सर जॉन शोर और लॉर्ड वेलेजली का शासन
सर जॉन शोर (1793-1798 ई.)
1793 ई. में लॉर्ड कॉर्नवालिस के इंग्लैंड लौटने के बाद सर जॉन शोर को भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। वह ईस्ट इंडिया कंपनी के एक वरिष्ठ अधिकारी और गवर्नर जनरल की परिषद के सदस्य रह चुके थे। उन्हें राजस्व और व्यापार के क्षेत्र में व्यापक अनुभव था और उन्होंने कॉर्नवालिस के स्थायी बंदोबस्त को लागू करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। हालांकि, कॉर्नवालिस से उनका एकमात्र मतभेद यह था कि वह स्थायी बंदोबस्त को लागू करने से पहले दस वर्षों तक इसका परीक्षण करना चाहते थे, ताकि इसकी प्रभावशीलता और दीर्घकालिक प्रभावों का आकलन किया जा सके।
जॉन शोर ने गैर-हस्तक्षेप की नीति अपनाई, जिसके तहत भारतीय शासकों को उनके प्रशासन को स्वतंत्र रूप से संचालित करने की अनुमति दी गई। उन्होंने 1795 ई. में मराठों के विरुद्ध हैदराबाद के निजाम की सहायता करने से इनकार कर दिया, क्योंकि वह क्षेत्रीय विवादों में अंग्रेजों की प्रत्यक्ष भागीदारी से बचना चाहते थे, यद्यपि अवध के मामले में उन्होंने हस्तक्षेप किया। 1797 ई. में अवध के नवाब आसफ-उद-दौला की मृत्यु के बाद शोर ने उनके पुत्र को उत्तराधिकारी स्वीकार किया। बाद में, जब यह स्पष्ट हुआ कि वह पुत्र निम्न जन्म का और प्रशासन के लिए अयोग्य है, शोर ने उसे नवाब के पद से हटाकर आसफ-उद-दौला के भाई सआदत अली को नवाब नियुक्त किया। इस निर्णय से अवध में अंग्रेजी प्रभाव को और मजबूती मिली, लेकिन यह स्थानीय शासकों के बीच विवाद का कारण भी बना।
लॉर्ड वेलेजली (1798-1805 ई.)
1798 ई. में, 37 वर्ष की आयु में लॉर्ड वेलेजली भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त हुआ। इससे पहले वह इंग्लैंड में कोष का लॉर्ड और बोर्ड ऑफ कंट्रोल का आयुक्त रह चुका था, जिससे उसे प्रशासनिक और सामरिक मामलों में गहन अनुभव प्राप्त था। वेलेजली का आगमन ऐसे समय में हुआ जब अंग्रेज विश्व स्तर पर फ्रांस के साथ तीव्र संघर्ष में उलझे थे और भारत में फ्रांसीसी प्रभाव को रोकना उनकी प्राथमिकता थी। उस समय तक अंग्रेजों की नीति अपने व्यापारिक लाभ और संसाधनों को सुदृढ़ करने तक सीमित थी और नए क्षेत्रों पर कब्जा तभी किया जाता था जब यह बड़े भारतीय शासकों को शत्रु बनाए बिना सुरक्षित रूप से संभव हो।

वेलेजली ने गैर-हस्तक्षेप की नीति को अप्रभावी माना, क्योंकि उनका विश्वास था कि यह अंग्रेजों के शत्रुओं, विशेष रूप से फ्रांसीसियों और स्थानीय शक्तियों जैसे मराठों और टीपू सुल्तान को मजबूत होने का अवसर दे रही थी। इसलिए उन्होंने सक्रिय हस्तक्षेप और साम्राज्यवादी विस्तार की नीति अपनाई, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए व्यापारिक और सामरिक दोनों दृष्टियों से लाभकारी थी। इस नीति का उद्देश्य भारत में फ्रांसीसी प्रभाव को समाप्त करना और अधिक से अधिक भारतीय राज्यों को ब्रिटिश नियंत्रण में लाना था। उनकी इस नीति को ब्रिटिश सरकार, कंपनी के निदेशकों और औद्योगिक क्रांति के दौर में कच्चे माल और बाजार की तलाश में लगे उद्योगपतियों का पूर्ण समर्थन प्राप्त था।
भारत की राजनीतिक स्थिति
लॉर्ड वेलेजली के शासनकाल (1798-1805 ई.) में ब्रिटिश शासन का दूसरा बड़ा विस्तार हुआ। उस समय भारत की राजनीतिक स्थिति उनके लिए अनुकूल थी, क्योंकि भारतीय राज्यों में आपसी वैमनस्य और असंगठन व्याप्त था, जिसके कारण वे अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने में असमर्थ थे। दिल्ली में मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय की सत्ता केवल प्रतीकात्मक थी, और वह मराठों के संरक्षण पर निर्भर था। हैदराबाद का निजाम अंग्रेजों से असंतुष्ट था, क्योंकि 1795 ई. में मराठों के आक्रमण के दौरान सर जॉन शोर ने उसकी सहायता नहीं की थी। निजाम ने फ्रांसीसी अधिकारियों की मदद से अपनी 14,000 सैनिकों की सेना का पुनर्गठन शुरू किया था, जो अंग्रेजों के लिए चिंता का विषय था।
मैसूर का शासक टीपू सुल्तान अंग्रेजों का प्रबल शत्रु था। तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-1792 ई.) के बाद उसकी शक्ति कमजोर हुई थी, लेकिन वह फ्रांसीसियों के समर्थन से अपनी सेना को पुनर्गठन कर रहा था और मॉरीशस, काबुल और अरब में अपने दूत भेजकर गठबंधन की संभावनाएँ तलाश रहा था। कर्नाटक का नवाब उमदत-उल-उमरा बाह्य रूप से अंग्रेजों का मित्र था, लेकिन गुप्त रूप से टीपू के साथ पत्र-व्यवहार कर अंग्रेजों के खिलाफ षड्यंत्र रच रहा था। अवध का नवाब सआदत अली अंग्रेजों की पूर्ण अधीनता में था, किंतु उनके निरंतर हस्तक्षेप और नवाब की प्रशासनिक अक्षमता के कारण अवध का शासन अस्त-व्यस्त हो गया था। मराठा संघ-राज्य, जो दिल्ली से मैसूर तक विस्तृत था, 1795 ई. के खर्दा युद्ध में निजाम को पराजित कर अपनी शक्ति प्रदर्शित कर चुका था। राजस्थान के राजपूत राजा मराठों को चौथ देने के लिए बाध्य थे। इस बीच पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह ने लाहौर पर कब्जा कर सिख राज्य की स्थापना कर ली थी और सिख मिसलों को संगठित कर रहे थे।
फ्रांस में नेपोलियन बोनापार्ट के उदय ने अंग्रेजों के लिए वैश्विक और भारतीय स्तर पर गंभीर चुनौतियाँ प्रस्तुत कीं। नेपोलियन मिस्र तक पहुँच चुका था और भारत पर आक्रमण की योजना बना रहा था। उसने टीपू सुल्तान को सहायता का आश्वासन दिया था। पूना, हैदराबाद और मैसूर के दरबारों में कई फ्रांसीसी अधिकारी तैनात थे, जो भारतीय सेनाओं को प्रशिक्षित कर रहे थे और अंग्रेजों के खिलाफ गुप्त योजनाएँ बना रहे थे। इस स्थिति ने वेलेजली को अपनी साम्राज्यवादी नीति को और अधिक आक्रामक रूप से लागू करने के लिए प्रेरित किया।
वेलेजली के उद्देश्य और नीति
लॉर्ड वेलेजली युद्धनीति और साम्राज्यवादी दृष्टिकोण में दृढ़ विश्वास रखता था। उसका प्राथमिक उद्देश्य ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत की सर्वोच्च शक्ति बनाना और सभी भारतीय राज्यों को कंपनी की अधीनता में लाना था। इसके लिए उसने गैर-हस्तक्षेप की नीति को पूर्णतः त्याग दिया और सक्रिय हस्तक्षेप, युद्ध और कूटनीति पर आधारित नीति अपनाई। उसने तीन प्रमुख रणनीतियों का सहारा लिया- सहायक संधि प्रणाली का विस्तार, खुले युद्ध के माध्यम से क्षेत्रीय नियंत्रण और पहले से अधीन राज्यों के क्षेत्रों का अधिग्रहण।
वेलेजली का मानना था कि सहायक संधि प्रणाली भारतीय राज्यों को नियंत्रित करने का सबसे प्रभावी साधन है। वह मराठा प्रदेशों को जीतने को भारतीय जनता के लिए लाभकारी मानता था और अपनी नीति को तर्कसंगत, न्यायसंगत और शांतिपूर्ण बताता था, जबकि मराठा शासकों की राजनीति को अव्यवस्थित और अस्थिर करार देता था। उसके शासनकाल में चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई.) हुआ, जिसमें टीपू सुल्तान को पराजित कर उसकी मृत्यु हुई, जिससे मैसूर पर अंग्रेजी प्रभुत्व स्थापित हुआ। वेलेजली की नीतियों ने न केवल फ्रांसीसी प्रभाव को समाप्त किया, बल्कि कंपनी को भारत में एक अपराजेय शक्ति के रूप में स्थापित किया।
सहायक संधि प्रणाली
लॉर्ड वेलेजली ने सहायक संधि प्रणाली को एक व्यवस्थित और शक्तिशाली साम्राज्यवादी उपकरण के रूप में विकसित किया। यद्यपि यह प्रणाली पहले से विद्यमान थी, वेलेजली ने इसे और अधिक प्रभावी बनाया। इस प्रणाली के अंतर्गत भारतीय शासकों को अपने राज्य में ब्रिटिश सेना तैनात करनी पड़ती थी और इसके रखरखाव और सार्वजनिक शांति के नाम पर वित्तीय या भौगोलिक अनुदान देना पड़ता था। छोटे राज्यों से नकद भुगतान की माँग की जाती थी, जबकि बड़े राज्यों से वार्षिक अनुदान ने लेकर भूमि लिया था। संधि स्वीकार करने वाले शासकों के विदेशी संबंध कंपनी के नियंत्रण में आ जाते थे और उन्हें बिना कंपनी की अनुमति के किसी अन्य यूरोपीय शक्ति के साथ संबंध स्थापित करने या अन्य भारतीय शासकों से बातचीत करने की अनुमति नहीं थी। कंपनी ने उनके शत्रुओं से रक्षा का वचन दिया, लेकिन आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वादा शायद ही कभी पूरा किया गया हो।
इस प्रणाली ने अंग्रेजी सत्ता की सर्वोच्चता स्थापित की और फ्रांसीसी प्रभाव को पूर्णतः समाप्त कर दिया। वेलेजली के शासनकाल के अंत तक कंपनी का क्षेत्रीय विस्तार तिगुना हो गया था और वह भारत की सबसे प्रभावशाली शक्ति बन चुकी थी। सहायक संधि ने कंपनी को बिना बड़े युद्धों के भारतीय राज्यों पर नियंत्रण स्थापित करने का अवसर प्रदान किया, जिससे उसकी सामरिक और आर्थिक स्थिति अभूतपूर्व रूप से मजबूत हुई।
सहायक संधि का विकास
सहायक संधि प्रणाली का विकास एक क्रमिक प्रक्रिया थी। इतिहासकार रानाडे के अनुसार, इसकी शुरुआत मराठा शासक शिवाजी ने की थी, जो चौथ और सरदेशमुखी के बदले राज्यों को संरक्षण प्रदान करते थे। मराठों ने इस नीति को और विस्तार दिया। कुछ विद्वानों का मानना है कि फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले पहला यूरोपीय था, जिसने धन और भूमि के बदले अपनी सेना भारतीय शासकों को किराए पर दी थी। क्लाइव से लेकर वेलेजली तक सभी गवर्नर जनरलों ने इस प्रणाली को विभिन्न रूपों में अपनाया।
अल्फ्रेड लॉयल के अनुसार कंपनी की युद्धों में भागीदारी चार अवस्थाओं में विकसित हुई। पहली अवस्था में कंपनी ने भारतीय मित्र शासकों को उनकी लड़ाइयों में सैन्य सहायता प्रदान की, जैसे 1765 ई. में अवध के साथ पहली सहायक संधि। दूसरी अवस्था में कंपनी ने मित्र शासकों के साथ मिलकर युद्ध लड़े। तीसरी अवस्था में भारतीय शासकों ने सैनिकों के बजाय धन प्रदान किया, जिससे कंपनी ने अपनी सेना तैयार की, जैसा कि 1798 ई. में हैदराबाद के साथ संधि में देखा गया। चौथी और अंतिम अवस्था में कंपनी ने धन के बदले क्षेत्र की माँग की और सहायक सेना तैनात की, जिसने भारतीय राज्यों को पूर्णतः उनका अधीनस्थ बना दिया।
सहायक संधि की शर्तें
सहायक संधि की प्रमुख शर्तों में शामिल था कि भारतीय शासकों को अपने राज्य में ब्रिटिश सेना तैनात करनी होगी और इसके खर्च के लिए अनुदान देना होगा। छोटे राज्यों को नकद भुगतान करना पड़ता था, जबकि बड़े राज्यों से क्षेत्रीय हस्तांतरण की माँग की जाती थी। प्रत्येक राज्य में एक ब्रिटिश रेजीडेंट नियुक्त किया जाता था, जो शासक को प्रशासनिक और कूटनीतिक मामलों में सलाह देता था, लेकिन वास्तव में कंपनी के हितों की रक्षा करता था। भारतीय शासकों के विदेशी संबंध पूरी तरह कंपनी के नियंत्रण में थे और उन्हें बिना अनुमति किसी यूरोपीय शक्ति या अन्य भारतीय शासक से बातचीत करने की अनुमति नहीं थी। कंपनी ने बाहरी शत्रुओं से उनकी रक्षा का वचन दिया, लेकिन आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन प्रायः निष्फल रहा। इस प्रणाली ने भारतीय राज्यों को कूटनीतिक और सैन्य रूप से निर्बल कर दिया, जिससे कंपनी की सर्वोच्चता स्थापित हो गई।

सहायक संधि का क्रियान्वयन
वेलेजली ने सहायक संधि प्रणाली को भारत के सभी प्रमुख राज्यों पर लागू करने का प्रयास किया। यद्यपि वह इस प्रणाली का आविष्कारक नहीं था, उसने इसे एक प्रभावी साम्राज्यवादी उपकरण के रूप में व्यवस्थित किया। विभिन्न राज्यों की परिस्थितियों के अनुसार संधियों में लचीलापन रखा गया। उदाहरण के लिए जब दौलतराव सिंधिया ने अपने राज्य में सहायक सेना तैनात करने से इनकार किया, तो वेलेजली ने इसे उनके राज्य के बाहर तैनात करने का निर्णय लिया, जिससे सिंधिया की स्वायत्तता पर अंकुश लग गया।
हैदराबाद
वेलेजली ने अपनी सहायक संधि प्रणाली की शुरुआत सितंबर 1798 ई. में हैदराबाद के निजाम के साथ की। निजाम ने सभी फ्रांसीसी सैनिकों को हटाने और उनकी जगह स्थायी रूप से अंग्रेजी बटालियनों को तैनात करने की शर्त स्वीकार कर ली। इसके लिए उसने 24 लाख रुपये वार्षिक भुगतान और मराठों के साथ विवादों में अंग्रेजों की मध्यस्थता स्वीकार करने का वचन दिया। 1800 ई. में संधि में संशोधन हुआ और निजाम ने नकद भुगतान के बजाय 1792 और 1799 ई. में मैसूर से प्राप्त क्षेत्र कंपनी को सौंप दिए। इस प्रकार हैदराबाद पूर्णतः अंग्रेजों का अधीनस्थ राज्य बन गया और उसकी सैन्य स्वतंत्रता समाप्त हो गई।
मैसूर
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-1792 ई.) के बाद टीपू सुल्तान की शक्ति कमजोर हो चुकी थी, किंतु वह फ्रांसीसी सहायता से अपनी सेना का पुनर्गठन कर रहा था। वेलेजली टीपू की फ्रांसीसियों से मित्रता को ब्रिटिश हितों के लिए खतरा मानता था। 1799 ई. में टीपू ने सहायक संधि का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप वेलेजली ने निजाम और मराठों के सहयोग से फरवरी 1799 ई. में चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध शुरू किया। एक तीव्र और निर्णायक युद्ध के बाद 4 मई 1799 ई. को टीपू सुल्तान श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए मारा गया। उसका आधा राज्य अंग्रेजों और निजाम के बीच बाँट लिया गया, जबकि शेष भाग पूर्ववर्ती हिंदू राजवंश को लौटा दिया गया, जिसे सहायक संधि स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया। इस प्रकार मैसूर कंपनी के पूर्ण नियंत्रण में आ गया और एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में उसका अस्तित्व समाप्त हो गया।
अवध
1765 ई. की इलाहाबाद संधि के माध्यम से अवध पहले से ही अंग्रेजी प्रभाव क्षेत्र में था। वेलेजली ने अवध के कुशासन और अफगान शासक जमान शाह के संभावित आक्रमण का हवाला देकर 1801 ई. में नवाब सआदत अली को सहायक संधि स्वीकार करने के लिए मजबूर किया। इस संधि के तहत अवध का लगभग आधा क्षेत्र, जिसमें रुहेलखंड और गंगा-यमुना दोआब का दक्षिणी भाग शामिल था, कंपनी को सौंप दिया गया। इससे अवध की आर्थिक और सामरिक शक्ति काफी हद तक कमजोर हो गई और वह कंपनी पर पूरी तरह निर्भर हो गया।
मराठे
मराठा साम्राज्य पाँच प्रमुख सरदारों- पेशवा (पूना), गायकवाड़ (बड़ौदा), सिंधिया (ग्वालियर), होल्कर (इंदौर) और भोसले (नागपुर) का एक महासंघ था। पेशवा इसका नाममात्र का प्रमुख था, लेकिन आपसी विवादों और आंतरिक कलह के कारण मराठा शक्ति कमजोर थी। वेलेजली ने मराठों को सहायक संधि के माध्यम से नियंत्रित करने की रणनीति अपनाई। नाना फड़नवीस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था, लेकिन 25 अक्टूबर 1802 ई. को होल्कर द्वारा पेशवा बाजीराव द्वितीय और सिंधिया की संयुक्त सेना की हार के बाद पेशवा ने 31 दिसंबर 1802 ई. को बेसीन की संधि के तहत सहायक संधि स्वीकार कर ली, जिसके अनुसार पूना में ब्रिटिश सहायक सेना तैनात की गई और पेशवा ने इसके खर्च के लिए 26 लाख रुपये वार्षिक भुगतान और एक ब्रिटिश रेजीडेंट की नियुक्ति स्वीकार कर ली। इस संधि से मराठा महासंघ की एकता और कमजोर हो गई।
द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803 ई.)
बेसीन की संधि से मराठा सरदारों, विशेष रूप से सिंधिया और भोसले में असंतोष पैदा हो गया, जिसके परिणामस्वरूप 1803 ई. में द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध शुरू हो गया। सिंधिया और भोसले ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया, लेकिन उनकी संयुक्त सेनाएँ अंग्रेजी सैन्य शक्ति के सामने पराजित हुईं। भोसले ने 1803 ई. में देवगाँव की संधि और सिंधिया ने सुर्जी-अर्जुनगाँव की संधि के तहत सहायक संधि स्वीकार कर ली। इन संधियों के अनुसार उन्होंने महत्त्वपूर्ण क्षेत्र कंपनी को सौंप दिए और ब्रिटिश रेजीडेंट की नियुक्ति को स्वीकार कर लिया। इससे उड़ीसा का समुद्र तट और गंगा-यमुना दोआब का क्षेत्र अंग्रेजों के पूर्ण नियंत्रण में आ गया, जिससे उनकी सामरिक स्थिति और मजबूत हो गई।
इंदौर का होल्कर
वेलेजली ने इंदौर के यशवंतराव होल्कर को भी सहायक संधि के दायरे में लाने का प्रयास किया, लेकिन होल्कर ने अंग्रेजों का कड़ा प्रतिरोध किया। उसकी सैन्य शक्ति और रणनीति ने अंग्रेजों को कठिन चुनौती दी। इस बीच कंपनी के शेयरधारकों को युद्धों की बढ़ती लागत और 1797 ई. में 170 लाख पाउंड से बढ़कर 1806 ई. में 310 लाख पाउंड तक पहुँचे कर्ज के कारण चिंता होने लगी। यूरोप में नेपोलियन के बढ़ते खतरे और ब्रिटिश सरकार के दबाव के कारण वेलेजली को 1805 ई. में वापस बुला लिया गया। जनवरी 1806 ई. में राजघाट की संधि के तहत होल्कर के साथ शांति स्थापित की गई, जिसमें उसका अधिकांश क्षेत्र लौटा दिया गया। यह वेलेजली की साम्राज्यवादी नीति का एकमात्र आंशिक असफल प्रयास था।
अन्य राज्यों के प्रति वेलेजली की नीति
कर्नाटक
कर्नाटक में नवाब उमदत-उल-उमरा के शासनकाल में अंग्रेजों का प्रभाव बना रहा। टीपू सुल्तान की पराजय के बाद वेलेजली को श्रीरंगपट्टनम से प्राप्त पत्रों से पता चला कि उमदत-उल-उमरा टीपू के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ षड्यंत्र रच रहा था। 1801 ई. में उसकी मृत्यु के बाद वेलेजली ने उसके पुत्र को पेंशन देकर कर्नाटक को कंपनी के प्रत्यक्ष प्रशासन में मिला लिया। मैसूर से छीने गए क्षेत्रों को इसके साथ जोड़कर मद्रास प्रेसीडेंसी का गठन किया गया, जिससे दक्षिण भारत में अंग्रेजी शक्ति और सुदृढ़ हो गई।
तंजौर
तंजौर के मराठा शासकों के साथ अंग्रेजों के मैत्रीपूर्ण संबंध थे। 1799 ई. में वेलेजली ने शासक सरफोजी को पेंशन के बदले राज्य का प्रशासन कंपनी को सौंपने के लिए बाध्य किया। इससे तंजौर भी कंपनी के प्रत्यक्ष नियंत्रण में आ गया और उसकी स्वायत्तता समाप्त हो गई।
सूरत
1759 ई. में सूरत के नवाब ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। 1799 ई. में नवाब की मृत्यु के बाद वेलेजली ने उत्तराधिकारी से धन और सेना भंग करने की माँग की। 1800 ई. में नवाब को पेंशन देकर सूरत को अंग्रेजी प्रशासन में मिला लिया गया, जिससे पश्चिमी भारत में कंपनी का व्यापारिक और सामरिक आधार मजबूत हो गया।
अन्य राज्य
वेलेजली ने फर्रुखाबाद और राजस्थान के जोधपुर, जयपुर, मछेरी और भरतपुर जैसे राजपूत राज्यों को भी संरक्षण में ले लिया। यह सहायक संधि का एक संशोधित रूप था, जिसमें न तो धन की माँग की गई और न ही सहायक सेना तैनात की गई। इस रणनीति ने इन राज्यों को कंपनी की कूटनीतिक छत्रछाया में लाकर उनकी स्वतंत्रता को सीमित कर दिया।
सहायक संधि की समीक्षा
कंपनी को लाभ
सहायक संधि प्रणाली ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारतीय राज्यों के खर्च पर एक शक्तिशाली सेना प्रदान की, जिसका उपयोग बिना कंपनी के क्षेत्रों में अशांति फैलाने वाले किसी भी शासक के खिलाफ किया जा सकता था। कंपनी ने सहयोगी राज्यों के विदेशी संबंधों और रक्षा पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया, जिससे फ्रांसीसी प्रभाव का अंत हो गया और सामरिक रूप से महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर कंपनी का प्रभुत्व स्थापित हुआ। एक ब्रिटिश लेखक के अनुसार यह प्रणाली सहयोगी राज्यों को तब तक संरक्षण देने की थी, जब तक वे कंपनी द्वारा हड़पने योग्य न हो जाएँ। इस प्रणाली ने कंपनी की सैन्य और आर्थिक शक्ति को अभूतपूर्व स्तर तक बढ़ा दिया।
भारतीय राज्यों को हानियाँ
सहायक संधि ने भारतीय राज्यों की स्वतंत्रता को पूर्णतः छीन लिया। वे आत्मरक्षा, कूटनीति और विदेशी विशेषज्ञों को नियुक्त करने के अधिकार से वंचित हो गए। ब्रिटिश रेजीडेंट्स ने आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप शुरू कर दिया, जिससे शासकों की स्वायत्तता समाप्त हो गई। सहायक सेना के रखरखाव का खर्च इतना अधिक था कि राज्य शीघ्र ही कर्ज में डूब गए। कंपनी ने भुगतान के बदले बड़े क्षेत्र हड़प लिए, जिससे कई राज्य आर्थिक और सामरिक रूप से नष्ट हो गए। सेनाओं के विघटन से लाखों सैनिक बेरोजगार हो गए और शासकों ने जनता के हितों की उपेक्षा शुरू कर दी, जिससे सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी।
फ्रांसीसी आक्रमण के भय का समाधान
वेलेजली के शासनकाल में यूरोप में फ्रांसीसी मोर्चा कमजोर पड़ चुका था और नेपोलियन भारत पर आक्रमण की योजना बना रहा था। वेलेजली ने सहायक संधि के माध्यम से भारतीय राज्यों को निरस्त्र कर फ्रांसीसी अधिकारियों को उनके दरबारों से हटा दिया। उसने बंगाल से युद्ध कोष के लिए 1,20,000 पाउंड से अधिक धन एकत्र किया। 1799 ई. में मेंहदी अली खान को ईरान और 1800 ई. में जॉन माल्कम को फारस भेजा गया ताकि फ्रांसीसी और रूसी प्रभाव को रोका जा सके। वेलेजली ने मॉरीशस, बटाविया और केप कॉलोनी पर आक्रमण की योजना बनाई, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी। 1800 ई. में उसने मिस्र में फ्रांसीसियों के खिलाफ भारतीय सैनिक भेजे, लेकिन उनके पहुँचने से पहले ही फ्रांसीसियों ने आत्मसमर्पण कर दिया। इन प्रयासों ने भारत में फ्रांसीसी खतरे को प्रभावी रूप से समाप्त कर दिया।
लॉर्ड वेलेजली का मूल्यांकन
लॉर्ड वेलेजली को एक महान साम्राज्य निर्माता के रूप में जाना जाता है। उसने सहायक संधि और युद्धों के माध्यम से हैदराबाद, मैसूर, अवध, कर्नाटक, तंजौर, सूरत और फर्रुखाबाद पर कंपनी का नियंत्रण स्थापित किया। उसने टीपू सुल्तान को पराजित कर मैसूर को कंपनी के अधीन किया और पेशवा, सिंधिया और भोसले को सहायक संधि स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। यशवंतराव होल्कर को नियंत्रित करने में वह पूरी तरह सफल नहीं हुआ, लेकिन उसकी नीतियों ने कंपनी की स्थिति को अभूतपूर्व रूप से मजबूत किया। इतिहासकार सिडनी ओवेन के अनुसार वेलेजली ने ईस्ट इंडिया कंपनी को एक व्यापारिक संस्था से एक शक्तिशाली साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। उसे ‘बंगाल का शेर’ कहा गया है, क्योंकि उसने ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यापारिक कंपनी के स्थान पर भारत की सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति बना दिया था। इसके काल में ही 1801 ई. में मद्रास प्रेसीडेंसी का सृजन हुआ और तीनों प्रेसीडेंसियों के मध्य स्थल मार्ग से संबंध स्थापित हुआ।
साम्राज्य निर्माण के अलावा लॉर्ड वेलेजली ने कुछ महत्वपूर्ण प्रशासनिक सुधार भी किए, जिनमें भूमि सुधार, न्याय विभाग में भारतीयों को अवसर प्रदान करना और नागरिक सेवा में भर्ती किए गए युवकों को प्रशिक्षित करने के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना शामिल थी। उसने बाइबिल का सात भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाया और स्वतंत्र व्यापार को प्रोत्साहित किया। फ्रांसीसी भय वास्तविक था या केवल वेलेजली का भारतीय राज्यों को हड़पने का बहाना, यह विवादग्रस्त है, किंतुकिंतु वेलेजली ने अपनी उग्र तथा सुनियोजित हस्तक्षेप की नीति से न केवल भारत को बचाने में सफल रहा, वरन् अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार भी किया। ऐसे समय में जब सारे यूरोप में नेपोलियन की विजय पताका फहरा रही थी, उसने भारत में अंग्रेजी पताका को ऊँचा उठाए रखा। लॉर्ड वेलेजली के चरित्र में अनेक गुण थे। वह साहसी और दूरदर्शी तो था, लेकिन उसमें कुछ चरित्रगत दोष भी थे। वह अत्यधिक अहंकारी था और अपनी नीतियों में अतिवादी था, किंतु भारत में अंग्रेजी सत्ता को सर्वोच्च बनाने का श्रेय उसे ही है।जब वह भारत से इंग्लैंड वापस गया, उस समय अंग्रेजी राज्य का क्षेत्र तीन गुना अधिक विस्तृत हो गया था।










