छत्तीसगढ़ के कलचुरी (Kalachuris of Chhattisgarh)

छत्तीसगढ़ का स्वर्णिम युग छत्तीसगढ़ भारत के इतिहास में एक समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत […]

छत्तीसगढ़ का कलचुरि राजवंश (Kalchuri Dynasty of Chhattisgarh)

छत्तीसगढ़ का स्वर्णिम युग

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छत्तीसगढ़ भारत के इतिहास में एक समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है। कलचुरी काल (लगभग 10वीं-14वीं शताब्दी) इस क्षेत्र का स्वर्णिम युग था, जब यहाँ की अर्थव्यवस्था, धर्म, कला और साहित्य ने अभूतपूर्व प्रगति की। कलचुरी शासकों ने न केवल मजबूत प्रशासन दिया, बल्कि मंदिरों, किलों और शिक्षा केंद्रों के निर्माण के जरिए इस क्षेत्र को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बनाया।

छत्तीसगढ़ का नामकरण

छत्तीसगढ़ का नाम इस क्षेत्र की ऐतिहासिक विरासत से जुड़ा हुआ है, जो इसे एक विशिष्ट पहचान देता है। माना जाता है कि ‘छत्तीसगढ़’ नाम इस क्षेत्र में मौजूद 36 प्राचीन किलों (गढ़ों) की प्रशासनिक व्यवस्था से प्रेरित है। ‘छत्तीस’ का अर्थ है 36 और ‘गढ़’ का अर्थ है किला। यह व्यवस्था इस क्षेत्र को एक मजबूत प्रशासनिक ढाँचा प्रदान करती थी। यद्यपि कुछ इतिहासकार इसे पूरी तरह सत्य नहीं मानते और इसे एक लोककथा या मिथक समझते हैं, क्योंकि इन 36 किलों की पुरातात्त्विक पहचान पूरी तरह से स्थापित नहीं हो सकी है। फिर भी, ब्रिटिश काल के दस्तावेजों और कलचुरी वंश के कुछ शिलालेखों में इन गढ़ों का जिक्र मिलता है। खल्लारी में ब्रह्मदेव राय के शिलालेख में 36 गढ़ों का स्पष्ट उल्लेख है। कुछ विद्वान मानते हैं कि ‘छत्तीसगढ़’ शब्द संभवतः ‘चेदिसगढ़’ से आया है, जो कलचुरी राजवंश (जिन्हें चेदि वंश भी कहा जाता है) के शासन से संबंधित है। प्रशासनिक दृष्टि से रतनपुर शाखा के तहत शिवनाथ नदी के उत्तर में 18 गढ़ और रायपुर शाखा के तहत दक्षिण में 18 गढ़ थे। समय के साथ यह व्यवस्था इतनी प्रसिद्ध हुई कि यह क्षेत्र ‘छत्तीसगढ़’ के नाम से जाना जाने लगा। इसका पहला आधिकारिक उपयोग 1795 ई. के एक दस्तावेज में मिलता है। इस तरह यह नाम न केवल इस क्षेत्र की प्रशासनिक व्यवस्था का सूचक है, बल्कि इसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व का भी परिचायक है। छत्तीसगढ़ राज्य का गठन 1 नवंबर 2000 को हुआ और यह भारत का 26वां राज्य बना।

छत्तीसगढ़ के कलचुरी

प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ क्षेत्र दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था। इस क्षेत्र का पौराणिक इतिहास महाभारत और रामायण जितना प्राचीन है। छत्तीसगढ़ का लिखित इतिहास चौथी शताब्दी ईस्वी तक जाता है। सरभपुरिया, पाँडुवंशी, सोमवंशी, कलचुरी और नागवंशी जैसे राजवंशों ने 6ठी से 18वीं शताब्दी ईस्वी के दौरान इस क्षेत्र पर शासन किया। चौदहवीं शताब्दी ईस्वी के मुस्लिम इतिहासकारों ने इस क्षेत्र पर शासन करने वाले राजवंशों का विस्तृत वर्णन किया है।

छत्तीसगढ़ में कलचुरी राजवंश का इतिहास

छत्तीसगढ़ में कलचुरी राजवंश को राजनीतिक युग का प्रारंभिक बिंदु माना जाता है। छत्तीसगढ़ के कलचुरी चेदि कलचुरीयों के वंशज थे, जिनकी राजधानी पुरानी त्रिपुरी (तेवर) थी। इन कलचुरीयों ने छत्तीसगढ़ के इतिहास में एक नए काल की शुरुआत की।

9वीं शताब्दी के अंत में त्रिपुरी के कलचुरी शासक कोकल्ल प्रथम के पुत्र शंकरगण द्वितीय ‘मुग्धतुंग’ ने 900 ई. के आसपास दक्षिण कोसल के बाणवंशी शासक विक्रमादित्य ‘जयमेरु’ को पराजित कर पाली (कोरबा) क्षेत्र पर विजय प्राप्त की। उन्होंने अपने छोटे भाई को इस क्षेत्र का मंडलाधिपति नियुक्त किया, जिसने तुम्माण को अपनी सत्ता का केंद्र बनाया। इस प्रकार शंकरगण द्वितीय ‘मुग्धतुंग’ ने छत्तीसगढ़ में कलचुरी राजवंश की नींव रखी।

कलचुरी दक्षिण कोसल पर अधिक समय तक शासन नहीं कर सके। 950 ई. के आसपास ओडिशा के सोनपुर के सोमवंशी शासकों ने कलचुरीयों को पराजित कर पुनः तुम्माण पर अधिकार किया। लगभग 990 ई. में कोकल्ल द्वितीय के पुत्र कलिंगराज ने तुम्माण को जीतकर 1000 ई. के लगभग छत्तीसगढ़ में कलचुरी राजवंश की स्थापना की। आमोदा ताम्रपत्र में कलिंगराज की तुम्माण विजय का उल्लेख है।

छत्तीसगढ़ में कलचुरीयों की दो शाखाएँ थीं—रतनपुर और रायपुर। इन दोनों शाखाओं ने मध्य भारत के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में 10वीं से 18वीं शताब्दी तक शासन किया।

छत्तीसगढ़ का कलचुरी राजवंश (Kalchuri Dynasty of Chhattisgarh)
छत्तीसगढ़ का कलचुरी राजवंश
ऐतिहासिक स्रोत

छत्तीसगढ़ के कलचुरीयों के इतिहास निर्माण में अभिलेखों, सिक्कों, पुरातात्त्विक अवशेषों और साहित्यिक स्रोतों से सहायता मिलती है।

छत्तीसगढ़ के कलचुरी शासकों के कई शिलालेख और ताम्रपत्र मिले हैं, जिनसे उनके शासनकाल, वंशावली और प्रशासनिक कार्यों पर प्रकाश पड़ता है।

कोकल्लदेव प्रथम के समय के रतनपुर शिलालेख (1114 ई.) में कलचुरी वंश की उत्पत्ति और उनके प्रारंभिक शासकों का उल्लेख मिलता है। पृथ्वीदेव प्रथम के शासनकाल के अमोदा ताम्रपत्र (1154 ई.) से रतनपुर शाखा की स्थापना और उसके क्षेत्रीय विस्तार पर प्रकाश पड़ता है। 14वीं शताब्दी के रायपुर शिलालेख से लक्ष्मीदेव और उनके उत्तराधिकारियों के समय में रायपुर शाखा की स्थापना और खल्लारी (खल्लवाटिका) को राजधानी बनाने की पुष्टि होती है।

रतनपुर शाखा के शासक जाजल्लदेव प्रथम (1090-1120 ई.) के समय के शेषनाग ताम्रपत्र से भूमिदान और प्रशासनिक व्यवस्था की सूचना मिलती है। भुनेश्वरदेव (1438-1463 ई.) के समय के मल्हार शिलालेख में रायपुर किले के निर्माण का उल्लेख मिलता है।

इनके अलावा, रतनपुर, बिलासपुर और रायपुर क्षेत्रों से अनेक ताम्रपत्रों से भी हैहयवंशीय शासकों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश पड़ता है।

साहित्यिक स्रोतों में स्थानीय विद्वानों द्वारा लिखित ‘रतनपुर के राजवंशीय इतिहास’ और ‘रतनपुर की गाथाएँ’ महत्त्वपूर्ण हैं। कुछ जैन ग्रंथ, जैसे ‘परिशिष्टपर्वन’ और प्रभाचंद्र की रचनाओं से कलचुरीयों के संरक्षण और उनके जैन धर्म के साथ संबंधों का ज्ञान होता है। 17वीं-18वीं शताब्दी के मुगल और मराठा दस्तावेजों में भी कलचुरी शासकों, विशेषकर शिवराजसिंहदेव के मराठा अधीनता स्वीकार करने का उल्लेख है।

पुरातात्त्विक अवशेषों में भुनेश्वरदेव द्वारा निर्मित रायपुर किला कलचुरी शाखा के वैभव का प्रतीक है। रतनपुर, खल्लारी और रायपुर से प्राप्त मंदिर, कुएँ और महल के अवशेष कलचुरी शासकों की स्थापत्य कला और समृद्धि का सूचक हैं। रतनपुर, मल्हार और सिरपुर से मिले मंदिर और मूर्तियाँ भी कलचुरी काल की कला और धर्म का प्रमाण हैं।

छत्तीसगढ़ के कलचुरी शासकों द्वारा चलाए गए सोने, चाँदी और ताँबे के सिक्के बड़ी संख्या में छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्थानों से मिले हैं। इन पर राजाओं का नाम और विभिन्न प्रकार के प्रतीकों का अंकन है, जिनसे तत्कालीन व्यापारिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति की जानकारी होती है।

छत्तीसगढ़ की स्थानीय कथाएँ और गीत, जैसे चंदैनी और पंथी गीतों में कलचुरी शासकों की वीरता और उनके शासन की कहानियों का वर्णन मिलता है। इन मौखिक स्रोतों को ऐतिहासिक तथ्यों के पूरक के रूप में उपयोग किया जा सकता है।

मुगल इतिहासकार अबुल फजल (आइन-ए-अकबरी) और अन्य इतिहासकारों ने छत्तीसगढ़ क्षेत्र के स्थानीय शासकों का उल्लेख किया है, जिनसे कलचुरीयों के साथ उनके संबंधों पर प्रकाश पड़ता है। 17वीं-18वीं शताब्दी के यूरोपीय यात्रियों, जैसे टैवर्नियर के लेखों में रतनपुर और रायपुर के व्यापारिक महत्त्व का उल्लेख मिलता है।

छत्तीसगढ़ के कुछ स्थानीय इतिहासकारों, जैसे बाबू रेवाराम कायस्थ की रचना ‘तवारीख श्रीहैहयवंशी राजाओं की’ (1858 ई.) छत्तीसगढ़ के कलचुरीयों के इतिहास की जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

इस प्रकार छत्तीसगढ़ के कलचुरीयों का इतिहास शिलालेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों, पुरातात्त्विक अवशेषों, साहित्यिक ग्रंथों, लोककथाओं और विदेशी यात्रियों के विवरणों से जाना जा सकता है। रतनपुर और रायपुर की कलचुरी शाखाएँ अपने प्रशासन, किलेबंदी और सांस्कृतिक योगदान के लिए प्रसिद्ध रहीं। यद्यपि 18वीं शताब्दी के मध्य में मराठों ने इस वंश का अंत कर दिया, लेकिन उनकी विरासत आज भी छत्तीसगढ़ के इतिहास में जीवित है।

छत्तीसगढ़ में कलचुरीयों की शाखाएँ

छत्तीसगढ़ में हैहयवंशी कलचुरी राजवंश की दो प्रमुख शाखाओं—रतनपुर और रायपुर ने लगभग 1000 ई. से 1741 ई. तक शासन किया।

रतनपुर की कलचुरी शाखा

इस शाखा की स्थापना 1000 ई. में त्रिपुरी के कलचुरी शासक कोकल्ल द्वितीय (990-1015 ई.) के पुत्र कलिंगराज (1000-1020 ई.) ने की थी। इस शाखा की प्रारंभिक राजधानी तुम्माण थी। कलिंगराज के बाद कमलराज (1020-1045 ई.) और रत्नदेव अथवा रत्नराज प्रथम (1045-1065 ई.) रतनपुर के राजा हुए। उन्होंने 1045 ई. में रतनपुर नगर की स्थापना की और 1050 ई. में राजधानी को तुम्माण से रतनपुर स्थानांतरित किया। इसके बाद, पृथ्वीदेव प्रथम (1065-1090 ई.) और जाजल्लदेव प्रथम (1090-1120 ई.) राजा हुए। जाजल्लदेव प्रथम ने त्रिपुरी के कलचुरीयों की अधीनता मानने से इनकार कर दिया।

जाजल्लदेव प्रथम के बाद रत्नदेव द्वितीय (1120-1135 ई.), पृथ्वीदेव द्वितीय (1135-1165 ई.), जाजल्लदेव द्वितीय (1165-1168 ई.), जगदेव (1168-1178 ई.), रत्नदेव तृतीय (1178-1198 ई.) और प्रतापमल्ल (1198-1225 ई.) ने रतनपुर से शासन किया।

प्रतापमल्ल के बाद संभवतः रतनपुर के कलचुरीयों की शक्ति पड़ोसी राजवंशों, जैसे गोंडों, यादवों और त्रिपुरी के कलचुरीयों के दबाव और आंतरिक अस्थिरता के कारण कमजोर पड़ गई और फिर बाहरेंद्रसाय (1480-1525 ई.) के समय से रतनपुर के कलचुरीयों की कुछ जानकारी मिलती है।

बाहरेंद्र के पश्चात् कल्याणसाय नामक एक राजा ने रतनपुर में लगभग 1544 से 1581 ई. तक (1536-1573 ई.?) शासन किया, जिन्होंने भू-राजस्व जमाबंदी की शुरुआत की और एक राजस्व पुस्तिका तैयार की, जिसमें उस समय की प्रशासनिक व्यवस्था, राजस्व एवं सैन्यबल की जानकारी मिलती है।

कल्याणसाय के बाद लक्ष्मणसाय (1581-1620 ई.), शंकरसाय (1596 ई.), मुकुंदसाय (1606 ई.), त्रिभुवनसाय (1622 ई.), जगमोहनसाय (1633 ई.), अदतिसाय (1659 ई.), रणजीतसाय (1675 ई.), तख्तसिंह (1685-1689 ई.) आदि राजाओं के नाम मिलते हैं, किंतु इनके शासनकाल की कोई विशेष उपलब्धि की जानकारी नहीं मिलती।

तख्तसिंह (1685-1689 ई.) ने 17वीं शताब्दी के अंत में तख्तपुर नगर की स्थापना की, जबकि राजसिंह (1689-1712 ई.) ने रतनपुर के निकट राजपुर (जून) नगर की स्थापना की और एक सात मंजिला बादलमहल बनवाया। ‘खूब तमाशा’ के लेखक गोपाल मिश्र राजसिंह के दरबारी कवि थे।

राजसिंह की मृत्यु (1712 ई.) के बाद सरदारसिंह (1712-1732 ई.) और रघुनाथसिंह (1732-1745 ई.) रतनपुर की गद्दी पर बैठे। रघुनाथसिंह को 1741 ई. में मराठा सेनापति भास्कर पंत से पराजित होकर मराठों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।

1745 ई. में भोंसले शासक रघुजी प्रथम ने मोहनसिंह (1745-1757 ई.) को रतनपुर की गद्दी पर बैठाया, जो 1757 ई. तक भोंसले की अधीनता में शासन किया। 1758 ई. में भोंसले राजकुमार बिम्बाजी ने छत्तीसगढ़ में अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया और हैहयवंशी कलचुरीयों की सत्ता का भी अंत हो गया।  विस्तृत अध्ययन के लिए देखें- रतनपुर के कलचुरी

रायपुर (लहुरी) की कलचुरी शाखा

जिस प्रकार प्रशासनिक उद्देश्यों से त्रिपुरी की एक शाखा तुम्माण (तुमैन) में स्थापित की गई थी, उसी प्रकार तुम्माण की एक शाखा खल्लारी में स्थापित की गई, जिसकी राजधानी रायपुर बनी।

14वीं शताब्दी के अंतिम चरण में रतनपुर की कलचुरी शाखा के विभाजन के परिणामस्वरूप रायपुर (लहुरी) शाखा का उदय हुआ। यह विभाजन संभवतः लक्ष्मीदेव के शासनकाल के बाद उनके पुत्र सिंहण के शासनकाल में हुआ।

रायपुर कलचुरी राजवंश के प्रथम शासक के रूप में लक्ष्मीदेव (1300-1340 ई.) का नाम मिलता है, जिन्होंने खल्लारी (खल्लवाटिका) को केंद्र बनाकर रायपुर की कलचुरी शाखा की नींव डाली।

रायपुर के कलचुरी शासकों में लक्ष्मीदेव के बाद उसके पुत्र सिंघणदेव (1380-1400 ई.) का उल्लेख मिलता है, जिसने शत्रुओं के 18 गढ़ों को जीतकर रतनपुर की अधीनता मानने से इनकार कर दिया। सिंहण के समय में ही रतनपुर की कलचुरी शाखा विभाजित हुई और रायपुर की लहुरी शाखा का उदय हुआ।

सिंघणदेव के दो पुत्रों में छोटे पुत्र रामचंद्रदेव (1380-1400 ई.) को रायपुर से शासन करने का अधिकार मिला और उन्होंने रायपुर में कलचुरी राजवंश के प्रथम शासक के रूप में सत्ता स्थापित की।

रामचंद्रदेव ने ही अपने पुत्र ब्रह्मदेव ‘राय’ के नाम पर रायपुर नगर बसाया और उसे एक महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक केंद्र के रूप में विकसित किया। ऐसा लगता है कि रामचंद्रदेव (1380-1400 ई.) के समय तक रतनपुर राज्य का औपचारिक विभाजन नहीं हुआ था।

रामचंद्रदेव के बाद उनके पुत्र ब्रह्मदेव (1400-1420 ई.) रायपुर की गद्दी पर बैठे, जिन्हें ‘राय’ की उपाधि प्राप्त थी, जिनके दो शिलालेख रायपुर और खल्लारी से प्राप्त हुए हैं। उन्होंने संभवतः 1409 ई. में राजधानी को खल्लारी से रायपुर स्थानांतरित किया, जहाँ 1415 ई. में देवपाल नामक एक मोची ने नारायण मंदिर का निर्माण करवाया और 1402 ई. में नायक हाजिराज ने रायपुर में खारून नदी के महादेव घाट पर हाटकेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण करवाया।

रायपुर (लहुरी) शाखा के कलचुरी शासकों की वंशावली केशवदेव (1420-1438 ई.) से आरंभ होती है, इसलिए केशवदेव को रायपुर की कलचुरी शाखा का संस्थापक माना जाता है।

केशवदेव के बाद भुवनेश्वरदेव (1438-1463 ई.), मानसिंहदेव (1463-1478 ई.), संतोषसिंहदेव (1478-1498 ई.), सूरतसिंहदेव (1498-1518 ई.), सम्मानसिंहदेव (1518-1528 ई.), चामुंडसिंहदेव (1528-1563 ई.), वंशीसिंहदेव (1563-1582 ई.), धनसिंहदेव (1582-1604 ई.), जैतसिंहदेव (1604-1615 ई.), फत्तेसिंहदेव (1615-1636 ई.), यादसिंहदेव (1636-1650 ई.), सोमदत्तसिंहदेव (1650-1663 ई.), बलदेवसिंहदेव (1663-1685 ई.), उम्मेदसिंहदेव या मेरसिंहदेव (1685-1705 ई.), बनबीरसिंहदेव या बरियारसिंहदेव (1705-1741 ई.), अमरसिंहदेव (1741-1753 ई.) और शिवराजसिंहदेव (1753-1757 ई.) का नाम मिलता है।

अमरसिंहदेव (1741-1753 ई.) का एक ताम्रपत्र आरंग से मिला है, जो विक्रम संवत् 1792 में जारी किया गया था। अमरसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र शिवराजसिंहदेव (1753-1757 ई.) ने 1757 ई. तक मराठों की अधीनता में शासन किया। 1757 ई. में मराठों ने शिवराजसिंहदेव को जीवन-यापन के लिए कुछ करों की वसूली का अधिकार दिया। बाद में, 1758 ई. में शिवराजसिंहदेव से बड़गाँव भी छीन लिया गया और इस प्रकार कलचुरीयों की रही-सही सत्ता भी समाप्त हो गई। विस्तृत अध्ययन के लिए देखें—रायपुर (लहुरी) की कलचुरी शाखा

कलचुरी सत्ता के पतन के कारण

छत्तीसगढ़ में कलचुरी सत्ता का पतन एक जटिल प्रक्रिया थी, जिसमें कई कारक एक साथ जिम्मेदार थे। कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं—

अयोग्य उत्तराधिकारी और कमजोर नीतियाँ

18वीं शताब्दी में कलचुरी राजवंश की सत्ता अक्षम उत्तराधिकारियों और उनकी प्रशासनिक नीतियों के कारण ढहने लगी। रघुनाथसिंह और अमरसिंह जैसे शासकों की अयोग्यता ने इस राजवंश की शक्ति को कमजोर कर दिया।

रघुनाथसिंह अपने पुत्र की मृत्यु से शोकग्रस्त थे और शासन में रुचि नहीं ले सके। यही कारण है कि 1741 ई. में मराठा सेनापति भास्कर पंत के आक्रमण के समय उन्होंने बिना प्रतिरोध के आत्मसमर्पण कर दिया। मराठों ने अमरसिंह को पराजित कर भोंसले सत्ता के अधीन शासन करने को मजबूर किया। उनकी मृत्यु (1753 ई.) के बाद उनके पुत्र शिवराजसिंहदेव से जागीरें छीन ली गईं और उन्हें केवल नाममात्र का अधिकार दिया गया।

प्रारंभिक शासक जैसे कलिंगराज, रत्नराज प्रथम, पृथ्वीदेव प्रथम और जाजल्लदेव प्रथम प्रभावशाली और सक्षम थे, लेकिन परवर्ती शासकों में नेतृत्व और रणनीतिक कौशल की कमी थी। इस अक्षमता ने कलचुरीयों की 1500 वर्षों की गौरवशाली विरासत को समाप्त कर दिया।

मराठों की आक्रामक और विस्तारवादी नीति

मराठों की आक्रामक और विस्तारवादी नीति ने कलचुरी सत्ता के पतन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। छत्रपति शाहू से प्राप्त बंगाल, बिहार और ओडिशा में चौथ वसूली की सनद ने रघुजी भोंसले को छत्तीसगढ़ पर आक्रमण के लिए प्रेरित किया। इसके अलावा, छत्तीसगढ़ की उपजाऊ भूमि और आर्थिक समृद्धि ने भी मराठों को आकर्षित किया।

नागपुर के भोंसले शासक रघुजी प्रथम के सेनापति भास्कर पंत ने (1741 ई.) रतनपुर पर आक्रमण किया। रघुनाथसिंह के आत्मसमर्पण के बाद उसने रतनपुर पर एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया और राजकोष को हस्तगत कर लिया। मराठा राजकुमार बिंबाजी भोंसले ने (1758 ई.) रतनपुर के प्राचीन महल को अपने अधीन कर छत्तीसगढ़ पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया।

1758 ई. में मराठों ने शिवराजसिंहदेव से सभी अधिकार छीनकर कलचुरी वंश को पूरी तरह समाप्त कर दिया। बाद में, 1854 ई. में रघुजी तृतीय की निःसंतान मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने हड़प नीति के तहत छत्तीसगढ़ को अपने अधीन कर लिया।

आंतरिक विद्रोह और षड्यंत्र

आंतरिक विद्रोह और षड्यंत्र ने भी कलचुरी सत्ता को कमजोर किया। रतनपुर के शासक राजसिंह ने मोहनसिंह को उत्तराधिकारी चुना था, लेकिन उनकी मृत्यु के समय मोहनसिंह की अनुपस्थिति में सरदारसिंह को रतनपुर की गद्दी दे दी गई। इससे क्रुद्ध होकर मोहनसिंह ने मराठा शासक रघुजी प्रथम से मिलकर षड्यंत्र रचा। 1745 ई. में भोंसलों ने मोहनसिंह को रतनपुर की गद्दी पर बिठाया, जिससे कलचुरीयों की एकता और शक्ति कमजोर हुई।

कलचुरीयों का विभाजन

कलचुरी राजवंश का रतनपुर और रायपुर में दो शाखाओं में विभाजन भी पतन का एक प्रमुख कारण था। लक्ष्मीदेव के पुत्र सिंहण के शासनकाल के बाद रतनपुर और रायपुर शाखाओं का अलगाव हुआ। इस विभाजन ने इस राजवंश की एकता को कमजोर किया और मराठा आक्रमणों का सामना करने में बाधा उत्पन्न की। दोनों शाखाओं के बीच आपसी समन्वय और सहयोग की कमी ने भी मराठों को छत्तीसगढ़ क्षेत्र पर आक्रमण करने का अवसर प्रदान किया।

सैन्य कमजोरियाँ

कलचुरी सेना की संरचना और प्रबंधन में कमियाँ भी कलचुरीयों के पतन का कारण बनीं। कलचुरी सेना में 2000 खड्गधारी, 5000 कटारधारी, 3600 बंदूकधारी, 2600 धनुर्धारी, 1000 घुड़सवार और 216 हाथी थे। यह स्थायी सेना थी, लेकिन मराठों की विशाल और कुशल सेना की तुलना में अपर्याप्त थी।

आवश्यकता पड़ने पर कलचुरी सेना जागीरदारों की सेना पर निर्भर रहती थी। जब तक शासकों का जागीरदारों पर नियंत्रण था, सेना प्रभावी रही, लेकिन बाद में जागीरदारों ने स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली और कलचुरी शासकों का साथ छोड़ दिया। भास्कर पंत की सेना के सामने कलचुरी शासक असहाय सिद्ध हुए, क्योंकि उनकी सेना संगठित और पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित नहीं थी।

छत्तीसगढ़ की समृद्धि

छत्तीसगढ़ की उपजाऊ भूमि और आर्थिक समृद्धि ने इसे मराठों के लिए आकर्षक लक्ष्य बनाया। छत्तीसगढ़ की समृद्धि ने मराठों को इस क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए प्रेरित किया। बंगाल, बिहार और ओडिशा की सीमा से सटे होने के कारण छत्तीसगढ़ मराठों की विस्तारवादी नीति का पहला शिकार बना।

इस प्रकार कमजोर और अयोग्य शासकों ने शासन को अस्थिर किया, मराठों की विस्तारवादी नीति और सैन्य शक्ति ने कलचुरी सत्ता को कुचल दिया, मोहनसिंह के षड्यंत्रों ने आंतरिक एकता को तोड़ा और राजवंश का विभाजन तथा दोषपूर्ण सैन्य प्रबंध ने स्थिति को और बदतर बनाया। 1741 ई. में भास्कर पंत के आक्रमण से शुरू हुआ यह पतन 1758 ई. में मराठों के प्रत्यक्ष शासन और अंततः 1758 ई. में कलचुरी वंश के पूर्ण उन्मूलन के साथ समाप्त हुआ। एक अंग्रेज अधिकारी की बंदोबस्त रिपोर्ट के अनुसार हैहयवंशी कलचुरी शासकों के अंतिम वंशजों ने युद्ध के बजाय आत्मसमर्पण को चुना, जिससे उनकी गौरवशाली विरासत मिट्टी में मिल गई।

छत्तीसगढ़ के कलचुरी राजवंश का प्रशासन

कलचुरी राजवंश ने छत्तीसगढ़ पर 11वीं शताब्दी से लेकर 18वीं शताब्दी के मध्य तक शासन किया। रतनपुर के कलचुरी शासक कल्याणसाय की राजस्व संबंधी लेखापुस्तिका से छत्तीसगढ़ के कलचुरी शासन व्यवस्था की जानकारी मिलती है। इसके साथ ही, कलचुरीकालीन शिलालेखों, सिक्कों और तत्कालीन साहित्य से भी कलचुरीयों के प्रशासन की कुछ जानकारी मिलती है।

राजतंत्रीय व्यवस्था

छत्तीसगढ़ के कलचुरी शासकों ने स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप एक सुव्यवस्थित प्रशासनिक ढाँचा विकसित किया था। उनकी शासन पद्धति राजतंत्रीय थी, जिसमें राजा सर्वोच्च शक्ति-संपन्न था और मंत्रियों तथा अन्य अधिकारियों की नियुक्ति करता था। देवालय या मठ बनवाना, उद्यान बनवाना, तालाब खुदवाना, विद्वानों और शिल्पियों को दान देना कलचुरी राजाओं का मुख्य कर्तव्य था। विशेष परिस्थितियों में मुख्य अमात्य राजकाज का भार ग्रहण कर नए राजा को गद्दी पर बिठाने का दायित्व निभाता था। छत्तीसगढ़ के कलचुरी शासक निरंकुश, स्वेच्छाचारी होते हुए भी धर्मपालक, प्रजावत्सल एवं लोकहितकारी थे।

मंत्रिमंडल (अमात्यमंडल)

कलचुरीकालीन ताम्रपत्रों व शिलालेखों से पता चलता है कि कलचुरी प्रशासन में मंत्रिमंडल (अमात्यमंडल) का महत्त्वपूर्ण स्थान था। इस मंत्रिमंडल में आठ मंत्री (अमात्य) होते थे—युवराज, महामंत्री, महामात्य, महासंधिविग्रहिक, महाधर्माधिकरणिक, महाप्रतिहार, महाप्रभातृ और महाक्षपटलिक।

‘युवराज’ राजा का उत्तराधिकारी होता था, जो राजा की अनुपस्थिति में शासन संचालित करता था।

‘महामंत्री’ सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी और राजा का प्रमुख सलाहकार था। उसकी सलाह से राजा प्रशासन का संचालन करता था। संकटकालीन परिस्थितियों में वही राज्य का कार्यभार संभालता था और युवराज को गद्दी पर आसीन कराता था। खरौद के शिलालेख से पता चलता है कि रत्नदेव तृतीय के मंत्री गंगाधर ने संकटकालीन परिस्थितियों में उत्तरदायित्व ग्रहण कर राज्य को समृद्ध व सामर्थ्यवान बनाया था।

‘महामात्य’ प्रधानमंत्री होता था, जो प्रशासनिक कार्यों का संपादन करता था।

‘महासंधिविग्रहिक’ विदेशी मामलों का प्रमुख होता था।

‘महाधर्माधिकरणिक’ को महापुरोहित भी कहा जाता था, जो धार्मिक और आध्यात्मिक मामलों का प्रधान होता था।

‘महाप्रतिहार’ शाही दरबार और राजमहल की सुरक्षा का दायित्व संभालता था। आगंतुकों को राजा से मिलवाना और राजा की आज्ञा को अधिकारियों तक पहुँचाना महाप्रतिहार का कार्य था।

‘महाप्रभातृ’ राजस्व विभाग का प्रमुख होता था, जबकि ‘महाक्षपटलिक’ (जमाबंदी मंत्री) राजस्व संग्रह और प्रबंधन का सहायक मंत्री होता था।

प्रमुख विभाग, अधिकारी और उनके कर्तव्य

कलचुरी काल की प्रशासनिक व्यवस्था में शासन, सुरक्षा, राजस्व और कानून-व्यवस्था को प्रभावी ढंग से संचालित करने के लिए विभिन्न स्तरों पर अधिकारियों की नियुक्ति की जाती थी। कलचुरीकालीन प्रमुख विभागों और उनके अधिकारियों के कर्तव्यों का विवरण निम्नलिखित है—

राजस्व विभाग

राजस्व विभाग को ‘जमाबंदी विभाग’ भी कहा जाता था, जिसका प्रमुख ‘महाप्रभातृ’ होता था। इस कार्यालय का प्रधान अधिकारी ‘महाक्षपटलिक’ कहलाता था। इस विभाग का मुख्य कार्य भूमि की माप कर लगान का निर्धारण करना था। यह विभाग आय और व्यय का लेखा-जोखा भी तैयार करता था।

सैन्य विभाग

कलचुरी राजाओं के पास एक चतुरंगिणी सेना थी, जिसमें हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिक होते थे। सेना के प्रत्येक अंग का एक प्रमुख अधिकारी होता था, जैसे हस्तिसेना का प्रधान ‘महापीलुपति’ और अश्वसेना का प्रधान ‘महाश्वसाधनिक’ कहलाते थे।

‘महासेनापति’ सेना का सर्वोच्च सेनापति होता था, जो सैन्य अभियानों का नेतृत्व करता था। ‘बलाधीक्ष’ सेना की भर्ती, प्रशिक्षण और युद्ध की रणनीति तैयार करता था तथा सैन्य अभियानों को संगठित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता था।

बाहरी हमलों से बचने के लिए कलचुरी शासकों ने रतनपुर, तुम्माण और रायपुर में मजबूत किले बनवाए थे, जो तत्कालीन अभियंत्रिकी के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। 15वीं शताब्दी में बाहरेंद्रसाय ने छुरी कोसगई में एक कोषागार बनवाया था, जो धन और संसाधनों की सुरक्षा के लिए था। ‘दंडपाशिक’ नामक अधिकारी अपराधों को नियंत्रित करते थे और कानून-व्यवस्था बनाए रखते थे। इसके अलावा, पुलिस और सैनिक व्यवस्था थी, जो क्षेत्र की सुरक्षा-व्यवस्था सुनिश्चित करती थी।

विदेश विभाग

इस विभाग को ‘परराष्ट्र विभाग’ भी कहा जाता था। इसका प्रमुख अधिकारी ‘महासंधिविग्रहिक’ होता था, जिसका उल्लेख कलचुरी दानपत्रों में मिलता है। इसका मुख्य कार्य पड़ोसी राज्यों के साथ संधि, युद्ध की घोषणा और राजनयिक पत्राचार करना था।

धर्म विभाग

धर्म विभाग का प्रमुख अधिकारी ‘महाधर्माधिकरणिक’ (महापुरोहित) होता था। दानपत्रों को लिखने का कार्य ‘धर्मलेखी’ नामक कर्मचारी करता था, जिसे कहीं-कहीं ‘दशमूली’ भी कहा गया है।

न्याय विभाग

कलचुरीकालीन न्याय प्रणाली में ‘दांडिक’ नामक अधिकारी का बहुत महत्त्व था। लेकिन राजा ही सर्वोच्च न्यायाधिकारी होता था। राजा न्याय करते समय अमात्यों और राजपुरोहितों की सलाह भी लेता था।

पुलिस विभाग

कलचुरीकाल में आंतरिक शांति बनाए रखने का दायित्व पुलिस विभाग का था। इस विभाग का प्रमुख अधिकारी ‘दंडपाशिक’ होता था। चोरों को पकड़ने के लिए ‘चोरोद्वारणिक’ या ‘दुष्टसाधक’ नामक अधिकारी होते थे। जनता की संपत्ति की रक्षा करने के लिए ‘चाट’ (पुलिस) और शांति-व्यवस्था बनाए रखने के लिए ‘भट’ नामक कर्मचारी होते थे।

अन्य अधिकारी

कलचुरी शासकों के दानपत्रों, ताम्रपत्रों व शिलालेखों से कुछ अन्य प्रशासनिक अधिकारियों की जानकारी प्राप्त होती है, जिनकी भूमिकाएँ विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण थीं—

‘महाभांडागारिक’ नामक अधिकारी राज्यकोष और वित्तीय प्रबंधन के लिए उत्तरदायी था। वह राजस्व संग्रह, खर्चों का हिसाब-किताब और कोषागार की देखरेख करता था।

‘खंडपाल’ क्षेत्रीय प्रशासन का एक महत्त्वपूर्ण अधिकारी था, जो किसी विशेष क्षेत्र या प्रांत की सुरक्षा और प्रशासन की देखरेख करता था। वह स्थानीय स्तर पर कानून-व्यवस्था बनाए रखने और राजस्व संग्रह में सहायता करता था।

‘महाकोट्टपाल’ दुर्गों की रक्षा और सुरक्षा का प्रभारी होता था।

‘गमागमिक’ यातायात और परिवहन व्यवस्था का अधिकारी था।

‘माकुटिक’ का कार्य संभवतः राजा के मुकुट और शाही प्रतीकों की देखरेख करना था।

‘बलाधिकृत’ सैन्य अभियानों में बलाधीक्ष के अधीन कार्य करता था और सेना के लिए रसद, हथियारों और अन्य संसाधनों की व्यवस्था करता था।

‘पुरप्रधान’ नगर का प्रमुख होता था, जो शहरी प्रशासन का संचालन करता था।

‘ग्रामकुट’ ग्राम का प्रमुख होता था, जो गाँव स्तर पर प्रशासन संभालता था। ‘शौल्किक’ नामक अधिकारी कर वसूली का कार्य करता था।

राजा योग्यता के आधार पर इन अधिकारियों/कर्मचारियों की नियुक्ति करता था, लेकिन छोटे पदों, जैसे लेखक और ताम्रपट लेखकों की नियुक्ति वंश-परंपरा के अनुसार होती थी।

प्रशासनिक इकाइयाँ

कलचुरी शासकों की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यंत सुगठित और व्यवस्थित थी। कलचुरी अभिलेखों के अनुसार राज्य को कई प्रशासनिक इकाइयों में विभाजित किया गया था—

‘राष्ट्र’ (संभाग) का प्रमुख स्वयं राजा होता था। ‘विषय’ (जिला) का प्रमुख विषयपति होता था। ‘देश’ या ‘जनपद’ (तहसील) का प्रमुख महामंडलेश्वर कहलाता था, जो एक लाख ग्रामों का स्वामी होता था। ‘मंडल’ (विकासखंड) का प्रमुख मांडलिक होता था। कुछ विशेष क्षेत्रों में करद सामंत भी अतिरिक्त प्रशासक के रूप में कार्य करते थे।

गढ़-आधारित प्रशासन

प्रशासनिक सुविधा के लिए कलचुरी राज्य को गढ़ों में विभाजित किया गया था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ‘गाँव’ थी, जिसका प्रमुख ‘गोटिया’ होता था। 12 ग्रामों का समूह ‘बारहो’ या ‘तालुका’ कहलाता था, जिसका प्रशासक ‘तालुकाधिपति’ या ‘दाऊ’ कहलाता था। 7 बारहो (84 गाँवों) का समूह एक गढ़ कहलाता था, जिसका प्रमुख ‘गढ़ाधिपति’ होता था।

प्रत्येक गढ़ एक स्थानीय प्रशासनिक इकाई थी। इस व्यवस्था ने क्षेत्रीय नियंत्रण को सुदृढ़ किया। गढ़ों में सैन्य चौकियाँ स्थापित थीं, जिनका नेतृत्व बलाधीक्ष और बलाधिकृत जैसे अधिकारी करते थे। गढ़ों से राजस्व संग्रह का कार्य ‘महाभांडागारिक’ द्वारा किया जाता था।

इस प्रकार कलचुरीकालीन गढ़ व्यवस्था छत्तीसगढ़ के प्रशासनिक, सैन्य और सांस्कृतिक इतिहास का महत्त्वपूर्ण अंग थी। यह व्यवस्था न केवल स्थानीय प्रशासन में सहायक हुई, बल्कि कलचुरी शासकों को क्षेत्रीय प्रभुत्व बनाए रखने में भी सहायता मिली।

कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ का आर्थिक जीवन

कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था बहुत समृद्ध और सुसंगठित थी। यह मुख्य रूप से कृषि, पशुपालन, व्यापार, जंगल से प्राप्त होने वाली चीजों (वनोपज) और खनन पर आधारित थी। कलचुरी शासकों ने एक ऐसी व्यवस्थित राजस्व प्रणाली बनाई, जिसने न केवल आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित की, बल्कि सड़कों, तालाबों और अन्य सार्वजनिक सुविधाओं के निर्माण के जरिए लोगों के जीवन को समृद्ध और बेहतर बनाया।

कृषि

इस काल की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि थी। यहाँ की उपजाऊ मिट्टी और अनुकूल जलवायु ने खेती को बहुत आसान और लाभकारी बनाया। अधिकांश भूमि राजा के स्वामित्व में होती थी, जिसे किसानों को खेती हेतु वितरित किया जाता था, जिसके बदले में किसानों को अपनी उपज का एक हिस्सा कर के रूप में राजा को देना पड़ता था, जिसे भू-राजस्व कहा जाता था।

छत्तीसगढ़ की जलवायु और भौगोलिक स्थिति के कारण धान यहाँ की सबसे महत्त्वपूर्ण फसल थी। धान के अलावा, लोग मूँग, उड़द, मसूर, गेहूँ, जौ और तिलहन जैसी फसलों की भी खेती करते थे। ‘द्विफसली प्रणाली’ अच्छी मानी जाती थी, जिसमें एक साल में दो बार फसल उगाई जाती थी। भूमि को मापने के लिए ‘हल’ नामक इकाई का उपयोग होता था, जिसमें एक हल लगभग पाँच एकड़ के बराबर होता था। छोटी जमीनों के लिए ‘निवर्तन’ और ‘वाटक’ जैसी इकाइयाँ प्रचलित थीं। एक और अनोखी पद्धति थी ‘पिटक’, जिसमें जमीन की माप बीज की मात्रा के आधार पर की जाती थी। ‘लाखा-बाँटा’ प्रथा का प्रचलन था, जिसमें जमीन को बारी-बारी से उपयोग किया जाता था ताकि मिट्टी की उर्वरता बनी रहे। ‘गोटिया’ और किसान मिलकर लगान का हिसाब तय करते थे। यह प्रथा बिलासपुर के लगभग 250 गाँवों में 19वीं सदी (1864-65) तक चलती रही।

पशुपालन

कलचुरीकालीन लोगों की आय का एक और महत्त्वपूर्ण साधन पशुपालन था। लोग गाय, भैंस, बकरी और घोड़े पालते थे। गाय और भैंस से दूध और घी मिलता था, जो घरेलू उपयोग के साथ-साथ बाजार में बिक्री के लिए भी था। घोड़े और बैल खेती और सामान ढोने में मदद करते थे, जबकि चमड़े से बनी चीजें व्यापार का हिस्सा थीं।

व्यापार और वाणिज्य

कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ व्यापार का एक बड़ा केंद्र था, जो अपने पड़ोसी क्षेत्रों के साथ मजबूत व्यापारिक संबंधों के लिए जाना जाता था। यहाँ जल और स्थल दोनों मार्गों से व्यापार होता था। महानदी जल परिवहन का प्रमुख स्रोत थी, जबकि स्थल मार्ग पर बैलगाड़ियों और घोड़ों का उपयोग किया जाता था। छत्तीसगढ़ से धान, लकड़ी, शहद, लाख, जड़ी-बूटियाँ और हस्तशिल्प जैसी चीजें बाहर भेजी जाती थीं और उनके बदले में नमक और अन्य जरूरी सामान मँगवाए जाते थे। रतनपुर का व्यापार मंडला, जबलपुर, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश जैसे क्षेत्रों से जुड़ा था। नाप-तौल के लिए ‘खंडी’, ‘घटी’, ‘भरक’ और ‘गोणी’ जैसी इकाइयों का उपयोग होता था। व्यापारियों को चुंगी नामक कर देना पड़ता था, जो व्यापारिक गतिविधियों पर लगने वाला एक कर था।

वनोपज और खनन

छत्तीसगढ़ के घने जंगलों से लकड़ी, शहद, लाख और जड़ी-बूटियाँ वनोपज के रूप में प्राप्त होती थीं, जो न केवल स्थानीय लोगों के लिए उपयोगी थीं, बल्कि व्यापार के लिए भी महत्त्वपूर्ण थीं। इसके अलावा, यहाँ सोना, ताँबा और लोहा जैसी धातुओं का खनन होता था, जिनसे सिक्के, हथियार, औजार और गहने बनाए जाते थे। इसके साथ ही, मिट्टी के बर्तन, कपड़े और धातु की वस्तुएँ बनाई जाती थीं।

राजस्व प्रणाली

कलचुरी शासकों की राजस्व प्रणाली व्यवस्थित थी, जिसे ‘जमाबंदी विभाग’ कहा जाता था। इस विभाग का प्रमुख अधिकारी ‘महाप्रभातृ’ होता था और मुख्य जिम्मेदारी ‘महाक्षपटलिक’ की थी। जिसका कार्य भूमि की माप, लगान निर्धारण और आय-व्यय का हिसाब तैयार करना था। कर प्रणाली मुख्यतः भू-राजस्व पर आधारित थी, जिसका निर्धारण भूमि की उत्पादकता के आधार पर किया जाता था। दंतेवाड़ा की राजकुमारी मस्कादेवी ने आदेश दिया था कि निश्चित तिथि से पहले किसानों से कर की वसूली न की जाए, जो तत्कालीन शासकों की संवेदनशीलता का परिचायक है।

इसके अलावा, कई अन्य कर भी थे, जैसे परिवहन और नदी घाटों पर पथकर और तटकर वसूले जाते थे। सब्जी मंडी में सामान बेचने के लिए ‘युगा’ (लाइसेंस) लेना पड़ता था और प्रति युगा 1 पौर शुल्क था। पशुओं पर भी कर लगता था—घोड़े पर 2 पौर और हाथी पर 4 पौर। अलग-अलग करों की वसूली के लिए ‘पट्टकिलादाय’, ‘दुस्साध्यादाय’, ‘घट्टपति’, ‘तरपति’ और ‘शौल्किक’ जैसे अधिकारी विभिन्न करों का संग्रह करते थे। नकद कर को द्रव्यांक कहा जाता था। मुगल सम्राट अकबर के समय में कल्याणसाय ने एक ‘राजस्व पुस्तिका’ तैयार की थी, जिसमें राजस्व, प्रशासन और सैन्य व्यवस्था का पूरा ब्यौरा था।

गाँवों में ‘पंचकुल’ नामक संस्था काम करती थी, जिसका नेतृत्व ‘महत्तम’ करता था। यदि कोई पंचकुल के फैसले से असंतुष्ट होता था, तो वह राजा के पास अपील कर सकता था। गाँव का मुखिया ‘पटेल’ होता था, जो गाँव की देखरेख करता था। ‘तहसीलदार’ राजस्व वसूलता था, ‘लेखक’ हिसाब-किताब रखता था और ‘शुल्कग्रह’ कर वसूली के लिए उत्तरदायी था। कोषागार का प्रमुख ‘महाभांडागारिक’ होता था।

राज्य की आय का उपयोग मुख्यतः सैन्य संगठन, प्रशासन, धार्मिक कार्य और प्रजा कल्याण के कार्यों जैसे तालाब, सड़कें और सार्वजनिक उपयोग की संरचनाओं के विकास में किया जाता था।

इस प्रकार कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था बहुत सुव्यवस्थित थी। सोने, चाँदी और ताँबे की मुद्राओं ने व्यापार को और सुगम बनाया। ‘लाखा-बाँटा’ जैसी कृषि प्रथाओं और विविध कर प्रणाली से छत्तीसगढ़ में आर्थिक स्थिरता आई। पंचकुल संस्था, दुर्ग निर्माण और लोक-कल्याणकारी नीतियों ने सामाजिक-आर्थिक समृद्धि सुनिश्चित की। यही कारण है कि कलचुरी काल छत्तीसगढ़ की आर्थिक और सांस्कृतिक समृद्धि का स्वर्णिम युग कहा जाता है।

कलचुरी काल में धर्म

कलचुरी शासक बहुत धार्मिक थे और जनहित के कार्यों को महत्त्व देते थे। उन्होंने शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन और बौद्ध धर्मों को बढ़ावा दिया, जिसके कारण छत्तीसगढ़ में धार्मिक समन्वय की एक अनोखी परंपरा विकसित हुई। यहाँ विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ रहते थे और एक-दूसरे की मान्यताओं का सम्मान करते थे।

शैव धर्म

कलचुरी शासक मुख्यतः शैव धर्मावलंबी थे और उन्होंने शैवमंदिरों के निर्माण और संरक्षण में विशेष योगदान दिया। उनकी भक्ति का प्रमाण तुम्माण का बंकेश्वर महादेव मंदिर, रतनपुर के रत्नेश्वर और भृगुशेश्वर महादेव मंदिर और अन्य शिव मंदिर हैं। जाजल्लदेव प्रथम ने जाजल्लपुर नामक शहर बसाया और वहाँ शिव मंदिर व मठ बनवाए। उन्होंने पाली के पुराने शिव मंदिर का जीर्णोद्धार भी कराया। इसके अलावा, मल्हार, सोनठीपुर, नारायणपुर, शिवरीनारायण, पोरथा और भोरमदेव में भी भव्य शिव मंदिर बनाए गए।

शैवधर्म के प्रचार-प्रसार में कलचुरी शासकों के साथ-साथ शैव गुरुओं ने भी बड़ा योगदान दिया। जाजल्लदेव प्रथम के रतनपुर अभिलेख में उनके गुरु रुद्रशिव और बिलाईगढ़ ताम्रपत्र में शैवाचार्य ईशानदेव का उल्लेख है। रतनसिंह नामक एक कायस्थ ने मल्हार में एक शिव मंदिर बनवाया। यहाँ के मंदिरों में शिवलिंग, शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदी की मूर्तियाँ मिलती हैं, जो शैव धर्म की लोकप्रियता का प्रमाण हैं। अभिलेखों और मूर्तियों में शिव को चंद्रशेखर, नटराज, नीलकंठ और अंधकासुर-वध जैसे रूपों में चित्रित किया गया है। रतनपुर के महामाया मंदिर के द्वार पर ‘ॐ नमः शिवाय’ लिखा हुआ है और ताम्रपत्रों व सिक्कों पर भी इसका अंकन मिलता है, जो तत्कालीन शासकों की शिवभक्ति का सूचक है।

वैष्णव धर्म

यद्यपि छत्तीसगढ़ में शैव धर्म का व्यापक प्रभाव था, लेकिन कलचुरीकालीन अभिलेखों और शिल्पकृतियों में वैष्णव धर्म के प्रचलन के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। पृथ्वीदेव प्रथम के अमोदा ताम्रपत्र (कलचुरी संवत् 831) में भगवान विष्णु का उल्लेख है। जाजल्लदेव प्रथम के रतनपुर शिलालेख (कलचुरी संवत् 866) में विष्णु और लक्ष्मी का नाम मिलता है। पृथ्वीदेव द्वितीय के कुगदा शिलालेख (कलचुरी संवत् 896) में भगवान हरि की पूजा का वर्णन है और उनके राजिम शिलालेख में सामंत जगतपाल द्वारा बनवाए गए राम मंदिर का उल्लेख है। पाली शिलालेख में सामंत गोपालदेव ने ब्रह्मा और महेश के साथ विष्णु की वंदना की है। खल्लारी में देवपाल मोची ने नारायण मंदिर बनवाया। जांजगीर के विष्णु मंदिर, तुम्माण की द्वारपट्टिका पर विष्णु के 24 अवतार, रतनपुर में शेषशायी नारायण तथा लक्ष्मी की मूर्तियाँ, दक्षिण कोसल के रामचंद्र मंदिरों में दस अवतारों का चित्रण, ब्रह्मदेव द्वारा रायपुर में रामानंदी परंपरा से संबंधित दूधाधारी मठ का निर्माण और रायपुर के घासीदास संग्रहालय में काले पाषाण की विष्णु मूर्ति वैष्णव धर्म की लोकप्रियता के प्रमाण हैं।

शाक्त धर्म

कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ में शाक्त पूजा का भी प्रचलन था। कलचुरीकालीन कई अभिलेखों में पार्वती, दुर्गा और गौरी के मंदिरों का वर्णन है। जाजल्लदेव द्वितीय के शिवरीनारायण शिलालेख (कलचुरी संवत् 919) में विकन्नदेव द्वारा बनाए गए दुर्गा मंदिर का उल्लेख है। रत्नदेव तृतीय के खरौद शिलालेख (कलचुरी संवत् 933) में सामंत गंगाधर द्वारा दुर्गा मंदिर के निर्माण का वर्णन है। बिलाईगढ़ ताम्रपत्र (कलचुरी संवत् 896) में मांडलिक ब्रह्मदेव ने अपने गुरु देल्हूक से शाकंभरी विद्या सीखकर शत्रुओं को पराजित करने का वर्णन है। रतनपुर का महामाया मंदिर बहुत प्रसिद्ध है, जहाँ मूर्ति के पीछे महाकाली और महालक्ष्मी की आकृतियाँ दिखाई देती हैं, जिससे बलि परंपरा का भी बोध होता है। सिरपुर में महिषासुरमर्दिनी की मूर्तियाँ मिली हैं, जिनमें दुर्गा को महिषासुर से युद्ध करते दिखाया गया है। इस प्रकार कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ में शाक्त धर्म का भी समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान था।

बौद्ध और जैन धर्म

इस काल में बौद्ध धर्म का प्रभाव कम हो रहा था। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार कलचुरी शासकों से पहले छत्तीसगढ़ में 100 से अधिक बौद्ध विहार और 10,000 भिक्षु थे। सिरपुर, आरंग, तुरतुरिया, बस्तर और मल्हार से बौद्ध मठों के अवशेष मिले हैं। रतनपुर शिलालेख में जाजल्लदेव प्रथम के गुरु रुद्रशिव को बौद्ध दर्शन का ज्ञाता बताया गया है, जिसने दिग्नागादि बौद्ध दार्शनिकों के ग्रंथों का अध्ययन किया था। चूंकि कलचुरीकालीन अभिलेखों में बौद्ध धर्म से संबंधित विवरण कम मिलते हैं, जिससे लगता है कि इस समय बौद्ध धर्म की लोकप्रियता कम हो रही थी।

जैन धर्म का प्रभाव भी सीमित था, लेकिन आरंग के जैन मंदिर और नगपुरा, डोंगरगढ़, रायपुर, रतनपुर और सिरपुर में जैन संस्कृति का कुछ विकास हुआ।

तांत्रिक परंपरा और सूर्योपासना

तांत्रिक परंपरा भी इस काल में प्रचलित थी। बिलाईगढ़ ताम्रपत्र में शाकंभरी विद्या का उल्लेख है। महामाया, शंभोश्वरी, दंतेश्वरी, खल्लारी और बिलाईमाता जैसे मंदिर तांत्रिक पूजा के केंद्र थे। नवरात्रि में देवी पूजा और उपवास का प्रचलन था। कलचुरी समाज में लोग बैगा और गुनिया की सहायता से भी तांत्रिक गतिविधियाँ करते थे।

छत्तीसगढ़ में सूर्योपासना ब्राह्मण धर्म का अंग थी। खरौद और अकलतरा के अभिलेखों में सूर्य और उनके पुत्र रेवंत के मंदिरों का उल्लेख है। पाली और जांजगीर के शिव मंदिरों में सूर्य की मूर्तियाँ मिली हैं। सौरागढ़ (राजनांदगांव) के निकट खजरी गाँव से रेवंत की प्रतिमा प्राप्त हुई है। गोपालदेव के पुजारी पाली शिलालेख में उनकी तुलना सूर्य के पुत्र रेवंत से की गई है। सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण और मकर संक्रांति जैसे अवसरों पर कलचुरी शासक दान देते थे। इसके अलावा, चिथड़ादेव, औरंगन पाट और ठाकुरदेव जैसे स्थानीय देवताओं की पूजा भी होती थी, जो कुछ हद तक अंधविश्वास से जुड़ी थी।

इस प्रकार शैव धर्म का प्रभुत्व होने के बावजूद वैष्णव, शाक्त, बौद्ध और जैन धर्मों का समन्वय इस क्षेत्र की धार्मिक और सांस्कृतिक समृद्धि का प्रतीक है।

कलचुरी काल की कला

कलचुरी काल की कला और स्थापत्य छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर का एक उज्ज्वल अध्याय है। इस काल में बने मंदिर, किले और जलाशय न केवल स्थापत्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, बल्कि उस समय की उन्नत अभियंत्रिकी के प्रमाण हैं। मंदिर मुख्य रूप से नागर शैली में बनाए गए, जिनमें ऊँचे शिखर, गर्भगृह और मंडप थे। खजुराहो और त्रिपुरी शैली के प्रभाव के साथ-साथ स्थानीय और आदिवासी परंपराओं का सम्मिश्रण इस कला की विशिष्ट विशेषता है, जिसके कारण कलचुरी काल को छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक एवं स्थापत्य धरोहर का स्वर्णिम अध्याय माना जाता है।

मंदिर निर्माण और स्थापत्य

कलचुरी शासकों ने छत्तीसगढ़ में कई मंदिर, धर्मशालाएँ, शिक्षाकेंद्र और मठ बनवाए। इनमें तुम्माण का पृथ्वीदेवेश्वर मंदिर (पृथ्वीदेव प्रथम), बंकेश्वर मंदिर, रतनपुर का महामाया मंदिर (रत्नदेव प्रथम), एकवीरा मंदिर (रत्नदेव तृतीय), लाफागढ़ का महिषासुरमर्दिनी मंदिर, पाली का बाणवंशीय महादेव मंदिर, घटियारी का भृगुशेश्वर मंदिर, मल्हार का केदारेश्वर मंदिर, जांजगीर का विष्णु मंदिर, शिवरीनारायण का चंद्रचूड़ मंदिर (जाजल्लदेव द्वितीय), नारायणपुर का जगन्नाथ मंदिर, खरौद का लक्ष्मणेश्वर मंदिर, राजिम का रामचंद्र मंदिर, खल्लारी का विष्णु मंदिर और तख्तपुर का शिव मंदिर विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इस काल में रतनपुर, पाली, घटियारी, तुम्माण, मल्हार, जांजगीर, शिवरीनारायण, नारायणपुर, खल्लारी, लाफागढ़ और राजिम आदि स्थान स्थापत्य कला के प्रमुख केंद्र के रूप में जाने जाते थे।

नगरीय और जल संरचनाएँ

कलचुरी शासकों ने मंदिरों के साथ-साथ किले और जल संरचनाओं का भी निर्माण करवाया। उन्होंने रणनीतिक दृष्टि से रतनपुर में गजकिला (पृथ्वीदेव द्वितीय) और चौतुरगढ़ किला (बाहरेंद्रसाय) बनवाया। सामुदायिक और कृषि उपयोग के लिए खडग तालाब (रतनपुर) और अन्य अनेक जलाशय बनवाए गए, जो जल संरक्षण के ऐतिहासिक दृष्टांत हैं। नगर नियोजन और विकास भी इस काल की विशेष उपलब्धि थी, जिसमें रतनपुर और रायपुर का प्रशासनिक और सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित हुए, साथ ही तुम्माण, जांजगीर और शिवरीनारायण जैसे महत्त्वपूर्ण नगर भी नगरीय विकास के महत्त्वपूर्ण केंद्र थे।

मूर्तिकला

कलचुरी काल की मूर्तिकला शासकों के संरक्षण और कारीगरों की प्रतिभा का परिणाम थी। मंदिरों में शैव, वैष्णव और शाक्त धर्म की मूर्तियाँ बनाई गईं। रतनपुर के अभिलेखों में मन्यक, छीतक और मंडल नामक शिल्पकारों का उल्लेख मिलता है। रतनपुर के महामाया मंदिर में गजलक्ष्मी की मूर्तियाँ और किले के प्रवेशद्वार पर रावण शिरोच्छेदन, शिवलिंग अर्पण जैसे दृश्य उकेरे गए हैं। पाली का बाणवंशीय महादेव मंदिर अपनी जटिल नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है। मल्हार के केदारेश्वर मंदिर में शिव-पार्वती द्यूत और अंधकासुर वध जैसे धार्मिक दृश्य चित्रित हैं। जांजगीर के विष्णु मंदिर में धनद देवता और संगीत-समाज के चित्रण हैं और शिवरीनारायण का चंद्रचूड़ मंदिर खजुराहो शैली से प्रभावित है। नारायणपुर के जगन्नाथ मंदिर में जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ हैं। मंदिरों में गजलक्ष्मी, अप्सराएँ, मिथुन मूर्तियाँ और ज्यामितीय आकृतियाँ बहुत सुंदर हैं। कोसगई माता मंदिर में स्थानीय आदिवासी परंपराएँ झलकती हैं। मड़वा महल (दुल्हादेव मंदिर), जिसे राजा रामचंद्रदेव ने 1549 ई. में विवाह मंडप के रूप में बनवाया था, खजुराहो और स्थानीय शैली के अद्भुत समन्वय का उदाहरण है।

इस प्रकार कलचुरीकालीन कला और स्थापत्य में शैव, शाक्त, वैष्णव और आदिवासी परंपराओं का समन्वय देखने को मिलता है। रतनपुर, तुम्माण, मल्हार, जांजगीर और शिवरीनारायण के मंदिर, किले और तालाब इस समृद्ध धरोहर के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। नागर शैली, खजुराहो का प्रभाव, स्थानीय कारीगरी, ताम्रपत्र और प्रशासनिक नवाचारों ने छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पहचान को समृद्ध किया। यही कारण है कि यह विरासत आज भी इतिहासकारों और पर्यटकों के लिए आकर्षण का प्रमुख केंद्र है।

शिक्षा और साहित्य

कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ में शिक्षा और साहित्य का उल्लेखनीय विकास हुआ। मल्हार, खरौद, रतनपुर, आरंग, राजिम, रायपुर और खैरागढ़ जैसे स्थान शिक्षा के केंद्र थे, जहाँ वेद, पुराण, नीतिशास्त्र, दर्शन, ज्योतिष, गणित और आयुर्वेद जैसे विषयों की शिक्षा दी जाती थी। राजिम शिलालेख से पता चलता है कि लोग रामायण और महाभारत का अध्ययन करते थे, जबकि बिलाईगढ़ ताम्रपत्र में शाकंभरी विद्या का उल्लेख है। तुरतुरिया एक प्राचीन बौद्ध शिक्षा केंद्र था। कलचुरी शासकों ने शिक्षा के लिए अनेक मठों का निर्माण करवाया, जहाँ गुरुकुल प्रणाली में शिक्षा दी जाती थी। इस समय मिथिला, सरयूपार, कन्नौज, उत्कल आदि स्थानों से विद्वान यहाँ शिक्षा ग्रहण करने आते थे। जाजल्लदेव के राजगुरु रुद्रशिव ने बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया था, जो उस समय की वैचारिक विविधता का द्योतक है।

कलचुरी शासक साहित्य प्रेमी थे और उन्होंने कई कवियों और साहित्यकारों को संरक्षण दिया, जिसके परिणामस्वरूप संस्कृत, प्राकृत और स्थानीय भाषाओं में उत्कृष्ट रचनाएँ हुईं और सांस्कृतिक विकास को प्रोत्साहन मिला। कलचुरी अभिलेखों में नारायण, अल्हण, कीर्तिधर, वत्सराज, धर्मराज, भागे, सुरगण, रतनसिंह, कुमारपाल, त्रिभुवनपाल, देवपणि, नरसिंह और दामोदर मिश्र जैसे कवियों के नाम मिलते हैं। पुजारी पाली शिलालेख से ज्ञात होता है कि नारायण नामक कवि ने संस्कृत में रामाभ्युदय नामक कृति की रचना की थी। खल्लारी शिलालेख के लेखक दामोदर मिश्र और सज्जनधर को भी संरक्षण प्राप्त था। बाद के समय में गोपालचंद्र मिश्र ने ‘खूब तमाशा’, ‘सुदामा चरित’ जैसी रचनाएँ लिखीं, जिनमें पहली बार ‘छत्तीसगढ़’ शब्द का उपयोग हुआ। बाबू रेवाराम ने ‘तवारीख-ए-हैहयवंशी’ और ‘रतनपुर का इतिहास’ जैसी रचनाएँ लिखीं, जो इस क्षेत्र का पहला लिखित इतिहास मानी जाती हैं। शिवदत्त शास्त्री ने ‘रतनपुर आख्यान’ में जमींदारों का इतिहास लिखा। इस प्रकार कलचुरी काल में शिक्षा और साहित्य ने छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर को और समृद्ध किया।

इस प्रकार कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ में शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भी प्रगति हुई। अनेक शिक्षा केंद्र और मठों में वेद, पुराण, व्याकरण, दर्शन और काव्य जैसे विविध विषयों का अध्ययन होता था। राजकीय संरक्षण प्राप्त विद्वानों और कवियों ने संस्कृत, प्राकृत और स्थानीय भाषाओं में मूल्यवान रचनाएँ कीं। यही कारण है कि कलचुरी काल को छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक और बौद्धिक धरोहर का स्वर्णिम काल माना जाता है।

कलचुरी काल में सामाजिक व्यवस्था
सामाजिक संरचना

छत्तीसगढ़ के निवासियों को तीन प्रमुख समूहों में वर्गीकृत किया गया था। आर्य उत्तर भारत से आए प्रवासी थे, जबकि निषाद विंध्याचल और इसके दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र के मूल निवासी थे। द्रविड़, गौड़, परजा और उराँव जैसे आदिवासी पश्चिम भारत से आए थे।

कलचुरी काल में वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी और समाज श्रम विभाजन पर आधारित था, जिसमें प्रत्येक वर्ग के अधिकार और कर्तव्य निर्धारित थे। सामाजिक कट्टरता का अभाव था और राजपद के लिए क्षत्रिय होना अनिवार्य नहीं था। वैवाहिक संबंध प्रायः अपनी जाति में होते थे, परंतु अनुलोम विवाह भी प्रचलित थे। त्रिपुरी के कलचुरी नरेश कर्ण की रानी जाजल्लदेवी हूणवंशी राजकुमारी थी। कई विदेशी जातियों और धर्मों का हिंदू समाज में समावेश हो चुका था।

प्रमुख सामाजिक वर्ग

ब्राह्मण : रतनपुर के कलचुरीयुगीन शिलालेखों में ब्राह्मणों के नाम के साथ पंडित, ठाकुर, राउत और गेन्ता जैसी उपाधियाँ मिलती हैं। अधिकांश ब्राह्मणों के नाम के अंत में ‘शर्मा’ शब्द जुड़ा होता था। मैथिली ब्राह्मण राजगुरु, राजपुरोहित और जमींदारियों में महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त होते थे।

जाजल्लदेव द्वितीय के मल्हार शिलालेख (कलचुरी संवत् 919) के अनुसार ब्राह्मण मीमांसा, सांख्य, न्याय, वेदांत, बौद्ध, जैन और चार्वाक जैसे दर्शनों का अध्ययन करते थे। रत्नदेव द्वितीय के सरखों ताम्रपत्र (कलचुरी संवत् 880) से पता चलता है कि सटीक भविष्यवाणी करने वाले ब्राह्मणों का दरबार में अधिक सम्मान होता था।

कई ब्राह्मण गृहस्थाश्रम त्यागकर शैव और पाशुपत संप्रदायों में संन्यास ले लेते थे। कुछ ब्राह्मण युद्ध कला में भी निपुण थे।

ब्राह्मणों ने राज प्रशस्तियाँ और रचनाएँ लिखीं। गोपाल मिश्र, माखन मिश्र और भगवान मिश्र जैसे ब्राह्मण अपनी विद्वता के लिए प्रसिद्ध थे। ब्राह्मण प्रायः अपनी जाति में विवाह करते थे, परंतु अनुलोम विवाह भी होते थे।

क्षत्रिय : क्षत्रियों को समाज में सम्मानित स्थान था और प्रायः राजा और उच्च पदों पर नियुक्त होते थे। कलचुरीयों के चालुक्य, राष्ट्रकूट, चंदेल और पाल जैसे क्षत्रिय वंशों से वैवाहिक संबंध थे। कुछ क्षत्रिय विद्या और साहित्य में निपुण थे। रतनपुर के शिलालेखों में हैहयवंशी कुनारपात नायक का उल्लेख है, जो राजनीति, साहित्य और ज्योतिष में पारंगत था और प्रशस्तियाँ लिखता था।

वैश्य ; वैश्य व्यापार और उद्योग में लगे थे, जिसके कारण स्थानीय कार्यों में उनका प्रभुत्व था। रतनपुर के यश नामक वैश्य को पुरप्रधान के रूप में उल्लेखित किया गया है। रत्नदेव द्वितीय के अकलतरा शिलालेख के अनुसार वैश्य वर्ग के कई लोगों ने रणक्षेत्र में पराक्रम दिखाया था। वैश्य सामंत बल्लभराज ने गौड़ देश में विजय प्राप्त की और मंदिर, तालाब और उद्यान बनवाए। रानी लाछल्लादेवी उन्हें अपने पुत्र की तरह स्नेह करती थीं। ग्राम और नगर पंचायतों में वैश्यों का प्रभुत्व था।

कायस्थ ; कायस्थों को समाज में सम्मान प्राप्त था। युवराजदेव प्रथम का अमात्य गोल्लाक कायस्थ था और विष्णु का उपासक था। उसने विष्णु के अवतारों को चट्टानों पर उकेरने का कार्य किया था। रत्नसिंह नामक कायस्थ ने कई प्रशस्तियाँ लिखीं और मल्हार में शिवमंदिर बनवाया, जिसके अवशेष आज भी मौजूद हैं। कायस्थ लेखा-जोखा (हिसाब-किताब) रखते थे और उन्हें ‘करणिक’ भी कहा जाता था। कायस्थों ने संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे।

अन्य जातियाँ ; मंदिर निर्माण में शिल्पियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उनके द्वारा उत्कीर्ण लेखों की संख्या अधिक है। खल्लवाटिका (खल्लारी) में देवपाल नामक मोची ने विष्णुमंदिर बनवाया, जो सामाजिक एकता का प्रतीक है।

स्त्रियों की स्थिति

कलचुरीकालीन समाज में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति संतोषजनक थी। नोनल्ला, अल्हणदेवी और लाछल्लादेवी जैसी महिलाओं का धार्मिक और राजकीय क्षेत्रों में प्रभाव था। बल्लभराज ने अपनी पत्नी श्वेतल्लादेवी की प्रेरणा से धार्मिक और लोकोपकारी कार्य किए। जाजल्लदेव प्रथम ने अपनी माता के कहने पर सोमेश्वर को मुक्त किया था।

अभिलेखों में बहुविवाह के प्रमाण मिलते हैं। रत्नदेव तृतीय की दो रानियाँ (रल्हा और पद्मा) और अल्हणदेव की तीन रानियाँ थीं। समाज में सती प्रथा का प्रचलन था; जाजल्लदेव द्वितीय के शिवरीनारायण शिलालेख (कलचुरी संवत् 919) के अनुसार अल्हणदेवी की तीनों रानियाँ सती हुई थीं। दक्षिण कोसल में सतीचौरों (चबूतरों) और रतनपुर के महामाया मंदिर के पास सतीस्तंभ इस प्रथा के प्रमाण हैं। लेकिन अल्हणदेवी, कौसलदेवी और गौसालदेवी जैसी राजमाताओं ने अपने पतियों की मृत्यु के बाद पुत्रों के राजकाज में सहायता प्रदान की थी।

इस प्रकार कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ का समाज विविधतापूर्ण और समावेशी था। वर्णव्यवस्था के बावजूद लोग सामाजिक रूप से उदार थे। शासन, साहित्य और धार्मिक कार्यों में प्रायः सभी जातियों की भागीदारी होती थी। स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी और धार्मिक-सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभाती थीं। सती प्रथा और अंधविश्वास जैसे तत्व भी समाज का हिस्सा थे, लेकिन यह कुछ विशेष वर्गों तक सीमित था।

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