मारवर्मन् कुलशेखर पांड्य प्रथम (1268-1308 ई.) पांड्य राज्य एक शक्तिशाली शासक था, जो जटावर्मन् सुंदरपांड्य के बाद संभवतः 1268 ई. में पांड्य राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। वास्तव में जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम ने अपने शासनकाल में ही अपने पुत्र मारवर्मन् कुलशेखर पांड्य प्रथम को युवराज नियुक्त कर दिया था, जो उसके शासन संचालन में सक्रिय सहयोग करता रहा। जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम की मृत्यु के बाद मारवर्मन् कुलशेखर प्रथम ने स्वतंत्र रूप से शासन प्रारंभ किया। प्रो. शैलेंद्रसेन जैसे कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि उसने 1310 ई. तक शासन किया था। कुलशेखर पांड्य प्रथम की मृत्यु के बाद पांड्य राज्य में गृहयुद्ध आरंभ हो गया।
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मारवर्मन् कुलशेखर पांड्य प्रथम की उपलब्धियाँ
मारवर्मन् कुलशेखर प्रथम के अभिलेख उसके शासनकाल के तीसरे वर्ष से लेकर चौवालिसवें वर्ष तक के मिले हैं, जिनसे उसकी उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है। अभिलेखों के अनुसार कुलशेखर पांड्य प्रथम ने न केवल होयसलों और चोलों को पराजित कर उनके क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया, बल्कि श्रीलंका के शासक भुवनैकबाहु को हराकर सिंहल राज्य (जाफना) को भी पांड्य राज्य का अंग बना लिया। उसका शासनकाल आर्थिक दृष्टि से भी समृद्ध था। उसके समय (1293 ई.) में वेनिस के प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो ने पांड्य देश की यात्रा की थी। उसने असियार या अश्कर के नाम से कुलशेखर का उल्लेख किया है और उसके सुशासन तथा पांड्य राज्य की समृद्धि की प्रशंसा की है। मार्कोपोलो के अनुसार पांड्य राज्य का कैल (कायल) नगर ऐश्वर्य एवं वैभव से परिपूर्ण था। वहाँ के शासक के पास एक भरा पूरा खजाना और बड़ी सेना थी।
मारवर्मन् कुलशेखर पांड्य प्रथम के शासनकाल के चौतीसवें वर्ष के एक लेख से ज्ञात होता है कि उसके शासनकाल में पांड्य राज्य में कुछ आंतरिक अराजकता फैल गई थी और इसके कुछ प्रदेशों पर इसके भाइयों ने अधिकार कर लिया। था। किंतु बाद में उसने अपनी स्थिति सुदृढ़ ली और अपने खोये हुए प्रांतों पर पुनः अधिकार कर लिया।
चोलों और होयसलाओं के विरुद्ध अभियान
कुलशेखर पांड्य प्रथम को केरल, कोगु, चोलमंडल, तोंडैंमंडलम् तथा सिंहल पर विजय प्राप्त करने का श्रेय दिया गया है। पता चलता है कि उसने 1279 ई. में चोलों के मित्र होयसलों पर आक्रमण किया और होयसल शासक रामनाथ को पराजित किया। इसका कारण संभवतः होयसल नरेश रामनाथ की चोल शासक राजेंद्रचोल तृतीय के साथ गहरी मित्रता थी। इस सफलता के फलस्वरूप चोल राज्य और होयसलों के दक्षिणी क्षेत्रों पर कुलशेखर का अधिकार स्थापित हो गया। इसके बाद राजेंद्रचोल तृतीय और चोलों के विषय में कोई सूचना नहीं मिलती।
मारवर्मन् कुलशेखर ने सबसे दक्षिण में केरल के वेनाड राज्य में भी युद्ध किया और वेनाड राज्य पर अधिकार कर लिया। लगता है कि किसी स्थानीय विरोध की स्थिति में उसे यह अभियान करना पड़ा था।
श्रीलंका पर आक्रमण
कुलशेखर पांड्य ने 1270 के दशक के अंत में श्रीलंका के विरुद्ध अभियान किया। इस अभियान का विस्तृत विवरण महावंश में मिलता है, जिसके अनुसार श्रीलंका के शासक भुवनैकबाहु प्रथम (1272-1285 ई.) के शासनकाल में वहाँ भीषण अकाल पड़ा था। इसका लाभ उठाते हुए कुलशेखर पांड्य प्रथम ने अपने सेनानायक एवं मंत्री आर्यचक्रवर्ती के नेतृत्व में एक सैन्यदल श्रीलंका पर आक्रमण करने के लिए भेजा। आर्यचक्रवर्ती अपने अभियान में पूरी तरह सफल रहा। उसकी सेना ने श्रीलंका के शासक को पराजित कर शुभगिरि (यापाहुवा) नगर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और उसके दुर्ग में घुसकर बुद्ध का पवित्र दंत तथा बहुत-सी संपत्ति पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार श्रीलंका को अपार क्षति पहुँचाकर अपार संपत्ति के साथ पांड्य सेना वापस आई। चक्रवर्ती ने बुद्ध का दंतावशेष पांड्य शासक को समर्पित कर दिया। इस विजय के फलस्वरूप श्रीलंका (जाफना) पर कुलशेखर पांड्य प्रथम की प्रभुता स्थापित हो गई। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार यह घटना भुवनैकबाहु प्रथम के शासनकाल के अंतिम दिनों में घटित हुई थी। इसके बाद लगभग बीस वर्षों तक श्रीलंका (जाफना) पांड्य साम्राज्य का अंग बना रहा।
भुवनैकबाहु प्रथम का उत्तराधिकारी पराक्रमबाहु (परक्कमबाहु) तृतीय अत्यंत कूटनीतिज्ञ शासक था। वह जानता था कि शक्ति के बल पर कुलशेखर से निपटना आसान नहीं है। इसलिए उसने स्वयं कुलशेखर के समक्ष उपस्थित होकर उससे बुद्ध के पवित्र दंतावशेष के लिए निवेदन किया। कुलशेखर ने उसके आग्रह को स्वीकार कर लिया और दंतावशेष वापस कर दिया। बाद में कुलशेखर की मृत्यु के बाद गृहयुद्ध (1308-1323 ई.) और मुस्लिम आक्रमणों के कारण उत्पन्न अराजकता का लाभ उठाकर श्रीलंका ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।
मारवर्मन् कुलशेखर पांड्य के शासनकाल के बारहवें वर्ष के शेरमादेवी लेख में उसको मलयनाडु, कोंगु, शोणाडु और श्रीलंका का विजेता बताया गया है। किंतु इन विजयों में अधिकांश का विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। चूंकि इन राज्यों पर जटावर्मन् सुंदरपांड्य प्रथम ने पांड्य प्रभुता स्थापित कर दी थी। इसलिए लगता है कि इन राज्यों ने पांड्य शक्ति को चुनौती दी थी, जिसके कारण मारवर्मन् कुलशेखर को पुनः इनके विरूद्ध सैनिक अभियान करना पड़ा था। मलैनाडु तथा शोणाडु से मारवर्मन् कुलशेखर के कई लेख प्राप्त हुए हैं। यद्यपि कोंगु में उसका एक भी लेख नही मिला है, किंतु अन्य लेखों से ज्ञात होता है कि उसने तिरुनेल्वेलि के मंदिर के प्राकार का निर्माण करवाया था। अपने शासनकाल के पंद्रहवें वर्ष में मारवर्मन् कुलशेखर ने कष्णनूर में एक सैनिक शिविर स्थापित किया था, जो कोंगु क्षेत्र पर उसके आधिपत्य का सूचक है।
प्रशासन और उपाधियाँ
कुलशेखर पांड्य प्रथम ने लगभग चार दशकों तक शासन किया। उसकी सर्वदेशविजेता, कोल्लमकोंड तथा अप्रतिम जैसी उपाधियाँ उसके बहुआयामी व्यक्तित्व की परिचायक हैं।
कुलशेखर के शासनकाल की शांति और समृद्धि की प्रशंसा मार्कोपोलो और अब्दुल्ल वस्सफ (तारीखे वस्सफ का लेखक) जैसे विदेशी यात्री और फ़ारसी इतिहासकारों ने की है। वस्सफ के अनुसार कुलशेखर ने तकीउद्दीन अब्दुर्रहमान जैसे एक अरब मुस्लिम को अपना प्रधानमंत्री और सलाहकार नियुक्त किया था। उसने ओमान से आये काजी सैयद ताजुद्दीन को मदुरै में जमीन का एक टुकड़ा उपहार में दिया था, जिसमें ताजुद्दीन ने काज़ीमार बड़ी मस्जिद के नाम से एक मस्जिद का निर्माण करवाया था, जो आज भी अस्तित्व में है। उल्लेखनीय है कि वस्सफ ने स्वयं कभी भारत के किसी भी भाग की यात्रा नहीं की थी, इसलिए विद्वान उसके विवरण को विश्वसनीय नहीं मानते हैं।
मार्कोपोलो तथा वस्सफ के विवरण
कुलशेखर के शासन एवं समृद्धि के विषय में मार्कोपोलो और वस्सफ के विवरणों से महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। वेनिस के प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो ने 1293 ई. में पांड्य देश की यात्रा की थी। वह पांड्य राज्य की समृद्धि और प्रशासन से बहुत प्रभावित था। उसने पांड्य राज्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा है कि माबर भारत के सभी राज्यों में श्रेष्ठ था और यह दुनिया का सबसे सुंदर तथा आदर्श प्रांत था। इस प्रांत में पाँच राजकुमारों में सर्वश्रेष्ठ सोंडर पंडी देवर (सुंदर पांड्य देवर) शासन कर रहा था। उसके राज्य में उत्तम कोटि के मोती मिलते थे। इस राज्य में कैल (ताम्रपर्णी नदी के मुहाने पर स्थित कायल) अत्यंत वैभवशाली नगर था। इस नगर में पाँच भाइयों में श्रेष्ठ अशर (शेखर) का शासन था। इस नगर में हारमोस, किस, अदन तथा अरबिया से घोड़ों तथा अन्य वस्तुओं से लदे जहाज आते-जाते थे। इस नगर का व्यापार अत्यधिक उन्नति पर था। राजा के पास एक विशाल खजाना था और वह स्वयं कीमती रत्न और जवाहरात धारण करता था। वह एक बड़े राज्य का स्वामी था और अपना शासन-संचालन बड़ी कुशलता से करता था। व्यापारियों और विदेशी यात्रियों के साथ उसका व्यवहार बहुत उदार और विनम्र था। वह उन्हें काफी रियायतें तथा सुविधाएँ देता था, जिसके परिणामस्वरूप व्यापारी खुशी से वहाँ आते-जाते थे। पांड्य राज्य की सामाजिक स्थिति की चर्चा करते हुए मार्कोपोलो लिखता है कि यहाँ के राजा के अंतःपुर में पाँच सौ रानियाँ थी। उसने मत्स्य पालन, घोड़े के व्यापार, सतीप्रथा और देवदासियों के बारे में भी लिखा है। उसके अनुसार पांड्य राज्य में सतीप्रथा प्रचलित थी और मंदिरों में देवदासियाँ देवताओं का मनोरंजन करती थी। उसने कुछ विचित्र प्रथाओं का भी उल्लेख किया है, जैसे- लोगों का नग्न रहना और दर्जियों का अभाव। उसके अनुसार यहाँ शकुन, ज्योतिष इत्यादि भी प्रचलित थे। उसने इस बात का भी संकेत किया है कि इस राज्य में बाहर से आने वाले घोड़े कुव्यवस्था एवं चिकित्सकों के अभाव में अकसर मर जाते थे, जिससे राज्य को अत्यधिक आर्थिक क्षति होती थी। उसके अनुसार कुछ सैनिकों के पास बड़े घटिया किस्म के औजार होते थे।
फारसी इतिहासकार अब्दुल्ल वस्सफ (1299-1323 ई.) का विवरण भी प्रायः मार्कोपोलो के विवरण के ही समान हैं। वस्सफ के अनुसार फारस की खाड़ी के द्वीपों की संपत्ति तथा ईराक एवं खुरासान से लेकर रोम (टर्की) तथा यूरोप की साज-सज्जा के विविध उपकरणों का स्रोत माबर ही था। माबर का शासक कालेस दीवार (कुलशेखर तेवर) का जीवन शान-शौकत से परिपूर्ण था। इसके शासनकाल में न तो किसी विदेशी शत्रु ने आक्रमण किया और न शासक किसी बड़ी बीमारी से प्रसित हुआ। इसकी तिजोरियाँ सोने से भरी थीं और माबर के खजाने में 1,200 करोड़ (सौ हजार) सुवर्ण मुद्राएँ जमा थीं। इसके साथ-साथ बहुत से कीमती पत्थर, मोती, जवाहरात आदि भी थे।
तत्कालीन राजनीतिक स्थिति की चर्चा करते हुए वस्सफ लिखता है कि पांड्यों की परिषदों में कुछ अरब व्यापारियों को भी महत्वपूर्ण पद मिले हुए थे। अब्दुर्रहमान नामक व्यक्ति प्रधानमंत्री था और कस्टम विभाग देखता था। बाद में, इसके पुत्र और प्रपौत्र भी इसी पद पर बने रहे। मार्कोपोलो तथा वस्सफ के पांड्य शासक एवं उसके राज्य के संबंध में दिये गये इन विवरणों का अन्य स्रोतों से भी समर्थन होता है।
मदुरा तत्कालीन विदेशी व्यापार का केंद्र था और उत्कृष्ट मोतियों के लिए प्रसिद्ध था। भारत में घोड़े बाहर से मँगाये जाते थे। किंतु यहाँ की जलवायु की प्रतिकूलता और कुछ अन्य कारणों से उनमें से अधिकांश की मृत्यु हो जाती थी। मार्कोपोलो का यह कहना कि यहाँ पाँच राजकुमारों का शासन था, इसका आशय यह नहीं है कि यहाँ संयुक्त शासन का प्रचलन था, बल्कि इसमें पांड्य प्रशासन में सहयोग देने वाले राजकुमारों की ओर संकेत किया गया है।
कुलशेखर पांड्य प्रथम के समकालीन पांड्य सह-शासक
समकालीन स्रोतों से पता चलता है कि कुलशेखर पांड्य प्रथम को प्रशासन में कम से कम चार पांड्य राजकुमारों से सहायता मिलती थी, राजकुमार जटावर्मन् सुंदरपांड्य द्वितीय (1277 ई.), मारवर्मन् विक्रम (विक्कीरमन) पांड्य (1283 ई.), जटावर्मन् वीरपांड्य द्वितीय (1296 ई.) और जटावर्मन् सुंदरपांड्य तृतीय (1303 ई.)। इन सह-शासकों के शासनकाल की तिथियाँ एक दूसरे से मिली-जुली है, इसलिए इनके शासनकाल और उपलब्धियों का अलग-अलग विवरण प्रस्तुत करना कठिन है, जैसे- जटावर्मन् सुंदरपांड्य और जटावर्मन् वीरपांड्य एक साथ शासन कर रहे थे। यही कारण है कि मार्कोपोलो ने कुलशेखर पांड्य प्रथम को ‘पाँच भाई राजाओं में सबसे ज्येष्ठ’ के रूप में उल्लेख किया है।
मृत्यु और गृहयुद्ध
कुलशेखर प्रथम के अंतिम दिन अत्यंत दुःखद थे। कुलशेखर पांड्य प्रथम की मृत्यु 1308 ईस्वी में हुई, जो उसके वैध पुत्र जटावर्मन् सुंदरपांड्य तृतीय और नाजायज ज्येष्ठ पुत्र जटावर्मन् वीरपांड्य द्वितीय के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष आरंभ हो गया। मुस्लिम इतिहासकार वस्सफ ने लिखा है कि सुंदर पंडी (जटावर्मन् सुंदरपांड्य तृतीय) कुलशेखर का ज्येष्ठ तथा औरस पुत्र था और तिरापडी (वीरपांड्य) उसकी उपपत्नी से उत्पन्न हुआ था। कुलशेखर प्रथम का झुकाव वीरपांड्य की ओर अधिक था और वह इसी को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। इसीलिए उसने वीरपांड्य को 1295-96 ई. में ही प्रशासन से संबद्ध कर लिया था, जबकि जटावर्मन् सुंदर तृतीय को यह दायित्व 1303 ई. में दिया गया। पिता कुलशेखर प्रथम के इस पक्षपातपूर्ण रवैये से असंतुष्ट सुंदरपांड्य तृतीय ने 1310 ई. में अपने पिता की हत्या कर दी और राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। कुलशेखर की हत्या से पांड्य राज्य की जनता और कुछ अधिकारी तथा सामंत सुंदरपांड्य तृतीय के विरुद्ध होकर वीरपांड्य का साथ देने लगे। इस प्रकार दोनों भाइयों के बीच गद्द़ी के लिए युद्ध छिड़ गया, जो 1308-1323 ई. तक चला। उत्तराधिकार की पहली लड़ाई तलची में हुई, किंतु कोई निर्णय नहीं हो सका। कुछ दिनों बाद वीर पांड्य ने एक दूसरे युद्ध में सुंदरपांड्य तृतीय को पराजित कर दिया। इस प्रकार कुलशेखर के दुखद अंत के बाद वीरपांड्य तृतीय पांड्य राजगद्दी पर बैठा।
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