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ब्रिटिश भारत में किसान आंदोलन
प्रायः माना जाता है कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में किसानों की कोई सार्थक भूमिका नहीं रही है, किंतु ऐसा नहीं है। भारतीय किसानों ने ब्रिटिश राज की स्थापना के समय से ही लगान की ऊँची दरों, अवैध करों, भेदभावपूर्ण बेदखली एवं जमींदारी क्षेत्रों में बेगार जैसी बुराइयों से त्रस्त होकर परजीवी बिचौलियों, लोभी साहूकारों, अधिकारियों के भ्रष्ट तौर-तरीकों और जमींदार-दरोगा गठजोड़ के विरुद्ध अपना विरोध प्रकट करना शुरू कर दिया था। ब्रिटिश राज में समय-समय पर होनेवाले तमाम किसान आंदोलनों ने न केवल देश के स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि अंग्रेजी सत्ता की नींव को भी झकजोर दिया था।
आरंभिक किसान आंदोलन
संन्यासी विद्रोह ने 1763 और 1800 के बीच उत्तरी बंगाल को और बिहार के साथ लगे क्षेत्रों को हिलाकर रख दिया था। हथियारबंद घुमक्कड़ संन्यासियों के समूह कंपनी की मालगुजारी की भारी माँगों, माफी की जमीनों की जब्ती और व्यापार पर एकाधिकार से असंतुष्ट थे। संन्यासी विद्रोह के समानांतर भूमिकर में वृद्धि के कारण बंगाल के मिदनापुर के चुआर किसानों ने 1766-72 में विद्रोह किया। तमिलनाडु (मालाबार) में 1790 में पोलिगारों के प्रतिरोध, बंगाल के उत्तरी जिलों में 1783 के रंगपुर विद्रोह किसानों के प्रतिरोध के आदर्श उदाहरण हैं।
किसान विद्रोहों का यह सिलसिला 19वीं सदी में बदस्तूर जारी रहा। 1806-16 में मेदिनीपुर जिले के नायकों ने, 1842-43 में बुंदेलों ने, पूर्वी बंगाल के शेरपुर परगना में पागलपंथियों ने और 1838-57 के बीच बंगाल के फरैजियों ने जमींदारों, निलहे साहबों और ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध विद्रोह किया।
1840 और 1850 के दशकों में दक्षिण भारत के मलाबार क्षेत्र में मोपलों ने अति आकलन, अवैध करों के भारी बोझ तथा न्यायपालिका और पुलिस के जमींदार-समर्थक रवैये के कारण हिंदू जेनमियों (जमींदारों) और अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया था। इसी प्रकार जंगलों और उसके आसपास रहनेवाले आदिवासी किसानों ने भी स्थानीय संसाधनों पर ब्रिटिश राज के नियंत्रण, उसकी शोषणकारी नीतियों और गैर-आदिवासी कारिंदों और ब्रिटिश अधिकारियों की ज्यादतियों के विरुद्ध जुझारू संघर्ष किये। खानदेश के भीलों ने 1819 व 1825 में और अहमद नगर जिले के कोल आदिवासी किसानों ने 1829 और 1844-46 में ब्रिटिश सरकार की सफलतापूर्वक अवज्ञा की।
बिहार और उड़ीसा के छोटानागपुर और सिंहभूमि क्षेत्र में 1831-32 में कोलों ने और जुलाई, 1855 में संथालों ने तीर-कमानों से लैस होकर अपने उत्पीड़कों, महाजनों और सरकार की तिकड़ी के विरुद्ध खुला विद्रोह किया।
यही नहीं, असम के अहोमों, पूना के कोलों तथा रामोसियों, ओखा मंडल के बघेरों, नागर प्रांत में गडकरियों और उड़ीसा के पाइकों ने भी लगान की बढ़ी दर के विरुद्ध हथियार उठाये।
यद्यपि आरंभिक चरण के किसान आंदोलनों का स्वरूप गरमवादी था, किंतु सीमित उद्देश्य, वर्ग-जागृति की अनुपस्थिति, सामंती नेतृत्व और उसका औपनिवेशिक शासन से गठजोड़ तथा व्यवस्थित संगठन के अभाव में आरंभिक किसान आंदोलन किसी सुनियोजित आंदोलन का अंग न होकर अलग-अलग घटनाओं के रूप में थे। फिर भी, इन किसान आंदोलनों ने उपनिवेशी राज्य के वर्चस्व को गंभीर चुनौती दी।
किसान दमन के राजनीतिक स्रोतों के बारे में पूरी तरह सजग थे जो उनके हमलों के निशानों से स्पष्ट हो जाती है, जैसे- जमींदारों के घर, उनके अनाजों के भंडार, सूदखोर, सौदागर और आखिर में अंग्रेजों की राजसत्ता, जो उत्पीड़न के इन स्थानीय निमित्तों की रक्षा के लिए आगे आ जाती थी। ये विद्रोह खुले और सार्वजनिक थे, इसलिए इन्हें अपराधों से भिन्न, राजनीतिक कृत्य माना जा सकता है। इस समय के किसान विद्रोह आधुनिक राष्ट्रवाद से भिन्न थे क्योंकि विद्रोह का प्रसार, स्थान और जातीय सीमा के बारे में विद्रोहियों की अपनी समझ पर निर्भर होता था, जिसमें वह समुदाय विशेष रहता था और काम करता था, जैसे- संथालों की लड़ाई उनकी ‘पितृभूमि’ के लिए थी। कभी-कभी उपजातीय संबंध क्षेत्रीय सीमाओं के पार भी फैले होते थे, जैसे- कोलियों के विद्रोह, जो विभिन्न क्षेत्रों में एक साथ उठे। इस प्रकार ग्रामीण जनसमूहों के जुझारू आंदोलनों में ऐसा कुछ भी नहीं था जो राजनीतिक न हो।
1857 और उसके बाद किसान आंदोलन
1857 के विद्रोह में अवध तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों ने जमींदारों की ज्यादतियों को भुलाकर सामंतशाहों के साथ मिलकर विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने का प्रयास किया था। किसानों को दंड देने के लिए लार्ड केनिंग ने उनके भूमि के स्वामित्व के अधिकारों को समाप्त कर दिया।
1857 के बाद राजनैतिक विवशता के कारण ब्रिटिश सरकार ने सामंतशाही को बनाये रखने के लिए अवध के तालुकेदारों की न केवल अधिकतर भूमि वापस कर दी, बल्कि उन्हें दंड तथा कर-संबंधी कुछ अधिकार देकर पुरस्कृत भी किया। दाखिलकारों के अधिकारों की अवहेलना की गई और अवध के मुख्य आयुक्त ने 1859 के बंगाल किराया अधिनियम की धाराएँ अवध प्रदेश में लागू करने से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, कुछ स्थानों पर तो किसानों को दंडित करने के लिए करों में वृद्धि भी कर दी गई।
1857 के बाद हुए किसानों ने सीधे तौर पर अपनी माँग के लिए संघर्ष करना शुरू किया। नई लगान व्यवस्था के परिणामस्वरूप औपनिवेशिक शोषण का मुख्य आघात किसान वर्ग को ही झेलना पड़ रहा था। यह केवल कानूनी रूप से ही नहीं, बल्कि जमींदार, ताल्लुकेदार और साहूकार अनेक तरह के अवैध उपकर वसूल करके काश्तकार वर्ग को तंग करते थे। यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश के जिले में एक भूस्वामी ने अपने लड़के को ‘ग्रामोफोन’ खरीदने के लिए ‘ग्रामोफोनिंग’ नामक एक उपकर लगाया था। एक ताल्लुकदार ने ‘पकवान उपकर’ के रूप में कृषकों से तब कर वसूला जब उसकी बीवी के पैर में जहरीला घाव हो गया था। ब्रिटिश शासन के दौरान होनेवाले कुछ प्रमुख किसान आंदोलनों का विवरण इस प्रकार है-
बंगाल का नील आंदोलन (1859-1862)
बंगाल का नील आंदोलन उन अंग्रेज बगान मालिकों (निलहों) के प्रति विरोध प्रकट करने के लिए हुआ था जो अपनी जागीरों में सामंतों जैसा आचरण करते थे और किसानों को नील की अलाभकर खेती करने के लिए बाध्य करते थे।
19वीं सदी के आरंभ से ही कुछ अवकाशप्राप्त यूरोपीय अधिकारी तथा कुछ नये धनिकों ने बंगाल तथा बिहार में जमींदारों से भूमि प्राप्त कर लिया था और यूरोपीय बाजारों की माँग की पूर्ति के लिए बड़े पैमाने पर नील की खेती कराने लगे थे। निलहे निरक्षर किसानों को एक मामूली-सी रकम अग्रिम देकर उनसे करारनामा लिखवा लेते थे जो बाजार-भाव से बहुत कम होता था। इसे ‘ददनी प्रथा’ कहा जाता था। किसान के लिए अग्रिम वापस करके शोषण से मुक्ति पाने का कोई विकल्प नहीं था। सत्ता के संरक्षण में पल रहे निलहे कालांतर में करार भी लिखवाना छोड़ दिये और केवल लठैतों के बल पर नील की खेती करवाने लगे थे। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में निलहों का उत्पीड़न बहुत बढ़ गया, क्योंकि 1847 में निलहों के वित्त का प्रमुख स्रोत यूनियन बैंक बैठ गया और निर्यात की एक मद के रूप में नील का आर्थिक महत्त्व कम हो गया था।
नील आंदोलन की शुरुआत 1859 में बंगाल के नदिया जिले के गोविंदपुर गाँव से हुई, जब कलारोवा के डिप्टी मजिस्ट्रेट ने पुलिस विभाग को आदेश दिया कि वह किसानों को अपनी भूमि पर इच्छानुसार उत्पादन कराना सुनिश्चित करे। सितंबर 1859 में एक नील-उत्पादक के दो भूतपूर्व कर्मचारियों- दिगंबर विश्वास एवं विष्णु विश्वास ने किसानों को एकजुट करके नील की खेती करना बंद करवा दिया। 13 सितंबर को नील-उत्पादक के करीब सौ लठैतों ने गोविंदपुर गाँव पर हमला कर दिया, किंतु किसानों ने लाठियों और भालों से इस हमले को असफल कर दिया।
अप्रैल 1860 में भारतीय इतिहास की पहली हड़ताल हुई जब किसानों ने निलहों से अग्रिम लेने, करार करने, नील की बुआई करने और नील गरमाने से मना कर दिया। यह हड़ताल शीघ्र ही जैसोर, नदिया, पबना, खुलना, राजशाही, ढाका, माल्दा, दीनाजपुर तथा बंगाल के अन्य क्षेत्रों में भी फैल गई। निलहों के बौखलाये समर्थकों ने कलकत्ता में मार्च 1860 में कुछ अति-उत्साही मजिस्ट्रेटों की मदद से एक अस्थायी कानून बनवाया ताकि किसानों को इस घृणित फसल की खेती करने पर मजबूर किया जा सके। किंतु किसानों से हमदर्दी रखनेवाले जॉन पीटर ग्रांट ने इस कानून की सीमा को छह माह से आगे बढ़ाने से इनकार कर दिया और मजिस्ट्रेटों को मना कर दिया कि वे नील की खेती के लिए किसानों को पेशगी लेने पर विवश न करें। जब निलहों ने अपने अवज्ञाकारी काश्तकारों को बेदखल करने की कोशिश की, तो इन किसानों ने 1859 के लगान कानून दस (रेंट ऐक्ट 10) के तहत अपने दखलदार रैयत वाले अधिकार मनवाने के लिए अदालतों की शरण ली। सरकार को अधिसूचना जारी करनी पड़ी कि रैयतों की भूमि की रक्षा की जाए, जिसमें वे मनचाही खेती करें और नील की खेती करवानेवाले इसमें कोई हस्तक्षेप न करें। यदि निलहे चाहें तो नील न गरमाने वालों पर दीवानी मुकदमा चला सकते हैं। इसी आधार पर 1860 में एक नील आयोग (इंडिगो कमीशन) नियुक्त किया गया और उसके सुझाव 1862 के अधिनियम 4 में रखे गये।
1863 तक यह आंदोलन समाप्त हो गया क्योंकि बंगाल के नील-उत्पादक (निलहे) अपने नील के कारखाने बंदकर बिहार के अपेक्षाकृत दूरस्थ और पिछड़े क्षेत्र में चले गये। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद उनका एक संक्षिप्त पुनरुत्थान हुआ, किंतु चंपारण में नील की खेती को पूरी तरह खत्म होने के लिए 1917 में गांधीजी के हस्तक्षेप की प्रतीक्षा करनी पड़ी।
इस नील आंदोलन का महत्त्वपूर्ण तत्त्व था बंगाल के बुद्धिजीवियों और कुछ यूरोपीय मिशनरियों का सक्रिय हस्तक्षेप, जिन्होंने संघर्षरत किसानों के पक्ष में सशक्त अभियान चलाये। दीनबंधु मित्र ने सितंबर 1860 में अपने बंगला नाटक ‘नील दर्पण’ में निलहों के अत्याचारों का मार्मिक वर्णन प्रकाशित कराया। सुप्रसिद्ध बंगला कवि माइकेल मधुसूदन दत्त ने इस नाटक का अंग्रेजी में अनुवाद किया, जिसे मिशनरी सोसायटी के रेवरेंड जेम्स लौंग ने प्रकाशित किया। इस कारण लौंग पर कलकत्ता के सुप्रीम कोर्ट में मानहानि का मुकदमा चला और एक माह की कैद के साथ 1,000 रुपये का जुर्माना हुआ। भारतीय प्रेस और खासकर ‘हिंदू पैट्रियट’ और ‘सोमप्रकाश’ ने भी नील के किसानों की माँगों को उठाया।
पबना किसान आंदोलन 1873-1876)
इस आंदोलन का केंद्र पू(र्वी बंगाल का पबना जिला था, इसलिए इसे ‘पबना आंदोलन’ कहा जाता है। यद्यपि पबना जिले के काश्तकारों को 1859 के अधिनियम 10 के तहत बेदखली एवं लगान में वृद्धि के विरुद्ध एक सीमा तक संरक्षण प्राप्त हुआ था, फिर भी, इस क्षेत्र में गैर-कानूनी वसूलियों (अबवाब) के साथ-साथ लगान की दर बराबर चढ़ती आ रही थी। लेकिन काश्तकारों की खास शिकायत उनके दखली अधिकारों को समाप्त करने के लिए जमींदारों के जोरदार प्रयासों के विरुद्ध थी। ये जमींदार लगातार बारह वर्ष तक किसानों को एक ही भूखंड का पट्टा नहीं देते थे, जिसके कारण वे कानून के तहत संरक्षण पाने के अधिकारी बन जाते थे। पबना जिले के युसुफशाही परगने में 1873 में एग्रेरियन लीग (किसान संघ) की स्थापना की गई। इस संघ ने चंदा इकट्ठा कर जमींदारों के खिलाफ मुकदमा दायर करना शुरू किया। धीरे-धीरे यह आंदोलन पूर्वी बंगाल के अन्य जिलों- ढाका, मैमनसिंह, त्रिपुरा, बाकरगंज, फरीदपुर, बोगरा एवं राजशाही में भी फैल गया और जमींदारों के खिलाफ तेजी से मुकदमें दायर किये जाने लगे।
दरअसल, तब तक किसान अपने कानूनी अधिकारों के प्रति काफी जागरुक हो चुके थे और उन्हें एकता, संगठन और शांतिपूर्ण संघर्ष के द्वारा अधिकारों की बहाली का तरीका पता हो चुका था। जब अदालती फैसलों के लागू करने में बाधा पहुँचाई गई, तब किसानों ने लाठी आदि का सहारा लिया। यद्यपि सरकार ने सैन्य-शक्ति के बल पर इस आंदोलन को दबा दिया, किंतु बाद में किसानों की शिकायतों के लिए एक जाँच समिति गठित की गई और उसके रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने ‘बंगाल टींनेंसी ऐक्ट’ लागू किया।
बंगाल टींनेंसी ऐक्ट (1885) के अनुसार किसानों द्वारा बारह वर्ष तक एक ही गाँव में एक ही भूमि पर खेती करने पर उन्हें उस भूमि का दखलंदाजी अधिकार दे दिया गया और भूमि-स्थानांतरण बंद कर दिया गया। इकरारनामे के उल्लंघन को छोड़कर अन्य किसी भी परिस्थिति में कोई भी उसे उसकी भूमि से निष्कासित नहीं कर सकता था। कर-वृद्धि की सीमा समाप्त कर दी गई और न्यायालय के बाहर अनुबंध द्वारा इसे 12 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता था। भूमि से निष्कासन की स्थिति में हर्जाना देना था। किंतु विधेयक की जटिलताओं के कारण इससे जमींदारों को ही अधिक लाभ हुआ, हालांकि किसानों को भी कुछ अधिकार मिल गये।
कई युवा बुद्धिजीवियों ने पबना आंदोलन का समर्थन किया, जिनमें बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय और आर.सी. दत्त जैसे लोग भी थे। 1880 के दशक में जब बंगाल काश्तकारी विधेयक पर चर्चा हो रही थी, तब सुरेंद्रनाथ बनर्जी, आनंद मोहन बोस और द्वारकानाथ गांगुली ने ‘इंडियन एसोसिएशन’ के माध्यम से काश्तकारों के अधिकारों की रक्षा के लिए अभियान चलाया था और जोतनेवाले को ही मालिकाना हक देने की माँग की थी। राष्ट्रवादी अखबारों ने भी करों की वृद्धि को अनुचित बताते हुए स्थायी रूप से लगान-निर्धारण का सुझाव दिया था।
इस प्रकार यह आंदोलन न तो जमींदारी प्रथा के खिलाफ था और न ही किसी भी स्तर पर यह उपनिवेशवाद-विरोधी राजनीति से जुड़ा था। इस आंदोलन में रैयतों में अधिकतर मुसलमान एवं जमींदारों में अधिकतर हिंदू थे। इसके बावजूद हिंदू और मुसलमान किसानों ने पूरी एकजुटता के साथ संघर्ष किया।
दक्कन मराठा किसान आंदोलन (1874)
पश्चिमी भारत के दक्कन क्षेत्र में होनेवाले विभिन्न किसान आंदोलनों (मराठा किसानों का उदय) का मुख्य कारण रैयतवारी बंदोबस्त के अंतर्गत किसानों पर आरोपित किये गये भारी कर और गुजराती एवं मारवाड़ी साहूकारों द्वारा किसानों का शोषण था। 1864 में अमेरिकी गृहयुद्ध की समाप्ति पर संसार की मंडियों में कपास की कीमतों के नीचे गिरने और अधिक भूमिकर के कारण मराठा किसान अधिकाधिक ऋण के बोझ से दबते चले गये थे। महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिलों में लालची और बेईमान साहूकार अपने लेखों में हेराफेरी कर अनपढ़ किसानों से ऋण के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करा लेते थे। दीवानी के फैसले भी अकसर इन्हीं साहूकारों के पक्ष में होते थे और किसानों को बेदखल कर दिया जाता था।
दिसंबर 1874 में मामला उस समय बिगड़ गया जब एक मारवाड़ी सूदखोर कालूराम ने शिरूर तालुका के करडाह गाँव के बाबा साहेब देशमुख के विरुद्ध 150 रुपये के ऋण के लिए बेदखली का आज्ञापत्र लेकर बाबा साहब का मकान गिरा दिया, जिससे गाँववालों का गुस्सा फूट पड़ा और आंदोलन आरंभ हो गया।
आरंभ में किसानों ने शांतिपूर्ण तरीके से बहिष्कार करके अपना विरोध जताया। उन्होंने महाजनों व सूदखोर व्यापारियों के दुकानों से सामान खरीदना बंद कर दिया और उनके खेतों की जुताई करने से भी मना कर दिया। बुलोटीदारों (गाँव की प्रजा) अर्थात् नाई, धोबी, बढ़ई, लुहार, मोची, घरेलू नौकरों आदि पर भी पाबंदी लगाई कि वे महाजनों के यहाँ कोई काम नहीं करेंगे। यह सामाजिक बहिष्कार जून 1875 तक पूना, अहमदाबाद, सतारा, शोलापुर आदि जिलों में फैल गया। दमन के कारण यह बहिष्कार शीघ्र ही कृषि-दंगों में परिवर्तित हो गया। किसानों ने महाजनों एवं सूदखोरों के घरों एवं व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर हमले किये, उनके ऋण-संबंधी कागजात व करारनामे लूटकर सार्वजनिक तौर पर जला दिये।
बहरहाल, पुलिस और सेना की मदद से 100 से अधिक लोग गिरफ्तार किये गये और विद्रोह को दबा दिया गया। किंतु इस विद्रोह का आधार इतना लोकप्रिय था कि सरकार को किसी किसान के खिलाफ कोई गवाह तक नहीं मिला। उपद्रव के कारणों का पता लगाने के लिए सरकार ने ‘दकन उपद्रव आयोग’ का गठन किया। किसानों की दशा सुधारने के लिए 1879 में ‘दकन-कृषक राहत अधिनियम’ पारित किया गया, जिसमें दीवानी विधि-संहिता की कुछ धाराओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अब किसानों को ऋण न लौटाने पर गिरफ्तार अथवा जेल में बंद नहीं किया जा सकता था।
महाराष्ट्र में भी तत्कालीन बुद्धिजीवियों ने वहाँ के किसानों के हितों के लिए आवाज उठाई। इसके पहले रानाडे के नेतृत्व में 1873-77 में ‘पूना सार्वजनिक सभा’ ने भू-राजस्व समझौता अधिनियम 1867 के विरुद्ध पूना और बंबई में आंदोलन चलाया था, जिसे किसानों ने पूरा समर्थन दिया था। ‘पूना सार्वजनिक सभा’ और कई राष्ट्रवादी अखबारों ने ‘दकन-कृषक राहत विधेयक’ का समर्थन किया था।
पंजाब भूमि अपवर्तन अधिनियम (1900)
बंगाल और महाराष्ट्र के उपद्रवों को सरकार पंजाब में दोहराना नहीं चाहती थी। पंजाब में सिखों को प्रसन्न करने के लिए सरकार ने एक प्रभावशाली नीति अपनाई। 1895 में ही भारत सरकार ने प्रांतीय सरकारों को लिखा था कि कृषि-भूमि के हस्तांतरण पर रोक लगाई जाये। 1896-97 तथा 1899-1900 के भयंकर अकालों ने इसका औचित्य भी सिद्ध कर दिया था।
एक प्रयोग के रूप में पंजाब भूमि अपवर्तन अधिनियम 1900 में पारित किया गया और यह तय किया गया कि यदि यह प्रयोग सफल रहा, तो शेष भारत में भी इसी प्रकार की व्यवस्था लागू की जायेगी। इसके अंतर्गत पंजाब के लोगों को तीन वर्गों में बाँटा गया- कृषक, कानून द्वारा स्थापित कृषक (जो कृषक तो नहीं थे, किंतु कृषि-संबंधी गतिविधियों में रुचि रखते थे) और शेष अन्य, जिसमें साहूकार आदि शामिल थे। इसमें प्रथम वर्ग के लोगों की भूमि को न तो गिरवी रखा जा सकता था और न ही बेचा जा सकता था। दूसरे और तीसरे वर्ग के लोग आपस में भूमि का लेन-देन कर सकते थे। पंजाब के लोगों को भूमिकर में भी राहत दी गई और सहारनपुर नियमों को पंजाब में भी लागू किया गया, जिसके अनुसार भूमिकर वार्षिक भाटक के आधे से अधिक नहीं हो सकता था।
बीसवीं शताब्दी में किसान आंदोलन
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में किसान विद्रोह, पिछली शताब्दी के विद्रोहों से अधिक व्यापक, प्रभावी, संगठित और सफल थे। इस समय एक ओर गांधीजी ने चंपारन सत्यागह (1917) और खेड़ा सत्याग्रह (1918) के माध्यम से ग्रामीण जनता तथा किसानों से नजदीकियाँ स्थापित कर राष्ट्रीय आंदोलन का सामाजिक आधार बढ़ाने की कोशिश की ताकि स्वतंत्रता आंदोलन को जन-आधारित आंदोलन बनाया जा सके, तो दूसरी ओर जागरूक किसानों ने भी संगठित होकर किसान सभाओं का गठन किया और राष्ट्रीय आंदोलन को अपना समर्थन दिया।
बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक में साम्यवादी तथा वामपंथी दलों ने किसानों में वर्ग चेतना उत्पन्न की और किसान सभाओं के गठन में विशेष भूमिका निभाई। इस काल में आंध्र प्रदेश, बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा बिहार में किसान सभाओं का गठन हुआ। इस चरण में उत्तर प्रदेश किसान सभा (इंद्रनारायण द्विवेदी, 1917), रैयत एसोसिएशन (एन.जी. रंगा, 1923), संयुक्त प्रांत किसान संघ (1924), बिहार प्रादेशिक किसान सभा (स्वामी सहजानंद, 1929) तथा कृषि श्रमिक संघ जैसे संगठनों की शुरूआत हुई। इसी समय किसानों के हितों को लेकर बंगाल में अब्दुल रहीम एवं फजलुल हक के नेतृत्व में ‘कृषक प्रजा पार्टी’ (जुलाई 1929) तथा पंजाब में फजले हुसैन की ‘यूनियनिस्ट पार्टी’ का भी गठन किया गया।
उत्तर प्रदेश किसान सभा (1917)
अवध के किसान 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही लगान की ऊँची दर, भूमि से बेदखली, अवैध कर तथा जमींदारों के मनमाने अत्याचारों के कारण कसमसाने लगे थे, किंतु जमींदारों और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उनका संगठित प्रतिरोध बीसवीं सदी के दूसरे दशक में प्रारंभ हुआ क्योंकि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद की बढ़ी महँगाई से किसानों की कमर टूट चुकी थी और उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था।
अवध में होमरूल आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने किसानों का संगठित करना शुरू कर दिया था। गौरीशंकर मिश्र तथा इंद्रनारायण द्विवेदी ने मदनमोहन मालवीय, पंडित मोतीलाल नेहरू के सहयोग से किसानों के हित में 1917 में ‘उत्तर प्रदेश किसान सभा’ का गठन किया। जून 1919 तक उ.प्र. किसान सभा ने सूबे की 173 तहसीलों में अपनी 450 शाखाओं का गठन कर लिया। फतेहपुर, इलाहाबाद, मैनपुरी, बनारस, कानपुर जालौन, बलिया, रायबरेली, एटा और गोरखपुर जिलों में किसान सभा की अनेक बैठकें होने लगीं।
1919 के अंतिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया। प्रतापगढ़ जिले की एक जागीर में ‘नाई-धोबी बंद’ सामाजिक बहिष्कार के संगठित कार्रवाई की पहली घटना हुई। 1920 में जब राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हुईं, तो अवध की तालुकेदारी में भी झिंगुरीसिंह और दुर्गापालसिंह ने ग्राम पंचायतों के नेतृत्व में बैठकों का सिलसिला शुरू किया। किंतु शीघ्र ही आंदोलन का नेतृत्व बाबा रामचंद्र के हाथ में चला गया।
जून 1920 में बाबा रामचंद्र और जौनपुर-प्रतापगढ़ के किसानों के अनुरोध पर जवाहरलाल नेहरू ने ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा कर किसान सभा से संपर्क स्थापित किया। प्रतापगढ़ जिले का ‘रूर’ गाँव किसान सभा की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन गया, जहाँ किसान ‘किसान सभा’ के पास अपनी शिकायतें दर्ज कराते थे। हर किसान से आठ आना (50 पैसा) फीस ली जाती थी। इस किसान आंदोलन की तीव्रता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि जब 28 अगस्त 1920 को तालुकेदारों के इशारे पर बाबा और 32 किसान चोरी के झूठे आरोप में गिरफ्तार किये गये, तो ब्रिटिश सरकार को विवश होकर बाबा रामचंद्र को छोड़ना पड़ा था।
अवध किसान सभा (1920)
राष्ट्रवादी नेताओं में मतभेद के कारण अवध के किसान नेताओं ने ‘उत्तर प्रदेश किसान सभा’ से नाता तोड़कर बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में 17 अक्टूबर 1920 को प्रतापगढ़ जिले में ‘अवध किसान सभा’ का गठन किया। एक महीने के भीतर ही उत्तर प्रदेश किसान सभा की सभी इकाइयों का अवध किसान सभा में विलय हो गया। प्रतापगढ़ जिले की पट्टी तहसील का ‘खरगाँव’ नवगठित किसान सभा का मुख्यालय बनाया गया और यहीं पर एक किसान परिषद् का गठन किया गया।
अवध किसान सभा ने किसानों से बेदखली, जमीन न जोतने और बेगार न करने की अपील की। इसको न माननेवालों का बहिष्कार करने की अपील की गई। किसानों से कहा गया कि वे अपने मामलों का निपटारा पंचायतों के माध्यम से ही करें। जनवरी 1921 में कुछ क्षेत्रों में स्थानीय नेताओं की गलतफहमी एवं आक्रोश के कारण किसान आंदोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया। इस दौरान किसानों ने बाजारों, घरों एवं अनाज की दुकानों पर धावा बोलकर उन्हें लूटा तथा पुलिस के साथ उनकी हिंसक झडपें हुईं। रायबरेली, फैजाबाद एवं सुल्तानपुर इन हिंसक गतिविधियों के मुख्य केंद्र थे। किंतु सरकारी दमन के कारण धीरे-धीरे आंदोलन कमजोर पड़ने लगा। इसी बीच सरकार ने ‘अवध मालगुजारी रेंट संशोधन अधिनियम’ पारित कर दिया, जिससे आंदोलन और कमजोर हो गया और मार्च 1921 तक समाप्त हो गया।
अवध किसान सभा में देहाती बुद्धिजीवियों, जिसमें बाबा, साधु और फकीर आदि आते थे, ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता महिलाओं की सक्रिय भागीदारी थी। आगे चलकर महिलाओं की इस संगठित शक्ति का प्रतिरूप ‘अखिल भारतीय किसानिन सभा’ के रूप में सामने आया। यह सभा संभवतः भारत में आम महिलाओं का पहला संगठन था।
एका (एकता) आंदोलन (1921)
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी, हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में 1921 के अंत में बेगारी, लगान में वृद्धि एवं राजस्व वसूली के कार्य में जमींदारों द्वारा अपनाई गई दमनकारी नीतियों के विरोध में एका आंदोलन चलाया गया। एका या एकता आंदोलन में प्रतीकात्मक धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन किया जाता था। सभास्थल पर एक गड्ढा खोदकर उसमें पानी भरा जाता था। इसे गंगा माना जाता था और एक पुजारी वहाँ एकत्रित किसानों को गंगा की सौगंध खिलाता था कि वे निर्धारित लगान ही देंगे, उससे एक पैसा ज्यादा नहीं देंगे, लेकिन समय पर देंगे। बेदखल किये जाने पर जमीन नहीं छोड़ेंगे, बेगार नहीं करेंगे, अपराधियों की मदद नहीं करेंगे और पंचायत के फैसले को मानेंगे।
एका आंदोलन का मुख्य नेतृत्व मदारी पासी, सहदेव एवं अन्य निचले तबके के किसानों और कई छोटे जमींदारों ने किया। मार्च 1922 तक एका आंदोलन संयुक्त प्रांत के अधिकारियों के लिए परेशानी खड़ी करता रहा।
मोपला किसान आंदोलन (1921)
केरल के मलाबार तट के मोपला बहुसंख्यक मुस्लिम बँटाईदार एवं किसान थे और जमींदारी के अधिकार मुख्यतः उच्च वर्ग के हिंदुओं, नंबूदरियों और नायर जेमनियों के हाथों में थे। मोपला विद्रोह मुख्यतः भूस्वामियों और काश्तकारों के बीच के खेतिहर संघर्षों से संबंधित था, यद्यपि यह संयोग ही है कि भूस्वामी हिंदू और काश्तकार मुस्लिम थे। जमींदारों और काश्तकारों के बीच आर्थिक हितों के संघर्षों को हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों के रूप में प्रचारित किया गया क्योंकि ये समूह दो भिन्न समुदायों से संबंधित थे।
उन्नीसवीं शताब्दी में भी जमींदारों के अत्याचारों से पीड़ित होकर मोपलाओं ने कई बार विद्रोह किये थे। यहाँ किसान आंदोलनों की मुख्य माँग थी- सामंती वसूलियों, नवीकरण शुल्क तथा लगान की अग्रिम अदायगी को खत्म किया जाये और जमीन ‘हम जोतेंगे’, इस आधार पर जमींदारों द्वारा काश्तकारों की बेदखली बंद की जाये। इसके अलावा, किसानों ने भूराजस्व, लगान तथा ऋण के बोझ में कमी करने, जमींदारों द्वारा सही तौलों का प्रयोग करने और उनके प्रबंधकों के भ्रष्टाचार को खत्म करने की भी माँग की थी।
अप्रैल 1920 में मंजेरी में मलाबार जिला कांग्रेस सम्मेलन ने प्रस्ताव पारित कर खिलाफत का समर्थन किया और जमींदार-काश्तकार संबंधों को तय करने के लिए कानून बनाने की माँग की। इसके बाद पहले कोझीकोड, फिर अन्य गाँवों में काश्तकारों के संगठन बनाये गये और उनकी बैठकों में काश्तकारों की माँगें उठाई जाने लगीं। महात्मा गांधी, शौकतअली, मौलाना अबुलकलाम आजाद जैसे नेताओं ने इन क्षेत्रों का दौरा किया और इन आंदोलनों का समर्थन किया।
संघर्ष की शुरूआत उस समय हुई, जब 20 अगस्त 1921 को एरनाड तालुके के मजिस्ट्रेट ने सेना और पुलिस के जवानों को लेकर किसान नेता अली मुदालियर को गिरफ्तार करने के लिए तिरुरांगड़ी मस्जिद पर छापा मारा। मुदालियर तो नहीं मिले, लेकिन पवित्र मस्जिद पर छापे की खबर से मोपले हिंसा पर उतारू हो गये। विद्रोहियों ने पुलिस स्टेशनों, सरकारी कार्यालयों, संचार विभाग, शोषण करने वाले भूस्वामियों और महाजनों के घरों पर आक्रमण किये। कई तालुकों से अंग्रेजी सत्ता का नियंत्रण समाप्त हो गया और वहाँ गण की स्थापना कर दी गई। विद्रोही मोपला किसान मुसलमान थे, किंतु उदार जमींदारों और हिंदुओं को उन्होंने परेशान नहीं किया।
अंग्रेजों ने निर्दयतापूर्वक इस आंदोलन का दमन किया। सरकारी आँकड़े के अनुसार दमन के दौरान लगभग 2,337 लोग मारे गये और 1,652 घायल हुए, जबकि मृतकों की वास्तविक संख्या 10 हजार से भी अधिक थी। 45,404 आंदोलनकारी बंदी बनाये गये, जिसमें खिलाफत तथा कांग्रेस के नेता याकूब हसन, यू. गोपाल मेनन, पी. मोइद्दीन कोया और के. माधवन नायर भी थे। 20 नवंबर 1921 को 66 मोपला बंदियों को रेल की एक बोगी में दम घोंटकर मार डाला गया। ब्रिटिश सरकार की कुटिल नीति के कारण इस आंदोलन ने सांप्रदायिक रूप धारण कर लिया, जिससे मोपला सबसे अलग-थलग पड़ गये और दिसंबर 1921 के आते-आते विद्रोह पूरी तरह कुचल दिया गया। वस्तुतः यह साम्राज्यवाद के खिलाफ एक सशस्त्र विद्रोह था।
किसान आंदोलन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
किसानों की माँगें लगानों में कमी की होती थीं, या मध्य प्रांत, बंगाल, बिहार और संयुक्त प्रांत के बँटाईदार फसल का अधिक न्यायपूर्ण बँटवारा चाहते थे। मध्य प्रांत में किसानों ने मुख्यतया भूराजस्व में कमी, काश्तकारी नियमों में संशोधन, बेदखली के विरुद्ध संरक्षण तथा ऋणग्रस्तता से बचाव जैसे मुद्दों को लेकर हिंसक प्रदर्शन किये। बंगाल में 1920 के दशक में बँटाईदारी की प्रथा तेजी से फैल रही थी। लेकिन स्वराजी कांग्रेसियों ने बरगादारों को काश्तकार माने जाने का विरोध किया। उन्होंने मेमनसिंह, ढाका, पबना, खुलना और नदिया जैसे जिलों में जारी नामशूद्र एवं मुसलमान बरगादारों के आंदोलनों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई। 1920 में बिहार के दरभंगा रियासत में बलात् वसूली के विरोध में विशुभरण के नेतृत्व में किसानों ने आंदोलन किया। 1922 में स्वामी विश्वानंद ने जमींदारी समाप्त करने की माँग उठाई।
संयुक्त प्रांत में कांग्रेस ने थोड़ा किसान-समर्थक रूख जरूर दिखाया और 1924 मे एक संयुक्त प्रांत किसान संघ का आरंभ किया। किंतु यहाँ भी संयुक्त प्रांत किसान संघ ने जमींदारों के विरुद्ध एक भी शब्द नही कहा। तंजौर में, जहाँ समृद्ध मिरासदार रहते थे, मालगुजारी की वृद्धि का सफलता के साथ विरोध हुआ। तटीय आंध्र प्रदेश में एन.जी. रंगा ने 1923 में गुंटूर में पहली रैयत एसोसिएशन की स्थापना की।
राजस्थान में सामंत-विरोधी किसान आंदोलन (1920)
1920 में राजस्थान के बिजौलिया तथा बेगू में सामंत-विरोधी किसान आंदोलन आरंभ हुए जो पूरे दशक तक चलते रहे। बिजौलिया के किसान विजयसिंह पथिक, मणिकलाल वर्मा, जयनारायण और हरिभाऊ उपाध्याय जैसे नेताओं के नेतृत्व में नये महसूलों एवं बेगार के विरुद्ध सत्याग्रह के तरीके अपना रहे थे। विजय सिंह पथिक ने कानपुर से प्रकाशित गणेशशंकर विद्यार्थी द्वारा संपादित पत्र ‘प्रताप’ के माध्यम से बिजौलिया के किसान आन्दोलन को पूरे देश में चर्चा का विषय बना दिया।
किंतु मई 1925 में अलवर रियासत के नीमूचना में भूराजस्व में 50 प्रतिशत वृद्धि का विरोध करनेवाले 156 किसानों का वस्तुतः नरसंहार किया गया और 600 घायल कर दिये गये। इस समय कांग्रेस रजवाड़ो में अहस्तक्षेप की नीति पर चल रही थी, किंतु इस आंदोलन में किसानों ने जिस त्याग और बलिदान की भावना के साथ निरंकुश नौकरशाही एवं स्वेच्छाचारी सामंतों का संगठित होकर मुक़ाबला किया, वह इतिहास बन गया।
वरसाड आंदोलन (1923-24)
सितंबर 1923 में वरसाड के प्रत्येक वयस्क पर दो रुपया सात आने का ‘डकैती कर’ लगाया गया ताकि डकैतों के दमन के लिए पुलिस की व्यवस्था की जा सके। कर अदायगी न करने का आंदोलन शीघ्र ही 104 गाँवों तक फैल गया। अंततः फरवरी 1924 में सरकार को अपना आदेश रद्द करना पड़ा। वल्लभभाई पटेल के वरसाड सत्यागह को ‘ग्रामीण गुजरात में पहला सफल गांधीवादी सत्याग्रह’ बताया गया है।
तटीय आंध्र क्षेत्र में किसान आंदोलन
1927 में कृष्ण-गोदावरी मुहाना क्षेत्र में अंग्रेज सरकार द्वारा राजस्व में पौने उन्नीस प्रतिशत की वृद्धि करने के प्रयास के फलस्वरूप तटीय आंध्र क्षेत्र में एक सशक्त किसान आंदोलन उठ खड़ा हुआ। इस आंदोलन को पूर्वी गोदावरी क्षेत्र में वेन्नेती सत्यनारायण एवं पश्चिमी गोदावरी क्षेत्र मे दंडू नारायण राजू जैसे स्थानीय कांग्रेसी नेताओं के साथ टी. प्रकाशम् और कांडा वेंकेटपय्या जैसे प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेताओं ने भी चलाया।
बारदोली किसान आंदोलन (1928)
बारदोली किसान आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का सबसे संगठित, व्यापक एवं सफल आंदोलन रहा है। यह आंदोलन 1928 में सूरत (गुजरात) के बारदोली तालुके में किसानों द्वारा लगान न देने के लिए चलाया गया था। यह क्षेत्र 1922 से ही राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन चुका था। 137 गाँवों एवं 87 हजार जनसंख्यावाले बारदोली में किसानों की मुख्य जाति कुनबी-पाटीदार थी, जो 1908 से ही मेहता-बंधु (कुँवरजी एवं कल्याणजी मेहता) के नेतृत्व में संगठित होने लगी थी। मेहता बंधुओं तथा दयालजी देसाई ने असहयोग आंदोलन के लिए जनमत तैयार करने में काफी काम किया था।
यहाँ परिस्थितियाँ उस समय तनावपूर्ण हो गईं, जब जनवरी 1926 में स्थानीय प्रशासन ने भू-राजस्व की दरों में 30 प्रतिशत वृद्धि की घोषणा की। कांग्रेसी नेताओं के नेतृत्व में स्थानीय लोगों ने इस वृद्धि का तीव्र विरोध किया। परिस्थिति की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने समस्या के समाधान हेतु बारदोली जाँच आयोग का गठन किया। आयोग ने जुलाई 1926 में संस्तुति दी कि भू-राजस्व की दरों में की गई वृद्धि अन्यायपूर्ण एवं अनुचित है। मार्च 1927 में भीमभाई नाइक और शिवदासानी के नेतृत्व में किसानों का एक प्रतिनिधि मंडल बंबई सरकार के राजस्व विभाग के प्रमुख अधिकारी से मिला और विधान परिषद् में मामला उठाया गया।
जुलाई 1927 में सरकार ने 30 प्रतिशत लगान बढ़ोत्तरी को घटाकर 21.97 प्रतिशत कर दिया। इस मामूली रियायत से कोई संतुष्ट नहीं हुआ। कादोद संभाग के बामनो गाँव में 60 गाँवों के प्रतिनिधियों की बैठक में वल्लभभाई पटेल को आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए औपचारिक रूप से आमंत्रित किया गया। 1923-1924 में वल्लभभाई पटेल ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाये गये ‘डकैती कर’ के विरोध में गुजरात में वरसाड आंदोलन (1923-1924) का संचालन कर चुके थे। पटेल ने 5 फरवरी 1928 से पहले बारदोली आने का आश्वासन दिया क्योंकि उसी तारीख को लगान देय था। स्थानीय नेताओं ने गांधीजी से भेंटकर उनका भी समर्थन प्राप्त किया।
वल्लभभाई पटेल ने बारदोली पहुँचकर किसान सत्याग्रह का नेतृत्व सँभाल लिया। उन्होंने बढ़ी हुई लगान के विरुद्ध सरकार को पत्र लिखा, किंतु कुछ सकारात्मक उत्तर नहीं मिला। उन्होंने किसानों की बैठक बुलाई और एक प्रस्ताव पास किया कि तब तक लगान की अदायगी नहीं की जायेगी, जब तक कि सरकार किसी स्वतंत्र आयोग का गठन नहीं करती या प्रस्तावित लगान-वृद्धि को वापस नहीं ले लेती। किसानों ने ‘प्रभु’ और ‘खुदा’ के नाम पर कसम खाई कि वे लगान नहीं देंगे। इस प्रकार बारदोली सत्याग्रह आरंभ हो गया।
आंदोलन को संगठित करने के लिए पूरे तालुके को 13 कार्यकर्ता शिविरों में बाँटा गया। जनमत का निर्माण करने के लिए ‘बारदोली सत्याग्रह’ पत्रिका का प्रकाशन भी शुरू हुआ। आंदोलन के तरीकों का पालन सुनिश्चित करने के लिए एक बौद्धिक संगठन भी स्थापित किया गया। आंदोलन का विरोध करनेवालों का सामाजिक बहिष्कार किया गया। इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए भी अनेक कदम उठाये गये। अगस्त 1928 तक पूरे क्षेत्र में आंदोलन पूर्णरूप से सक्रिय हो चुका था। आंदोलन के समर्थन में बंबई में रेलवे में हड़ताल हुई। सरकार ने बड़ी संख्या में पशुओं और भूमि को जब्त कर आंदोलन को दबाने का प्रयास किया।
कांग्रेस के नरमपंथी गुट ने ‘सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी’ के माध्यम से सरकार द्वारा किसानों की माँग की जाँच करवाने का अनुरोध किया। के.एम. मुंशी तथा लालजी नारंजी ने आंदोलन के समर्थन में बंबई विधान परिषद् की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। देश में जनमत लगातार सरकार-विरोधी होता जा रहा था। ब्रिटेन की संसद में भी बहस हुई। जुलाई 1928 में वायसरॉय लॉर्ड इरविन ने बंबई के गर्वनर विल्सन को मामले को शीघ्र निपटाने का निर्देश दिया। पटेल की गिरफ्तारी की संभावना को देखते हुए 2 अगस्त 1928 को गांधीजी भी बारदोली पहुँच गये। सरकार द्वारा गठित ब्लूमफील्ड और मैक्सवेल समिति ने भू-राजस्व में बढ़ोतरी को गलत बताया। समिति ने 30 प्रतिशत बढ़ोत्तरी को घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दिया। लंदन से प्रकाशित ‘न्यू स्टेट्समैन’ ने 5 मई 1929 के अपने अंक में लिखाः ‘‘जाँच समिति की रिपार्ट सरकार के मुँह पर तमाचा है।…..इसके दूरगामी परिणाम होंगे।’’ किसान संघर्ष एवं राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष के अंतःसंबंधों की व्याख्या करते हुए गांधीजी ने कहा कि ‘‘बारदोली संघर्ष चाहे जो कुछ भी हो, यह स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष नहीं है, लेकिन इस तरह का हर संघर्ष, हर कोशिश हमें स्वराज्य के करीब पहुँचा रही है और हमें स्वराज्य की मंजिल तक पहुँचाने में शायद ये संघर्ष सीधे स्वराज्य के संघर्ष से कहीं ज्यादा सहायक सिद्ध हो सकते हैं।’’
बारदोली किसान आंदोलन में महिलाओं ने भी सक्रिय भूमिका निभाई, जिसमें बंबई की पारसी महिला मीठूबेन पेटिट, भक्तिवा, वल्लभभाई पटेल की पुत्री मनीबेन पटेल, शारदाबेन शाह और शारदा मेहता के नाम उल्लेखनीय हैं। सत्याग्रह की सफलता पर बारदोली की महिलाओं ने वल्लभभाई पटेल को ‘सरदार’ की उपाधि प्रदान की।
बारदोली किसान सत्याग्रह में कालिपराज (काले लोग) जनजाति के लोगों ने भी हिस्सा लिया जो पाटीदार किसानों की जमीन पुश्तैनी मजदूर के रूप में ‘हाली पद्धति’ के अंतर्गत जोता करते थे। गांधीजी ने 1927 में कालिपराजों के वार्षिक सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए कालिपराजों को ‘रानीपराज’ (वनवासी) की उपाधि दी।
1930-40 के दशक में किसान आंदोलन
20वीं शताब्दी के चौथे दशक में भारत के किसानों में राष्ट्रव्यापी जागरण आया, जिसके परिणामस्वरूप पूरे देश में, विशेषकर संयुक्त प्रांत, बिहार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और पंजाब में किसान सभाओं का तेजी से प्रसार हुआ। यह जागरण 1929-30 की विश्वव्यापी मंदी और 1930-34 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा छेड़े गये जनसंघर्ष का परिणाम था। एक तो 1929 की आर्थिक मंदी के कारण 1932 के अंत तक खेतिहर पैदावार की कीमतें 50 प्रतिशत से अधिक गिर चुकी थीं। किसानों को करों, लगानों और ऋणों का भुगतान मंदी के पहले की दरों पर करना पड़ रहा था, जबकि उनकी आय लगातार कम होती जा रही थी। दूसरे, कांग्रेस ने 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ा, जिसने देश के बहुत से क्षेत्रों में ‘कर और लगान न देने’ के अभियान का रूप ले लिया। गुजरात के किसानों, विशेषकर सूरत और खेड़ा में किसानों ने टैक्स देने से इनकार कर दिया और सरकारी दमन से बचने के लिए वे हिजरत पर चले गये। बंगाल और बिहार में किसानों ने ‘चौकीदारी कर’ अदा करने से मना कर दिया। पंजाब में ‘टैक्स रोको’ अभियान के साथ-साथ किसान सभाओं का अभ्युदय हुआ। उत्तर प्रदेश के किसानों से गांधीजी ने स्वयं अपील की कि वे केवल 50 प्रतिशत लगान का भुगतान करें और रसीद पूरे की लें। महाराष्ट्र, बिहार और मध्य प्रांत में किसानों तथा आदिवासियों ने ‘जंगल सत्याग्रह’ कर नये वन-नियमों का विरोध किया। आंध्र प्रदेश में जमींदार-विरोधी आंदोलन भी चला, जिसका पहला निशाना नेल्लोर जिले की वेंकटगिरि जमींदारी बनी।
सविनय (नागरिक) अवज्ञा आंदोलन ने युवा और जुझारू राजनीतिक कार्यकताओं की एक नई पीढ़ी पैदा की, जो वामपंथी विचारधारा के थे। इन वामपंथी युवकों ने किसानों का बड़े पैमाने राजनीतिकरण किया और पूरे देश में किसान संघों और सभाओं के माध्यम से भूमि-सुधारों, मालगुजारी और लगान में कमी तथा कर्ज से राहत की माँग की। 1923 में ‘रैयत सभा’ और 1925 में साम्यवादियों ने बंगाल में ‘किसान मजदूर पार्टी’ का गठन कर लिया गया था। बिहार में 1929 में सहजानंद सरस्वती द्वारा स्थापित ‘बिहार किसान सभा’ 1934 में एक मजबूत संगठन के रूप में उभरी। 1935 में उत्तर प्रदेश में भी ‘प्रादेशिक किसान सभा’ का गठन किया गया। एन.जी. रंगा और ई.एम.एस. नंबूदरीपाद ने 1935 में मद्रास प्रेसीडेंसी के दूसरे भाषाई क्षेत्रों में भी किसान आंदोलन को फैलाने की कोशिश की, एक ‘दक्षिण भारतीय किसान-खेत मजदूर संघ’ का गठन किया और एक अखिल भारतीय किसान संगठन की चर्चा शुरू की।
अखिल भारतीय किसान सभा (1936)
किसान सभाओं के उग्र विकासक्रमों का चरमोत्कर्ष 11 अप्रैल, 1936 को कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के समय ‘अखिल भारतीय किसान कांग्रेस’ का गठन था, जिसका नाम बाद में ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ कर दिया गया। इसकी स्थापना साम्यवादियों और कांसपा ने मिलकर लखनऊ में की थी। इसके पहले अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती और महासचिव एन.जी. रंगा चुने गये। इस सभा ने अगस्त में एक किसान घोषणा-पत्र जारी किया और इंदुलाल याज्ञनिक के निर्देशन में एक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। किसान सभा ने अपने घोषणा-पत्र में ऋणों में कमी करने, कम लाभदायक जोतों पर भूमिकर हटाने, किराया तथा भूमिकर को कम करने, साहूकारों को लाइसेंस लेने के लिए बाध्य करने, कृषि-मजदूरों का न्यूनतम् वेतन निर्धारित करने, गन्ने तथा अन्य व्यापारिक फसलों के लिए उचित दर निश्चित करने एवं सिंचाई के साधनों को विकसित करने की माँग करने के साथ-साथ जमींदारी प्रथा की समाप्ति और भूमि किसानों को ही देने की माँग की गई थी। इसके अलावा किसानों से भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने की अपील भी की गई थी।
1935 में एक संयुक्त मोर्चा की रणनीति-संबंधी कॉमिनटर्न के फैसले के बाद साम्यवादियों और अनेक कांसपा नेताओं ने किसान सभा की सदस्यता ली। अपने कांसपाई सदस्यों के कारण किसान सभा कांग्रेस की अंग बनी रही और प्रांतीय कांग्रेस समितियों से उसके गहरे संबंध बने रहे। कांसपा नेताओं ने संयुक्त प्रांत, बिहार और उड़ीसा जैसे प्रांतों में जहाँ आंदोलन पहले से मौजूद था, वहाँ उसे मजबूत बनाने में मदद की और अन्य प्रांतों में भी आंदोलन को फैलाने में मदद दी, जैसे बंगाल में, जहाँ एक प्रांतीय किसान सभा का गठन मार्च 1937 में किया गया।
किसान आंदोलन और प्रांतीय सरकारें
कांग्रेस के अंदर वामपंथ का उभार न तो वल्लभभाई पटेल, भूलाभाई देसाई, सी. राजगोपालाचारी और राजेंद्र प्रसाद जैसे दक्षिणपंथियों को पसंद न था और न ही प्रतिबद्ध गांधीवादियों को, किंतु चुनाव करीब आ रहे थे, इसलिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपने कराची और फैजपुर अधिवेशनों में एक प्रगतिशील खेतिहर कार्यक्रम स्वीकार करना पड़ा। 1937 के प्रांतीय चुनावों हेतु जारी कांग्रेस का घोषणा-पत्र भी अखिल भारतीय किसान सभा के घोषणा-पत्र से प्रभावित था। यही नहीं, वामपंथी दबाव के कारण कुछ प्रांतों में कांग्रेस को अपने चुनाव घोषणा-पत्र में जमींदारी के उन्मूलन को भी शामिल करने की स्वीकृति देनी पड़ी थी।
1937 के प्रारंभ में जब देश के बहुसंख्यक प्रांतों में कांग्रेस सरकारों का गठन हुआ, तो किसान आंदोलनों की आवृत्ति बहुत बढ़ गई। एक तो, इस काल में आंदोलनों के लिए नागरिक स्वतंत्रताएँ अधिक मिलीं। दूसरे, कांग्रेसी सरकारों ने काश्तकारी व्यवस्था में सुधार और कर्ज के बोझ से छुटकारा दिलाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाये। इससे किसानों को नई प्रेरणा मिली और वे अधिक संगठित हुए।
प्रांतों में किसान-गतिविधियाँ
बिहार
बिहार में किसान सभा का आंदोलन स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में शुरू हुआ था, जिन्होंने किसानों को उनके दखली अधिकारों पर जमींदारों के हमलों के विरुद्ध संगठित करने के लिए 1929 में बिहार प्रांतीय किसान सभा का गठन किया था। संभवतः आरंभ में सभा का उद्देश्य वर्गीय सामंजस्य को बढ़ावा देना था, ताकि जमींदारों और असामियों का बढ़ता टकराव व्यापक राष्ट्रवादी मोर्चे को हानि न पहुँचाए। किंतु जब 1934 में उसका (सभा का) पुनरुत्थान हुआ तो समाजवादियों के प्रभाव के कारण उसने 1935 में जमींदारी-उन्मूलन को अपना कार्यक्रम घोषित किया। इस समय तक सभा की सदस्यता बढ़कर 33,000 हो चुकी थी। इस किसान आंदोलन ने किसानों का एक व्यापक मोर्चा बनाने की कोशिश की। यद्यपि उसे नेतृत्व और मुख्य जनाधार धनी दखलदार असामियों से मिला, पर उसमें मँझोले और गरीब किसानों की भी काफी भागीदारी रही।
बिहार प्रांतीय किसान सभा ने 1936 से ही ‘बकाश्त भूमि’ के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था। बकाश्त भूमि वह भूमि होती थी, जो मंदी की वजह से लगान न दे पाने के कारण किसानों ने जमींदारों को दे दिया था। यद्यपि यह भूमि अब भी किसानों के ही अधिकार में थीं, किंतु वे उस पर बँटाईदार की हैसियत से खेती करते थे। इस विशेष भूमि से जमींदार फसल का भाग ले लेता था। जमींदारों ने अधिक से अधिक भूमि इस वर्ग में लाने का प्रयास किया, ताकि किसानों को मौरूसी अधिकार न मिल सके। 1937 में बहुत से मुजारों को किसी न किसी बहाने बेदखल कर दिया गया। कांग्रेस मंत्रिमंडल ने लगान की दर कम करने और बकाश्त जमीनों की वापसी के लिए कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू की। किंतु कांग्रेस के रूढ़िवादी नेतृत्व और जमींदारों के साथ उनके गठजोड़ से जो निर्णय हुआ, वह किसान सभा के नेताओं को स्वीकार नहीं हो सका, क्योंकि बकाश्त भूमि का एक हिस्सा ही किसानों को वापस मिलना था और वह भी तब, जब वे भूमि के नीलामी मूल्य का आधा भुगतान करते।
बकाश्त जमीनों की बहाली के लिए किसान सभाओं ने बेदखल किसानों को संगठित कर एक जुझारू आंदोलन आरंभ कर दिया। इस आंदोलन में कार्यानंद शर्मा, राहुल सांकृत्यायान जैसे लोगों ने किसानों का नेतृत्व किया। जमींदारों और पुलिस के अत्याचार के विरुद्ध 18 अक्टूबर 1937 को किसान सभाओं ने ‘किसान दिवस’ मनाया। अपने बुनियादी वैचारिक रुझान में यह आंदोलन सुधारवादी था।
यह आंदोलन 1938-39 तक अपने चरम पर पहुँच गया और गया जिले के रेवड़ा और मंझियावाँ इलाकों में, शाहाबाद के छपरा इलाके में, मुंगेर के बड़हिया ताल में और कोसी दियारा क्षेत्र के संथाल बँटाईदारों में फैल गया। ग्रामीण किसानों ने कांग्रेसी सरकार से जमींदारी प्रथा को समाप्त कर भूमि भूमिहर किसानों में बाँटने की माँग की।
बौखलाये जमींदारों ने कांग्रेस सरकार पर दबाव डाला कि वह बल प्रयोग कर आंदालन का दमन करे। जमींदारों के लठैतों और पुलिस के दमन साथ-साथ सरकार द्वारा अगस्त 1939 में घोषित ‘बकाश्त भूमि अधिनियम’ तथा ‘बिहार मुजारा अधिनियम’ जैसे नये कानूनों के कारण आंदोलन कुछ समय के लिए रुक-सा गया। अब बिहार कांग्रेस अपने को किसान सभा से दूर रखने के प्रयास करने लगी और अपने सदस्यों को इसके साथ जुड़ने से मना कर दिया। 1945 में कुछ क्षेत्रों में यह आंदोलन फिर शुरू हो गया और तब तक चलता रहा, जब तक जमींदारी प्रथा खत्म नहीं हो गई।
संयुक्त प्रांत
संयुक्त प्रांत में भी कांग्रेसी मंत्रिमंडल से किसान सभा के कार्यकत्र्ताओं का मोहभंग हुआ। इसका कारण था कि सरकार ने 1938 के उस दखलदारी कानून की धार को काफी कुंद कर दिया, जिससे आरंभ में लगानों में आधे की कमी की आशा की गई थी। प्रांतीय किसान सभा ने नरेंद्रदेव और मोहनलाल गौतम जैसे नेताओं के नेतृत्व में मंत्रिमंडल के विरुद्ध किसानों के प्रदर्शन हुए, लेकिन नेहरू के प्रभाव के कारण ऐसे प्रतिरोध सीमाबद्ध और इक्के-दुक्के ही रहे।
पंजाब
पंजाब में 1930 के दशक के शुरू में किसान सभाएँ अस्तित्व में आ गई थीं। किसान सभा के कार्यकर्त्ता गाँव-गाँव घूमकर सभाओं और सम्मेलनों का आयोजन करते थे। नौजवान भारत सभा, किरती किसान, कांग्रेस और अकाली दल के कार्यकर्त्ताओं ने 1937 में ‘पंजाब किसान समिति’ की स्थापना कर उन्हें एक सूत्र में गूँथ दिया। पंजाब के किसानों की मुख्य माँग थी- भू-राजस्व में कमी और ऋणों के भुगतान का स्थगन, लेकिन आंदोलन का तात्कालिक कारण अमृतसर एवं लाहौर में भू-राजस्व में वृद्धि, मुल्तान एवं मांटगोमरी में सिंचाई कर में वृद्धि और निजी ठेकेदारों द्वारा नये टैक्स लगाया जाना था। यहाँ किसानों ने अपनी माँगों के समर्थन में हड़ताल किये। अंततः भूस्वामियों को कुछ रियायतों की घोषणा करनी पड़ी।
विश्वयुद्ध के कारण यह आंदोलन संघर्ष कुछ समय के लिए स्थगित हो गया, किंतु 1946-47 में पुनः आरंभ हो गया। पंजाब की पटियाला रियासत में भी किसानों ने भगवानसिंह लोगोवाल और जोगीसिंह जोगा जैसे वामपंथियों के नेतृत्व में आंदोलन शुरू किया, जो रुक-रुककर 1953 तक चलता रहा। पंजाब में किसान जागरण के प्रमुख नेताओं में बाबा सोहनसिंह भाकना, बी.पी.एल. बेदी, बाबा ज्वालासिंह, बाबा रूरसिंह, भगतसिंह बिलगा आदि थे। पश्चिमी पंजाब के मुस्लिम किसान तथा दक्षिण-पूर्वी पंजाब के हिंदू किसान इन आंदोलनों के प्रभाव से प्रायः अछूते ही रहे।
आंध्र प्रदेश
आंध्र प्रदेश के तटवर्ती क्षेत्रों में एन.जी. रंगा के नेतृत्व में किसान सभा के आंदोलन ने जोर पकडा। वहाँ सरकार और जमींदारों के विरुद्ध ‘रैय्यत संघ’ (1928) और ‘आंध्र प्रांतीय रैयत एसोसिएशन’ के सफल संघर्षों की परंपरा थी। एन.जी. रंगा 1933 से ही गुंटूर जिले के अपने गाँव निडोब्रोलू में ‘भारतीय किसान परिषद्’ नाम की संस्था चला रहे थे। उनके नेतृत्व में 1933 में एल्लोर के जमींदारी रैय्यत सम्मेलन ने जमींदारी के उन्मूलन की माँग की। 1937 के चुनावों में जमींदारों तथा उनके समर्थक उम्मीदवारों की पराजय के कारण किसानों का आत्म-विश्वास बढ़ गया और उन्होंने ऋण में राहत की माँग की। 1938 में प्रांतीय किसान सम्मेलन ने सैकड़ों सभाएँ कीं और अपनी माँगों की सूची मद्रास में प्रांतीय विधायिका को सौंप दिया। कांग्रेस ने किसानों की माँग पर एक जमींदारी जाँच समिति बनाई, किंतु कुछ होने के पहले ही कांग्रेसी मंत्रिमंडलों को त्यागपत्र देना पड़ गया।
आंध्र के किसान आंदोलनों की एक उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि किसान कार्यकर्त्ताओं को अर्थशास्त्र एवं राजनीतिशास्त्र में प्रशिक्षित करने के लिए प्रसिद्ध वामपंथी नेता ग्रीष्मकालीन स्कूलों में व्याख्यान देते थे, जिनकी व्यवस्था किसानों के द्वारा दिये गये चंदे से होती थी। इन नेताओं में पी.सी. जोशी, अजय घोष जैसे लोग प्रमुख थे।
उड़ीसा
उड़ीसा प्रांत में औपचारिक रूप से 1935 में स्थापित ‘उत्कल प्रांतीय सभा’ कटक, पुरी और बालासोर जैसे तटवर्ती जिलों में कुछ अतिवादी माँगों पर किसान आंदोलनों को संगठित कर रही थी। मालती चौधरी के नेतृत्व में ‘उत्कल प्रांतीय सभा’ को कांग्रेस मंत्रिमंडल से कृषि-क्षेत्र में सुधार के लिए कानून बनवाने में सफलता मिली। इस सभा ने अपने पहले ही सम्मेलन के एक प्रस्ताव में जमींदारी के उन्मूलन को अपने कार्यक्रम में शामिल किया।
उड़ीसा के किसान नेता भी उस समय आंदोलित हो गये, जब कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने प्रस्तावित दखलदारी कानून में जमींदार-समर्थक संशोधन किया और इस संशोधित कानून को गवर्नर ने तब तक रोके रखा, जब तक किसानों ने 1 सितंबर 1938 को एक विशाल कृषक दिवस रैली नहीं की। पड़ोस के नीलगिरि, धेनकनाल और तलचर जैसे रजवाड़ों में स्थानीय प्रजामंडलों ने किसान आंदोलन खड़े किये थे, किंतु ब्रिटिश रेजिडेंट के सक्रिय संरक्षण में राजाओं (दरबार) ने अनियंत्रित दमन का सहारा लिया और उड़ीसा कांग्रेस अहस्तक्षेप की पुरानी नीति पर चलती हुई इसे चुपचाप देखती रही। फलतः अक्तूबर 1937 में किसान सभा ने आधिकारिक रूप से लाल झंडे को अपना लिया। 1938 में उसने अपने वार्षिक सम्मेलन में वर्ग-सहयोग के गांधीवादी सिद्धांत की निंदा की और घोषणा की कि खेतिहर क्रांति उसका परम लक्ष्य है। फरवरी 1938 में हरिपुरा अधिवेशन ने एक प्रस्ताव द्वारा कांग्रेसियों के किसान सभाओं के सदस्य बनने पर रोक लगा दी, किंतु उसका क्रियान्वयन प्रांतीय शाखाओं पर छोड़ दिया गया।
केरल
केरल के मालाबार क्षेत्र में किसानों ने वामपंथियों के नेतृत्व में ‘कर्षक संघमों’ में संगठित होकर सामंती वसूलियों, अग्रिम लगान वसूली तथा बेदखली इत्यादि के विरुद्ध अभियान छेड़ा। इस आंदोलन में एक विशेष तरीका प्रयोग किया गया, जिसमें किसानों के जत्थे जमींदार के घर जाकर अपनी माँगें प्रस्तुत करते थे और उसका तुरंत समाधान कराते थे। 1938 में किसानों ने ‘मलाबार टेंनेंसी ऐक्ट 1929’ में संशोधन के लिए आंदोलन चलाया और 6 नवंबर 1938 को ‘मलाबार काश्तकारी अधिनियम सुधार दिवस’ के रूप में मनाया।
इन प्रांतों के अतिरिक्त बंगाल, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत के राज्यों और त्रावनकोर तथा हैदराबाद जैसी देसी रियासतों में भी किसान-जागरण हुआ और उनकी मुख्य माँगें एक जैसी ही थीं। बंगाल में वर्धमान के किसानों ने बंकिम मुखर्जी के नेतृत्व में नहर टैक्स के विरुद्ध आंदोलन किया। अप्रैल 1938 में 24 परगना के किसानों ने अपनी माँगों के समर्थन में कलकत्ता तक जुलूस निकाला। असम में सुरमा घाटी के किसानों ने करुणासिंधु राय के नेतृत्व में जमींदारों के अत्याचार के विरुद्ध छः माह तक ‘लगान रोको’ आंदोलन चलाया। मध्य प्रांत की किसान सभा ने मालगुजारी की समाप्ति, टैक्सों में कटौती और ऋणों में स्थगन के लिए नागपुर में मार्च निकाला।
द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद किसान आंदोलन
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वामपंथियों की ‘भटकाव की राजनीति’ के कारण किसान आंदोलन कुछ थम-सा गया। ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के दौरान किसान सभा के साम्यवादियों और गैर-साम्यवादियों के बीच सैद्धांतिक मतभेद इतने गहरे हो गये कि सहजानंद, इंदुलाल याज्ञनिक तथा एन.जी. रंगा सभा से अलग हो गये और 1943 में किसान सभा में विभाजित हो गई।
विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद किसानों ने एक बार फिर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू कर दिया। पंजाब और बिहार में जमींदारी उन्मूलन की माँग उठाई गई। केरल की कम्युनिस्ट पार्टी ने मलाबार क्षेत्र में जमींदारों के विरुद्ध किसानों के पक्ष में एक जुझारू आंदोलन चलाया। 1946-47 के पूरे काल में किसान स्वयंसेवकों ने लगानों की वसूली बंद करने, अधिक मुनाफे के लिए खुले बाजार में चावल की बिक्री रुकवाने और परती जमीनों को खेती के अंतर्गत लाने के उद्देश्य से जमींदारों और मलाबार स्पेशल पुलिस का मुकाबला किया। त्रावनकोर में पुनप्प्रा-वायलार खेतिहर मजदूर-किसानों और प्रशासन के बीच हिसंक टकराव हुए, जिसमें कम से कम 800 किसान मारे गये। तेलंगाना में किसानों ने संगठित रूप से जमींदारों के अत्याचारों का विरोध किया और निजाम के विरुद्ध संघर्ष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
पुन्नप्रा-वायलार का किसान आंदोलन
सबसे हिंसक किसान आंदोलन दक्षिण में स्थित त्रावणकोर रजवाड़े में, औद्योगिक नगर अलेप्पी के पास पुन्नप्रा-वायलार में अक्तूबर 1946 में फूटा। अनाजों की दुर्लभता और नारियल रेशा उद्योग में तालाबंदी के कारण मजदूर पहले से ही हताश और निराश थे, किंतु जब 1946 में अंग्रेजों की निकट भविष्य में वापसी को देखते हुए रजवाड़े की सरकार ने अमेरिकी मॉडल पर आधारित एक अलोकतांत्रिक संविधान लागूकर त्रावणकोर को स्वाधीन जताने की कोशिश की, तो कम्युनिस्टों के नेतृत्व में खेत-मजदूरों, मल्लाहों, मछुआरों और दूसरे निम्न व्यावसायिक समूहों ने 24 अक्तूबर को पुन्नप्रा में एक पुलिस चौकी पर हमला कर दिया, जिसमें तीन पुलिसवाले मारे गये। जवाबी कार्रवाई में अगले दिन सरकारी सेना ने वायलार के एक शिविर में 150 और मेनेसरी में 120 साम्यवादी स्वयंसेवकों को मार डाला। दमन शुरू होते ही आंदोलन तेजी से समाप्त हो गया क्योंकि साम्यवादी नेतृत्व भूमिगत हो गया।
इस विद्रोह का सामुदायिक या जातिगत मुद्दों से कुछ भी लेना-देना नहीं था और यह एक संगठित और अनुशासित मजदूर वर्ग की पैदावार था। लेकिन लगभग 80 प्रतिशत भागीदार निम्न स्तर के, मगर सामाजिक स्तर पर संगठित एझवा जाति के थे और इस बात ने विद्रोहियों में निश्चित ही एकजुटता पैदा की।
भारत में वामपंथ का उदय और विकास (
तेभागा आंदोलन (1946)
तेभागा किसान आंदोलन 1946 में उत्तरी बंगाल में आरंभ हुआ और इसमें पूर्वी बंगाल के दीनाजपुर, रंगपुर तथा पश्चिमी बंगाल के जलपाईगुड़ी और मालदा जिले शामिल थे। तेभागा का अर्थ है- एक तिहाई। बंगाल प्रांतीय किसान सभा के नेतृत्व में बंगाल के बँटाईदारों ने घोषणा की कि वे अब जोतदारों यानी भूस्वामियों का भूमि किराये के रूप में उपज का आधा हिस्सा नहीं, बल्कि बंगाल भूराजस्व आयोग (फ्लाउड आयोग, 1940) की सिफारिश के अनुरूप एक तिहाई हिस्सा ही देंगे। किसानों ने अपने तेभागा इलाके, (मुक्त अंचल) बना लिये, जहाँ उन्होंने वैकल्पिक प्रशासन और मध्यस्थता के न्यायालय स्थापित किये।
बंगाल में सत्ताधारी मुस्लिम लीग की सुहरावर्दी सरकार ने प्रतिक्रियास्वरूप 22 जनवरी 1947 को एक बरगादार विधेयक लाने का प्रस्ताव किया, जिससे लगा कि बरगादारों (बँटाईदारों) की माँग मान ली जायेंगी, किंतु मुस्लिम लीग के अंदरूनी विरोध और कांग्रेस के विरोध के कारण ऐसा नहीं हो सका। फरवरी के बाद आंदोलन तेजी से फैलने लगा। आरंभ में इस आंदोलन के बँटाईदार किसान मुख्यतः आदिवासी और दलित समुदायों के थे, जैसे राजबंसी और नामशूद्र, किंतु शीघ्र ही मुसलमान, हजोंग, संथाल और उराँव भी इसमें शामिल हो गये। इस सभा के नेतृत्व में सभाओं एवं प्रदर्शनों का आयोजन किया गया तथा ‘तिभागा चाई’ (हमें दो-तिहाई भाग चाहिए) एवं ‘इंकलाब जिंदाबाद’ जैसे नारे लगाये गये। यह आंदोलन शीघ्र ही जोतदारों और वर्गादार किसानों (बँटाईदारों) के बीच हिंसक संघर्ष में बदल गया। जोतदारों की अपील पर पुलिस किसानों के निर्मम दमन पर उतारू हो गई, लेकिन किसानों ने पुलिस दमन और जमींदारों के लठैतों का बहादुरी से सामना किया। कई स्थानों पर हिंसक वारदातें हुईं और खानपुर में 20 किसान मारे गये। फरवरी के अंत तक आंदोलन थम-सा गया, किंतु कुछ इलाकों में किसानों ने अपने नेताओं के बिना भी लड़ाई जारी रखने का फैसला किया। यह आंदोलन तब तक चलता रहा, जब तक 1949 में बरगादार अधिनियम नहीं बन गया।
इस आंदोलन में कई स्थानों पर महिलाओं ने न केवल सक्रिय हिस्सेदारी की, अपितु कुछ ने तो आंदोलन का नेतृत्व भी किया। काकद्वीप में महिलाओं ने आंदोलनकारियों के साथ मिलकर सभाओं एवं प्रदर्शनों में हिस्सा लिया। इस आंदोलन के प्रमुख नेताओं में कंपाराम सिंह, भवनसिंह, कृष्णविनोद राय, मुजफ्फर अहमद, सुनील सेन, मोनीसिंह आदि थे।
वर्ली किसान आंदोलन (1945)
पश्चिमी भारत में बंबई से थोड़ी दूर अंबरगांव और दहानू तालुकों के वर्ली आदिम जाति के खेत-मजदूरों और बँटाईदार किसानों ने महाराष्ट्र किसान सभा के नेतृत्व में जंगलों के ठेकेदारों, साहूकारों, धनी कृषकों और भूमिपतियों द्वारा लिये जानेवाले बेगार (वेट्ट) के विरुद्ध विद्रोह किया। इसके पहले 1944 में अंबरगांव के वर्ली आदिवासियों ने घास काटने और पेड़ गिराने जैसे खेतिहर कामों के लिए प्रतिदिन 12 आने (1 रुपया=16 आने) की न्यूनतम् मजदूरी की माँग को लेकर एक असफल हड़ताल की थी। हड़ताल के बाद से ही किसान सभा वर्लियों को संगठित करने लगी थी। मई 1945 में किसान सभा ने बेगार के खात्मे और 12 आने की दैनिक मजदूरी के सवाल पर एक अधिक लंबा आंदोलन चलाने का फैसला किया। यह आंदोलन अंबरगाँव से शुरू होकर पूरे तालुका में तेजी से फैल गया, जहाँ बेगार बंद हो गया और बँधुआ मजदूर स्वतंत्र करा दिये गये।
अक्तूबर 1945 में जब घास-कटाई का मौसम आया, तो किसान सभा ने पाँच सौ पौंड घास की कटाई के लिए न्यूनतम दो से आठ रुपये की मजदूरी की माँग पर एक हड़ताल का आह्वान किया। भूस्वामियों ने धमकियों और अदालती मुकदमों के साथ जिला प्रशासन की मदद से हड़ताल को तोड़ने का प्रयास किया। 11 अक्तूबर को पुलिस ने एक शांतिपूर्ण सभा पर गोली चलाई, जिसमें पाँच वर्ली किसान मारे गये। अंततः हड़ताल लगभग सफल रही और सभी तो नहीं, लेकिन अधिकांश जमींदार किसानों की माँगें मानने पर मजबूर हो गये।
अक्तूबर 1946 में किसान सभा की अगुआई में आंदोलन फिर शुरू हो गया। इस बार जंगलाती कामों के लिए प्रतिदिन सवा रुपये की न्यूनतम् मजदूरी की एक अतिरिक्त माँग की गई, जिसे देने के लिए इमारती लकड़ी की कंपनियां तैयार नहीं थीं। यह लगभग पूरी तरह शांतिपूर्ण हड़ताल एक माह से अधिक समय तक चलती रही और अंत में 10 नवंबर को किसान सभा से एक समझौता करके टिंबर मर्चेट्स एसोसिएशन न्यूनतम् मजदूरी देने पर तैयार हो गया। इस तरह आंदोलन का समापन वर्ली किसानों की भारी जीत के साथ हुआ।
तेलंगाना किसान आंदोलन (1946-1951)
आधुनिक भारत के इतिहास का सबसे व्यापक, जुझारू और संगठित किसान आंदोलन दक्षिण के तेलंगाना में, अर्थात् हैदराबाद रियासत के आठ तेलुगूभाषी जिलों में 1946 में शुरू हुआ जो 1951 तक चलता रहा। यहाँ निजाम के निरंकुश शासन के तहत खेतिहर-संबंध मध्यकालीन सामंती इतिहास के पन्नों से मेल खाता था जिसमें ग्रामीण समाज पर जागीरदारों, पट्टेदारों (भूस्वामियों), देशमुखों और देशपांडेयों (मालगुजारी के अमीनों) का पूरा-पूरा वर्चस्व था। पटेलों और पटवारियों की मिली-भगत से स्थानीय जागीरदार, पट्टेदार और देशमुख किसानों तथा खेतिहर मजदूरों का भरपूर शोषण कर रहे थे। इन जागीरदारों, पट्टेदारों और देशमुखों को स्थानीय प्रशासन तथा पुलिस के साथ ही निजाम सरकार का संरक्षण भी प्राप्त था।
किसान पहले से ही कम दाम पर अनाज की जबरन वसूली व सामंती दमन से असंतुष्ट थे। जब पुलिस ने कम्युनिस्ट नेता कमरैया की हत्या कर दी, तो साम्यवादियों के नेतृत्व में किसानों ने ‘संघम’ के रूप में संगठित होकर देशमुखों पर आक्रमण प्रारंभ कर दिया। उन्होंने गुरिल्ला आक्रमण की नीति अपनाई और हथियारों के रूप में लाठियों, पत्थर के टुकड़ों एवं मिर्च के पाउडर का उपयोग किया। शीघ्र ही विद्रोह वारंगल एवं कम्मम में भी फैल गया। जुलाई 1947 में निजाम ने घोषणा की कि अंग्रेजों के जाने के बाद हैदराबाद स्वतंत्र रहेगा और भारतीय संघ में शामिल नहीं होगा। इसका अर्थ सड़े-गले मध्यकालीन शासन का जारी रहना था। अब किसानों ने हैदराबाद के निजाम के विरुद्ध भी आंदोलन छेड़ दिया। निजाम के समर्थन से अल्पसंख्यक मुस्लिम कुलीनों के संगठन ‘मजलिस इत्तेहादुल-मुसलमीन’ ने अपने हथियारबंद दस्तों के बल पर तेलंगाना के गाँवों में आतंक का राज कायम कर दिया। इस दमन का सामना करने के लिए साम्यवादी नेतृत्व में किसान भी छापामार दस्ते बनाने लगे, बड़े जमींदारों की परती और फालतू जमीनों पर कब्जा करके उनका पुनर्वितरण करने लगे। उन्होंने मुक्त समझे जा रहे अंचलों में अपनी ग्राम पंचायतें या सोवियतें बना लीं। सितंबर 1948 के मध्य आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। 13 दिसंबर 1948 को भारतीय सेना जब हैदराबाद में घुसी, तो निजाम की स्वतंत्रता का सपना टूट गया और उसकी सेना, पुलिस तथा रजाकार दस्तों ने तुरंत समर्पण कर दिये। भारतीय सेना ने कम्युनिस्ट छापामारों के विरुद्ध भी अपनी पुलिस कार्रवाई शुरू की और यह असमान संघर्ष अक्तूबर 1951 में आंदोलन की औपचारिक वापसी तक चला।
उपनिवेशी भारत के इतिहास में तेलंगाना आंदोलन संभवतः सबसे व्यापक सबसे तीव्र और सबसे संगठित किसान आंदोलन था। एक अनुमान के मुताबिक इस आंदोलन में लगभग 16,000 वर्गमील क्षेत्रफल के मोटेतौर पर 30 लाख आबादी वाले लगभग 3000 गाँवों के किसान शामिल थे। इस आंदोलन ने ग्रामीण दलों के लगभग 10,000 सदस्यों को लामबंद किया, लगभग 2,000 छापामार दस्ते बनाये और लगभग दस लाख एकड़ जमीन का पुनर्वितरण किया। आंदोलन में लगभग 4,000 कम्युनिस्ट कार्यकर्ता या किसान स्वयंसेवक मारे गये, जबकि लगभग 10,000 कैद किये गये तथा और भी कई हजार लोगों को परेशान किया गया या यातनाएँ दी गईं।
यद्यपि यह आंदोलन व्यापक वर्गीय और सामुदायिक संगठनों पर आधारित था जो अकसर कमजोर साबित होते थे। जमीनों पर कब्जे के आरंभ के बाद वर्गीय गठबंधन चरमराने लगा और जमीनों की हदबंदी का सवाल धनी किसानों के पक्ष में तय किया गया। फिर भी, बेगार प्रथा पूरी तरह समाप्त हो गई, खेतिहर किसानों की मजदूरियाँ बढ़ा दी गईं और अवैध रूप से कब्जा की गई जमीन किसानों को लौटा दी गईं। लगान की दरों को तय करने, भूमि के पुनर्वितरण और सिंचाई-सुविधाओं में वृद्धि के लिए कदम उठाये गये। इस प्रकार भारत की सबसे बड़ी देसी रियासत से अर्ध-सामंती व्यवस्था का उन्मूलन हो गया। इस आंदोलन ने भाषाई आधार पर आंध्र प्रदेश के गठन की भूमिका तैयार की।
किसान आंदोलनों का राष्ट्रीय आंदोलन से संबंध
इस प्रकार किसान आंदोलनों का उदय और विकास भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहा। यद्यपि किसानों के आंदोलन कमजोर, विभाजित और स्थानीय थे, फिर भी इनमें निश्चित तौर पर संघर्ष और विरोध करने की शक्ति विद्यमान थी। किसान आंदोलनों की विचारधारा राष्ट्रीयता पर आधारित थी और किसानों ने न केवल औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध संघर्ष किया, बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। राष्ट्रीय आंदोलन की तरह किसान आंदोलनों में भी हिंसक संघर्ष अपवाद ही थे, नियम नहीं। हिंसक संघर्ष प्रायः घोर दमन की स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया में ही हुए। यह किसान आंदोलनों का ही परिणाम था कि आजादी के बाद कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधार किये गये, जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया गया और कृषि-ढाँचे के रूपांतरण की पृष्ठभूमि बनी।
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