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शुंग राजवंश
चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य द्वारा स्थापित विशाल मौर्य साम्राज्य की लड़खड़ाती दीवार अंततः 185 ई.पू. के आसपास उस समय गिर गई जब ‘सेनानी’ पुष्यमित्र ने अंतिम मौर्य राजा बृहद्रथ की सेना के सामने हत्या कर दी और शुंग राजवंश की स्थापना की।
ऐतिहासिक स्रोत
शुंगों का इतिहास जानने के स्रोत विविध हैं। भारतीय धार्मिक एवं धर्मेतर साहित्य के साथ-साथ अभिलेखों और अन्य पुरातात्विक स्रोतों के द्वारा इस वंश के संबंध में सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। पुराणों से पता चलता है कि सेनानी पुष्यमित्र शुंग राजवंश का संस्थापक था जिसने 36 वर्ष तक राज्य किया था। दिव्यावदान, ललितविस्तर, मंजुश्रीमूलकल्प जैसे बौद्ध ग्रंथ भी इस वंश के इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। जैन लेखक मेरुतुंग की थेरावली (चौदहवीं शताब्दी) में उज्जैनी के शासकों की वंशावली दी गई है, जिसमें पुष्यमित्र का भी उल्लेख मिलता है। धर्मेतर साहित्य में पतंजलि के महाभाष्य से पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल की कुछ घटनाओं का ज्ञान होता है। गार्गी संहिता में यवनों के आक्रमण का उल्लेख है। कालिदास के ग्रंथ मालविकाग्निमित्र में भी पुष्यमित्रकालीन यवनों के आक्रमण का कुछ विवरण मिलता है। बाणभट्ट की रचना हर्षचरित से पता चलता है कि ‘अनार्य’ पुष्यमित्र ने अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर सिंहासन पर अधिकार किया था।
पुरातात्त्विक स्रोतों में धनदेव का अयोध्या लेख महत्त्वपूर्ण है जिससे पता चलता है कि पुष्यमित्र ने दो अश्वमेघ यज्ञों का संपादन किया था। इसके अलावा हेलियोडोरस का बेसनगर से प्राप्त गरुड़-स्तंभ लेख, भरहुत, साँची, बोधगया से प्राप्त स्तूप एवं स्मारक, कोशांबी, अयोध्या, अहिछत्रा तथा मथुरा से मिलनेवाले सिक्के भी शुंगकालीन इतिहास पर प्रकाश डालते हैं।
शुंगों की उत्पत्ति
शुंगों की उत्पत्ति के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है। ‘मित्र’ नामांत के आधार पर पहले काशीप्रसाद जायसवाल ने इन्हें ईरानी मग (पारसीक) ब्राह्मण बताया था जिन्होंने भारत में सूर्य (मिथ्र) की उपासना आरंभ किया था, किंतु बाद में उन्होंने पता नहीं किन कारणों से अपना मत वापस ले लिया। बाणभट्ट ने हर्षचरित में पुष्यमित्र के लिए ‘अनार्य’ शब्द प्रयुक्त किया है, किंतु इसके आधार पर शुंगों को निम्न जाति का नहीं माना जा सकता है। बाण के अनार्य कहने का आशय मात्र उसके नीच (अधम) कार्य से है जो उसने अपने स्वामी शासक की हत्या करके किया था। बाण का उल्लेख जातिसूचक नहीं है। दिव्यावदान में शुंगों को मौर्यवंशीय क्षत्रिय सिद्ध करने का प्रयास किया गया है, जो अमान्य है।
भारतीय साहित्य में शुंगों को ब्राह्मण बताया गया है। पुराण पुष्यमित्र को शुंग कहते हैं और पाणिनि ने शुंग वंश को भारद्वाज गोत्र का ब्राह्मण बताया है। कालीदास के ग्रंथ ‘मालविकाग्निमित्र’ में शुंगों को ‘बैंबिक कुल’ से संबंधित किया गया है जो बौधायन श्रौतसूत्र के अनुसार काश्यप गोत्र के ब्राह्मण थे।
बृहदारण्यक उपनिषद् में शौंगीपुत्र नामक एक आचार्य का उल्लेख है और अश्वालायन श्रौतसूत्र में शुंगों का आचार्यों के रूप में उल्लेख मिलता है। तारानाथ भी पुष्यमित्र को ब्राह्मण बताते हैं जिसके पूर्वज पुरोहित थे। संभवतः शुंग उज्जैन प्रदेश के भारद्वाज गोत्रीय अथवा काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे, जहाँ इनके पूर्वज मौर्यकाल में पुरोहिताई का कार्य छोड़कर सैनिक-वृत्ति को अपना लिये थे।
पुष्यमित्र शुंग
पुराण, हर्षचरित तथा मालविकाग्निमित्र सभी ग्रंथों में पुष्यमित्र को ‘सेनानी’ और उसके पुत्र अग्निमित्र को राजा कहा गया है। इस आधार पर कुछ इतिहासकारों ने अनुमान लगाया है कि वह कभी राजा नहीं बना और बृहद्रथ की हत्या करने के बाद अपने पुत्र को राजा बना दिया। स्रोतों से ज्ञात होता है कि उसने दो अश्वमेघ यज्ञों का संपादन किया था, जो प्राचीन भारत में राजसत्ता का प्रतीक माना जाता था। इससे लगता है कि सेनापति के रूप में अपनी पहचान बनाये रखने के लिए वह राजा बनने के बाद भी अपनी ‘सेनानी’ की उपाधि ही धारण करता रहा।
पुष्यमित्र शुंग की उपलब्धियाँ
मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या
पुष्यमित्र अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ का सेनापति था। उसने अपने स्वामी की हत्या करके सत्ता प्राप्त की थी। पुराणों और बाणभट्ट के हर्षचरित दोनों में इस घटना का उल्लेख किया गया है। पुराणों के अनुसार ‘सेनानी पुष्यमित्र बृहद्रथ की हत्या करके 36 वर्षों तक राज्य करेगा’-
पुष्यमित्रस्तु सेनानी समुद्वृत ब्रहद्रथम्।
कारयिष्यति वैराज्यं षड्त्रिशति समानृपः।।
बाणभट्ट ने हर्षचरित में इस घटना का वर्णन करते हुए लिखा है कि अनार्य सेनानी पुष्यमित्र ने सेना निरीक्षण के बहाने अपने प्रज्ञा-दुर्बल स्वामी बृहद्रथ की हत्या कर दी-
‘प्रज्ञादुर्बल च बलदर्शन व्यपदेशदर्शिताशेष सैन्याः सेनानीरनार्यो मौर्य बृहद्रथं पिपेष पुष्यमित्रः स्वामिनम्।’
वस्तुतः परवर्ती मौर्यों के काल में मौर्य साम्राज्य अनेक कारणों से न केवल शिथिल और दुर्बल हो गया था, अपितु उसमें बिखराव की प्रक्रिया भी प्रारंभ हो चुकी थी। व्यक्तिगत स्वार्थ और महत्त्वाकांक्षा के कारण इस समय मौर्य दरबार में सेनापति और सचिव के दो गुट बन गये थे। सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा सेना के समक्ष शासक बृहद्रथ की हत्या इसी दरबारी गुटबंदी का परिणाम प्रतीत होता है।
बौद्ध धर्म का विनाश एवं ब्राह्मण-वर्चस्व की स्थापना
कुछ इतिहासकारों के अनुसार पुष्यमित्र शुंग का यह विद्रोह बुद्धकाल के पहले से चली आ रही ब्राह्मण-क्षत्रिय प्रतिस्पर्धा का विकास था। पतंजलि के तत्त्वावधान में उसके शिष्य पुष्यमित्र शुंग ने अंतिम मौर्य-सम्राट बृहद्रथ को मारकर ब्राह्मण-साम्राज्य की नींव डाली क्योंकि ब्राह्मणों के पास अपने पुनरुद्धार के लिए मौर्य-साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। इस विद्रोह का उद्देश्य बौद्ध धर्म का विनाश एवं ब्राह्मण-वर्चस्व की स्थापना करना था। यह वर्ण-व्यवस्था के ‘सामान्य नियमों’ का उल्लंघन था, जिसमें ब्राह्मण राजा नहीं हो सकता था। पुष्यमित्र ने वैदिक व्यवस्था के विरुद्ध जाकर राजा की हत्या की थी और राजा होने का ‘अनुचित’ अधिकार प्राप्त किया था। संभवतः यही कारण है कि बाणभट्ट ने हर्षचरित में पुष्यमित्र को ‘अधम’ कहकर उसकी निंदा की है और उसके द्वारा की गई राजा की हत्या को ‘आर्य-नियम’ के विरुद्ध बताया है।
जन-साधारण के व्यापक विरोध से निपटने तथा ब्राह्मण-वर्चस्व स्थापित करने के लिए मनु ने अपने विधान द्वारा पुष्यमित्र द्वारा की गई राज-हत्या और हिंसक क्रांति को न केवल अधिनियमित और विनियमित किया, बल्कि उसने ब्राह्मणों के लिए कुछ एकाधिकार, रियायतें और विशेषाधिकार स्वीकृत कर ब्राह्मणों को एक बार पुनः विशेषाधिकार संपन्न वर्ग बना दिया। यही कारण है कि पुष्यमित्र की संरक्षा में रचित मनुस्मृति में श्रमण एवं शूद्र दोनों ही के विरोध में नियम बनाये गये। पतंजलि ने इस परिवर्तन का खुलकर समर्थन किया और फिर उसके हितार्थ अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया और स्वयं ऋत्विज् बना।
पुष्यमित्र का शासनकाल पूरी तरह से चुनौतियों से भरा हुआ था। उस समय भारत पर कई विदेशी आक्रांताओं ने आक्रमण किये, जिनका सामना पुष्यमित्र शुंग को करना पड़ा। राजा बनते ही पुष्यमित्र ने मगध की अधीनता त्याग चुके राज्यों को विजित कर मगध को संगठित करने का प्रयास करना आरंभ कर दिया। अपने विजय अभियानों के द्वारा उसने मगध की सीमा का विस्तार किया और प्रशासनिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए विदिशा को दूसरी राजधानी बनाया। वहाँ उसने अपने पुत्र अग्निमित्र को राज्य के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया। माना जाता है कि उसने न केवल देश में शांति और सुव्यवस्था स्थापित की, वरन् विदेशी आक्रांताओं से भी देश की रक्षा की और वैदिक धर्म कर प्रतिष्ठा की।
विदर्भ युद्ध
परवर्ती दुर्बल मौर्य राजाओं के शासनकाल में जो अनेक प्रदेश साम्राज्य की अधीनता से स्वतंत्र हो गये थे, पुष्यमित्र ने उन्हें फिर से अपने अधीन कर लिया। मालविकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि उस समय विदर्भ (बरार) का शासक यज्ञसेन था। संभवतः वह मौर्य सचिव की ओर से विदर्भ के शासक-पद पर नियुक्त हुआ था क्योंकि वह बृहद्रथ के सचिव का साला था। वह शुंगों का ‘स्वाभाविक शत्रु’ (प्रकृत्यमित्रः) था, किंतु मगध साम्राज्य की दुर्बलता अथवा बृहद्रथ की हत्या से उत्पन्न अराजकता का लाभ उठाकर वह इस समय स्वतंत्र हो गया था। पुष्यमित्र ने बृहद्रथ की हत्या के बाद उसके सचिव को कारागार में डाल दिया था। नाटक के अनुसार पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा (राज्यपाल) था। संभवतः सेनापति गुट का होने के कारण ही अग्निमित्र को विदिशा का शासन सौंपा गया था।
विदर्भ नरेश यज्ञसेन का चचेरा भाई माधवसेन अग्निमित्र का मित्र था जो विदर्भ की गद्दी के लिए यज्ञसेन का प्रबल प्रतिद्वंद्वी था और अग्निमित्र के संपर्क में था। एक बार विदिशा जाते समय यज्ञसेन के सीमाप्रांत के राज्यपाल (अंतपाल) ने उसे बंदी बना लिया। अग्निमित्र ने यज्ञसेन पर माधवसेन को मुक्त करने का दबाव डाला तो यज्ञसेन ने पाटलिपुत्र के कारागार में बंद मौर्य सचिव को पहले मुक्त करने की शर्त रखी। वार्ता असफल होने पर पुष्यमित्र के आदेश से अग्निमित्र ने अपने सेनापति वीरसेन को विदर्भ पर आक्रमण करने का आदेश दिया। युद्ध में यज्ञसेन पराजित हुआ और विदर्भ राज्य को दो भागों में बाँट दिया गया, जिसमें एक भाग माधवसेन को प्राप्त हुआ। वर्धा नदी दोनों राज्यों की सीमा मान ली गई। दोनों ने पुष्यमित्र की अधीनता स्वीकार कर ली जिससे पुष्यमित्र का प्रभाव-क्षेत्र नर्मदा के दक्षिण तक विस्तृत हो गया। कालिदास के प्रसिद्ध नाटक मालविकाग्निमित्र में यज्ञसेन की चचेरी बहन मालविका और अग्निमित्र के प्रेमकथा के साथ-साथ विदर्भ-विजय का वृत्तांत भी उल्लिखित है।
इस प्रकार अग्निमित्र ने अल्पकाल में ही विदर्भ की स्वाधीनता को नष्ट कर दिया क्योंकि उसे अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने का समय नहीं मिल पाया था। वह अभी नवसंरोपित पौधे के समान था जिसकी जड़ें अभी जमने नहीं पाई थीं और जिसे शीघ्र उखाड़ा जा सकता था। इससे लगता है कि विदर्भ युद्ध पुष्यमित्र द्वारा मौर्य साम्राज्य पर अधिकार करने के तत्काल बाद ही प्रारंभ हुआ था और मौर्य सचिव पुष्यमित्र का प्रबल प्रतिद्वंद्वी था। लगता है कि बृहद्रथ के काल में मौर्य दरबार में दो गुट थे- एक गुट का नेतृत्व मौर्य सचिव कर रहा था और दूसरे का सेनापति पुष्यमित्र। यही कारण है कि सचिव के संबंधी यज्ञसेन को विदर्भ और पुष्यमित्र के पुत्र को विदिशा का राज्यपाल बनाया गया था। जब पुष्यमित्र ने पाटलिपुत्र पर अधिकार कर लिया तो मौर्य सचिव को कारागार में डाल दिया और यज्ञसेन ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। मौर्य सचिव का निकट-संबंधी होने के कारण ही वह शुंगों का स्वाभाविक शत्रु था।
यवन आक्रमण
पुष्यमित्र शुंग के शासन काल की सर्वप्रमुख घटना यवन आक्रमण है। मौर्य सम्राटों की दुर्बलता का लाभ उठाकर यवन भारत पर आक्रमण शुरू कर दिये थे। विभिन्न साक्ष्यों से पता चलता है कि पुष्यमित्र के शासनकाल में यवनों ने भारत पर आक्रमण किया और बिना किसी अवरोध के पाटलिपुत्र के निकट तक पहुँच गये। इस आक्रमण के संबंध में पतंजलि के महाभाष्य, गार्गी संहिता तथा कालीदास के मालविकाग्निमित्र से सूचना मिलती है। पुष्यमित्र के पुरोहित पतंजलि ने अपने महाभाष्य में लिखा है कि ‘यवनों ने साकेत पर आक्रमण किया, यवनों ने माध्यमिका (चित्तौड़) पर घेरा डाला’- ‘अरुणद् यवनः साकेतम्। अरुणद् यवनः माध्यमिकाम्।’
गार्गी संहिता के युगपुराण खंड के अनुसार दुष्ट पराक्रमी यवनों ने साकेत, पंचाल और मथुरा को जीत लिया और पाटलिपुत्र तक पहुँच गये। प्रशासन में घोर अव्यवस्था उत्पन्न हुई तथा प्रजा व्याकुल हो गई। किंतु उनमें आपस में ही संघर्ष छिड़ गया और वे मध्य देश में नहीं रुक सके।
कालिदास के मालविकाग्निमित्र के अनुसार भी पुष्यमित्र का यवनों के साथ युद्ध हुआ था और उसके पोते वसुमित्र ने सिंधु नदी के तट पर यवनों को परास्त किया था। ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र के यज्ञ का घोड़ा उसके पौत्र वसुमित्र के नेतृत्व में घूमते हुए सिंधु नदी के दक्षिणी तट पर यवनों द्वारा पकड़ लिया गया था और वहीं दोनों सेनाओं में घनघोर युद्ध हुआ था। वसुमित्र यवनों को पराजित कर घोड़ा पाटलिपुत्र ले आया था।
इस सिंधु नदी की पहचान के संबंध में इतिहासकारों में मतभेद है। रैप्सन के अनुसार यह पंजाब की सिंधु न होकर मध्य भारत की चम्बल की सहायक काली सिंधु अथवा यमुना की सहायक सिंधु है। रमेशचंद्र मजूमदार इसे पश्चिमोत्तर की प्रसिद्ध सिंधु नदी ही मानते हैं। मालविकाग्निमित्र के अंतःसाक्ष्य से स्पष्ट है कि इस सिंधु नदी का आशय पश्चिमोत्तर की सिंधु नदी से ही है। अब अधिकांश इतिहासकार मानने लगे हैं कि सिंधु से आशय पंजाब की प्रसिद्ध सिंधु नदी से ही है क्योंकि मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदिशा से यह नदी बहुत दूर थी। इस प्रकार पुष्यमित्र शुंग ने यवनों को पराभूत कर मगध साम्राज्य की शक्ति को कायम रखने में असाधारण सफलता प्राप्त की थी।
इस यवन आक्रमणकारी के संबंध में इतिहासकारों में एक मत नहीं है। कुछ इतिहासकार इसका नेता डेमेट्रियस को तो कुछ मिनेंडर को मानते हैं। कुछ इतिहासकार मानते है कि भारत पर दो यवन आक्रमण हुए, एक डेमेट्रियस के नेतृत्व में पुष्यमित्र के शासन के आरंभिक दिनों में और दूसरा उसके शासन के अंतिम दिनों में अथवा उसकी मृत्यु के तत्काल बाद मिनेंडर के नेतृत्व में। इसके विपरीत टार्न महोदय एक ही यवन आक्रमण को स्वीकार करते हैं। इनका मानना है कि इस आक्रमण का नेता डेमेट्रियस ही था, परंतु वह अपने साथ भाई अपोलोडोटस और सेनापति मिनेंडर को भी लाया था। उसने अपनी सेना को दो भागों में बाँट दिया जिसमें एक भाग उसके स्वयं के नेतृत्व में सिंधु को पारकर चित्तौड़ होता हुआ पाटलिपुत्र पहुँचा। दूसरा भाग मिनेंडर के अधीन मथुरा, पांचाल तथा साकेत के रास्ते पाटलिपुत्र आया। ए.के. नरायन का विचार है कि मध्य भारत पर यवनों का एक ही आक्रमण पुष्यमित्र के शासन के अंत में मिनेंडर के नेतृत्व में हुआ था क्योंकि डेमेट्रियस कभी काबुल घाटी के आगे नहीं बढ़ सका था। कैलाशचंद्र ओझा के अनुसार मगध पर डेमेट्रियस या मिनेंडर के समय में कोई यवन आक्रमण हुआ ही नहीं क्योंकि मध्य गंगाघाटी में यवन इन दोनों के बहुत बाद प्रथम शताब्दी ई.पू. में आये थे।
कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि प्रथम यवन आक्रमण डेमेट्रियस (दिमित्र) के नेतृत्व में मौर्य नरेश बृहद्रथ के काल में ही हुआ था और सेनापति के रूप में पुष्यमित्र ने यवनों को पराजित किया था। इससे पुष्यमित्र की लोकप्रियता बढ़ गई और उसने बृहद्रथ की हत्या कर सत्ता पर अधिकार कर लिया होगा। शासक बनने पर पुष्यमित्र को दूसरे यवन आक्रमण का सामना करना पड़ा, जब यवन सेनाएँ मिनेंडर के नेतृत्व में साकेत और माध्यमिका तक चली आई थीं। इसी आक्रमण को पतंजलि ने ‘अरुणद् यवनः साकेतम्, अरुणद् यवनः माध्यमिकाम्’ लिखकर निर्देश किया है।
खारवेल से युद्ध
कहते हैं कि परवर्ती मौर्यों की निर्बलता का लाभ उठाकर कलिंग देश (उड़ीसा) भी स्वतंत्र हो गया था। कलिंग नरेश खारवेल ने दूर-दूर तक आक्रमण कर कलिंग की शक्ति का विस्तार किया। खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख के द्वारा ज्ञात होता है कि उसने मगध पर भी आक्रमण किया था और ‘बहसतिमित’ नामक मगध के शासक को पराजित किया था। अनेक विद्वानों ने हाथीगुम्फा शिलालेख के बहसतिमित्र को बृहस्पतिमित्र पढ़ा है। चूंकि बृहस्पति पुष्य नक्षत्र का स्वामी है, इस आधार पर काशीप्रसाद जायसवाल ने यह निष्कर्ष निकाला कि खारवेल ने मगध पर आक्रमण करके पुष्यमित्र को ही पराभूत किया था। परंतु अनेक इतिहासकार जायसवाल के इस समीकरण से सहमत नहीं हैं। उनका विचार है कि खारवेल ने मगध के जिस शासक पर आक्रमण किया था, वह मौर्य वंश का ही कोई राजा था। संभावना व्यक्त की गई है कि खारवेल का मगध पर आक्रमण मौर्य नरेश शालिशुक या उसके किसी उत्तराधिकारी के शासनकाल में हुआ था। हाथीगुम्फा शिलालेख में यह अंश अस्पष्ट है और इसे बहसतिमित पढ़ना पूर्णतया संदिग्ध है।
पुष्यमित्र का साम्राज्य तथा प्रशासन
पुष्यमित्र प्राचीन मौर्य साम्राज्य के मध्यवर्ती भाग को सुरक्षित रखने में सफल रहा। उसके साम्राज्य की सीमा पश्चिम में सिंधु नदी तक अवश्य थी। दिव्यावदान के अनुसार साकल (सियालकोट) उसके साम्राज्य के अंतर्गत था। अयोध्या से प्राप्त धनदेव का लेख मध्यदेश पर उसके शासन का प्रमाण है। विदर्भ-विजय से उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा नर्मदा नदी तक पहुँच गई थी। अब पुष्यमित्र का साम्राज्य हिमालय से नर्मदा नदी तक और सिंधु से प्राच्य समुद्र तक विस्तृत था। पाटलिपुत्र अभी भी इस साम्राज्य की राजधानी थी, किंतु विदिशा का राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्त्व बढ़ता जा रहा था। बाद में इस नगर ने पाटलिपुत्र का स्थान ले लिया।
पुष्यमित्र ने संभवतः मौर्य प्रशासनिक व्यवस्था को ही बनाये रखा। काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार पुष्यमित्र के ब्राह्मण राज्य का समर्थन करने के उद्देश्य से मनु ने राजा की दैवी उत्पत्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन किया और यह स्थापित किया कि बालक राजा का भी अपमान नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही मनु ने प्रजा-पालन एवं प्रजा-रक्षण को राजा का सर्वश्रेष्ठ धर्म घोषित किया है, जिससे लगता है कि राजा धर्म और व्यवहार के अनुसार ही शासन करता था।
साम्राज्य के विभिन्न भागों पर समुचित प्रशासन के लिए राजपरिवार या उससे संबंधित व्यक्तियों को राज्यपाल नियुक्त करने की मौर्यकालीन परंपरा चलती रही। वायुपुराण में कहा गया है कि पुष्यमित्र ने अपने पुत्रों को साम्राज्य के विभिन्न भागों में सह-शासक नियुक्त किया था। मालविकाग्निमित्र से स्पष्ट है कि उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा था। वसुमित्र के उदाहरण से स्पष्ट है कि राजकुमार भी सेना का संचालन करते थे। अयोध्या लेख से ज्ञात होता है कि धनदेव कोशल का राज्यपाल था। मालविकाग्निमित्र के ‘अमात्य परिषद्’ और महाभाष्य के ‘सभा’ से ज्ञात होता है कि शासन में सहायता के लिए मंत्रिपरिषद् होती थी। कौटिल्य के समान मनु ने भी राजा को सात या आठ मंत्रियों को नियुक्त करने की सलाह दी है। लगता है कि केंद्रीय प्रशासन की शिथिलता के कारण अब सामंतीकरण की प्रवृत्तियाँ सक्रिय होने लगी थीं।
अश्वमेघ यज्ञ
पुष्यमित्र शुंग ने अपनी प्रभुसत्ता घोषित करने और ब्राह्मण धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अश्वमेध यज्ञ का संपादन किया था। पुष्यमित्र शुंग द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किये जाने की पुष्टि अभिलेखिक और साहित्यिक दोनों साक्ष्यों द्वारा होती है। पतंजलि के महाभाष्य में वर्तमान लट्लकार का प्रयोग कर बताया गया है कि ‘हम यहाँ पुष्यमित्र के लिए यज्ञ कर रहे हैं’- (इह पुष्यमित्रं याजयामः)।
हरिवंश पुराण में कहा गया है कि ‘कलियुग में एक औद्भिज्ज (नवोदित) काश्यपगोत्रीय द्विज सेनानी अश्वमेध यज्ञ का पुनरूद्धार करेगा’-
औद्भिज्जो भविता कश्चित् सेनानी काश्यपो द्विजः।
अश्वमेधं तु कलियुगे पुनः प्रत्याहरिष्यति।।
धनदेव के अयोध्या लेख में पुष्यमित्र को ‘द्विराश्वमेधयाजिनः’ (दो अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाला) कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि पुष्यमित्र ने दो बार अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था। मालविकाग्निमित्र से भी पता चलता है कि अश्वमेध के घोड़े का पीछा करते हुए पुष्यमित्र के पौत्र वसुमित्र ने सिंधु नदी के दक्षिणी तट पर यवनों को पराजित कर अश्वमेध के धोड़े को मुक्त करवाया था। लगता है कि पुष्यमित्र ने राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के बाद प्रथम अश्वमेध यज्ञ का संपादन किया था। दूसरा यज्ञ उसके शासन के अंत में किया गया होगा, जिसका उल्लेख मालविकाग्निमित्र में हुआ है। बहुत संभव है कि डेमेट्रियस और मिनेंडर के विरुद्ध अपनी विजयों के उपलक्ष्य में पुष्यमित्र ने दोनों अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया हो। वी.ए. स्मिथ के अनुसार ‘पुष्यमित्र के स्मरणीय अश्वमेध यज्ञ से उस ब्राह्मण प्रतिक्रिया का आरंभ होता है जो समुद्रगुप्त तथा उसके उत्तराधिकारियों के काल में पाँच शताब्दियों बाद पूर्णरूप से विकसित हो गई।’
वस्तुतः अहिंसा-प्रधान बौद्ध और जैन धर्मों के उत्कर्ष के कारण कर्मकांडीय यज्ञ-याग की परिपाटी विलुप्त हो गई थी और ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान कर यज्ञप्रधान ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान किया।
पुष्यमित्र शुंग और बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म की परंपराओं और रचनाओं में पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध धर्म कोघोर विरोधी बताया गया है। तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ के विवरणों तथा बौद्ध ग्रंथ ‘दिव्यावदान’ में पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का प्रबल शत्रु कहा गया है। दिव्यावदान से पता चलता है कि पुष्यमित्र बौद्धों से द्वेष करता था और उसने 84,000 स्तूपों को ध्वंस करवाया था। इसी क्रम में उसने साकल से घोषणा की थी कि ‘यो मे एकं श्रमणसिरं दास्यति तस्याहं दीनार शतं दास्यामि’ अर्थात् ‘जो व्यक्ति मुझे एक श्रमण का सिर देगा, मैं उसे सौ दीनार पारितोषिक दूँगा।’
तारानाथ के विवरण से पता चलता है कि उसने बहुत से स्तूपों को ध्वस्त किया और बड़ी संख्या में बौद्धधर्मावलंबियों की हत्या करवाई।
‘आर्यमंजुश्रीमूलकल्प’ से भी ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र बौद्धद्रोही था। क्षेमेंद्रकृत ‘अवदानकल्पलता’ में भी पुष्यमित्र का चित्रण बौद्ध धर्म के संहारक के रूप में किया गया है। कोशांबी के घोषिताराम बिहार में विनाश तथा जलाये जाने के कुछ प्रमाण भी मिले हैं। संभव है, कुछ बौद्धों ने पुष्यमित्र का विरोध किया हो और राजनीतिक कारणों से पुष्यमित्र ने उनके साथ कठोरता का व्यवहार किया हो।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार भरहुत स्तूप का निर्माण और साँची स्तूप की वेदिकाएँ (रेलिंग) शुंगकाल की कृतियाँ हैं और भरहुत की वेष्टिनी पर खुदा हुआ ‘सुगनंरजे’ (शुंगों के राज-काल में) पुष्यमित्र की धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है। इस संबंध में और अधिक शोध और तथ्यों की निष्पक्ष जाँच-पड़ताल करने की आवश्यकता है ताकि पुष्यमित्र की धार्मिक नीति का उद्घाटन हो सके। वैसे अपने स्वामी की हत्याकर सिंहासन पर अधिकार करने वाला ब्राह्मण धर्म का पुनद्धारकर्त्ता तो माना जा सकता है, भारतीय संस्कृति का संरक्षक नहीं।
पुष्यमित्र शुंग कला का संरक्षक था। उसने साँची स्तूप का सुंदरीकरण करवाया और उसमें एक रेलिंग लगवाई। भरहुत स्तूप भी उसकी कलाप्रियता का एक उत्कृष्ट प्रमाण है। विदिशा के गजदत्त शिल्पी द्वारा निर्मित साँची स्तूप के तोरणद्वार आज भी उस बीते हुए युग की कलात्मक प्रतिभा के साक्षी हैं। कला के अतिरिक्त पुष्यमित्र शुंग का शासन साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए भी प्रसिद्ध हैं। साहित्य के क्षेत्र में पतंजलि ने पाणिनि की अष्टाध्यायी पर महाभाष्य की रचना की। पतंजलि पुष्यमित्र शुंग द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ के पुरोहित (आचार्य) थे।
पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र शुंग ने 36 वर्ष तक राज्य किया। इस प्रकार उसकी मृत्यु 148 ई.पू. में हुई होगी। किंतु वायु एवं ब्रह्मांड पुराण से ज्ञात होता है कि उसने 60 वर्ष शासन किया। ऐसा प्रतीत होता है कि इन वर्षों में पुष्यमित्र का वह कालखंड भी सम्मिलित कर लिया गया है जिसमें वह मौर्य साम्राज्य के अधीन अवंति में राज्यपाल के पद पर था। सामान्यतया उसका शासनकाल ई.पू. 185 से ई.पू. 149 तक माना जा सकता है।
पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी
पुराणों के अनुसार शुंग वंश के कुल दस शासक या राजा हुए। इन राजाओं ने कुल मिलाकर 112 वर्ष तक राज्य किया। पुष्यमित्र की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अग्निमित्र शुंग वंश का शासक हुआ। इसके शासनकाल की किसी महत्त्वपूर्ण घटना का ज्ञान नहीं है। इसके आठ वर्ष के शासन के उपरांत सुज्येष्ठ अथवा वसुज्येष्ठ राजा हुआ। शुंग वंश का चौथा शासक वसुमित्र था जिसने यवनों को सिंधु नदी के तट पर हराकर यज्ञ का घोड़ा छुड़वाया था। संभवतः शासक होने पर वसुमित्र विलासी हो गया। हर्षचरित से ज्ञात होता है कि नृत्य का आनंद लेते समय मूजदेव अथवा मित्रदेव नामक व्यक्ति ने उसकी हत्या कर दी। पुराणों के अनुसार उसने 10 वर्ष तक राज्य किया।
वसुमित्र के पश्चात् जो शुंग शासक हुए, उसमें कौत्सीपुत्र भागभद्र, भद्रघोष, भागवत और देवभूति के नाम उल्लेखनीय हैं। इस वंश का नवाँ शासक भागवत अथवा भागभद्र था। इसके शासनकाल के 14वें वर्ष में तक्षशिला के यवन शासक एंटियालकीड्स का राजदूत हेलियोडोरस उसके दरबार में विदिशा आया था। उसने भागवत धर्म को स्वीकार कर विदिशा (बेसनगर) में गरुड़-ध्वज की स्थापना कर विष्णु की पूजा की थी। इस ध्वज पर दंभ (आत्म-निग्रह), त्याग और अप्रमाद तीन शब्द अंकित हैं।
पुराणों से ज्ञात होता है कि शुंग वंश का अंतिम शासक देवभूति अत्यधिक दुर्व्यसनी था, जिसके कारण वह जनता में बहुत अलोकप्रिय हो गया था। उसने 10 वर्ष तक शासन किया। उसके अमात्य वासुदेव कण्व ने उसकी हत्या कर शुंग वंश का अंतकर कण्व वंश की स्थापना की।
शुंग शासन का महत्त्व
शुंग शासकों के काल में धर्म, साहित्य एवं कला में अभूतपूर्व उन्नति हुई। हेमचंद्र्र रायचौधरी का मानना है कि संपूर्ण भारतीय इतिहास में, विशेषरूप से मध्य भारत के इतिहास में पुष्यमित्रवंशीय राजाओं का विशेष महत्त्व है। इनके शासनकाल में यूनानी आक्रमणकारियों को गहरा आघात पहुँचा और मध्यदेश के लिए निरंतर संकटकालीन स्थिति उत्पन्न करने वाले आक्रमण रुक गये। सीमावर्ती यूनानी राजाओं ने अपनी नीति में परिवर्तन किया और वे सेल्यूकसकालीन नीति का अनुसरण करने लगे। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस काल में साहित्य, कला और धर्म के क्षेत्रों में गुप्तकालीन स्वर्णयुग जैसे पुनरुत्थान की लहर-सी आ गई थी, किंतु अधिकांश इतिहासकार इस अतिरंजित वर्णन को जातीय पूर्वाग्रह मानते हैं।
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