दयानंद सरस्वती (1824-1883)
दयानंद सरस्वती आधुनिक भारत के महान चिंतक और ‘आर्य समाज’ के संस्थापक थे। उन्होंने वेदों के प्रचार के लिए 10 अप्रैल 1875 को बंबई में आर्य समाज की स्थापना की। उनका प्रमुख नारा था: ‘वेदों की ओर लौटो’। उन्होंने कर्म सिद्धांत, पुनर्जन्म और सन्यास को अपने दर्शन का आधार बनाया। उन्होंने सबसे पहले 1876 में ‘स्वराज्य’ का नारा दिया, जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। पहली जनगणना के समय दयानंद ने आगरा से देश के सभी आर्य समाजों को निर्देश दिया कि सभी लोग अपना धर्म ‘वैदिक धर्म’ या ‘सनातन धर्म’ लिखवाएँ।

हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति से प्रेरणा
हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति से गहरे प्रभावित आर्य समाज के प्रवर्तक दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात की छोटी-सी रियासत मोरवी के टंकारा गाँव में एक धनी, किंतु रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी (अंबाशंकर) और माता का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-संग्राहक थे। मूल नक्षत्र और धनु राशि में जन्म होने के कारण उनका बाल्यकालीन नाम ‘मूलशंकर’ रखा गया। उनकी माता वैष्णव थीं, जबकि पिता शैव मत के अनुयायी थे। आगे चलकर विद्वान बनने के लिए मूलशंकर ने संस्कृत, वेद, शास्त्रों और अन्य धार्मिक पुस्तकों का गहन अध्ययन किया।
महाशिवरात्रि को बोध
शिव के पक्के भक्त बालक मूलशंकर को उनके पिता ने महाशिवरात्रि के अवसर पर व्रत रखने को कहा। उस दिन उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक मंदिर में रुका हुआ था। परिवार के सो जाने के बाद भी मूलशंकर जागते रहे, यह विष्वास करते हुए कि भगवान शिव आएँगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे। किंतु उन्होंने देखा कि शिव के लिए रखा भोग चूहे खा रहे थे। यह देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ और बोध हुआ कि यह वह शंकर नहीं है, जिसकी कथा उन्हें सुनाई गई थी। इस घटना पर उन्होंने अपने पिता से तर्क-वितर्क किया और कहा कि ऐसे असहाय ईष्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए।
गृह-त्याग और ज्ञान की खोज
अपनी छोटी बहन और चाचा की हैजे से हुई मृत्यु से मूलशंकर जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे, जिनसे उनके माता-पिता चिंतित हो गए। उनके माता-पिता ने किशोरावस्था में ही उनका विवाह करने का निर्णय लिया, किंतु मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके लिए नहीं है।
शाष्वत सत्य और शिव की प्राप्ति के लिए मूलशंकर ने 1846 में 21 वर्ष की आयु में समृद्ध घर-परिवार त्यागकर गेरुआ वस्त्र धारण किया। उन्होंने भ्रमण करते हुए कई आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रारंभ में वे वेदांत के प्रभाव में आए और अद्वैत मत में दीक्षित हुए, जहाँ उनका नाम ‘शुद्ध चौतन्य’ पड़ा। इसके बाद वे स्वामी परमानंद से संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए और यहीं उनकी प्रचलित उपाधि ‘दयानंद सरस्वती’ मिली।
1859 में यात्रा करते हुए दयानंद सरस्वती मथुरा में वैदिक साहित्य के प्रख्यात विद्वान प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानंद के पास पहुँचे। उन्होंने विरजानंद को अपना गुरु बनाया। गुरु ने उन्हें पाणिनी व्याकरण, पातंजल योगसूत्र और वेद-वेदांग का अध्ययन कराया। विरजानंद ने दक्षिणा के रूप में उनसे कहा: “मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ। यही तुम्हारी गुरुदक्षिणा है।” उन्होंने अंतिम शिक्षा दी कि मनुष्यकृत ग्रंथों में ईष्वर और ऋषियों की निंदा है, किंतु ऋषिकृत ग्रंथों में नहीं। गुरु के आदेशानुसार दयानंद ने वैदिक धर्म में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने और वैदिक संस्कृति की श्रेष्ठता स्थापित करने का आजीवन प्रयास किया।
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महर्षि दयानंद ने अनेक स्थानों की यात्रा की। 1863 में कुंभ के अवसर पर हरिद्वार में उन्होंने पाखंडखंडिनी पताका फहराई और मूर्तिपूजा का विरोध किया। उनका कहना था: “यदि गंगा नहाने, सिर मुंडाने और भभूत मलने से स्वर्ग मिलता, तो मछली, भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते।” 1872 में वह कलकत्ता गए और केशवचंद्र सेन और देवेंद्रनाथ टैगोर के संपर्क में आए। केशवचंद्र के परामर्श पर उन्होंने पूर्ण वस्त्र पहनना और संस्कृत के स्थान पर हिंदी में अपने विचारों का प्रचार शुरू किया, जिससे उनकी लोकप्रियता बढ़ी। यहीं उन्होंने तत्कालीन वायसराय से कहा था: “मैं चाहता हूँ कि विदेशी राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। भिन्न-भिन्न भाषाएँ, पृथक-पृथक शिक्षा और अलग-अलग व्यवहार का हटना अति आवश्यक है। बिना इसके परस्पर व्यवहार, उपकार और अभिप्राय सिद्ध करना कठिन है।”
आर्य समाज की स्थापना (10 अप्रैल, 1875)
स्वामी दयानंद ने 10 अप्रैल 1875 को बंबई में ‘आर्य समाज’ की स्थापना की। इस समाज ने हिंदू धर्म को ईसाइयत और इस्लाम की तरह एक ग्रंथ-केंद्रित धर्म के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया। वेदों को छोड़कर किसी अन्य धर्मग्रंथ को प्रमाण न मानने के सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने पूरे देश का दौरा किया। जहाँ-जहाँ वे गए, प्राचीन परंपराओं के पंडित और विद्वान उनसे शास्त्रार्थ में पराजित हुए। उन्होंने ईसाई और इस्लामी धर्मग्रंथों का गहन अध्ययन किया था। अतः उन्होंने तीन मोर्चों पर संघर्ष शुरू किया: ईसाइयत, इस्लाम और सनातन हिंदू धर्म।
पश्चिम के आक्रामक बौद्धिक संवाद का जवाब देते हुए दयानंद ने बुद्धि और विज्ञान को आत्मसात किया और इसका उपयोग अपने विरोधियों के विरुद्ध किया। उनका दावा था: “वैज्ञानिक सत्य केवल वेदों में हैं और इसलिए इन ग्रंथों पर आधारित धर्म ईसाइयत और इस्लाम से श्रेष्ठ है।” इस प्रकार दयानंद ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलाई, उसका कोई जवाब नहीं था।
समाज सुधार के कार्य
महर्षि दयानंद का समाज सुधार में व्यापक योगदान रहा। वेदों की सत्ता के आधार पर उन्होंने हिंदू धर्म में व्याप्त मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, बलिप्रथा, प्रचलित मत-मतांतर, अवतारवाद, आडंबर और अंधविष्वासों की आलोचना की। उनका मानना था कि स्वार्थी और अज्ञानी पुरोहितों ने पुराणों जैसे ग्रंथों के सहारे हिंदू धर्म को भ्रष्ट कर दिया है। उनका विष्वास था कि कोई भी व्यक्ति सत्कर्म, ब्रह्मचर्य और ईष्वर की उपासना के सहारे मोक्ष प्राप्त कर सकता है। वैदिक धर्म श्रेष्ठतम है, क्योंकि यह वेदों पर आधारित है, जो ईष्वरीय हैं। यद्यपि वेद ईष्वर-प्रेरित हैं, किंतु उनकी व्याख्या मानव विवेक से होनी चाहिए। मृतकों के श्राद्ध का विरोध करते हुए उन्होंने कहा कि परलोक में मृतक की आत्मा की शांति के लिए यहाँ दान देना और भोजन करवाना मूर्खता है। अभिवादन के लिए प्रचलित ‘नमस्ते’ शब्द आर्य समाज की ही देन है।
दयानंद ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों जैसे बाल विवाह, बहुविवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा और अशिक्षा की कटु निंदा की। उन्होंने अपने ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में समाज को आध्यात्मिकता और आस्तिकता से परिचित कराया। स्वामी जी सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णों और स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर थे। उन्होंने स्त्री शिक्षा और स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार देने की वकालत की, साथ ही विधवा विवाह, अंतर्जातीय विवाह और स्त्री शिक्षा का समर्थन किया। उनका मानना था कि स्त्रियों को भी वेदों का अध्ययन करने और यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार है।
विवाह की आयु के संबंध में उनका मानना था कि लड़कों का विवाह 25 वर्ष और लड़कियों का 16 वर्ष की आयु से पहले नहीं करना चाहिए। वह नियोग प्रथा के समर्थक थे, जिसके अनुसार विधवा स्त्री अपने पति के छोटे भाई या परिवार के किसी अन्य सदस्य के साथ ‘नियोग’ द्वारा संतान उत्पन्न कर सकती थी, जिससे उसे संपत्ति में अधिकार प्राप्त होता था।
दयानंद ने सामाजिक समानता पर जोर दिया और छुआछूत और जातिप्रथा का निषेध किया, किंतु चार वर्णों की व्यवस्था का समर्थन किया, जिससे भारतीय सामाजिक संगठन की बुनियाद को यथावत रखा। उन्होंने ब्राह्मणों के प्रभुत्व का विरोध करते हुए सभी जातियों को वेदों के अध्ययन का अधिकार दिया और इस प्रकार उन्होंने सामाजिक कुरीतियों की पपड़ियों को धीरे-धीरे नहीं, बल्कि एक ही चोट में ध्वस्त करने का निश्चय किया।
स्वामी दयानंद का मुख्य लक्ष्य राजनीतिक स्वतंत्रता था। उनका मानना था कि सबसे अच्छा विदेशी राज्य भी स्वराज्य का मुकाबला नहीं कर सकता। उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में एक ऐसे स्वतंत्र भारत की कल्पना की, जिसमें स्वकीय संस्कृति और सभ्यता की अमूल्य परंपराएँ अक्षुण्ण रहें। वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी के उपयोग पर बल दिया। उनके नारे ‘भारत भारतीयों का है’ और ‘वेदों की ओर लौटो’ ने भारतीयों में देशभक्ति की भावना जागृत की।
हत्या के षड्यंत्र और मृत्यु
अपने उग्र विचारों के कारण स्वामी दयानंद को रूढ़िवादियों के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा। उन पर पत्थर फेंके गए, विष देने और डुबाने के प्रयास हुए। 1863 में गुरु विरजानंद के पास अध्ययन पूर्ण करने के बाद लगभग बीस वर्षों के कार्यकाल में उनकी हत्या और अपमान के लगभग 44 प्रयास हुए, जिनमें 17 बार विभिन्न माध्यमों से विष देने की कोशिश की गई। अंततः 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन संध्या के समय अजमेर के अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई। कहा जाता है कि उनकी हत्या एक अंग्रेजी षड्यंत्र के तहत ‘नन्हीं’ नामक वेश्या ने भोजन में काँच मिलाकर की थी। इसमें जोधपुर के अस्पताल के चिकित्सक पर भी संदेह है, जिसने संभवतः इलाज के दौरान उन्हें हल्का विष दिया था। उस समय स्वामी जी जोधपुर नरेश महाराज जसवंत सिंह के निमंत्रण पर जोधपुर गए थे।
स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृति, और स्वदेशोन्नति के अग्रदूत स्वामी दयानंद अपने पीछे ‘कृण्वंतो विष्वमर्यम्’ अर्थात् ‘सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ’ का सिद्धांत छोड़ गए। उनके अंतिम शब्द थे: “प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।”
लेखन और साहित्य
स्वामी दयानंद ने कई धार्मिक और सामाजिक पुस्तकों की रचना की। उनकी प्रारंभिक पुस्तकें संस्कृत में थीं, किंतु बाद में उन्होंने कई रचनाएँ हिंदी में लिखीं, जिसे उन्होंने ‘आर्यभाषा’ का नाम दिया। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं: पाखंड खंडन (1866), अद्वैतमत का खंडन (1873), ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (1876), ऋग्वेद भाष्य (1877), सत्यार्थ प्रकाश (1875), पंचमहायज्ञ विधि (1875), वल्लभाचार्य मत का खंडन (1875), गोकरुणानिधि (1881), संस्कृतवाक्यप्रबोध और व्यवहारभानु।
सत्यार्थ प्रकाश उनकी सर्वाेत्तम कृति है। इसमें उन्होंने प्रमाणित किया कि वैदिक धर्म सर्वश्रेष्ठ है। यह ग्रंथ चौदह समुल्लासों में रचित है। प्रथम दस समुल्लासों में सनातन वैदिक धर्म का प्रतिपादन है और अंतिम चार समुल्लासों में देशी-विदेशी मत-मतांतरों की समीक्षा की गई है। 27 फरवरी 1883 को उदयपुर में स्वामी दयानंद ने एक ‘स्वीकारपत्र’ प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने अपनी मृत्यु के पश्चात् ‘परोपकारिणी सभा’ की जिम्मेदारी 23 व्यक्तियों को सौंपी थी, जिनमें महादेव गोविंद रानाडे भी शामिल थे।
यद्यपि दयानंद का आक्रामक सुधारवाद पूर्वी और पश्चिमी भारत में हाशिए पर रहा, किंतु पंजाब और पश्चिमोत्तर प्रांत में आर्य समाज की शाखाएँ तेजी से स्थापित हुईं। इसके बाद ग्वालियर, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और गुजरात में इसका प्रसार हुआ। 1883 में उनकी मृत्यु तक यह आंदोलन पूरे देश में फैल गया और बाद में यह अधिक लोकप्रिय और आक्रामक होता गया।
स्वामी दयानंद के बाद शिक्षा के प्रश्न पर आर्य समाज दो भागों में बँट गया। एक गुट के नेता लाला हंसराज थे, जो पाश्चात्य शिक्षा के समर्थक थे। उनके प्रयासों से अनेक स्थानों पर डी.ए.वी. (दयानंद एंग्लो-वैदिक) स्कूल और कॉलेज स्थापित हुए। 1886 में लाहौर में ‘दयानंद एंग्लो-वैदिक स्कूल’ की स्थापना हुई, जो 1889 में ‘दयानंद एंग्लो-वैदिक कॉलेज’ बन गया। इस कॉलेज में पश्चिमी पद्धति से पढ़ाई होती थी। दूसरा गुट स्वामी श्रद्धानंद (मुंशीराम) का था, जो प्राचीन गुरुकुल प्रणाली के समर्थक थे। उनके प्रयासों से 1900 में ‘गुरुकुल कांगड़ी’ की स्थापना हुई, जो बाद में एक प्रसिद्ध विष्वविद्यालय बना। डी.ए.वी. और गुरुकुल कांगड़ी दोनों ने भारतीय संस्कृति की उपलब्धियों को उजागर करने और विद्यार्थियों में आत्मगौरव की भावना जगाने का कार्य किया।
आर्य समाज के सुधार कार्यों ने सामाजिक कुरीतियों को समाप्त कर जनता को एकजुट करने का प्रयास किया, किंतु इसके धार्मिक कार्यों में अनजाने में हिंदुओं, मुसलमानों, पारसियों, सिखों और ईसाइयों के बीच पनप रही राष्ट्रीय एकता को भंग करने की प्रवृत्ति भी थी। 1893 के बाद इसके एक जुझारू गुट ने धर्म परिवर्तन करने वाले हिंदुओं को शुद्ध कर पुनः हिंदू धर्म में शामिल करने और खोई हुई जमीन पुनः प्राप्त करने के लिए पंडित गुरुदत्त और पं. लेखराम के नेतृत्व में शुद्धि आंदोलन शुरू किया। 1890 के दशक में आर्य समाज ने जोर-शोर से ‘गोरक्षा आंदोलन’ चलाया, जिससे यह सुधारवाद से हटकर पुनरुत्थानवाद की ओर बढ़ गया। 1857 में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जो सद्भाव था, उसकी नींव यहीं से हिलनी शुरू हुई।
फिर भी, महर्षि दयानंद का जीवन अत्यंत प्रेरणास्पद है। डॉ. भगवान दास ने कहा कि स्वामी दयानंद हिंदू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे। एनी बेसेंट ने उन्हें ‘आर्यावर्त भारतीयों के लिए’ का नारा देने वाला पहला व्यक्ति बताया है। सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतंत्रता की नींव स्वामी दयानंद ने रखी थी। पट्टाभि सीतारमैया ने कहा कि गांधी जी राष्ट्रपिता हैं, किंतु स्वामी दयानंद राष्ट्रपितामह हैं। लोकमान्य तिलक ने उन्हें ‘स्वराज्य का प्रथम संदेशवाहक’ और सावरकर ने ‘स्वाधीनता संग्राम का प्रथम योद्धा’ कह हैा। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने उन्हें ‘आधुनिक भारत का आद्य निर्माता’ बताया है। इस प्रकार महर्षि का जीवन एक धार्मिक संत का था, उनकी प्रवृत्ति सत्यान्वेषण की थी और दृष्टि वैज्ञानिक व प्रजातांत्रिक थी। इस निर्भीक सन्यासी के चिंतन ने पराधीन भारत में सुप्त पड़ी आध्यात्मिक स्वाभिमान और स्वराज्य की भावना को जागृत किया।
देव समाज (1887)
देव समाज की स्थापना 16 फरवरी 1887 को लाहौर में शिवनारायण अग्निहोत्री ने की थी। यह समाज परमात्मा के स्थान पर प्रकृति में विष्वास करता था। इसका मुख्य उद्देश्य आत्मा की शुद्धि, गुरु की श्रेष्ठता की स्थापना और अच्छे मानवीय कार्य करना था। इस समाज ने आदर्श सामाजिक व्यवहारों जैसे रिष्वत न लेना, मांसाहारी भोजन और मद्यपान का निषेध और हिंसात्मक कार्यों से दूरी रखने पर जोर दिया। इसकी शिक्षाओं को ‘देव शास्त्र’ नामक पुस्तक में संकलित किया गया। फिरोजपुर में ‘देव समाज गर्ल्स कॉलेज’ ने स्त्री शिक्षा की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किया।
20 दिसंबर 1850 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे शिवनारायण अग्निहोत्री ने 16 वर्ष की आयु में रुड़की के थॉमसन कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया। 1873 में वह लाहौर गए, जहाँ उन्होंने सरकारी स्कूल में ड्राइंग मास्टर के रूप में कार्य शुरू किया। लाहौर प्रवास के दौरान वह ब्रह्म समाज में शामिल हुए और पूरे पंजाब में ब्रह्म मिशनरी के रूप में कार्य किए। 1882 में उन्होंने ब्रह्म समाज के लिए पूर्णकालिक कार्य करने हेतु अपने शिक्षण पद से इस्तीफा दे दिया।
ब्रह्म समाज के नेता के रूप में अग्निहोत्री ने आर्य समाज, विशेष रूप से स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ धार्मिक विवादों में भाग लिया। 1886 में उन्होंने पंजाब ब्रह्म समाज से त्यागपत्र देकर 1887 में ‘देव समाज’ की स्थापना की।
देव समाज की स्थापना
शिवनारायण अग्निहोत्री ने फरवरी 1887 में ब्रह्म समाज के तर्कवाद के स्थान पर ‘देव समाज’ की स्थापना की और ब्रह्म सुधारवाद के तत्त्वों को बनाए रखते हुए ‘गुरु’ की अवधारणा को अपने केंद्रीय सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया।
प्रारंभ में देव समाज एक आस्तिक समाज था, किंतु बाद में यह सामाजिक सुधार आंदोलन में बदल गया। सामाजिक कट्टरवाद के साथ सख्त नैतिक संहिता का संयोजन करते हुए शिवनारायण ने शाकाहार, जातियों के सामाजिक एकीकरण, महिलाओं की शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह और बाल विवाह के उन्मूलन की वकालत की। इस समाज ने बहुविवाह, व्यभिचार और अन्य ‘अप्राकृतिक अपराधों’ को अमान्य घोषित किया और कड़ी मेहनत पर बल दिया।
1892 में शिवनारायण ने भगवान की पूजा के साथ-साथ स्वयं को देवत्व की स्थिति में रखते हुए अपनी और भगवान की दोहरी पूजा की वकालत की। उन्होंने दावा किया कि उन्होंने अस्तित्व के उच्चतम संभव स्तर को प्राप्त कर लिया है। किंतु 1895 तक देव समाज अपनी विचारधारा में अनिवार्य रूप से नास्तिक बन गया, और अग्निहोत्री ने भगवान की पूजा को अस्वीकार कर ‘गुरु’ की पूजा पर जोर देने लगा।
ब्रह्म समाज और आर्य समाज की तरह देव समाज ने भी समकालीन हिंदू धर्म को अस्वीकार किया। इसने जाति प्रतिबंधों को नकारते हुए सदस्यों को अंतर-भोजन और अंतर्जातीय विवाह का अभ्यास करने के लिए प्रोत्साहित किया। अग्निहोत्री ने बाल विवाह के उन्मूलन और महिलाओं के उत्थान की बात की। उन्होंने कानून, समाज और शिक्षा में महिलाओं की समान भागीदारी की वकालत की। उन्होंने महिलाओं के संपत्ति और शिक्षा के अधिकार को बढ़ावा देकर उन्हें सशक्त बनाने का प्रयास किया। वह भारत की महिलाओं के ज्ञान और जीवन स्तर को सुधारना चाहते थे ताकि वे समाज के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। महिलाओं की शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए देव समाज ने भारत में लड़कियों के लिए कई स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की। अग्निहोत्री ने 1901 में फिरोजपुर में लड़कियों के लिए एक हाईस्कूल खोला।
अग्निहोत्री एक वक्ता, लेखक और पत्रकार के रूप में सक्रिय थे। उन्होंने बड़ी मात्रा में प्रचारक साहित्य का निर्माण किया। पंजाब में शिक्षित हिंदुओं के बीच उनका विशेष प्रभाव था, जो उन्हें अपने ‘गुरु’ के रूप में देखते थे। 1921 में पंजाब में देव समाज ‘विज्ञान आधारित धर्म’ के रूप में उन्नति पर था। किंतु 1929 में अग्निहोत्री की मृत्यु के बाद इसमें गिरावट आई, यद्यपि यह समाप्त नहीं हुआ।
राधास्वामी समाज (1861)
उत्तर भारत में आगरा (उत्तर प्रदेश) में एक बैंकर तुलसीराम, जिन्हें ‘सेठ शिवदयाल सिंह जी महाराज’ के नाम से भी जाना जाता है, ने 15 फरवरी 1861 को बसंत पंचमी के दिन राधास्वामी समाज की नींव रखी। यह आध्यात्मिक संगठन हिंदू कर्मकांडों और विधि-विधानों का विरोध करता था। इसमें दलित और पिछड़ी जातियों के लोग भी शामिल थे। शिक्षा के क्षेत्र में इस संस्था ने महत्त्वपूर्ण कार्य किए। इस समाज में गुरु भक्ति की प्रधानता थी। गुरु ही ज्ञान, सत्य और ईष्वर का अवतार माना जाता था। इसके सिद्धांत थे कि ईष्वर पूर्ण है और उसे योग तथा तपस्या के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इस आंदोलन के अनुयायी दरगाहों व अन्य धार्मिक स्थलों पर जाने में विष्वास नहीं करते थे। वे सत्य, विष्वास, सेवा, और प्रार्थना को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे।
शिवदयाल सिंह का जन्म 25 अगस्त 1818 को पन्नी गली, आगरा में हुआ था। बचपन से ही वे शब्द योग के अभ्यास में लीन रहते थे। उन्होंने किसी को अपना गुरु नहीं बनाया। उनकी धर्मपत्नी का नाम राधाजी था, जिसके कारण उन्हें ‘राधास्वामी’ कहा जाने लगा। 1861 से पहले राधास्वामी मत का उपदेश केवल कुछ चुने हुए लोगों को दिया जाता था, किंतु राधास्वामी मत के दूसरे आचार्य की प्रार्थना पर शिवदयाल सिंह ने 1861 को बसंत पंचमी के दिन इस संप्रदाय का द्वार जनसाधारण के लिए खोल दिया।










