सितंबर 1939 में जर्मन प्रसारवाद की हिटलर की नीति के अनुसार नाजी जर्मनी ने पौलैंड पर आक्रमण कर दिया, जिससे दूसरा विश्व युद्ध आरंभ हो गया। 3 सितंबर 1939 को भारत के तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने घोषणा की कि भारत भी द्वितीय विश्व युद्ध में मित्रराष्ट्रों की ओर से शामिल है। घोषणा से पूर्व उसने भारत के किसी भी राजनीतिक दल से परामर्श नहीं किया, जबकि उस समय देश के ग्यारह प्रांतों में से आठ प्रांतों में कांग्रेसी मंत्रिमंडल थे। इस प्रकार भारत की ब्रिटिश सरकार कांग्रेस या केंद्रीय विधानसभा के चुने हुए सदस्यों से परामर्श किये बिना फौरन युद्ध में शामिल हो गई।
ब्रिटेन को युद्ध में समर्थन देने के मुद्दे पर विचार करने के लिए वर्धा में 10-14 सितंबर 1939 को कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक हुई। इस बैठक में प्रस्ताव पारित कर पोलैंड पर नाजी हमले और फासीवाद तथा नाजीवाद की निंदा की गई, लेकिन प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि भारत किसी ऐसे युद्ध में शामिल नहीं हो सकता, जो प्रत्यक्षतः लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के लिए लड़ा जा रहा हो, जबकि खुद उसे ही स्वतंत्रता से वंचित रखा जा रहा हो। कांग्रेस ने माँग की कि युद्ध में उसका सक्रिय सहयोग प्राप्त करने के लिए या तो प्रभावी सत्ता भारतीयों के हाथ में सौंप दी जाए अथवा उन्हें पूर्ण स्वतंत्र घोषित किया जाए। वायसरॉय लिनलिथगो ने अपने 17 अक्टूबर 1939 के वक्तव्य में कांग्रेस की माँगों को मानने से इनकार कर दिया और धार्मिक अल्पसंख्यकों तथा देसी रियासतों को कांग्रेस के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास किया। फलतः 23 अक्टूबर 1939 को कांग्रेस कार्यसमिति के निर्देश पर कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों ने त्यागपत्र दे दिया। कांग्रेस मंत्रिमंडलों के त्यागपत्र के बाद जिन्ना और मुस्लिम लीग ने 22 दिसंबर 1939 को ‘मुक्ति-दिवस’ के रूप में मनाया, क्योंकि देश को कांग्रेस से छुटकारा मिल गया था। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी उनका समर्थन किया और ब्रिटेन की सरकार ने इस दरार से लाभ उठाने की सोची। इस युद्धकालीन संकट में ब्रिटिश सरकार को समर्थन देकर लीग को अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका मिल गया और जिन्ना वायसरॉय के पसंदीदा संभाषी बन गये। जीवन-पद्धति और दृष्टिकोण में पूर्णतः सेकुलर होने के बावजूद कांग्रेस ने जिन्ना को दशकों से अस्वीकार कर रखा था।
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पाकिस्तान की माँग
नये घटनाक्रम से उत्साहित जिन्ना ने 23 मार्च 1940 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में भारत से अलग एक पृथक् राष्ट्र की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया और उसे अपना लक्ष्य घोषित किया। अधिवेशन में जिन्ना ने कहा कि वे अलग मुस्लिम राष्ट्र के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे। जिन्ना के निर्देशानुसार अलग राष्ट्र की माँग का प्रस्ताव खलीकुज्जमाँ ने तैयार किया था। उसका शब्दांकन जानबूझकर अस्पष्ट रखा गया था और ‘पाकिस्तान’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था।
वास्तव में, मुसलमानों के लिए पृथक् राज्य के विचार का प्रवर्तक प्रख्यात कवि एवं राजनैतिक चिंतक मोहम्मद इकबाल को माना जाता है क्योंकि 1930 में मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन में मोहम्मद इकबाल ने ही सर्वप्रथम पृथक् मुस्लिम देश की स्थापना की बात कही थी, किंतु मुसलमानों के पृथक् राज्य का नाम ‘पाकिस्तान’ हो, यह विचार 1933 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के एक अनुस्नातक विद्यार्थी चौधरी रहमतअली के मस्तिष्क की उपज थी, जिसने एक पर्चा कैंब्रिज पम्फ्लेट जारी किया था। उसके अनुसार पंजाब, उत्तर-पश्चिमी प्रांत, कश्मीर, सिंध और बलूचिस्तान को भारतीय मुसलमानों का राष्ट्रीय देश होना चाहिए, जिसे उसने ‘पाकिस्तान’ की संज्ञा दी थी।
लाहौर अधिवेशन में सर्वसम्मति से पृथक् राष्ट्र का प्रस्ताव स्वीकृत हो जाने से वायसरॉय को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने भारत सचिव को लाहौर अधिवेशन की कार्यवाहियों का विवरण देते हुए लिखा कि इससे मुसलमानों और कांग्रेस के बीच दरार कहीं अधिक चौड़ी हो जायेगी। इस प्रकार लाहौर के पाकिस्तान संबंधी प्रस्ताव ने भारतीय राजनीति के स्वरूप को बदल दिया और मुस्लिम अलगाववाद के झंडे और ऊँचा कर दिया।
पाकिस्तान दिवस
क्रिप्स मिशन की विफलता के बाद, अगस्त क्रांति के दौरान जब भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के सर्वमान्य नेता जेलों में बंद थे, तो स्थिति का लाभ उठाकर मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग ने अपने प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार किया। पंजाब और सिंध में लीग अपनी पहचान बनाने में सफल रही, जहाँ उसकी इसके पहले कोई खास पहचान नहीं थी। 23 मार्च 1943 को जिन्ना ने ‘पाकिस्तान दिवस’ मनाने का आह्वान किया और भारत के मुसलमानों को समझाया कि पाकिस्तान ही मुसलमानों का राष्ट्रीय उद्देश्य है। 26 अप्रैल 1943 को लीग ने इसका समर्थन भी कर दिया। इस प्रकार जिन्ना की पाकिस्तान बनाने की माँग और सशक्त हो गई।
अक्टूबर 1943 में भूतपूर्व कमांडर-इन-चीफ वेवेल ने नये वायसरॉय के रूप में लिनलिथगो की जगह ली और 19 अक्टूबर 1943 को नई दिल्ली में वायसरॉय हाउस पहुँचे। इस समय गांधीजी तथा तमाम कांग्रेसी नेता भारत छोड़ो आंदोलन के कारण जेल में थे, मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमानों के लिए एक स्वतंत्र राज्य की माँग कर रहे थे और सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज जापानी सेना के साथ भारत की पूर्वी सीमा पर आगे बढ़ रही थी। इसी दौरान 1943 में बंगाल में आधुनिक इतिहास का सबसे बड़ा अकाल पड़ा। अकाल से निपटने वेवेल ने सेना को भूख से मर रहे बंगालियों को राहत सामग्री वितरित करने का आदेश दिया। किंतु कुछ ही समय में 30 लाख से अधिक लोग भूख से असमय काल के ग्रास बन गये, जिससे जनता भयानक गुस्से से भर उठी। फिर भी, इस गुस्से को पर्याप्त राजनीतिक अभिव्यक्ति नहीं मिल सकी।
राजाजी सूत्र या सी.आर. प्रस्ताव
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी मद्रास प्रांत के एक प्रभावशाली नेता थे, जो कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच समझौते के पक्षधर थे। उन्होंने 10 अप्रैल 1942 को कांग्रेस वर्किग कमेटी से भारत-विभाजन के प्रस्ताव को अप्रत्यक्ष रूप से पारित कराने का प्रयास किया था, जिसे कांग्रेस ने अस्वीकार कर दिया था। भारत की सांप्रदायिक समस्या को सुलझाने के लिए चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने 1943 में पुनः एक प्रस्ताव तैयार किया और गांधीजी की स्वीकृति से 10 जुलाई 1944 को प्रकाशित कराया, जिसे ‘सी.आर. प्रस्ताव’ (सी.आर. फार्मूला) के नाम से जाना जाता है।
सी.आर. प्रस्ताव के अनुसार मुस्लिम लीग को भारतीय स्वतंत्रता की माँग का समर्थन करना और अस्थायी सरकार के गठन में कांग्रेस से सहयोग करना था। विश्व युद्ध के समाप्त होने पर भारत के उत्तर-पश्चिमी व पूर्वी भागों के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में जनमत संग्रह करके भारत से उनके संबंध-विच्छेद का निर्णय किया जाना था। देश के विभाजन की स्थिति में आवश्यक विषयों-प्रतिरक्षा, व्यापार, आवागमन तथा संचार आदि के लिए समझौता किया जायेगा। किंतु उपर्युक्त शर्तें तभी लागू होंगी जब ब्रिटेन भारत को पूर्ण स्वतंत्रता दे देगा।
सी.आर. फार्मूला वास्तव में पाकिस्तान की माँग को स्वीकार करने के समान था। फिर भी, गांधी ने सी.आर. फार्मूला के आधार पर ‘कायद-ए-आजम’ (महान् नेता) जिन्ना से 9 सितंबर 1944 से 27 सितंबर 1944 के बीच कई बार विचार-विमर्श किया, ताकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच की खाई को पाटा जा सके। किंतु जिन्ना पहले विभाजन और उसके बाद स्वतंत्रता की माँग पर अड़े थे, जबकि कांग्रेस स्वतंत्रता के पहले विभाजन पर कोई बात करने को तैयार नहीं थी। अंततः जिन्ना ने इस प्रस्ताव को यह कहकर खारिज कर दिया कि इसमें ‘गाड़ी घोड़े के आगे जोत दी गई है।’
इस प्रकार बातचीत परिप्रेक्ष्य-संबंधी बुनियादी मतभेदों के कारण भंग हो गई, क्योंकि जहाँ गांधी अलगाववाद को परिवार के अंदर के अलगाव के रूप में देखते थे और भागीदारी के कुछ तत्त्व बनाये रखना चाहते थे, वहीं जिन्ना प्रभुसत्ता के साथ पूरा संबंध-विच्छेद चाहते थे।
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