लॉर्ड वेलेजली और सहायक संधि प्रणाली (Lord Wellesley and Subsidiary Treaty System)

लॉर्ड वेलेजली (1798-1805)

कॉर्नवालिस के 1793 ई. में वापस जाने के बाद सर जान शोर (1793-1798 ई.) को भारत के गवर्नर जनरल पद पर नियुक्त किया गया जो कंपनी का वरिष्ठ अधिकारी और गवर्नर जनरल की परिषद् का सदस्य रह चुका था। उसे राजस्व व व्यापार के क्षेत्र में भी कार्य करने का अनुभव था। उसने कॉर्नवालिस के स्थायी बंदोबस्त में भी प्रमुख भूमिका निभाई थी। कॉर्नवालिस से उसका मतभेद केवल एक संबंध में था कि वह बंदोबस्त को स्थायी करने के पहले दस साल परीक्षण में रखना चाहता था।

लॉर्ड वेलेजली और सहायक संधि प्रणाली (Lord Wellesley and Subsidiary Treaty System)
लॉर्ड वेलेजली

जान शोर ने हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई। उसने भारतीय राजाओं को अपना प्रशासन बिना किसी हस्तक्षेप के संचालित करने की पूरी स्वतंत्रा दी। उसने मराठों के विरूद्ध निजाम की सहायता करने से इनकार कर दिया, किंतु अवध के मामले में हस्तक्षेप किया। 1797 ई. में नवाब आसफुद्दौला की मृत्यु के बाद शोर ने उसके पुत्र को उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया था, किंतु जब उसे पता चला कि वह निम्न जन्मना और अयोग्य था, तो उसे नवाब पद से हटाकर आसफुद्दौला के भाई को नवाब बना दिया।

सर जान शोर के पश्चात् लॉर्ड वेलेजली 1798 ई. में 37 वर्ष की युवावस्था में भारत का गर्वनर जनरल नियुक्त हुआ। गर्वनर जनरल नियुक्त होने के पूर्व वह इंग्लैंड के कोष का लॉर्ड और बोर्ड ऑफ कंट्रोल का आयुक्त रहा था।

वेलेजली ऐसे समय में भारत आया जब अंग्रेज पूरी दुनिया में फ्रांस के साथ जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहे थे। इस समय तक अंग्रेजों की नीति यह थी कि अपने लाभों और साधनों की स्थिति को सुदृढ़ बनाया जाए और नये इलाके तभी जीते जाएं जब बड़े भारतीय शासकों को दुश्मन बनाये बिना सुरक्षापूर्वक ऐसा कर सकना संभव हो। वेलेजली का मानना था कि हस्तक्षेप न करने की नीति से अंग्रेजों के शत्रुओं को लाभ मिला है, इसलिए इसे त्याग कर सक्रिय हस्तक्षेप और साम्राज्य-विस्तार की नीति अपनाना कंपनी के लिए लाभदायक होगा। इस नीति के द्वारा ही भारत में फ्रांसीसी संकट का भी सामना किया जा सकता था। उसने फैसला किया कि सक्रिय हस्तक्षेप की नीति अपनाकर जितने अधिक भारतीय राज्य संभव हों, ब्रिटिश नियंत्रण में लाये जाएं। उसकी साम्राज्यवादी नीति को ब्रिटिश सरकार और कंपनी के डाइरेक्टरों के साथ-साथ उद्योगपतियों भी समर्थन प्राप्त था क्योंकि औद्योगिक क्रांति के कारण इंग्लैंड के उद्योगपति कच्चा माल प्राप्त करने तथा तैयार माल के लिए बाजार चाहते थे।

भारत की राजनैतिक स्थिति

भारत में ब्रिटिश शासन का दूसरा बड़ा प्रसार लॉर्ड वेलेजली (1798-1805 ई.) के काल में ही हुआ। तत्कालीन भारत की राजनैतिक स्थिति भी वेलेजली के अनुकूल थी क्योंकि भारतीय राज्यों में पारस्परिक वैमनस्य था और विषम परिस्थिति में भी वे अंग्रेजों के विरुद्ध एकता स्थापित नहीं कर सके थे। दिल्ली के मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय की सत्ता नाममात्र की थी। मुगलों की शक्ति तथा वैभव पूर्णरूप से समाप्त हो चुका था। वह मुख्य रूप से मराठों के संरक्षण पर आश्रित था। हैदराबाद का निजाम अंग्रेजों से असंतुष्ट था क्योंकि 1795 ई. में मराठा आक्रमण के समय सर जान शोर ने उसकी सहायता नहीं की थी। अब वह फ्रांसीसियों की सहायता से अपनी 14,000 की सेना का पुनर्गठन कर रहा था। मैसूर का शासक टीपू सुल्तान अंग्रेजों का प्रमुख शत्रु था। यद्यपि तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के बाद उसकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी, फिर भी वह अंग्रेजों से प्रतिशोध लेने के लिए फ्रांसीसियों की सहायता से अपनी सेना का पुनर्गठन कर रहा था। इसके अलावा, उसने सहायता के लिए मारीशस, काबुल और अरब आदि देशों में अपने दूत भेजे थे। कर्नाटक में मुहम्मदअली का पुत्र नवाब उमदतुल उमरा बाह्य रूप से अंग्रेजों का मित्र था, लेकिन वह गुप्त रूप से अंग्रेजों के विरुद्ध षडयंत्र में संलिप्त था और टीपू से पत्र-व्यवहार कर रहा था। अवध का नवाब सआदतअली अंग्रेजों की पूर्ण अधीनता में था। राज्य की आमदनी का एक बड़ा भाग अंग्रेजी सेना के व्यय में चला जाता था। अंग्रेजों के निरंतर हस्तक्षेप तथा नवाब की अयोग्यता के कारण राज्य का प्रशासन अस्त-व्यस्त था। इस समय भारत की प्रमुख शक्ति मराठे थे और उनका संघ-राज्य उत्तर में दिल्ली से दक्षिण में मैसूर तक विस्तृत था। उन्होंने 1795 में खर्दा के युद्ध में निजाम को पराजित किया था। अवध पर उनके आक्रमण का भय बना रहता था। राजस्थान के राजपूत राजा उनकी आधीनता में थे और उन्हें चौथ देते थे, किंतु नये पेशवा की नियुक्ति के प्रश्न पर वे आपस में विवाद कर रहे थे और दौलतराव सिंधिया के कारण नाना फड़नवीस की स्थिति दुर्बल हो गई थी। पंजाब में महाराजा रणजीतसिंह ने लाहौर पर आधिपत्य करके सिख राज्य की स्थापना की और सिख मिसलों को संगठित करने में लगे थे।

फ्रांस में नेपोलियन के उत्थान से अंग्रेजों के लिए गंभीर संकट उत्पन्न हो गया था। भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्य से नेपोलियन मिस्र तक आ गया था। उसने टीपू सुल्तान को पत्र लिखकर सहायता का वचन दिया था। अनेक फ्रांसीसी अधिकारी पूना, हैदराबाद और मैसूर के दरबारों में थे और भारतीय सेनाओं को प्रशिक्षित कर रहे थे। भारतीय शासकों के साथ मिलकर वे अंग्रेजों के विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे थे।

वेलेजली के उद्देश्य और उसकी नीति

वेलेजली केवल युद्धनीति में विश्वास करता था। उसका मुख्य उद्देश्य भारत में कंपनी को सबसे बड़ी शक्ति बनाना और सभी भारतीय राज्यों को कंपनी पर निर्भर होने की स्थिति में लाना था। इसके लिए उसने सक्रिय हस्तक्षेप की नीति अपनाकर जितने अधिक भारतीय राज्य संभव हों, ब्रिटिश नियंत्रण में लाने का निर्णय किया। उसने अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए तीन उपायों का सहारा लिया- सहायक संधि प्रथा, खुला युद्ध और पहले से अधीन बनाये जा चुके शासकों का इलाका हड़पना।

वेलेजली ने भारतीय राज्यों को अधीन बनाने के लिए ‘सहायक संधि प्रणाली’ का प्रयोग किया। वह कहा करता था कि ‘मराठा प्रदेशों को विजित कर लेना भारतीय जनता पर महान् अनुग्रह है।’ वह अपनी नीति को ‘न्याय तथा तर्कसंगत’ और ‘परिमित तथा शांत’ कहता था और मराठा राजनीति को निम्न तथा क्षुद्र बताता था। वेलेजली के समय में ही चौथा मैसूर युद्ध लड़ा गया, जिसमें टीपू सुल्तान की पराजय हुई और वह मारा गया।

सहायक संधि प्रणाली

भारत में कंपनी की सत्ता को सर्वोच्च बनाने के लिए वेलेजली ने सहायक संधि प्रणाली को प्राथमिकता दी। यद्यपि इसका नाम सहायक संधि था, किंतु वास्तव में यह दासता की स्वीकृति थी। किसी भारतीय शासक से धन लेकर ब्रिटिश सेना की मदद देने की नीति तो बहुत पुरानी थी, किंतु वेलेजली ने इस नीति को एक निश्चित रूपरेखा देकर इसे ‘सहायक संधि’ का नाम दिया और इसका उपयोग भारतीय राजाओं को कंपनी के अधीन बनाने के लिए किया।

वेलेजली की सहायक संधि प्रणाली से भारत में अंग्रेजी सत्ता की श्रेष्ठता स्थापित हो गई और नेपोलियन का भय भी समाप्त हो गया। इस प्रणाली ने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार में विशेष भूमिका निभाई। वेलेजली जब भारत से वापस गया तो अंग्रेजी राज्य का क्षेत्र लगभग तिगुना हो गया था और कंपनी भारत की सर्वश्रेष्ठ शक्ति बन चुकी थी।

सहायक संधि का विकास

वेलेजली भारत में जिस सहायक संधि प्रणाली के कारण प्रसिद्ध रहा है, उसका अस्तित्व पहले से ही था और वह धीरे-धीरे विकसित हुइ थी। रानाडे का मानना है कि सहायक संधि प्रणाली की स्थापना सर्वप्रथम शिवाजी ने की थी। चौथ और सरदेशमुखी प्राप्त करके वह उस राज्य को संरक्षण प्रदान करते थे। मुगल साम्राज्य के पास इतनी शक्ति नहीं रही थी कि वह देसी राज्यों की एक दूसरे से रक्षा कर सके। ऐसी स्थिति में मराठे चौथ तथा सरदेशमुखी वसूल करने लगे और कहीं-कहीं जागीरें भी लेने लगे थे। इस प्रकार शिवाजी के बाद मराठों ने इस नीति का विस्तार किया। कुछ विद्वानों के अनुसार संभवतः डूप्ले पहला यूरोपीय था जिसने धन और भूमि प्राप्त करके अपनी सेना भारतीय राजाओं को किराये पर दिया था। सच तो यह है कि क्लाइव से लेकर वेलेजली तक सभी गवर्नर जनरलों ने इस प्रणाली का प्रयोग किया था।

अल्फ्रेड लॉयल के अनुसार कंपनी के भारतीय युद्धों में भाग लेने की चार स्थितियाँ थीं। पहली अवस्था में कंपनी ने भारतीय मित्र राजाओं को उनके युद्धों में सहायता के लिए अपनी सेना किराये पर दी। इस तरह की पहली सहायक संधि 1765 ई. में अवध से की गई थी जब कंपनी ने निश्चित धन के बदले उसकी सीमाओं की रक्षा करने का वचन दिया था। इसके अलावा, अवध ने एक अंग्रेज रेजीडेंट को भी लखनऊ में रखना स्वीकार किया था। दूसरी अवस्था में कंपनी ने स्वयं अपने मित्रों की सहायता से युद्धों में भाग लिया। तीसरी अवस्था में भारतीय मित्रों ने सैनिकों के स्थान पर धन दिया, जिसकी सहायता से कंपनी ने अंग्रेजी अधिकारियों की देख-रेख में सेना भरती कर उन्हें प्रशिक्षण और साज-सज्जा देकर तैयार किया, जैसे 1798 ई. में हैदराबाद की संधि। धन के स्थान पर क्षेत्र की माँग इसका अंतिम और प्राकृतिक चरण था जिसमें कंपनी ने अपने मित्रों की सीमाओं की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया और इसके लिए अपनी एक सहायक सेना उस राज्य में रख दी। चूंकि भारतीय राजा समय से धन नहीं दे पाते थे और बकाया बढ़ जाता था, इसलिए कंपनी ने इन सेनाओं के भरण-पोषण के लिए पूर्णप्रभुसत्ता युक्त प्रदेश की माँग की।

सहायक संधि की शर्तें

सहायक संधि की प्रथा के अनुसार किसी सहयोगी भारतीय राज्य के शासक को अपने राज्य में ब्रिटिश सेना रखनी पड़ती थी तथा उसके रख-रखाव के लिए अनुदान देना पड़ता था। छोटे राज्यों को सहायक सेना के व्यय के लिए नकद धन देना पड़ता था। यद्यपि यह सब कहने को ‘सार्वजनिक शांति’ के लिए किया जाता था, किंतु वास्तव में यह उस भारतीय शासक से कंपनी को खिरात दिलवाने का एक ढंग था। कभी-कभी कोई शासक वार्षिक अनुदान न देकर अपने राज्य का कोई भाग दे देता था।

सहायक संधि के अनुसार आमतौर पर भारतीय शासक को ब्रिटिश रेजीडेंट रखना पड़ता था जो शासक को प्रशासन संबंधी परामर्श देता था। सहायक संधि करने वाले भारतीय राजाओं के विदेशी संबंध ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन हो जाते थे। अंग्रेज़ों की स्वीकृति के बिना वह किसी और यूरोपीय को अपनी सेवा में नहीं रख सकता था और गवर्नर जनरल से सलाह किये बिना किसी दूसरे भारतीय शासक से कोई बातचीत भी नहीं कर सकता था। इसके बदले अंग्रेज़ उस शासक की हर प्रकार के शत्रुओं से रक्षा करने का वचन देते थे। यद्यपि कंपनी सहायक संधि स्वीकार करने वाले राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वादा करती था, किंतु यह वादा ऐसा था जिसे संभवतः कभी पूरा नहीं किया गया।

सहायक संधि का क्रियान्वयन

वेलेजली ने सहायक संधि को सभी राज्यों पर लागू किया। यद्यपि वह इसका आविष्कर्ता नहीं था, किंतु इसे पूर्णता देने, एक व्यापक प्रणाली बनाने तथा साम्राज्यवादी साधन के रूप में प्रयोग करने का श्रेय उसी को प्राप्त है। किंतु वेलेजली ने विभिन्न राज्यों के साथ जो संधियाँ की थीं, सभी एक समान नहीं थीं। आवश्यकता के अनुसार उसने संधियों में परिवर्तन भी किया था, जैसे- दौलतराव सिंधिया सहायक सेना को अपने राज्य में रखने के लिए तैयार नहीं था। वेलेजली ने उसकी बात मान ली और सहायक सेना को उसके राज्य के बाहर तैनात कर दिया।

हैदराबाद

वेलेजली ने सबसे पहले सहायक संधि हैदराबाद के निजाम के साथ की। यद्यपि निजाम अंग्रेजों से रुष्ट था, फिर भी उसे मराठों पर विश्वास नहीं था। इसलिए उसने सितंबर, 1798 को सहायक संधि पर हस्ताक्षर कर दिये। इस संधि के अनुसार निजाम ने अपने राज्य से समस्त फ्रांसीसी सैनिकों को हटाकर पुनः अंग्रेजी बटालियनों को स्थायी रूप से रखना स्वीकार कर लिया। उसने कंपनी को सेना के व्यय के लिए 24 लाख रुपया वार्षिक देना स्वीकार किया और वचन दिया कि मराठों के साथ विवादों को हल करने के लिए वह अंग्रेजों की मध्यस्थता स्वीकार करेगा। यदि मराठे विवादों को हल करने के लिए तत्पर नहीं होते, तो ऐसी स्थिति में अंग्रेज निजाम को सुरक्षा प्रदान करेंगे। निजाम ने हैदराबाद में अंग्रेज रेजीडेंट रखना स्वीकार किया।

1800 में वेलेजली ने इस संधि में संशोधन किया। सहायक सेनाओं के खर्च के नाम पर नगद पैसा देने के बजाय निज़ाम ने 1792 ई. तथा 1799 ई. में जो प्रदेश मैसूर से प्राप्त किये थे, कंपनी को दे दिया। इस प्रकार हैदराबाद अंग्रेजों का एक अधीन राज्य बन गया।

मैसूर

यद्यपि तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध से टीपू की शक्ति क्षीण हो गई थी और उसके कई प्रदेशों पर अंग्रेजों, मराठों तथा निजाम का अधिकार हो गया था। फिर भी, वेलेजली टीपू की फ्रांसीसियों से साँठ-गाँठ को बड़ा खतरा समझता था क्योंकि जिस दिन वेलेजली भारत पहुँचा था, उस दिन टीपू के दूत मॉरीशस से एक फ्रांसीसी पोत तथा कुछ सैनिकों एवं फ्रांसीसी सहायता का वचन लेकर मंगलौर पहुँचे थे। दूसरी ओर टीपू भी अंग्रेज़ों के साथ अपने अवश्यसंभावी युद्ध के लिए अपनी सेना को फ्रांसीसी अधिकारियों के सहयोग से लगातार मज़बूत बना रहा था। उसने फ्रांस के नेपोलियन से गठजोड़ की बात की और एक ब्रिटिश-विरोधी गठजोड़ बनाने के लिए अफगानिस्तान, अरब और तुर्की में भी अपने दूत भेजे।

चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध

वेलेजली ने मैसूर से सहायक संधि का प्रस्ताव प्रस्तुत किया, लेकिन टीपू सहायक संधि के लिए तैयार नहीं हुआ। फलतः वेलेजली ने निजाम और मराठों के सहयोग से फरवरी, 1799 में टीपू के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और एक संक्षिप्त मगर भयानक युद्ध के बाद फ्रांसीसी सहायता पहुँचने के पहले ही उसे हरा दिया। टीपू ने अंग्रेजों से अपमानजक संधि करने से इनकार कर दिया और अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम की रक्षा करते हुए 4 मई 1799 को मारा गया। टीपू का लगभग आधा राज्य अंग्रेज़ों और उनके सहयोगी निजाम के बीच बँट गया और शेष भाग उन हिंदू राजाओं के वंशजों को वापस दे दिया गया जिनसे हैदरअली ने मैसूर राज्य छीना था। नये राजा को मजबूर करके एक विशेष सहायक संधि पर हस्ताक्षर कराये गये और इस प्रकार अंग्रेज़ों ने मैसूर को कंपनी पर पूरी तरह आश्रित बना दिया। वेलेजली के इस कार्य की इंग्लैंड में बड़ी प्रशंसा हुई।

अवध

इलाहाबाद की संधि (1765 ई) से ही अवध पर अंग्रेजी प्रभाव स्थापित हो गया था। हेस्टिंग्स, कॉर्नवालिस और शोर के समय में इस प्रभाव में पर्याप्त वृद्धि हो गई थी और नवाब पर कंपनी का वास्तविक नियंत्रण स्थापित हो गया था। यद्यपि अवध के नवाब ने अंग्रेजों के विरुद्ध कोई कार्य नही किया था, तथापि वेलेजली ने कुशासन तथा अफगानिस्तान के शासक जमानशाह के संभावित आक्रमण का बहाना बनाकर नवाब को 1801 ई. में सहायक संधि करने के लिए बाध्य किया और नवाब के राज्य का लगभग आधा भाग, जिसमें रुहेलखंड तथा दोआब का दक्षिणी भाग सम्मिलित था, ले लिया।

मराठे

मराठे अभी तक पूर्णतया स्वतंत्र थे। इस समय मराठा साम्राज्य पाँच बड़े सरदारों का एक महासंघ था जिसमें पूना का पेशवा, बड़ौदा का गायकवाड़, ग्वालियर का सिंधिया, इंदौर का होल्कर और नागपुर (बरार) का भोंसले शामिल थे। पेशवा इस महासंघ का नाममात्र का प्रमुख था। लेकिन ये सभी सरदार विदेशियों के आसन्न खतरे से बेखबर होकर आपसी झगड़ों में कट-मर रहे थे।

पेशवा

वेलेजली का उद्देश्य सहायक संधि के द्वारा मराठों को भी अंगेजी नियंत्रण में लाना था। अवध पर नियंत्रण स्थापित करने के बाद वेलेज़ली ने बार-बार पेशवा और सिंधिया के आगे सहायक संधि का प्रस्ताव रखा। किंतु दूरदर्शी नाना फड़नवीस ने इस जाल में फँसने से इनकार कर दिया था। किंतु 25 अक्टूबर 1802 ई. को जब दीवाली के दिन इंदौर के होल्कर ने पेशवा और सिंधिया की मिली-जुली सेना को हरा दिया तो कायर पेशवा बाजीराव द्वितीय ने भागकर अंग्रेज़ों की शरण ली और वर्ष 1802 के अंतिम दिन बेसीन की संधि द्वारा सहायक संधि प्रणाली पर हस्ताक्षर कर दिया। इस संधि के द्वारा पूना में सहायक सेना तैनात कर दी गई और उसके व्यय के लिए पेशवा ने 26 लाख रुपया वार्षिक देना स्वीकार किया। संधि की अन्य शर्ते थीं-पूना में ब्रिटिश रेजीडेंट रहेगा, निजाम और गायकवाड़ के साथ विवादों में पेशवा अंग्रेजों की मध्यस्थता स्वीकार करेगा तथा वह अन्य राज्यों से संबंधों में अंग्रेजों का परामर्श स्वीकार करेगा।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध

बेसीन की संधि (1802 ई.) के कारण द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ। किंतु संकट की इस घड़ी में भी मराठे साझे शत्रु के खिलाफ़ एकजुट नहीं हुए। सिंधिया और नागपुर (बरार) के भोंसले ने बेसीन की संधि का विरोध किया तथा अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध आरंभ कर दिया। लेकिन युद्ध में दोनों पराजित हुए। भोंसले ने 1803 ई. में देवगाँव की संधि के द्वारा और दौलतराव सिंधिया ने 1803 ई. में सुर्जी अर्जुनगाँव की संधि के द्वारा सहायक संधि की शर्ते स्वीकार कर लीं। अब वे दोनों कंपनी के अधीनस्थ सहयोगी बन गये। उन्होंने अंग्रेज़ों को अपने राज्यों के महत्त्वपूर्ण प्रदेश दिये, अपने दरबारों में अंग्रेज़ रेज़ीडेंट रखे और अंग्रेजों की सहमति के बिना यूरोपीयों को सेवा में न रखने का वचन दिया। अब उड़ीसा के समुद्रतट पर और गंगा-यमुना के दोआब पर अंग्रेज़ों का पूर्ण अधिकार हो गया। पेशवा उनके हाथों की एक कठपुतली बनकर रह गया।

इंदौर का होल्कर

वेलेज़ली ने इंदौर के होल्कर पर भी अपना ध्यान केंद्रित किया। किंतु यशवंतराव होल्कर अंग्रेज़ों के लिए काफ़ी भारी साबित हुआ और अंत तक ब्रिटिश सेना से लड़ता रहा। दूसरी ओर ईस्ट इंडिया कंपनी के शेयर होल्डरों को पता चला कि युद्ध के ज़रिये प्रसार की नीति बहुत महंगी पड़ रही थी और इससे उनका मुनाफ़ा कम हो रहा था। कंपनी का कर्ज जो 1797 में 170 लाख पौंड था, 1806 तक बढ़कर 310 लाख पौंड हो चुका था।

इसके अलावा, ब्रिटेन के वित्तीय साधन ऐसे समय में खत्म हो रहे थे जब नेपोलियन यूरोप में एक बार फिर एक बड़ा खतरा बन रहा था। ब्रिटिश राजनेताओं और कंपनी के डायरेक्टरों को लगा कि अब आगे प्रसार रोक देने, फिजूलखर्च बंद करने और भारत में ब्रिटेन की उपलब्धियों को सुरक्षित करने और मजबूत बनाने का समय आ चुका है। इसलिए वेलेज़ली को भारत से मज़बूत वापस बुला लिया गया और कंपनी ने जनवरी 1806 में राजघाट की संधि के द्वारा होल्कर के साथ शांति स्थापित कर उसे उसके राज्य का एक बड़ा भाग लौटा दिया गया।

अन्य राज्यों के प्रति वेलेजली की नीति
कर्नाटक राज्य

कर्नाटक युद्धों में अंग्रेजों की सहायता से मुहम्मदअली अर्काट का नवाब बना था। मुहम्मदअली का पुत्र उमदतुल उमरा के काल में भी कर्नाटक पर अंग्रेजों का नियंत्रण बना रहा। किंतु इस समय साम्राज्यवादी वेलेजली कर्नाटक राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिलाना चाहता था। इसके लिए उसे एक बहाना भी मिल गया। टीपू की पराजय के बाद अंग्रेजों को श्रीरंगपट्टम से पत्र मिले जिनसे पता चला कि उमदतुल उमरा टीपू से मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध पड्यंत्र कर रहा था। 1801 ई. में उमदतुल उमरा की मृत्यु के बाद वेलेजली ने उसके पुत्र को बाध्य किया कि वह पेंशन लेकर अपना राज्य कंपनी को सौंप दे। अब मैसूर से मालाबार समेत जो क्षेत्र छीने गये थे, उनमें कर्नाटक को मिलाकर मद्रास प्रेसीडेंसी बनाई गई, जो 1947 तक चलती रही।

तंजौर

मैसूर के दक्षिण में तंजौर राज्य था जिसके मराठा शासकों के अंग्रेजों से मित्रतापूर्ण संबंध थे। किंतु 1799 ई. में वेलेजली ने तंजौर के मराठा शासक सफोजी को एक नई संधि करने पर विवश किया। संधि के अनुसार सफोजी ने पेंशन के बदले राज्य का शासन कंपनी को सौंप दिया।

सूरत

सूरत के नवाब ने 1759 ई. में अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार की थी और यहाँ पर द्वैध शासन लागू किया गया था। 1799 ई. में नवाब की मृत्यु होने पर वेलेजली ने उत्तराधिकारी नवाब से धन की माँग की और अपनी सेना भंग करने को कहा। अंत में अगले वर्ष 1800 ई. में वेलेजली ने नवाब को हटाकर पेंशन दे दी और सूरत को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।

इन राज्यों के अलावा, वेलेजली ने फर्रुखाबाद के नवाब तथा राजस्थान के जोधपुर, जयपुर, मछेड़ी तथा भरतपुर के राजपूत राज्यों को भी अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया। यह भी सहायक संधि का ही एक परिवर्तित रूप था क्योंकि यद्यपि इन राज्यों को सुरक्षा प्रदान करने के बदले न तो इनसे धन की माँग की गई थी और न ही इनको सहायक सेना रखने के लिए कहा गया था।

सहायक संधि की समीक्षा

वेलेजली ने सहायक संधि के माध्यम से भारत में अंग्रेजी राज्य को एक साम्राज्य में बदल दिया और कंपनी भारत की सर्वोच्च शक्ति बन गई। दूसरी ओर, इससे भारतीय राजाओं को अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार करनी पड़ी और क्रमशः वे अंग्रेजों की कृपा पर निर्भर हो गये।

सहायक संधि से कंपनी को लाभ

सहायक संधि कंपनी के लिए अत्यंत लाभदायक थी। कंपनी को भारतीय राज्यों के व्यय पर एक सेना मिल गई जिसे ‘कंपनी के अधिकृत क्षेत्रों’ की शांति भंग किये बिना अथवा भारत सरकार पर बिना किसी बोझ के इन्हें किसी भी भारतीय राजा के विरुद्ध प्रयोग किया जा सकता था। कंपनी अपने सुरक्षा प्राप्त सहयोगी के रक्षा और विदेशी संबंधों के मामलों पर पूरा नियंत्रण रखती थी और उसकी ज़मीन पर एक शक्तिशाली सेना रखती थी, इसलिए वह जब चाहे राजा को ‘अयोग्य’ घोषित करके उसके राज्य को हड़प सकती थी। सहायक संधि की यह प्रथा, एक ब्रिटिश लेखक के शब्दों में, ‘अपने सहयोगियों को बकरों की तरह तब तक खिला-पिलाकर मोटा रखने की प्रथा थी जब तक वे जिबह करने के काबिल न हो जायें।’ कंपनी का संरक्षण मिलने के कारण भारतीय राज्य निरस्त्र हो गये। अब वे आपस में कोई संघ नहीं बना सकते थे, विशेषकर अंग्रेजों के विरुद्ध। भारतीय राज्यों का विदेशी संबंध कंपनी के अधीन हो जाने से कंपनी भारतीय राज्यों के बीच आपसी विवादों में मध्यस्थ बन गई।

इस संधि के द्वारा कंपनी फ्रांसीसी भय से मुक्त हो गई क्योंकि कोई भी यूरोपीय नागरिक कंपनी की अनुमति के बिना किसी संबंधित राज्य में सेवा नहीं कर सकता था। अंग्रेज रेजीडेंटों ने अपना प्रभाव बढ़ाकर कालांतर में राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना आरंभ कर दिया। भारतीय राज्यों की राजधानियों में कंपनी की सेना रखने से अनेक सामरिक महत्त्व के स्थानों पर कंपनी का नियंत्रण हो गया, जिससे कंपनी को बहुत-सा पूर्ण प्रभुसत्तायुक्त प्रदेश मिल गया और उसका साम्राज्य विस्तृत हो गया। कंपनी की न्यायिक सेवा के एक युवक अधिकारी हेनरी रोबरवला ने 1805 में लिखा था- ‘भारत में मौजूद हर अंग्रेज़ गर्व से भरा और अकड़ा हुआ है। वह अपने को एक विजित जनता का विजेता मानता है और अपने नीचे के हर व्यक्ति को कुछ श्रेष्ठता की भावना के साथ देखता है।’

सहायक संधि से भारतीय राज्यों को हानियाँ

सहायक संधि भारतीय राज्यों के लिए प्रत्येक प्रकार से हानिकर थी। वास्तव में सहायक संधि पर हस्ताक्षर करके कोई भारतीय राज्य अपनी स्वाधीनता लगभग गंवा ही बैठता था। वह आत्मरक्षा, कूटनीतिक संबंध बनाने, विदेशी विशेषज्ञ रखने तथा पड़ोसियों के साथ आपसी झगड़े के अधिकार ही खो बैठता था। दरअसल उस भारतीय शासक की बाहरी मामलों में सारी प्रभुता समाप्त हो जाती थी। टॉमस रो के शब्दों में, ‘राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता, राष्ट्रीय चरित्र अथवा वह सब जो किसी देश को प्रतिष्ठित बनाते हैं, बेंचकर सुरक्षा मोल ले ली।’

भारतीय राज्य ब्रिटिश रेजीडेंट के अधिकाधिक अधीन होते गये जो राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करते रहते थे। इसके अलावा, इस प्रथा के कारण सुरक्षा प्राप्त राज्य अंदर से खोखला होते गये। अंग्रेज़ों की दी हुई सहायक सेना का खर्च बहुत अधिक होता था और वास्तव में वह उस राज्य की क्षमता से काफ़ी बाहर होता था। सहायक संधि स्वीकार करने वाले राज्य मनमाने ढंग से तय किये गये और बनावटी ढंग से बढ़ाये जाने वाले अनुदान की माँग के कारण जल्दी ही दिवालिया हो गये और प्रायः सभी राज्यों पर कंपनी का बकाया हो गया। जब धन के बदले प्रदेश माँगा जाता था तो वह बहुत अधिक होता था। इस तरह सहायक संघि ने उन सरकारों को पूर्णतया नष्ट कर दिया, जिनकी रक्षा का भार उसने उठाया था।

सहायक संधि प्रथा के कारण सुरक्षा प्राप्त राज्य की सेनाएँ भी भंग कर दी गईं, जिससे लाखों सैनिक और अधिकारी अपनी पैतृक जीविका से वंचित हो गये और देश में बदहाली फैल गई। इसके अलावा सहायक संधि से सुरक्षा प्राप्त राज्यों के शासक अपनी जनता के हितों की अनदेखी करने के साथ ही साथ उनका दमन भी करने लगे क्योंकि अब उन्हें जनता का कोई भय नहीं रह गया। चूंकि अंग्रेजों ने उन्हें अदरूनी और बाहरी दुश्मनों से रक्षा का वचन दिया था, इसलिए उनमें अब अच्छे शासक बनने का कोई लोभ भी नहीं रह गया।

फ्रांसीसीआक्रमण के भय का समाधान

वेलेजली के भारत आगमन के समय ही फ्रांस के विरुद्ध यूरोपीय शक्तियों का बना हुआ मोर्चा छिन्न-भिन्न हो चुका था। नेपोलियन मिस्र और सीरिया को जीतकर भारत पर आक्रमण करने की गंभीरतापूर्वक सोच रहा था। इस फ्रांसीसी संकट का सामना करने के लिए वेलेजली ने कुछ कदम उठाये। वेलेजली ने अनुभव किया कि नेपोलियन के प्रभाव से बचने के लिए वह स्वयं भारतीय राजाओं के बीच मध्यस्थ बने। इसी आशय से उसने सभी भारतीय राज्यों को सहायक संधि स्वीकार करने को बाध्य किया जिससे वे निरस्त्र हो गये और फ्रांसीसियों को अपने राज्य से निकाल दिये। इससे अंग्रेज बिना धन व्यय किये बड़ी सेना रखने में भी सफल हो गये।

वेलेजली ने बंगाल में रहने वाले अंग्रेजों से युद्धकोष के लिए धन एकत्र किया और 1,20,000 पौंड से अधिक धन एकत्र कर इंग्लैंड भेजा। उसने 1799 ई. में मेंहदीअली खाँ नामक एक दूत को ईरान के शाह के दरबार में भेजा। इसी प्रकार नवंबर, 1800 ई. में एक अन्य दूत जान मॉल्कम बहुत से बहुमूल्य उपहार लेकर तेहरान (फारस) पहुँचा जिससे फारस में फ्रांसीसी और रूसी प्रभावों को रोका जा सके।

वेलेजली ने फ्रांसीसी नाविक अड्डे मॉरीशस पर आक्रमण करने की भी योजना बनाई, किंतु ब्रिटिश जहाजी बेड़े के एडमिरल रेनियर ने लंदन के स्पष्ट आदेश के बिना ऐसा करने से इनकार कर दिया। इसी बीच उसने गृह सरकार से डच प्रदेश बटाविया तथा केप कॉलोनी पर भी आक्रमण की अनुमति माँगी क्योंकि डच उन दिनों फ्रांस के मित्र थे। लेकिन इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया गया। नेपोलियन के विस्तार को रोकने के लिए वेलेजली ने 1800 ई. में भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी जनरल वेयर्ड के नेतृत्व में मिस्र भेजा, किंतु सेना के पहुँचने पूर्व ही फ्रांसीसियों ने हथियार डाल दिये थे जिसके कारण यह सेना 1802 ई. में वापस आ गई।

लॉर्ड वेलेजली का मूल्यांकन

लॉर्ड वेलेजली एक महान साम्राज्य निर्माता था। उसका मुख्य उदेश्य भारत को ब्रिटिश शासन के अंतर्गत लाना था। इसके लिए उसने कूटनीतिक तथा युद्ध, दोनों उपायों का सहारा लिया। कूटनीतिक क्षेत्र में सहायक संधि प्रणाली के द्वारा उसने निजाम, मराठे, कर्नाटक, तंजौर, फर्रुखाबाद आदि पर कंपनी का नियंत्रण स्थापित कर दिया। उसने युद्ध के द्वारा मैसूर के टीपू सुल्तान को नष्ट किया और पेशवा को अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया। सिंधिया और भोंसले के विरोध को उसने युद्ध द्वारा नष्ट कर दिया और उन्हें भी सहायक संधि स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। उसने होल्कर को कुचलने में लगभग सफलता प्राप्त कर ली थी, लेकिन तभी उसे त्यागपत्र देकर इंग्लैंड वापस जाना पड़ा।

सिडनी ओवेन के अनुसार वेलेजली ने भारत में एक राज्य को भारत का एक साम्राज्य बना दिया। वेलेजली ‘बंगाल का शेर’ उपनाम से प्रसिद्ध था क्योंकि उसने ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यापारिक कंपनी के स्थान पर एक शक्तिशाली राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित किया। पहले कंपनी भारतीय शक्तियों में से एक थी, किंतु अब कंपनी समस्त भारत में सबसे शक्तिशाली एक मात्र शक्ति बन गई। इसके काल में ही 1801 ई. में मद्रास प्रेसीडेंसी का सृजन हुआ और तीनों प्रेसीडेंसियों के मध्य स्थल मार्ग से संबंध स्थापित हुआ।

साम्राज्य निर्माण के अलावा लॉर्ड वेलेजली ने कुछ महत्वपूर्ण सुधार भी किये। उसने विजित प्रदेशों में भूमि-संबंधी सुधार किये और न्याय विभाग में भारतीयों को पहले की अपेक्षा अधिक कार्य करने का अवसर दिया। उसने कलकत्ता में नागरिक सेवा में भर्ती किये गये युवकों को प्रशिक्षित करने के लिए ‘फोर्ट विलियम कॉलेज’ की स्थापना की। वह अंग्रेजी साहित्य का विद्वान था तथा उसका दृष्टिकोण व्यापक था। इसके साथ ही उसने बाइबिल का सात भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराया। वह स्वतंत्र व्यापार का समर्थक था और अनेक करों को हटाना चाहता था, लेकिन डाइरेक्टरों के विरोध के कारण वह ऐसा नहीं कर सका।

फ्रांसीसी भय वास्तविक था या केवल वेलेजली का भारतीय राज्यों को हड़पने का बहाना, यह विवादग्रस्त है, किंतु वेलेजली ने अपनी उग्र तथा सुनियोजित हस्तक्षेप की नीति से न केवल भारत को बचाने में सफल रहा, वरन् अंग्रेजी साम्राज्य का विस्तार भी किया। ऐसे समय में जब सारे यूरोप में नेपोलियन की विजय पताका फहरा रही थी, उसने भारत में अंग्रेजी पताका को ऊँचा उठाये रखा। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसने जिन तौर-तरीकों को अपनाया, वह वारेन हेस्टिंग्स से अधिक उद्वत और तानाशाहीपूर्ण था।

लॉर्ड वेलेजली के चरित्र में अनेक गुण थे। वह साहसी और दूरदर्शी तो था, लेकिन उसमें कुछ चरित्रगत दोष भी थे। वह अत्यधिक अहंकारी था और अपनी नीतियों में अतिवादी था, किंतु भारत में अंग्रेजी सत्ता को सर्वोच्च बनाने का श्रेय उसे ही है। वेलेजली का स्थान भारत नें अंग्रेजी साम्राज्य के निर्माताओं में ऊँचा है। जब वह भारत से इंग्लैंड वापस गया, उस समय अंग्रेजी राज्य का क्षेत्र तीन गुना अधिक विस्तृत हो गया था।

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