भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में किसानों की भूमिका
प्रायः माना जाता है कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में किसानों की कोई सार्थक भूमिका नहीं थी, किंतु यह धारणा सही नहीं है। भारतीय किसानों ने ब्रिटिश राज की स्थापना के समय से ही ऊँची लगान दरों, अवैध करों, भेदभावपूर्ण बेदखली और जमींदारी क्षेत्रों में बेगार जैसी बुराइयों से त्रस्त होकर परजीवी बिचौलियों, लोभी साहूकारों, भ्रष्ट अधिकारियों और जमींदार-दरोगा गठजोड़ के विरुद्ध अपना विरोध प्रकट करना शुरू कर दिया था। ब्रिटिश राज में समय-समय पर हुए विभिन्न किसान आंदोलनों ने न केवल स्वतंत्रता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, बल्कि अंग्रेजी सत्ता की नींव को भी हिलाकर रख दिया।
आरंभिक किसान आंदोलन
संन्यासी विद्रोह ने 1763 से 1800 के बीच उत्तरी बंगाल और बिहार के साथ लगे क्षेत्रों को हिलाकर रख दिया। हथियारबंद घुमक्कड़ संन्यासियों के समूह कंपनी की भारी मालगुजारी माँगों, माफी की जमीनों की जब्ती और व्यापार पर एकाधिकार से असंतुष्ट थे। संन्यासी विद्रोह के समानांतर बंगाल के मिदनापुर में चुआर किसानों ने 1766-72 के बीच भूमिकर में वृद्धि के कारण विद्रोह किया। तमिलनाडु (मालाबार) में 1790 में पोलिगारों का प्रतिरोध और बंगाल के उत्तरी जिलों में 1783 का रंगपुर विद्रोह किसानों के प्रतिरोध के प्रमुख उदाहरण हैं।
किसान विद्रोहों का यह सिलसिला 19वीं सदी में भी जारी रहा। मेदिनीपुर जिले में 1806-16 के बीच नायकों ने, 1842-43 में बुंदेलों ने, पूर्वी बंगाल के शेरपुर परगना में पागलपंथियों ने और 1838-57 के बीच बंगाल के फरैजियों ने जमींदारों, नीलहे साहबों और ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध विद्रोह किया।
1840 और 1850 के दशकों में दक्षिण भारत के मालाबार क्षेत्र में मोपलाओं ने अति-आकलन, अवैध करों के बोझ और न्यायपालिका व पुलिस के जमींदार-समर्थक रवैये के कारण हिंदू जेनमियों (जमींदारों) और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। इसी प्रकार जंगलों और उनके आसपास रहने वाले आदिवासी किसानों ने स्थानीय संसाधनों पर ब्रिटिश नियंत्रण, शोषणकारी नीतियों और गैर-आदिवासी कारिंदों व ब्रिटिश अधिकारियों की ज्यादतियों के विरुद्ध जुझारू संघर्ष किए। खानदेश के भीलों ने 1819 और 1825 में, और अहमदनगर जिले के कोल आदिवासी किसानों ने 1829 और 1844-46 में ब्रिटिश सरकार की सफलतापूर्वक अवज्ञा की।
बिहार और उड़ीसा के छोटानागपुर और सिंहभूमि क्षेत्रों में 1831-32 में कोलों ने, और जुलाई 1855 में संथालों ने तीर-कमानों से लैस होकर अपने उत्पीड़कों, महाजनों और सरकार की तिकड़ी के विरुद्ध खुला विद्रोह किया। इसके अतिरिक्त, असम के अहोमों, पूना के कोलों और रामोसियों, ओखा मंडल के बघेरों, नागर प्रांत में गडकरियों और उड़ीसा के पाइकों ने भी लगान की बढ़ी दरों के विरुद्ध हथियार उठाए।
यद्यपि आरंभिक चरण के किसान आंदोलनों का स्वरूप उग्र था, किंतु सीमित उद्देश्यों, वर्ग-जागृति की अनुपस्थिति, सामंती नेतृत्व और औपनिवेशिक शासन से इसके गठजोड़ तथा व्यवस्थित संगठन के अभाव के कारण ये आंदोलन किसी सुनियोजित आंदोलन का हिस्सा न होकर अलग-अलग घटनाओं के रूप में सामने आए। फिर भी, इन किसान आंदोलनों ने उपनिवेशी राज्य के वर्चस्व को गंभीर चुनौती दी।
किसान दमन के राजनीतिक स्रोतों के प्रति पूरी तरह सजग थे, जो उनके हमलों के निशानों से स्पष्ट होता है, जैसे जमींदारों के घर, उनके अनाज भंडार, सूदखोर, सौदागर और अंततः अंग्रेजों की राजसत्ता, जो उत्पीड़न के इन स्थानीय साधनों की रक्षा के लिए आगे आ जाती थी। ये विद्रोह खुले और सार्वजनिक थे, इसलिए इन्हें अपराधों से भिन्न राजनीतिक कृत्य माना जा सकता है। इस समय के किसान विद्रोह आधुनिक राष्ट्रवाद से भिन्न थे, क्योंकि विद्रोह का प्रसार, स्थान और जातीय सीमा विद्रोहियों की अपनी समझ पर निर्भर था, जिसमें वह समुदाय विशेष रहता और कार्य करता था, जैसे संथालों की लड़ाई उनकी ‘पितृभूमि’ के लिए थी। कभी-कभी उपजातीय संबंध क्षेत्रीय सीमाओं के पार भी फैले, जैसे कोलियों के विद्रोह, जो विभिन्न क्षेत्रों में एक साथ उठे। इस प्रकार ग्रामीण जनसमूहों के जुझारू आंदोलनों में ऐसा कुछ भी नहीं था जो राजनीतिक न हो।
1857 और उसके बाद के किसान आंदोलन
1857 के विद्रोह में अवध और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने जमींदारों की ज्यादतियों को भुलाकर सामंतशाहों के साथ मिलकर विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंकने का प्रयास किया। किसानों को दंडित करने के लिए लॉर्ड केनिंग ने उनके भूमि स्वामित्व के अधिकार समाप्त कर दिए।
1857 के बाद राजनीतिक विवशता के कारण ब्रिटिश सरकार ने सामंतशाही को बनाए रखने के लिए अवध के ताल्लुकेदारों को न केवल उनकी अधिकांश भूमि वापस की, बल्कि उन्हें दंड और कर-संबंधी कुछ अधिकार देकर पुरस्कृत भी किया। दाखिलकारों के अधिकारों की अवहेलना की गई और अवध के मुख्य आयुक्त ने 1859 के बंगाल किराया अधिनियम की धाराओं को अवध में लागू करने से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, कुछ स्थानों पर किसानों को दंडित करने के लिए करों में वृद्धि भी की गई।
1857 के बाद किसानों ने अपनी माँगों के लिए सीधे संघर्ष शुरू किया। नई लगान व्यवस्था के परिणामस्वरूप औपनिवेशिक शोषण का मुख्य आघात किसान वर्ग को ही झेलना पड़ा। यह केवल कानूनी रूप से ही नहीं, बल्कि जमींदार, ताल्लुकेदार और साहूकार अनेक अवैध उपकर वसूल करके काश्तकारों को तंग करते थे। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के एक जिले में एक भूस्वामी ने अपने लड़के के लिए ‘ग्रामोफोन’ खरीदने हेतु ‘ग्रामोफोनिंग’ नामक उपकर लगाया। एक ताल्लुकेदार ने अपनी पत्नी के पैर में जहरीले घाव के उपचार के लिए ‘पकवान उपकर’ वसूला। ब्रिटिश शासन के दौरान हुए कुछ प्रमुख किसान आंदोलनों का विवरण इस प्रकार है:
बंगाल का नील आंदोलन (1859-1862)
बंगाल का नील आंदोलन उन अंग्रेज बगान मालिकों (नीलहों) के खिलाफ था, जो अपनी जागीरों में सामंतों जैसा व्यवहार करते थे और किसानों को नील की अलाभकारी खेती के लिए बाध्य करते थे।
19वीं सदी के आरंभ से कुछ अवकाशप्राप्त यूरोपीय अधिकारी और नव-धनिकों ने बंगाल और बिहार में जमींदारों से भूमि प्राप्त कर यूरोपीय बाजारों की माँग के लिए बड़े पैमाने पर नील की खेती शुरू की। नीलहे निरक्षर किसानों को मामूली रकम अग्रिम देकर बाजार भाव से कम दर पर करारनामा लिखवाते थे, जिसे ‘ददनी प्रथा’ कहा जाता था। किसानों के लिए अग्रिम वापस करके शोषण से मुक्ति पाना असंभव था। सत्ता के संरक्षण में पल रहे नीलहों ने बाद में करार लिखना भी बंद कर दिया और लठैतों के बल पर नील की खेती करवाने लगे। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में नीलहों का उत्पीड़न बढ़ गया, क्योंकि 1847 में उनका वित्तीय स्रोत यूनियन बैंक दिवालिया हो गया और नील का आर्थिक महत्त्व कम हो गया।
नील आंदोलन की शुरुआत 1859 में बंगाल के नदिया जिले के गोविंदपुर गाँव से हुई, जब कलारोवा के डिप्टी मजिस्ट्रेट ने पुलिस को आदेश दिया कि किसानों को अपनी भूमि पर इच्छानुसार उत्पादन करने की अनुमति दी जाए। सितंबर 1859 में एक नील-उत्पादक के दो भूतपूर्व कर्मचारियों, दिगंबर विश्वास और विष्णु विश्वास ने किसानों को एकजुट करके नील की खेती बंद करवा दी। 13 सितंबर को नील-उत्पादक के लगभग सौ लठैतों ने गोविंदपुर पर हमला किया, किंतु किसानों ने लाठियों और भालों से इसे विफल कर दिया।
अप्रैल 1860 में भारतीय इतिहास की पहली हड़ताल हुई, जब किसानों ने नीलहों से अग्रिम लेने, करार करने, नील की बुआई करने और नील गरमाने से इनकार कर दिया। यह हड़ताल शीघ्र ही जैसोर, नदिया, पबना, खुलना, राजशाही, ढाका, मालदा, दीनाजपुर और बंगाल के अन्य क्षेत्रों में फैल गई। नीलहों के समर्थकों ने मार्च 1860 में कलकत्ता में कुछ उत्साही मजिस्ट्रेटों की मदद से एक अस्थायी कानून बनवाया, ताकि किसानों को नील की खेती के लिए मजबूर किया जा सके। किंतु किसानों से सहानुभूति रखने वाले जॉन पीटर ग्रांट ने इस कानून की अवधि छह माह से आगे बढ़ाने से इनकार कर दिया और मजिस्ट्रेटों को नील की खेती के लिए पेशगी लेने हेतु किसानों को बाध्य करने से मना किया। जब नीलहों ने अवज्ञाकारी काश्तकारों को बेदखल करने की कोशिश की, तो किसानों ने 1859 के लगान कानून दस (रेंट ऐक्ट 10) के तहत अपने दखलदार रैयत अधिकारों को मनवाने के लिए अदालतों की शरण ली। सरकार को अधिसूचना जारी करनी पड़ी कि रैयतों की भूमि की रक्षा की जाए, जिसमें वे मनचाही खेती कर सकें और नील की खेती करवाने में कोई हस्तक्षेप न हो। नीलहों को दीवानी मुकदमे चलाने की छूट दी गई। इसी आधार पर 1860 में नील आयोग (इंडिगो कमीशन) नियुक्त किया गया, जिसके सुझाव 1862 के अधिनियम 4 में शामिल किए गए।
1863 तक यह आंदोलन समाप्त हो गया, क्योंकि बंगाल के नील-उत्पादक अपने कारखाने बंद कर बिहार के अपेक्षाकृत दूरस्थ और पिछड़े क्षेत्रों में चले गए। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद इसका संक्षिप्त पुनरुत्थान हुआ, किंतु चंपारन में नील की खेती को पूरी तरह समाप्त करने के लिए 1917 में गांधीजी के हस्तक्षेप की प्रतीक्षा करनी पड़ी।
इस नील आंदोलन का महत्त्वपूर्ण तत्त्व बंगाल के बुद्धिजीवियों और कुछ यूरोपीय मिशनरियों का सक्रिय हस्तक्षेप था, जिन्होंने संघर्षरत किसानों के पक्ष में सशक्त अभियान चलाए। दीनबंधु मित्र ने सितंबर 1860 में अपने बंगला नाटक ‘नील दर्पण’ में नीलहों के अत्याचारों का मार्मिक चित्रण किया। सुप्रसिद्ध बंगला कवि माइकेल मधुसूदन दत्त ने इस नाटक का अंग्रेजी में अनुवाद किया, जिसे मिशनरी सोसायटी के रेवरेंड जेम्स लॉन्ग ने प्रकाशित किया। इस कारण लॉन्ग पर कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट में मानहानि का मुकदमा चला और उन्हें एक माह की कैद व 1,000 रुपये का जुर्माना हुआ। भारतीय प्रेस, विशेषकर ‘हिंदू पैट्रियट’ और ‘सोमप्रकाश’ ने भी नील किसानों की माँगों को उठाया।
पबना किसान आंदोलन (1873-1876)
इस आंदोलन का केंद्र पूर्वी बंगाल का पबना जिला था, इसलिए इसे ‘पबना आंदोलन’ कहा जाता है। यद्यपि 1859 के अधिनियम 10 के तहत पबना के काश्तकारों को बेदखली और लगान वृद्धि के विरुद्ध कुछ संरक्षण प्राप्त था, फिर भी गैर-कानूनी वसूलियाँ (अबवाब) और लगान की दर में निरंतर वृद्धि उनकी मुख्य शिकायत थी। विशेषकर, जमींदारों द्वारा उनके दखली अधिकारों को समाप्त करने के प्रयासों का वे विरोध कर रहे थे। जमींदार लगातार बारह वर्ष तक एक ही भूखंड का पट्टा नहीं देते थे, जिससे किसान कानूनी संरक्षण प्राप्त करने के अधिकारी बन सकें। 1873 में पबना जिले के युसुफशाही परगने में एग्रेरियन लीग (किसान संघ) की स्थापना हुई। इस संघ ने चंदा इकट्ठा कर जमींदारों के खिलाफ मुकदमे दायर किए। धीरे-धीरे यह आंदोलन पूर्वी बंगाल के अन्य जिलों—ढाका, मैमनसिंह, त्रिपुरा, बाकरगंज, फरीदपुर, बोगरा और राजशाही में फैल गया और जमींदारों के खिलाफ मुकदमे तेजी से दायर होने लगे।
किसान अपने कानूनी अधिकारों के प्रति काफी जागरूक हो चुके थे और उन्हें एकता, संगठन और शांतिपूर्ण संघर्ष के माध्यम से अधिकारों की बहाली का तरीका पता था। जब अदालती फैसलों को लागू करने में बाधा पहुँचाई गई, तब किसानों ने लाठियों का सहारा लिया। यद्यपि सरकार ने सैन्य शक्ति के बल पर आंदोलन को दबा दिया, किंतु बाद में किसानों की शिकायतों के लिए एक जाँच समिति गठित की गई। इसकी रिपोर्ट के आधार पर ‘बंगाल टेनेंसी ऐक्ट’ (1885) लागू किया गया।
इस अधिनियम के अनुसार बारह वर्ष तक एक ही गाँव में एक ही भूमि पर खेती करने वाले किसानों को दखलंदाजी का अधिकार दिया गया और भूमि-स्थानांतरण बंद कर दिया गया। इकरारनामे के उल्लंघन को छोड़कर किसी भी परिस्थिति में किसान को उसकी भूमि से बेदखल नहीं किया जा सकता था। कर-वृद्धि की सीमा समाप्त कर दी गई और न्यायालय के बाहर अनुबंध द्वारा इसे 12 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता था। बेदखली की स्थिति में हर्जाना देना अनिवार्य था। किंतु विधेयक की जटिलताओं के कारण जमींदारों को अधिक लाभ हुआ, हालाँकि किसानों को भी कुछ अधिकार प्राप्त हुए।
कई युवा बुद्धिजीवियों, जैसे बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय और आर.सी. दत्त, ने पबना आंदोलन का समर्थन किया। 1880 के दशक में बंगाल काश्तकारी विधेयक पर चर्चा के दौरान सुरेंद्रनाथ बनर्जी, आनंद मोहन बोस और द्वारकानाथ गांगुली ने ‘इंडियन एसोसिएशन’ के माध्यम से काश्तकारों के अधिकारों की रक्षा के लिए अभियान चलाया और जोतने वाले को मालिकाना हक देने की माँग की। राष्ट्रवादी अखबारों ने भी कर वृद्धि को अनुचित बताते हुए स्थायी लगान-निर्धारण का सुझाव दिया।
यह आंदोलन न तो जमींदारी प्रथा के खिलाफ था और न ही उपनिवेशवाद-विरोधी राजनीति से जुड़ा था। इसमें रैयतों में अधिकांश मुसलमान और जमींदारों में अधिकांश हिंदू थे। फिर भी, हिंदू और मुसलमान किसानों ने पूर्ण एकजुटता के साथ संघर्ष किया।
दक्कन मराठा किसान आंदोलन (1874)
पश्चिमी भारत के दक्कन क्षेत्र में हुए विभिन्न किसान आंदोलनों (मराठा किसानों का उदय) का मुख्य कारण रैयतवारी बंदोबस्त के तहत भारी कर और गुजराती व मारवाड़ी साहूकारों द्वारा किसानों का शोषण था। 1864 में अमेरिकी गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद विश्व मंडियों में कपास की कीमतें गिर गईं और अधिक भूमिकर के कारण मराठा किसान ऋण के बोझ से दबते चले गए। महाराष्ट्र के पूना और अहमदनगर जिलों में लालची और बेईमान साहूकार लेखों में हेराफेरी कर अनपढ़ किसानों से ऋण के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करवाते थे। दीवानी के फैसले अक्सर साहूकारों के पक्ष में होते थे और किसानों को बेदखल कर दिया जाता था।
दिसंबर 1874 में स्थिति तब बिगड़ गई, जब शिरूर तालुका के करडाह गाँव में एक मारवाड़ी सूदखोर कालूराम ने बाबा साहेब देशमुख के खिलाफ 150 रुपये के ऋण के लिए बेदखली का आज्ञापत्र लेकर उनका मकान गिरा दिया। इससे गाँववालों का गुस्सा फूट पड़ा और आंदोलन शुरू हो गया।
किसानों ने शांतिपूर्ण बहिष्कार के माध्यम से विरोध जताया। उन्होंने महाजनों और सूदखोर व्यापारियों की दुकानों से सामान खरीदना बंद कर दिया और उनके खेतों की जुताई करने से इनकार कर दिया। बुलोटीदारों (गाँव की प्रजा) जैसे नाई, धोबी, बढ़ई, लुहार, मोची और घरेलू नौकरों पर भी पाबंदी लगाई गई कि वे महाजनों के यहाँ काम न करें। यह सामाजिक बहिष्कार जून 1875 तक पूना, अहमदनगर, सतारा और शोलापुर जिलों में फैल गया। दमन के कारण यह बहिष्कार शीघ्र ही कृषि दंगों में बदल गया। किसानों ने महाजनों और सूदखोरों के घरों व व्यापारिक प्रतिष्ठानों पर हमले किए, उनके ऋण-संबंधी कागजात और करारनामे लूटकर सार्वजनिक रूप से जला दिए।
पुलिस और सेना की मदद से 100 से अधिक लोग गिरफ्तार किए गए और विद्रोह को दबा दिया गया। किंतु इस विद्रोह का आधार इतना लोकप्रिय था कि सरकार को किसी किसान के खिलाफ गवाह तक नहीं मिला। उपद्रव के कारणों का पता लगाने के लिए ‘दक्कन उपद्रव आयोग’ गठित किया गया। किसानों की दशा सुधारने के लिए 1879 में ‘दक्कन-कृषक राहत अधिनियम’ पारित किया गया, जिसमें दीवानी विधि-संहिता की कुछ धाराओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अब किसानों को ऋण न लौटाने पर गिरफ्तार या जेल में बंद नहीं किया जा सकता था।
महाराष्ट्र में तत्कालीन बुद्धिजीवियों ने किसानों के हितों के लिए आवाज उठाई। रानाडे के नेतृत्व में 1873-77 में ‘पूना सार्वजनिक सभा’ ने भू-राजस्व समझौता अधिनियम 1867 के विरुद्ध पूना और बंबई में आंदोलन चलाया, जिसे किसानों ने पूर्ण समर्थन दिया। ‘पूना सार्वजनिक सभा’ और कई राष्ट्रवादी अखबारों ने ‘दक्कन-कृषक राहत विधेयक’ का समर्थन किया।
पंजाब भूमि अपवर्तन अधिनियम (1900)
बंगाल और महाराष्ट्र के उपद्रवों को पंजाब में दोहराने से बचने के लिए सरकार ने प्रभावशाली नीति अपनाई। 1895 में भारत सरकार ने प्रांतीय सरकारों को कृषि-भूमि के हस्तांतरण पर रोक लगाने का निर्देश दिया। 1896-97 और 1899-1900 के भयंकर अकालों ने इसकी आवश्यकता सिद्ध की।
पंजाब भूमि अपवर्तन अधिनियम 1900 एक प्रयोग के रूप में पारित किया गया, जिसे सफल होने पर शेष भारत में लागू करने की योजना थी। इसके तहत पंजाब के लोगों को तीन वर्गों में बाँटा गया: कृषक, कानून द्वारा स्थापित कृषक (जो कृषि-संबंधी गतिविधियों में रुचि रखते थे) और शेष अन्य (साहूकार आदि)। प्रथम वर्ग की भूमि को न तो गिरवी रखा जा सकता था और न ही बेचा जा सकता था। दूसरे और तीसरे वर्ग के लोग आपस में भूमि का लेन-देन कर सकते थे। पंजाब के लोगों को भूमिकर में राहत दी गई और सहारनपुर नियमों को लागू किया गया, जिसके अनुसार भूमिकर वार्षिक भाटक के आधे से अधिक नहीं हो सकता था।
बीसवीं शताब्दी में किसान आंदोलन
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में किसान विद्रोह पिछले दशकों की तुलना में अधिक व्यापक, प्रभावी, संगठित और सफल थे। इस दौरान एक ओर गांधीजी ने चंपारन सत्याग्रह (1917) और खेड़ा सत्याग्रह (1918) के माध्यम से ग्रामीण जनता और किसानों से नजदीकियाँ स्थापित कर राष्ट्रीय आंदोलन का सामाजिक आधार बढ़ाने का प्रयास किया, ताकि स्वतंत्रता आंदोलन को जन-आधारित बनाया जा सके। दूसरी ओर जागरूक किसानों ने संगठित होकर किसान सभाओं का गठन किया और राष्ट्रीय आंदोलन को समर्थन दिया।
बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक में साम्यवादी और वामपंथी दलों ने किसानों में वर्ग चेतना उत्पन्न की और किसान सभाओं के गठन में विशेष भूमिका निभाई। इस काल में आंध्र प्रदेश, बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, और बिहार में किसान सभाएँ गठित हुईं। इस चरण में उत्तर प्रदेश किसान सभा (इंद्रनारायण द्विवेदी, 1917), रैयत एसोसिएशन (एन.जी. रंगा, 1923), संयुक्त प्रांत किसान संघ (1924), बिहार प्रादेशिक किसान सभा (स्वामी सहजानंद, 1929) और कृषि श्रमिक संघ जैसे संगठनों की शुरुआत हुई। इसी समय बंगाल में अब्दुल रहीम और फजलुल हक के नेतृत्व में ‘कृषक प्रजा पार्टी’ (जुलाई 1929) और पंजाब में फजले हुसैन की ‘यूनियनिस्ट पार्टी’ का गठन हुआ।

उत्तर प्रदेश किसान सभा (1917)
अवध के किसान 19वीं सदी के उत्तरार्ध में ही लगान की ऊँची दरों, बेदखली, अवैध करों और जमींदारों के मनमाने अत्याचारों के कारण असंतुष्ट थे, किंतु उनका संगठित प्रतिरोध बीसवीं सदी के दूसरे दशक में शुरू हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद बढ़ी महँगाई ने उनकी कमर तोड़ दी थी और उनके पास खोने को कुछ नहीं बचा था।
अवध में होमरूल आंदोलन के कार्यकर्ताओं ने किसानों को संगठित करना शुरू किया। गौरीशंकर मिश्र और इंद्रनारायण द्विवेदी ने मदनमोहन मालवीय और पंडित मोतीलाल नेहरू के सहयोग से 1917 में ‘उत्तर प्रदेश किसान सभा’ का गठन किया। जून 1919 तक इस सभा ने सूबे की 173 तहसीलों में 450 शाखाएँ स्थापित कीं। फतेहपुर, इलाहाबाद, मैनपुरी, बनारस, कानपुर, जालौन, बलिया, रायबरेली, एटा और गोरखपुर जिलों में किसान सभा की अनेक बैठकें होने लगीं।
1919 के अंत में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया। प्रतापगढ़ जिले की एक जागीर में ‘नाई-धोबी बंद’ सामाजिक बहिष्कार की पहली घटना हुई। 1920 में, जब राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हुईं, अवध की ताल्लुकेदारी में झिंगुरीसिंह और दुर्गापालसिंह ने ग्राम पंचायतों के नेतृत्व में बैठकों का सिलसिला शुरू किया। शीघ्र ही आंदोलन का नेतृत्व बाबा रामचंद्र के हाथों में चला गया।
जून 1920 में बाबा रामचंद्र और जौनपुर-प्रतापगढ़ के किसानों के अनुरोध पर जवाहरलाल नेहरू ने ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा कर किसान सभा से संपर्क स्थापित किया। प्रतापगढ़ जिले का ‘रूर’ गाँव किसान सभा की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन गया, जहाँ किसान अपनी शिकायतें दर्ज कराते थे। प्रत्येक किसान से आठ आना (50 पैसा) शुल्क लिया जाता था। आंदोलन की तीव्रता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब 28 अगस्त 1920 को ताल्लुकेदारों के इशारे पर बाबा रामचंद्र और 32 किसानों को चोरी के झूठे आरोप में गिरफ्तार किया गया, तो ब्रिटिश सरकार को बाबा को छोड़ना पड़ा।
अवध किसान सभा (1920)
राष्ट्रवादी नेताओं में मतभेद के कारण अवध के किसान नेताओं ने ‘उत्तर प्रदेश किसान सभा’ से नाता तोड़कर 17 अक्टूबर 1920 को प्रतापगढ़ जिले में बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में ‘अवध किसान सभा’ का गठन किया। एक महीने के भीतर उत्तर प्रदेश किसान सभा की सभी इकाइयाँ इसमें विलय हो गईं। प्रतापगढ़ जिले की पट्टी तहसील का ‘खरगाँव’ नवगठित सभा का मुख्यालय बना और यहाँ एक किसान परिषद का गठन हुआ।
अवध किसान सभा ने किसानों से बेदखली, जमीन न जोतने और बेगार न करने की अपील की। इसका पालन न करने वालों का बहिष्कार करने का आह्वान किया गया। किसानों को अपने मामले पंचायतों के माध्यम से निपटाने को कहा गया। जनवरी 1921 में कुछ क्षेत्रों में स्थानीय नेताओं की गलतफहमी और आक्रोश के कारण आंदोलन ने हिंसक रूप ले लिया। इस दौरान किसानों ने बाजारों, घरों और अनाज की दुकानों पर धावा बोला और पुलिस के साथ हिंसक झड़पें हुईं। रायबरेली, फैजाबाद और सुल्तानपुर इन गतिविधियों के मुख्य केंद्र थे। किंतु सरकारी दमन के कारण आंदोलन कमजोर पड़ गया। इसी बीच सरकार ने ‘अवध मालगुजारी रेंट संशोधन अधिनियम’ पारित किया, जिससे आंदोलन और कमजोर हुआ और मार्च 1921 तक समाप्त हो गया।
इस आंदोलन में देहाती बुद्धिजीवियों, जैसे बाबा, साधु और फकीर, ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसकी एक प्रमुख विशेषता महिलाओं की सक्रिय भागीदारी थी। आगे चलकर महिलाओं की इस संगठित शक्ति का प्रतिरूप ‘अखिल भारतीय किसानिन सभा’ के रूप में सामने आया, जो संभवतः भारत में आम महिलाओं का पहला संगठन था।
एका (एकता) आंदोलन (1921)
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी, हरदोई, बहराइच और सीतापुर जिलों में 1921 के अंत में बेगारी, लगान वृद्धि और राजस्व वसूली में जमींदारों की दमनकारी नीतियों के विरोध में एका आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन में प्रतीकात्मक धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन किया जाता था। सभास्थल पर एक गड्ढा खोदकर उसमें पानी भरा जाता था, जिसे गंगा माना जाता था। एक पुजारी वहाँ एकत्रित किसानों को गंगा की सौगंध दिलाता था कि वे निर्धारित लगान ही देंगे, उससे एक पैसा अधिक नहीं, किंतु समय पर देंगे; बेदखल किए जाने पर जमीन नहीं छोड़ेंगे, बेगार नहीं करेंगे, अपराधियों की मदद नहीं करेंगे और पंचायत के फैसले मानेंगे।
एका आंदोलन का नेतृत्व मदारी पासी, सहदेव और अन्य निचले तबके के किसानों व छोटे जमींदारों ने किया। मार्च 1922 तक यह आंदोलन संयुक्त प्रांत के अधिकारियों के लिए परेशानी का कारण बना रहा।
मोपला किसान आंदोलन (1921)
केरल के मलाबार तट के मोपला बहुसंख्यक मुस्लिम बँटाईदार और किसान थे, जबकि जमींदारी अधिकार मुख्यतः उच्च वर्ग के हिंदुओं, नंबूदरियों, और नायर जेनमियों के पास थे। मोपला विद्रोह मुख्यतः भूस्वामियों और काश्तकारों के बीच खेतिहर संघर्षों से संबंधित था, यद्यपि संयोगवश भूस्वामी हिंदू और काश्तकार मुस्लिम थे। इन संघर्षों को हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों के रूप में प्रचारित किया गया।
उन्नीसवीं सदी में भी जमींदारों के अत्याचारों से त्रस्त मोपलाओं ने कई बार विद्रोह किए। उनकी मुख्य माँगें थीं: सामंती वसूलियाँ, नवीकरण शुल्क और लगान की अग्रिम अदायगी समाप्त हो; ‘हम जोतेंगे’ के आधार पर बेदखली बंद हो; भूराजस्व, लगान और ऋण में कमी हो; जमींदार सही तौल का उपयोग करें और उनके प्रबंधकों का भ्रष्टाचार समाप्त हो।
अप्रैल 1920 में मंजेरी में मलाबार जिला कांग्रेस सम्मेलन ने खिलाफत का समर्थन किया और जमींदार-काश्तकार संबंधों को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाने की माँग की। इसके बाद कोझीकोड और अन्य गाँवों में काश्तकारों के संगठन बने, और उनकी बैठकों में माँगें उठाई गईं। महात्मा गांधी, शौकत अली और मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं ने इन क्षेत्रों का दौरा कर आंदोलनों का समर्थन किया।
संघर्ष की शुरुआत 20 अगस्त 1921 को हुई, जब एरनाड तालुके के मजिस्ट्रेट ने सेना और पुलिस के साथ तिरुरांगड़ी मस्जिद पर छापा मारकर किसान नेता अली मुदालियर को गिरफ्तार करने का प्रयास किया। मुदालियर नहीं मिले, किंतु मस्जिद पर छापे की खबर से मोपले हिंसा पर उतर आए। विद्रोहियों ने पुलिस स्टेशनों, सरकारी कार्यालयों, संचार विभाग, शोषक भूस्वामियों और महाजनों के घरों पर हमले किए। कई तालुकों से अंग्रेजी सत्ता का नियंत्रण समाप्त हो गया, और वहाँ गण की स्थापना हुई। विद्रोही मोपला किसान मुसलमान थे, किंतु उदार जमींदारों और हिंदुओं को उन्होंने परेशान नहीं किया।
अंग्रेजों ने इस आंदोलन का निर्मम दमन किया। सरकारी आँकड़ों के अनुसार दमन में 2,337 लोग मारे गए और 1,652 घायल हुए, जबकि मृतकों की वास्तविक संख्या 10,000 से अधिक थी। 45,404 आंदोलनकारी बंदी बनाए गए, जिनमें खिलाफत और कांग्रेस के नेता याकूब हसन, यू. गोपाल मेनन, पी. मोइद्दीन कोया और के. माधवन नायर शामिल थे। 20 नवंबर 1921 को 66 मोपला बंदियों को रेल की बोगी में दम घोंटकर मार दिया गया। ब्रिटिश सरकार की कुटिल नीति के कारण आंदोलन ने सांप्रदायिक रूप ले लिया, जिससे मोपले अलग-थलग पड़ गए और दिसंबर 1921 तक विद्रोह पूरी तरह कुचल दिया गया। यह वस्तुतः साम्राज्यवाद के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह था।
किसान आंदोलन की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
किसानों की माँगें मुख्यतः लगान में कमी और मध्य प्रांत, बंगाल, बिहार,और संयुक्त प्रांत के बँटाईदारों द्वारा फसल का अधिक न्यायपूर्ण बँटवारा थीं। मध्य प्रांत में किसानों ने भूराजस्व में कमी, काश्तकारी नियमों में संशोधन, बेदखली के विरुद्ध संरक्षण और ऋणग्रस्तता से बचाव के लिए हिंसक प्रदर्शन किए। बंगाल में 1920 के दशक में बँटाईदारी प्रथा तेजी से फैली, किंतु स्वराजी कांग्रेसियों ने बरगादारों को काश्तकार मानने का विरोध किया। उन्होंने मेमनसिंह, ढाका, पबना, खुलना,और नदिया जैसे जिलों में नामशूद्र और मुसलमान बरगादारों के आंदोलनों के प्रति सहानुभूति नहीं दिखाई। 1920 में बिहार के दरभंगा रियासत में बलात् वसूली के विरोध में विशुभरण के नेतृत्व में किसानों ने आंदोलन किया। 1922 में स्वामी विश्वानंद ने जमींदारी समाप्त करने की माँग उठाई।
संयुक्त प्रांत में कांग्रेस ने कुछ हद तक किसान-समर्थक रुख दिखाया और 1924 में संयुक्त प्रांत किसान संघ की स्थापना की। किंतु यहाँ भी इस संघ ने जमींदारों के विरुद्ध कोई कड़ा रुख नहीं अपनाया। तंजौर में, जहाँ समृद्ध मिरासदार रहते थे, मालगुजारी वृद्धि का सफल विरोध हुआ। तटीय आंध्र में एन.जी. रंगा ने 1923 में गुंटूर में पहली रैयत एसोसिएशन स्थापित की।
राजस्थान में सामंत-विरोधी किसान आंदोलन (1920)
1920 में राजस्थान के बिजौलिया और बेगू में सामंत-विरोधी किसान आंदोलन शुरू हुए, जो पूरे दशक तक चले। बिजौलिया के किसान विजयसिंह पथिक, मणिकलाल वर्मा, जयनारायण और हरिभाऊ उपाध्याय जैसे नेताओं के नेतृत्व में नए महसूलों और बेगार के विरुद्ध सत्याग्रह के तरीके अपना रहे थे। विजयसिंह पथिक ने कानपुर से प्रकाशित गणेशशंकर विद्यार्थी के पत्र ‘प्रताप’ के माध्यम से बिजौलिया आंदोलन को राष्ट्रीय चर्चा का विषय बनाया।
मई 1925 में अलवर रियासत के नीमूचना में भूराजस्व में 50 प्रतिशत वृद्धि का विरोध करने वाले 156 किसानों का नरसंहार हुआ, और 600 घायल हुए। इस समय कांग्रेस रजवाड़ों में अहस्तक्षेप की नीति पर चल रही थी, किंतु किसानों ने जिस त्याग और बलिदान के साथ निरंकुश नौकरशाही और स्वेच्छाचारी सामंतों का मुकाबला किया, वह इतिहास बन गया।
वरसाड आंदोलन (1923-24)
सितंबर 1923 में वरसाड में प्रत्येक वयस्क पर दो रुपये सात आने का ‘डकैती कर’ लगाया गया, ताकि डकैतों के दमन के लिए पुलिस व्यवस्था की जा सके। कर न देने का आंदोलन शीघ्र ही 104 गाँवों तक फैल गया। अंततः फरवरी 1924 में सरकार को यह आदेश रद्द करना पड़ा। वल्लभभाई पटेल के वरसाड सत्याग्रह को ‘ग्रामीण गुजरात में पहला सफल गांधीवादी सत्याग्रह’ कहा गया है।
तटीय आंध्र क्षेत्र में किसान आंदोलन
1927 में कृष्ण-गोदावरी मुहाना क्षेत्र में अंग्रेज सरकार द्वारा राजस्व में 19 प्रतिशत वृद्धि के प्रयास के परिणामस्वरूप तटीय आंध्र में सशक्त किसान आंदोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन को पूर्वी गोदावरी में वेन्नेती सत्यनारायण और पश्चिमी गोदावरी में दंडू नारायण राजू जैसे स्थानीय कांग्रेसी नेताओं के साथ टी. प्रकाशम और कांडा वेंकटपय्या जैसे राष्ट्रीय नेताओं ने चलाया।
बारदोली किसान आंदोलन (1928)
बारदोली किसान आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का सबसे संगठित, व्यापक और सफल आंदोलन था। यह 1928 में सूरत (गुजरात) के बारदोली तालुके में लगान न देने के लिए शुरू हुआ। यह क्षेत्र 1922 से राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था। 137 गाँवों और 87,000 जनसंख्या वाले बारदोली में कुनबी-पाटीदार किसानों की मुख्य जाति थी, जो 1908 से मेहता बंधुओं (कुंवरजी और कल्याणजी मेहता) के नेतृत्व में संगठित होने लगे थे। मेहता बंधुओं और दयालजी देसाई ने असहयोग आंदोलन के लिए जनमत तैयार किया था।
जनवरी 1926 में स्थानीय प्रशासन ने भू-राजस्व में 30 प्रतिशत वृद्धि की घोषणा की, जिसका कांग्रेसी नेताओं और स्थानीय लोगों ने तीव्र विरोध किया। सरकार ने बारदोली जाँच आयोग गठित किया, जिसने जुलाई 1926 में वृद्धि को अनुचित बताया। जुलाई 1927 में सरकार ने वृद्धि को 30 से घटाकर 21.97 प्रतिशत किया, किंतु यह रियायत पर्याप्त नहीं थी। कादोद संभाग के बामनो गाँव में 60 गाँवों के प्रतिनिधियों ने वल्लभभाई पटेल को आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया। पटेल ने 5 फरवरी 1928 से पहले बारदोली आने का आश्वासन दिया, क्योंकि उसी तारीख को लगान देय था। स्थानीय नेताओं ने गांधीजी का समर्थन भी प्राप्त किया।
वल्लभभाई पटेल ने बारदोली पहुँचकर सत्याग्रह का नेतृत्व संभाला। उन्होंने बढ़े हुए लगान के विरुद्ध सरकार को पत्र लिखा, किंतु सकारात्मक उत्तर नहीं मिला। उन्होंने किसानों की बैठक बुलाई और प्रस्ताव पारित किया कि जब तक सरकार स्वतंत्र आयोग गठित नहीं करती या लगान वृद्धि वापस नहीं लेती, तब तक लगान नहीं दिया जाएगा। किसानों ने ‘प्रभु’ और ‘खुदा’ के नाम पर कसम खाई कि वे लगान नहीं देंगे। इस प्रकार बारदोली सत्याग्रह शुरू हुआ।
आंदोलन को संगठित करने के लिए तालुके को 13 कार्यकर्ता शिविरों में बाँटा गया। जनमत निर्माण के लिए ‘बारदोली सत्याग्रह’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। आंदोलन के तरीकों का पालन सुनिश्चित करने के लिए एक बौद्धिक संगठन स्थापित किया गया। विरोध करने वालों का सामाजिक बहिष्कार किया गया। महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए गए। अगस्त 1928 तक आंदोलन पूरे क्षेत्र में सक्रिय हो चुका था। बंबई में रेलवे में हड़ताल हुई। सरकार ने पशुओं और भूमि को जब्त कर आंदोलन दबाने का प्रयास किया।
कांग्रेस के नरमपंथी गुट ने ‘सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी’ के माध्यम से सरकार से माँगों की जाँच का अनुरोध किया। के.एम. मुंशी और लालजी नारंजी ने बंबई विधान परिषद की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। देश में जनमत सरकार-विरोधी होता गया। ब्रिटेन की संसद में भी बहस हुई। जुलाई 1928 में वायसराय लॉर्ड इरविन ने बंबई के गवर्नर विल्सन को मामले को शीघ्र निपटाने का निर्देश दिया। पटेल की गिरफ्तारी की संभावना को देखते हुए 2 अगस्त 1928 को गांधीजी बारदोली पहुँचे। ब्लूमफील्ड और मैक्सवेल समिति ने भू-राजस्व वृद्धि को गलत बताया और 30 प्रतिशत वृद्धि को घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दिया। लंदन से प्रकाशित ‘न्यू स्टेट्समैन’ ने 5 मई 1929 के अंक में लिखा : “जाँच समिति की रिपोर्ट सरकार के मुँह पर तमाचा है… इसके दूरगामी परिणाम होंगे।” गांधीजी ने कहा : “बारदोली संघर्ष चाहे जो हो, यह स्वराज्य के लिए नहीं है, किंतु इस तरह का हर संघर्ष हमें स्वराज्य के करीब ले जा रहा है।”
इस आंदोलन में महिलाओं, जैसे मीठूबेन पेटिट, भक्तिवा, मनीबेन पटेल, शारदाबेन शाह और शारदा मेहता ने सक्रिय भूमिका निभाई। सत्याग्रह की सफलता पर बारदोली की महिलाओं ने वल्लभभाई पटेल को ‘सरदार’ की उपाधि दी। कालिपराज जनजाति, जो ‘हाली पद्धति’ के तहत पाटीदार किसानों की जमीन जोतती थी, ने भी हिस्सा लिया। गांधीजी ने 1927 में कालिपराजों के सम्मेलन में उन्हें ‘रानीपराज’ (वनवासी) की उपाधि दी।
1930-40 के दशक में किसान आंदोलन
20वीं शताब्दी के चौथे दशक में किसानों में राष्ट्रव्यापी जागरण आया, जिसके परिणामस्वरूप संयुक्त प्रांत, बिहार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और पंजाब में किसान सभाओं का तेजी से प्रसार हुआ। यह 1929-30 की विश्वव्यापी मंदी और 1930-34 में कांग्रेस के जनसंघर्ष का परिणाम था। मंदी के कारण 1932 तक खेतिहर पैदावार की कीमतें 50 प्रतिशत से अधिक गिर गईं, जबकि किसानों को कर, लगान और ऋण पुरानी दरों पर चुकाने पड़ रहे थे। कांग्रेस ने 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया, जिसने कई क्षेत्रों में ‘कर और लगान न देने’ का रूप लिया। गुजरात के सूरत और खेड़ा में किसानों ने टैक्स देने से इनकार किया और दमन से बचने के लिए हिजरत पर चले गए। बंगाल और बिहार में ‘चौकीदारी कर’ का विरोध हुआ। पंजाब में ‘टैक्स रोको’ अभियान के साथ किसान सभाएँ उभरीं। उत्तर प्रदेश में गांधीजी ने किसानों से 50 प्रतिशत लगान देने और पूरे की रसीद लेने की अपील की। महाराष्ट्र, बिहार और मध्य प्रांत में ‘जंगल सत्याग्रह’ के माध्यम से नए वन-नियमों का विरोध हुआ। आंध्र में जमींदार-विरोधी आंदोलन चला, जिसका पहला निशाना नेल्लोर की वेंकटगिरि जमींदारी बनी।
सविनय अवज्ञा आंदोलन ने युवा और जुझारू वामपंथी कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ी पैदा की, जिन्होंने किसानों का बड़े पैमाने पर राजनीतिकरण किया। 1923 में ‘रैयत सभा’ और 1925 में साम्यवादियों ने बंगाल में ‘किसान मजदूर पार्टी’ गठित की। बिहार में 1929 में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने ‘बिहार किसान सभा’ की स्थापना की, जो 1934 में मजबूत संगठन बनी। 1935 में उत्तर प्रदेश में ‘प्रादेशिक किसान सभा’ गठित हुई। एन.जी. रंगा और ई.एम.एस. नंबूदरीपाद ने मद्रास प्रेसीडेंसी के अन्य भाषाई क्षेत्रों में किसान आंदोलन फैलाने के लिए ‘दक्षिण भारतीय किसान-खेत मजदूर संघ’ बनाया और अखिल भारतीय किसान संगठन की चर्चा शुरू की।

अखिल भारतीय किसान सभा (1936)
किसान सभाओं के विकास का चरमोत्कर्ष 11 अप्रैल 1936 को कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में ‘अखिल भारतीय किसान कांग्रेस’ (बाद में ‘अखिल भारतीय किसान सभा’) का गठन था। इसे साम्यवादियों और कांसपा ने मिलकर स्थापित किया। स्वामी सहजानंद सरस्वती पहले अध्यक्ष और एन.जी. रंगा महासचिव चुने गए। सभा ने अगस्त में एक किसान घोषणा-पत्र जारी किया और इंदुलाल याज्ञनिक के निर्देशन में एक पत्र का प्रकाशन शुरू किया। घोषणा-पत्र में ऋणों में कमी, कम लाभदायक जोतों पर भूमिकर हटाने, किराया व भूमिकर कम करने, साहूकारों को लाइसेंस लेने के लिए बाध्य करने, कृषि-मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन निर्धारित करने, गन्ने व अन्य व्यापारिक फसलों के लिए उचित दर निश्चित करने और सिंचाई साधनों के विकास के साथ-साथ जमींदारी प्रथा की समाप्ति और भूमि किसानों को देने की माँग की गई। इसके अतिरिक्त, किसानों से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने की अपील की गई।
1935 में कॉमिनटर्न के संयुक्त मोर्चा रणनीति के फैसले के बाद साम्यवादियों और कांसपा नेताओं ने किसान सभा की सदस्यता ली। कांसपा नेताओं ने संयुक्त प्रांत, बिहार और उड़ीसा में आंदोलन को मजबूत किया और बंगाल जैसे अन्य प्रांतों में इसे फैलाया, जहाँ मार्च 1937 में प्रांतीय किसान सभा गठित हुई।
किसान आंदोलन और प्रांतीय सरकारें
कांग्रेस में वामपंथ का उभार वल्लभभाई पटेल, भूलाभाई देसाई, सी. राजगोपालाचारी और राजेंद्र प्रसाद जैसे दक्षिणपंथियों और गांधीवादियों को पसंद नहीं था, किंतु चुनाव नजदीक होने के कारण कांग्रेस को कराची और फैजपुर अधिवेशनों में प्रगतिशील खेतिहर कार्यक्रम स्वीकार करना पड़ा। 1937 के प्रांतीय चुनावों के लिए कांग्रेस का घोषणा-पत्र किसान सभा से प्रभावित था। वामपंथी दबाव के कारण कुछ प्रांतों में जमींदारी उन्मूलन को भी शामिल करना पड़ा।
1937 में जब अधिकांश प्रांतों में कांग्रेस सरकारें बनीं, तो किसान आंदोलनों की आवृत्ति बढ़ गई। नागरिक स्वतंत्रताएँ बढ़ने और कांग्रेसी सरकारों द्वारा काश्तकारी सुधार व कर्ज राहत के कदमों से किसानों को प्रेरणा मिली, और वे अधिक संगठित हुए।
प्रांतों में किसान गतिविधियाँ
बिहार
बिहार में किसान सभा का आंदोलन स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में शुरू हुआ, जिन्होंने 1929 में बिहार प्रांतीय किसान सभा गठित की। शुरू में सभा का उद्देश्य जमींदारों और असामियों के टकराव को कम कर राष्ट्रवादी मोर्चे को मजबूत करना था। किंतु 1934 में समाजवादियों के प्रभाव से सभा ने 1935 में जमींदारी उन्मूलन को अपना लक्ष्य घोषित किया। तब तक इसकी सदस्यता 33,000 हो चुकी थी। इस आंदोलन ने किसानों का व्यापक मोर्चा बनाया, जिसमें धनी दखलदार असामियों के साथ मँझोले और गरीब किसानों की भी भागीदारी थी।
1936 से सभा ने ‘बकाश्त भूमि’ के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। बकाश्त भूमि वह थी, जो मंदी के कारण लगान न दे पाने के कारण किसानों ने जमींदारों को दे दी थी, किंतु वे उस पर बँटाईदार की हैसियत से खेती करते थे। जमींदार फसल का भाग लेते थे और अधिक से अधिक भूमि को इस वर्ग में लाने का प्रयास करते थे, ताकि किसानों को मौरूसी अधिकार न मिलें। 1937 में कई मुजारों को बेदखल किया गया। कांग्रेस मंत्रिमंडल ने लगान कम करने और बकाश्त भूमि की वापसी के लिए कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू की, किंतु रूढ़िवादी नेतृत्व और जमींदारों के गठजोड़ के कारण केवल आंशिक भूमि वापसी का निर्णय हुआ, वह भी नीलामी मूल्य का आधा भुगतान करने पर।
बकाश्त भूमि की बहाली के लिए किसान सभाओं ने बेदखल किसानों को संगठित कर जुझारू आंदोलन शुरू किया। कार्यानंद शर्मा और राहुल सांकृत्यायन जैसे नेताओं ने इसका नेतृत्व किया। 18 अक्टूबर 1937 को ‘किसान दिवस’ मनाया गया। यह आंदोलन सुधारवादी था और 1938-39 तक गया, शाहाबाद, मुंगेर और कोसी दियारा क्षेत्रों में फैल गया। किसानों ने जमींदारी समाप्त करने और भूमि का पुनर्वितरण करने की माँग की।
जमींदारों ने कांग्रेस सरकार पर दबाव डाला और अगस्त 1939 में ‘बकाश्त भूमि अधिनियम’ और ‘बिहार मुजारा अधिनियम’ के कारण आंदोलन कुछ समय के लिए रुक गया। बिहार कांग्रेस ने किसान सभा से दूरी बनाई और अपने सदस्यों को इससे जुड़ने से मना किया। 1945 में कुछ क्षेत्रों में आंदोलन पुनः शुरू हुआ और जमींदारी उन्मूलन तक चला।
संयुक्त प्रांत
संयुक्त प्रांत में कांग्रेसी मंत्रिमंडल से किसान सभा के कार्यकर्ताओं का मोहभंग हुआ, क्योंकि 1938 के दखलदारी कानून को कमजोर कर दिया गया, जिससे लगान में आधे की कमी की आशा थी। नरेंद्रदेव और मोहनलाल गौतम के नेतृत्व में मंत्रिमंडल के खिलाफ प्रदर्शन हुए, किंतु नेहरू के प्रभाव के कारण ये सीमित रहे।
पंजाब
1930 के दशक में पंजाब में किसान सभाएँ अस्तित्व में आईं। कार्यकर्ता गाँव-गाँव सभाएँ और सम्मेलन आयोजित करते थे। नौजवान भारत सभा, किरती किसान, कांग्रेस, और अकाली दल के कार्यकर्ताओं ने 1937 में ‘पंजाब किसान समिति’ गठित की। किसानों की मुख्य माँग भू-राजस्व में कमी और ऋण भुगतान का स्थगन थी। तात्कालिक कारण अमृतसर और लाहौर में भू-राजस्व वृद्धि, मुल्तान और मॉन्टगोमरी में सिंचाई कर वृद्धि और निजी ठेकेदारों द्वारा नए टैक्स थे। किसानों ने हड़तालें कीं और भूस्वामियों को रियायतें देनी पड़ीं।
विश्वयुद्ध के कारण आंदोलन कुछ समय के लिए रुक गया, किंतु 1946-47 में पुनः शुरू हुआ। पटियाला रियासत में भगवानसिंह लोगोवाल और जोगीसिंह जोगा के नेतृत्व में आंदोलन 1953 तक चला। प्रमुख नेताओं में बाबा सोहनसिंह भाकना, बी.पी.एल. बेदी, बाबा ज्वालासिंह, बाबा रूरसिंह और भगतसिंह बिलगा शामिल थे। पश्चिमी और दक्षिण-पूर्वी पंजाब के मुस्लिम और हिंदू किसान इन आंदोलनों से प्रायः अछूते रहे।
आंध्र प्रदेश
आंध्र के तटवर्ती क्षेत्रों में एन.जी. रंगा के नेतृत्व में किसान सभा का आंदोलन तेज हुआ। ‘रैय्यत संघ’ (1928) और ‘आंध्र प्रांतीय रैयत एसोसिएशन’ के सफल संघर्षों की परंपरा थी। रंगा ने 1933 से निडोब्रोलू में ‘भारतीय किसान परिषद’ गठन किया। 1933 में एल्लोर के जमींदारी रैय्यत सम्मेलन ने जमींदारी उन्मूलन की माँग की। 1937 के चुनावों में जमींदारों की पराजय से किसानों का आत्मविश्वास बढ़ा और उन्होंने ऋण राहत की माँग की। 1938 में प्रांतीय किसान सम्मेलन ने सैकड़ों सभाएँ कीं और माँगों की सूची मद्रास विधायिका को सौंपी। कांग्रेस ने जमींदारी जाँच समिति बनाई, किंतु कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के त्यागपत्र से पहले कुछ नहीं हुआ।
आंध्र के आंदोलनों की विशेषता थी कि कार्यकर्ताओं को अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में प्रशिक्षित करने के लिए वामपंथी नेता, जैसे पी.सी. जोशी और अजय घोष ग्रीष्मकालीन स्कूलों में व्याख्यान देते थे, जिनका खर्च किसानों के चंदे से होता था।
उड़ीसा
उड़ीसा में 1935 में ‘उत्कल प्रांतीय सभा’ गठित हुई, जो कटक, पुरी और बालासोर में अतिवादी माँगों पर आंदोलन संगठित करती थी। मालती चौधरी के नेतृत्व में सभा ने कांग्रेस मंत्रिमंडल से कृषि सुधार के लिए कानून बनवाए। पहले सम्मेलन में जमींदारी उन्मूलन को शामिल किया गया।
किसान नेता तब आंदोलित हुए, जब कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने दखलदारी कानून में जमींदार-समर्थक संशोधन किया। गवर्नर ने इसे रोके रखा, जब तक कि 1 सितंबर 1938 को विशाल कृषक दिवस रैली नहीं हुई। नीलगिरि, धेनकनाल,और तलचर रजवाड़ों में प्रजामंडलों ने आंदोलन खड़े किए, किंतु ब्रिटिश रेजिडेंट के संरक्षण में राजाओं ने दमन किया। उड़ीसा कांग्रेस अहस्तक्षेप की नीति पर चलती रही। अक्टूबर 1937 में किसान सभा ने लाल झंडा अपनाया और 1938 में वर्ग-सहयोग के गांधीवादी सिद्धांत की निंदा करते हुए खेतिहर क्रांति को लक्ष्य घोषित किया। फरवरी 1938 में हरिपुरा अधिवेशन ने कांग्रेसियों के किसान सभाओं में शामिल होने पर रोक लगाई, किंतु इसका क्रियान्वयन प्रांतीय शाखाओं पर छोड़ दिया गया।
केरल
मालाबार में वामपंथियों के नेतृत्व में ‘कर्षक संघमों’ ने सामंती वसूलियों, अग्रिम लगान और बेदखली के विरुद्ध अभियान छेड़ा। किसानों के जत्थे जमींदारों के घर जाकर माँगें प्रस्तुत करते और तुरंत समाधान करवाते थे। 1938 में ‘मलाबार टेनेंसी ऐक्ट 1929’ में संशोधन के लिए आंदोलन चला और 6 नवंबर 1938 को ‘मलाबार काश्तकारी अधिनियम सुधार दिवस’ मनाया गया।
अन्य क्षेत्र
बंगाल, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, त्रावनकोर और हैदराबाद में भी किसान जागरण हुआ। बंगाल में वर्धमान के किसानों ने बंकिम मुखर्जी के नेतृत्व में नहर टैक्स के विरुद्ध आंदोलन किया। अप्रैल 1938 में 24 परगना के किसानों ने कलकत्ता तक जुलूस निकाला। असम में सुरमा घाटी के किसानों ने करुणासिंधु राय के नेतृत्व में छह माह तक ‘लगान रोको’ आंदोलन चलाया। मध्य प्रांत में किसान सभा ने मालगुजारी समाप्ति, टैक्स कटौती और ऋण स्थगन के लिए नागपुर में मार्च निकाला।
द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद के किसान आंदोलन
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वामपंथियों की ‘भटकाव की राजनीति’ के कारण किसान आंदोलन कुछ थम गया। ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में साम्यवादियों और गैर-साम्यवादियों के बीच गहरे मतभेद हुए, जिससे सहजानंद, इंदुलाल याज्ञनिक और एन.जी. रंगा सभा से अलग हो गए और 1943 में सभा विभाजित हो गई।
विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद किसानों ने पुनः संघर्ष शुरू किया। पंजाब और बिहार में जमींदारी उन्मूलन की माँग उठी। केरल में कम्युनिस्ट पार्टी ने मलाबार में जमींदारों के विरुद्ध जुझारू आंदोलन चलाया। 1946-47 में किसान स्वयंसेवकों ने लगान वसूली रोकने, खुले बाजार में चावल की बिक्री बंद करने और परती जमीनों को खेती के लिए उपयोग करने के लिए जमींदारों और मलाबार स्पेशल पुलिस का मुकाबला किया। त्रावनकोर में पुनप्प्रा-वायलार में खेतिहर मजदूरों और प्रशासन के बीच हिंसक टकराव हुआ, जिसमें कम से कम 800 किसान मारे गए। तेलंगाना में किसानों ने जमींदारों और निजाम के विरुद्ध संगठित संघर्ष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
पुन्नप्रा-वायलार का किसान आंदोलन
सबसे हिंसक किसान आंदोलन त्रावनकोर रजवाड़े में अलेप्पी के पास पुन्नप्रा-वायलार में अक्टूबर 1946 में शुरू हुआ। अनाज की कमी और नारियल रेशा उद्योग में तालाबंदी से मजदूर पहले से हताश थे। जब रजवाड़े की सरकार ने अमेरिकी मॉडल पर अलोकतांत्रिक संविधान लागू कर त्रावनकोर को स्वाधीन बनाने की कोशिश की, तो कम्युनिस्टों के नेतृत्व में खेत-मजदूरों, मल्लाहों, मछुआरों और निम्न व्यावसायिक समूहों ने 24 अक्टूबर को पुन्नप्रा में पुलिस चौकी पर हमला किया, जिसमें तीन पुलिसवाले मारे गए। जवाबी कार्रवाई में अगले दिन सरकारी सेना ने वायलार में 150 और मेनेसरी में 120 साम्यवादी स्वयंसेवकों को मार डाला। दमन शुरू होते ही आंदोलन समाप्त हो गया, क्योंकि साम्यवादी नेतृत्व भूमिगत हो गया।
यह विद्रोह सामुदायिक या जातिगत मुद्दों से संबंधित नहीं था और संगठित मजदूर वर्ग की देन था। लगभग 80 प्रतिशत भागीदार एझवा जाति के थे, जिसने विद्रोहियों में एकजुटता पैदा की।
तेभागा आंदोलन (1946)
तेभागा आंदोलन 1946 में उत्तरी बंगाल में शुरू हुआ, जिसमें दीनाजपुर, रंगपुर, जलपाईगुड़ी और मालदा जिले शामिल थे। ‘तेभागा’ का अर्थ है एक तिहाई। बंगाल प्रांतीय किसान सभा के नेतृत्व में बँटाईदारों ने घोषणा की कि वे जोतदारों को उपज का आधा हिस्सा नहीं, बल्कि बंगाल भूराजस्व आयोग (फ्लाउड आयोग, 1940) की सिफारिश के अनुसार एक तिहाई हिस्सा देंगे। किसानों ने ‘मुक्त अंचल’ बनाए, जहाँ वैकल्पिक प्रशासन और मध्यस्थता न्यायालय स्थापित किए।
मुस्लिम लीग की सुहरावर्दी सरकार ने 22 जनवरी 1947 को बरगादार विधेयक लाने का प्रस्ताव किया, किंतु लीग और कांग्रेस के विरोध के कारण यह लागू नहीं हुआ। फरवरी 1947 से आंदोलन तेजी से फैला। शुरू में बँटाईदार आदिवासी और दलित समुदायों, जैसे राजबंसी और नामशूद्र के थे, किंतु बाद में मुसलमान, हजोंग, संथाल और उराँव भी शामिल हुए। सभाओं और प्रदर्शनों में ‘तेभागा चाई’ और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ जैसे नारे लगे। आंदोलन जोतदारों और बरगादारों के बीच हिंसक संघर्ष में बदल गया। पुलिस ने निर्मम दमन किया, लेकिन किसानों ने बहादुरी से मुकाबला किया। खानपुर में 20 किसान मारे गए। फरवरी 1947 के अंत तक आंदोलन थम गया, किंतु कुछ इलाकों में बिना नेताओं के भी जारी रहा। यह 1949 में बरगादार अधिनियम बनने तक चला।
महिलाओं ने कई स्थानों पर सक्रिय हिस्सेदारी की और कुछ ने नेतृत्व भी किया। काकद्वीप में महिलाओं ने सभाओं और प्रदर्शनों में भाग लिया। प्रमुख नेताओं में कंपाराम सिंह, भवनसिंह, कृष्णविनोद राय, मुजफ्फर अहमद, सुनील सेन और मोनीसिंह शामिल थे।
वर्ली किसान आंदोलन (1945)
पश्चिमी भारत में बंबई से थोड़ी दूर अंबरनाथ और दहानू तालुकों के वर्ली आदिम जाति के खेत-मजदूरों और बँटाईदार किसानों ने महाराष्ट्र किसान सभा के नेतृत्व में जंगलों के ठेकेदारों, साहूकारों, धनी कृषकों,और भूस्वामियों द्वारा लिए जाने वाले बेगार (वेट्ट) के विरुद्ध विद्रोह किया। इससे पहले 1944 में अंबरनाथ के वर्ली आदिवासियों ने घास काटने और पेड़ गिराने जैसे खेतिहर कार्यों के लिए प्रतिदिन 12 आने (1 रुपये = 16 आने) की न्यूनतम मजदूरी की माँग को लेकर एक असफल हड़ताल की थी। हड़ताल के बाद से ही किसान सभा वर्लियों को संगठित करने लगी थी। मई 1945 में किसान सभा ने बेगार के खात्मे और 12 आने की दैनिक मजदूरी के सवाल पर एक लंबा आंदोलन चलाने का फैसला किया। यह आंदोलन अंबरनाथ से शुरू होकर पूरे तालुके में तेजी से फैल गया, जहाँ बेगार बंद हो गया और बँधुआ मजदूरों को स्वतंत्र करा दिया गया।
अक्टूबर 1945 में, जब घास-कटाई का मौसम आया, तो किसान सभा ने पाँच सौ पौंड घास की कटाई के लिए न्यूनतम दो से आठ रुपये की मजदूरी की माँग पर एक हड़ताल का आह्वान किया। भूस्वामियों ने धमकियों और अदालती मुकदमों के साथ-साथ जिला प्रशासन की मदद से हड़ताल को तोड़ने का प्रयास किया। 11 अक्टूबर को पुलिस ने एक शांतिपूर्ण सभा पर गोली चलाई, जिसमें पाँच वर्ली किसान मारे गए। अंततः हड़ताल लगभग सफल रही और सभी नहीं, परंतु अधिकांश जमींदार किसानों की माँगें मानने पर मजबूर हो गए।
अक्टूबर 1946 में किसान सभा की अगुआई में आंदोलन फिर शुरू हुआ। इस बार जंगली कार्यों के लिए प्रतिदिन सवा रुपये की न्यूनतम मजदूरी की एक अतिरिक्त माँग की गई, जिसे देने के लिए इमारती लकड़ी की कंपनियाँ तैयार नहीं थीं। यह लगभग पूरी तरह शांतिपूर्ण हड़ताल एक माह से अधिक समय तक चलती रही और अंत में 10 नवंबर को किसान सभा से समझौता करके टिंबर मर्चेंट्स एसोसिएशन न्यूनतम मजदूरी देने पर तैयार हो गया। इस तरह आंदोलन का समापन वर्ली किसानों की भारी जीत के साथ हुआ।
तेलंगाना किसान आंदोलन (1946-1951)
आधुनिक भारत के इतिहास का सबसे व्यापक, जुझारू और संगठित किसान आंदोलन दक्षिण के तेलंगाना में अर्थात् हैदराबाद रियासत के आठ तेलुगूभाषी जिलों में 1946 में शुरू हुआ, जो 1951 तक चला। यहाँ निजाम के निरंकुश शासन के तहत खेतिहर संबंध मध्यकालीन सामंती इतिहास के पन्नों से मेल खाते थे, जिसमें ग्रामीण समाज पर जागीरदारों, पट्टेदारों (भूस्वामियों), देशमुखों और देशपांडों (मालगुजारी के अमीनों) का पूर्ण वर्चस्व था। पटेलों और पटवारियों की मिलीभगत से स्थानीय जागीरदार, पट्टेदार और देशमुख किसानों तथा खेतिहर मजदूरों का भरपूर शोषण कर रहे थे। इन जागीरदारों, पट्टेदारों और देशमुखों को स्थानीय प्रशासन तथा पुलिस के साथ-साथ निजाम सरकार का संरक्षण भी प्राप्त था।
किसान पहले से ही कम दाम पर अनाज की जबरन वसूली और सामंती दमन से असंतुष्ट थे। जब पुलिस ने कम्युनिस्ट नेता कमरैया की हत्या कर दी, तो साम्यवादियों के नेतृत्व में किसानों ने ‘संघम’ के रूप में संगठित होकर देशमुखों पर आक्रमण शुरू कर दिया। उन्होंने गुरिल्ला आक्रमण की नीति अपनाई और हथियारों के रूप में लाठियों, पत्थरों और मिर्च पाउडर का उपयोग किया। शीघ्र ही विद्रोह वारंगल और कम्मम में भी फैल गया। जुलाई 1947 में निजाम ने घोषणा की कि अंग्रेजों के जाने के बाद हैदराबाद स्वतंत्र रहेगा और भारतीय संघ में शामिल नहीं होगा। इसका अर्थ सड़े-गले मध्यकालीन शासन का जारी रहना था। अब किसानों ने हैदराबाद के निजाम के विरुद्ध भी आंदोलन छेड़ दिया। निजाम के समर्थन से अल्पसंख्यक मुस्लिम कुलीनों के संगठन ‘मजलिस इत्तेहादुल-मुसलमीन’ ने अपने हथियारबंद दस्तों के बल पर तेलंगाना के गाँवों में आतंक का राज कायम कर दिया। इस दमन का सामना करने के लिए साम्यवादी नेतृत्व में किसान भी छापामार दस्ते बनाने लगे, बड़े जमींदारों की परती और अनुपयोगी जमीनों पर कब्जा करके उनका पुनर्वितरण करने लगे। उन्होंने मुक्त समझे जाने वाले अंचलों में अपनी ग्राम पंचायतें या सोवियतें बना लीं। सितंबर 1948 के मध्य में आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। 13 सितंबर 1948 को जब भारतीय सेना हैदराबाद में घुसी, तो निजाम की स्वतंत्रता का सपना टूट गया और उसकी सेना, पुलिस तथा रजाकार दस्तों ने तुरंत समर्पण कर दिया। भारतीय सेना ने कम्युनिस्ट छापामारों के विरुद्ध भी अपनी पुलिस कार्रवाई शुरू की और यह असमान संघर्ष अक्टूबर 1951 में आंदोलन की औपचारिक वापसी तक चला।
उपनिवेशी भारत के इतिहास में तेलंगाना आंदोलन संभवतः सबसे व्यापक, सबसे तीव्र और सबसे संगठित किसान आंदोलन था। एक अनुमान के अनुसार इस आंदोलन में लगभग 16,000 वर्ग मील क्षेत्रफल के, मोटे तौर पर 30 लाख आबादी वाले लगभग 3000 गाँवों के किसान शामिल थे। इस आंदोलन ने ग्रामीण दलों के लगभग 10,000 सदस्यों को लामबंद किया, लगभग 2,000 छापामार दस्ते बनाए और लगभग दस लाख एकड़ जमीन का पुनर्वितरण किया। आंदोलन में लगभग 4,000 कम्युनिस्ट कार्यकर्ता या किसान स्वयंसेवक मारे गए, जबकि लगभग 10,000 कैद किए गए तथा और भी कई हजार लोगों को परेशान किया गया या यातनाएँ दी गईं।
यद्यपि यह आंदोलन व्यापक वर्गीय और सामुदायिक संगठनों पर आधारित था, जो अक्सर कमजोर साबित होते थे। जमीनों पर कब्जे के बाद वर्गीय गठबंधन चरमराने लगा और जमीनों की हदबंदी का सवाल धनी किसानों के पक्ष में तय किया गया। फिर भी, बेगार प्रथा पूरी तरह समाप्त हो गई, खेतिहर मजदूरों की मजदूरी बढ़ा दी गई और अवैध रूप से कब्जा की गई जमीन किसानों को लौटा दी गई। लगान की दरों को तय करने, भूमि के पुनर्वितरण और सिंचाई सुविधाओं में वृद्धि के लिए कदम उठाए गए। इस प्रकार भारत की सबसे बड़ी देसी रियासत से अर्ध-सामंती व्यवस्था का उन्मूलन हो गया। इस आंदोलन ने भाषाई आधार पर आंध्र प्रदेश के गठन की भूमिका तैयार की।
किसान आंदोलनों का राष्ट्रीय आंदोलन से संबंध इस प्रकार किसान आंदोलनों का उदय और विकास भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहा। यद्यपि किसान आंदोलन कमजोर, विभाजित और स्थानीय थे, फिर भी इनमें निश्चित तौर पर संघर्ष और विरोध करने की शक्ति विद्यमान थी। किसान आंदोलनों की विचारधारा राष्ट्रीयता पर आधारित थी और किसानों ने न केवल औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध संघर्ष किया, बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। राष्ट्रीय आंदोलन की तरह किसान आंदोलनों में भी हिंसक संघर्ष अपवाद ही थे, नियम नहीं। हिंसक संघर्ष प्रायः घोर दमन की स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया में ही हुए। यह किसान आंदोलनों का ही परिणाम था कि आजादी के बाद कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधार किए गए, जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया गया और कृषि ढाँचे के रूपांतरण की पृष्ठभूमि बनी।










