नूरजहाँ (1577-1645)
नूरजहाँ मुगल काल की एक महारानी थीं, जिन्हें भारत के इतिहास में मुगल शासक जहाँगीर की सबसे पसंदीदा पत्नी के तौर पर याद किया जाता है। उनका असली नाम मेहर-उन-नीसा था। उनका जन्म अफगानिस्तान के कंधार में 1577 ई. में एक फारसी कुलीन परिवार में हुआ था। मध्यकालीन भारत में जिन महिलाओं ने दरबारी राजनीति और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया, उनमें नूरजहाँ सर्वोपरि हैं। अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा विलक्षण गुणों के कारण यह रूपवती और महत्वाकांक्षी महिला लगभग पंद्रह वर्षों तक मुगल दरबार और राजनीति पर छाई रही।

नूरजहाँ का प्रारंभिक जीवन
नूरजहाँ का वास्तविक नाम मेहरुन्निसा था। वह मिर्जा गियास बेग और उनकी पत्नी अस्मत बेगम की दूसरी बेटी तथा चौथी संतान थीं। उनके माता-पिता दोनों प्रतिष्ठित फारारसी परिवारों के वंशज थे। 1577 ई. में मिर्जा गियास बेग ने आर्थिक कठिनाइयों के कारण ईरान छोड़कर नौकरी की तलाश में भारत आने का फैसला किया। भारत आने के रास्ते में मिर्जा गियास बेग के परिवार को लुटेरों के आक्रमण का सामना करना पड़ा, जिससे उनकी बची-खुची संपत्ति भी छिन गई। गियास बेग मुसीबतों से जूझते हुए किसी तरह कंधार पहुँचे, जहाँ उनकी पत्नी अस्मत बेगम ने 31 मई 1577 ई. को दूसरी बेटी को जन्म दिया, जिसका नाम उन्होंने ‘मेहरुन्निसा’ (महिलाओं के बीच सूर्य) रखा। बाद में एक कुलीन व्यापारी मलिक मसूद की मदद से मिर्जा गियास बेग अकबर के दरबार में उपस्थित हुए। अकबर ने मिर्जा गियास बेग को एक साधारण पद पर नियुक्त किया। किंतु अपनी बुद्धि, योग्यता एवं परिश्रम के बल पर मिर्जा गियास बेग की पदोन्नति होती गई। 1595 ई. में वह काबुल के दीवान (कोषाध्यक्ष) जैसे उच्च प्रशासनिक पद पर पहुँच गए। सिंहासनारोहण के बाद जहाँगीर ने मिर्जा गियास बेग को ‘इत्मादुद्दौला’ (राज्य का स्तंभ) की पदवी से सम्मानित किया और उन्हें संयुक्त दीवान पद पर नियुक्त कर दिया।
अपनी सेवा और पदोन्नति के परिणामस्वरूप मिर्जा गियास बेग ने अपनी पुत्री मेहरुन्निसा की शिक्षा का उचित प्रबंध किया। शीघ्र ही मेहरुन्निसा अरबी और फारसी भाषाओं, कला, साहित्य, संगीत तथा नृत्य में पारंगत हो गईं।
नूरजहाँ और जहाँगीर के संबंध में असंख्य किंवदंतियाँ और कहानियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि शहजादा सलीम पहले से ही मेहरुन्निसा के सौंदर्य पर विमुग्ध हो गए थे और उनसे विवाह करने की सोचने लगे थे। किंतु अकबर इस विवाह के पक्ष में नहीं थे। ऐसी कहानियों का कोई पुख्ता सबूत नहीं है।
शेर अफगन से विवाह (1594 ई.)
गियास बेग ने सत्रह वर्षीय मेहरुन्निसा का विवाह 1594 ई. में अलीकुली इस्तजलू नामक एक ईरानी प्रवासी से कर दिया, जो आजीविका की तलाश में भारत आया था और खान-ए-खाना के अधीन सेवा कर चुका था। इस दंपति की केवल एक बेटी लाडली बेगम थी, जिसका जन्म 1605 ई. में हुआ था।
अकबर ने 1599 ई. में अलीकुली खाँ को शहजादा सलीम के अधीन मेवाड़ पर आक्रमण के लिए भेजा। संभवतः जहाँगीर ने एक क्रुद्ध बाघिन को हाथ से मारने के कारण अलीकुली को ‘शेर अफगन’ की उपाधि प्रदान की थी। एक मत यह भी है कि उदयपुर के राणा की हार में ‘शेर अफगन’ की महत्त्वपूर्ण भूमिका के पुरस्कार के रूप में उन्हें यह उपाधि मिली थी। जब शहजादा सलीम ने अपने पिता अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया, तो शेर अफगन ने सलीम का साथ छोड़कर सम्राट अकबर का साथ दिया।
1605 ई. में बादशाह बनने पर जहाँगीर ने शेर अफगन को क्षमा कर दिया और उन्हें बंगाल में बर्दवान का फौजदार नियुक्त किया। शेर अफगन अपनी इस नई नियुक्ति से खुश नहीं थे क्योंकि वहाँ की जलवायु अनुकूल नहीं थी। 1606 ई. में जहाँगीर ने कुतुबुद्दीन को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया। शेर अफगन के संबंध में जहाँगीर को सूचना थी कि वे साम्राज्य-विरोधी गतिविधियों में संलग्न हैं और सूबेदार की आज्ञाओं का पालन नहीं कर रहे हैं। अतः जहाँगीर ने बंगाल के सूबेदार कुतुबुद्दीन को आदेश दिया कि वे शेर अफगन को दरबार में वापस भेज दें। 1607 ई. में जब कुतुबुद्दीन बर्दवान पहुँचे, तो शेर अफगन उनकी सेवा में उपस्थित हुए। संभवतः कुतुबुद्दीन ने उन्हें कैद करने का प्रयास किया, जिससे क्रोधित होकर शेर अफगन ने कुतुबुद्दीन की हत्या कर दी। अंत में सूबेदार के पीर खाँ नामक एक अश्वारोही सैनिक और उनके अन्य साथियों के प्रत्याक्रमण में शेर अफगन भी मारे गए।
मेहरुन्निसा का जहाँगीर से विवाह
शेर अफगन की मृत्यु की सूचना पाकर जहाँगीर ने उनकी विधवा मेहरुन्निसा और उनकी पुत्री लाडली बेगम को आगरा बुलवा लिया और उन्हें अकबर की विधवा राजमाता ‘रुकैया सुल्तान बेगम’ की सेवा में लगा दिया। रुकैया दिवंगत बादशाह अकबर की प्रमुख पत्नी रही थीं और हरम में सबसे वरिष्ठ तथा प्रभावशाली महिला होने के नाते नूरजहाँ को मुगल हरम में सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम थीं। वहाँ मेहरुन्निसा ने हरम की स्त्रियों के लिए चोलियाँ, पोलके, दुपट्टे, लहंगे तथा उनके वस्त्रों की नई-नई डिज़ाइनों का आविष्कार किया। उन्होंने श्रृंगार तेल और सुगंधित पदार्थों से बने इत्र आदि का निर्माण किया। गुलाब के इत्र की आविष्कर्त्री नूरजहाँ की माता अस्मत बेगम ही मानी जाती हैं।
मेहरुन्निसा को तो मल्लिका-ए-हिंदुस्तान बनना था। जहाँगीर ने अपने शासन के छठे वर्ष मार्च 1611 ई. में ‘नौरोज’ के अवसर पर मीना बाज़ार में पहली बार मेहरुन्निसा को देखा। वह उनके सौंदर्य पर इतने आसक्त हुए कि 25 मई 1611 ई. को ही उन्होंने मेहरुन्निसा से विवाह कर लिया। इस प्रकार नूरजहाँ जहाँगीर की बीसवीं और अंतिम पत्नी बन गईं। विवाह के पश्चात् जहाँगीर ने उन्हें पहले ‘नूरमहल’ (महल का प्रकाश) और फिर पाँच साल बाद 1616 ई. में ‘नूरजहाँ’ (संसार का प्रकाश) की उपाधि प्रदान की।
शेर अफगन की हत्या में जहाँगीर की भूमिका
कुछ इतिहासकारों ने जहाँगीर पर शेर अफगन की हत्या करने का संदेह किया है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद जैसे विद्वान मानते हैं कि सलीम मेहरुन्निसा से पहले से प्रेम करता था और अकबर के विरोध के कारण वह उनसे विवाह नहीं कर सका था। शहंशाह बनने के बाद उसने शेर अफगन की हत्या के बाद मेहरुन्निसा से विवाह किया। संभवतः शेर अफगन की हत्या जहाँगीर के इशारे पर ही की गई थी। इस संबंध में डच लेखक डी लेट लिखता है: ‘‘जहाँगीर मेहरुन्निसा से उस समय से ही प्रेम करने लगा था जब वह कुमारी थी। किंतु उस समय अकबर जीवित था। मेहरुन्निसा की सगाई शेर अफगन नामक एक तुर्क से हो गई थी। इसलिए जहाँगीर के पिता ने उसके साथ विवाह की अनुमति नहीं दी, किंतु जहाँगीर ने उससे प्रेम करना नहीं छोड़ा।’’
किंतु इस अफवाह की सत्यता संदिग्ध है क्योंकि ऐसा कोई ठोस सबूत नहीं है जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि जहाँगीर उनसे पहले से प्रेम करता था या शेर अफगन की हत्या में उनकी कोई भूमिका थी। 1616 ई. में भारत आने वाले थॉमस रो, जिन्होंने मुगल दरबार में नूरजहाँ के प्रभाव का वर्णन किया है, इस प्रेम-संबंध और हत्या के संबंध में मौन हैं। डॉ. बेनी प्रसाद जैसे इतिहासकार मानते हैं कि जहाँगीर ने मेहरुन्निसा को पहली बार नौरोज के अवसर पर 1611 ई. में ही देखा था और उसी वर्ष उनसे विवाह कर लिया। शेर अफगन की हत्या में जहाँगीर की कोई भूमिका नहीं थी। यह सही है कि शेर अफगन की मृत्यु संदेहपूर्ण परिस्थितियों में हुई थी, लेकिन इसमें सम्राट के अपराधी होने का कोई सबूत नहीं है। यह कुतुबुद्दीन की मूर्खता के कारण हुआ था। अगर वह शेर अफगन को उत्तेजित न करता तो संभवतः शेर अफगन भी उस पर आक्रमण नहीं करता।
नूरजहाँ का राजनीतिक प्रभुत्व
मल्लिका-ए-हिंदुस्तान बनने के समय नूरजहाँ की आयु 34 वर्ष और जहाँगीर की आयु 43 वर्ष थी। बादशाह जहाँगीर से अपनी शादी के बाद नूरजहाँ के प्रभाव में तेजी से वृद्धि हुई। वह असाधारण सुंदरी होने के साथ-साथ सुसंस्कृत, बुद्धिमती, शीलवान और विवेकसंपन्न भी थीं। वह बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न थीं और साहित्य, कविता तथा ललित कलाओं में उनकी विशेष रुचि थी। वह अक्सर अपने पति के साथ शिकार के दौरे पर जाती थीं और क्रूर बाघों का शिकार करने में अपनी निशानेबाजी तथा साहस के लिए जानी जाती थीं। उनमें राजनीतिक तथा प्रशासनिक समस्याओं को समझने की सहज बुद्धि थी। उन्होंने जहाँगीर के स्वास्थ्य पर पूरा ध्यान रखा और अपनी सेवा-सुश्रुषा से भी सम्राट को संतुष्ट रखा।
नूरजहाँ शीघ्र ही प्रशासनिक मामलों में सम्राट का हाथ बँटाने लगीं। जहाँगीर ने भी उनकी कार्यकुशलता, प्रतिभा और योग्यता पर विश्वास कर उन्हें शासन करने तथा बादशाहत के चिह्न धारण करने का अधिकार दे दिया। नूरजहाँ को कुछ ऐसे सम्मान और विशेषाधिकार प्राप्त थे, जो इससे पहले या बाद में किसी भी मुगल साम्राज्ञी को नहीं मिले थे। वह एकमात्र मुगल साम्राज्ञी थीं जिनके नाम पर चाँदी के सिक्के ढाले गए थे। वह अक्सर जनता दरबार में उपस्थित होती थीं और जनता की समस्याएँ सुनती थीं। सम्राट के अस्वस्थ होने या उनकी अनुपस्थिति में वह स्वतंत्र रूप से शाही अदालत का आयोजन करती थीं। उन्हें शाही मुहर का प्रयोग करने का अधिकार था, जिसका अर्थ था कि किसी भी दस्तावेज़ या आदेश को कानूनी वैधता प्राप्त करने से पहले उनकी अनुमति और सहमति आवश्यक थी। दूसरे शब्दों में, जहाँगीर केवल नाम का बादशाह रह गए थे और शासन का वास्तविक संचालन नूरजहाँ द्वारा संपन्न होता था। मुतमिद खाँ के अनुसार जहाँगीर स्वयं कहा करते थे : ‘‘उसने बादशाहत नूरजहाँ बेगम को सौंप दी है और उसे अब सेर भर शराब और आधा सेर कबाब चाहिए था।’’ इस प्रकार जब मुगल साम्राज्य अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा के चरमोत्कर्ष पर था, नूरजहाँ साम्राज्य की सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली महिला थीं।
नूरजहाँ गुट
1616 ई. में भारत आने वाले ब्रिटिश अधिकारी सर थॉमस रो ने मुगल दरबार में नूरजहाँ गुट के प्रभाव का उल्लेख किया है, जिसके कारण उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। इस गुट में उनके पिता इत्मादुद्दौला, माता अस्मत बेगम, उनका भाई आसफ खाँ, इब्राहीम खाँ और शहजादा खुर्रम शामिल थे। 1612 ई. में ही उनकी भतीजी और भाई आसफ खाँ की पुत्री अर्जुमंद बानू बेगम, जो बाद में मुमताज़ महल के नाम से प्रसिद्ध हुईं, का विवाह शहजादा खुर्रम (बाद में शाहजहाँ) से हो गया था। इस नूरजहाँ गुट का उद्देश्य खुर्रम का समर्थन करना था।
नूरजहाँ के प्रभाव के कारण उनके सगे-संबंधियों को महत्त्वपूर्ण पदों और भारी मनसबों से नवाज़ा गया। नूरजहाँ के पिता इत्मादुद्दौला का मनसब, जो 1611 ई. में 2000/500 था, 1616 ई. में 7000/5000 कर दिया गया। इत्मादुद्दौला के पुत्र और नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ का मनसब 1611 ई. में 500/100 था, जो 1616 ई. में बढ़ाकर 5000/3000 कर दिया गया। इब्राहीम खाँ को 1616 ई. में 2000 का मनसब दिया गया और उन्हें बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया गया। खुर्रम का मनसब 1610 ई. में 10000/5000 था जो 1617 ई. में 30000/20000 किया गया।
नूरजहाँ की सलाह पर ही खुर्रम को बड़ी फौज दी गई और उन्हें चित्तौड़ तथा दक्कन के अभियानों पर भेजा गया। दक्कन में खुर्रम की कामयाबी से जहाँगीर इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने दरबार में अपने सिंहासन के बगल में उनका सिंहासन लगवाया और उन्हें ‘शाहजहाँ’ के खिताब से नवाज़ा। इस प्रकार नूरजहाँ गुट ने शाहजादा खुर्रम को समर्थन देकर उन्हें गौरव और समृद्धि के शिखर पर पहुँचा दिया। अगले दस वर्षों तक इसी गुट ने साम्राज्य पर शासन किया।
नूरजहाँ गुट में दरार
किंतु 1620 ई. के अंत तक नूरजहाँ और खुर्रम (शाहजहाँ) के संबंधों में खटास आने लगी थी, क्योंकि नूरजहाँ को लगने लगा था कि शाहजहाँ के बादशाह बनने पर उनका राजनीतिक प्रभाव कम हो जाएगा। अब नूरजहाँ ने जहाँगीर के सबसे छोटे पुत्र शहरयार को महत्त्व देना शुरू कर दिया। उन्होंने 1620 ई. में शेर अफगन से उत्पन्न अपनी पुत्री लाडली बेगम का विवाह शहरयार से कर दिया और उन्हें 8000/4000 का मनसब दिलवाया। 1621 ई. में इत्मादुद्दौला और 1622 ई. में अस्मत बेगम की भी मृत्यु हो गई, जिससे नूरजहाँ पर अपने परिवार का रहा-सहा नैतिक नियंत्रण भी समाप्त हो गया। सम्राट ने इत्मादुद्दौला की अमारत और शासन तथा दफ्तर से संबंधित सभी अधिकार नूरजहाँ को दे दिए। इस प्रकार नूरजहाँ को प्रधानमंत्री का भी सम्मान मिल गया, यद्यपि व्यावहारिक रूप से दीवान-ए-कुल का पद ख्वाजा अबुल हसन के पास ही रहा। प्रधानमंत्री पद पर नूरजहाँ की नियुक्ति से न केवल महाबत खाँ जैसे मुगल अमीरों में असंतोष उत्पन्न हुआ, बल्कि शाहजहाँ भी, जो दक्षिण में थे, चिंतित हो गए।
नूरजहाँ गुट में मतभेद उस समय उभर कर सामने आ गए जब 1621 ई. में शाहजहाँ को दक्षिण भेजा गया। वास्तव में 1620 में जब शाहजहाँ लाहौर में थे तो दक्कन में पुनः विद्रोह हो गया। इसे कुचलने के लिए नूरजहाँ ने जहाँगीर को शाहजहाँ का नाम सुझाया। शाहजहाँ दोबारा दक्कन नहीं जाना चाहते थे, किंतु नूरजहाँ उन्हें आगरा से दूर युद्धों में उलझाए रखना चाहती थीं। इस बार शाहजहाँ अपनी सुरक्षा के लिए अपने बड़े भाई खुसरो को भी दक्षिण ले गए। संभवतः नूरजहाँ भी चाहती थीं कि खुसरो शाहजहाँ के साथ दक्षिण जाएँ ताकि उनके दामाद शहरयार को तख्तनशीन करने में आसानी हो। शाहजहाँ को दक्कन में दोबारा सफलता मिली। किंतु जब शाहजहाँ को प्रधानमंत्री पद पर नूरजहाँ की नियुक्ति की खबर मिली तो वे चिंतित हो उठे और उन्होंने शहजादा खुसरो की हत्या कर दी। इस प्रकार नूरजहाँ तथा खुर्रम में विरोध की शुरुआत हुई।
1621 ई. में शराब और अफीम की लत के चलते जहाँगीर अशक्त हो गए थे। इसी दौरान ईरान के शाह अब्बास ने कंधार पर आक्रमण कर दिया। नूरजहाँ के कहने पर जहाँगीर ने फिर खुर्रम (शाहजहाँ) को दक्कन से कंधार कूच करने का आदेश दिया।
शाहजहाँ पिछले 18 महीनों से दक्कन में थे, वहाँ उन्होंने अपनी शक्ति काफी सुदृढ़ कर ली थी। फलतः उन्होंने जहाँगीर के आदेश की अवहेलना करते हुए कंधार जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने बादशाह के समक्ष ऐसी शर्तें रखीं जिन्हें स्वीकार करना संभव नहीं था। नूरजहाँ के प्रभाव में आकर जहाँगीर ने शाहजहाँ को खूब डाँटा-फटकारा और उन्हें यह आदेश दिया कि वे अपनी अधीनस्थ सेना को शीघ्र राजधानी भेज दें। यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो उन्हें पछताना पड़ेगा। शाहजहाँ ने इसे अपना अपमान समझा और इस आदेश का भी पालन नहीं किया। उधर, नूरजहाँ धीरे-धीरे शाहजहाँ की जागीरें शहरयार को हस्तांतरित करने लगी थीं।
खुर्रम के व्यवहार और राजकीय आदेशों की अवहेलना से रुष्ट होकर सम्राट ने नूरजहाँ की सलाह पर शहरयार की पदोन्नति कर दी और उन्हें 12000 जात और 8000 सवार का मनसबदार नियुक्त किया तथा पंजाब में शाहजहाँ की हिसार-फिरोज़ की जागीर भी उन्हें प्रदान कर दी। यही नहीं, उन्होंने शहरयार को कंधार जाने वाली सेना का सेनापति भी नियुक्त कर दिया।
खुर्रम का विद्रोह
नूरजहाँ की षड्यंत्रकारी राजनीति से चिढ़कर खुर्रम (शाहजहाँ) ने 1623 ई. में जहाँगीर के विरुद्ध दक्कन में विद्रोह कर दिया। विद्रोह को दबाने के लिए नूरजहाँ ने बड़ी चालाकी से आसफ खाँ को न भेजकर अपने धुर विरोधी मुगल सेनापति महाबत खाँ को शहजादा परवेज़ के नेतृत्व में दक्षिण भेजा। विद्रोह चार साल तक चलता रहा। शाही सेना ने उन्हें छोटी-छोटी मुठभेड़ों में कई बार पराजित किया। अंततः शाहजहाँ को लगा कि मुगलिया फौज से लड़ना आसान नहीं होगा, इसलिए उन्होंने जहाँगीर से क्षमा याचना की। जहाँगीर के आदेश पर खुर्रम ने असीरगढ़ और रोहतास के दुर्ग सम्राट को सौंप दिए। जमानत के तौर पर उन्हें अपने दो पुत्रों—दाराशिकोह और औरंगज़ेब को, जो क्रमशः दस और आठ वर्ष के थे, बंधक के रूप में आगरा के राजदरबार में रखना पड़ा। इस प्रकार 1625 ई. तक शाहजहाँ का विद्रोह पूर्णतः शांत हो गया और उन्हें बालाघाट का शासक नियुक्त किया गया।
महाबत खाँ का विद्रोह
शाहजहाँ के विद्रोह का दमन करने में महाबत खाँ ने सक्रिय योगदान दिया था, जिसके कारण उनके प्रभाव एवं लोकप्रियता में वृद्धि हो गई। जिस समय शाहजहाँ ने जहाँगीर से क्षमा याचना की, उस समय महाबत खाँ शहजादा परवेज़ के साथ दक्षिण में बुरहानपुर में थे। महाबत खाँ एवं शहजादा परवेज़ की निकटता से नूरजहाँ को खतरा महसूस हो सकता था क्योंकि परवेज़ महाबत खाँ को अपनी आशाओं का स्तंभ समझते थे और खुर्रम के विद्रोह के बाद वे खुद को मुगलिया सल्तनत का उत्तराधिकारी मानने लगे थे। अब नूरजहाँ के लिए आवश्यक हो गया था कि वे महाबत खाँ को राजधानी से दूर भेजकर उन्हें परवेज़ से अलग कर दें। वैसे भी महाबत खाँ नूरजहाँ के धुर विरोधी थे और नूरजहाँ भी जानती थीं कि महाबत खाँ उन लोगों में से हैं, जिन्हें शासन के कार्यों में स्त्रियों का प्रभुत्व स्वीकार नहीं है।
महाबत खाँ को शहजादा परवेज़ से अलग करने के लिए 1625 ई. में एक राजादेश द्वारा महाबत खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया गया और गुजरात के सूबेदार खानेजहाँ लोदी को शहजादा परवेज़ का वकील बनाया गया। महाबत खाँ ने इसे अपना अपमान समझा और शाही आदेश मानने से इनकार कर दिया। एक दूसरा शाही आदेश जारी किया गया और महाबत खाँ को बंगाल जाने अथवा तुरंत दरबार में उपस्थित होने का आदेश मिला। महाबत खाँ ने बंगाल न जाकर अपने चार हजार राजपूत सैनिकों के साथ राजधानी की ओर प्रस्थान किया। इस बीच 28 अक्टूबर 1626 ई. को जहाँगीर के दूसरे बेटे शहजादा परवेज़ की मौत हो गई।
महाबत खाँ की बढ़ती हुई शक्ति और मर्यादा को देखकर आसफ खाँ भी ईर्ष्या करने लगे थे। वे महाबत खाँ के विरुद्ध नूरजहाँ का सहयोग करने लगे। महाबत खाँ पर कई गंभीर आरोप लगाए गए जिनमें उनकी ईमानदारी पर संदेह किया गया था। उन्हें युद्ध के समय लूटे गए धन का हिसाब देने को कहा गया। यह अफवाह भी फैली कि आसफ खाँ महाबत खाँ को बंदी बनाना चाहते हैं। अब महाबत खाँ के पास विद्रोह करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
महाबत खाँ ने 1626 ई. में काबुल जा रहे बादशाह जहाँगीर को नूरजहाँ, आसफ खाँ और शहरयार के साथ बंदी बना लिया। किंतु महाबत खाँ सेनापति थे, कूटनीतिज्ञ नहीं। अंततः नूरजहाँ ने कूटनीतिक दाँवपेंच से रोहतास के दुर्ग में पहुँचकर जहाँगीर को महाबत खाँ के प्रभाव से मुक्त करवा लिया और महाबत खाँ का पतन हो गया। अब महाबत खाँ ने जहाँगीर के आदेश से खुर्रम के विरुद्ध ‘थट्टा’ की ओर प्रस्थान किया। बाद में शाहजहाँ ने कृपापूर्वक महाबत खाँ को क्षमा कर दिया और उन्हें अपनी सेवा में रख लिया। जहाँगीर स्वास्थ्य सुधार के लिए नूरजहाँ के साथ कश्मीर चले गए।
महाबत खाँ के विद्रोह के लिए नूरजहाँ को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी लिखते हैं कि जब महाबत खाँ दक्षिण में शाहजहाँ को खदेड़ रहा था, आसफ खाँ बहुत चिंतित थे, लेकिन वे अपने दामाद को बचाने के लिए कुछ कर नहीं सकते थे क्योंकि इससे नूरजहाँ को संदेह हो जाता। लेकिन जब शाहजहाँ को क्षमा कर दिया गया तो उन्होंने उनके पक्ष में कार्य करना आरंभ किया। उनका उद्देश्य महाबत खाँ को परवेज़ से पृथक् करना था जिससे दोनों निर्बल हो जाएँ और उनके दामाद का मार्ग प्रशस्त हो सके। उन्होंने सम्राट और नूरजहाँ को विश्वास दिलाया कि शहजादा परवेज़ के साथ इतने शक्तिशाली सेनापति का रहना साम्राज्य के लिए खतरा है। अतः सम्राट ने महाबत खाँ को बंगाल का सूबेदार नियुक्त कर दिया और उन्हें वहाँ जाने का आदेश दिया। इसके बाद आसफ खाँ ने महाबत खाँ से बंगाल की लूट और हाथियों का हिसाब माँगा। दुर्भाग्य से महाबत खाँ यह समझते रहे कि यह सब नूरजहाँ का किया-धरा है जो उन्हें कुचलना चाहती हैं। महाबत खाँ के विद्रोह का उद्देश्य केवल सम्राट को अपने नियंत्रण में रखना था। किंतु वे एक योग्य सैनिक मात्र थे और राजनीतिक दाँव-पेंच नहीं समझ सके जिन्हें उस समय आसफ खाँ संचालित कर रहे थे। इसलिए उन्हें असफल होकर अंततः शाहजहाँ की सेवा में जाना पड़ा।
1622 ई. से 1627 ई. तक नूरजहाँ भी आसफ खाँ की कुटिलता को समझने में असमर्थ रहीं। कश्मीर से लौटते समय 29 अक्टूबर 1627 ई. को राजौरी में जहाँगीर की मृत्यु हो गई। खुसरो और परवेज़ की मृत्यु हो जाने के कारण केवल खुर्रम और शहरयार ही उत्तराधिकार के लिए शेष बचे थे। आगरा दरबार में उस वक्त न शाहजहाँ थे और न ही शहरयार। एक दक्कन में थे और दूसरा लाहौर में। आसफ खाँ ने खुसरो के पुत्र दावर बख्श को नाममात्र का सम्राट बनाकर शाहजहाँ को शीघ्र आगरा पहुँचने के लिए लिखा। उधर लाहौर में नूरजहाँ ने शहरयार को सम्राट घोषित कर दिया और खजाने पर अधिकार कर लिया। किंतु शाही सेना की कमान आसफ खाँ के हाथों में थी और अधिकांश सिपहसलार शाहजहाँ के पक्ष में थे। फलतः आसफ खाँ ने लाहौर पर आक्रमण कर शहरयार को कैद कर लिया और उन्हें अंधा कर दिया। खुर्रम के आगरा पहुँचने पर 4 फरवरी 1628 ई. को शाहजहाँ का मुगल बादशाह के रूप में सिंहासनारोहण हुआ। इस प्रकार आसफ खाँ ने अपनी कूटनीतिक चतुरता से अपनी बहन नूरजहाँ को पराजित कर दिया।
जहाँगीर के जीवनकाल में नूरजहाँ सर्वशक्तिसंपन्न रहीं, किंतु 1627 ई. में जहाँगीर की मृत्यु के साथ ही उनकी राजनीतिक प्रभुता का महल धराशायी हो गया और अपनी बेटी को मल्लिका-ए-हिंदुस्तान बनाने का उनका सपना टूट गया। बादशाह शाहजहाँ ने नूरजहाँ से कोई बदसलूकी नहीं की और उन्हें दो लाख रुपए वार्षिक पेंशन देकर लाहौर में जहाँगीर की कब्र के निकट रहने की अनुमति दे दी। लगभग 18 वर्ष तक वैधव्य का एकाकी जीवन बिताने के उपरांत 17 दिसंबर 1645 ई. में नूरजहाँ की मृत्यु हो गई। नूरजहाँ की कलात्मक अभिरुचि का सबसे सबल प्रमाण उनका अपने पिता इत्मादुद्दौला के अस्थि अवशेषों पर आगरा में बनवाया गया आकर्षक मकबरा है।
नूरजहाँ का मूल्यांकन
नूरजहाँ का चरित्र और व्यक्तित्व प्रभावशाली था और जहाँगीर के शासनकाल में वह सम्राट की प्रमुख सलाहकार थीं। राजनीति, प्रशासन के अलावा उन्हें साहित्य से प्रेम था। उन्हें वैभव प्रदर्शन में भी रुचि थी। उन्होंने अनेक प्रकार के आकर्षक वस्त्रों तथा आभूषणों का आविष्कार किया। वह साहसी महिला थीं और आखेट पर जाती थीं। उनकी कुशाग्र बुद्धि और गंभीर ज्ञान से जहाँगीर तथा अन्य पदाधिकारी प्रभावित थे। जहाँगीर के प्रति उनकी निष्ठा और प्रेम अद्वितीय था। उन्होंने अपने पति की सेवा करके उनका विश्वास प्राप्त किया था। यद्यपि उनमें राजनीतिक विवेक था और वह राजनीतिक मामलों में अधिक रुचि लेती थीं, किंतु वह आसफ खाँ की कुटिलता को समझने में असमर्थ रहीं। उन्होंने शहरयार जैसे अयोग्य शहजादे का समर्थन किया, यही उनकी असफलता का कारण बना। संभवतः एक स्त्री के प्रभाव में वृद्धि मुगल अमीरों को पसंद नहीं थी और दरबार में नूरजहाँ के विरोध का यही मुख्य कारण था।
नूरजहाँ एक विदुषी महिला थीं और प्रधान बेगम तथा सम्राट की विश्वस्त होने के कारण प्रशासन पर उनका प्रभाव होना स्वाभाविक था। यद्यपि जहाँगीर को नूरजहाँ कभी-कभी उचित सलाह देती थीं जिस पर जहाँगीर अमल भी करते थे, किंतु शासन की वास्तविक शक्ति जहाँगीर के ही हाथ में थी। नूरजहाँ के पिता और भाई को जो उच्च मनसब मिले थे, वे उनकी योग्यता के कारण मिले थे, इनमें कोई पक्षपात नहीं था। शाहजहाँ को भी जो उपाधि या मनसब मिले, वे भी उनकी योग्यता के ही परिणाम थे। शाहजहाँ के विद्रोह के बाद नूरजहाँ ने शाहजहाँ को क्षमा करने का कोई विरोध नहीं किया था।
मुगल दरबार में अमीरों के विभिन्न गुट हुआ करते थे, यह कोई नई बात नहीं थी। लेकिन नूरजहाँ ने कोई गुट बनाया था, यह कहना उचित नहीं है। शाहजहाँ का विद्रोह संदेहों पर आधारित था और उसके लिए कोई ठोस आधार नहीं था। इसलिए यह मानना कि जहाँगीर नूरजहाँ के पूर्ण प्रभाव में थे, ठीक नहीं है। नूरजहाँ को वास्तविक बादशाह कहना अनैतिहासिक एवं तथ्यहीन है।










