रहे। फिर भी, गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के तहत प्राप्त सीमित अधिकारों के सहारे उन्होंने जनता की स्थिति सुधारने के लिए कई प्रयास किए। कांग्रेसी मंत्रियों ने ईमानदारी और जनसेवा के नए मानदंड स्थापित किए। उन्होंने अपना वेतन स्वयं घटाकर 500 रुपये प्रतिमाह कर लिया और अधिकांश दूसरे या तीसरे दर्जे में रेल यात्रा करते थे। इसके अतिरिक्त, प्रांतों में गठित कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने विभिन्न क्षेत्रों में सकारात्मक कदम उठाए।
नागरिक स्वतंत्रता
कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने नागरिक स्वतंत्रता की बहाली के लिए कई कदम उठाए:
- 1932 के जनसुरक्षा अधिनियम द्वारा प्रांतीय सरकारों को दिए गए आपातकालीन अधिकार रद्द किए गए।
- हिंदुस्तान सेवादल और यूथ लीग जैसे अतिवादी संगठनों, राष्ट्रवादी पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं और प्रेस पर लगे प्रतिबंध हटाए गए।
- पुलिस के अधिकारों में कटौती की गई।
- बड़ी संख्या में राजनीतिक बंदियों और क्रांतिकारियों को जेलों से रिहा किया गया।
- राजनीतिक निर्वासन और नजरबंदी के आदेश रद्द किए गए।
- बंदी सुधार कार्यक्रम शुरू किए गए।
- जब्त किए गए हथियार लौटाए गए और रद्द किए गए लाइसेंस पुनः बहाल किए गए।
नागरिक स्वतंत्रता के संबंध में कुछ कार्यों की आलोचना भी हुई। उदाहरण के लिए जुलाई 1937 में मद्रास सरकार ने समाजवादी नेता यूसुफ मेहरअली को उत्तेजक भाषण देने के आरोप में दंडित किया। अक्टूबर 1937 में एक अन्य समाजवादी कांग्रेसी, एस.एस. बाटलीवाला को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर छह महीने की सजा दी गई। बंबई के तत्कालीन गृहमंत्री के.एम. मुंशी पर साम्यवादी और वामपंथी कांग्रेसियों पर नजर रखने के लिए खुफिया विभाग के दुरुपयोग का आरोप लगा।
कृषि सुधार
कांग्रेसी सरकारों ने बँटाईदारों के अधिकारों और उनकी सुरक्षा के लिए कई कृषि कानून बनाए। बंबई में सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-34) के दौरान जब्त की गई भूमि किसानों को लौटाई गई और आंदोलन के दौरान बर्खास्त अधिकारियों के पेंशन-भत्ते बहाल किए गए। किंतु जमींदारी प्रथा को समाप्त करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया, क्योंकि प्रांतीय मंत्रिमंडलों के पास न तो पर्याप्त अधिकार थे और न ही वित्तीय संसाधन। साथ ही, उपनिवेशवाद के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन में एकजुटता बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रतिस्पर्धी हितों में तालमेल आवश्यक था।
बंबई, बिहार, मद्रास, असम, और संयुक्त प्रांत जैसे अधिकांश कांग्रेस-शासित राज्यों में द्वितीय सदन (विधान परिषद) में जमींदारों, भूस्वामियों, पूँजीपतियों और साहूकारों का वर्चस्व था, जहाँ कांग्रेस अल्पमत में थी। इस कारण कानून पारित करने के लिए इन तत्त्वों से समझौता करना पड़ता था। इन बाधाओं के बावजूद कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने भू-सुधार, ऋणग्रस्तता से राहत, वनों में पशु चराने की अनुमति, भू-राजस्व में कमी और नजराना व बेगारी जैसे गैर-कानूनी कार्यों को समाप्त करने के लिए कई कानून बनाए। किंतु इनका लाभ मुख्यतः बड़े काश्तकारों को मिला और छोटे किसानों व खेतिहर मजदूरों पर इसका विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।
मजदूरों के प्रति दृष्टिकोण
कांग्रेसी मंत्रिमंडलों का मूल दृष्टिकोण औद्योगिक शांति स्थापित करना और मजदूरों के हितों की रक्षा करना था। कांग्रेस ने हड़तालों को कम करने और हड़ताल से पहले मध्यस्थता की वकालत की। मजदूरों और मालिकों को समस्याओं के समाधान के लिए कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और मंत्रियों को मध्यस्थ बनाने की सलाह दी गई। मजदूर संघों को अधिक स्वतंत्रता मिली और वे मजदूरी बढ़ाने में सफल रहे। फिर भी, कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने कई अवसरों पर आंदोलनकारी मजदूरों के खिलाफ धारा 144 लागू की और मजदूर नेताओं को गिरफ्तार किया।
समाज कल्याण के कार्य
कांग्रेसी सरकारों ने समाज कल्याण के लिए कई कदम उठाए:
- चुने हुए क्षेत्रों में नशाबंदी लागू की गई।हरिजन कल्याण के लिए मंदिर प्रवेश, सामान्य नागरिक सुविधाओं का उपयोग, छात्रवृत्तियाँ और पुलिस व सरकारी नौकरियों में उनकी संख्या बढ़ाने जैसे उपाय किए गए।
- प्राथमिक, तकनीकी,और उच्च शिक्षा पर ध्यान दिया गया।
- लोक-स्वास्थ्य और स्वच्छता को प्राथमिकता दी गई।
- अनुदान और अन्य तरीकों से खादी व अन्य स्वदेशी उद्योगों को समर्थन दिया गया और आधुनिक उद्योगों को प्रोत्साहन मिला।
- 1938 में कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने राष्ट्रीय योजना के विकास के लिए ‘राष्ट्रीय योजना समिति’ का गठन किया।
- लोक शिकायत समितियों की स्थापना की गई, जो जनता की शिकायतों को सरकार तक पहुँचाती थीं।
- जन-शिक्षा अभियान चलाए गए और कांग्रेस पुलिस स्टेशनों व पंचायतों की स्थापना की गई।
कांग्रेसी सरकारों का मूल्यांकन
कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के दो वर्ष के कार्यकाल से कई समूहों का मोहभंग हुआ। कुछ जातिगत निर्योग्यताओं की समाप्ति और मंदिर प्रवेश के विधेयकों से दलित और उनके नेता अप्रभावित रहे, क्योंकि ये विधेयक सांकेतिक थे। कांग्रेस के मजदूर-विरोधी रवैये के कारण बंबई, गुजरात, संयुक्त प्रांत और बंगाल में मजदूरों का जुझारूपन और औद्योगिक असंतोष बढ़ा। इसका उदाहरण बंबई में 1938 का औद्योगिक विवाद कानून (बॉम्बे ट्रेड्स डिस्प्यूट्स एक्ट) था।
कांग्रेस ने चुनाव जीतने के लिए किसानों के बढ़ते जुझारूपन का उपयोग किया, किंतु बाद में उनकी आशाओं पर खरी नहीं उतरी। अक्टूबर 1937 में अखिल भारतीय किसान सभा ने लाल झंडे को अपना प्रतीक बनाया और 1938 के वार्षिक सम्मेलन में गांधीवादी वर्ग-सहयोग सिद्धांत की निंदा करते हुए ‘खेतिहर क्रांति’ को अपना परम लक्ष्य घोषित किया। 1939 के अंत तक कांग्रेसी मंत्रिमंडलों में अवसरवादिता, आंतरिक कलह और जोड़-तोड़ की प्रवृत्तियाँ उभरने लगीं। गांधीजी को भी लगने लगा: “हम अंदर से कमजोर होने लगे हैं।” नेहरू भी मानते थे कि कांग्रेसी मंत्रिमंडलों की रचनात्मक भूमिका समाप्त हो चुकी है।
अक्टूबर 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध से उत्पन्न राजनीतिक संकट के दौरान कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के इस्तीफे का स्वागत करते हुए गांधीजी ने कहा: “इससे कांग्रेस में व्याप्त भ्रष्टाचार की सफाई करने में मदद मिलेगी।” 23 अक्टूबर 1939 को उन्होंने सी. राजगोपालाचारी को लिखा: “जो कुछ हुआ है, वह हमारे उद्देश्य के लिए अच्छा है। मुझे पता है कि यह दवा कड़वी है, लेकिन इसकी जरूरत थी। यह शरीर में मौजूद सभी परजीवियों को बाहर निकाल फेंकेगी।”
कांग्रेसी सरकारों का महत्त्व
नेहरू ने 1944 में लिखा: “पीछे मुड़कर देखने पर कांग्रेसी मंत्रिमंडलों की दो साल की अवधि की उपलब्धियों पर आश्चर्य होता है, इसके बावजूद कि वे अनगिनत परेशानियों से घिरे थे।” कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाई और जनता के बीच अपने आधार को मजबूत किया। सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक उत्थान की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किए गए, जिसने यह स्पष्ट किया कि मौलिक सामाजिक परिवर्तन के लिए भारतीय स्वशासन आवश्यक है।
सांप्रदायिक दंगों पर नियंत्रण
कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने सांप्रदायिक दंगों से सख्ती से निपटने के लिए जिलाधीशों और पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिए, जिससे राष्ट्रीयता का प्रभाव-क्षेत्र और जागरूकता बढ़ी।
नौकरशाही पर प्रभाव
मंत्रिमंडलों के गठन से भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों का मनोबल कमजोर हुआ, जो ब्रिटिश साम्राज्य का एक प्रमुख स्तंभ था। यह भ्रम टूट गया कि भारतीय स्वशासन के योग्य नहीं हैं।
कांग्रेस का अनुशासन
आंतरिक गुटबाजी के बावजूद, कांग्रेस संगठन में अनुशासन बना रहा। जब अखिल भारतीय संकट की घड़ी आई, तो केंद्रीय नेतृत्व के निर्देश पर सभी कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने तुरंत इस्तीफा दे दिया। इससे यह सिद्ध हुआ कि अधिनियम 1935 के निर्माताओं की कांग्रेस के प्रांतीयकरण और कमजोर होने की आशा पूरी नहीं हुई।










