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भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का उदय
क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास का स्वर्णयुग है। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में जब उग्रपंथी राष्ट्रवादी स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और निष्क्रिय प्रतिरोध के सिद्धांत के आधार पर सरकार के विरुद्ध शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे थे, उसी समय भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में उग्र राष्ट्रवाद की एक नई हिंसक विचारधारा का उदय हुआ, जिसे सामान्यतया ‘क्रांतिकारी आतंकवाद’ कहा जाता रहा है। किंतु क्रांतिकारियों के देशप्रेम और बलिदान की भावना का सम्मान करते हुए इसे ‘क्रांतिकारी राष्ट्रवादी आंदोलन’ कहना उचित लगता है। वास्तव में यह ‘अहिंसा से हिंसा की ओर और जनता की कार्रवाई से कुलीनों की कार्रवाई की ओर’ संक्रमण था, जिसकी आवश्यकता जनता को लामबंद न कर पाने की असफलता से पैदा हुई थी। उग्रपंथियों के सभा, जुलूस एवं बहिष्कार आदि साधनों की असफलता के बाद जुझारू नवयुवकों के लिए बम और पिस्तौल की राजनीति आवश्यक हो गई थी, क्योंकि उन्हें आजादी के लिए संघर्ष करने का और कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था।
क्रांतिकारी आंदोलन के उदय के कारण
क्रांतिकारी राष्ट्रवादी शीघ्रातिशीघ्र अपनी मातृभूमि को विदेशी दासता से मुक्त कराना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने आयरलैंड के राष्ट्रवादियों और रूसी निहिलिस्टों (विनाशवादियों) व पापुलिस्टों के संघर्ष के तरीकों को अपनाया। इन जुझारू राष्ट्रवादियों ने गुप्त समितियों की स्थापना की और बदनाम अंग्रेज अधिकारियों की हत्या की योजना बनाई, बम फेंके एवं गोलियाँ चलाईं। क्रांतिकारियों का मानना था कि इस तरह की हिंसात्मक कार्रवाई से अंग्रेजों का दिल दहल जायेगा, भारतीय जनता को संघर्ष की प्रेरणा मिलेगी और उनके मन से अंग्रेजी शासन का भय खत्म हो जायेगा। देखते-ही-देखते तमाम नवयुवक इस जुझारू संघर्ष में शामिल हो गये और आजादी के लिए ‘बलिदान’ नये खून का आदर्श बन गया। इस जुझारू क्रांतिकारी आंदोलन के उदय के अनेक कारण थे।
नवीन राष्ट्रीय चेतना का विकास
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में कई प्रकार के सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन हुए, जिससे लोगों में एक नई राष्ट्रीय एवं राजनैतिक चेतना का विकास हुआ। ब्रिटिश सरकार की आर्थिक शोषण की नीति के कारण भारतीयों में निरंतर दरिद्रता बढ़ती जा रही थी। जब 1896-97 में अकाल और प्लेग से बड़ी संख्या में लोग मारे गये, तो चापेकर बंधुओं ने ब्रिटिश सरकार की अकाल नीति से असंतुष्ट होकर दो अंग्रेज अधिकारियों की गोली मारकर हत्या कर दी। इसके अलावा, बढ़ती बेरोजगारी और अंग्रेजों की नस्लवादी भेदभाव की नीति से भी भारत के शिक्षित नवयुवकों में असंतोष निरंतर बढ़ता जा रहा था। इस असंतोष की अभिव्यक्ति अंततः इस ब्रिटिश विरोधी सशस्त्र आंदोलन के रूप में हुई।
उग्रवादी राजनीति की असफलता
उग्रवादी राजनीति की असफलता भी कुछ हद तक बम और पिस्तौल की राजनीति के लिए जिम्मेदार थी। गरमपंथियों ने विभाजन-विरोधी आंदोलन के दौरान स्वदेशी और बहिष्कार के साथ निष्क्रिय प्रतिरोध का भी आह्वान किया था। उन्होंने स्वदेशी और विभाजन-विरोधी आंदोलन को जनांदोलन बनाने की कोशिश की और विदेशी शासन से मुक्ति का नारा दिया। अरबिंद घोष ने स्पष्ट घोषणा की कि ‘‘राजनीतिक स्वतंत्रता किसी भी राष्ट्र की प्राणवायु है।’’ गरमपंथियों ने आत्म-बलिदान का आह्वान किया कि इसके बिना कोई भी महान् उद्देश्य प्राप्त नहीं किया जा सकता, किंतु वे जनता को सकारात्मक नेतृत्व देने में असफल रहे। उन्होंने जनता को जागृत तो कर दिया, किंतु वे यह नहीं समझ सके कि जनता की इस नई-नई निकली शक्ति का कैसे उपयोग किया जाए? 1908 तक गरमवादी राजनीति एक बंद गली में समा चुकी थी और सरकार दमन पर उतारू थी। उदारपंथी राजनीति पहले ही अव्यवहारिक हो चुकी थी। अब युवा वर्ग ने यह प्रश्न करना आरंभ कर दिया कि संवैधानिक तरीके अपनाने से क्या लाभ हुआ, जब उसका अंत बंगाल के विभाजन के रूप में ही होना था। शांतिपूर्ण प्रतिरोध और राजनीतिक कार्रवाई के सारे रास्ते बंद हो जाने पर विक्षुब्ध युवकों ने व्यक्तिगत वीरता और क्रांतिकारी आंदोलन की राह पकड़ ली।
ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति
जुझारू और क्रांतिकारी राजनीति के उदय में ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सरकार ने राष्ट्रवादी आंदोलन को दबाने की बहुत कोशिश की। 1907 और 1908 में बने दमनात्मक कानूनों ने किसी प्रकार के राजनीतिक आंदोलन को खुले रूप से चलाना असंभव बना दिया। प्रेस की स्वतंत्रता नष्ट कर दी गई और सभाओं, जुलूसों आदि पर प्रतिबंध लगा दिया गया। स्वदेशी कार्यकत्र्ताओं पर मुकदमे चलाये गये और उन्हें लंबी-लंबी सजाएँ दी गईं। अनेक छात्रों को शारीरिक दंड तक दिये गये। अप्रैल 1906 में बारीसाल में आयोजित बंगाल प्रांतीय सम्मेलन पर पुलिस ने हमलाकर अनेक युवा स्वयंसेवकों की बड़ी निर्ममता से पिटाई की और सम्मेलन को जबरदस्ती बंद करवा दिया। दिसंबर 1908 में कृष्णकुमार मित्र तथा अश्विनीकुमार दत्त जैसे नौ नेताओं को देशनिकाला दे दिया गया। इसके पहले 1907 में पंजाब के नहरी इलाके में हुए दंगे के बाद लाला लाजपत राय और अजीतसिंह देशबाहर कर दिये गये थे।
1908 में भारत सचिव लॉर्ड मार्ले ने वायसराय लार्ड मिंटो को लिखा था: ‘‘राजद्रोह और अन्य अपराधों के संबंध में जो दिल दहला देनेवाले दंड दिये जा रहे हैं, उनके कारण मैं चिंतित और चकित हूँ। हम व्यवस्था चाहते हैं, लेकिन व्यवस्था लाने के लिए घोर कठोरता के उपयोग से सफलता नहीं मिलेगी, इसका परिणाम उलटा होगा और लोग बम का सहारा लेंगे।’’ मांटेग्यू ने 1910 में स्वीकार किया कि ‘‘दंड-संहिता की सजाओं ने और चाकू चलाने की नीति ने साधारण एवं बिगड़े हुए नवयुवकों को शहीद बनाया और विप्लवकारी पत्रों की संख्या बढ़ा दी।’’
विदेशी घटनाओं का प्रभाव
क्रांतिकारी आंदोलन के उदय में विदेशों की घटनाओं की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यूरोप और एशिया में कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिससे भारत में भी आशा की किरण फूटी। 1905 में जापान के हाथों रूस की पराजय से पश्चिम की श्रेष्ठता का दंभ टूट गया। फ्रांस, अफ्रीका, आयरलैंड आदि देशों की जनता ने जिस प्रकार अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया, वह भारतीय युवकों के लिए आदर्श बन गया। अब भारतीय युवकों में यह भावना पैदा हो गई कि प्राण देने से पहले प्राण ले लो। इस प्रकार ‘उदारपंथियों के कार्यक्रम और कार्यरीति की असफलता से हुए मोह-भंग, यूरोप के देशों के क्रांतिकारी आंदोलनों तथा रुसी शून्यवादियों एवं अन्य यूरोपीय गुप्त दलों द्वारा अपनाये गये षड्यंत्रकारी आतंकवादी तरीकों के अध्ययन ने कुछ भारतीयों को हिंदुस्तान में भी आतंकवादी संगठन और कार्य-प्रणाली की प्रेरणा दी।
क्रांतिकारियों का उद्देश्य
क्रांतिकारियों का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश शासन का अंत करना था। वे अंग्रेजों को बोरिया-बिस्तर सहित भारत से खदेड़ना चाहते थे। वे क्रांतिकारी लेखों, कविताओं और भाषणों द्वारा जनता में देशप्रेम की भावनाएँ जागृत करते थे। क्रांतिकारियों का मानना था कि अंग्रेजी शासन पाशविक बल पर टिका है और यदि हम अपने आपको स्वतंत्र करने के लिए पाशविक बल का प्रयोग करते हैं, तो वह उचित ही है। इसके लिए वे हिंसा, लूट एवं हत्या जैसे साधनों का प्रयोग आवश्यक मानते थे। वे चाहते थे कि हिंसात्मक कार्यों के द्वारा विदेशी शासकों को आंतकित किया जाए और भारतीयों के इस भय को दूर किया जाए कि अंग्रेज शक्तिशाली एवं अजेय हैं। उन्होंने संगीत, नाटक एवं साहित्य आदि के द्वारा राष्ट्रवादी भावनाओं का प्रसार कर भारतीयों से उनके कार्यों में सहयोग देने की अपील की और युवाओं से इस कार्य के लिए आगे आने का आह्वान किया। उनका संदेश था कि, ‘तलवार हाथ में लो और सरकार को मिटा दो।’ क्रांतिकारी नेता बारींद्रकुमार घोष ने ‘युगांतर’ में लिखा था: ‘‘क्या शक्ति के उपासक बंगवासी रक्त बहाने से घबरा जायेंगे? इस देश में अंग्रेजों की संख्या एक-डेढ़ लाख से अधिक नहीं तथा एक जिले में उनकी संख्या बहुत ही कम है। यदि तुम्हारा संकल्प दृढ़ हो, तो अंग्रेजी राज एक दिन में ही समाप्त हो सकता है। देश की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन अर्पण कर दो, किंतु उससे पहले कम से कम एक अंग्रेज का जीवन समाप्त कर दो। देवी की आराधना पूरी न होगी यदि तुम एक और बलिदान दिये बिना देवी के चरणों में अपनी बलि चढ़ाओगे।’’
क्रांतिकारियों की कार्य-पद्धति
ब्रिटिश सरकार द्वारा 1918 में नियुक्त राजद्रोह-संबंधी जांँच समिति ने अपने प्रतिवेदन में क्रांतिकारियों द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक के सार का उल्लेख किया था: ‘‘यूरोपियनों को गोली से मारने के लिए अधिक शक्ति की आवश्यकता नहीं है। छिपे ढंग से शस्त्र, हथियार तैयार किये जा सकते हैं और भारतीयों को हथियार बनाने का कार्य सिखाने के लिए विदेशों में भेजा जा सकता है। भारतीय सैनिकों की सहायता अवश्य ली जानी चाहिए और उन्हें देशवासियों की दुर्दशा के बारे में समझाना चाहिए। शिवाजी की वीरता अवश्य ही याद रहे। क्रांतिकारी आंदोलन के प्रारंभिक व्यय के लिए चंदा इकट्ठा किया जाए, किंतु जैसे ही काम बढ़े, समाज (धनियों) से शक्ति द्वारा धन प्राप्त किया जाना आवश्यक है। चूँकि इस धन का प्रयोग समाज-कल्याण के लिए होगा, इसलिए ऐसा करना उचित है। राजनीतिक डकैती में कोई पाप नहीं होता।’’
क्रांतिकारी भारतीय सैनिकों को भी विदेशी शासकों के विरुद्ध शस्त्र उठाने की प्रेरणा देते थे। उनका विचार था कि आवश्यकता पड़ने पर गुरिल्ला युद्ध किया जाए। वे एक देशव्यापी संगठित क्रांति करके विदेशी शासन को उखाड़ फेंकना चाहते थे। उन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुप्त समितियों की स्थापना की और अपने सदस्यों को शस्त्र चलाने तथा बम बनाने का प्रशिक्षण देने का प्रबंध किया। इसके अतिरिक्त वे शिवाजी, भवानी, दुर्गा, काली आदि की पूजा द्वारा विदेशी शासकों के हृदय में आतंक उत्पन्न करते थे। वे मृत्यु की परछाई की भांति छिपे रहते थे और विदेशी अधिकारियों पर घातक वार करते थे। यदि वे पकड़े जाते, तो सरकार द्वारा दिये जानेवाले कठोर दंड को मातृभूमि के लिए हँस-हँसकर गले लगा लेते थे।
क्रांतिकारी आंदोलन के मुख्य केंद्र बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब, मद्रास, राजस्थान आदि थे। इस समय क्रांतिकारियों की दो विचारधाराएँ थीं- पहली विचारधारा के क्रांतिकारी नेता देश में हिंसात्मक कार्यक्रम, जैसे क्रूर ब्रिटिश अधिकारियों व पुलिस के मुखबिरों की हत्या करने में विश्वास करते थे। इस विचारधारा को बंगाल और महाराष्ट्र में अधिक समर्थन मिला, जहाँ जुझारू नवयुवकों ने गुप्त समितियों की स्थापना कर क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित किया। दूसरी विचारधारा के क्रांतिकारी अंग्रेजी राज का तख्ता पलटने के लिए भारतीय सेना की, और यदि संभव हो तो, अंग्रेजों के विरोधी-शक्तियों की सहायता लेने में विश्वास करते थे। यह विचारधारा पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अधिक प्रचलित थी। अनेक शिक्षित हिंदू और मुसलमान भारतीयों ने विदेशों से सहायता प्राप्त करने के लिए लंदन, पेरिस, संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में रहकर हिंसात्मक विद्रोह की योजना बनाई।
क्रांतिकारियों के भावी कार्यक्रम
इस चरण में क्रांतिकारियों के भावी कार्यक्रम स्पष्ट नहीं थे और वे मात्र इतना जानते थे कि संवैधानिक उपायों द्वारा अंग्रेजी शासन को खत्म नहीं किया जा सकता है, हिंसात्मक तरीकों से ही इस अत्याचारी शासन से मुक्ति मिल सकती है। इन राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों ने व्यक्तिगत हिंसा को महिमामंडन किया और नौजवानों, विशेषकर विद्यार्थी वर्ग को संगठित कर बारूद आदि बनाने के लिए प्रशिक्षित किया। उनका उद्देश्य अंग्रेज उच्चाधिकारियों, पुलिस के मुखबिरों तथा क्रूर अधिकारियों की हत्या करना था ताकि विदेशियों को आतंकित कर भारत-भूमि को छोड़ने के लिए विवश किया जा सके। किंतु स्वतंत्र भारत में कैसा समाज बनाया जाना चाहिए, इस ओर राष्ट्रवादी क्रांतिकारी कोई ध्यान नहीं दे सके।
इस प्रकार क्रांतिकारी भारतभूमि की रक्षा के लिए भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रेरित करते थे और वे अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए विदेशी शक्तियों से भी मदद लेना चाहते थे। उन्हें क्रांतिकारी इसलिए माना जाता है क्योंकि वे राष्ट्रीय भावना से ओतप्रेत थे और सशस्त्र क्रांति द्वारा देश को पराधीनता से मुक्त कराना चाहते थे। इतिहास गवाह है कि ‘‘उत्पीडि़कों ने किसी भी देश को अपनी खुशी से कभी आजादी नहीं दी, उनसे तो हमेशा सशस्त्र हथियारों से ही देश मुक्त किये गये हैं।’’
क्रांतिकारी गतिविधियाँ
महाराष्ट्र
राजनीतिक प्रतिरोध के एक ढंग के तौर पर हिंसा की संस्कृति भारत में, 1857 के विद्रोह के दमन के बाद भी, हमेशा मौजूद रही। महाराष्ट्र (1879) में वासुदेव बलवंत फड़के, जो संभवतः राष्ट्र की संपत्ति के दोहन पर रानाडे के व्याख्यानों, 1876-77 में दक्षिण में पड़नेवाले अकालों और पूना के ब्राह्मण बुद्धिजीवियों में बढ़ती हुई हिंदू पुनरुत्थानवादी प्रवृत्ति से प्रभावित थे, ने रामोशी और ढांगर जैसे दूसरे पिछड़े वर्गों का एक चालीस सदस्यीय गुप्तदल का गठन किया था। इस गुप्त दल ने डकैतियों के माध्यम से धन जमा करके अंग्रेजों के विरुद्ध एक हथियारबंद बगावत की और पुनः हिंदू राज स्थापित करने की योजना बनाई। यद्यपि फड़के 1879 में गिरफ्तार करके अदन भेज दिये गये, जहाँ वे गुमनामी की मौत मरे, किंतु इसमें बाद के क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का पूर्वाभास मिलता है।
व्यायाम मंडल
महाराष्ट्र में क्रांतिकारी आंदोलन को उभारने का श्रेय तिलक के पत्र ‘केसरी’ को है। उन्होंने 1893 ‘शिवाजी उत्सव’ मनाना आरंभ किया, जिसका उद्देश्य धार्मिक कम, राजनीतिक अधिक था। महाराष्ट्र में तिलक के दो शिष्यों- चापेकर बंधुओं (दामोदरहरि चापेकर व बालकृष्ण चापेकर) ने 1896-97 में ‘व्यायाम मंडल’ की स्थापना कर क्रांतिकारी आंदोलन की शुरूआत की। इस संगठन का उद्देश्य नौजवानों को संगठित कर विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देना था। दामोदरहरि चापेकर का मानना था: ‘‘नेशनल कांग्रेस बनाकर या भाषणबाजी करके कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। देश की भलाई तभी होगी, जब देश के करोड़ों लोग देश के लिए युद्ध-क्षेत्र में प्राणों की बाजी लगाने को और तलवार की धार पर चलने को तैयार होंगे।’’ 1896-1897 के बीच महाराष्ट्र में प्लेग फैल गया और अंग्रेज सरकार राहत पहुँचाने के बजाय दमन-कार्य में लगी रही। सरकारी नीतियों के प्रतिरोध में चापेकर बंधुओं ने 22 जून 1897 में पूना में प्लेग कमिश्नर मि. रैंड तथा आर्येस्ट की हत्या कर दी। 18 अप्रैल 1998 को दामोदर चापेकर को मृत्युदंड दिया गया।
व्यायाम मंडल के सदस्यों ने इस मृत्युदंड का प्रतिशोध 8 फरवरी 1899 को द्रविड़ बंधुओं की हत्या करके लिया, जिन्होंने धन के लालच में दामोदर चापेकर को गिरफ्तार करवाया था। इस बार बालकृष्ण चापेकर तथा महादेव रानाडे को फाँसी मिली और नाटू बंधुओं को देश निकाला की सजा। विद्रोह भड़काने के आरोप में तिलक को भी 18 माह के कारावास की सजा मिली।
अभिनव भारत
महाराष्ट्र में नासिक क्रांतिकारी आंदोलन का गढ़़ था। विनायक दामोदर सावरकर ने 1899 में नासिक में ‘मित्रमेला’ नामक संस्था की स्थापना की थी, जो 1904 में मेजिनी की ‘तरुण इटली’ (यंग इटली) के नमूने पर ‘अभिनव भारत’ नामक क्रांतिकारी संस्था में परिवर्तित हो गई। इस संस्था ने बम बनाने की जानकारी प्राप्त करने के लिए पांडुरंग महादेव को पेरिस भेजा, जहाँ उन्होंने रूसी क्रांतिकारियों से बम बनाने की कला सीखी। कुछ ही वर्षों में महाराष्ट्र, कर्नाटक व मध्य प्रदेश में गुप्त समितियों का जाल बिछ गया। इन समितियों ने नासिक, बंबई एवं पूना आदि स्थानों पर बम बनाने की गुप्त फैक्टरियाँ स्थापित की और पुस्तिकाओं के प्रकाशन एवं वितरण, गणपति एवं शिवाजी उत्सवों तथा राष्ट्रवादी गीतों के माध्यम से महाराष्ट्र की जनता को देश के लिए मर-मिटने की प्रेरणा दी। 1906 में वी.डी. सावरकर लंदन चले गये और श्यामजी कृष्णवर्मा का हाथ बँटाने लगे।
नासिक षड्यंत्र केस
विनायक दामोदर सावरकर ने लंदन से 1909 में गुप्त रूप से गणेश सावरकर 20 ब्राउनिंग पिस्तौलें भेजी, किंतु इनके भारत पहुँचने के पहले ही 2 मार्च 1909 को गणेश राष्ट्रवादी कविताएँ लिखने के अपराध में गिरफ्तार कर लिये गये। 9 जून 1909 को बंबई उच्च न्यायालय ने गणेश सावरकर को सम्राट के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के अभियोग में आजीवन देशनिकाला की सजा दी। ‘अभिनव भारत’ समूह के कर्वे गुट के अनंत लक्ष्मण कन्हारे ने 21 दिसंबर 1909 को नासिक के जिला मजिस्ट्रेट जैक्सन की गोली मारकर हत्या कर दी। इस हत्या में लंदन से भेजी गई ब्राउनिंग पिस्तौलों में से एक का प्रयोग किया गया था। ‘नासिक षड्यंत्र केस’ के तहत 37 व्यक्तियों पर मुकदमा चलाया गया जिसमें अनंत लक्ष्मण कन्हारे, कृष्णजी गोपाल कर्वे तथा विनायक नारायण देशपांडे को 19 अप्रैल 1911 को फाँसी दे दी गई, 26 लोगों को कड़ी सजाएँ दी गईं। इस कांड में गणेश के भाई दामोदर सावरकर को लंदन से गिरफ्तार कर नासिक लाया गया और उन्हें आजीवन निर्वासन की सजा मिली। इसके बाद महाराष्ट्र में कुछ समय के लिए क्रांतिकारी गतिविधियाँ थम-सी गईं।
नासिक जैसा एक नवभारत समूह ग्वालियर में भी था। यहाँ सिंधिया की निरंकुशता की छाया में काम करने के अनुभव के फलस्वरूप उन भ्रांत धारणाओं से नाता पूर्णतः टूट गया जिन्हें तब अन्य भारतीय क्रांतिकारी एवं राष्ट्रवादी संजोये हुये थे। नवभारत सोसायटी का लक्ष्य था- गणतंत्र ‘क्योंकि सब देसी राजा कठपुतलियाँ मात्र’ थे। फिर भी महराष्ट्र में बंगाल की तरह क्रांतिकारी गतिविधियाँ कभी विकट रूप धारण नहीं कर सकीं। नासिक एवं ग्वालियर के षडयंत्रों के बाद इसका कोई समाचार नहीं मिलता।
बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
यद्यपि क्रांतिकारी विचारधारा का जन्म महाराष्ट्र में हुआ, किंतु सशस्त्र क्रांति के सर्वाधिक समर्थक बंगाल में थे और यही क्रांतिकारी आंदोलन का प्रमुख केंद्र भी था। बंगाल में राष्ट्रवादी आंदोलन का विकास 1860 और 1870 के दशक से ही होता आ रहा था, जब शारीरिक व्यायाम आंदोलन का उन्माद छाया हुआ था और जिन चीजों को स्वामी विवेकानंद ने ‘मजबूत पसलियाँ और लाहे की नसें’ कहा था, उनके विकास के लिए हर जगह अखाडे़ कायम होने लगे थे।
वास्तव में उपनिवेशवाद ने बंगालियों के ‘स्त्रैण’ होने की जो छवि कायम कर दी थी, यह सब उससे निकलने का एक मनोवैज्ञानिक प्रयास था, जो उनकी मर्दानगी की पुनस्र्थापना और शूरवीरों की तलाश, शरीर पर नियंत्रण पाने, राष्ट्रीय गर्व की एक भावना विकसित करने तथा बंकिमचंद्र और विवेकानंद के बताये आदर्शों के आधार पर सामाजिक सेवा की एक भावना जगाने के लिए नैतिक और आध्यात्मिक प्रशिक्षण के एक वृहत्तर कार्यक्रम का अंग थीं।
अनुशीलन समिति
इन समितियों की स्थापना रूस तथा इटली की गुप्त संस्थाओं के तर्ज पर की गई थीं। इनका उद्देश्य था- क्रांतिकारी साहित्य द्वारा क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रचार करना और नवयुवकों को मानसिक व शारीरिक रूप से शक्तिशाली बनाना, ताकि वे अंग्रेजों का डटकर मुकाबला कर सकें। इनकी गुप्त योजनाओं में बम बनाना, शस्त्र-प्रशिक्षण देना व दुष्ट अंग्रेज अधिकारियों तथा उनके पिट्ठुओं का वध करना शामिल था।
बंगाल में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद ने विभिन्न रूप धारण किये-दमनकारी अधिकारियों अथवा देशद्रोहियों की हत्या, धन जमा करने के लिए स्वदेशी डकैतियाँ या अधिक से अधिक इस आशा से सैन्य-षडयंत्र कि इसमें उन्हें अंग्रेजों के विदेशी शत्रुओं से सहायता मिलेगी। धन जमा करने के लिए पहला स्वदेशी डाका अगस्त 1906 में रंगपुर में डाला गया और पेरिस में एक रूसी अप्रवासी से सैन्य (थोड़ा-बहुत राजनीतिक) प्रशिक्षण प्राप्त कर हेमचंद्र कानूनगो जनवरी 1908 में कलकत्ता के उपनगर माणिकतल्ला में एक संयुक्त धार्मिक पाठशाला एवं बम बनाने का एक कारखाना शुरू किये।
मुजफ्फरपुर बमकांड
युगांतर समूह ने 6 दिसंबर 1907 को मिदनापुर के निकट अलोकप्रिय लेफ्टिनेंट गवर्नर फुलर की रेलगाड़ी को बम से उड़ाने का असफल प्रयास किया। 23 दिसंबर 1907 को फरीदपुर स्टेशन पर ढाका के पूर्व जिलाधीश एलेन की पीठ पर गोली मारी गई।
इसके पश्चात् खुदीराम बोस और उनके साथी प्रफुल्ल चाकी ने 30 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर के जज किंग्सफोर्ड को मारने की योजना बनाई, किंतु दुर्भाग्य से इस बमकांड में पिंगल कैनेडी की पत्नी एवं उनकी पुत्री मारी गईं। पुलिस से घिरा देख प्रफुल्ल चाकी ने स्वयं को गोली मार ली, किंतु खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर 8 जून 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया।
सोलह वर्षीय खुदीराम बोस ने अदालत में कहा: ‘‘अंग्रेज मेरे देश के दुश्मन हैं। दुश्मन के न्यायालय में कभी न्याय नहीं मिलता। फाँसी मेरे लिए सजा नहीं, वरन् सबसे बड़ा उपहार है।’’ 13 जून को खुदीराम को फाँसी की सजा सुनाई गई और 11 अगस्त 1908 को फाँसी पर लटका दिया गया। खुदीराम बोस बंगाल के क्रांतिकारियों के लिए राष्ट्रीय वीर तथा शहीद बन गये। युवकों ने ऐसी धोतियाँ पहनीं, जिनके किनारे पर खुदीराम बोस लिखा था। स्कूल दो-तीन दिन के लिए बंद कर दिये गये और उनकी स्मृति में श्रद्धांजलियाँ अर्पित की गईं तथा उनके चित्र बाँटे गये।
मुरारीपुकुर पर छापा
मुजफ्फरपुर बमकांड से भयभीत ब्रिटिश सरकार और उसकी पुलिस ने क्रांतिकारी संस्थाओं को खत्म करने के लिए कलकत्ता के अनेक स्थानों पर छापामारी शुरू कर दी। पुलिस ने माणिकतल्ला में क्रांतिकारियों के निवासस्थान 34, मुरारीपुकुर पर छापा मारा, जिसमें कुछ बम, डायनामाइट और कारतूस बरामद हुए।
अलीपुर षड्यंत्र केस
मुकदमे के दौरान पुलिस डिप्टी सुपरिटेंडेंट की कलकत्ता हाईकोर्ट में गोली मारकर हत्या कर दी गई। कन्हाईलाल दत्त और सत्येंद्र बोस ने सरकारी गवाह नरेंद्र गोसाई की भी गोली मारकर हत्या कर दी। उन दोनों पर भी मुकदमा चला और फाँसी की सजा मिली। 12 फरवरी 1910 को केस के निर्णय में अरविंद तो रिहा कर दिये गये, किंतु बारींद्र और उल्लासकर दत्त को मौत की सजा दी गई तथा दस अन्य को उम्रकैद की सजा मिली। अपील के बाद मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया गया। कुछ दूसरी सजाएँ भी कम की गईं। बंगाल के ‘संध्या’ एवं ‘युगांतर’ तथा महाराष्ट्र के ‘काल’ में क्रांतिकारियों के कार्यों की मुक्तकंठ से प्रशंसा की गई और उनके समर्थन में लेख लिखे गये।
बंगाल में बढ़ रही क्रांतिकारी गतिविधियों को रोकने के लिए सरकार ने 1900 में विस्फोटक पदार्थ अधिनियम तथा 1908 में समाचारपत्र (अपराध-प्रेरक) अधिनियम द्वारा प्रेस को जब्त करने और समाचारपत्रों के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार प्राप्त कर लिया और इसे पूरे भारत में लागू किया। तीन समाचारपत्रों पर मुकदमा चलाया गया और राजद्रोह के लिए उन्हें सजा दी गई। सरकारी दमन के कारण अरबिंद घोष क्रांतिकारी क्रियाकलापों से विरत होकर संन्यासी हो गये और पांडिचेरी में अपना आश्रम स्थापित कर लिये। ब्रह्म बंद्योपाध्याय, जिन्होंने सर्वप्रथम रवींद्रनाथ टैगोर को ‘गुरुदेव’ कहकर संबोधित किया था, रामकृष्ण मठ में स्वामी बन गये।
सरकार की दमनात्मक कार्यवाही के बावजूद बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ समाप्त नहीं हुईं। दिसंबर 1911 में विभाजन को रद्द करनेवाली राजसी ‘वरदान’ का भी इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। सुदृढ़ रूप से संगठित ढ़ाका अनुशीलन, जिसकी अब सारे प्रांत में और उसके बाहर भी शाखाएँ थीं, धन जुटाने के लिए स्वदेशी डकैतियों तथा अधिकारियों एवं देशद्रोहियों की हत्या करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा था।
अगस्त 1914 में क्रांतिकारियों को एक बड़ी सफलता मिली जब उन्हें रोडा फार्म के एक कर्मचारी की सहायता से 50 माउजर पिस्तौलें और 46,000 कारतूस प्राप्त हुए। इस समय राजनीतिक हत्याएँ और डकैतियाँ अपने शिखर पर थीं-1907-17 के बीच 64 हत्याएँ हुईं, जिनमें पुलिस अधिकारी, वकील, मुखबिर और क्रांतिकारियों के विरुद्ध गवाही देनेवाले शामिल थे। सरकारी सूत्रों के अनुसार इन्हीं वर्षों में 112 डकैतियाँ, 12 विस्फोट और तीन रेलगाडि़यों को उड़ाने की कोशिश की गई।
जतींद्रनाथ मुखर्जी (1879-1915)
बंगाल के अधिकांश क्रांतिकारी समूह युगांतर पार्टी के मुख्य नेता जतींद्रनाथ मुखर्जी (जिन्हें लोग प्यार से ‘बाघा जतीन’ कहते थे) के नेतृत्व में संगठित थे। इन लोगों ने रेल यातायात भंग करने, फोर्ट विलियम पर अधिकार करने (वहाँ की 16वीं राजपूत राइफल्स से संपर्क स्थापित कर लिया गया था) तथा जर्मनी से हथियार मँगवाने (जिसके लिए नरेन भट्टाचार्य को जावा भेजा जा चुका था) की योजना बनाई, किंतु एक क्रांतिकारी प्रयास में जतीन को पुलिस ने उड़ीसा के समुद्रतट पर स्थित बालासोर के निकट ‘काली पोक्ष’ (कप्तिपोद) में पकड़े गये और वे वहीं 9 सितंबर 1915 को वीरगति को प्राप्त हुए।
रासबिहारी बोस और शचींद्रनाथ सान्याल दूरदराज के क्षेत्रों- पंजाब, दिल्ली एवं सयुंक्त प्रांत में क्रांतिकारी आंदोलन के लिए गुप्त समितियों का गठन करते रहे।
बंगाली क्रांतिकारियों की उपलब्धियाँ
प्रत्यक्ष लाभ की दृष्टि से बंगाली क्रांतिकारियों की उपलब्धियाँ नगण्य रहीं, उनके अधिकतर प्रयास या तो असफल हो गये या बना दिये गये। कभी-कभार उभरनेवाली वैयक्तिक आकांक्षाओं के बावजूद यह आंदोलन कभी शहरी जन-आंदोलन अथवा ग्रामीण क्षेत्रों में छापामार आधारों की स्थापना के स्तर तक नहीं पहुँच सका। आरंभ की अधिकांश गुप्त संस्थाओं की गहन धार्मिकता ने मुसलमानों को या तो इससे अलग रखा या उनमें वैमनस्य उत्पन्न कर दिया। फिर भी, खुदीराम की फाँसी और माणिकतल्ला बम षड्यंत्र मुकदमे ने, जिनको प्रेस ने प्रचारित किया और लोकगीतों ने अमर बना दिया, पूरी बंगाली जनता की सोच को प्रेरित किया। अब क्रांतिकारी गतिविधियों को जनमानस में वैधता मिली और अनेक लोग मानने लगे कि यह नरमपंथियों की याचना की नीतियों का एक प्रभावी विकल्प था। 1909 में जब मार्ले-मिंटो सुधारों की घोषणा हुई, तो अनेक लोगों ने यही समझा कि यह क्रांतिकारी कार्यों से पैदा हुए डर का परिणाम था। वायसराय की कार्यकारी परिषद् में विधि सदस्य के रूप में लार्ड एस.पी. सिन्हा की नियुक्ति और 1911 में बंगाल के विभाजन की निरस्ति जैसे कदम भी ऐसे दबावों से एकदम असंबद्ध तो नहीं ही रहे होंगे।
संयुक्त प्रांत (बनारस) में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
संयुक्त प्रांत में क्रांतिकारी आंदोलन का केंद्र बनारस था, जहाँ मराठी और विशेष रूप से बंगाली बड़ी संख्या में रहते थे। यहाँ एक क्रांतिकारी समूह बड़ी तेजी से उभरा जिसने मुखदाचरण समाध्याय (1907 में बह्मबांधव की मृत्य के बाद संध्या के संपादक) के माध्यम से कलकत्ता से संपर्क बनाये रखा। इस समूह के शचींद्रनाथ सान्याल ने 1908 में बनारस में ‘अनुशीलन समिति’ की स्थापना की, जिसका नाम 1910 में ‘युवक समिति’ कर दिया गया।
संयुक्त प्रांत में जन-राजनीति के अवसर बहुत कम थे, इसलिए सुंदरलाल जैसे विद्यार्थी शीघ्र ही क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की ओर झुक गये। इसके अलावा यह प्रदेश, विशेषकर बनारस अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण बंगाल और पंजाब के क्रांतिकारी समूहों का मिलन-स्थल बन गया और इस रूप में क्रांतिकारी योजनाओं के लिए महत्त्वपूर्ण हो गया था।
पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
बीसवीं शताब्दी के आरंभ में जब संपूर्ण देश में क्रांतिकारी गतिविधियों का बोलबाला था, तो पंजाब भी इससे अछूता नहीं रहा। इस क्षेत्र में संगठित क्रांतिकारी आंदोलन का आरंभ 1906 में हुआ। यहाँ के क्रांतिकारी आंदोलन के प्रेरणास्रोत सरदार अजीतसिंह, सूफी अंबाप्रसाद, लाला पिंडीदास एवं लालचंद्र ‘फलक’ थे। इन लोगों ने सभाओं एवं क्रांतिकारी साहित्य के द्वारा पंजाब के लोगों में जागृति लाने के लिए वही कार्य किया, जो बंगाल में बंकिमचंद्र चटर्जी तथा अन्य बंगाली लेखकों ने किया। 1907 के कुछ महीनों में पंजाब में स्थिति एकदम ही बदल गई जिसका कारण अंग्रेज सरकार की ओर से लगातार भड़कानेवाली की गई कार्रवाइयाँ थीं। पंजाब सरकार के एक उपनिवेशीकरण विधेयक (लैंड एलियनेशन ऐक्ट) के कारण शहरी व्यापारी एवं व्यवसायिक समूहों नाराज थे। इस ऐक्ट का उद्देश्य चिनाब नदी के क्षेत्र में भूमि की चकबंदी को हतोत्साहित करना तथा संपत्ति के विभाजन के अधिकारों में हस्तक्षेप करना था। इस पूरे क्षेत्र का नियंत्रण गोरे आबादकारी अधिकारियों के हाथ में था जो बड़े ही कठोर नौकरशाहाना एवं निरंकुश ढंग से कार्य करते थे। जब सरकार ने इस व्यवस्था को और कठोर बनाने के लिए अक्टूबर 1906 में चिनाब कालोनीज बिल का प्रस्ताव किया तो इसके विरोध में 1907 में सरदार अजीतसिंह, भाई परमानंद तथा लाला हरदयाल ने एक गरमवादी आंदोलन को जन्म दिया, जो पंजाब में अपनी तरह का पहला क्रांतिकारी आंदोलन था। इन नेताओं ने क्रांतिकारियों को संगठित कर सशस्त्र विद्रोह के द्वारा अंग्रेजी राज्य को उलटने की योजना बनाई। इसके विरोध में 1903 में एक आंदोलन संगठित हुआ था जिसमें प्रमुख भूमिका सिराजुद्दीन की थी जो ‘जमींदार’ नामक अखबार निकालते थे।
इसी बीच सरकार ने नवंबर 1906 में बार दोआब क्षेत्र (अमृतसर, गुरुदासपुर और लाहौर जिले जहाँ मुख्यतः सिख किसान रहते थे) में नहर की पानी की दर में 25 से 50 प्रतिशत तक की वृद्धि और रावलपिंडी में भू-राजस्व में वृद्धि कर दी, जिसके कारण लाहौर तथा रावलपिंडी में विद्रोह हो गया। यद्यपि मई 1907 में लाला लाजपत राय को किसानो को भड़काने के जुर्म में देशनिकाला दिया गया, किंतु उनकी वैयक्तिक भूमिका बड़ी संयमकारी थी। वस्तुतः कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थे अजीतसिंह जिन्होंने लाहौर में ‘अंजुमन-ए-मोहिब्बान-ए-वतन’ नामक एक संस्था की स्थापना की और ‘भारत माता’ नाम से एक अखबार निकाला जो हिंदू और मुसलमान नामों का एक ऐसा मेल थे जिसे देखकर इबेटसन घबड़ा गये। उन्होंने ‘भारत माता’ में अनेक क्रांतिकारी लेख लिखे तथा चिनाबवासियों और बारी दोआब क्षेत्र के किसानों को भू-राजस्व और पानी का शुल्क न देने का आह्वान किया। पंजाब के लेफ्टीनेंट गवर्नर सर डेनियाल इबेटसन ने घबड़ाकर ब्रिटिश सरकार को लिखा कि ‘‘सरकारी राजस्व, पानी का शुल्क और अन्य शुल्कों की नाअदायगी का इरादा अत्यंत खतरनाक है’’ और इसे रोकने लिए ‘कड़ी कार्रवाई’ आवश्यक है। अजीतसिंह ने मई 1907 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की अर्धशताब्दी मनाई, जिसमें जनता से सरकार के विरुद्ध विद्रोह करने को कहा गया।
क्रांतिकारी आंदोलन के प्रारंभ होते ही पंजाब सरकार ने विभिन्न प्रकार के दमनकारी कदम उठाकर स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास किया। सरकार ने मई 1907 में एक कानून बनाकर सार्वजनिक सभाओं तथा समितियों को प्रतिबंधित कर दिया और लाला लाजपतराय तथा अजीतसिंह को गिरफ्तार कर देशनिकाला दे दिया। किंतु 1909 में सरकार ने बुद्धिमत्तापूर्वक अपनी भूमि-संबंधी नीति में कुछ रियायतें देकर थोड़ी नरमी भी दिखाई, जैसे चिनाब कालोनीज बिल पर वायसराय का वीटो, पानी के शुल्क में कमी, और सिंतंबर 1907 में लाजपतराय और अजीतसिंह की रिहाई। आर्यसमाजी नेताओं ने तुरंत राजभक्ति दिखाई और वे सांप्रदायिक राजनीति में लौट गये। 1908-09 तक अधिकांश जिलों में ठप पड़े कांग्रेस संगठनों का स्थान हिंदू सभाओं ने ले लिया। 1908 में लाला हरदयाल यूरोप चले गये और नेतृत्व की बागडोर मास्टर अमीचंद्र को सौंप गये। फलतः पंजाब में क्रांतिकारी घटनाएँ एक प्रकार से बंद हो गईं।
मद्रास में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
मद्रास प्रेसीडेंसी में बंगाल के साथ सहानुभूति दर्शाने के लिए 1906 के बाद से ही वंदेमातरम् आंदोलन के अंतर्गत सभाएँ आयोजित की जा रही थीं। इस आंदोलन को अप्रैल 1907 में विपिन पाल के दौरे से बड़ा बल मिला। उनके राष्ट्रवादी विचारों का मद्रास के नवयुवकों पर काफी प्रभाव पड़ा। फलतः सरकार ने विपिनचंद्र पाल को बंदी बना लिया तथा उन पर अभियोग चलाकर उन्हें छः मास के कारावास का दंड दिया। इससे मद्रास के नवयुवकों में उत्तेजना फैल गई। पाल के जेल से मुक्त होने पर उनका स्वागत करने हेतु एक सभा का आयोजन किया गया, लेकिन सरकार ने सभा के आयोजकों को बंदी बना लिया। इसकी प्रतिक्रिया में तिरुनेवेली में उपद्रव हुए, कई सरकारी भवनों में आग लगा दी गई और दफ्तरों के फर्नीचर तथा रिकार्ड जला दिये गये। सरकार ने दमन-चक्र चलाते हुए आंदोलनकारी नेताओं तथा पत्र-संपादकों को बंदी बना लिया और उन पर मुकदमा चलाया। इसके प्रतिशोधस्वरूप बाँचीनाथन अय्यर (1886-1911) ने 1911 में तिरुनेवेली के मजिस्ट्रेट ऐश की गोली मारकर हत्या कर दी।
गुजरात और दिल्ली में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
सरकार के निर्मम दमन के बावजूद क्रांतिकारी गतिविधियाँ देश के विभिन्न भागों में संचालित होती रहीं। राजस्थान में क्रांतिकारी आंदोलन का नेतृत्व अर्जुनलाल सेठी, भारत केसरी सिंह तथा राव गोपाल ने किया। गुजरात भी क्रांतिकारियों के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। 13 नवंबर 1909 को अहमदाबाद में लार्ड तथा लेडी मिंटो की गाड़ी को बम से उड़ाने का असफल प्रयास किया गया। बिहार में भी बंगाल के प्रभाव से क्रांतिकारी आंदोलन का प्रसार हुआ।
चाँदनी चौक कांड
चूंकि बंगाल क्रांतिकारी गतिविधियों को केंद्र बन चुका था, इसलिए सरकार ने 1911 में कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाई। जब लार्ड हार्डिंग भारत के वायसराय बनकर आये, तो उनके सम्मान में 23 दिसंबर 1912 को दिल्ली में एक भव्य जुलूस निकाला गया। जब जुलूस चाँदनी चौक से गुजर रहा था, तब बंगाल के एक महान् क्रांतिकारी रासबिहारी बोस ने वायसराय पर बम फेंका। इसमें वायसराय का अंगरक्षक घटनास्थल पर ही मारा गया और वायसराय बेहोश हो गये। पुलिस की सक्रियता के बावजूद रासबिहारी बोस पुलिस के हाथ नहीं आये और जापान चले गये। रासबिहारी बोस के इस कार्य से भारतीयों को लगा कि ‘मातृभूमि वीरों से खाली नहीं हुई है।’
दिल्ली षड्यंत्र केस
चाँदनी चौक कांड में पुलिस ने 13 लोगों को गिरफ्तार कर ‘दिल्ली षड्यंत्र केस’ के तहत मुकदमा चलाया, जिसमें अवधबिहारी, अमीचंद्र, लालमुकुंद, बसंतकुमार विश्वास को मृत्युदंड और चरनदास को आजीवन कालापानी की सजा मिली।
ब्रिटिश सरकार की नीति
क्रांतिकारी आंदोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार ने दमन-नीति के साथ-साथ उदारपंथी तत्त्वों को संतुष्ट करने की भी कोशिश की और 1909 के अधिनियम (मार्ले-मिंटो सुधार) द्वारा मुसलमानों को पृथक् निर्वाचन का अधिकार देकर सांप्रदायिकता का जहर बोया। किंतु अंग्रेज-मुस्लिम मित्रता दो वर्ष के बाद ही क्षीण होने लगी। दिसंबर 1911 में चार्ल्स पंचम द्वारा दिल्ली दरबार में
बंगाल-विभाजन की निरस्ति और प्रथम विश्वयुद्ध में तुर्की के विरुद्ध ब्रिटेन की युद्ध-घोषणा के कारण 1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग में ‘लखनऊ समझौता’ हो गया।
क्रांतिकारियों का योगदान
क्रांतिकारियों के छोटे-छोटे गुट साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी सत्ता के दमन के सामने नहीं टिक सके। व्यापक जनाधार के बिना व्यक्तिगत वीरता साम्राज्यवाद से कब तक लोहा लेती? फिर भी, इन मुट्ठीभर क्रांतिवीरों ने जिस अदम्य साहस व बलिदान का परिचय दिया, उससे भारतीय नवयुवकों को स्वतंत्रता संघर्ष में भागीदार बनने की प्रेरणा मिली। राष्ट्रवादी क्रांतिकारी अपने संघर्ष की सीमाओं से परिचित थे। बारींद्र घोष ने स्वीकार किया था: ‘‘इन हिंसात्मक तरीकों यानी अंग्रेजों को मारकर हम देश को स्वतंत्र करवाने की आशा नहीं करते थे, किंतु हम लोगों को दिखाना चाहते थे कि हमें देश के लिए साहस के साथ मरने के लिए तैयार रहना चाहिए।’’ क्रांतिकारियों की राजनीति जनांदोलन की राजनीति नहीं थी, जिसके कारण वे जनता को राजनीतिक रूप से उद्वेलित करने में असफल रहे। राजनीतिक रूप से चेतन अधिकांश लोग भी क्रांतिकारियों के राजनीतिक दृष्टिकोण से सहमत नहीं थे, फिर भी ये क्रांतिकारी अपनी अदम्य वीरता और अपने सर्वस्व समर्पण की भावना के कारण बहुत लोकप्रिय हुए। उन्होंने हमें अपने मनुजत्व पर गर्व करना फिर से सिखाया।
राष्ट्रवादी क्रांतिकारी ‘अराजकतावादी’ या ‘आतंकवादी’ नहीं थे। उन्होंने कभी भी देश में अराजकता फैलाने का प्रयास नहीं किया। उनका उद्देश्य समाज में आतंक का राज स्थापित करना नहीं था। वे तो केवल ब्रिटिश शासकों के मन में उनके अत्याचारों के विरुद्ध आतंक पैदा करना चाहते थे। यद्यपि उनके द्वारा अपनाये गये साधन उचित नहीं थे, फिर भी वे लुटेरे और हत्यारे नहीं थे। वे केवल उसी ब्रिटिश अधिकारी की हत्या करते थे, जो भारतीय जनता और देशभक्तों पर जुल्म और अत्याचार करते थे। हत्या की ऐसी घटनाएँ व्यक्तिगत प्रतिशोध के स्थान पर राष्ट्रीय प्रतिशोध का परिणाम थीं। इसलिए इन क्रांतिकारियों की देशभक्ति, आदर्शवादिता और सर्वस्व समर्पण की भावना पर किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।
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