फ्रांस के चरमोत्कर्ष का काल : लुई XIV (The Climax Period of France : Louis XIV)

फ्रांस के चरमोत्कर्ष का काल : लुई चौदहवें का युग लुई XIV का शासन काल […]

फ्रांस के चरमोत्कर्ष का काल : लुई XIV का युग (The Climax Period of France : The Era of Louis XIV)

फ्रांस के चरमोत्कर्ष का काल : लुई चौदहवें का युग

लुई XIV का शासन काल फ्रांस के चरमोत्कर्ष का काल था। इस काल में फ्रांस यूरोप का सर्वाधिक शक्तिशाली देश था। फ्रांस का राजतंत्र पूर्ण रूप से निरंकुश था। समकालीन यूरोप की राजनीति पर लुई चौदहवें (‘द सन किंग’) का इतना अधिक प्रभाव था कि इस काल को ‘लुई चौदहवें का युग’ कहा जाता है।

लुई चौदहवें का परिचय

लुई चौदहवें का जन्म 5 सितंबर 1638 ई. में हुआ था। उसके पिता लुई तेरहवें की मृत्यु के समय उसकी आयु केवल चार वर्ष थी। उसकी शिक्षा के संबंध में सेंट साइमन ने लिखा है कि लुई अत्यंत कठिनता से लिख-पढ़ सकता था, लेकिन यह सत्य नहीं है। लुई चौदहवें को सामान्य शिक्षा प्राप्त हुई थी। उसे लैटिन, इटालियन, गणित आदि की शिक्षा मिली थी। मेजारिन और ट्यूरेन उसके शिक्षक रहे थे। फिर भी, ऐसा लगता है कि वह बहुत शिक्षित नहीं था। मेजारिन ने उसकी राजनीतिक और सैनिक शिक्षा पर जोर दिया था।

फ्रांस के चरमोत्कर्ष का काल : लुई XIV का युग (The Climax Period of France : The Era of Louis XIV)
फ्रांस के चरमोत्कर्ष का काल : लुई XIV का युग

लुई चौदहवें का सिंहासनारोहण

1643 ई. में लुई तेरहवें की मृत्यु के पश्चात् चार वर्षीय पुत्र लुई चौदहवाँ फ्रांस की गद्दी पर बैठा। इस समय फ्रांस का प्रधानमंत्री कार्डिनल मेजारिन था। वह रिशल्यू का शिष्य था और गृह तथा विदेश नीतियों में वह रिशल्यू की परंपराओं तथा उद्देश्यों का समर्थक था। लुई चौदहवें के अल्पवयस्क होने के कारण उसकी माता ऐन ऑफ ऑस्ट्रिया उसकी संरक्षिका बनी और मेजारिन प्रधानमंत्री के पद पर बना रहा। 1661 ई. तक शासन का वास्तविक संचालक मेजारिन ही था, लेकिन 1661 ई. में मेजारिन की मृत्यु के पश्चात् शासन की बागडोर लुई चौदहवें ने अपने हाथों में ले ली, क्योंकि इस समय वह वयस्क हो चुका था। इसके बाद लुई अपनी मृत्यु (1715 ई.) तक फ्रांस का वास्तविक शासक बना रहा।

लुई चौदहवें की आंतरिक नीति

1661 ई. में जब लुई चौदहवें ने शासन की बागडोर अपने हाथों में ली, उस समय फ्रांस अत्यंत अनुकूल स्थिति में था। तीस वर्षीय युद्ध में फ्रांस की विजय ने उसकी सर्वोच्चता स्थापित कर दी थी। ऑस्ट्रिया अत्यंत दुर्बल स्थिति में था और जर्मनी पर भी उसका नियंत्रण शिथिल हो गया था। स्पेन पतनशील था। जर्मनी आर्थिक दृष्टि से नष्ट हो चुका था और राजनीतिक दृष्टि से विघटित हो रहा था। इंग्लैंड का राजा चार्ल्स द्वितीय तो लुई चौदहवें से धन प्राप्त करता था और लुई की नीतियों का प्रच्छन्न सहयोगी था।

निरंकुश राजतंत्र की स्थापना

रिशल्यू और मेजारिन की नीतियों के फलस्वरूप यूरोप में फ्रांस एक शक्तिशाली देश के रूप में स्थापित हो चुका था। इतना ही नहीं, फ्रांस में उनकी नीतियों से निरंकुश राजसत्ता स्थापित हो चुकी थी। पेरिस की पार्लमां और स्टेट्स जनरल का प्रभाव समाप्त हो चुका था। इस प्रकार लुई चौदहवें की अंतर्राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय स्थितियाँ अत्यंत अनुकूल थीं।

यूरोपीय राजतंत्र के इतिहास में लुई चौदहवें का एक विशिष्ट स्थान है। उसने निरंकुश राजतंत्र के आदर्श को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अत्यंत परिश्रम से अपना कार्य या व्यवसाय सीखता है, लुई ने उसी प्रकार अत्यंत परिश्रम से राजकीय कार्यों को संपादित किया। दरअसल लुई एक-एक इंच राजा था। उसने अपने परिश्रम तथा लगन से राज पद की प्रतिष्ठा तथा गौरव को बढ़ाया। उसके मंत्री उसके सचिव के समान थे। वह स्वयं प्रत्येक विभाग का कार्य देखता था तथा नीति निर्धारण करता था। वास्तव में, वह अपना प्रधानमंत्री स्वयं था।

फ्रांस के चरमोत्कर्ष का काल : लुई XIV का युग (The Climax Period of France : The Era of Louis XIV)
वर्साय का भव्य शीशमहल

राजत्व के बारे में लुई चौदहवें के विचार अत्यंत ऊँचे थे। उसकी माता तथा शिक्षकों ने उसमें यह धारणा बद्धमूल कर दी थी कि वह फ्रांस में शासन करने के लिए ईश्वर द्वारा नियुक्त हुआ है। उसके शिक्षक बोसुए ने उसे निरंकुश शासक बनने की शिक्षा दी और उसमें यह विश्वास स्थापित कर दिया कि राजा ईश्वर का प्रतिरूप है और राजा के माध्यम से ईश्वर संसार पर नियंत्रण रखता है। अतः लुई को राजा के दैवी अधिकारों में विश्वास था। वह किसी के प्रति स्वयं को उत्तरदायी नहीं मानता था। उसने फ्रांस की पार्लमां, स्टेट्स जनरल, प्रांतीय और म्युनिसिपल संस्थाओं के अधिकार बहुत सीमित कर दिए। वास्तव में, उसने अपने शासन काल में स्टेट्स जनरल को कभी बुलाया ही नहीं। राजकीय प्रभाव तथा शक्ति को वह अत्यंत तड़क-भड़क के साथ प्रदर्शित करता था। हेज ने लिखा है कि लुई को यह श्रेय प्राप्त है कि फ्रांस ने दैवी सिद्धांतों को स्वीकार कर लिया व यूरोप में नव स्थापित फ्रांसीसी प्राधान्य को यह श्रेय प्राप्त है कि महाद्वीपीय लोगों ने फ्रांसीसियों का अनुकरण किया व दैवी अधिकृत निरंकुश राजतंत्र के सिद्धांत का पूर्ण रूप से अनुमोदन किया।

वस्तुतः लुई चौदहवें के युग ने ऐसे राजनीतिक सिद्धांतों को स्वीकृति प्रदान की, जिन्होंने फ्रांसीसी राज्यक्रांति के प्रारंभ होने तक एक सदी के लिए यूरोप के अधिकांश देशों को अत्यधिक प्रभावित किया। वास्तव में, लुई स्वयं ही राज्य था और उसके शब्द ही कानून थे। वह स्वयं कहा करता था : ‘मैं ही राज्य हूँ।’

‘राजा साधारण मनुष्य नहीं है’ इस विचार को मूर्त रूप देने के लिए लुई ने पेरिस से बारह मील दूर वर्साय में एक भव्य नगर का निर्माण कराया, जो देवलोक के समान था। वर्साय का राजमहल विलासिता एवं वैभव का प्रतीक था, जिसके निर्माण में 40 से 50 करोड़ की लागत आई थी। इस महल में शीशों का महल, चित्र, पार्क, उद्यान, फव्वारे, छायादार वृक्ष एवं क्रीड़ा के लिए अनेक सुविधाएँ मौजूद थीं। वहाँ के शीश महल (हॉल ऑफ मिरर्स) में ही वह दरबार करता था। उसका वैभव सूर्य के समान देदीप्यमान था, अतः उसे सूर्य सम्राट (सन किंग) कहा गया।

प्रशासन का केंद्रीकरण

प्रशासन के केंद्रीकरण का कार्य रिशल्यू ने आरंभ किया था। उसने जन प्रतिनिधि संस्थाओं को कुचल कर प्रशासन के लिए केंद्रीय अधिकारी नियुक्त किए। अब सामंत अधिकार विहीन हो कर केवल बाह्य प्रदर्शन की वस्तु बन कर रह गए थे। लुई चौदहवें ने इस केंद्रीकरण की नीति को जारी रखा। वह स्वयं अपना प्रधानमंत्री था। उसे किसी रिशल्यू या मेजारिन की आवश्यकता नहीं थी। यद्यपि उसने कई मंत्रियों को नियुक्त किया, लेकिन ये मंत्री निर्णय लेने के लिए नहीं, बल्कि उसके आदेशों का पालन करने के लिए थे। मंत्रियों की नियुक्ति के संबंध में उसने स्पष्ट घोषित किया था : “मैं जिस वर्ग से मंत्रियों का चयन करता हूँ, उससे जन साधारण को यह समझ लेना चाहिए कि मैं उनके साथ शक्ति में सहभागी नहीं बन सकता।” लुई स्वयं रात-दिन परिश्रम करता था और कहा करता था कि “केंद्रीय भूत राज्य परिश्रम द्वारा एवं परिश्रम के लिए है।”

प्रशासन के प्रमुख विभाग

लुई चौदहवें को असाधारण प्रतिभा-संपन्न व्यक्तियों की सेवाएँ प्राप्त हुईं, जो तत्कालीन यूरोप में अपने क्षेत्र के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति थे। इनमें आर्थिक क्षेत्र में कोल्बर्ट, कोंदे और ट्यूरेन सेनापति के रूप में, वौबान दुर्गों के निर्माण तथा सैनिक संगठन के क्षेत्र में तथा लियोन विदेश नीति के क्षेत्र में अद्वितीय थे। जब तक इन व्यक्तियों का सहयोग लुई चौदहवें को मिलता रहा, उसकी शक्ति में वृद्धि होती रही। लुई ने स्टेट्स जनरल की भी उपेक्षा की। स्थानीय संस्थाओं और प्रांतीय परिषदों के स्थान पर लुई ने इंटेंडेंट नामक अधिकारियों की नियुक्ति की। इस प्रकार लुई चौदहवें ने अपना व्यक्तिगत शासन स्थापित किया। लुई चौदहवें के कुछ प्रमुख विभाग निम्नलिखित थ—

सैन्य विभाग: लुई चौदहवाँ एक केंद्रीकृत सशक्त सेना की स्थापना करना चाहता था। उसने सैन्य विभाग का संगठन करने के लिए अत्यंत दक्ष तथा कुशल लुव्वा को अपना युद्ध मंत्री नियुक्त किया। उसने फ्रांस की सेना को यूरोप की श्रेष्ठ सेना बना दिया। उसकी सेना में कोंदे एवं ट्यूरेन जैसे योग्य सेनापति थे।

विदेश विभाग: कुशल विदेश नीति के संचालन के लिए लुई चौदहवें ने कुशल कूटनीतिज्ञ लियोन को अपना विदेश मंत्री बनाया। फ्रांस की सुरक्षा के लिए पूर्वी एवं उत्तरी सीमाओं पर दुर्ग बना कर उनकी किलेबंदी की गई।

वित्त विभाग: लुई ने वित्त विभाग के सफल संचालन के लिए जीन बैप्टिस्ट कोल्बर्ट को अपना वित्त मंत्री बनाया। कोल्बर्ट की नीतियों ने फ्रांस की अर्थव्यवस्था को दृढ़ता प्रदान की और इसी आर्थिक शक्ति के कारण लुई चौदहवाँ चार यूरोपीय युद्ध लड़ सका था।

कोल्बर्ट

जीन बैप्टिस्ट कोल्बर्ट का जन्म 1619 ई. में एक मध्यम वर्गीय व्यापारी के घर में हुआ था। उसकी योग्यता से प्रभावित हो कर कार्डिनल मेजारिन ने उसे अपने घर के प्रबंध के लिए नियुक्त किया था। सरकारी नौकरी पाने पर कोल्बर्ट ने अपनी योग्यता और प्रतिभा से मेजारिन को प्रभावित किया और उसकी सिफारिश पर सार्वजनिक कार्यों का अध्यक्ष बना दिया गया। मेजारिन की मृत्यु के बाद कोल्बर्ट ने कई विभागों में कुशलता पूर्वक कार्य किया।

फ्रांस के चरमोत्कर्ष का काल : लुई XIV का युग (The Climax Period of France : The Era of Louis XIV)
जीन-बैप्टिस्ट कोल्बर्ट
कोल्बर्ट के आर्थिक सुधार

लुई चौदहवें का शासन काल वित्त मंत्री कोल्बर्ट के आर्थिक सुधारों के लिए प्रसिद्ध है। 1661 से 1683 ई. में अपनी मृत्यु तक उसने फ्रांस की जनता के कल्याण तथा राज्य की दृढ़ता के लिए निरंतर प्रयास किया। जिस समय वह वित्त मंत्री बना, फ्रांस की आर्थिक हालत खराब थी। सुली के आर्थिक सुधार रिशल्यू और मेजारिन की उपेक्षा के कारण व्यर्थ हो गए थे। जनता पर कर का बोझ बढ़ता जा रहा था और साथ ही राजकीय व्यय में इजाफा हो रहा था। कर संग्रह की प्रणाली अत्यंत दूषित थी। सामंत वर्ग करों से मुक्त था। फ्रोंद (गृह युद्धों) तथा तीस वर्षीय युद्धों के कारण भी फ्रांस की अर्थव्यवस्था खराब हो गई थी। इसलिए कोल्बर्ट के समक्ष अर्थव्यवस्था को व्यवस्थित करने और न्यायोचित बनाने की गंभीर चुनौती थी। इस दिशा में कोल्बर्ट ने निम्नलिखित कार्य किए—

सबसे पहले कोल्बर्ट ने भ्रष्ट तथा धन लोलुप कर्मचारियों की जाँच के लिए एक विशेष न्यायालय की स्थापना की। इस जाँच के फल स्वरूप राज्य को चालीस करोड़ की अपहत संपत्ति प्राप्त हुई। उसने ठेके पर कर वसूली की प्रथा को समाप्त कर दिया।

फ्रांस में एक अन्य प्रमुख समस्या यह थी कि सामंत वर्ग करों से मुक्त था। कोल्बर्ट चाहता था कि सामंतों पर कम से कम प्रत्यक्ष भूमि कर (टेली) लगाया जाए, लेकिन राजा तथा सामंतों के विरोध के कारण वह ऐसा नहीं कर सका। फिर भी, कोल्बर्ट ने सामंतों के अधिकार पत्रों की जाँच की और जो सामंत अपने अधिकार पत्रों से कर मुक्ति प्रमाणित नहीं कर सके, उन्हें प्रत्यक्ष भूमि कर देने के लिए बाध्य किया। उसने प्रयास किया कि कुलीन वर्ग के लोगों की कर मुक्ति को जितना संभव हो सीमित कर दिया जाए।

कोल्बर्ट ने किसानों की स्थिति को सुधारने के लिए उन्हें अनेक सुविधाएँ दीं और उनका कर भार कम किया। उसने पशुओं—घोड़ों, गायों और बैलों की नस्लों में सुधार करवाया और नियम बनाया कि अब किसानों के कृषि औजार जब्त नहीं किए जाएंगे। सिंचाई की व्यवस्था के लिए उसने रौन एवं गैरोन नदियों को भूमध्य सागर एवं अटलांटिक सागर से मिलाने वाली 160 मील लंबी ‘लांगडक नहर’ का निर्माण करवाया।

कोल्बर्ट ने व्यापार-वाणिज्य के विकास के लिए संरक्षण की नीति अपनाई और आत्म निर्भरता पर जोर दिया। कोल्बर्ट ने उद्योग, व्यापार तथा यातायात के विकास के लिए सड़कों की मरम्मत कराई। उसकी प्रेरणा से रौन एवं गैरोन नदियों को नहरों तथा भूमध्य सागर तथा अटलांटिक महासागर से जोड़ दिया गया।

वाणिज्यवाद के प्रभाव के कारण लुई ने विदेशी माल के आयात को रोकने तथा निर्यात को बढ़ाने का प्रयास किया और इंग्लैंड, हॉलैंड से कुशल कारीगरों को फ्रांस आमंत्रित किया। उसने अनेक कल कारखाने खुलवाए और अन्वेषकों को पुरस्कृत किया। यही नहीं, लुई ने धनी लोगों तथा सामंतों को औद्योगिक विकास में पूँजी लगाने का अनुरोध किया। कोल्बर्ट ने गिल्ड नामक व्यापारिक संस्थाओं का पुनर्गठन किया। फ्रांसीसी जहाजी बेड़े को पर्याप्त सहायता दी गई। उसने रक्षक नौसेना का निर्माण कराया, जहाज बनाने के कारखाने खोले गए और केले, ब्रेस्ट, हाव्र में बंदरगाहों का निर्माण कराया। कोल्बर्ट की नीति के कारण लिनेन, चमड़ा तथा रेशम उद्योगों में बड़ी उन्नति हुई।

विदेशी व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए कोल्बर्ट ने व्यापारिक कंपनियों का गठन किया और उपनिवेश स्थापित करने की नीति अपनाई। उसी के प्रयास से भारत तथा पूरब से व्यापार करने के लिए फ्रांसीसी कंपनियाँ गठित की गईं और सेनेगल, मेडागास्कर, कनाडा, भारत में फ्रांसीसी कंपनियों ने अपने केंद्र स्थापित किए। इन कंपनियों पर सरकार का नियंत्रण था। उत्पादन पर भी सरकार का नियंत्रण था, जिससे मानक वस्तुओं का उत्पादन किया जा सके। उसने फ्रांस के लिए पश्चिमी इंडीज में ग्वाडेलूप तथा मार्टिनीक द्वीपों को खरीद लिया।

कोल्बर्ट ने व्यय में कमी तथा आय में वृद्धि करके बजट को संतुलित किया। उसने लुई चौदहवें की विलासिता तथा वैभव के लिए धन की व्यवस्था की। जब तक कोल्बर्ट जीवित रहा, उसने फ्रांस की वित्त व्यवस्था को सुरक्षित तथा दृढ़ रखा, लेकिन फ्रांस के बढ़ते हुए सैनिक व्यय की व्यवस्था करना एक अत्यंत कठिन कार्य था। 1683 ई. में उसकी मृत्यु के पश्चात् इस प्रकार के वित्तीय अनुशासन तथा सतर्कता की भी इतिश्री हो गई।

साहित्य एवं संस्कृति का विकास

कोल्बर्ट केवल वित्त मंत्री और अर्थशास्त्री ही नहीं था, बल्कि वह शांतिकालीन कलाओं के क्षेत्र में भी अग्रणी था। उसने रिशल्यू द्वारा स्थापित ‘फ्रेंच अकादमी’ को मजबूत किया। 1664 ई. में उसने ‘विज्ञान अकादमी’ की स्थापना की, जो बाद में ‘इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रांस’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। यही नहीं, उसने पेरिस में एक ‘खगोल विद्या केंद्र’ भी स्थापित किया।

साहित्य, कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में जीन-बैप्टिस्ट कोल्बर्ट ने अनेक फ्रांसीसी साहित्यकारों को सहायता दी और विदेशी वैज्ञानिकों को फ्रांस में बसने के लिए प्रोत्साहित किया। रासिन तथा कोर्नेल दुखांत नाटक के सृजन में दक्ष थे। कोर्नेल फ्रांसीसी क्लासिकल नाटक का पिता के नाम से प्रसिद्ध है। मोलिएर ने सुखांत नाटकों का सृजन किया। मैडम डी सेविग्ने अतीत चित्रण के हास्यपूर्ण पत्र-लेखन में दक्ष थीं। धार्मिक एवं दार्शनिक साहित्य के सृजन के क्षेत्र में ‘फेनलॉन एवं बोस्युए’ के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी समय फ्रांस में महान् दार्शनिक रेने डेकार्ट हुआ, जिसे ‘आधुनिक दर्शन का पिता’ कहा जाता है।

जीन-बैप्टिस्ट कोल्बर्ट ने अनेक सार्वजनिक भवनों का निर्माण कराया और ‘कानूनों का संग्रह’ करने का कार्य भी करवाया। ‘वर्साय का राजमहल’ तत्कालीन फ्रांसीसी कला का अद्भुत नमूना है। वास्तव में, फ्रांस की समृद्धि और उसके आर्थिक विकास का श्रेय कोल्बर्ट को ही दिया जाना चाहिए।

इस प्रकार फ्रांस के आर्थिक पुनर्निर्माण का श्रेय किसी अन्य की अपेक्षा कोल्बर्ट को सबसे अधिक है। लेकिन कोल्बर्ट की नीतियों में कुछ आधारभूत दोष भी थे। उसकी संरक्षण की नीति अंततः फ्रांस के लिए हानिकारक सिद्ध हुई। उसने स्वतंत्र व्यापार के महत्व को नहीं समझा। उसने विदेशी व्यापार के लिए सरकारी कंपनियों का गठन किया, जिससे ये कंपनियाँ अंततः असफल हो गईं। इस क्षेत्र में उसने व्यक्तिगत पहल तथा स्वतंत्र व्यापार के महत्व को नहीं समझा। अंततः लुई चौदहवें को अपनी युद्ध नीतियों के कारण अंतिम वर्षों में भीषण आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा, राज कोष खाली था और सरकार पर भारी सार्वजनिक ऋण हो गया था।

लुई चौदहवें की धार्मिक नीति

रिगेल का संघर्ष

लुई जिस प्रकार राजनीतिक मामलों में निरंकुश था, उसी प्रकार धार्मिक मामलों में भी वह निरंकुश तथा असहिष्णु था। लुई कट्टर कैथोलिक था, वह स्वयं को दैवी अधिकारों से संपन्न ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था। अतः स्वाभाविक था कि वह स्वयं को कैथोलिक चर्च का भी सर्वोच्च अधिकारी बनाने का प्रयत्न करता। दूसरे शब्दों में, वह स्वयं को ‘चर्च का ज्येष्ठ पुत्र’ मानता था।

सैद्धांतिक रूप से पोप कैथोलिक चर्च का प्रमुख था और धर्मनिष्ठ कैथोलिकों का यह कर्तव्य था कि वे पोप की आज्ञा का पालन करें। वास्तव में, धार्मिक मामलों में पोप की सत्ता सर्वोच्च थी। लुई चौदहवाँ उस स्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। वह चाहता था कि राजनीति के समान ही धर्म के क्षेत्र में भी जनता उसकी सर्वोच्च स्थिति को स्वीकार करे।

1682 ई. में लुई ने फ्रांस के बिशपों को यह घोषणा करने के लिए विवश किया कि राजा की लौकिक सत्ता पोप के नियंत्रण से सर्वथा स्वतंत्र है, इसलिए फ्रांसीसी चर्च की जनरल कौंसिल के कार्य में पोप हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। फ्रांसीसी चर्च के अधिकार परंपरा से पवित्र हैं, पोप की आज्ञाएँ फ्रांस में फ्रांसीसी चर्च की अनुमति से ही मानी जा सकती हैं। इस घोषणा से पोप और लुई चौदहवें में झगड़ा आरंभ हो गया, जिसे इतिहास में ‘रिगेल का संघर्ष’ कहा जाता है।

पोप ने उपरोक्त घोषणा को अमान्य घोषित कर दिया। अंत में, 1693 ई. में लुई ने अपनी घोषणा को वापस ले लिया, लेकिन पोप ने भी राजा द्वारा बिशपों की नियुक्ति के अधिकार को स्वीकार करना पड़ा। इस संघर्ष का एक महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि फ्रांसीसी चर्च पर लुई के अधिकार में वृद्धि हो गई।

गैर-कैथोलिकों का दमन

लुई धार्मिक मामलों में एक असहिष्णु शासक था। उसने गैर-कैथोलिकों के प्रति दमन की नीति अपनाई। दरअसल, लुई जेसुइटों के प्रभाव में था, जिसके कारण वह गैर-कैथोलिक धर्मों का विनाश करना चाहता था। फ्रांस के प्रोटेस्टेंटों को, जिन्हें ह्यूगनोट कहा जाता था, 1598 ई. में हेनरी चतुर्थ ने ‘नांटेस की घोषणा’ से धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की थी। रिशल्यू ने यद्यपि ह्यूगनोटों के राजनीतिक अधिकार छीन लिए थे, लेकिन उसने उनके धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं किया था।

1685 ई. में लुई ने ‘नांटेस की घोषणा’ को रद्द कर दिया। फलतः प्रोटेस्टेंट चर्च, स्कूल बंद कर दिए गए, ह्यूगनोट लोग शासकीय पदों से हटा दिए गए और उन पर जघन्य अत्याचार किए गए। हजारों ह्यूगनोट फ्रांस छोड़ कर पलायन करने को मजबूर हो गए। लुई की इस असहिष्णु नीति से यूरोप के प्रोटेस्टेंट देश, विशेष रूप से इंग्लैंड, हॉलैंड लुई चौदहवें के विरोधी हो गए और उसके विरुद्ध ‘ऑग्सबर्ग की लीग’ का गठन किया।

लुई चौदहवें की विदेश नीति

लुई चौदहवें की विदेश नीति विशुद्ध रूप से साम्राज्यवादी थी। निरंकुश सत्ता तथा असीमित संसाधनों ने उसकी महत्वाकांक्षा को बहुत बढ़ा दिया था। यह भी एक संयोग था कि उसकी सेना यूरोप की सर्वश्रेष्ठ सेना थी और उसे प्रतिभा-संपन्न व्यक्तियों की सेवाएँ प्राप्त थीं। आधुनिक ‘सैनिकवाद का पिता’ लुव्वा उसका युद्ध मंत्री था। उसने वैज्ञानिक तथा पेशेवर आधार पर सेना को संगठित किया। वौबान उसका श्रेष्ठ सैनिक इंजीनियर था, जो दुर्गों के निर्माण तथा किलेबंदी का विशेषज्ञ था। कोंदे और ट्यूरेन असाधारण रूप से योग्य सेनापति थे। महान अर्थशास्त्री कोल्बर्ट ने उनके लिए संसाधन जुटाए थे। इस प्रकार लुई को अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सभी संसाधन उपलब्ध थे।

लुई चौदहवाँ पूरब तथा दक्षिण में फ्रांस की सीमाओं का विस्तार करना चाहता था, लेकिन इस विस्तारवादी महत्वाकांक्षा को युक्तिसंगत बनाने के लिए उसने ‘प्राकृतिक सीमाओं का सिद्धांत’ प्रतिपादित किया। उसका कहना था कि प्रत्येक देश की प्राकृतिक सीमाएँ होनी चाहिए। फ्रांस की प्राकृतिक सीमाएँ उत्तर-पूर्व में राइन नदी, पूर्व और दक्षिण में आल्प्स तथा पिरेनीज के पर्वत तथा पश्चिम में समुद्र हैं, अतः फ्रांस को ये सीमाएँ प्राप्त होनी चाहिए। इसका अर्थ यह था कि वह नीदरलैंड, हॉलैंड, राइन क्षेत्र तथा दक्षिण में रूसिलॉन के प्रदेश पर अधिकार करना चाहता था और यह कार्य तभी हो सकता था जब वह ऑस्ट्रिया, हॉलैंड, स्पेन, जर्मनी के राज्यों को युद्ध में पराजित करे। इसलिए लुई ने अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए चार यूरोपीय युद्ध—डेवोल्यूशन का युद्ध (1667-1668), डचों से युद्ध (1672-1678), ऑग्सबर्ग की लीग का युद्ध (1688-1697) और स्पेन के उत्तराधिकार का युद्ध (1701-1714) लड़े और पचास वर्षों तक यूरोप में अफरा-तफरी मची रही। संक्षेप में, लुई चौदहवें की विदेश नीति के तीन उद्देश्य थे—यूरोप में फ्रांस की श्रेष्ठता की स्थापना, फ्रांस के लिए प्राकृतिक सीमाएँ प्राप्त करना और हैप्सबर्ग राजवंश की प्रतिष्ठा नष्ट करके उसे दुर्बल बनाना।

डेवोल्यूशन का युद्ध (1667-1668 ई.)

डेवोल्यूशन का युद्ध लुई चौदहवें की महत्वाकांक्षा और उसकी साम्राज्यवादी नीति का परिणाम था। वेस्टफेलिया की संधि ने यूरोप में शांति स्थापित की थी, लेकिन लुई चौदहवाँ शांति के पक्ष में नहीं था, क्योंकि उसके उद्देश्य केवल युद्धों द्वारा ही सिद्ध हो सकते थे। वह स्पेनी साम्राज्य के बेल्जियम (स्पेनी नीदरलैंड) और फ्रेंच कॉम्टे को जीत कर अपने साम्राज्य में मिलाना चाहता था। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने 1667 ई. में स्पेनी नीदरलैंड में प्रचलित सामंती अथवा डेवोल्यूशन नामक उत्तराधिकार के नियम को आधार बनाया। स्पेनी नीदरलैंड में स्थानीय उत्तराधिकार का नियम यह था कि पहली पत्नी की संतान ही, चाहे वह पुत्र या पुत्री हो, उत्तराधिकारी होगा। लेकिन यह नियम सामंती उत्तराधिकार में लागू होता था, राज्याधिकार में नहीं।

1659 ई. की ‘पिरेनीज की संधि’ के अनुसार लुई चौदहवें ने स्पेनी नरेश फिलिप चतुर्थ की पहली पत्नी से उत्पन्न पुत्री मारिया थेरेसा से विवाह किया था। विवाह के समय लुई ने शर्त रखी थी कि यदि थेरेसा के दहेज की पूरी रकम दे दी जाएगी तो वह स्पेनी साम्राज्य पर उत्तराधिकार का दावा नहीं करेगा। स्पेन ने अभी दहेज की पूरी रकम नहीं दी थी।

1665 ई. में स्पेन के राजा फिलिप चतुर्थ की मृत्यु हो गई और उसका चार वर्षीय पुत्र चार्ल्स द्वितीय, जिसका जन्म फिलिप चतुर्थ की दूसरी पत्नी से हुआ था, स्पेन की गद्दी पर बैठा। दहेज की रकम न मिलने के कारण लुई चौदहवें ने डेवोल्यूशन के नियम के आधार पर अपनी पत्नी की ओर से स्पेनी सिंहासन पर दावा किया और 1667 ई. में स्पेन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, जिसे ‘डेवोल्यूशन के युद्ध’ के नाम से जाना जाता है।

युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व लुई ने ऑस्ट्रिया के सम्राट को धमकी दी कि अगर उसने अपने संबंधी स्पेन के राजा की सहायता की तो वह जर्मनी में गृह युद्ध आरंभ करा देगा। इंग्लैंड और हॉलैंड इस समय औपनिवेशिक तथा व्यापारिक युद्धों में फँसे हुए थे। ऐसी स्थिति में फ्रांसीसी सेना ने आसानी से स्पेनी सेना को पराजित कर स्पेनी नीदरलैंड में प्रवेश कर लिया और फ्रेंच कॉम्टे को जीत लिया। फ्रांस की इस जीत से इंग्लैंड तथा हॉलैंड भयभीत हो गए और उन्होंने अपना युद्ध समाप्त कर के स्वीडेन को साथ ले कर फ्रांस के विरुद्ध 1668 ई. में एक ‘त्रिगुट’ का निर्माण कर लिया।

यूरोपीय युद्ध की आशंका से लुई ने 1668 ई. में ‘एक्स-ला-शैपल’ की संधि कर ली। इस संधि के अनुसार स्पेनी नीदरलैंड का अधिकांश भाग स्पेन को वापस मिल गया। फ्रांस को केवल कुछ सीमावर्ती नगर व दुर्ग ही हाथ लगे। इस प्रकार एक्स-ला-शैपल की संधि से लुई चौदहवें की पिपासा अतृप्त ही रह गई।

फ्रांस-डच युद्ध (1672-1678 ई.)

लुई चौदहवाँ हॉलैंड के डचों से बहुत रुष्ट था, क्योंकि उन्हीं के कारण वह स्पेनी नीदरलैंड पर अधिकार नहीं कर सका था और उसे एक्स-ला-शैपल की संधि करनी पड़ी थी। इसके अलावा, नाराजगी के कुछ अन्य कारण भी थे। उत्तर-पूर्व की ओर फ्रांस का विस्तार करने के लिए हॉलैंड को जीतना आवश्यक था। हॉलैंड प्रोटेस्टेंट (कल्विनवादी) था और फ्रांस के बहुत-से भगोड़े ह्यूगनोटों ने हॉलैंड में ही शरण ली थी। हॉलैंड की गणतंत्रात्मक शासन पद्धति भी लुई चौदहवें को अखरती थी। यही नहीं, व्यापार तथा उपनिवेशों के क्षेत्रों में भी हॉलैंड फ्रांस का प्रतिद्वंद्वी था।

लुई ने हॉलैंड पर आक्रमण करने के पूर्व इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय को धन दे कर 1670 ई. में ‘डोवर की संधि’ कर ली थी। इसी तरह स्वीडेन भी धन ले कर त्रिगुट से अलग हो गया। इस प्रकार त्रिगुट को भंग कर के लुई चौदहवें ने हॉलैंड को अकेला कर लिया था। हॉलैंड की आंतरिक स्थिति भी ठीक नहीं थी, क्योंकि वहाँ राजतंत्रवादियों तथा गणतंत्रवादियों के बीच संघर्ष चल रहा था। इसका लाभ उठा कर लुई ने 1672 ई. में हॉलैंड के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

1672 ई. में कोंदे तथा ट्यूरेन के नेतृत्व में फ्रांसीसी सेना हॉलैंड में प्रवेश की और एम्स्टर्डम तक पहुँच गई। इस निराशाजनक स्थिति में डचों की ओर से डी विट ने संधि की वार्ता चलाई, जिससे रुष्ट हो कर डचों ने डी विट की हत्या कर दी। इसके बाद डचों का नेतृत्व विलियम प्रिंस ऑफ ऑरेंज ने संभाल लिया। विलियम के आदेश पर डचों ने समुद्री बाँधों को खोल दिया, जिसके कारण बढ़ती हुई फ्रांसीसी सेना को पीछे हटना पड़ा। दूसरी ओर विलियम ने लुई की विस्तारवादी नीति से आशंकित देशों—ऑस्ट्रिया, स्पेन, ब्रैंडेनबर्ग, डेनमार्क, इंग्लैंड को मिला कर एक यूरोपीय गुट बना लिया, लेकिन स्वीडेन ने लुई का साथ नहीं छोड़ा। चूंकि दोनों पक्ष युद्ध से थक चुके थे, इसलिए 1678 ई. में ‘निमेजेन की संधि’ हो गई।

निमेजेन की संधि (1678 ई.)

‘निमेजेन की संधि’ से फ्रांस को स्पेन से फ्रेंच कॉम्टे तथा स्पेनी नीदरलैंड का अधिकांश भाग मिल गया। लारेन पर भी फ्रांस का अधिकार मान लिया गया। इससे लुई को फ्रांस की सीमा को राइन नदी की ओर बढ़ाने में सफलता मिली, लेकिन इस से फ्रांसीसी अर्थव्यवस्था दिन-प्रतिदिन दिवालिया होने लगी।

ऑग्सबर्ग की लीग का युद्ध (1688-1697 ई.)

एक्स-ला-शैपल तथा निमेजेन की संधियों से फ्रांस का कुछ क्षेत्रीय विस्तार तो हुआ, लेकिन लुई चौदहवाँ इससे संतुष्ट नहीं था। उसने नव विजित प्रदेशों पर अपने नियंत्रण को बना ए रखने के लिए ‘विशेष न्यायालय’ (चैंबर्स ऑफ रीयूनियन) स्थापित किए और इन न्यायालयों में अपने प्रिय पात्रों को न्यायाधीश नियुक्त किया। इन न्यायालयों ने स्ट्रासबर्ग, लक्जमबर्ग, अल्सास के अलावा जर्मनी के बीस नगरों पर फ्रांसीसी अधिकार निश्चित किया। लुई ने स्ट्रासबर्ग की तो किलेबंदी भी आरंभ कर दी। 1684 ई. में त्रेव्स तथा लक्जमबर्ग फ्रांस के अधिकार में आ गए। ऑस्ट्रिया का सम्राट इस समय तुर्की से युद्ध में व्यस्त था। अतः वह तुरंत कार्यवाही नहीं कर सका।

तुर्की से युद्ध समाप्त होते ही 1686 ई. में स्पेन, ऑस्ट्रिया, स्वीडेन, हॉलैंड और कुछ जर्मन राज्यों ने ऑस्ट्रिया के सम्राट लियोपोल्ड की अध्यक्षता में ‘ऑग्सबर्ग की लीग’ का गठन किया। इस लीग का उद्देश्य लुई की साम्राज्यवादी नीति का विरोध करना और जर्मनी की क्षेत्रीय अखंडता को सुरक्षित रखना था। 1688 ई. की रक्तहीन क्रांति के बाद इंग्लैंड का शासक विलियम तृतीय भी ‘ऑग्सबर्ग की लीग’ में शामिल हो गया।

युद्ध का तात्कालिक कारण पेलेटाइनेट तथा कोलोन (दोनों जर्मन प्रदेश) की घटनाएँ थीं। 1685 ई. में पेलेटाइनेट के शासक इलेक्टर चार्ल्स की मृत्यु हो गई। चार्ल्स की बहन का विवाह लुई के भाई फिलिप से हुआ था। अतः लुई ने पेलेटाइनेट पर बूर्बो वंश के अधिकार का दावा पेश किया। इस मामले को पोप की मध्यस्थता पर छोड़ दिया गया। इसके बाद 1688 ई. में कोलोन के शासक की मृत्यु हो गई। यहाँ पर लुई और जर्मन सम्राट, दोनों ने गद्दी के लिए अपने प्रत्याशी खड़े किए। अंत में, यह मामला भी पोप को सौंप दिया गया। जब कोलोन के मामले में पोप ने सम्राट के प्रत्याशी के पक्ष में निर्णय दिया तो लुई ने इसे मानने से इनकार कर दिया। इस पर सम्राट ने पेलेटाइनेट पर अधिकार करने के लिए अपनी सेना भेज दी और युद्ध आरंभ हो गया।

‘ऑग्सबर्ग की लीग का युद्ध’ 1688 से 1697 ई. तक चला। इस युद्ध को ‘पेलेटाइनेट के युद्ध’ के नाम से भी जाना जाता है। लुई ने इंग्लैंड के विस्थापित शासक जेम्स द्वितीय की सहायता के लिए फ्रांसीसी सेना को आयरलैंड भेजा, लेकिन इंग्लैंड के शासक विलियम तृतीय ने 1690 ई. में ‘बॉयन के युद्ध’ में जेम्स को पराजित कर उसे फ्रांस में शरण लेने पर विवश कर दिया और यह अभियान असफल हो गया। अन्य स्थानों पर लुई की सेनाओं को विजय मिली। 1691 ई. में फ्रांस ने नामूर पर अधिकार कर लिया। फ्रांसीसी सेना ने इंग्लैंड तथा हॉलैंड की संयुक्त सेना को ‘बीचीहेड’ में पराजित किया, लेकिन ‘ला होग के युद्ध’ में फ्रांस को इंग्लैंड की नौसेना से बुरी तरह पराजित होना पड़ा। इधर लुई की सेनाओं ने सेवॉय और नीस पर कब्जा कर लिया। भारत तथा अमेरिका में भी संघर्ष हुए।

1697 ई. में युद्ध समाप्त हो गया, क्योंकि दोनों पक्ष युद्ध से थक गए थे। इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि स्पेन का राजा चार्ल्स द्वितीय मृत्यु शय्या पर था और स्पेनी उत्तराधिकार का प्रश्न यूरोपीय राज्यों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था। फलतः 20 सितंबर 1697 ई. को ‘रिसविक की संधि’ हो गई।

रिसविक की संधि (20 सितंबर 1697 ई.)

रिसविक (Ryswick) की संधि (1697 ई.) के अनुसार लुई ने स्ट्रासबर्ग को छोड़ कर उन क्षेत्रों को लौटा दिया, जिन पर ‘रीयूनियन’ के द्वारा अधिकार किया था। डचों को स्पेनी नीदरलैंड की किलेबंदी करने का अधिकार मिल गया। लुई ने डचों के साथ व्यापारिक संधि की, जो डचों के लिए लाभप्रद थी। लुई ने लारेन का प्रांत उसके ड्यूक को वापस कर दिया। इसके अलावा, लुई ने पेलेटाइनेट पर अपना दावा छोड़ दिया और विलियम तृतीय को इंग्लैंड का शासक स्वीकार कर लिया। इस संधि से लुई की विस्तारवादी नीति पर अंकुश लग गया, लेकिन लुई की सेना अभी अक्षुण्ण थी और वह स्पेन को प्राप्त करना चाहता था।

स्पेनी उत्तराधिकार का युद्ध (1701-1714 ई.)

स्पेन का सम्राट चार्ल्स द्वितीय (1665-1700 ई.), जो फिलिप चतुर्थ की मृत्यु के बाद स्पेन के सिंहासन पर बैठा था, निःसंतान था। 1697 ई. में जब वह बीमार पड़ा तो उसकी संभावित मृत्यु से उसके उत्तराधिकार की समस्या एक जटिल प्रश्न बन गया। यद्यपि यह उत्तराधिकार की समस्या केवल स्पेन से संबंधित थी, लेकिन स्पेनी साम्राज्य की विशालता के कारण यूरोप के प्रायः सभी प्रमुख राज्य स्पेन के उत्तराधिकार के प्रश्न को अपने-अपने हितों के अनुसार देखने लगे थे।

चार्ल्स द्वितीय की दो बहनें थीं। उनमें बड़ी मारिया थेरेसा का विवाह लुई चौदहवें से तथा छोटी मार्गरेट थेरेसा का विवाह ऑस्ट्रिया के सम्राट लियोपोल्ड प्रथम से हुआ था। उत्तराधिकार के मामलों में कई जटिलताएँ थीं। पुरुष उत्तराधिकारी के रूप में चार्ल्स द्वितीय का निकटतम संबंधी ऑस्ट्रिया का लियोपोल्ड प्रथम था। प्रश्न यह था कि स्पेनी साम्राज्य पर किसका अधिकार होगा—फ्रांस के बूर्बो वंश का या ऑस्ट्रिया के हैप्सबर्ग वंश का? संक्षेप में ऑस्ट्रिया के लियोपोल्ड प्रथम ने अपनी पत्नी मार्गरेट थेरेसा एवं पुत्री मारिया एंटोनिया के उत्तराधिकार का दावा किया, लुई ने दहेज की पूरी रकम न मिलने के कारण मारिया थेरेसा के पुत्र डौफिन का दावा प्रस्तुत किया और बवेरिया के शासक जोसेफ फर्डिनैंड ने भी अपने उत्तराधिकार का दावा किया। जोसेफ फर्डिनैंड लियोपोल्ड प्रथम का प्रपौत्र था। दूसरे शब्दों में, मारिया एंटोनिया ने अपने पुत्र जोसेफ के अधिकार का दावा किया। दूसरी ओर इंग्लैंड यूरोप में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए प्रयासरत था।

स्पेन कहीं ऑस्ट्रिया के साम्राज्य से संयुक्त न हो जाए, लुई ने इस प्रकार की आशंका को दूर करने के लिए स्पेनी साम्राज्य के विभाजन के लिए इंग्लैंड से दो बार (1698 और 1700 ई. में) विभाजन संधि की। इससे चार्ल्स द्वितीय नाराज हो गया और अंत में अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व उसने लुई के पौत्र (डौफिन के दूसरे पुत्र) फिलिप ऑफ अनजू को अपने संपूर्ण स्पेनी साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इस स्थिति में लुई ने इंग्लैंड के साथ की गई विभाजन संधि की उपेक्षा करते हुए अपने पौत्र फिलिप ऑफ अनजू को फिलिप पंचम के नाम से स्पेनी सिंहासन पर बैठने की अनुमति दे दी और इंग्लैंड के शासक जेम्स प्रिटेंडर को स्वीकार किया। इंग्लैंड ने लुई की पैंतरेबाजी को विभाजन संधि का उल्लंघन बताया और उसके विरुद्ध एक महान यूरोपीय संघ का निर्माण किया, जिसमें इंग्लैंड, ऑस्ट्रिया, ब्रैंडेनबर्ग, हनोवर, पेलेटाइनेट आदि राज्य सम्मिलित थे। इस प्रकार स्पेनी उत्तराधिकार के प्रश्न को ले कर दोनों पक्षों में 1701 ई. में भयंकर युद्ध आरंभ हो गया।

स्पेन के उत्तराधिकार का युद्ध मुख्य रूप से इटली, स्पेन, नीदरलैंड व मध्य यूरोप में लड़ा गया। युद्ध का आरंभ इटली से हुआ। यहाँ फ्रांस की सेना को ऑस्ट्रियन सेनापति प्रिंस यूजीन ने पराजित कर दिया। दूसरी ओर, फ्रांसीसी सेनाओं ने बेल्जियम पर अधिकार कर लिया। इंग्लैंड और इटली की संयुक्त सेना ने 1704 ई. में ‘ब्लेनहाइम’ के युद्ध में फ्रांस की सेना को पराजित कर दिया, जिससे वियना पर अधिकार करने का लुई का प्रयास विफल हो गया। 1704 ई. में जिब्राल्टर पर इंग्लैंड के अधिकार ने स्पेन व भूमध्य सागर क्षेत्र पर अंग्रेजी प्रभुत्व को स्थापित कर दिया। 1706 ई. में फ्रांसीसी सेना को इटली से निष्कासित कर दिया गया।

नीदरलैंड में फ्रांसीसी सेना तीन युद्धों—’रामिलीज’ (1706 ई.), ‘उडेनार्ड’ (1708 ई.) और ‘मालप्लाके’ (1709 ई.) में पराजित हुई और फ्रांस का नीदरलैंड खाली करना पड़ा। इसके बाद मित्र राष्ट्रों की सेनाओं ने फ्रांस की ओर बढ़ना शुरू किया, लेकिन इस संकट में फ्रांस की जनता ने लुई का सहयोग किया और फिलिप पंचम का स्पेन पर पुनः अधिकार हो गया। दूसरी ओर फ्रांस के सौभाग्य से 1710 ई. में इंग्लैंड में टोरी दल की सरकार बनी, जो युद्ध को तुरंत समाप्त करना चाहती थी। 1711 ई. में लियोपोल्ड प्रथम की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र आर्च ड्यूक चार्ल्स ऑस्ट्रिया व जर्मनी का सम्राट बन गया। इंग्लैंड चार्ल्स का समर्थन कर यूरोपीय शक्ति संतुलन को खतरे में नहीं डालना चाहता था। अतः 1713 ई. में ‘यूट्रेक्ट की संधि’ से युद्ध का अंत हो गया। लेकिन फ्रांस और ऑस्ट्रिया में युद्ध चलता रहा और 1714 ई. में दोनों के बीच ‘रास्टाट की संधि’ हुई। ऑस्ट्रिया ने यूट्रेक्ट की संधि को स्वीकार कर लिया और इस प्रकार स्पेनी उत्तराधिकार का युद्ध समाप्त हुआ।

यूट्रेक्ट की संधि (1713 ई.)

‘यूट्रेक्ट की संधि’ का यूरोप के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इसे एक महान् सीमा चिन्ह माना जाता है। इस संधि से फ्रांस के बूर्बो राजवंश का पतन आरंभ हो गया। इस संधि ने इंग्लैंड के उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इस संधि की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित थीं—

लुई चौदहवें के पौत्र को, जो फिलिप पंचम के नाम से स्पेन के सिंहासन पर बैठा था, स्पेन तथा पश्चिमी द्वीप समूहों का राजा स्वीकार किया गया। लेकिन यह शर्त रखी गई कि स्पेन और फ्रांस का संयोजन नहीं होगा।

नेपल्स, सार्डिनिया, मिलान, एवं बेल्जियम को क्षतिपूर्ति के रूप में ऑस्ट्रिया को दे दिया गया।

इंग्लैंड को न्यूफाउंडलैंड, नोवा स्कोशिया और हडसन की खाड़ी, भूमध्य सागर में स्थित जिब्राल्टर एवं मिनोर्का मिले। इसके अलावा, उसे अमेरिका के स्पेनी उपनिवेशों से दास व्यापार करने का अधिकार भी मिल गया।

फ्रांस को अल्सास और स्ट्रासबर्ग छोड़ कर राइन नदी के किनारे के सभी किले छोड़ने पड़े।

डचों को बेल्जियम की सीमा किलेबंदी करने का अधिकार मिल गया। शेल्ट नदी में उनको व्यापारिक अधिकार भी प्राप्त हुआ।

ब्रैंडेनबर्ग के सामंत को प्रशा का राजा मान लिया गया।

सेवॉय स्वतंत्र राज्य घोषित किया गया और उसे सिसिली का द्वीप भी मिल गया।

संधि का मूल्यांकन

‘यूट्रेक्ट की संधि’ यूरोपीय इतिहास में परिवर्तन बिंदु है। इस संधि से यूरोप में शक्ति संतुलन स्थापित करने का पूर्ण प्रयास किया। इस संधि से बूर्बो-हैप्सबर्ग परिवार की प्रतिद्वंद्विता का अंत हो गया। इस संधि ने फ्रांस की विस्तारवादी नीति पर रोक लगा दिया। फ्रांस उत्तर की ओर नहीं बढ़ सकता था, क्योंकि बेल्जियम व नीदरलैंड पर ऑस्ट्रिया का प्रभुत्व स्थापित हो गया था। प्रशा की स्वतंत्रता और सेवॉय के राज्य विस्तार ने फ्रांस को पूर्व की ओर साम्राज्य का विस्तार करने से रोक दिया। फ्रांस के कई उपनिवेश छीन लिए गए थे, जिससे फ्रांस की हानि हुई। यद्यपि इस संधि से लुई स्पेन के सिंहासन पर बूर्बो राजकुमार को बैठाने में सफल रहा, लेकिन फ्रांस की सर्वोच्चता का युग समाप्त हो गया और उसके पतन का युग आरंभ हुआ।

‘यूट्रेक्ट की संधि’ ने सेवॉय के राज्य का विस्तार किया और प्रशा के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की, जिससे कालांतर में इटली और जर्मनी के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस संधि से इंग्लैंड को बहुत लाभ हुआ और वह एक प्रमुख औपनिवेशिक तथा व्यापारिक शक्ति बन गया। जिस प्रकार वेस्टफेलिया की संधि ने हैप्सबर्ग राजवंश के पतन एवं बूर्बो राजवंश की प्रधानता का संकेत किया था, उसी प्रकार यूट्रेक्ट की संधि ने फ्रांस के पतन एवं इंग्लैंड के उत्थान की ओर संकेत किया।

फ्रांस के चरमोत्कर्ष का काल : लुई XIV का युग (The Climax Period of France : The Era of Louis XIV)
फ्रांस के चरमोत्कर्ष का काल

लुई चौदहवें की मृत्यु 1 सितंबर 1715 ई. को हुई। उसने फ्रांस में जिस सुदृढ़ राजतंत्र की स्थापना की, वह पूरे यूरोप के लिए अनुकरणीय बन गया। उसकी गरिमा और फ्रांस के वैभव के कारण ही उसके शासन काल को ‘लुई चौदहवें का युग’ के नाम से जाना जाता है। लेकिन यह भी सही है कि अपने शासन के उत्तरार्ध में उसे विफलताओं का भी सामना करना पड़ा। अपनी महत्वाकांक्षा की राजनीतिक पिपासा को शांत करने के लिए उसने फ्रांस को अनावश्यक युद्धों में झोंक दिया, जिससे फ्रांस की आर्थिक स्थिति डावांडोल हो गई। अपनी मृत्यु के पूर्व उसे अपनी गलतियों का ज्ञान हो गया था, इसलिए उसने फ्रांस के उत्तराधिकारी अपने प्रपौत्र लुई XV (ड्यूक ऑफ अनजू का पुत्र) को सलाह दी थी, “युद्ध मत करना, अपनी प्रजा को प्यार करना और अच्छे सलाहकार रखना।”

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