शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध (War of Succession Among Shah Jahan's sons)

शाहजहाँ के पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध (War of Succession Among Shah Jahan’s sons)

शाहजहाँ के मुमताज महल से उत्पन्न चौदह संतानों में चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ जीवित थीं। उसकी सबसे बड़ी पुत्री जहाँआरा थी। दाराशिकोह शाहजहाँ का सबसे बड़ा पुत्र था, जो उसके पास ही रहता था। शाहशुजा शाहजहाँ का दूसरा पुत्र था, जो बंगाल में था। रोशनआरा सम्राट शाहजहाँ की दूसरी पुत्री थी। औरंगजेब शाहजहाँ का तीसरा पुत्र था, जो दक्षिण का शासन-कार्य देखता था। मुरादबख्श शाहजहाँ का सबसे छोटा पुत्र था, जो गुजरात का शासन देखता था। शाहजहाँ की तीसरी पुत्री गौहरआरा थी, जो मुमताज की चौदहवीं संतान थी। शाहजहाँ की बीमारी के समय दाराशिकोह की आयु तैंतालीस वर्ष, शाहशुजा की इक्तालीस, औरंगजेब की उन्तालिस और मुरादबख्श की तैंतीस वर्ष थी।

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दाराशिकोह

दाराशिकोह का जन्म 1615 ई. को हुआ था। वह इलाहाबाद, पंजाब तथा मुल्तान जैसे समृद्ध प्रदेशों का सूबेदार था और अधिकतर शाहजहाँ के पास राजधानी में ही रहता था। शाहजहाँ दाराशिकोह पर विश्वास करता था और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। उसे चालीस हजार का मनसब और ‘शाहबुलंद-इकबाल’ की उपाधि प्राप्त थी।

दाराशिकोह में विद्यानुराग और धार्मिक उदारता के गुण विद्यमान थे। अपने उदार स्वभाव तथा पंडितोचित प्रवृत्ति के कारण वह सभी दर्शनों के सार का संग्रह करना चाहता था। उसने वेदांत, तालमुद एवं बाईबिल के सिद्धांतों तथा सूफी लेखकों की रचनाओं का अध्ययन किया था।

दाराशिकोह ने ब्राह्मण पंडितों की मदद से अथर्ववेद एवं उपनिषदों का फारसी में अनुवाद करवाया। वह ‘सुलह-ए-कुल’ की नीति का समर्थक था। दाराशिकोह का लक्ष्य था- सभी धर्मों के बीच सामंजस्य का आधार खोजना, जिसके कारण उसके कट्टर सहधर्मी उसके विरुद्ध हो गये।

परंतु दाराशिकोह पांखडी नहीं था और उसने कभी इस्लाम के सारभूत सिद्धांतों का परित्याग नहीं किया। उसने केवल सूफियों की, जो इस्लाम-धर्मावलंबियों की एक स्वीकृत विचारधारा थी, सर्वदर्शन सार संग्रहकारी प्रवृत्ति दिखाई। कुल मिलाकर ‘उसमें कुछ हुमायूँ के और कुछ अकबर के गुण विद्यामान थे।’

शाहशुजा

शाहजहाँ का दूसरा पुत्र शाहशुजा था, जिसका जन्म 1616 ई. में हुआ था। शुजा बुद्धिमान और महत्त्वाकांक्षी होने के साथ-साथ वीर, साहसी और कुशल प्रशासक भी था। वह बंगाल का सूबेदार था, किंतु निरंतर काम-केलि में रत रहने के कारण दुर्बल, आलसी और असावधान था। इतना ही नहीं, बंगाल की संघातक जलवायु के कारण उसका स्वास्थ्य भी बिगड़ गया था और 41 वर्ष की उम्र में ही उसमें बुढ़ापे के चिन्ह दिखने लगे थे। फ्रांसीसी यात्री बर्नियर ने शुजा के चरित्र की समीक्षा करते हुये लिखा है कि, ‘शुजा के चरित्र के अनेक पहलू दारा के चरित्र के समान थे, किंतु वह उससे अधिक बुद्धिमान, दृढ़-संकल्प तथा आचार-व्यवहार में श्रेष्ठतर था। कुचक्र रचने में वह बड़ा ही निपुण था और अमीरों को धन के बल से अपनी ओर कर लेना अच्छी तरह से जानता था। किंतु वह काम-वासना का दास था। यदि एक बार वह कामिनियों से घिर गया, तो उसकी सारी बुद्धिमानी खो जाती थी और वह नृत्य-संगीत में दिन-रात एक कर देता था।’ इस प्रकार प्रतिभा, साहस और योग्यता के होते हुए भी वह अपने भाइयों के विरुद्ध उत्तराधिकार के युद्ध के लिए अयोग्य था।

औरंगजेब

शाहजहाँ का तीसरा पुत्र औरंगजेब असाधारण उद्योग और गहन कूटनीतिक तथा सैनिक गुणों से संपन्न था। औरंगजेब का जन्म 1618 ई. में दोहद में हुआ था। वह दक्षिण का सूबेदार था और अपने अन्य भाइयों से बिल्कुल भिन्न मिट्टी का बना था। उसका जीवन सोलह वर्ष की अवस्था से आपत्तियों एवं कठिनाइयों में व्यतीत हुआ था। उसमें अडिग साहस, दृढ़-संकल्प और उच्चकोटि की कार्यक्षमता थी। बल्ख, कंधार, मुलतान, गुजरात, सिंध तथा दक्षिण, जहाँ कहीं भी उसे भेजा गया, उसने अपनी अद्भुत प्रतिभा एवं योग्यता का परिचय दिया। ‘वह रणक्षेत्र में जितना वीर था, उतना ही शांतिमय, शासन-संचालन में निपुण और क्रियाशील भी था।’ यद्यपि लोग उससे स्नेह करने की अपेक्षा भय अधिक खाते थे, किंतु उसे मनुष्य की अच्छी परख थी और वह जानता था कि किससे, कब, कहाँ और किस प्रकार काम लेना चाहिए। धूर्त एवं बुद्धिमान औरंगजेब की बराबरी में दाराशिकोह तुच्छ था। शाहशुजा और मुरादबख्श भी औरंगजेब के सेनापतित्व एवं चतुराई के समक्ष कुछ नहीं थे। इस प्रकार औरंगजेब में शासन करने की असंदिग्ध रूप में योग्यता थी और एक उत्साही सुन्नी मुसलमान के रूप में उसे कट्टर सुन्नियों का समर्थन प्राप्त था।

मुरादबख्श

शाहजहाँ का सबसे छोटा और चौथा पुत्र मुरादबख्श कट्टर सुन्नी मुसलमान था, जिसका जन्म 1624 ई. को हुआ था। बादशाह ने उसे मालवा तथा गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया था, किंतु पियक्कड़ होने के कारण उसके चरित्र में विरोधी गुणों का मिश्रण था। वह साहसी और वीर तो था, किंतु सुखमय और विलासी जीवन का अनुरागी होने के कारण उसमें नेतृत्व के आवश्यक गुणों का विकास नहीं हो सका था। उसमें न सावधानी थी और न कार्य-कुशलता। वह एक ऐसा युवक था जिसमें सिंहासन प्राप्त करने की आकांक्षा तो थी, किंतु उसकी पूर्ति के लिए योजनाएँ बनाने और उन्हें कार्यान्वित करने की उसमें योग्यता नहीं थी। उसमें कूटनीतिज्ञता का सर्वथा अभाव था, जिससे वह औरंगजेब के झांसे में आ गया। कुछ इतिहासकारों ने उसे मुगल परिवार की ‘काली भेड़’ की संज्ञा दी है।

शाहजहाँ की बीमारी

6 सितंबर, 1657 ई. को शाहजहाँ अपनी नई राजधानी शाहजहाँबाद (पुरानी दिल्ली) में गंभीर रूप से बीमार पड़ गया और अफवाह फैल गई की शाहजहाँ का निधन हो गया। चारों भाइयों में केवल दाराशिकोह ही बादशाह के पास था, इसलिए शाहजहाँ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र दारा को साम्राज्य का भार सौंप दिया। उसने पदाधिकारियों को आदेश दिया कि वे शासक के समान उसका आदर करें और उसकी आज्ञा का पालन करें। दारा ने अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए शाहजहाँ से औरंगजेब और मुराद के नाम अनेक फरमान जारी करवाये। दाराशिकोह के तीनों अनुपस्थित भाइयों को संदेह हुआ कि उनका पिता वास्तव में मर चुका है और दाराशिकोह ने गद्दी पर अधिकार करने के लिए समाचार को दबा दिया है।

दारा ने बादशाह को बताया कि मुराद ने अनेक घृणित अपराध किये हैं और उसको उचित दंड मिलनी चाहिए। औरंगजेब के संबंध में उसने कहा कि गोलकुंडा से प्राप्त संपत्ति को रख लिया गया है और बीजापुर अभियान के लिए उसे जो सेना दी गई थी, उसके दुरुपयोग की संभावना है। इसके लिए यह आवश्यक है कि उस सेना को वापस बुला लिया जाये। दारा के आग्रह पर शाहजहाँ ने इस आशय के फरमान जारी कर दिये। किंतु मुगल शहजादों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। मीरजुमला, महाबत खाँ तथा अन्य शाही पदाधिकारियों को दरबार लौटने का आदेश दिये गये। दारा के कहने पर बादशाह ने उसके समर्थकों की पदोन्नति की और उन्हें उच्च पद प्रदान किये। इस प्रकार दारा अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाने लगा। यही नहीं, दारा को बिहार की सूबेदारी दी गई और इस बीच यह अफवाह फैली कि मुराद से मालवा तथा औरंगजेब से बरार छीन लिया जायेगा। ऐसी परिस्थिति में उत्तराधिकार का युद्ध अनिवार्य हो गया क्योंकि प्रत्येक शाहजादा सिंहासन के लिए लालायित था। यद्यपि नवंबर, 1657 ई. के मध्य तक बादशाह के स्वास्थ्य में सुधार हो चुका था और वह आगरे आ गया था, किंतु बंगाल एवं दक्षिण में बादशाह की मृत्यु की झूठी अफवाहें और दारा की तैयारियों के कारण अराजकता एवं अनिश्चितता का वातावरण उत्पन्न हो गया।

उत्तराधिकार-युद्ध के कारण

शाहजहाँ के जीवित रहते ही उसके चारों पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के लिए संघर्ष छिड़ गया। किंतु बादशाह के जीवित रहते उत्तराधिकार के लिए लड़ा गया यह युद्ध मुगलकाल का पहला उदाहरण था। उत्तराधिकार-युद्ध में भाग लेनेवाले सभी शहजादे एक ही माँ मुमताज की संतान थे। शाहजहाँ के पुत्रों के बीच होनेवाले इस उत्तराधिकार-युद्ध के लिए अनेक कारण उत्तरदायी थे-

उत्तराधिकार के निश्चित नियम का अभाव

दिल्ली के सुल्तानों की तरह मुगलों में भी उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था और तलवार के बल पर शासन प्राप्त किया जा सकता था। बादशाह की मृत्यु होने पर उत्तराधिकार के लिए युद्ध होना एक परंपरा बन गई थी। इसलिए शाहजहाँ के पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के लिए युद्ध होना कोई नई बात नहीं थी।

शाहजहाँ के पुत्रों की महत्त्वाकांक्षा

शाहजहाँ के सभी पुत्र अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी थे और राजसिंहासन को प्राप्त करने के लिए उत्सुक थे। उसके पुत्रों में वीरता और संसाधन की कमी नहीं थी क्योंकि वे किसी न किसी क्षेत्र के शासक के रूप में कार्य कर रहे थे। इतना ही नहीं, शाहजहाँ के सभी पुत्रों के पास अपनी-अपनी सेनाएँ भी थीं और वे किसी भी स्थिति में अपने को कमतर नहीं मानते थे।

चारित्रिक भिन्नता और परस्पर द्वेष

शाहजहाँ के चारों पुत्र भिन्न-भिन्न स्वभाव के थे। चारित्रिक भिन्नता के कारण शाहजहाँ के पुत्रों में परस्पर द्वेष और ईर्ष्या की भावना थी। शाहजहाँ अपने बड़े पुत्र दाराशिकोह को अधिक प्रेम करता था, जिससे कारण उसके भाई उससे और भी ईर्ष्या करते थे। जब शाहजहाँ ने दाराशिकोह को साम्राज्य का प्रभार सौंपा, तो अन्य भाइयों का विश्वास और भी पक्का हो गया कि शाहजहाँ दाराशिकोह को ही सम्राट बनाना चाहता है।

शाहजहाँ द्वारा दाराशिकोह की नियुक्ति

शाहजहाँ दाराशिकोह को बहुत प्यार करता था। अपने बीमार होने पर शाहजहाँ ने दाराशिकोह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के लिए अपने विश्वसनीय अमीरों के समक्ष प्रस्ताव रखा। उसने दारा की मनसबदारी 40,000 से बढ़ाकर 60,000 कर दी और यह घोषणा की कि दाराशिकोह को सम्राट का सम्मान दिया जाए। स्वाभाविक था कि इस एकतरफा और पक्षपातपूर्ण निर्णय के विरूद्ध अन्य पुत्रों में प्रतिक्रिया होती।

दारा का संदिग्ध आचरण और प्रभार

दाराशिकोह शाहजहाँ के प्रेम और रोशनआरा के समर्थन के कारण मनमानी करने लगा था। जब शाहजहाँ बीमार पड़ा तो दाराशिकोह ने किसी को भी शाहजहाँ से मिलने पर रोक लगा दी और बंगाल, गुजरात तथा दक्षिण में बीजापुर जाने के सारे मार्ग बंद कर दिये ताकि शाहजहाँ की बीमारी की सूचना अन्य भाइयों को न मिल सके। दाराशिकोह के इस संदिग्ध व्यवहार के कारण उसके भाइयों में संदेह पैदा हुआ और वे उत्तराधिकार के यद्ध में कूद पड़े।

आंतरिक षड्यंत्र और गुटबंदी

शाहजहाँ की तीनों पुत्रियाँ जहाँआरा, रोशनआरा तथा गौहरआरा बहुत चालाक और षड्यंत्र रचने में माहिर थीं। जहाँआरा दाराशिकोह का पक्ष लेती थी और उसको मुगल सम्राट बनाना चाहती थी, जबकि रोशनआरा औरंगजेब का समर्थन करती थी। गौहरआरा मुरादबख्श को पादशाह के रूप में देखना चाहती थी। मुगल दरबार के अमीरों और सरदारों ने भी अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए संघर्ष की स्थिति पैदा की। कट्टर सुन्नी मुसलमान एक ओर औरंगजेब को भड़काते थे, तो उदारवादी लोग दाराशिकोह का समर्थन करते थे। शिया मुसलमान शाहशुजा को बादशाह के रूप में देखना चाहते थे। इस प्रकार मुगल दरबार षड्यंत्रों का अड्डा बन गया था और उत्तराधिकार का युद्ध अनिवार्य हो गया था।

उत्तराधिकार-युद्ध की घटनाएँ

शाहजहाँ की बीमारी और दाराशिकोह के उत्तराधिकारी होने की सूचना मिलने पर मुराद ने सबसे पहले अपने दीवान अलीनकी की हत्या कर दी और 5 सिंतंबर 1657 ई. को अहमदाबाद में अपने को बादशाह घोषित कर दिया। इसी प्रकार शाहशुजा ने भी बंगाल की तत्कालीन राजधानी राजमहल में अपने को बादशाह घोषित किया और सेना लेकर आगरे की ओर प्रस्थान किया। किंतु इस समय औरंगजेब ने बड़ी सतर्कता और कूटनीतिक तरीके से मुराद और शाहशुजा को अपनी ओर मिलाने की चेष्टा की। औरंगजेब ने दोनों भाइयों- मुरादबख्श और शाहशुजा को पत्र लिखा कि दारा को पराजित करने के बाद राज्य को आपस में बाँट लिया जायेगा।

बहादुरपुर का युद्ध (24 फरवरी 1658 ई.)

जनवरी 1658 ई. में सर्वप्रथम शाहशुजा अपनी सेना को लेकर राजधानी आगरा की ओर बढ़ा और बनारस तक आ गया। शाहशुजा की गतिविधियों पर नियंत्रण लगाने के लिए शाहजहाँ ने दाराशिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह, मिर्जा राजा जयसिंह एवं दिलेर खाँ को नियुक्त किया। बनारस के निकट बहादुरपुर में 24 फरवरी 1658 ई. को शाहशुजा और शाही सेना के बीच उत्तराधिकार का पहला युद्ध हुआ, जिसमें शाहशुजा पराजित हुआ और उसको बंगाल लौटने पर विवश होना पड़ा।

मुरादबख्श ने मालवा में औरंगजेब से एक समझौता किया और विजय के बाद साम्राज्य को बाँटने का निर्णय किया। औरंगजेब और मुरादबख्श के बीच जो ‘अहदनामा (समझौता) हुआ था, उसमें दारा को ‘रईस-एल-मुलाहिदा’ (अपधर्मी शहजादा) कहा गया था। औरंगजेब और मुरादबख्श का ‘अहदनामा’ (समझौता) अल्लाह एवं पैगंबर के नाम पर स्वीकृत किया गया था, जिसके अनुसार लूट के माल का एक तिहाई भाग मुरादबख्श को तथा दो तिहाई भाग औरंगजेब को मिलेगा। यह भी तय हुआ कि विजय के बाद पंजाब, अफगानिस्तान, कश्मीर और सिंध मुरादबख्श को मिलेंगे, जहाँ वह अपने सिक्के चलायेगा और बादशाह के रूप में अपना नाम घोषित करेगा। इस प्रकार मुरादबख्श और औरंगजेब ने शाही सेना का सामना करने के लिए संयुक्त योजना बनाई।

निश्चित योजना के अनुसार औरंगजेब और मुराद ने दारा के विरूद्ध आगरा की ओर प्रस्थान किया। अप्रैल 1658 ई. में औरंगजेब और मुराद की सेनाएँ दीपालपुर में आकर मिल गईं। इसी समय मीरजुमला, जिसके पास शक्तिशाली तोपखाना तथा फ्रांसीसी और अंग्रेज तोपची थे, औरंगजेब से आकर मिल गया। वास्तव में, मीरजुमला को अपनी सेना के साथ शाही दरबार में बुलाया गया था, किंतु औरंगजेब ने बड़ी चालाकी से उसे अपनी ओर मिला लिया था। दाराशिकोह ने अपने भाइयों की विरोधी गतिविधियों की सूचना मिलने पर जोधपुर के राजा जसवंतसिंह और कासिम खाँ को उनके दमन के लिए नियुक्त किया।

धरमत का युद्ध (15 अप्रैल 1658 ई.)

उत्तराधिकार का दूसरा युद्ध शाही सेना और औरंगजेब तथा मुराद की संयुक्त सेना के बीच 15 अप्रैल 1658 ई.को उज्जैन के निकट धरमत नामक स्थान पर हुआ। इस युद्ध में औरंगजेब और मुरादबख्श की संयुक्त सेनाओं ने जोधपुर के राजा जसवंतसिंह और कासिम खाँ की शाही सेना को हरा दिया। घायल जसवंतसिंह जोधपुर भाग आया, जहाँ उसकी पत्नी ने रणक्षेत्र से भागने के कारण उसके लिए दुर्ग के द्वार बंद करवा दिये थे। घरमत की विजय से औरंगजेब की स्थिति काफी सुदृढ़ हो गई। उसने इस विजय की स्मृति में ‘फ़तेहाबाद नामक नगर की स्थापना की।

सामूगढ़ का युद्ध (29 मई 1658 ई.)

धरमत में सफलता प्राप्त करने के बाद औरंगज़ेब और मुराद की सेनाएँ ग्वालियर होते हुए आगरा की ओर बढ़ीं। यद्यपि दारा को धरमत के युद्ध का परिणाम दस दिन बाद ज्ञात हुआ, फिर भी, शाही सेना की पराजय की सूचना मिलते ही वह एक विशाल सेना लेकर आगरे के दुर्ग से आठ मील पूरब सामूगढ़ पहुँच गया। यद्यपि दारा की सेना में छह हजार योद्धा थे और उसकी सेना भी देखने में विशाल थी, किंतु सामरिक दृष्टि से इसका कुछ महत्त्व नहीं था। 28 मई 1658 ई. को औरंगजेब भी सामूगढ़ पहुँच गया।

29 मई 1658 ई. को सामूगढ़ के मैदान में औरंगजेब और मुराद की संयुक्त सेनाओं ने दाराशिकोह की शाही सेना का सामना किया। यद्यपि राजपूतों ने वीरतापूर्वक घमासान युद्ध किया, किंतु इस युद्ध में भी दाराशिकोह की पराजय हुई और वह शाहजहाँ से बिना मिले आगरा में एक दिन रुककर दिल्ली चला गया। इस प्रकार सामूगढ़ के युद्ध और दारा की पराजय ने शाहजहाँ के पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के युद्ध का व्यावहारिक रूप से निर्णय कर दिया। दूसरे शब्दों में, हिंदुस्तान के राजसिंहासन पर औरंगजेब का अधिकार सामूगढ़ में प्राप्त उसकी विजय का तर्कसंगत परिणाम था।

औरंगजेब का आगरे पर अधिकार (4 दिसंबर 1661 ई.)

सामूगढ़ की विजय के बाद औरंगजेब और मुराद सेना लेकर आगरा पहुँचे। शाहजहाँ बातचीत द्वारा समस्या सुलझाना चाहता था। उसने औरंगजेब को मिलने के लिए बुलाया, किंतु उसने मिलने से इनकार कर दिया। औरंगजेब ने आगरा दुर्ग पर अधिकार करने के लिए दुर्ग का घेरा डाल दिया। आरंभ में शाहजहाँ दुर्ग के समर्पण के लिए तैयार नहीं था, किंतु जब दुर्ग में जल और रसद की आपूर्ति बंद हो गई, तो उसने विवश होकर दुर्ग का द्वार खोल दिया और आत्मसमर्पण कर दिया। शाहजहाँ ने 4 दिसंबर 1661 ई.को आगरा के दुर्ग पर अधिकार कर लिया और शाहजहाँ को दुर्ग में ही नजरबंद कर दिया। आगरे पर अधिकार कर लेने के बाद 13 जून 1658 ई. को औरंगजेब ने दारा का पीछा करने के लिए दिल्ली की ओर प्रस्थान किया।

मुराद का अंत ( 4 दिसंबर 1661 ई.)

मथुरा पहुँचने पर औरंगजेब को ज्ञात हुआ कि मुराद अपने समर्थकों के बहकावे में आकर औरंगजेब का विरोध करने लगा है। फलतः औरंगजेब ने मुरादबख्श से भी छुटकारा पाने का उपाय किया। उसने चालाकी से मुराद को कुछ घोड़े तथा चिकित्सा के लिए 20 लाख रुपया भेजकर भोजन के लिए आमंत्रित किया। यद्यपि मुराद हिचकिचा रहा था, किंतु अपने विश्वासपात्रों के कहने पर वह 25 जून 1658 ई. को रूपनगर में औरंगजेब के शिविर में पहुँच गया, जहाँ उसे अत्यधिक मद्यपान कराकर भोजन करते समय बंदी बना लिया गया और जनवरी, 1659 ई. में ग्वालियर के किले में भेज दिया गया। मुराद के बंदी बनते ही उसकी सेना ने औरंगजेब की सेवा स्वीकार कर ली। तीन वर्ष बाद 4 दिसंबर 1661 ई. को दीवान अलीनकी की हत्या के आरोप में शहजादे मुराद को फाँसी पर लटका दिया गया।

औरंगजेब ने मथुरा में मुराद को कैद करने के बाद दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। दाराशिकोह दिल्ली छोड़कर लाहौर भाग गया, जिसके कारण औरंगजेब ने 21 जुलाई 1658 ई. को बिना किसी संघर्ष के दिल्ली के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया।

औरंगजेब ने दारा का पीछा करने के लिए बहादुर खाँ को एक सेना के साथ लाहौर भेजा और स्वयं उसकी सहायता के लिए अगस्त 1658 ई. में सतलज तक पहुँच गया। दाराशिकोह लाहौर से मुल्तान और मुल्तान से सिंध भाग गया। इसके बाद दिलेर खाँ को दारा का पीछा करने के लिए छोड़कर औरंगजेब इलाहाबाद की ओर चला, क्योंकि फतेहपुर जिले के खजवा नामक स्थान पर शाहशुजा ने अपना सैनिक शिविर स्थापित कर लिया था।

खजवा का युद्ध  (6 जनवरी 1659 ई.)

उत्तराधिकार का अगला युद्ध 5 जनवरी 1659 को खजवा में औरंगजेब और शाहशुजा के बीच लड़ा गया, जिसमें शाहशुजा पराजित होकर बंगाल की ओर भाग गया। औरंगजेब ने शाहशुजा का पीछा करने के लिए अपने पुत्र मुहम्मद और मीरजुमला को लगाया, जिन्होंने बंगाल तक उसका पीछा किया। निराश शाहशुजा अराकान की ओर भाग गया, जहाँ मेघ जाति के लोगों ने शाहशुजा की परिवार सहित हत्या कर दी। इसी समय औरंगजेब का ज्येष्ठ पुत्र शाहजादा मुहम्मद, मीरजुमला से लड़कर कुछ समय के लिए शाहशुजा से मिल गया था, किंतु इसका दंड उसे आजन्म (1676 ई. में मृत्यु) कारावास के रूप में भोगना पड़ा।

इस समय जयसिंह और जसवंतसिंह जैसे राजपूत अमीर औरंगजेब के समर्थक हो गये थे। वास्तव में औरंगजेब ने बड़ी चतुराई से राजपूत राजाओं को अपने पक्ष में कर लिया था और राजा जसवंतसिंह को मारवाड़ का शासक स्वीकार करने के साथ ही उसे गुजरात का सूबेदार भी नियुक्त कर दिया था। इस प्रकार दारा को राजस्थान से कोई सहयोग मिलने की आशा नहीं थी।

देवराई की घाटी का युद्ध (12-14 मार्च 1659 ई.)

औरंगजेब के सेनापति निरंतर दारा का पीछा कर रहे थे। शरण की तलाश में दारा सिंध से गुजरात गया और वहाँ के सूबेदार ने उसका स्वागत किया। जसवंतसिंह की सहायता का आश्वासन पाकर दारा अजमेर गया, किंतु राजपूत नायक अपने वादों से मुकर गया क्योंकि उसे पहले ही औरंगजेब ने अपने पक्ष में कर लिया था। फलतः दारा ने अजमेर के निकट देवराई की घाटी में पुनः अपने भाग्य का परीक्षण करने का निर्णय किया। तीन दिनों तक (12-14 मार्च 1659 ई.) औरंगजेब और दारा के बीच देवराई की घाटी का युद्ध हुआ, जिसमें दारा को पराजित होकर भागना पड़ा।

देवराई के युद्ध में पराजित होकर दारा ने अफगानिस्तान जाने के उद्देश्य से सिंध की ओर प्रस्थान किया। इसी समय उसकी पत्नी नादिरा बेगम बीमार हो गई, जिसके कारण उसने जून 1659 ई. में दादर के एक बलूची सरदार जीवन खाँ से शरण माँगी। वहीं पर नादिरा बेगम की मृत्यु हो गई और उसकी इच्छा के अनुसार दारा ने अपने कुछ सैनिकों के साथ उसके पार्थिव शरीर को दफनाने के लिए आगरा भेज दिया। बलूची सरदार अविश्वासी और विश्वासघाती निकला। उसने दाराशिकोह, उसकी दो पुत्रियों और दूसरे पुत्र सिपिह शिकोह को औरंगजेब के सरदार बहादुर खाँ को सौंप दिया, जिसे औरंगजेब ने दारा का पीछा करने के लिए नियुक्त किया था।

दाराशिकोह अंत

बहादुर खाँ दाराशिकोह और उसके परिवार को बंदी बनाकर 23 अगस्त, 1659 ई. को दिल्ली ले आया। औरंगजेब ने 29 अगस्त को दाराशिकोह को एक गंदे हाथी पर बिठाकर संपूर्ण नगर में घुमाया और अपमानित किया।

औरंगजेब ने दारा को दंडित देने के लिए न्यायाधीशों की एक ‘न्याय समिति’ बनाई, जिसने 30 अगस्त 1659 ई. को धर्म और शरियत का उल्लंघन करने के कारण दारा को ‘विधर्मी’ घोषित करते हुए प्राणदंड की सजा सुनाई। इस प्रकार 1659 ई. में दारा को अपमानित करके मार डाला गया, उसके सिर को काटकर उसके शव को दिल्ली की सड़कों पर घुमाया गया और अंत में उसे हुमायूँ के मकबरे में दफना दिया गया। दारा के साथ हुए इस अपमानजनक व्यवहार के चश्मदीद गवाह बर्नियर ने लिखा है कि, ‘विशाल भीड़ एकत्र थी, सर्वत्र मैंने लोगों को रोते-बिलखते तथा दारा के भाग्य पर शोक प्रकट करते हुए देखा।’

सुलेमान शिकोह का अंत (मई 1662 ई.)

दारा का पुत्र सुलेमान शिकोह एक स्थान से दूसरे स्थान को भागता फिर रहा था। अंत में, सुलेमान ने अपने परिवार और अनुगामियों के साथ गढ़वाल की पहाड़ियों में एक हिंदू राजा के यहाँ शरण ली। किंतु गढ़वाल के राजा ने औरंगजेब के दबाव में 27 दिसंबर 1660 ई. को सुलेमान को धोखे से शत्रुओं को सौंप दिया। अंत में मई 1662 ई. में सुलेमान शिकोह को भी परलोक भेज दिया गया। इस प्रकार औरंगजेब ने एक-एक करके अपने सभी विरोधियों को समाप्त कर दिया।

औरंगजेब ने दाराशिकोह के कनिष्ठ पुत्र सिपिह शिकोह और मुरादबख्श के पुत्र एजिद्बख्श को भयानक प्रतिद्वंद्वी नहीं माना और उन्हें जीवनदान दे दिया। बाद में सिपिह शिकोह और एजिद्बख्श का क्रमशः औरंगजेब की तीसरी और पाँचवीं पुत्रियों के साथ विवाह हो गया।

औरंगजेब का राज्याभिषेक

औरंगजेब का दो बार राज्याभिषेक किया गया- सामूगढ़ की विजय और आगरे पर अधिकार करने के बाद औरंगजेब ने 31 जुलाई 1658 ई. को दिल्ली में अपना पहला राज्याभिषेक कराया और ‘आलमगीर’ (दुनिया को जीतने वाला) की उपाधि ग्रहण की। किंतु खजवा और देवराई की निर्णयात्मक विजयों के बाद 15 जून 1559 ई. को उसने दिल्ली में अपना दुबारा राज्याभिषेक करवाया और इस अवसर पर उसने ‘गाजी’ उपाधि धारण की।

शाहजहाँ की मृत्यु (22 फरवरी 1666 ई.)

औरंगजेब के राज्यारोहण के बाद शाहजहाँ को 8 वर्ष आगरे के किले में कष्टप्रद बंदी-जीवन व्यतीत करना पड़ा। बंदी जीवन के दौरान शाहजहाँ की एकमात्र सहारा उसकी बेटी जहाँआरा थी। अंततः शाहजहाँ ने चौहत्तर वर्ष की आयु में 22 फरवरी 1666 ई. को अंतिम साँस ली। शाहजहाँ के मृत शरीर को ताजमहल में उसकी पत्नी मुमताज महल की कब्र (आगरा) के बगल में दफना दिया गया, जिसे उसने अपनी प्रिय पत्नी मुमताज महल की स्मृति में बनवाया था।।

उत्तराधिकार का युद्ध और धार्मिक मामले

शाहजहाँ के पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के युद्ध को मुगलों की धार्मिक नीति का एक निर्णायक मोड़ माना जाता है। इस संबंध में कई प्रकार की धारणाएँ हैं-

परस्पर-विरोधी नीतियों का युद्ध

इतिहासकारों का एक वर्ग इस उत्तराधिकार के युद्ध को दो परस्पर विरोधी नीतियों के बीच का युद्ध मानता है- धार्मिक सहिष्णुता और मुस्लिम धर्मांधता। लेनपूल के अनुसार ‘दारा लघु अकबर सिद्ध होता’ जबकि श्री राम शर्मा औरंगजेब को ‘मुस्लिम धर्मदर्शन की विजय’ घोषित करते हैं। किंतु यह मत अब अधिकांश इतिहासकारों को मान्य नहीं है।

दो समुदायों के बीच युद्ध

इतिहासकारों का एक दूसरा वर्ग इस उत्तराधिकार के युद्ध को मुख्य रूप से दो समुदायों के बीच का संघर्ष मानता है। मौलाना शिवली एम. फारूकी और आई.एच कुरैशी बताते हैं कि अकबर की सहिष्णुता की नीति से लाभ उठाकर हिंदू सुमदाय आपे से बाहर होने लगा और मुसलमानों पर अत्याचार तक करने लगा। यह वर्ग दाराशिकोह को इस्लामिक राजनीतिक समुदाय में ‘गद्दार’ की संज्ञा देता है और कहता है कि उसने तो हिंदुओं के लिए द्वार पूरी तरह खोल देना चाहा था। फलतः औररंगजेब ने मुसलमानों को एकजुट कर धर्म के लिए युद्ध किया, न कि राजगद्दी के लिए।

राजनीतिक आवश्यकता

इतिहासकारों का एक तीसरा वर्ग मानता है कि युद्ध में धर्म की भूमिका तो थी और औरंगजेब के सहयोगियों को एकत्रित करने में धर्म ने ‘युद्ध-घोष’ का काम किया। किंतु औरंगजेब ने केवल उत्तराधिकार युद्ध में सफलता पाने के लिए यह शोर मचाया कि पादशाह जिंदा हो या मर गया हो, दारा के अपधर्मी हरकतों से इस्लामी कानून को बचाना जरूरी है।  यदि पादशाह अभी तक जिंदा भी है तो वे उसे मूर्तिपूजकों के प्रशंसकों (दारा) की दासता और अत्याचारों से मुक्त करा देंगे।

एक पाकिस्तानी इतिहासकार इफ्तिखार खान घोरी ने एक कदम आगे बढ़ते हुए इस उत्तराधिकार युद्ध को न केवल हिंदुत्त्व और इस्लाम के बीच, वरन् शिया और सुन्नियों के बीच की लड़ाई भी बताया है। वास्तव में शहजादे औरंगजेब ने मेवाड़ के राणा राजसिंह को एक ‘निशान’ (शाहजादे का हुक्मनामा) भेजा था, जिससे पता चलता है कि औरंगजेब अपने पूर्वजों की धार्मिक नीति में परिवर्तन करने का इच्छुक नहीं था। औरंगजेब ने इस ‘निशान’ में लिखा था : ‘विभिन्न समुदायों और धर्मों के व्यक्तियों को शांति से और समृद्धि में जीवन-यापन करना चाहिए। किसी को एक दूसरे के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।’

यह सही है कि अपने छोटे भाई मुरादबख्श के साथ औरंगजेब ने जो ‘अहदनामा’ (समझौता) किया था, उसकी भूमिका में दाराशिकोह की भर्त्सना ‘रईस-अल-मुलाहिदा’ (अपधर्मी शहजादा) कहकर की गई थी और औरंगजेब ने उस अपधर्मी से निपटने के लिए बुरहानपुर के शेख अब्दुल लतीफ से आशीर्वाद माँगा था। किंतु ये औपचारिक घोषणाएँ मात्र थीं क्योंकि अपने आरोप-पत्र में औरंगजेब ने दारा को इस बात के लिए दोषी ठहराया था कि दारा की इच्छा औरंगजेब को निष्फल करने की या खत्म कर देने की थी। वास्तव में, शाहजहाँ के परामर्शदाताओं में से दाराशिकोह को हटाने के लिए उसे ‘अपधर्मी’ घोषित किया गया था। चूंकि अपधर्मी को कभी माफ नहीं किया जा सकता था, इसलिए ‘आलमगीरनामा’ का लेखक मुहम्मद काजिम बताता है कि दारा का यही अपराध उसकी हत्या के लिए पर्याप्त था। सच तो यह है कि मुगल गद्दी के दावेदारों में से किसी का व्यवहार और आचरण ऐसा नहीं था जिसके आधार पर कहा जा सके कि उत्तराधिकार का युद्ध वस्तुतः दो धार्मिक मतवादों के बीच का युद्ध था।

कुछ इतिहासकारों का कहना है कि सभी मुसलमान अधिकारियों ने बिना किसी भेदभाव के औरंगजेब की तरफदारी की और राजपूतों ने दाराशिकोह की। जबकि वास्तविकता यह है कि औरंगजेब को बड़ी संख्या में राजपूतों का सहयोग मिला था। यह कहना भी सही नहीं है कि उत्तराधिकार का युद्ध शिया और सुन्नियों का यद्ध था क्योंकि मीरजुमला और शाइस्ता खाँ औरंगजेब के पक्ष में थे और शाह नवाज खाँ सफवी दारा के पक्ष में था।

इसी प्रकार उमरा वर्ग में भी सभी धर्मों और प्रजातियों वाले वर्गों की वफादारी बँटी हुई थी।  23 हिंदू उमरा (11 राजपूत, 10 मराठे और 2 अन्य) औरंगजेब और मुराद के पक्ष में थे, तो 24 हिंदू उमरा (22 राजपूत और 2 मराठे) दाराशिकोह के पक्ष में थे। इससे ऐसा नहीं लगता कि उमरा वर्ग धार्मिक आधार पर बँटा हुआ था। इस प्रकार स्पष्ट है कि गद्दी प्राप्त करने के औरंगजेब के प्रयत्न हिंदुओं या राजपूतों के विरूद्ध नहीं थे। बाद के काल में भी यही नीति बनी रही क्योंकि जयसिंह और जसवंतसिंह क्रमशः दकन और गुजरात के सूबेदार के पद पर नियुक्त थे। इतना ही नहीं, राजा रघुनाथराव को साम्राज्य का दीवान नियुक्त किया गया था। इस प्रकार उत्तराधिकार के युद्ध का उद्देश्य जो भी रहा हो, उसका धार्मिक उद्देश्य कदापि नहीं था।

औरंगजेब ने भले ही दाराशिकोह के खिलाफ मुरादबख्श का समर्थन प्राप्त करने के लिए कट्टरवादी घृणा का भाव क्यों न प्रदर्शित किया हो, उसकी सर्वाेच्च महत्त्वाकांक्षा राजगद्दी को प्राप्त करना ही था। निःसंदेह व्यक्तित्व की कसौटी पर दाराशिकोह और औरंगजेब में स्पष्ट विरोध था। दाराशिकोह में अकबर की तरह बौद्धिक रूझान था, यह एक सर्वज्ञात तथ्य है, जबकि औरंगजेब में क्रमशः कट्टरपन बढ़ता गया।

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