रतनपुर के कलचुरि (Kalachuris of Ratanpur, 1000–1741 AD)

छत्तीसगढ़ में कलचुरि शासन की नींव त्रिपुरी के कलचुरि शासक कोकल्ल प्रथम (845-890 ई.) के […]

रतनपुर के कलचुरि (Kalachuris of Ratanpur, 1000–1741 AD)

छत्तीसगढ़ में कलचुरि शासन की नींव त्रिपुरी के कलचुरि शासक कोकल्ल प्रथम (845-890 ई.) के 18 पुत्रों में से सबसे बड़े पुत्र शंकरदेव द्वितीय ‘मुग्धतुंग’ (890-910 ई.) के शासनकाल में रखी गई थी, जब उसने 900 ईस्वी में समुद्रतटीय क्षेत्रों की विजय की और दक्षिण कोसल क्षेत्र के बाणवंशी शासक विक्रमादित्य ‘जयमेयु’ को पराजित कर पाली पर अधिकार कर लिया। उसने अपने एक छोटे भाई को पाली का मंडलाधिपति नियुक्त किया, जिसने तुम्माण में कलचुरियों की एक नई शाखा की नींव रखी।

पहले तुम्माण में कलचुरि अधिक दिनों तक शासन नहीं कर सके क्योंकि सोनपुर के सोमवंशी शासकों ने कलचुरियों को पराजित कर भगा दिया। बाद में, कोकल्ल द्वितीय (990-1015 ई.) के शासनकाल में उसके पुत्र कलिंगराज ने 995 ई. में सोमवंशी शासकों को पराजित कर 1000 ई. तुम्माण को राजधानी बनाकर छत्तीसगढ़ में कलचुरियों की वास्तविक सत्ता की स्थापना की। इस प्रकार छत्तीसगढ़ में कलचुरि सत्ता का वास्तविक संस्थापक कलिंगराज (1000-1020 ई.) था।

कलिंगराज (1000-1020 ई.) के बाद कमलराज (1020-1045 ई.) तुम्माण की गद्दी पर बैठे, जो त्रिपुरी के गांगेयदेव का समकालीन थे। उन्होंने गांगेयदेव (1015-1041 ई.) की ओर से उत्कल के नरेश को पराजित करने में सहयोग दिया। कमलराज के उत्तराधिकारी रत्नदेव प्रथम (1045-1065 ई.) ने 1045 ई. में रतनपुर नामक एक नए नगर की स्थापना की और 1050 ई. में राजधानी को तुम्माण से रतनपुर (बिलासपुर) स्थानांतरित किया, जो उत्तरकालीन कलचुरि राजाओं की राजधानी बना रहा।

प्रतापमल्ल की मृत्यु (1225 ई.) के बाद रतनपुर की कलचुरि शाखा की शक्ति कमजोर होने लगी और कलचुरि इतिहास का ‘अंधकार युग’ (1225-1494 ई.) शुरू हुआ। 1494 ई. के आसपास बाहरेंद्र (1480-1525 ई.) के समय से कलचुरि इतिहास का ‘अंधकार युग’ समाप्त हुआ।

रतनपुर की कलचुरि शाखा के अंतिम स्वतंत्र शासक रघुनाथसिंह थे, जिनके शासनकाल में 1741 ई. में मराठा सेनापति भास्करपंत ने रतनपुर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया और रघुनाथसिंह को मराठों के अधीन रतनपुर का राजा बना दिया। रघुनाथसिंह के बाद मोहनसिंह (1745-1757 ई.) मराठों की अधीनता में 1757 ई. तक रतनपुर के राजा बने रहे। 1758 ई. में जब बिम्बाजी ने छत्तीसगढ़ में अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया, तो हैहयवंशी कलचुरियों का भी अंत हो गया।

रतनपुर के कलचुरि शासकों ने शैव और वैष्णव धर्म को संरक्षण प्रदान किया। उन्होंने अनेक महल, मंदिर, मठ, तालाब और जलाशय बनवाए, जिसके कारण रतनपुर को ‘कुबेरपुर’, ‘चतुर्युगीयपुरी’ और ‘तालाबों का नगर’ कहा जाता था।

रतनपुर की कलचुरि शाखा के प्रमुख शासक

कलिंगराज (1000-1020 ई.)

छत्तीसगढ़ में कलचुरि राजवंश के संस्थापक कलिंगराज थे, जो त्रिपुरी के कलचुरि शासक कोकल्ल द्वितीय के पुत्र थे, जिन्हें रत्नदेव तृतीय के 939 ई. के खरौद अभिलेख में ‘कलिंगपति’ कहा गया है।

छत्तीसगढ़ में कलचुरियों की वास्तविक सत्ता का संस्थापक त्रिपुरी के कलचुरि शासक कोकल्ल द्वितीय के पुत्र कलिंगराज थे, जिन्हें रत्नदेव तृतीय के 939 ई. के खरौद अभिलेख में ‘कलिंगपति’ कहा गया है। यद्यपि दक्षिण कोसल के कुछ भाग प्रसिद्धधवल ‘मुग्धतुंग’ के काल में जीत लिये गये थे, लेकिन यह विजय स्थायी नहीं रह सकी।

कलिंगराज ने 995 ई. के आसपास उड़ीसा के सोमवंशी राजाओं को पराजित कर 1000 ई. के आसपास तुम्माण (कोरबा, तुमैन) को अपनी राजधानी बनाया। जाजल्लदेव प्रथम के रतनपुर शिलालेख में कहा गया है कि ‘वह शत्रुओं की स्त्रियों की आँखों से बहते हुए जल से पुष्ट हुआ प्रताप का वृक्ष था। उसने अपने पूर्वजों की भूमि छोड़कर अपने शौर्य एवं कोष की वृद्धि के लिए दक्षिण कोसल में राज्य स्थापित कर अपनी लक्ष्मी बढ़ाई।’ इस प्रकार, छत्तीसगढ़ की कलचुरि शाखा के वास्तविक संस्थापक कलिंगराज माने जाते हैं।

यद्यपि कलिंगराज को दक्षिण कोसल का विजेता कहा जाता है, लेकिन पृथ्वीदेव प्रथम के अमोदा ताम्रपत्र में उनकी केवल दक्षिण कोसल के एक जनपद, तुम्माण (तुमैन), की विजय का उल्लेख है। फिर भी, अमोदा ताम्रपत्रों से पता चलता है कि कलिंगराज ने अपने शत्रुओं का दमन किया और कलचुरि राज्य के वैभव में वृद्धि की।

अलबरूनी ने अपने ग्रंथ तहकीक-ए-हिंद में कलिंगराज का वर्णन किया है। कलिंगराज ने संभवतः चौतुरगढ़ में महिषासुरमर्दिनी मंदिर के निर्माण कार्य को शुरू करवाया।

इस प्रकार, छत्तीसगढ़ में त्रिपुरी के कलचुरियों की प्रथम शाखा तुम्माण में स्थापित हुई, जिसने कई वर्षों तक त्रिपुरी के कलचुरियों के सामंत के रूप में शासन किया।

कमलराज (1020-1045 ई.)

कलिंगराज के पुत्र कमलराज 1020 ईसवी के लगभग तुम्माण की गद्दी पर बैठे, जो त्रिपुरी के गांगेयदेव का समकालीन थे। उनके शासनकाल में त्रिपुरी के कलचुरि गांगेयदेव (1015-1041 ई.) ने उत्कल (उड़ीसा) देश पर आक्रमण किया। पृथ्वीदेव प्रथम के अमोदा ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि कमलराज ने गांगेयदेव की ओर से उत्कल के नरेश को पराजित कर अनेक हाथी, घोड़े और बहुत सारी संपत्ति प्राप्त की और उसे गांगेयदेव को सौंप दिया।

कमलराज द्वारा पराजित उत्कल शासक की पहचान निश्चित नहीं है। कुछ इतिहासकार इसकी पहचान गंगवंशीय कामर्णव से करते हैं और कुछ इतिहासकारां के अनुसार वह उत्कल का राजा इंद्रस्थ था। वी.वी. मिराशी का मत उचित प्रतीत होता है कि पराजित उत्कल राजा करवंशी शुभाकर द्वितीय था।

कमलराज ने उत्कल से साहिल्ल नामक एक ब्राह्मण को तुम्माण लाकर अपना सेनापति नियुक्त किया, जिसने कलचुरियों की ओर से अनेक युद्धों में भाग लिया और उनके राज्य-विस्तार में महत्वपूर्ण सहायता प्रदान की। लगभग 1045 ई. में कमलराज की मृत्यु हो गई।

रत्नदेव अथवा स्त्नराज प्रथम (1045-1065 ई.)

कमलराज की मृत्यु (1045 ई.) के बाद उनके पुत्र रत्नदेव प्रथम रतनपुर राज्य के उत्तराधिकारी हुए। रतनपुर में प्राप्त एक शिलालेख में कमलराज के पुत्र का नाम ‘रत्नराज’ उल्लिखित है। रत्नदेव प्रथम का विवाह कोमोमंडल के राजा वज्जूक (वज्रवर्मा) की पुत्री नोनल्ला से हुआ था। उन्होंने 1055 ई. में सोमवंशी शासक महाभवगुप्त चतुर्थ को पराजित कर सिरपुर क्षेत्र में कलचुरि सम्राज्य का विस्तार किया।

रत्नदेव प्रथम एक महत्त्वपूर्ण शासक थे, लेकिन उनकी महत्ता का कारण राज्य-विस्तार नहीं, बल्कि उनके निर्माण कार्य थे। उन्होंने 1045 ई. में तुम्माण से लगभग 45 मील दूर रतनपुर नामक एक नए नगर की स्थापना की और 1050 ई. में राजधानी को तुम्माण से रतनपुर (बिलासपुर) स्थानांतरित किया, जो उत्तरकालीन कलचुरि राजाओं की राजधानी बना रहा। इस प्रकार, रत्नराज प्रथम तुम्माण के अंतिम शासक और रतनपुर के प्रथम शासक थे। इसी रतनपुर के नाम पर दक्षिण कोसल के कलचुरियों को ‘रतनपुर के कलचुरि’ के नाम से संबोधित किया जाता है।

रत्नदेव प्रथम ने अपने शासनकाल में अनेक निर्माण कार्य करवाये और नगरों को मंदिरों, वृक्षों, पुष्पों तथा सरावरों से अलुकृत किया। उन्होंने नई राजधानी रतनपुर में बंकेश्वर मंदिर, प्रसिद्ध महामाया मंदिर, तुम्माण में नानादेवकुल से सुशोभित रत्नेश्वर नामक विशाल शिवमंदिर और चौतुरगढ़ के महिषासुरमर्दिनी मंदिर के निर्माण कार्य को पूर्ण करवाया।

रत्नराज ने जल के संरक्षण और आपूर्ति के लिए अनेक तालाबों और जलाशयों का निर्माण करवाया, जिसके कारण रतनपुर को ‘तालाबों का नगर’ कहा जाने लगा। इस काल में रतनपुर इतना समृद्ध और संपन्न था कि इसे ‘कुबेरपुर’ और ‘चतुर्युगीयपुरी’ कहा जाता था।

पृथ्वीदेव प्रथम (1065-1090 ई.)

रत्नराज (रत्नदेव प्रथम) की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र पृथ्वीदेव प्रथम 1065 ई. में रतनपुर के कलचुरि राज्य का उत्तराधिकारी बने। उनके शासनकाल के तीन अभिलेख अमोदा (रामपुर), रायपुर और लाफागढ़ से प्राप्त हुए हैं। अभिलेखों में उनकी रानी राजल्ला तथा उनके दो मंत्रियों- विग्रहराज और सोढ़देव के नामों का उल्लेख मिलता है।

अमोदा ताम्रपत्र में पृथ्वीदेव प्रथम को 21 गाँवों का स्वामी बताया गया है। उन्होंने पांडु वंश के शासक महाशिव तीवरदेव की भाँति ‘सकलकोसलाधिपति’ की उपाधि धारण की थी। इससे स्पष्ट है कि पृथ्वीदेव प्रथम का संपूर्ण दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) पर नियंत्रण था।

पृथ्वीदेव प्रथम ने ही लाफागढ़ में किलाबंदी करवाया, जिसमें प्रवेश के लिए तीन प्रमुख द्वार क्रमशः मेनका द्वार, सिंहद्वार, और हुंकारूद्वार थे। इस किलेबंदी के कारण लाफागढ़ को ‘छत्तीसगढ़ का चित्तौड़’ कहा जाता है।

पृथ्वीदेव प्रथम ने तुम्माण में पृथ्वीदेवेश्वर मंदिर बनवाया, तुम्माण तथा रतनपुर में विशाल सरोवर खुदवाए और बंकेश्वर मंदिर में चतुष्कमिका (चार स्तंभ) बनवाए।

जाजल्लदेव प्रथम (1090-1120 ई.)

पृथ्वीदेव प्रथम के पश्चात् लगभग 1090 ई. में जाजल्लदेव प्रथम रतनपुर के सिंहासन पर बैठे, जिनका शासनकाल रतनपुर की कलचुरि शाखा का स्वर्णिम काल माना जाता है। उनके शासनकाल के शिलालेख पाली और रतनपुर में प्राप्त हुए हैं।

जाजल्लदेव प्रथम ने त्रिपुरी की कलचुरि शाखा की अधीनता का जुआ उतार फेंका और जेजाकभुक्ति के चंदेलों तथा कन्नौज के राजा से मित्रता की। रतनपुर शिलालेख से ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने सेनापति जगपालदेव की सहायता से बैरागढ़, लंजिका (लांजी), भांडार (भंडारा), दंडकपुर, नंदावली, कुक्कुट, राठ, तेरम (टेरम) और तमनाल (तमनार) को जीतकर अपने अधीन किया। उन्होंने बस्तर के छिंदक नागवंशी शासक सोमेश्वर की राजधानी को जलाकर बंदी बना लिया, लेकिन माता के अनुरोध पर मुक्त कर दिया।

जाजल्लदेव एक कुशल शासक ही नहीं, बल्कि निर्माण और स्थापत्यकला के प्रेमी भी थे। उन्होंने अपने नाम पर जाजल्लपुर (जाँजगीर) नामक नगर बसाया, वहाँ एक विशाल सरोवर खुदवाया और आम का बाग लगवाया। उन्होंने जाजल्लपुर में नक्टा (विष्णु) मंदिर का निर्माण शुरू करवाया, जिसमें विष्णु के 24 अवतारों का वर्णन है। यही नहीं, उन्होंने पाली के शिवमंदिर का जीर्णोद्धार करवाया, जिसका निर्माण बाणवंशी विक्रमादित्य ने करवाया था। उनके सामंत वल्लभराज ने कोटगढ़ में तालाब का निर्माण कराया और अकलतरा में सूर्यपुत्र रेवंत का मंदिर बनवाया।

जाजल्लदेव ने सोने और चाँदी के सिक्कों का प्रचलन शुरू किया, जिन पर देवनागरी लिपि में ‘गजशार्दूल श्रीमज्जाजल्लदेव’ अंकित था। सोने सिक्के चलाने वाले रतनपुर शाखा के वह पहले शासक थे।

जाजल्लदेव प्रथम ने ‘गजशार्दूल’ की उपाधि धारण की, जिसका अंकन उनके सोने के सिक्कों पर भी मिलता है। उनकी पत्नी का नाम लाच्छलादेवी, गुरु का नाम रूद्रशिव, मंत्री का नाम पुरुषोत्तम और संधिधिग्राहिक का नाम विग्रहराज था। कहा जाता है कि वह मकरध्वज जोगी के साथ तीर्थाटन पर निकले, लेकिन वापस नही लौटे।

रत्नदेव द्वितीय (1120-1135 ई.)

जाजल्लदेव प्रथम के पश्चात् उनके पुत्र रत्नदेव द्वितीय लगभग 1120 ई. में रतनपुर के कलचुरि वंश के सिंहासन पर आसीन हुए। उनके शासनकाल के ताम्राभिलेख अकलतरा, खरौद, शिवरीनारायण, पारागाँव, और सरखों से प्राप्त हुए हैं।

रत्नदेव द्वितीय ने रतनपुर के कलचुरि साम्राज्य का विस्तार किया और इसी क्रम में उन्होंने गंगवंशी (उड़ीसा) के राजा अनंतवर्मन चोडगंग को पराजित कर ‘त्रिकलिंगाधिपति’ की उपाधि धारण की।

सामंत वल्लभराज के अकलतरा अभिलेख के अनुसार, रत्नदेव ने भंज राजा हखोदु पर आक्रमण कर उन्हें पराजित किया। त्रिपुरी के कलचुरि राजा गयाकर्ण (1123-1153 ई.) ने रतनपुर पर आक्रमण किया, लेकिन रत्नदेव ने उन्हें पराजित कर खदेड़ दिया।

रत्नदेव द्वितीय विद्वानों और कलाकारों के आश्रयदाता थे। वह स्वयं 36 विद्याओं के ज्ञाता और युद्धप्रेमी थे। उनके संरक्षण में रतनपुर में अनेक मंदिरों का निर्माण और तालाबों का खनन करवाया गया। उन्होंने स्वर्ण और रजत सिक्कों का प्रचलन शुरू किया, जो रतनपुर की आर्थिक समृद्धि का सूचक है।

पृथ्वीदेव द्वितीय के राजिम शिलालेख के अनुसार, रत्नदेव द्वितीय को तलहटि मंडल में महान कार्यों के लिए जगतसिंह की उपाधि प्राप्त हुई।

पृथ्वीदेव द्वितीय (1135-1165 ई.)

रत्नदेव द्वितीय के पश्चात् उनके पुत्र पृथ्वीदेव द्वितीय लगभग 1135 ई. में रतनपुर के कलचुरि वंश के सिंहासन पर आसीन हुए, जो रतनपुर की कलचुरि शाखा के संभवतः सबसे शक्तिशाली शासक थे। उनके शासनकाल के सबसे अधिक 14 ताम्रलेख अमोदा, दहकोनी (डाइकोनी), राजिम, बिलाईगढ़, कोनी, घोटिया आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं।

पृथ्वीदेव द्वितीय ने रतनपुर के कलचुरि राज्य का अभूतपूर्व विस्तार किया। राजिम शिलालेख के अनुसार, उनके मंत्री और सेनापति जगतपाल ने सरहगढ़ (सारंगढ़), मचका, सिहावा, भ्रमरकुट (बस्तर), कांतार, कुसुमभोग, कांदाडोंगर और काकरय (कांकेर) के क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर उन्हें अपने अधीन किया।

पृथ्वीदेव द्वितीय ने सोने के साथ-साथ चाँदी का छोटा सिक्का चलाया, जो उनकी आर्थिक समृद्धि और प्रशासनिक कुशलता का प्रमाण हैं।

पृथ्वीदेव द्वितीय के शासनकाल में अनेक मंदिर बनवाये गये और जलाशय खुदवाये गये। राजिम शिलालेख से पता चलता है कि उनके सेनापति जगतपाल ने राजीवलोचन मंदिर का जीर्णोद्धार और रामचंद्र मंदिर का निर्माण करवाया। उनके सामंत ब्रह्मदेव ने संबलपुर में नरसिंहनाथ और नारायणपुर में धुर्जटी मंदिर बनवाया, जबकि ब्रह्मदेव के भाई अकलदेव ने अकलतरा नगर की स्थापना की।

पृथ्वीदेव द्वितीय के सामंत वल्लभराज ने रतनपुर में रतनदेव सरोवर, खारूंग झील और जगदलपुर में वल्लभसागर झील का निर्माण करवाया। सामंत वल्लभराज को घुड़सवारी और हाथियों को पकड़ने की कला में निपुण बताया गया है।

जाजल्लदेव द्वितीय (1165-1168 ई.)

पृथ्वीदेव द्वितीय के दो पुत्र थे-  जगदेव और जाजल्लदेव द्वितीय। अपने पिता के बाद 1165 ई. में जाजल्लदेव रतनपुर के राजा हुए और लगभग तीन वर्ष तक शासन किये। इनके शासनकाल के शिलालेख रतनपुर, अमोदा, मल्हार और शिवरीनारायण से मिले हैं।

शिवरीनारायण शिलालेख के अनुसार, जाजल्लदेव के शासनकाल में त्रिपुरी के कलचुरि राजा जयसिंह (1163-1188 ई.) ने रतनपुर पर आक्रमण किया और दोनों कलचुरि राजाओं के बीच शिवरीनारायण के निकट भीषण संघर्ष हुआ। शिवरीनारायण शिलालेख के अनुसार, इस युद्ध में जाजल्लदेव द्वितीय ने जयसिंह को पराजित किया।

जाजल्लदेव ने अपने शासनकाल में धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यों को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने शिवरीनारायण में चंद्रचूर्ण मंदिर सहित कई मंदिरों और सरोवरों (जलाशयों) का निर्माण करवाया।

1168 ई. में जाजल्लदेव द्वितीय की आकस्मिक मृत्यु हो गई। उस समय उनके बड़े भाई जगदेव संभवतः किसी स्थानीय शासक या सामंत से सैन्य संघर्ष में उलझे हुए थे।

जगदेव (1168-1178 ई.)

जाजल्लदेव द्वितीय की आकस्मिक मृत्यु (1168 ई.) के बाद उनके बड़े भाई जगदेव ने रतनपुर के कलचुरि वंश का शासन सँभाला। खरौद शिलालेख में जगदेव और उनकी रानी सोमल्ला का उल्लेख मिलता है।

रतनदेव द्वितीय के खरौद शिलालेख के अनुसार, जाजल्लदेव द्वितीय की मृत्यु के बाद रतनपुर में अशांति और अराजकता फैल गई। इसका कारण संभवतः पड़ोसी राज्यों के आक्रमण और आंतरिक कलह थे। जगदेव ने शासन सँभालकर राज्य में शांति और सुव्यवस्था स्थापित की ।

जगदेव ने अपने शासनकाल में धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई और शैव, जैन, और वैष्णव धर्मों को संरक्षण दिया। कहा जाता है कि जगदेव के शासनकाल में खरौद में लक्ष्मणेश्वर मंदिर का निर्माण हुआ था।

रत्नदेव तृतीय (1178-1198 ई.)

जगदेव का उत्तराधिकारी उनकी रानी सोमल्ला से उत्पन्न पुत्र रत्नदेव तृतीय (1178-1198 ई.) हुआ। उनके शिलालेख 953 के अर्थात 1168 ई. खरौद और पासिद से मिले हैं।

खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर शिलालेख से पता चलता है कि रत्नदेव तृतीय के शासनकाल में रतनपुर क्षेत्र में दुर्भिक्ष से अव्यवस्था फैल गई। इस संकट से निपटने के लिए उन्होंने उड़ीसा के गंगाधर ब्राह्मण को अपना प्रधानमंत्री बनाया, जिसने अपनी सूझबूझ से राज्य को सुव्यवस्थित कर स्थिति को नियंत्रित किया।

रत्नदेव तृतीय ने रतनपुर में एक वीरमंदिर का निर्माण करवाया। उनके सेनापति गंगाधर ने खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के सभी मंडपों का जीर्णोद्धार करवाया और वहीं तपस्वियों के लिए मठ बनवाया।

प्रतापमल्ल (1198-1225 ई.)

रत्नदेव तृतीय की मृत्यु के बाद उनके पुत्र प्रतापमल्ल रतनपुर राज्य के उत्तराधिकारी बने, जो कलिंगराज की वंश परंपरा के अंतिम स्पष्ट वंशज थे। उनके शासनकाल के तीन ताम्रलेख पेंड्रबंध, कोनारी और बिलाईगढ़ (पवनी़) में मिले हैं, जो क्रमशः कलचुरि संवत 965, 968, 969 (1213, 1216, 1217 ई.) के हैं। इन ताम्रलेखों से उनके शासनकाल, प्रशासन और धार्मिक कार्यों की जानकारी मिलती है। प्रतापमल्ल के 12 ताँबे के चक्राकार और षटकोणाकार सिक्के भी बालपुर (छत्तीसगढ़) से प्राप्त हए हैं, जिनपर सिंह और कटार का अंकन है।

संभवतः प्रतापमल्ल को गंगराज अनंगभीमदेव तृतीय ने पराजित किया था। चटेश्वर मंदिर के शिलालेख के अनुसार अंगनभीम के सेनापति विष्णु ने तुम्मन (पुरानी कलचुरि राजधानी) के राजा को इतना आतंकित किया कि बाद वाले को ‘अपने पूरे राज्य में हर जगह विष्णु दिखाई देने लगे।’ अनंतवसुदेव मंदिर के शिलालेख के अनुसार अनंगभीम की पुत्री चंद्रिकादेवी ने परमर्दिदेव नामक एक हैहय राजकुमार से विवाह किया था। संभवतः यह राजकुमार रतनपुर परिवार से संबंधित था।

कलचुरि संवत 917 (1165 ई.) के बोरिया (कवर्धा) मूर्तिलेख तथा कलचुरि संवत 934 (1182 ई.) के सहसपुर के सहस्त्रबाहु प्रतिमा लेख में कलचुरि वंशं के एक सामंत जसराज (यशोराज) का उल्लेख मिलता है, जो संभवतः प्रतापमल्ल के शासनकाल में रतनपुर के अधीन किसी महत्त्वपूर्ण क्षेत्र, जैसे बोरिया या सहसपुर के आसपास का प्रशासक था।

प्रतापमल्ल ने शैव, वैष्णव और जैन धर्मों को संरक्षण दिया। ताम्रलेखों और अभिलेखों से पता चलता है कि उनके शासनकाल में धार्मिक स्थलों, मंदिरों और अन्य निर्माण कार्यों को प्रोत्साहन मिला।

कलचुरि संवत 917 (1165 ई.) के बोरिया (कवर्धा) मूर्तिलेख तथा कलचुरि संवत 934 (1182 ई.) के सहसपुर के सहस्त्रबाहु प्रतिमा लेख में कलचुरि वंशं के एक सामंत जसराज (यशोराज) का उल्लेख मिलता है, जो संभवतः प्रतापमल्ल के शासनकाल में रतनपुर के अधीन किसी महत्त्वपूर्ण क्षेत्र, जैसे बोरिया या सहसपुर के आसपास का प्रशासक था।

प्रतापमल्ल ने शैव, वैष्णव और जैन धर्मों को संरक्षण दिया। ताम्रलेखों और अभिलेखों से पता चलता है कि उनके शासनकाल में धार्मिक स्थलों, मंदिरों और अन्य निर्माण कार्यों को प्रोत्साहन मिला।

प्रतापमल्ल की मृत्यु (1225 ई.) के बाद रतनपुर की कलचुरि शाखा की शक्ति कमजोर होने लगी और कलचुरि इतिहास का ‘अंधकार युग’ शुरू हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वी गंग और कलचुरि त्रिकलिंग और कोसल क्षेत्रों पर नियंत्रण के लिए एक लंबे संघर्ष में उलझ गये।

अंधकार युग (1225-1494 ई.)

रतनपुर के कलचुरि वंश के इतिहास में प्रतापमल्ल की मृत्यु (लगभग 1225 ई.) के बाद से बाहरेंद्र के शासनकाल (लगभग 1494 ई.) तक के काल को ‘अंधकार युग’ माना जाता है। यह अवधि लगभग 270-300 वर्ष की है, जिसमें छत्तीसगढ़ के कलचुरि वंश के इतिहास की स्पष्ट और विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है। संभवतः इस दौरान रतनपुर के कलचुरियों की शक्ति पड़ोसी राजवंशों, जैसे गोंडों, यादवों और त्रिपुरी के कलचुरियों के दबाव और आंतरिक अस्थिरता के कारण कमजोर पड़ गई थी।

जाजल्लदेव तृतीय (1225 ई.)

देवगिरि के यादव शासकों के अभिलेखों और हेमाद्विकृत व्रतखंड की राजप्रशस्ति से संकेत मिलता है कि सेउण के यादव शासक सिंघण द्वितीय (1210-1247 ई.)  के एक समकालीन शासक जाजल्ल थे। इस जाजल्ल की पहचान जाजल्लदेव तृतीय से की जा सकती है, जो संभवतः प्रतापमल्ल की मृत्यु के बाद 1225 ई. में रतनपुर की गद्दी आसीन हुए थे।

जाजल्लदेव तृतीय के पश्चात् रतनपुर पर शासन करने वाले कलचुरि शासकों की जानकारी बाहरेंद्र के कोसगई शिलालेख में मिलती है, जिसके अनुसार बाहरेंद्र (1480-1525 ई.) के पहले सिंघण (सिंहान), डंधीर, मदनब्रह्मा, रामचंद्र और रत्नसेन ने शासन किया। कोसगई शिलालेख से डंधीर, मदनब्रह्मा, रामचंद्र और रत्नसेन के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। संभवतः उन्होंने स्थानीय स्तर पर शासन किया और उनकी शक्ति सीमित थी।

प्रतापमल्ल और बाहरेंद्र (1222-1480 ई.) के बीच शासन करने वाले राजाओं की जो सूची बाबू रेवाराम ने प्रस्तुत की है, उसकी पुष्टि अभिलेखीय स्रोतों से नहीं होती है।

14वीं शताब्दी के अंत में संभवतः सिंघण (सिंहान) के शासनकाल में रतनपुर के कलचुरि शाखा का विभाजन हो गया और रायपुर की लहुरी शाखा का उदय हुआ। यह विभाजन संभवतः उत्तराधिकार विवाद, प्रशासनिक सुविधा या केंद्रीय शक्ति के विकेंद्रीकरण के कारण हुआ था।

बाहरेंद्र अथवा बाहरसाय (1480-1525 ई.)

1494 ई. के आसपास बाहरेंद्र के समय से कलचुरि इतिहास का ‘अंधकार युग’ समाप्त होता है। उनके शासनकाल का एक शिलालेख रतनपुर से विक्रम संवत 1552 (1495 ई.) और दो शिलालेख कोसगई से प्राप्त हुए हैं, जिसमें एक विक्रम संवत् 1570 (1513 ई.) का है, दूसरा तिथिविहीन है।

कोसगई शिलालेखों से पता चलता है कि बाहरेंद्र राजा रत्नदेव के पुत्र थे। उनके शासनकाल में पठानी का आक्रमण हुआ, लेकिन उन्होंने उन्हें सोन नदी तक खदेड़ दिया। उन्होंने मुस्लिम आक्रमणों से बचने के लिए राजधानी रतनपुर से कोसंग (छुरी कोसगई) स्थानांतरित किया और वहाँ कोषागार का निर्माण करवाया।

बाहरेंद्र साय के शासनकाल में कोसगई माता के मंदिर का निर्माण हुआ और रतनपुर के महामाया मंदिर के सभागृह का जीर्णोद्धार करवाया गया। उन्होंने विसहू बिसवार की वीरता से प्रभावित होकर उसे 12 ग्राम (करमुक्त) उपहार में दिया।

कल्याण साय (1544-1581 ई.)

बाहरेंद्र के पश्चात् रतनपुर के कलचुरियों के अभिलेख नहीं मिलते, लेकिन अन्य स्रोतों से जानकारी मिलती है कि कल्याणसाय नामक एक राजा ने रतनपुर में लगभग 1544 से 1581 ई. तक (1536-1573 ई.?) तक शासन किया।

कल्याण साय ने आर्थिक और प्रशासनिक सुधार के लिए भू-राजस्व जमाबंदी की शुरूआत की और एक राजस्व पुस्तिका तैयार की, जिसमें उस समय की प्रशासनिक व्यवस्था, राजस्व एवं सैन्यबल की जानकारी मिलती है। इस समय संपूर्ण राज्य से होने वाली वार्षिक आय 6.50 लाख रुपये थी। कल्याण साय की राजस्व पुस्तिका के आधार पर ही बिलासपुर के प्रथम बंदोबस्त अधिकारी मि. चिशम ने 1868 ई. में रतनपुर और रायपुर के 18-18 गढ़ों अर्थात् कुल छत्तीस गढ़ों के प्रशासन का उल्लेख किया है।

बाबू रेवाराम की पांडुलिपि से पता चलता है कि कल्याण साय और मंडला के राजा के बीच विवाद होने के कारण तत्कालीन मुगल बादशाह अकबर ने उन्हें दिल्ली बुलवाया था। लेकिन छत्तीसगढ़ में प्रचलित देवार गीतों और तुजुक-ए-जहाँगीरी के अनुसार कल्याणसाय जहाँगीर के शासनकाल में दिल्ली गये थे और 8 से 12 वर्षें तक नजरबंद रहे। बाद में, वह राजा की उपाधि और पूर्ण अधिकार के साथ रतनपुर लौटे और जगन्नाथ मंदिर का निर्माण करवाये। कहा जाता है कि उनके समय से ही छत्तीसगढ़ में छेरछेरा त्योहार की शुरुआत हुई।

कल्याण साय के बाद लक्ष्मण साय (1581-1620 ई.), शंकर साय 1596), मुकुंद साय (1606 ई.), त्रिभुवन साय (1622 ई.) जगमोहन साय (1633 ई.), अदती साय (1659 ई.) रणजीत साय (1675 ई.), तख्तसिंह (1685-1689 ई.) आदि राजाओं के नाम मिलते हैं। किंतु इनके शासनकाल की कोई विशेष उपलब्धि की जानकारी नहीं मिलती है।

छत्रपति शिवाजी का रतनपुर प्रवास (1666 ई.)

कुछ अपुष्ट स्रोतों से पता चलता है कि छत्रपति शिवाजी ने आगरा की कैद से निकलने (1666 ई.) के बाद सुरक्षित रूप से रायगढ़ लौटने के लिए छत्तीसगढ़ के मार्ग को चुना। शिवाजी मथुरा होते हुए फतेहपुर के पास यमुना नदी पारकर इटावा, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी होते हुए मिर्जापुर पहुँचे। मिर्जापुर से आगे बढ़कर वे सरगुजा रियासत के घने जंगलों में पहुँचे। इसके बाद उन्होंने रतनपुर, रायपुर, चंद्रपुर, चिन्नूर, करीमगंज, गुलबर्गा, मंगलबेड़ा आदि मार्गों से यात्रा की। इस यात्रा के दौरान शिवाजी का रतनपुर (छत्तीसगढ़) प्रवास एक उल्लेखनीय ऐतिहासिक घटना है, यद्यपि इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है।

तखतसिंह (1685-1689 ई.)

तखतसिंह औरंगजेब के समकालीन शासक थे। उन्होंने 17वीं शताब्दी के अंत में तख्तपुर नगर की स्थापना की, वहाँ एक शिवमंदिर बनवाया और एक शिलालेख लिखवाया।

राजसिंह (1689-1712 ई.)

तखतसिंह के पश्चात् राजसिंह (1689-1712 ई.) राजा हुए। उन्होंने रतनपुर के निकट राजपुर (जून) नगर की स्थापना की और एक सात मंजिला बादलमहल बनवाया, जिसमें संप्रति दो मंजिल ही शेष हैं।

राजसिंह के दरबारी कवि गोपाल मिश्र थे, जिन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘खूब तमाशा’ में औरंगजेब की नीतियों की कटु आलोचना की है। गोपालमिश्र छत्तीसगढ़ शब्द के द्वितीय प्रयोगकर्ता थे क्योंकि इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग खैरागढ़ के राजा लक्ष्मणनिधि के चारणकवि दलपतराय ने किया था।

जनश्रुतियों के अनुसार राजसिंह निःसंतान थे। उन्हें अपने ब्राह्मण दीवान के नियोग द्वारा एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जिसका नाम विश्वनाथसिंह था। विश्वनाथसिंह का विवाह रीवा की राजकुमारी के साथ हुआ था। नियोग की घटना से क्रोधित होकर राजसिंह ने दीवान तथा उसके रिश्तेदारों के घरों को नष्ट करा दिया। बाद में, आत्मग्लानि के कारण विश्वनाथसिंह ने भी आत्महत्या कर ली।

सरदारसिंह (1712-1732 ई.)

राजसिंह ने रायपुर शाखा के मोहनसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था, लेकिन उनकी मृत्यु (1712 ई.) के समय मोहनसिंह की अनुपस्थिति के कारण राजसिंह के चाचा सरदारसिंह राजा हुए। राजपद से वंचित होने पर मोहनसिंह क्रद्ध होकर नागपुर भोंसले की शरण में चले गये।

रघुनाथ सिंह (1732-1745 ई.)

सरदारसिंह के बाद उनके 60 वर्षीय भाई रघुनाथसिंह रतनपुर के राजा हुए। उनके शासनकाल में नागपुर के भोंसले शासक के सेनापति भास्कर पंत ने 1741 ई. में छत्तीसगढ़ के रतनपुर पर आक्रमण कर रतनपुर के तत्कालिक शासक रघुनाथसिंह को पराजित कर अधिकार कर लिया। उसने एक लाख रुपया जुर्माना वसूलकर रघुनाथसिंह को भोंसले का प्रतिनिधि शासक नियुक्त कर रतनपुर राज्य का शासन सौंप दिया। इस प्रकार रघुनाथसिंह मराठो के अधीन शासन करने वाले रतनपुर के पहले कलचुरि राजा थे।

भास्कर पंत ने कल्याणगिरि गोसाई को मराठा भोंसले का प्रतिनिधि नियुक्त किया था, लेकिन 1745 ई. में भास्करपंत की कटक में हत्या के बाद रघुनाथसिंह ने कल्याणगिरि गोसाई को कैद कर लिया और मराठों की अधीनता से मुक्त होकर स्वतंत्र हो गये। फलतः नागपुर के भोंसले शासक रघुजी प्रथम ने 1745 ई. में रघुनाथसिंह को पराजित कर जीवन-निर्वाह के लिए पाँच गाँव देकर पदच्युत कर दिया और अपनी ओर से मोहनसिंह (1745-1757 ई.) को रतनपुर की गद्दी पर बिठाया, जो 1757 ई. तक भोंसले की अधीनता में रतनपुर के राजा बने रहे। 1758 ई. में जब भोसले राजकुमार बिम्बाजी ने छत्तीसगढ़ में अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया, तो हैहयवंशी कलचुरियों की सत्ता का भी अंत हो गया। इस प्रकार मोहनसिह रतनपुर की कलचुरि शाखा के अंतिम शासक थे, जो मराठों के अधीन शासन करने वाले अंतिम शासक भी सिद्ध हुए।

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