सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) Subhash Chandra Bose and Azad Hind Fauj (INA)

नेताजी सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के […]

सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) Subhash Chandra Bose and Azad Hind Fauj (INA)

नेताजी सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रखर क्रांतिकारी नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक नई पहचान दी। उन्होंने भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त करने के लिए जापान के सहयोग से सिंगापुर में आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) का नेतृत्व संभाला और 21 अक्टूबर 1943 को ‘आजाद हिंद सरकार’ के नाम से भारत की पहली अस्थायी स्वतंत्र सरकार की स्थापना की। इस कारण भारत में प्रतिवर्ष 21 अक्टूबर को आजाद हिंद सरकार की स्थापना की वर्षगाँठ मनाई जाती है। नेताजी ने दक्षिण-पूर्व एशिया में रहने वाले सभी धर्मों और क्षेत्रों के भारतीयों को एकजुट किया और ‘जय हिंद’ तथा ‘दिल्ली चलो’ जैसे क्रांतिकारी नारे दिए। उनका प्रसिद्ध आह्वान था: “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा।” भारत सरकार ने उनके अदम्य साहस और समर्पण के सम्मान में उनकी 125वीं जयंती (23 जनवरी 2022) को ‘पराक्रम दिवस’ के रूप में मनाया।

सुभाषचंद्र बोस का प्रारंभिक जीवन

नेताजी सुभाषचंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा (वर्तमान ओडिशा) के कटक शहर में एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ। उनके पिता जानकीनाथ बोस एक प्रसिद्ध वकील और बंगाल विधानसभा के सदस्य थे, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने ‘रायबहादुर’ का खिताब दिया था। उनकी माता प्रभावती बोस थीं। जानकीनाथ और प्रभावती की 14 संतानें थीं, जिनमें सुभाष नौवीं संतान और पाँचवें पुत्र थे। उनका अपने बड़े भाई शरतचंद्र बोस, जिन्हें वे ‘मेजदा’ कहते थे, से विशेष लगाव था।

सुभाष ने कटक के प्रोटेस्टेंट स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की और 1909 में रेवेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल में दाखिला लिया। 1915 में उन्होंने इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की और 1916 में कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। वहाँ छात्र आंदोलन का नेतृत्व करने के कारण उन्हें निष्कासित कर दिया गया। इसके बाद, उन्होंने 49वीं बंगाल रेजिमेंट में भर्ती होने का प्रयास किया, लेकिन दृष्टिदोष के कारण अस्वीकार कर दिए गए। 1919 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) में प्रथम श्रेणी के साथ दूसरा स्थान प्राप्त किया।

पिता की इच्छा पर सुभाष 15 सितंबर 1919 को लंदन गए और 1920 में भारतीय सिविल सेवा (आई.सी.एस.) परीक्षा उत्तीर्ण की। लेकिन राष्ट्रवादी उभार के कारण उन्होंने अप्रैल 1921 में सिविल सेवा से त्यागपत्र दे दिया और जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपॉस (ऑनर्स) डिग्री के साथ भारत लौट आए।

राष्ट्रीय आंदोलन में प्रवेश

भारत लौटने पर सुभाष ने 20 जुलाई 1921 को मुंबई के मणिभवन में महात्मा गांधी से मुलाकात की। गांधी की सलाह पर वे बंगाल में असहयोग आंदोलन का नेतृत्व कर रहे चित्तरंजन दास के सहयोगी बने। सुभाष स्वामी विवेकानंद की शिक्षाओं से प्रभावित थे और चित्तरंजन दास को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें 16 जुलाई 1921 को पहली बार छह महीने की जेल हुई। अपने जीवन में उन्हें कुल 11 बार कारावास का सामना करना पड़ा।

1922 में चौरी-चौरा की घटना के बाद गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन स्थगित करने पर चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरू ने 1 जनवरी 1923 को स्वराज पार्टी की स्थापना की। सुभाष ने स्वराज पार्टी के समाचारपत्र ‘फॉरवर्ड’ का संपादन किया। 1923 में वे अखिल भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष और बंगाल प्रदेश कांग्रेस के सचिव चुने गए। 1924 में चित्तरंजन दास के कोलकाता कॉर्पोरेशन के महापौर बनने पर सुभाष को इसका मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया।

1924 में क्रांतिकारी गोपीनाथ साहा द्वारा कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्ल्स टेगार्ट की हत्या के असफल प्रयास में अर्नेस्ट डे की मृत्यु हो गई। सुभाष ने साहा के शव का अंतिम संस्कार करवाया, जिसके कारण ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 1924 में गिरफ्तार कर बिना मुकदमा चलाए मांडले जेल भेज दिया। मांडले में उन्हें तपेदिक हो गया, और 1927 में उनकी रिहाई हुई। इसके बाद वे बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और जवाहरलाल नेहरू के साथ ‘इंडिपेंडेंस लीग’ की स्थापना की।

1928 के कोलकाता अधिवेशन में सुभाष और नेहरू ने ‘पूर्ण स्वराज’ की माँग का समर्थन किया, जबकि कांग्रेस ने डोमिनियन स्टेटस के लिए एक वर्ष का समय दिया। 1929 के लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में ‘पूर्ण स्वराज’ और 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस मनाने की घोषणा की गई।

1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान सुभाष जेल में थे। 1930 में वे कोलकाता के महापौर और अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए, जिसके कारण उनकी रिहाई हुई। 1931 में गांधी-इरविन समझौते का विरोध करने पर उन्हें पुनः जेल में डाल दिया गया। स्वास्थ्य बिगड़ने पर 1933 में वे इलाज के लिए यूरोप गए।

यूरोप प्रवास

1933 से 1936 तक यूरोप में रहते हुए सुभाष ने भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता संग्राम के लिए संगठित किया। उन्होंने इटली के मुसोलिनी और आयरलैंड के डी वलेरा से मुलाकात की। 1934 में पिता की बीमारी की सूचना पर कोलकाता लौटे, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर पुनः यूरोप भेज दिया। यूरोप में उन्होंने ‘द इंडियन स्ट्रगल’ पुस्तक लिखी, जिसमें 1920-1934 तक के स्वतंत्रता आंदोलन का विवरण है। इस दौरान उनकी मुलाकात ऑस्ट्रियाई महिला एमिली शेंकल से हुई, जिनसे उन्होंने बाद में विवाह किया। 1942 में एमिली ने उनकी पुत्री अनीता बोस को जन्म दिया।

कांग्रेस अध्यक्षता और फॉरवर्ड ब्लॉक

1938 में हरिपुरा अधिवेशन में सुभाष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग और विज्ञान परिषद की स्थापना की। 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में वे गांधीजी के समर्थित उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैय्या को हराकर पुनः अध्यक्ष चुने गए। लेकिन गांधीजी और अन्य नेताओं के साथ वैचारिक मतभेदों के कारण उन्हें 29 अप्रैल 1939 को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद, 3 मई 1939 को उन्होंने ‘आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक’ की स्थापना की।

1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने पर सुभाष ने इसे भारत की स्वतंत्रता के लिए अवसर माना। उन्होंने साम्राज्यवाद-विरोधी सम्मेलन आयोजित किए और सविनय अवज्ञा आंदोलन की योजना बनाई। जुलाई 1940 में कोलकाता के हॉलवेल स्मारक को हटाने के लिए सत्याग्रह की घोषणा की, लेकिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। भूख हड़ताल की धमकी के बाद दिसंबर 1940 में उनकी रिहाई हुई, लेकिन उन्हें नजरबंद कर दिया गया।

कलकत्ता से बर्लिन: ग्रेट एस्केप

16-17 जनवरी 1941 की रात सुभाष जियाउद्दीन के छद्मनाम से पठान वेश में कोलकाता से भाग निकले। अपने भतीजे शिशिर बोस की मदद से वे गोमो स्टेशन पहुँचे और वहाँ से पेशावर गए। भगतराम तलवार की सहायता से वे काबुल पहुँचे। वहाँ से इतालवी पासपोर्ट पर ऑरलैंडो माज़ोटा के नाम से मास्को और फिर 2 अप्रैल 1941 को बर्लिन पहुँचे।

जर्मनी में गतिविधियाँ

जर्मनी में सुभाष ने ‘आजाद हिंद केंद्र’ की स्थापना की और 20 मई 1941 को आजाद हिंद रेडियो शुरू किया। उन्होंने ‘इंडियन लीजियन’ का गठन किया, जिसमें युद्धबंदी भारतीय सैनिक शामिल हुए। 29 मई 1942 को हिटलर से मुलाकात में उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए समर्थन माँगा, लेकिन हिटलर ने स्पष्ट सहायता नहीं दी। जापानी सेना की प्रगति और उनकी नीतियों से प्रोत्साहित होकर सुभाष ने पूर्वी एशिया जाने का निर्णय लिया। 9 फरवरी 1943 को वे जर्मन पनडुब्बी यू-180 से रवाना हुए और 8 मई 1943 को इंडोनेशिया के सबांग पहुँचे। वहाँ से वे 16 मई 1943 को टोकियो पहुँचे।

सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) Subhash Chandra Bose and Azad Hind Fauj (INA)
सुभाषचंद्र बोस और नाजी नेता हिटलर
जापान और सिंगापुर

टोकियो में जापानी प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए पूर्ण समर्थन का आश्वासन दिया। 2 जुलाई 1943 को सुभाष सिंगापुर पहुँचे, जहाँ रासबिहारी बोस ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संघ और आजाद हिंद फौज का नेतृत्व सौंपा। 5 जुलाई 1943 को सुभाष ने आजाद हिंद फौज की परेड की सलामी ली और ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया। उन्होंने फौज का पुनर्गठन किया और मलाया, सिंगापुर, और बर्मा से स्वयंसेवकों की भर्ती की।

आजाद हिंद सरकार की स्थापना

21 अक्टूबर 1943 को सुभाष ने सिंगापुर में ‘आजाद हिंद सरकार’ की स्थापना की। वे इसके राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, और सेनाध्यक्ष बने। सरकार को अपनी सेना, ध्वज, मुद्रा, डाकटिकट और गुप्तचर सेवा का अधिकार था। जापान, जर्मनी, इटली और अन्य आठ देशों ने इसे मान्यता दी। दिसंबर 1943 में जापान ने अंडमान और निकोबार द्वीप आजाद हिंद सरकार को सौंपे, जिनका नाम ‘शहीद’ और ‘स्वराज’ रखा गया।

सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज (आई.एन.ए.) Subhash Chandra Bose and Azad Hind Fauj (INA)
आजाद हिंद फौज का निरीक्षण करते नेताजी
इंफाल और कोहिमा युद्ध

जनवरी 1944 में आजाद हिंद फौज का मुख्यालय रंगून स्थानांतरित हुआ। फरवरी 1944 से फौज ने जापानी ‘ऑपरेशन यू-गो’ के साथ इंफाल और कोहिमा में युद्ध लड़ा। 14 अप्रैल 1944 को मोइरांग में तिरंगा फहराया गया। लेकिन मूसलाधार बारिश, संसाधनों की कमी और मित्र राष्ट्रों के हमलों के कारण जून 1944 में अभियान विफल हो गया।

आजाद हिंद फौज का महत्व

यद्यपि आजाद हिंद फौज भारत को सैन्य रूप से स्वतंत्र नहीं कर सकी, इसने देशभक्ति और एकता का प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत किया। 1945 में लालकिले में आजाद हिंद फौज के सैनिकों के मुकदमों ने भारत में व्यापक जन-आंदोलन को जन्म दिया, जिसने ब्रिटिश शासन को भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया।

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