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प्राचीन भारत में गणराज्य
आरंभ में अंग्रेज इतिहासकारों की धारणा थी कि भारत में सदैव निरंकुश राजाओं का ही शासन रहा है, भारतवासी प्राचीनकाल से ही निरंकुशता के अभ्यस्त रहे हैं। किंतु 1903 ई. में रीज डेविड्स की खोजों से स्पष्ट हो गया कि प्राचीन भारत में राजतंत्रों के साथ-साथ गणराज्यों का भी अस्तित्व था। काशीप्रसाद जायसवाल पहले भारतीय इतिहासकार हैं, जिन्होंने बताया कि प्राचीन काल में भारत में दो प्रकार के राज्य थे- एक राजाधीन (राजतंत्र) और दूसरे गणाधीन (गणतंत्र)। राजाधीन को एकाधीन भी कहते थे। जहाँ गण या अनेक व्यक्तियों का शासन होता था, वे गणाधीन राज्य कहलाते थे।
द्वितीय शताब्दी ई. के बौद्ध ग्रंथ अवदानशतक से पता चलता है कि जब मध्यदेश के कुछ व्यापारी दक्षिण भारत गये और वहाँ के लोगों ने उनकी राज्य-व्यवस्था के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया था कि कुछ देश गणों के अधीन हैं और कुछ राजा के। जैन ग्रंथ ‘आचारांगसूत्र’ में भिक्षुओं को चेतावनी दी गई है कि उन्हें ऐसे स्थानों पर जाने से बचना चाहिए, जहाँ गणतंत्र का शासन हो। पाणिनि ने भी संघ को राजतंत्र से भिन्न बताया है और गण को संघ का पर्याय कहा है।
कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में भी दो प्रकार के संघ राज्यों का उल्लेख मिलता है- एक ‘वार्ताशस्त्रोपजीवी’ अर्थात् व्यापार, कृषि, पशुपालन तथा युद्ध पर आश्रित हैं और दूसरे ‘राजशब्दोपजीवी’ अर्थात् ऐसे राज्य से है जो राजा की उपाधि धारण करते थे। प्रथम वर्ग में कंबोज तथा सुराष्ट्र के साथ क्षत्रियों का संबंध बताया गया है तथा द्वितीय वर्ग में लिच्छवियों, वृज्जियों, मल्लों, मद्रों, कुकुरों, पांचालों आदि की गणना की गई है। वस्तुतः ‘संघ’ और ‘गण’ दोनों समानार्थक हैं और देश के अनेक भागों में प्रचलित राजनीतिक संस्थाएँ थीं।
यूनानी-रोमन लेखकों ने भी प्राचीन भारत में गणराज्यों के अस्तित्व को स्वीकार किया है जिसके अनुसार सिकंदर के आक्रमण के समय पंजाब तथा सिंधु में कई गणराज्य थे जो राजतंत्रों से भिन्न थे। सिकंदर को लौटते हुए मालव, अम्बष्ठ और क्षुद्रक प्रजातांत्रिक राज्य मिले थे। मुद्रासाक्ष्यों से भी गणराज्यों के ऊपर प्रकाश पड़ता है। मालव, अर्जुनायन, यौधेय जैसे गणराज्यों के प्राप्त सिक्कों पर राजा का उल्लेख न होकर गण का ही उल्लेख मिलता है। मेगस्थनीज ने लिखा है कि उसके समय में बहुत से भारतीय नगरों में गणतंत्रात्मक शासन प्रचलित था। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में गणराज्य विद्यमान थे और वे इस अर्थ में राजतंत्रों से भिन्न थे कि उनका शासन किसी वंशानुगत राजा के द्वारा न होकर गण अथवा संघ द्वारा संचालित होता था। परंतु प्राचीन भारत के गणतंत्र आधुनिक काल के गणतंत्र से इस अर्थ में भिन्न थे कि उनमें शासन का संचालन संपूर्ण प्रजा द्वारा न होकर कुल-विशेष के प्रमुख व्यक्तियों द्वारा किया जाता था।
बुद्धकालीन गणराज्य
प्राचीन ग्रंथों से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर और बुद्ध के काल में उत्तर पूर्वी भारत में अनेक गणराज्य भी विद्यमान थे। इस समय लिच्छवि, विदेह, शाक्य, मल्ल, कोलिय, मोरिय, बुलि और भग्ग जैसे 10 गणराज्य तिरहुत से लेकर कपिलवस्तु तक फैले हुए थे। बुद्धकालीन प्रमुख गणराज्यों में कपिलवस्तु के शाक्यों एवं वैशाली के लिच्छवियों के अलावा सुमसुमार पर्वत के भग, केसपुत्र के कालाम, रामग्राम के कोलिय, कुशीनारा के मल्ल, पावा के मल्ल, पिप्पलिवन के मोरिय और अलकल्प के बुलि महत्त्वपूर्ण थे-
कपिलवस्तु के शाक्य
नेपाल की तराई में स्थित शाक्य गणराज्य के उत्तर में पर्वत हिमालय, पूरब में रोहिणी नदी तथा दक्षिण और पश्चिम में राप्ती नदी बहती थी। इसकी राजधानी कपिलवस्तु थी, जिसकी पहचान नेपाल के आधुनिक तिलौराकोट से की जाती है। कुछ इतिहासकार इसकी पहचान सिद्धार्थनगर जिले के पिपरहवा नामक स्थान से भी करते हैं, जहाँ से बौद्धस्तूप एवं धातुगर्भ-मंजूषा के अवशेष प्राप्त हुए हैं। पालि ग्रंथों के अनुसार शाक्य इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय थे। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि शाकवन के निकट होने के कारण इन्हें शाक्य नाम मिला। कपिल आश्रम के निकट होने के कारण यह नगर कपिलवस्तु के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
बौद्ध ग्रंथों के अनुसार शाक्य गणराज्य में लगभग अस्सी हजार परिवार थे। गौतम बुद्ध का जन्म इसी गणराज्य में हुआ था, इसलिए इस गणराज्य का महत्त्व बढ़ गया था। इस गणराज्य के अन्य नगरों में चातुमा, सामगाम, खोमदुस्स, सिलावती, नगरक, देवदह, शक्कर आदि थे। बुद्ध की माता देवदह नगर की कन्या थीं। राजनैतिक शक्ति के रूप में शाक्य गणराज्य बहुत महत्त्वशाली कभी नहीं रहा और यह कोशल राज्य की अधीनता स्वीकार करता था। शाक्यों को अपने रक्त की शुद्धता पर अत्यधिक अभिमान था। यही कारण है कि जब कोशल नरेश प्रसेनजित ने शाक्य राजकुमारी से विवाह करने का प्रस्ताव भेजा तो शाक्यों ने भयवश उस प्रस्ताव को स्वीकार तो कर लिया, किंतु एक दासी की पुत्री वासभखत्तिया को प्रसेनजित की सेवा में भेज दिया। कहा जाता है कि इस गणराज्य का विनाश वासभखत्तिया के पुत्र विडूडभ के हाथों हुआ।
वैशाली के लिच्छवि
बुद्ध के समय में सबसे बड़ा और शक्तिशाली गणराज्य बिहार में स्थित वैशाली के लिच्छवियों का था। लिच्छवि गणराज्य की राजधानी वैशाली थी। वैशाली का समीकरण बसाढ़ से की जा सकती है, जो आधुनिक मुजफ्फरपुर में है। इस राज्य की स्थापना सूर्यवंशीय राजा इक्ष्वाकु के पुत्र विशाल ने की थी। बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण साहित्य में लिच्छवियों को अभिजात कुल का क्षत्रिय बताया गया है। महापरिनिब्बाणसुत्त के अनुसार लिच्छवियों ने क्षत्रिय होने के आधार पर ही बुद्ध के अवशेषों की माँग की थी। सिगाल जातक में एक लिच्छवि कन्या को ‘क्षत्रिय पुत्री’ कहा गया है। जैन साहित्य में भी लिच्छवियों को क्षत्रिय बताया गया है। भगवान् महावीर की माता, जो लिच्छवि राजकुमारी थीं, को भी क्षत्राणी कहा गया है। ब्राह्मण ग्रंथ भी लिच्छवियों को क्षत्रिय बताते हैं। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी लिच्छवियों को क्षत्रिय स्वीकार किया है। ई.पू. सातवीं शताब्दी में वैशाली का लिच्छवि राज्य राजतंत्र से गणतंत्र में परिवर्तित हो गया।
लिच्छवियों ने महात्मा बुद्ध के निवास हेतु महावन में प्रसिद्ध कूटागारशाला का निर्माण करवाया था। लिच्छवि शासक चेटक की पुत्री चेलना का विवाह मगध नरेश बिंबिसार से हुआ था। लिच्छवि अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा से मगध के उदीयमान राज्य के लिए अवरोध थे, किंतु वे अपनी रक्षा में पीछे नहीं रहे और उन्होंने कभी मल्लों के साथ तथा कभी आसपास के अन्यान्य गणों के साथ संघ बनाया जो वज्जिसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
ई.पू. छठी शताब्दी में बौद्धिक आंदोलन
मिथिला के विदेह
बिहार के भागलपुर तथा दरभंगा जिलों के क्षेत्रों में स्थित इस राज्य में पहले राजतंत्रात्मक व्यवस्था थी। बुद्धकाल में यह संघ राज्य में परिवर्तित हो गया। विदेह लोग वज्जि संघ के सदस्य थे। इसकी राजधानी मिथिला थी जिसका समीकरण वर्तमान जनकपुर से किया जाता है। महाजनक जातक में मिथिला को समृद्ध, विशाल, सभी ओर से प्रकाशित तथा तोरणों से युक्त बताया गया है। इस जातक के अनुसार मिथिला की स्थापना विदेह ने की थी। विदेह राजनीतिक दृष्टि से सुदृढ़ था और इसका समकालीन राजवंशों से वैवाहिक संबंध भी था। बिंबिसार की एक रानी वैदेही थी। भास के स्वप्नवासवदत्ता के अनुसार स्वयं उदयन वैदेहीपुत्र थे। महावीर की माता त्रिशला भी विदेह राजकुमारी थीं। बुद्ध के समय में मिथिला एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र था।
सुस्सुमार पर्वत के भग
सुस्सुमार पर्वत का समीकरण मिर्जापुर जिले के चुनार से किया जाता है। भग गणराज्य के अधिकार-क्षेत्र में विंध्य क्षेत्र की यमुना तथा सोन नदियों के बीच का प्रदेश स्थित था। संभवतः भग ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लिखित भर्ग वंश से संबंधित थे। भग लोग वत्स की अधीनता स्वीकार करते थे क्योंकि वत्सराज उदयन का पुत्र बोधिकुमार सुस्सुमारगिरि में निर्मित कोकनद नामक भवन में निवास करता था।
अलकल्प के बुलि
बुलियों का प्राचीन गणराज्य बिहार के शाहाबाद, आरा और मुजफ्फरपुर जिलों के बीच स्थित था। बुलियों का बैठद्वीप के साथ घनिष्ठ संबंध था और यही बुलियों की राजधानी थी। कुछ विद्वान् वेठद्वीप का समीकरण कसिया से भी करते हैं। महापरिनिब्बाणसुत्त से पता चलता है कि बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उनके अस्थि-अवशेष को प्राप्त कर बुलियों ने उस पर अलकप्प में एक स्तूप का निर्माण करवाया था। इससे लगता है कि बुलि शाक्यों से संबंधित थे।
केसपुत्त के कालाम
संभवतः यह गणराज्य कोशल के पश्चिम में सुल्तानपुर जिले के कुंडवार से लेकर पालिया नामक स्थान तक फैला हुआ था। वैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि कालामों का संबंध पांचाल जनपद के केशियों से था। इस गणराज्य के आलार कालाम नामक आचार्य से, जो उरुवेला के समीप निवास करते थे, गौतम बुद्ध ने पहला उपदेश ग्रहण किया था। इस गणराज्य के एक दूसरे आचार्य भरण्डु का आश्रम कपिलवस्तु में था। केसपुत्तियसुत्त से लगता है कि कालाम लोग कोशल की अधीनता स्वीकार करते थे।
रामगाम के कोलिय
शाक्य गणराज्य के पूर्व में रामगाम के कोलियों का गणराज्य था। कोलियों की राजधानी रामगाम की पहचान आधुनिक देवकाली गाँव या वर्तमान रामपुर कारखाना (देवरिया) से की जाती है। किंतु इसे वर्तमान गोरखपुर के रामगढ़ ताल से समीकृत किया जाना चाहिए। पालि परंपरा के अनुसार कोलिय भी शाक्यों की तरह इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय थे और एक-दूसरे से संबंधित थे। शाक्य और कोलिय गणराज्य के बीच रोहिणी नदी बहती थी और दोनों राज्यों के लोग पीने और सिंचाई के लिए रोहिणी नदी के जल का उपयोग करते थे, इसलिए रोहिणी नदी के जल के बंटवारे को लेकर शाक्यों और कोलियों में प्रायः संघर्ष होता रहता था। रुक्खधम्म तथा फंदन जातक से पता चलता है कि जिस समय शास्ता जेतवन में रुके थे, उसी समय शाक्यों एवं कोलियों में पानी के लिए भयंकर संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई थी, किंतु बुद्ध ने हस्तक्षेप कर इस संघर्ष को शांत कर दिया था।
कुशीनारा के मल्ल
कुशीनारा का तादात्म्य देवरिया से लगभग 34 कि.मी. उत्तर वर्तमान कसया के निकट स्थित अनुरुधवा गाँव के टीले से किया जाता है। यहाँ से एक ताम्रपत्र भी मिला है जिस पर ‘परिनिर्वाण चैत्य ताम्रपट्ट इति’ लेख उत्कीर्ण है। यहाँ से प्राप्त कुछ मुद्राओं पर ‘श्री महापरिनिर्वाण विहारे भिक्षुसंघस्य’ लेख भी मिलता है। वाल्मीकि रामायण में मल्लों को लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतु मल्ल का वंशज बताया गया है।
पावा के मल्ल
पावा आधुनिक देवरिया जिले का पडरौना था, यद्यपि कुद इतिहासकार इसकी पहचान फाजिल नगर से करने के पक्ष में हैं। जैन साहित्य से ज्ञात होता है कि मगध नरेश अजातशत्रु के भय से मल्लों ने लिच्छवियों के साथ मिलकर एक संघ की स्थापना की थी। किंतु अजातुशत्रु ने लिच्छवियों को पराजित करने के बाद मल्लों को भी पराजित कर दिया था।
पिप्पलिवन के मोरिय
मोरिय गणराज्य के लोग शाक्यों की ही एक शाखा थे। महावंशटीका से पता चलता है कि कोशल नरेश विडूडभ के अत्याचारों से बचने के लिए जो शाक्य वंश के लोग हिमालय प्रदेश में भाग गये थे, उन्होंने वहाँ मोरों की कूंक से गुंजायमान स्थान में पिप्पलिवन नामक नगर बसाया। मोरों के प्रदेश का निवासी होने के कारण ही वे मोरिय कहे गये। महापरिनिब्बाणसुत्त के अनुसार भगवान् बुद्ध की अस्थियों के लिए दावा करनेवालों में मोरिय भी एक थे जो विलंब से पहुँचने के कारण अवशेषांश नहीं प्राप्त कर सके थे। मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त इसी मोरिय गणराज्य में उत्पन्न हुआ था। यद्यपि पिप्पलिवन को गोरखपुर जिले के कुसुम्हीं के पास स्थित राजधानी नामक गाँव से समीकृत किया जाता है, किंतु इसका समीकरण सिद्धार्थनगर के पिपरहवा से किया जाना अधिक उचित है।
गणराज्यों का शासन-विधान
गणतंत्रीय शासन में प्रजा का कल्याण दूर-दूर तक व्याप्त होता है। गण की कार्यपालिका का अध्यक्ष एक निर्वाचित पदाधिकारी होता था, जिसे गणराज्य का प्रमुख नायक या राजा कहा जाता था। सामान्य प्रशासन की देखभाल के साथ-साथ गणराज्य में आंतरिक शांति एवं सामंजस्य बनाये रखना उसका कर्त्तव्य था। इसका काम कर वसूलना तथा जनता के लिए सड़क आदि बनवाना था। अन्य पदाधिकारियों में उपराजा, सेनापति, भांडागारिक आदि प्रमुख थे।
मगध का उत्कर्ष : हर्यंक, शिशुनाग और नंद वंश का योगदान
सर्वोच्च सभा (गणसभा) अथवा संस्थागार
गणराज्य की वास्तविक शक्ति एक सर्वोच्च सभा (गणसभा) अथवा संस्थागार में निहित होती थी, जो संसद जैसी होती थी। इस सभा के सदस्यों की संख्या परंपरा से नियत थी। वस्तुतः गण के निर्माण की इकाई कुल थी। प्रत्येक कुल का एक-एक व्यक्ति गणसभा का सदस्य होता था। गणसभा के प्रत्येक कुलवृद्ध या सदस्य की संघीय उपाधि ‘राजा’ होती थी। एकपण्ण जातक के अनुसार लिच्छिवि गणराज्य की केंद्रीय समिति में 7,707 राजा थे तथा उपराजाओं और सेनापतियों तथा कोषाध्यक्षों की संख्या भी इतनी ही थी। एक स्थान पर शाक्यों के संस्थागार (गणसभा) के सदस्यों की संख्या 500 बताई गई है। ये संभवतः राज्य के कुलीन परिवारों के सदस्य थे जो ‘राजा’ की उपाधि धारण करते थे। प्रत्येक राजा के अधीन उपराजा, सेनापति, भांडागारिक आदि पदाधिकारी होते थे। लगता है कि लिच्छवि राज्य अनेक छोटी-छोटी प्रशासनिक इकाइयों में विभक्त था और प्रत्येक इकाई का अध्यक्ष एक राजा होता था जो अपने अधीन पदाधिकारियों की सहायता से उस इकाई का शासन संचालित करता था।
संस्थागार की कार्यवाही
गणसभा में गण के समस्त प्रतिनिधियों को सम्मिलित होने का अधिकार था, किंतु सदस्यों की संख्या कई सहस्र तक होती थी, इसलिए विशेष अवसरों को छोड़कर उपस्थिति प्रायः सीमित ही रहती थी। शासन के लिए अंतरंग अधिकारी नियुक्त किये जाते थे। किंतु नियम-निर्माण का पूरा दायित्व गणसभा पर ही था। इस सभा में राजनीतिक प्रश्नों के अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार के सामाजिक, व्यावहारिक और धार्मिक प्रश्न भी विचारार्थ आते रहते थे। गणराज्यों से संबंधित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों, जैसे- संधि-विग्रह, कूटनीतिक संबंध, राजस्व-संग्रह आदि के ऊपर गणसभा के सदस्य संस्थागार में उपस्थित होकर पर्याप्त वाद-विवाद के पश्चात् बहुमत से निर्णय करते थे। ‘रोहिणी जल-विवाद’ और ‘विडूडभ’ के आक्रमण के समय शाक्यों ने अपनी राजधानी के केंद्रीय संस्थागार में उपस्थित होकर पर्याप्त वाद-विवाद के बाद ही निर्णय किया था। लिच्छवि गणराज्य में भी सेनापति खंड की मृत्यु के बाद सेनापति सिंह की नियुक्ति संस्थागार के सदस्यों द्वारा निर्वाचन के आधार पर की गई थी। कुशीनारा के मल्लों ने बुद्ध के अंतयेष्ठि और उनकी धातुओं के संबंध में अपने संस्थागार में विचार-विमर्श किया था। इस प्रकार स्पष्ट है कि गणराज्यों का शासन प्रजातांत्रिक ढ़ंग से संचालित किया जाता था। इस प्रकार संस्थागार की कार्यवाही आधुनिक प्रजातंत्रात्मक संसद के समान थी।
इन गणों के विधान का विवरण जैनसूत्रों व महाभारत में मिलता है। संस्थागार की कार्यवाही के संबंध में पता चलता है कि प्रत्येक सदस्य के बैठने की अलग व्यवस्था थी। इस कार्य के लिए ‘आसनपन्नापक’ नामक पदाधिकारी होता था। कोरम की पूर्ति, प्रस्ताव रखने, मतगणना आदि के लिए सुस्पष्ट और निश्चित नियम थे। गणसभा में नियमानुसार प्रस्ताव रखा जाता था। उसकी तीन वाचना होती थी और विरोध होने पर शलाकाओं द्वारा गुप्त मतदान प्रणाली से मतदान करके निर्णय लिया जाता था। मतदान-अधिकारी को ‘शलाका-ग्राहक’ कहा जाता था। प्रत्येक सदस्य को अनेक रंगों की शलाकाएँ दी जाती थीं। विशेष प्रकार के मतदान के लिए विशेष प्रकार की शलाकाएँ होती थीं। मत के लिए ‘छंद’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। अनुपस्थित सदस्य के भी मत लेने के नियम थे। गणसभा के कार्यों को सकुशल संपन्न कराने के लिए अनेक पदाधिकारी होते थे। गणपूरक नामक पदाधिकारी गणसभा का सचेतक था, वह गण की बैठकों में कोरम पूर्ण करवाता था और अन्य कार्यवाही संपन्न करवाता था। गणों की कार्यपालिका का अध्यक्ष ही संभवतः संस्थागार का भी प्रधान होता था।
मंत्रिपरिषद्
सामान्यतया गणराज्यों की गतिविधियों पर गणसभा का पूर्ण नियंत्रण होता था। संभवतः गणराज्यों में एक मंत्रिपरिषद् भी होती थी जिसमें चार से लेकर बीस सदस्य होते थे। ‘गणाध्यक्ष’ ही मंत्रिपरिषद् का प्रधान होता था। राज्य के उच्च पदाधिकारियों, मंत्रियों तथा प्रादेशिक शासकों की नियुक्ति प्रायः गणसभा द्वारा की ही जाती थी। यही केंद्रीय समिति (गणसभा) राष्ट्रीय न्यायाधिकरण (सर्वोच्च न्यायालय) के रूप में भी कार्य करती थी।
न्याय-व्यवस्था
बुद्धघोष की टीका ‘सुमंगलविलासिनी’ से वज्जिसंघ की न्याय-व्यवस्था के संबंध में पता चलता है कि इस संघ में आठ न्यायालय थे और किसी को तभी दंडित किया जा सकता था जब उसे एक-एक करके आठों न्यायालय दोषी सिद्ध कर दें। राजा का न्यायालय अंतिम होता था। प्रत्येक न्यायालय अपराधी को निर्दोष होने पर मुक्त तो कर सकता था, किंतु अपराध सिद्ध होने पर दंडित नहीं कर सकता था। वह उसे उच्चतर न्यायालय में भेज देता था। दंड देने का अधिकार केवल राजा को था। राजा दंड देते समय पूर्व-दृष्टांतों ‘पवेनिपोट्ठक’ का अनुसरण करता था। इन न्यायालयों के प्रधान अधिकारी विनिच्चय महामात्त, वोहारिक, सूत्ताधार, अट्ठकुलक, भांडागारिक, सेनापति, उपराजा और राजा थे। वज्जि गणराज्य में बहुत बड़े अपराध पर ही प्राणदंड की सजा दी जाती थी।
गणराज्यों के विवरणों से लगता है कि गणराज्य पर्याप्त समृद्ध और संपन्न थे। गणराज्यों में ग्राम पंचायतें भी होती थीं जो राजतंत्रात्मक राज्यों की ग्राम पंचायतों की भाँति कार्य करती थीं। ये ग्राम पंचायतें कृषि, उद्योग, व्यापार आदि के विकास का ध्यान रखती थीं। अधिकतर गणराज्य या गणसंघ बौद्ध धर्मानुयायी थे। महापरिनिर्वाणसूत्र से ज्ञात होता है कि बुद्ध ने वज्जिसंघ की कार्यप्रणाली की बड़ी प्रशंसा की थी। उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं के संप्रदाय को भिक्खु संघ की संज्ञा दी। युद्ध से गण की स्थिति सकुशल नहीं रहती, इसलिए गणों ने प्रायः शम या शांति की नीति अपनाई। इन गणराज्यों के पास अपनी कोई सेना नहीं होती थी, गणराज्य का प्रत्येक नागरिक अस्त्र-शस्त्र की विद्या में निपुण होता था और आवश्यकता पड़ने पर सैनिक का कार्य करता था। गणराज्य जब तक संघ-जीवन के नियमों का पालन करते थे, अपराजेय थे।
बुद्धकालीन सोलह महाजनपदों एवं गणतंत्रात्मक राज्यों की पारस्परिक शत्रुता और संघर्ष के परिणामस्वरूप ई.पू. छठी सदी के उत्तरार्द्ध तक कई छोटे महाजनपद और गणतंत्र शक्तिशाली महाजनपदों की विस्तारवादी नीति का शिकार होकर या तो उन्हीं में विलीन हो गये या फिर महत्त्वहीन हो गये। कोशल ने काशी का गौरव धूल में मिला दिया, तो मगध ने अंग के ऐश्वर्य की इतिश्री कर दी। अवंति भी चेदि के कुछ भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर वत्स की सीमा स्पर्श करने लगा। बुद्धकाल तक आते-आते समस्त उत्तर भारत की राजनीति में केवल चार महत्त्वपूर्ण शक्तिशाली राजतंत्रों- कोशल, वत्स, अवंति और मगध ने प्रसिद्धि प्राप्त की और इन्हीं चारों की तूती बोल रही थी। कोशल में स्वनामधन्य प्रसेनजित, वत्स में भास के स्वप्नवासवदत्ता के धीरोदात्त नायक उदयन, अवंति में सैनिक शक्ति के पुंज महासेन चंडप्रद्योत तथा मगध में हर्यंक कुल के नायक बिंबिसार अपनी साम्राज्यवादी नीति से पड़ोसियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास करने लगे।
गणराज्यों का पतन
भारतवर्ष में लगभग एक सहस्र वर्षों छठी शताब्दी ई. पू. से चौथी सदी ई. तक गणराज्यों के उत्थान-पतन का इतिहास मिलता है। नवीन पुरातात्त्विक उत्खननों में गणराज्यों के कुछ लेख, सिक्के और मिट्टी की मुहरें प्राप्त हुई हैं, विशेषकर यौधेय गणराज्य के संबंध में कुछ प्रमाणिक सामग्री प्राप्त हुई है। गणराज्यों की झलक गुप्त साम्राज्य के उदयकाल तक दिखाई पड़ती है। धरणिबंध के आदर्श से प्रेरित समुद्रगुप्त के सैनिक अभियानों के कारण अधिकांश गणराज्य गुप्त साम्राज्य में विलीन हो गये।
भारतीय इतिहास के वैदिक युग में जनों अथवा गणों की प्रतिनिधि संस्थाएं विदथ, सभा और समिति थीं। कालांतर में उन्हीं का स्वरूप वर्ग, श्रेणी, पूग और जानपद आदि में रूपांतरण हो गया। राजतंत्रात्मक और गणतंत्रात्मक परंपराओं का संघर्ष चलता रहा। गणराज्य राजतंत्र में और राजतंत्र गणराज्य में बदलते रहे।
गणराज्यों की अकेलेपन की नीति और मतैक्य का अभाव, उनके विनाश के कारण बने। मगध के महत्त्वाकांक्षी शासक वैदेहीपुत्र अजातशत्रु ने भी गणराज्यों की स्वतंत्रता पर प्रहार किया, जिससे छोटे और कमजोर गणराज्य साम्राज्यवाद की धारा में समाहित हो गये। अजातशत्रु और वर्षकार की नीति चंद्रगुप्त और चाणक्य का आदर्श थी। अब साम्राज्यवादी शक्तियों का सर्वात्मसाती स्वरूप सामने आया और अधिकांश गणतंत्र मौर्यों के विशाल एकात्मक शासन में विलीन हो गये।
परंतु गणराज्यों की आत्मा नहीं दबी। सिकंदर की तलवार, अजातशत्रु का प्रहार, मौर्यों की मार अथवा हिंद-यवनों और शक-कुषाणों की आक्रमणकारी बाढ़, उनमें से मात्र कुछ निर्बलों को ही बहा सकी। अपनी स्वतंत्रता का हर मूल्य चुकाने को तैयार मल्लोई (मालव), यौधेय, मद्र और शिवि पंजाब से नीचे उतरकर राजपूताना में प्रवेश कर गये और शताब्दियों तक उनके गणराज्य बने रहे। उन्होंने शाकल आदि अपने प्राचीन नगरों का मोह छोड़कर माध्यमिका तथा उज्जयिनी जैसे नये नगर बसाये, अपने सिक्के चलाये और अपने गणों की विजयकामना की। मालव गणतंत्र ने शकों को पराजित कर अपने गण की पुनर्स्थापना की और इस विजय की स्मृति में ई.पू. 57-56 में एक नया संवत् चलाया, जो विक्रम संवत् के नाम से प्रसिद्ध है और जो आज भी भारतीय गणना-पद्धति का प्रमुख आधार है।
प्रतिभाशाली गुप्त सम्राटों की साम्राज्यवादी नीति ने गणतांत्रिक स्वतंत्रता की भावना की अंतिम लौ को बुझा दिया। भारतीय गणों में प्रमुख लिच्छवियों के ही दौहित्र समुद्रगुप्त ने उनकी स्वतंत्रता का हरण कर लिया। उसने मालव, आर्जुनायन, यौधेय, काक, खरपरिक, आभीर, प्रार्जुन एवं सनकानीक आदि को प्रणाम, आगमन और आज्ञाकरण के लिए बाध्य कर धरणि-बंध के आदर्श को पूर्ण किया। यह भारतीय गणराज्यों के भाग्य-चक्र की विडम्बना ही थी कि उन्हीं के सगे-संबंधियों ने उन पर प्रहार किया, जैसे- वैदेहीपुत्र अजातशत्रु, मोरियगण के राजकुमार चंद्रगुप्त मौर्य, लिच्छवि-दौहित्र समुद्रगुप्त, किंतु गणतंत्रीय भावनाओं को मिटा पाना सरल नहीं रहा और अहीर तथा गूजर जैसी अनेक जातियों के रूप में यह भावना कई शताब्दियों तक पनपती-पलती रही।
आज साम्राज्यों और सम्राटों के नामोनिशान मिट चुके हैं तथा निरकुंश और असीमित राज्य-व्यवस्थाएं समाप्त हो चुकी हैं, किंतु स्वतंत्रता की वह मूलभावना मानव-हृदय से नहीं दूर की जा सकती जो गणराज्य परंपरा की कुंजी है। विश्व इतिहास के प्राचीन युग के गणों की तरह आज के गणराज्य अब न तो क्षेत्र में अत्यंत छोटे हैं और न आपस में फूट और द्वेषभावना से ग्रस्त। उनमें न तो प्राचीन ग्रीक का दासवाद है और न प्राचीन और मध्यकालीन भारत और यूरोप के गणराज्यों का सीमित मतदान। उनमें अब समस्त जनता का प्राधान्य हो गया है और उसके भाग्य की वही विधायिका है। अब तो सैनिक अधिनायकवादी भी जनवाद का दम भरते हैं और कभी-कभी उसके लिए कार्य भी करते हैं। गणराज्य की भावना अमर है और उसका जनवाद भी सदैव अमर रहेगा।
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