सैय्यद वंश
सुल्तान महमूद की मृत्यु के पश्चात् दिल्ली के सरदारों ने दौलत खाँ लोदी को सुल्तान स्वीकार किया। मार्च 1414 ई. में खिज्र खाँ, जो तैमूर की ओर से मुल्तान और उसके अधीन प्रदेशों का शासक था, ने दौलत खाँ के विरुद्ध सेना लेकर दिल्ली पर आक्रमण किया। मई 1414 ई. के अंत तक खिज्र खाँ ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और दौलत खाँ को बंदी बनाकर हिसार-फीरोजा भेज दिया। खिज्र खाँ के पूर्वज संभवतः अरब से आए थे और वह पैगंबर का वंशज होने के कारण सैय्यद कहलाया। इसीलिए उसके द्वारा स्थापित वंश को सैय्यद वंश कहा गया।
खिज्र खाँ (1414-1421 ई.)
खिज्र खाँ सैय्यद वंश का संस्थापक था। फीरोजशाह तुगलक के शासनकाल में वह मुल्तान का सूबेदार नियुक्त हुआ था, किंतु बाद में तैमूरलंग से मिल गया। तैमूर ने भारत से लौटते समय उसे मुल्तान, लाहौर, और दीपालपुर का शासक नियुक्त किया। वह तैमूर के चौथे पुत्र और उत्तराधिकारी शाहरुख के प्रतिनिधि के रूप में शासन करता था और नियमित रूप से कर भेजता था। 1414 ई. में खिज्र खाँ ने दिल्ली के सिंहासन पर अधिकार कर लिया।
खिज्र खाँ के सात वर्षीय शासनकाल की कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं थी। उसने कभी सुल्तान की उपाधि ग्रहण नहीं की और “रैयत-ए-आला” की उपाधि से संतुष्ट रहा। उसके शासनकाल में पंजाब, मुल्तान और सिंध पुनः दिल्ली सल्तनत के अधीन आए, किंतु वह शक्तिशाली शासक नहीं था। उसका प्रभाव-क्षेत्र सीमित था और इटावा, कटेहर, कन्नौज, पटियाला, खोर, चलेसर, ग्वालियर, बयाना, मेवात, बदायूँ और कंपिल के जमींदार उसे बार-बार चुनौती देते थे। खिज्र खाँ और उसके वफादार मंत्री ताजुलमुल्क ने सल्तनत की सुरक्षा के लिए निरंतर संघर्ष किया। 20 मई, 1421 ई. को खिज्र खाँ की मृत्यु हो गई। इतिहासकार फरिश्ता ने उसे एक न्यायप्रिय और परोपकारी शासक के रूप में वर्णित किया। उसकी मृत्यु पर युवा, वृद्ध, दास, और स्वतंत्र नागरिकों ने काले वस्त्र पहनकर शोक प्रकट किया।
मुबारक शाह (1421-1434 ई.)
खिज्र खाँ ने अपने पुत्र मुबारक खाँ को उत्तराधिकारी नियुक्त किया। मुबारक खाँ ने ‘शाह’ की उपाधि धारण की, अपने नाम के सिक्के जारी किए, और खुतबा पढ़वाया, जिससे विदेशी स्वामित्व का अंत हुआ। उसे अपने पिता की तरह विद्रोहों का दमन और राजस्व वसूली के लिए नियमित सैन्य अभियान करने पड़े। उसने भटिंडा और दोआब के विद्रोहों को सफलतापूर्वक दबाया, किंतु खोक्खर नेता जसरथ के विद्रोह को दबाने में असफल रहा।
मुबारक शाह के शासनकाल में पहली बार दिल्ली सल्तनत में दो प्रमुख हिंदू अमीरों का उल्लेख मिलता है। उसने विद्रोहों का साहसपूर्वक दमन किया, सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा बढ़ाई, और अपने राज्य की सीमाओं को सुरक्षित किया। वह सैय्यद वंश का सबसे योग्य सुल्तान माना जाता है। 19 फरवरी 1434 ई. को अपने द्वारा निर्मित नए नगर मुबारकाबाद का निरीक्षण करते समय उसके वजीर सरवर-उल-मुल्क ने उसकी हत्या कर दी।
मुबारक शाह ने विद्वान याहिया बिन अहमद सरहिंदी को संरक्षण प्रदान किया, जिनके ग्रंथ ‘तारीख-ए-मुबारकशाही’ से उसके शासनकाल की जानकारी प्राप्त होती है।
मुहम्मद शाह (1434-1445 ई.)
मुबारक शाह की मृत्यु के बाद उसका भतीजा मुहम्मद बिन फरीद खाँ, जो खिज्र खाँ का नाती था, मुहम्मद शाह के नाम से सिंहासन पर बैठा। उसके शासनकाल के प्रारंभिक छह महीने वजीर सरवर-उल-मुल्क के आधिपत्य में बीते। छह महीने बाद सुल्तान ने अपने नायब सेनापति कमाल-उल-मुल्क की सहायता से वजीर की हत्या करवा दी और उसे नया वजीर नियुक्त किया।
मुहम्मद शाह के शासनकाल में मुल्तान में लंगाहों ने विद्रोह किया, जिसे सुल्तान ने स्वयं जाकर शांत किया। इसके बाद मालवा के शासक महमूद ने दिल्ली पर आक्रमण किया, किंतु मुहम्मद शाह ने मुल्तान के सूबेदार बहलोल लोदी की सहायता से उसे खदेड़ दिया। प्रसन्न होकर मुहम्मद शाह ने बहलोल लोदी को ‘खान-ए-खाना’ की उपाधि दी और उसे अपना ‘पुत्र’ कहकर संबोधित किया।
बहलोल लोदी ने दिल्ली पर अधिकार करने का प्रयास किया, किंतु असफल रहा। मुहम्मद शाह के अंतिम वर्षों में अधिकांश प्रांतों ने विद्रोह कर स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। 1445 ई. में मुहम्मद शाह की मृत्यु के साथ सैय्यद वंश का पतन शुरू हो गया।
अलाउद्दीन आलमशाह (1445-1450 ई.)
मुहम्मद शाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अलाउद्दीन आलमशाह की उपाधि धारण कर सिंहासन पर बैठा। वह विलासप्रिय और अकर्मण्य शासक था। वजीर हमीद खाँ से मतभेद के कारण उसने दिल्ली छोड़कर बदायूँ में निवास शुरू किया। हमीद खाँ ने बहलोल लोदी को दिल्ली आमंत्रित किया। बहलोल ने दिल्ली पहुँचकर हमीद खाँ की हत्या करवा दी और 1450 ई. में दिल्ली पर अधिकार कर लिया। 19 अप्रैल 1451 ई. को बहलोल ने स्वयं को सुल्तान घोषित किया। अलाउद्दीन आलमशाह ने बदायूँ में रहना सुरक्षित समझा और 1476 ई. में वहीं उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार 37 वर्षों के बाद सैय्यद वंश का अंत हुआ।
सैय्यद वंश का पतन और लोदी वंश का उदय
तैमूर के आक्रमण के बाद दिल्ली सल्तनत की अस्थिरता का लाभ उठाकर कई अफगान सरदारों ने पंजाब में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। इनमें बहलोल लोदी सबसे प्रमुख था, जो सरहिंद का इक्तादार था। उसने खोक्खरों की बढ़ती शक्ति को रोक दिया, जो सिंध की पहाड़ियों में रहने वाली युद्धप्रिय जाति थी। अपनी नीतियों और साहस के बल पर बहलोल ने शीघ्र ही पूरे पंजाब पर अधिकार कर लिया। मालवा के संभावित आक्रमण को रोकने के लिए उसे दिल्ली आमंत्रित किया गया। 1451 ई. में अलाउद्दीन आलमशाह के दिल्ली का सिंहासन त्यागने पर बहलोल ने हमीद खाँ की सहायता से ‘बहलोल शाह गाजी’ की उपाधि धारण कर स्वयं सुल्तान बन गया। इस प्रकार भारत में पहली बार एक अफगान शासक दिल्ली की गद्दी पर बैठा, जिससे लोदी वंश की स्थापना हुई।









