दक्कन क्षेत्र, विशेष रूप से कर्नाटक में, 1156 से 1181 ई. तक एक अन्य कलचुरी वंश का शासन रहा, जिसकी राजधानी कल्याणी (बसवकल्याण, बीदर, कर्नाटक) थी। इस वंश को ‘कल्याणी के कलचुरी’ या ‘दक्षिणी कलचुरी’ के नाम से जाना जाता है। कल्याणी के कलचुरी राजवंश का शासनकाल (1156-1181 ई.) दक्कन के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। इस राजवंश ने चालुक्य शासकों से सत्ता छीनकर कर्नाटक में अपनी सत्ता स्थापित की और बिज्जल द्वितीय के नेतृत्व में अपने चरम पर पहुँचा। इस काल में वीरशैव संप्रदाय और वचन साहित्य जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक नवाचारों ने कर्नाटक की सामाजिक संरचना को स्थायी रूप से बदल दिया। लेकिन, आंतरिक कमजोरियों और बाह्य दबावों के कारण इस राजवंश का पतन हो गया, फिर भी इसका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक योगदान कर्नाटक के इतिहास में अमर है।
उत्पत्ति और प्रारंभिक इतिहास
कल्याणी के दक्षिणी कलचुरी मध्य भारतीय कलचुरी राजवंशों के वंशज थे। उनकी उत्पत्ति मध्य प्रदेश के कालिंजर (कालंजर) और डाहल के विजेता कृष्ण से मानी जाती है, जिसका संबंध हैहय वंश से था।
छठी शताब्दी में, बादामी चालुक्यों के उदय से पहले, महिष्मती के कलचुरियों ने गुजरात, मालवा, कोंकण और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में एक विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था। चालुक्य मंगलेश और पुलकेशिन द्वितीय द्वारा पराजित होने के बाद संभवतः वे चालुक्यों की अधीनता में शासन करते रहे। इसके बाद, त्रिपुरी के कलचुरी और सरयूपार तथा छत्तीसगढ़ की उनकी शाखाएँ मध्य भारत में शक्तिशाली हो गईं।
यद्यपि कलचुरी वंश का प्रारंभिक इतिहास मध्य भारत से जुड़ा है, लेकिन दक्षिणी कलचुरी शाखा की स्थापना 10वीं शताब्दी के अंत में हुई। 1174 ई. के एक अभिलेख के अनुसार, कल्याणी के कलचुरी राजवंश की स्थापना सोम नामक व्यक्ति ने की थी, जिसने परशुराम के प्रकोप से बचने के लिए दाढ़ी और मूंछें बढ़ा ली थीं। उसके बाद से यह वंश ‘कलचुरी’ के नाम से जाना जाने लगा। ‘कल्लि’ का अर्थ है- लंबी मूंछें और ‘चुरी’ का अर्थ है- तेज चाकू। सोम को ‘कटचुरी’ और ‘हैहय’ (हेह्य) भी कहा गया है। बाद के अभिलेखों में दावा किया गया है कि दक्षिण के कलचुरी ब्रह्मांड के रचयिता ब्रह्मा के वंशज थे।
सोम ने दक्षिण में जाकर मंगलवेढ़े (सोलापुर, महाराष्ट्र) को राजधानी बनाया और कल्याणी के चालुक्यों के सामंत के रूप में शासन आरंभ किया। उसने अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए स्थानीय शक्तियों के साथ संबंध स्थापित किया और कालंजर-पुरवराधीश्वर (कालंजर का स्वामी) की उपाधि धारण की, जो उसके मध्य भारतीय मूल का संकेत है। उसका प्रतीक चिन्ह स्वर्ण वृषभ (सोने का बैल) था।
सोम के उत्तराधिकारियों में उचित, असग, कन्नम, किरियासाग, बिज्जल प्रथम, कन्नम, जोगम और परमादी हुए, जो मुख्य रूप से कल्याणी चालुक्यों के सामंत थे।
बिज्जल द्वितीय और स्वर्णकाल
कलचुरियों की कल्याणी शाखा का वास्तविक संस्थापक बिज्जल द्वितीय (1130-1167 ई.) था, जो कल्याणी चालुक्यों का महामंडलेश्वर था। वह आरंभ में संभवतः कल्याणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ (1076-1126 ई.) के अधीन करहाड़ा-4000 और तारदवाड़ी-1000 प्रांतों का महामंडलेश्वर था। विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु के बाद उसने चालुक्यों की कमजोरी का लाभ उठाकर 1157 ई. में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और चिक्कलगी अभिलेख के अनुसार महाभुजबलचक्रवर्ती (शक्तिशाली भुजाओंवाला चक्रवर्ती) की शाही उपाधि धारण की।
बिज्जल मूल रूप से बनवासी, नोलंबवाड़ी (नोलंबपद्म) और तारदवाड़ी (तारदवदी) में कल्याणी के चालुक्य राजा तैलप तृतीय का सामंत था। 1162 ई. में बिज्जल द्वितीय ने चालुक्य तैलप तृतीय को उसकी राजधानी कल्याणी से खदेड़ दिया और कर्नाटक पर अधिकार कर लिया। उसने श्रीपृथ्वीवल्लभ तथा परमेश्वर जैसी चालुक्य उपाधियाँ धारण कीं और राजधानी मंगलवाड़ा से कल्याणी स्थानांतरित किया, जिसे बसवकल्याण भी कहा जाता है।
अपने कई कलचुरी पूर्वजों की तरह बिज्जल जैन धर्म का अनुयायी था। अभिलेखों और साहित्यिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि उसने न केवल जैन आचार्यों को संरक्षण दिया और जैन मंदिरों को भूमि अनुदान दिया, बल्कि जैन मठों की परंपराओं के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखा। बिज्जल के एक मंत्री रेचमय्या ने श्रवणबेलगोला में तीर्थंकर शांतिनाथ की प्रतिमा स्थापित की थी।
बिज्जल के शासनकाल में बसव (बसवण्णा या बसवेश्वर) के नेतृत्व में वीरशैव (लिंगायत) संप्रदाय का उदय हुआ, जिससे सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। बसव (बसवण्णा), जो बिज्जल के दरबार में एक उच्च पदाधिकारी थे, ने जाति-व्यवस्था, मूर्तिपूजा, पशुबलि, विधवा विवाह निषेध और ब्राह्मणवादी कर्मकांडों का विरोध किया। यह आंदोलन मुख्य रूप से शिव भक्ति और समानता के सिद्धांतों पर आधारित था।
यद्यपि बिज्जल व्यक्तिगत रूप से जैन धर्म के प्रति समर्पित था, लेकिन उसने बसव को अपने सुधारवादी विचारों को बढ़ावा देने और ‘अनुभव मंटप’ (अनुभव मंडप) की स्थापना करने की अनुमति दी, जहाँ विभिन्न वर्गों के लोग आध्यात्मिक और सामाजिक मुद्दों पर विचार-विमर्श करते थे। 1163 ई. के शिलालेख के अनुसार, कलचुरी राजा बिज्जल ने हम्पी के स्वामी विरुपाक्ष की उपस्थिति में एक धार्मिक उपहार (महादान) दिया था।
कुछ रूढ़िवादी समूहों और लिंगायत अनुयायियों के बीच संघर्ष के कारण 1167 ई. में बिज्जल की हत्या हो गई। कहा जाता है कि यह हत्या कट्टरपंथी लिंगायतों ने की थी, लेकिन बसव स्वयं इस घटना के लिए उत्तरदायी नहीं थे क्योंकि हत्या के तीन महीने पहले ही उनकी मृत्यु हो चुकी थी। जो भी हो, बिज्जल की हत्या से कल्याणी में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई।
कल्याणी के कलचुरियों का पतन
बिज्जल द्वितीय के बाद उसके छोटे पुत्र सोमेश्वर या सोविदेव (1167-1176 ई.) कल्याणी की कलचुरी गद्दी पर बैठे क्योंकि बिज्जल ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। सोमेश्वर (सोविदेव) के उत्तराधिकार का बिज्जल द्वितीय के छोटे भाई मैलुगी और बिज्जल के पोते कर्ण ने कड़ा विरोध किया, लेकिन उसने अपने सेनापति माधव की सहायता से उन्हें कुचल दिया। सोमेश्वर (सोविदेव) ने वीरशैव आंदोलन के अनुयायियों को कुचलने के लिए ‘आतंक का शासन’ स्थापित किया, जिससे राज्य में अराजकता और विद्रोह फैल गया।
सत्ता का हस्तांतरण
सोमेश्वर (सोविदेव) के बाद मल्लुगी शासक हुआ, लेकिन उसे संकम द्वितीय (1176-1180 ई.) ने अपदस्थ कर गद्दी पर अधिकार कर लिया। उसने कर्नाटक में कलचुरी नियंत्रण को बनाए रखने का प्रयास किया, लेकिन आंतरिक कलह और कमजोर नेतृत्व के कारण स्थिति बिगड़ती चली गई। 1181 ई. के बाद बिज्जल के अन्य पुत्रों अहवमल्ल (1180-1183 ई.) और सिंहण (1183-1184 ई.) ने धीरे-धीरे सत्ता कल्याणी के चालुक्यों को हस्तांतरित कर दी। इस प्रकार 12वीं शताब्दी के अंत तक आंतरिक कलह, नेतृत्व की कमी, चालुक्यों के पुनरुत्थान, चोल आक्रमणों और होयसल तथा यादव वंशों के उदय के कारण कल्याणी के कलचुरियों का पतन हो गया और अंततः कल्याणी के चालुक्यों ने इस क्षेत्र पर पुनः अधिकार कर लिया।
सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान
अपने संक्षिप्त शासनकाल के बावजूद, कल्याणी के कलचुरियों का शासनकाल कर्नाटक के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस काल में बसव के नेतृत्व में वीरशैव (लिंगायत) संप्रदाय ने सामाजिक समानता, शिव भक्ति और रूढ़िगत कर्मकांडों के विरोध को प्रोत्साहन दिया, जिससे कर्नाटक का धार्मिक और सामाजिक परिदृश्य स्थायी रूप से बदल गया।
इस काल में वचन काव्य शैली का जन्म हुआ, जिसने कन्नड़ साहित्य को एक नई दिशा दी। वचन के रचयिता वचनकार (शरण या कवि) कहलाते थे। बसव के अलावा, अल्लमप्रभु, अक्कमहादेवी, चन्नबसव और सिद्धाराम जैसे वचनकारों (शरणों) ने कन्नड़ भाषा में सरल रचनाएँ कीं और कन्नड़ साहित्य को समृद्ध किया। 200 से अधिक वचनकारों में 30 से अधिक महिलाएँ थीं। इसी काल में विरुपाक्ष पंडित का चेन्नबसवपुराण, धरणी पंडित का बिज्जलरायचरित और चंद्रसागर वर्णी का बिज्जलरायपुराण जैसी कई अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाएँ भी लिखी गईं।
दक्षिण के कलचुरियों ने जैन धर्म को संरक्षण दिया, लेकिन वीरशैव आंदोलन ने जैन और वैदिक परंपराओं के विरुद्ध सामाजिक क्रांति की एक नई दिशा प्रदान की। इस प्रकार कल्याणी के कलचुरियों ने दक्कन के इतिहास में एक संक्षिप्त लेकिन प्रभावशाली अध्याय की रचना की। छत्तीसगढ़ में रतनपुर और रायपुर की कलचुरी शाखाएँ 11वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी के मध्य तक शासन करती रहीं, लेकिन मराठों के आक्रमण और ब्रिटिश सत्ता के उदय के साथ उनकी सत्ता का अंत हो गया।