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सिख शक्ति का उदय
महाराजा रणजीतसिंह उत्तर पश्चिम भारत के पंजाब में बिखरे 11 सिख राज्यों को न केवल एकजुट किया, बल्कि एक आधुनिक सिख साम्राज्य की स्थापना भी की। पंजाब के महान महाराजा रणजीतसिंह (1799-1839 ई.) को ‘शेर-ए पंजाब’ (पंजाब का शेर) के नाम से भी जाना जाता है।
रणजीतसिंह
रणजीतसिंह का आरंभिक जीवन
रणजीतसिंह पंजाब में सिख राज्य के संस्थापक और महाराजा (1801-1839) थे। रणजीतसिंह का जन्म 13 नवंबर, 1780 ई. को गुजरांवाला (पंजाब, पाकिस्तान) में हुआ था। रणजीत के पिता महासिंह सुकरचकिया मिसल के प्रधान थे और उनका राज्य रावी और झेलम नदियों के बीच था। रणजीतसिंह की माता राज कौर जिंद साम्राज्य के राजा गजपतसिंह की बेटी थीं। रणजीतसिंह के पिता महासिंह वीर और प्रतापी थे, उन्होंने अपने आसपास के भूभागों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया, जिससे सुकरचकिया मिसल को अन्य मिसलों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ था।
महाराजा रणजीतसिंह के बचपन का नाम बौद्धसिंह था, 10 वर्ष की आयु में पिता महासिंह ने एक युद्ध में विजय के उपलक्ष्य में इनका नाम रणजीतसिंह रख दिया था। बचपन में ही चेचक हो जाने के कारण महाराजा रणजीत सिंह की एक आँख की रोशनी चली गई थी और उनका चेहरा कुरूप हो गया था।
रणजीतसिंह के वैवाहिक संबंध
15 साल की उम्र में रणजीतसिंह का पहला विवाह कन्हैया मिसल के गुरबख्शसिंह एवं सदा कौर की इकलौती बेटी मेहताब कौर से हुई। रणजीतसिंह ने 1798 ई. में अपना दूसरा विवाह नक्कई मिसल के रणसिंह की बेटी राज कौर उर्फ महारानी दातार कौर से किया। गुजरात (सतलज पार) के साहिबसिंह भंगी की विधवाओं- रतनकौर और दयाकौर से भी रणजीत सिंह ने चंदर-अजी के संस्कार के माध्यम से विवाह किया था। इसके अलावा मोरन सरकार (1802 ई.), चंदकौर (1815 ई.), लक्ष्मी (1820 ई.), मेहताबकौर (1822 ई.), समनकौर (1832 ई.) को भी रणजीतसिंह की पत्नियाँ बताया जाता है। रणजीतसिंह का अंतिम विवाह 1835 ई. में जिंदकौर से हुआ था, जिसने 6 सितंबर 1838 ई. को दलीपसिंह को जन्म दिया, जो सिख साम्राज्य के अंतिम महाराजा बने।
रणजीतसिंह के पुत्र
रणजीतसिंह के आठ बेटे बताये जाते हैं। खड़कसिंह रणजीतसिंह की दूसरी पत्नी राज कौर से सबसे बड़े थे। रणजीतसिंह की पहली पत्नी मेहताब कौर ने ईशरसिंह को जन्म दिया, जिनकी दो साल की उम्र में ही मृत्यु हो गई, और रणजीतसिंह से अलग होने के बाद उन्होंने जुड़वाँ तारासिंह और शेरसिंह को जन्म दिया।
रणजीतसिंह के संरक्षण में हुई दो विधवाओं- रतनकौर और दयाकौर ने मुलतानसिंह, कश्मीरासिंह और पशौरासिंह को जन्म दिया था। दलीपसिंह उनकी अंतिम पत्नी जिंदकौर से पैदा हुए थे। रणजीत सिंह ने केवल खड़कसिंह और दलीपसिंह को ही अपने पुत्र के रूप में स्वीकार किया था।
रणजीतसिंह के समय राजनीतिक स्थिति
18वीं सदी के अंतिम वर्षों में मुगल साम्राज्य के विघटन, अफगानों के आक्रमण तथा स्वतंत्र मिसलों के पारस्परिक संघर्षों के कारण पंजाब में अराजकता फैली हुई थी। अहमदशाह अब्दाली का पौत्र जमानशाह पंजाब पर स्वामित्व का दावा करता था, जबकि 1773 ई. में अहमदशाह अब्दाली की मृत्यु के बाद पंजाब में कई सिख मिसलों के राज्य स्थापित हो गये थे।
रावी और व्यास नदी के बीच प्रदेश, जिसमें मुल्तान, लाहौर और अमृतसर थे, भंगी मिसल का राज्य था। अमृतसर के उत्तरी भागों में कन्हैया मिसल का राज्य था। जालंधर दोआब के क्षेत्र अहलूवालिया मिसल के अधीन थे। सतलज नदी के दक्षिण में पटियाला, नाभा और कैथल में फुलकियां सरदार राज्य करते थे और यमुना नदी तक इनका प्रभुत्व था। मुलतान, अटक, पेशावर, बन्नू, डेरा इस्माइल खाँ तथा कश्मीर में भिन्न-भिन्न मुसलमान राज्य कर रहे थे।
रणजीतसिंह की उपलब्धियाँ

जब रणजीतसिंह की आयु केवल 12 वर्ष थी, उसी समय उनके पिता महासिंह की मृत्यु हो गई। रणजीतसिंह ने 1792 ई. से 1797 ई. तक एक प्रतिशासन परिषद् के माध्यम से शासन का कार्य चलाया, जिसमें इनकी माता राजकौर और दीवान लखपत राय थे।
रणजीतसिंह में जन्मजात नेतृत्व तथा प्रशासन की क्षमता थी। 17 वर्ष की अवस्था में 1797 ई. में रणजीत सिंह ने शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली और अपने मामा दलसिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। उन्होंने जिस समय प्रशासन का कार्यभार संभाला, उस समय उनका राज्य रावी नदी एवं चिनाब नदी के बीच के कुछ जिलों तक ही सीमित था। यद्यपि रणजीतसिंह का राज्य छोटा था और उनके साधन सीमित थे, फिर भी अपने सैनिक गुणों के कारण रणजीतसिंह एक विस्तृत राज्य स्थापित करने में सफल रहे।
रणजीतसिंह की विजयें
रणजीतसिंह ने अफगानिस्तान में फैली अराजकता का लाभ उठाकर बिखरी सिख मिसलों को एक सूत्र में पिरोया और कुछ सिख मिसलों से वैवाहिक-संबंध स्थापित कर अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयत्न किया।
लाहौर पर अधिकार
अफगान शासक जमानशाह के निरंतर आक्रमणों के कारण पंजाब में अराजकता फैली हुई थी। 1798-1799 ई. में अफगानिस्तान के शासक जमानशाह ने पंजाब पर आक्रमण किया। इसी समय काबुल में जमानशाह के भाई महमूद ने विद्रोह कर दिया, जिसका दमन करने के लिए उसे काबुल वापस जाना पड़ा। कहा जाता है कि जमानशाह जब वापस जा रहा था, तो उसकी 20 तोपें झेलम नदी में गिर गईं। रणजीतसिंह ने जमानशाह की तोपों को निकलवाकर वापस जमानशाह के पास भेजवा दिया। इस सेवा के बदले प्रसन्न होकर जमानशाह ने रणजीतसिंह को लाहौर पर अधिकार करने की अनुमति दे दी।
उन्नीस वर्षीय रणजीतसिंह ने जुलाई 1799 ई. में लाहौर पर अधिकार कर लिया। जमानशाह ने रणजीतसिंह को लाहौर का उपशासक स्वीकार करते हुए उन्हें ‘राजा’ की उपाधि प्रदान की, जिससे रणजीतसिंह की प्रतिष्ठा बढ़ गई। 12 अप्रैल 1801 ई. को रणजीतसिंह ने ‘महाराजा’ की उपाधि ग्रहण की। गुरु नानक के एक वंशज एवं सिखों के आध्यात्मिक गुरु बाबा साहिबसिंह बेदी ने रणजीत सिंह का राज्याभिषेक किया और लाहौर को सिख राज्य की राजधानी बन गई।
अमृतसर पर अधिकार
1802 ई. में महाराजा रणजीतसिंह ने भंगी मिसल के सरदार गुलाबसिंह ढिल्लन की विधवा से अमृतसर छीन लिया। अब पंजाब की राजनीतिक राजधानी (लाहौर) तथा धार्मिक राजधानी (अमृतसर), दोनों ही रणजीतसिंह के अधीन आ गई थीं।
सिख मिसलों पर विजय
लाहौर पर अधिकार हो जाने से रणजीतसिंह की शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि हो गई, जिससे अन्य सिख मिसलों में भय और ईर्ष्या उत्पन्न हो गई। अन्य सिख मिसलों ने रणजीतसिंह के विरूद्ध एक संघ का निर्माण किया। रणजीतसिंह के विरोधी संघ में गुजरात का साहबसिंह भंगी, वजीराबाद का जोधसिंह तथा जस्सासिंह रामगढ़िया सम्मिलित थे। रणजीतसिंह ने अपनी विधवा सास सदाकौर की सहायता से अपने विरूद्ध बने सिख मिसलों के संघ की संयुक्त सेनाओं को पराजित किया।
अपनी सफलता से उत्साहित रणजीतसिंह ने 1803 ई. में अकालगढ़, 1805 में अमृतसर, 1807 ई. में दालेवालिया, 1809 ई. में गुजरात और 1809 ई. में फैजलपुरिया पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार बहुत से पुराने सिख संघ रणजीतसिंह के अधीन हो गये। कुछ सिख मिसलें सतलज नदी के पूरब में जाकर बस गई-जैसे फुलकियाँ और निहंग, जिन्होंने अंग्रेजों का संरक्षण स्वीकार किया। किंतु कन्हैया, रामगढ़िया और आहलूवालिया मिसलें रणजीतसिंह के साथ रहने में गौरव अनुभव करने लगीं।
होशियारपुर और कांगड़ा पर अधिकार
जिस समय रणजीतसिंह पंजाब के मैदानों में अपना प्रभाव-विस्तार कर रहे थे, कांगड़ा के डोगरा सरदार राजा संसारचंद कचोट ने बजवाड़ा और होशियारपुर पर आक्रमण कर दिया। 1804 ई. में रणजीतसिंह ने कांगड़ा के सरदार संसारचंद कटोच को हराकर होशियारपुर पर अधिकार कर लिया।
संसारचंद कटोच ने पुनः पहाड़ों की ओर बढ़कर कहलूड़ के राजा पर आक्रमण कर दिया। कहलूड़ के राजा ने नेपाल के गोरखों से सहायता माँगी और अमरसिंह थापा के नेतृत्व में गोरखों ने कांगड़ा का किला घेर लिया। विवश होकर संसारचंद कटोच ने रणजीतसिंह से सहायता माँगी। संसारचंद ने इस सहायता के बदले रणजीतसिंह को कांगड़ा का दुर्ग देना स्वीकार किया। दीवान मोहकमचंद के अधीन एक सिख सेना ने गोरखों को पराजित कर दिया, जिससे कांगड़ा पर सिखों का अधिकार हो गया और संसारचंद उनकी सुरक्षा में आ गया। गोरखों ने अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करने की कोशिश की, किंतु गोरखों और अंग्रेजों के संबंध अच्छे नहीं थे और 1814-1816 तक इनके बीच युद्ध भी हुआ।
मालवा अभियान
सतलज नदी के पूर्वी क्षेत्र (सिस-सतलज) को स्थानीय भाषा में ‘मालवा’ कहा जाता था, जिसमें पटियाला, नाभा और जिंद राज्य थे और इन पर फुलकियाँ मिसल का अधिकार था जो सिंधिया के संरक्षण में थे। रणजीतसिंह की आकांक्षा थी कि वे समस्त सिखों के राजा बनें। इसलिए वे सतलज नदी के पूर्वी तट पर स्थित सिख राज्यों को जीतकर अपने राज्य में सम्मिलित करना चाहते थे।
पहला मालवा अभियान
मालवा को जीतने के लिए रणजीतसिंह ने दो अभियान किये- रणजीतसिंह ने अपना पहला मालवा अभियान 1806 ई. में किया। मालवा के पहले अभियान का कारण नाभा व पटियाला के राजाओं के बीच दोलाधी नामक कस्बे का लेकर विवाद था। नाभा तथा जिंद के राजाओं ने रणजीतसिंह से सहायता मांगी। रणजीतसिंह ने 20,000 की एक बड़ी सेना के साथ सतलज नदी को पारकर पटियाला के राजा को पराजित किया, इसके बाद पटियाला, नाभा तथा जिंद के राजाओं ने रणजीतसिंह की अधीनता स्वीकार कर ली। लौटते समय रणजीतसिंह ने अनेक नगरों से कर वसूल किया।
दूसरा मालवा अभियान
1807 ई. में रणजीतसिंह ने दूसरा मालवा अभियान किया। दूसरे अभियान का कारण पटियाला की रानी आसकौर का अपने पति पटियाला के राजा साहबसिंह से कुछ विवाद था। रानी ने विवाद को हल करने के लिए रणजीतसिंह को आमंत्रित किया। रणजीतसिंह ने दूसरी बार सतलज पारकर राजा-रानी के विवाद को हल किया। इस बार रणजीतसिंह ने अंबाला, थानेश्वर, नारायणगढ़ और फिरोजपुर तक घावा मारा। लौटते हुए रणजीतसिंह ने नारायणगढ़, बढ़नी, जीरा और कोटकपुरा को जीत लिया।
रणजीतसिंह का अंग्रेजो से संबंध
आरंभ में रणजीतसिंह की नीति अंग्रेजों से अलग रहने की रही। रणजीतसिंह का अंग्रेजों से संपर्क पहली बार लाहौर पर अधिकार करने के बाद हुआ। 1800 ई. में अंग्रेज सरकार जमानशाह के आक्रमण को लेकर चिंतित हो गई क्योंकि उसे लगता था कि रणजीतसिंह जमानशाह की सहायता कर सकता है। लार्ड वेलेजली ने मुंशी मीर युसुफअली नामक व्यक्ति को अपना दूत बनाकर लाहौर भेजा। रणजीतसिंह ने अंग्रेजों को आश्वासन दिया कि वह अंग्रेजों के प्रति मित्रता भाव रखता है, किंतु जमानशाह के बारे में महाराजा ने कोई आश्वासन नहीं दिया।
रणजीतसिंह का अंग्रेजों से दूसरी बार संपर्क 1805 ई. तब हुआ जब अंग्रेजों से पराजित होकर यशवंत राव होल्कर रणजीतसिंह की सहायता प्राप्त करने के लिए अमृतसर पहुँचा। पराजित यशवंतराव होल्कर का पीछा जनरल लेक कर रहा था। जनरल लेक व्यास नदी पर रूक गया क्योंकि वह रणजीतसिंह के राज्य में प्रवेश नहीं करना चाहता था। इस विषम परिस्थिति से निपटने के लिए रणजीतसिंह ने ‘सरबत खालसा’ की बैठक बुलाई, जिसमें सरबत खालसा ने होल्कर की सहाता करने की सिफारिश की। किंतु राजा रणजीतसिंह ने होल्कर को सहायता देने से स्पष्ट इनकार कर दिया क्योंकि रणजीतसिंह को जानते थे कि दुर्बल होल्कर को सहायता देने से नवजात सिख राज्य खतरे में पड़ जायेगा।
लाहौर की संधि, जनवरी, 1806 ई.
रणजीतसिंह ने जनरल लेक के पास अपने दूत भेजे जिसके परिणामस्वरूप रणजीतसिंह और अंग्रेजों के बीच जनवरी, 1806 ई. में लाहौर की संधि हो गई। लाहौर की संधि के अनुसार महाराजा ने अंग्रेजों को आश्वासन दिया कि वह होल्कर को अपने राज्य से निकाल बाहर कर देगा और अंग्रेजों ने रणजीतसिंह को वचन दिया कि वे सिख राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे।
सतलज के पूर्व में प्रसार
सतलज पार की नाभा और पटियाला जैसी सिख रियासतें पहले दौलतराव सिंधिया के अधिकार में थीं, किंतु सुर्जी अर्जुनगांव की संधि के अनुसार चंबल के उत्तर दिल्ली तथा सरहिंद तक अंग्रेजों का प्रभाव स्थापित हो गया। आपसी स्थानीय विवादों और जार्ज बार्लो की अहस्तक्षेप की नीति के कारण रणजीतसिंह को 1806-07 ई. में सतलज पार की सिख रियासतों पर अधिकार करने का प्रयत्न किया जो व्यावहारिक रूप से अंग्रेजों के संरक्षण में थी।
1807 ई. में रणजीतसिंह ने सिख राज्यों पर आक्रमण कर लुधियाना पर कब्जा कर लिया और इसे अपने चाचा भागसिंह को दे दिया। 1807 ई. में जब रणजीतसिंह ने दोबारा सतलज नदी को पार किया तो 1808 ई. में सिख मिसलों के प्रधान दिल्ली में अंग्रेज रेजीडेंट से मिले और अंग्रेजों की सहायता के लिए प्रार्थना की।
मिंटो की नीति
लार्ड मिंटों महाराजा रणजीतसिंह के राज्य-विस्तार की नीति को पसंद नहीं करता था, लेकिन वह राजनीतिक कारणों से लाहौर के स्वामी के साथ खुला संघर्ष भी नहीं करना चाहता था। मिंटो को आशंका थी कि तुर्कों और फारसियों के साथ मिलकर फ्रांसीसी भारत पर आक्रमण कर सकते हैं, इसलिए मिंटो ने रणजीतसिंह से मित्रता का प्रस्ताव रखा। दरअसल लार्ड मिंटों अपनी कूटनीति के द्वारा एक ओर रणजीतसिंह के राज्य-प्रसार पर रोक लगाना चाहता था और दूसरी ओर फ्रांसीसियों के विरूद्ध रणजीतसिंह की मित्रता भी प्राप्त करना चाहता था।
रणजीतसिंह जानते थे कि इस समय अंग्रेजों को उनकी मित्रता की आवश्यकता है, इसलिए उन्होंने सतजल के पश्चिम के क्षेत्रों को जीत लिया और अंग्रेजों से यह माँग की कि सभी सिख राज्यों पर उनकी सर्वोच्चता को स्वीकार किया जाए। 1807 ई. में नेपोलियन तथा जार के मध्य संधि हो जाने से फ्रांसीसी आक्रमण की संभावना बहुत बढ़ गई थी, इसलिए मिंटो ने 1808 ई. में रणजीतसिंह से रक्षात्मक संधि करने के लिए चार्ल्स मेटकाफ को लाहौर भेजा। मेटकाफ ने सिख-सतलज रियासतों को सुरक्षा का आश्वासन भी दिया।
महाराजा रणजीतसिंह अंग्रेजों की शक्ति से परिचित थे। उन्हें पता था कि किस प्रकार कूटनीति और सैनिक शक्ति के बल पर अंग्रेजों ने भारत के अधिकांश भागों पर अधिकार कर लिया था। रणजीतसिंह की दो इच्छा थी- एक तो वे सतलज के पूर्व के सिख राज्यों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे और दूसरे सिंध क्षेत्र की ओर अपने राज्य का विस्तार करना चाहते थे। सतलज के पूर्व के राज्य रणजीतसिंह की अधीनता स्वीकार कर लेते, किंतु मेटकाफ के आने और उनके संरक्षण का आश्वासन देने से उनका हौंसला बढ़ गया और रणजीत सिंह का स्वप्न अधूरा रह गया।
इंग्लैंड और तुर्की के मध्य 1809 ई. में डार्डेमिलीज की संधि हो गई जिससे फ्रांसीसी आक्रमण का खतरा टल गया। तुर्की से मित्रता हो जाने के कारण अंग्रेजों ने निश्चय किया कि सतलज के पूर्व में रणजीतसिंह के प्रभाव या विस्तार को कतई स्वीकार नहीं किया जायेगा।
रणजीतसिंह ने तीसरी बार सतलज को पार कर पटियाला पर अधिकार करने का प्रयास किया। उस समय चार्ल्स मेटकाफ लाहौर में ही था, उसने आक्टरलोनी को सैनिक दस्ते के साथ पटियाला की ओर भेजा और रणजीतसिंह को संदेश भिजवाया कि सिस-सतलज के राज्य दिल्ली की अधीनता में थे और दिल्ली पर अंग्रेजों का अधिकार हो जाने से ये राज्य अंग्रेजों की अधीनता में आ गये हैं। आक्टरलोनी ने रणजीतसिंह से माँग की कि अपने तीसरे आक्रमण में उन्होंने जिन राज्यों को जीता है, उन्हें वापस लौटा दें। चार्ल्स मेटकाफ ने रणजीतसिंह को अंग्रेजों की मित्रता का वादा किया और यह इशारा भी किया कि महाराजा चाहें तो दूसरी दिशाओं में अपना राज्य-विस्तार कर सकते हैं।
मिंटो की नीति का उद्देश्य
लार्ड मिंटो की सिख नीति के तीन प्रमुख उद्देश्य थे-
- रणजीतसिंह के राज्य की सीमा पूर्व में यमुना नदी तक न बढ़े क्योंकि इससे दिल्ली के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता था।
- रणजीतसिंह का राज्य पंजाब में शक्तिशाली बना रहे ताकि अफगान आक्रमण से दिल्ली की रक्षा हो सके।
- सतलज के पूर्व के छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व बना रहे जिससे वे अंग्रेजी राज्य और रणजीतसिंह के राज्य के बीच बफर का काम करे।
रणजीतसिंह अंग्रेजों की नीयत को अच्छी तरह समझते थे, इसलिए उन्होंने अपने सतलज पार के तीसरे अभियान को रोकने में ही अपनी भलाई समझी क्योंकि आक्टरलोनी ने घोषणा कर दी थी कि सिख राज्य के प्रसार को शक्ति के द्वारा रोका जायेगा। एक बार तो ऐसा लगा कि दोनों पक्षों में युद्ध हो जायेगा, किंतु रणजीतसिंह ने अंततः समझौता करना ही श्रेयस्कर समझा। फलतः दोनों पक्षों के बीच 25 अप्रैल 1809 ई. को अमृतसर की संधि हो गई।
अमृतसर की संधि, 25 अप्रैल 1809 ई.
अमृतसर की संधि की प्रमुख धाराएँ इस प्रकार थीं-
- रणजीत सिंह और अंग्रेज दोनों एक-दूसरे से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये रखेंगे।
- सतलज नदी को सिख राज्य तथा तथा अंग्रेजी राज्य की सीमा माना गया।
- सतलज के उत्तर में रणजीतसिंह की सत्ता को स्वीकार कर लिया गया और वचन दिया गया कि वे उसमें हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
- सतलज के दक्षिण में रणजीतसिंह का अधिकार केवल उन क्षेत्रों पर स्वीकार किया गया जो मेटकाफ के आने के पहले रणजीतसिंह के अधिकार में थे। लेकिन इनमें भी सैनिकों की एक सीमित संख्या रखनी थी। अन्य सिख राज्य अंगेजों के संरक्षण में माने गये और रणजीतसिंह ने इन राज्यों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया।
- लुधियाना में अंग्रेज अपनी सेना रखेंगे।
- रणजीतसिंह को स्वतंत्र राजा और अंग्रेजों का मित्र स्वीकर किया गया।
अमृतसर की संधि का परिणाम
अमृतसर की संधि रणजीतसिंह की कूटनीतिक पराजय थी क्योंकि इस संधि के द्वारा सतलज के दक्षिण और पूरब में उनके राज्य के विस्तार को रोक दिया गया। इस संधि के अनुसार रणजीतसिंह को फरीदकोट और अंबाला पर से भी अपना अधिकार छोड़ना पड़ा। इसके बाद रणजीतसिंह ने अपने राज्य का विस्तार पश्चिम और उत्तर में किया। यह संधि अंग्रेजों की एक बड़ी कूटनीतिक सफलता थी क्योंकि बिना किसी युद्ध के उनका राज्य सतलज तक विस्तृत हो गया।
सिस-सतलज पार रियासतों पर अंग्रेजों का संरक्षण अमृतसर की संधि के पश्चात् 3 मई 1809 ई. को लार्ड मिंटो ने एक घोषणा द्वारा सतलज नदी के इस पार की रियासतों को अंग्रेजी संरक्षण में ले लिया। मिंटो की घोषणा में पाँच प्रावधान थे-
- मालवा और सरहिंद की रियासतों को रणजीत सिंह की सत्ता और प्रभाव से अंग्रेज रक्षा करेंगे।
- जिन रियासतों को अंग्रेजी संरक्षण में लिया गया है, वे किसी भी प्रकार की भेंट या कर आदि से मुक्त रहेंगी।
- इन रियासतों के शासक अपने आंतरिक प्रशासन में उसी प्रकार स्वतंत्र रहेंगे जैसे वे संरक्षण में लेने से पहले थे।
- यदि किसी कारणवश अंग्रेजी सेना को इन रियासतों से होकर जाना पड़े तो उसके शासक सेना की आवश्यकता की वस्तुओं का प्रबंध करेंगे।
- यदि इन रियासतों पर कोई शत्रु आक्रमण करेगा तो अंग्रेजी सेना के साथ इन रियासतों के सरदार भी शत्रु को निकालने में अपनी सेनाओं को अंग्रेजी सेनाओं में शामिल कर देंगे।
रणजीतसिंह की पश्चिम में विजय
अमृतसर की संधि के बाद रणजीतसिंह को सतलज के दक्षिण और पूर्व छोड़कर अन्य दिशाओं में राज्य-विस्तार करने का अवसर मिल गया। फलतः 1809-10 ई. में रणजीतसिंह ने गोरखों से कांगड़ा क्षेत्र छीन लिया। जब अंग्रेजों और गोरखों में युद्ध हुआ तो रणजीतसिंह ने गोरखों की सहायता करने से स्पष्ट इनकार कर दिया और अंग्रेजों के प्रति अपनी मित्रता को निभाया।
मुल्तान की विजय
अमृतसर की संधि के बाद रणजीतसिंह ने पश्चिम और उत्तर में अपने राज्य का विस्तार किया। 1802 ई. से 1807 ई. तक उन्होंने मुलतान विजय के लिए प्रयास किया था, किंतु सफलता नहीं मिली थी। 1818 ई. में रणजीतसिंह ने मोहकमसिंह को मुलतान पर आक्रमण करने भेजा, लेकिन उसे भी सफलता नहीं मिली। इसी प्रकार 1816-17 ई. में भी एक असफल प्रयत्न किया गया। अंततः 1818 ई. में रणजीतसिंह मुल्तान पर अधिकार करने में सफल रहे।
कश्मीर पर अधिकार
रणजीतसिंह ने कश्मीर पर आक्रमण करने के लिए 1813 ई. में सेना भेजी। इसी समय काबुल के शासक के एक मंत्री फतेह खाँ ने भी कश्मीर पर आक्रमण किया था। इस समय कश्मीर पर अतामुहम्मद रवैल शासन कर रहा था। रणजीतसिंह ने फतेह खाँ से समझौता कर लिया कि दो तिहाई भाग अफगानों को और एक तिहाई भाग सिखों को प्राप्त होगा। किंतु कश्मीर विजय के बाद फतेह खाँ ने रणजीतसिंह को एक तिहाई भाग नहीं दिया और उन्हें केवल कोहिनूर हीरा लेकर ही संतोष करना पड़ा।
1819 ई. में रणजीतसिंह ने खड्गसिंह तथा दीवान मोहमकम के नेतृत्व में एक विशाल सेना कश्मीर पर आक्रमण के लिए भेजी और कश्मीर को सिख राज्य का अंग बना लिया।
अटक पर अधिकार
1813 ई. में ही रणजीतसिंह ने अफगानों को पराजित करके अटक के किले पर अधिकार कर लिया। हजारा के युद्ध में रणजीतसिंह ने फतेह खाँ को पराजित किया, जिससे रणजीतसिंह की प्रतिष्ठा बढ़ गई।
डेराजात की विजय
1820 ई. में रणजीतसिंह ने डेरा गाजी खाँ को तथा 1822 ई. में डेरा इस्माइल खाँ के साथ ही मनकेरा, टाक, बन्नू और कुंदियान को जीत लिया। ब्रिटिश इतिहासकार जे. टी. व्हीलर के अनुसार अगर वह एक पीढ़ी पुराने होते, तो पूरे हिंदुस्तान को ही फतह कर लेते। 1836 ई. में रणजीतसिंह ने लद्दाख को भी जीत लिया।
पेशावर की विजय
पेशावर पर अधिकार करने के लिए रणजीतसिंह को अफगानों से अनेक युद्ध लड़ने पड़े। रणजीतसिंह ने तीन बार पेशावर को जीता, लेकिन हर बार उन्हें जल्दी ही पेशावर छोड़ना पडा। अंततः 1834 ई. में रणजीतसिंह के जनरल हरीसिंह नलवा ने पेशावर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। 1835 ई. में रणजीतसिंह ने शाहशुजा से संधि कर ली और सिंध के पश्चिमी तट के प्रदेशों को अपने राज्य में मिला लेने का अधिकार प्राप्त कर लिया।
इसके बाद भी काबुल के अफगान शासक दोस्त मुहम्मद ने कबाइलियों की सेना के साथ पेशावर पर आक्रमण कर अधिकार करने का प्रयास किया, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली। रणजीतसिंह के जनरल हरिसिह नलवा ने 1836 ई. में जमरूद के युद्ध में अफगानों को निर्णायक रूप से पराजित कर जमरूद का दुर्ग भी जीत लिया, यद्यपि इस युद्ध में वे मारे गये। इस प्रकार खैबर दर्रे तक का समस्त प्रदेश रणजीतसिंह के अधिकार में आ गया। इस प्रकार मुल्तान, पेशावर और कश्मीर जीतना रणजीतसिंह की बड़ी सफलताएँ थीं।
सैनिक सर्वोच्चता की स्थापना
1824 ई. तक रणजीतसिंह ने पश्चिम और उत्तर में विस्तार का कार्य पूरा कर लिया था। अब सिख राज्य के स्वरूप में परिवर्तन हो गया था। सिख राज्य का आधार सैनिक शक्ति था। अब सिख मिसलों के संगठन के स्थान पर सैनिक सर्वोच्चता की स्थापना हुई। रणजीतसिंह जानते थे कि इस विशाल सिख साम्राज्य को केवल सैनिक शक्ति के द्वारा ही संगठित और सुरक्षित रखा जा सकता है।
अमृतसर की संधि के बाद आंग्ल-सिख संबंध
आरंभ में 1808-1812 ई. के काल में रणजीतसिंह और अंग्रेजों के बीच अवश्विास बना रहा क्योंकि मिंटो ने जहां एक ओर सिख राज्य के प्रसार पर रोक लगा रखा था, वहीं दूसरी ओर रणजीतसिंह से मित्रता का संबंध भी बनाये रखा। रणजीतसिंह अंग्रेजों की ओर से सशंकित रहे, इसीलिए उन्होंने अंग्रेजों पर नजर रखने के लिए सतलज पर पिल्लौर नामक स्थान पर एक दुर्ग का निर्माण करवाया था। इस दौरान रणजीतसिंह ने अंग्रेजी फौज के भगोड़ों को शरण दी और यह भी कहा जाता है कि उन्होंने अंग्रेजों के विरूद्ध अमीर खाँ पिंडारी, बेगम समरू और होल्कर के साथ संघ बनाने के लिए गुप्त रूप से वार्ता भी की थी।
अमृतसर की संधि से सिख राज्य का विस्तार सतलज तक सीमित हो गया था और सतलज के पूर्व के सिस-सतलज के सिख राज्य अंग्रेजों के संरक्षण में थे। अब मिंटो रणजीतसिंह को शक्तिशाली बनाना चाहता था ताकि वह अफगान आक्रमण को रोकने में समर्थ हो सके। दूसरी ओर रणजीतसिंह को अंग्रेजों पर अविश्वास था क्योंकि अंग्रेजों ने लुधियाना से अपनी सेनाएँ नहीं हटाई थी। दरअसल रणजीत सिंह के दरबार में दो गुट थे- एक अंग्रेजों से मित्रता करने के पक्ष में था और दूसरा अंग्रेजों से युद्ध करने के पक्ष में। मिंटो को आशंका थी कि कहीं युद्ध न शुरू हो जाए, इसलिए उसने लुधियाना से अपनी सेना को नहीं हटाया था।
किंतु 1810 ई. के बाद से रणजीतसिंह को अंग्रेजों पर विश्वास होने लगा क्योंकि मिंटो ने कांगड़ा के राजा, मुल्तान के नवाब और नेपाल के सेनापति को रणजीतसिंह के विरूद्ध सहायता देने से इनकार कर दिया। यही नहीं, 1812 ई. में मिंटो ने रणजीतसिंह ने बेटे खड्गसिंह के विवाह-समारोह में भाग लेने के लिए आक्टरलोनी को भेजा था।
1812 ई. के बाद रणजीतसिंह ने भी कई अवसरों पर अंग्रेजों को सहायता देने का प्रस्ताव किया। 1815 ई. में उन्होंने नेपाल युद्ध के समय सहायता का प्रस्ताव किया। 1821 ई. में रणजीतसिंह ने अंग्रेजों के विरूद्ध भोसले को सहायता देने से इनकार कर दिया। गवर्नर जनरल लार्ड एमहर्स्ट के समय में राजदूतों का आदान-प्रदान हुआ। 1826 में रणजीतसिंह के अस्वस्थ होने पर अंग्रेजों ने उनके इलाज के लिए डा. मरी को भेजा था।
आंग्ल-सिख तनाव
1818-1821 ई. के काल में आंग्ल-सिख संबंधों में तनाव बना रहा। अंग्रेज सतलज के उत्तर में शक्तिशाली राज्य नहीं चाहते थे। अमृतसर की संधि से उन्होंने रणजीतसिंह की शक्ति को सीमित कर दिया था। 1823 ई. में अंग्रेजों ने सिद्धांत प्रतिपादित किया कि रणजीतसिंह का नियंत्रण उन्हीं क्षेत्रों पर माना जायेगा, जहाँ उनके कर्मचारी शासन करते हों अथवा जहाँ के जागीरदार उनके प्रति निष्ठा रखते हों। इस आधार पर अंग्रेजों ने बढ़नी, फिरोजपुर पर अधिकार कर लिया, लेकिन दोनों पक्षों के मध्य सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न सिंध का लेकर था।
सिंध प्रांत का विवाद
रणजीतसिंह सिंध पर अधिकार करना चाहते थे, जबकि दूसरी ओर अंग्रेज आर्थिक और सामरिक कारणों के अलावा महाराजा को घेरने की नीयत से सिंध पर अधिकार करने को लालायित थे। 1831 ई. में लार्ड विलियम बैंटिक ने कैप्टन बर्न्स को सिंधु का सर्वेक्षण करने के लिए सिंधु नदी के रास्ते से लाहौर भेजा। इसके लिए बहाना बनाया गया कि कैप्टन बर्न्स महाराजा को घोड़े भेंट करने के लिए गया था।
रोपड़ की भेंट
सिंध प्रांत के विवाद को लेकर अक्टूबर 1831 में रणजीतसिंह ने ब्रिटिश अधिकारियों से भेंट की थी। अंग्रेज सिंध पर अधिकार करने के लिए कृत-संकल्प थे, किंतु विलियम बैंटिक रूसी आक्रमण के भय से रणजीतसिंह को नाराज नहीं करना चाहता था, इसलिए उसने रोपड़ नामक स्थान पर रणजीतसिंह से भेंट की। बैंटिक ने यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया कि सिख और अंग्रेजों में मित्रता है, जबकि रणजीतसिंह ने यह दिखाने का प्रयास किया कि ब्रिटिश सरकार उसे खालसा सिखों में मुखिया के रूप में स्वीकार करती है। सिंध में प्रभाव स्थापित करने के लिए अंग्रेजों ने पोजिंटर को भेजा। 1834 ई. में जब रणजीतसिंह ने शिकारपुर पर अधिकार कर लिया, तो उन्हें अंग्रेजों की धमकी के कारण शिकारपुर छोड़ना पड़ा। इस समय कई सिख सरदार अंग्रेजों से दो-दो हाथ करने को तैयार हो गये थे। 1835 ई. में अंग्रेजों ने फिरोजपुर पर अधिकार कर लिया और कालांतर में 1838 ई. में उसे सैनिक छावनी बना लिया।
इस समय अंग्रेजों का पंजाब एवं सिंध को छोड़कर संपूर्ण भारत पर अधिकार था और वे बहुत शक्तिशाली थे। रणजीतसिंह जानते थे कि अगर अंग्रेजों से संघर्ष किया गया, तो उनका राज्य नष्ट हो जायेगा। अतः उन्होंने अंग्रेजों से सौहार्दपूर्ण संबंध बनाये रखने में ही सिख राज्य का कल्याण समझा। वस्तुतः अंग्रेजों के नियंत्रण से मुक्त एक स्वतंत्र सिख राज्य की स्थापना करना महाराज रणजीतसिंह की एक महान् सफलता थी।
त्रिपक्षीय संधि
ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड ऑकलैंड ने 1838 ई. में काबुल में अफगान सिंहासन पर शाह शुजा को बिठाने करने के लिए महाराजा रणजीतसिंह को एक त्रिपक्षीय संधि पर हस्ताक्षर करने का प्रस्ताव किया। रणजीतसिंह इस संधि के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि उन्हें पता था कि काबुल में अंग्रेजी प्रभाव का बढ़ना सिख राज्य के लिए खतरे की घंटी सिद्ध होगी। महाराजा नहीं चाहते थे कि अंग्रेजी सेनाएँ पंजाब से होकर जाये या अफगानिस्तान पर आक्रमण में सिख सेनाओं का उपयोग किया जाये। चूंकि महाराजा अंग्रेजों का सीधे विरोध करने की स्थिति में भी नहीं थे, इसलिए उन्होंने काबुल में अफगान सिंहासन पर शाह शुजा को बहाल करने के लिए ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड ऑकलैंड के साथ त्रिपक्षीय संधि पर अपनी सहमति दे दी, लेकिन इस शर्त पर कि अंग्रेजी सेना पंजाब से होकर सिंध में प्रवेश नहीं करेगी। 1838 ई. में आकलैंड ने महाराजा से भेंट की और रणजीतसिंह को आश्वासन दिया कि अंग्रेजी सेनाओं को पंजाब के रास्ते अफगानिस्तान नहीं भेजा जायेगा।
दरअसल सिंख राजा और अंग्रेज एक-दूसरे पर संदेह कर रहे थे। अंग्रेज सिख राजा को शक्तिशाली नहीं होने देना चाहते थे और रणजीतसिंह को अंग्रेजी विरोध के कारण शिकारपुर प्राप्त होने की कोई आाशा नहीं थी, इसलिए वह अंग्रेजों की कम-से-कम सहायता करना चाहते थे। इसी संदेह के वातावरण में 1839 ई. में त्रिपक्षीय संधि अंग्रेज, रणजीतसिंह और शाह शुजा के मध्य हुई। संधि के अनुसार ब्रिटिश सेना ने दक्षिण से अफगानिस्तान में प्रवेश किया, जबकि रणजीतसिंह की सेना ने खैबर दर्रे से होकर काबुल की विजय परेड में हिस्सा लिया।
रणजीतसिंह की मृत्यु
27 जून, 1839 ई. को 59 वर्ष की आयु में रणजीतसिंह की लाहौर में मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु के समय तक रणजीतसिंह ने एक संगठित सिख राज्य का निर्माण कर दिया था जो उत्तर में लद्दाख व इस्कार्टु तक, उत्तर-पश्चिम में सुलेमान की पहाड़ियों तक, दक्षिण-पूर्व में सतलज नदी तक एवं दक्षिण पश्चिम में शिकारपुर-सिंध तक फैला हुआ था। किंतु इस विस्तृत साम्राज्य में रणजीतसिंह कोई मजबूत शासन व्यवस्था प्रचलित नहीं कर सके और न ही सिखों में वैसी राष्ट्रीय भावना का संचार कर सके, जैसी शिवाजी ने महाराष्ट्र में पैदा की थी। रणजीतसिंह के उत्तराधिकारी अयोग्य एवं निर्बल सिद्ध हुए, इसलिए उनकी मृत्यु के 10 वर्षों बाद ही उनके द्वारा स्थापित साम्राज्य पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
रणजीतसिंह का प्रशासन
रणजीतसिंह के उदय के पूर्व सिख मिसलों का राज्य संघात्मक था मिसलों की शासन व्यवस्था लोकतंत्रात्मक थी। इन मिसलों की वार्षिक बैठक एक बार अमृतसर में होती थी, जहाँ सभी मिसलों के सरदार एक प्रधान का निर्वाचन करते थे। इसी बैठक में संघ की नीतियों का निर्धारण होता था। बाह्य संकट का सामना प्रायः सभी मिसलें एकजुट होकर करती थीं।
रणजीतसिंह ने मिसलों को जीतकर राज्य स्थापित किया था। यद्यपि प्रशासन की संपूर्ण शक्ति महाराजा में केंद्रित थी, किंतु वे हितकारी स्वेच्छाचारी शासक थे। एक प्रबुद्ध निरंकुश शासक होते हुए रणजीतसिंह ने खालसा के नाम पर शासन किया, इसलिए उनकी सरकार को ‘सरकार-ए-खालसा जी’ कहा जाता था। यद्यपि शासन का मूलाधार महाराजा थे, किंतु उनकी सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद् भी होती थी, जिससे आवश्यक विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता था।
रणजीत सिंह का मंत्रिपरिषद्
महाराजा रणजीतसिंह की सहायता के लिए मंत्रिपरिषद् में पाँच मंत्री होते थे, जैसे मुख्य मंत्री (ध्यान सिंह डोगरा), विदेश मंत्री (फकीर अजीजुद्दीन), रक्षा मंत्री (दीवान मोहकमचंद, दीवानचंद और हरीसिंह नलवा), वित्त मंत्री (भवानीदास), सदर ड्योढी, जो राजमहल और राज घराने की देखभाल करता था।
रणजीत सिंह के प्रमुख प्रशासनिक विभाग
रणजीतसिंह की केंद्रीय सरकार में 12 प्रशासनिक विभाग थे-
दफ्तर-ए-असवाब-उल-माल : यह राजस्व विभाग था जो राज्य की आय का विवरण रखता था। यह विभाग दो भागों में बँटा था- जमा खर्चे तअल्लुका और जमा खर्चे सायर। जमा खर्चे तअल्लुक विभाग भू-राजस्व की आय का विवरण रखता था जबकि जमा खर्चे सायर विभाग अन्य करों से होनेवाली आय का विवरण रखता था।
दफ्तर-ए-तौजीहत : दफ्तर-ए-तौजीहत विभाग राज्य के व्यय का हिसाब-किताब रखता था।
दफ्तर-ए-मवाजिब : दफ्तर-ए-मवाजिब विभाग वेतन का विवरण रखता था जिसमें सैनिकों का वेतन भी शामिल था।
दफ्तर-ए-रोजानामचा-ए-खर्च : दफ्तर-ए-रोजानामचा-ए-खर्च विभाग खर्चे खास अर्थात् महाराजा के व्यय का हिसा रखता था।
रणजीतसिंह का प्रांतीय प्रशासन
प्रशासनिक सुविधा के लिए रणजीतसिंह का राज्य 4 सूबों (प्रांतों) में बंटा हुआ था- पेशावर, कश्मीर, मुल्तान और लाहौर। प्रत्येक सूबे में कई परगने होते थे। परगनों का विभाजन ताल्लुकों में किया गया था। प्रत्येक ताल्लुके में 50 से 500 गाँव या मौजे होते थे।
सूबे का प्रमुख अधिकारी नाजिम होता था जो सूबे में शांति-व्यवस्था बनाये रखने के साथ ही साथ दीवानी तथा फौजदारी के न्यायिक कार्य भी करता था। प्रत्येक ताल्लुका में एक कारदार होता था और उसके कार्य भी नाजिम के समान होते थे। स्थानीय प्रशासन के रूप में गांव में पंचायतें प्रभावशाली ढंग से कार्य करती थीं।
रणजीत सिंह की भू-राजस्व-व्यवस्था
रणजीतसिंह के राजस्व का मुख्य स्रोत भू-राजस्व था जिसे बड़ी कठोरता से वसूल किया जाता था। सरकार उपज का का 2/5 से 1/3 भाग अर्थात् 33 से 40 प्रतिशत भू-राजस्व के रूप में वसूल करती थी। महाराजा अपने कृषकों से अधिक से अधिक कर प्राप्त करने का प्रयत्न करता था, किंतु वह कृषकों के हितों की रक्षा भी करता था और सैन्य-अभियानों के दौरान सेना को आज्ञा थी कि खेतों को नष्ट न किया जाए।
पा्ररंभ में राजस्व संग्रह बँटाई प्रणाली के आधार पर किया जाता था। 1823 ई. में रणजीतसिंह ने कनकूत प्रणाली अपनाई। 1835 ई. में महाराजा ने भू-राजस्व की वसूली का अधिकार नीलामी के आधार पर सबसे ऊँची बोली बोलनेवाले को देना आरंभ किया था। ठेके तीन से छः वर्षों के लिए दिये जाते थे।
भू-राजस्व के अलावा अन्य करों से भी राज्य की आय होती थी, जिन्हें सामूहिक रूप से ‘सायर’ कहा जाता था। इसके अंतर्गत नजराना, जब्ती, आबकारी, वजूहात-ए-मुकर्ररी, चौकियात आते थे। महाराजा को विशेष अवसरों पर धनी प्रजा, अधीन सरदारों, पराजित शासकों द्वारा जो उपहार दिया जाता था, उसे नजराना कहते थे। भ्रष्ट और लापरवाह अधिकारियों से जुर्माने के रूप में वसूल किये गये धन को जब्ती कहा जाता था। कभी-कभी राज्य अपने द्वारा प्रदत्त भूमि को वापस ले लेता था, उसे भी जब्ती कहा जाता था। न्यायालयों से जुर्माने या फीस के रूप में होनेवाली आय को वजूहात-ए-मुकर्ररी कहा जाता था।
चौकियात के अंतर्गत वे कर आते थे जो दैनिक उपभोग की वसतुओं पर लगाये गये थे। इन करों को 48 मदों में विभाजित किया गया था और इनकी वसूली नगद की जाती थी।
इस प्रकार रणजीतसिंह पंजाब में पिछली अर्द्धशताब्दी से व्याप्त अराजकता और लूटमार को समाप्त कर एक शांतिपूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था देने में सफल रहे। उनकी दूसरी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने सिखों की एक अनियमित संघीय व्यवस्था को एकीकृत राज्य प्रणाली में बदल दिया।
रणजीतसिंह की न्याय-व्यवस्था
रणजीतसिंह की न्याय प्रणाली कठोर, किंतु तुरंत थी। आजकल की तरह न्यायालयों की श्रृंखला नहीं थी। न्याय प्रायः स्थानीय प्रश्न था न कि राज्य का। मुस्लिम प्रकरणों का न्याय काजी करता था। स्थानीय प्रशासक स्थानीय परंपराओं के अनुसार न्यायिक कार्य संपन्न करते थे। ताल्लुकों में कारदार और ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतें को न्यायिक कार्य करती थीं। राजधानी लाहौर में एक ‘अदालत-ए-आला’ (आधुनिक उच्च न्यायालय के समान) था, जहाँ संभवतः महाराजा स्वयं विवादों का निपटारा करते थे। यद्यपि अंग-विच्छेदन का दंड कभी-कभार दिया जाता था, लेकिन मृत्युदंड देने की प्रथा नहीं थी। अपराधियों पर बड़े-बड़े जुर्माने लगाये जाते थे, जिससे राज्य को पर्याप्त आय होती थी।
रणजीतसिंह की सैन्य-व्यवस्था
रणजीतसिंह के राज्य का प्रमुख आधार सैनिक शक्ति था। रणजीतसिंह ने छोटे-छोटे मिसलों को जोड़कर जिस सिख राज्य का निर्माण किया था, जिसे एक सशक्त सेना के बल पर ही संगठित रखा जा सकता था। इसलिए उन्होंने अपनी सैन्य-व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया। रणजीतसिंह भारतीय सेना की परंपरागत दुर्बलता से परिचित थे। उन्हें पता था कि अनियमित सेनाएँ, घटिया अस्त्र-शस्त्र से लैस बिना उचित प्रशिक्षण के समय की माँग को पूरा नहीं कर सकती हैं।
रणजीतसिंह ने कंपनी की तर्ज पर अपनी सेना का आधुनिकीकरण करने का प्रयास किया। उनकी सेना तीन भागों में विभाजित थी- फौज-ए-आम, फौज-ए-खास और फौज-ए-बेकवायद।
फौज-ए-आम
रणजीतसिंह की नियमित सेना को फौज-ए-आम कहा जाता था। इस सेना को फौज-ए-कवायद भी कहते थे। फौज-ए-आम के तीन भाग थे- पदाति, अश्वारोही और तोपखाना। रणजीतसिंह ने विदेशी कमांडरों, विशेषकर फ्रांसीसी कमांडरों की सहायता से अपनी सेना को प्रशिक्षित करवाया। सैनिकों को नियमित रूप से ड्रिल और अनुशासन आदि का प्रशिक्षण दिया जाता था।
पदाति सेना
फ्रांसीसी प्रशिक्षकों के प्रभाव के कारण रणजीतसिंह ने अश्वारोही सेना की अपेक्षा पैदल सेना को अधिक महत्व दिया था। पैदल सेना बटालियनों में संगठित थी। प्रत्येक बटालियन में 900 सैनिक होते थे। वे छावनी में रहते थे और उन्हें नियमित रूप से मासिक वेतन दिया जाता था जिसे ‘माहदारी’ कहा जाता था।
अश्वारोही सेना
रणजीतसिंह की अश्वारोही सेना के तीन भाग थे-नियमित घुड़सवार, अनियमित अश्वारोही या घोड़-चेहरा और जागीरदारों के अश्वारोही सैनिक। नियमित घुड़सवार सेना का सेनापति एक भूतपूर्व फ्रांसीसी सैनिक था। अनियमित अश्वारोही सेना में पुराने सिख सरदारों के सदस्य लिये जाते थे। इन्हें नियमित ड्रिल नहीं दी जाती थी, किंतु अच्छा वेतन जरूर मिलता था। तीसरी श्रेणी में जागीरदारों की अश्वारोही सेना थी, जिसे ‘मिसलदार’ कहते थे।
आरंभ में अश्वारोही सेना में पठान, राजपूत, डोगरे आदि भरती होते थे, लेकिन बाद में यह सेना सिखों में लोकप्रिय हो गई और बड़ी संख्या में सिख इसमें भरती होने लगे। अश्वारोही सेना को रिसालों में विभाजित किया गया था। इनका वेतन पैदल सैनिकों से अधिक होता था।
तोपखाना
रणजीतसिंह ने अनुभव और आवश्यकता के अनुसार अपने तोपखाने का विकास किया। तोपखाने के संगठन का रूप् 1814 ई. में निश्चित हुआ। संपूर्ण तोपखाने को तीन भागों में बाँटा गया था- तोपखाना-ए-जिंसी, तोपखाना-ए-आस्पी और जंबूरखाना। औसतन 10 तोपों पर 250 लोग नियुक्त किये जाते थे। तोपखाने का संगठन और संचालन यूरोपीय अधिकारी करते थे।
तोपें चार प्रकार की होती थीं, जैसे तोपखना-ए-शुतरी, तोपखाना-ए-फील, तोपखाना-ए-असपी और तोपखाना-ए- गावी। यह विभाजन उन पशुओं के आधार पर किया गया था जो तोपों को ले जाते थे।
फौज-ए-खास
रणजीतसिंह ने 1822 ई. फ्रांसीसी विशेषज्ञों जनरल बेंचुरा और एलार्ड के द्वारा एक विशेष आदर्श सेना का गठन करवाया, जिसे ‘फौज-ए-खास’ कहते थे। इस सेना में कुछ चुने हुए श्रेष्ठ सैनिक होते थे। पूर्ण रूप से फ्रांसीसी आधार पर गठित इस सेना का विशेष चिन्ह होता था और ड्रिल आदि के लिए फ्रांसीसी भाषा के शब्दों का प्रयोग किया जाता था। रणजीतसिंह की इस आदर्श सेना में चार पैदल बटालियन, तीन घुड़सवार रेजीमेंट और 24 तोपें थीं। बेंचुरा फौज-ए-खास की पैदल सेना का, एलार्ड अश्वारोही सेना का और इलाहीबख्श तोपखाने के कार्यवाह थे। रणजीतसिंह ने 1827 ई. में जनरल कोर्ट एवं 1832 ई. में गार्डनर की नियुक्ति कर अपने तोपखाने का पुनर्गठन करवाया। उन्होंने लाहौर और अमृतसर में तोपें, गोला और बारूद बनाने के कारखाने लगाये और सेना की साज-सज्जा और गतिशीलता पर विशेष बल दिया।
फौज-ए-बेकवायद
फौज-ए-बेकवायद अनियमित सेना थी जो दो भागों में बंटी थी-घुड़चढ़ा खास और मिसलदार। घुड़चढ़ा खास में भू-स्वामी वर्ग के लोग होते थे, जबकि मिसलदार सेना में ऐसे मिसलदार थे जिनके राज्यों को रणजीतसिंह ने जीत लिया था।
घुड़चढ़ा खास की भरती जमींदर वर्ग में से होती थी, वे अपने हथियार और घोड़े स्वयं लाते थे। राज्य उन्हें भूमि या जागीर के रूप में वेतन देता था, किंतु बाद में उन्हें नगद वेतन दिया जाने लगा था।
मिसलदारों में वे छोटे-छोटे सरदार सम्मिलित होते थे, जिन्हें रणजीतसिंह ने जीत लिया था। वे विभिन्न अश्वारोही दलों का नेतृत्व करते थे। धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई और नियमित सेना में भी इनकी संख्या अधिक हो गई। यह अनियमित सेना डेरों मे विभाजित थी और प्रत्येक डेरे को मिसल कहा जाता था। मिसल का अधिकारी एक उच्च सरदार होता था। 1838 ई. में आकलैंड ने इन घुड़चढ़ों को देखा था और इन्हें संसार की ‘सबसे सुंदर फौज’ कहा था।
यद्यपि रणजीतसिंह अपनी सेना को नगद वेतन देते थे, किंतु संभवतः इनका चार महीने का वेतन शेष रहता था। वेतन-वितरण की दृष्टि से सेना तीन भागों में बंटी थी- फौज-ए-सवारी, फौज-ए-आम और फौज-ए-किलाजात। फौज-ए-सवारी का वेतन दीवान देता था, फौज-ए-आम का वेतन बख्शी देता था जबकि फौज-ए- किलाजात का वेतन थानदारों द्वारा दिया जाता था।
रणजीतसिंह की सेना में विभिन्न विदेशी जातियों के 39 अधिकारी कार्य करते थे, जिनमें फ्रांसीसी, जर्मन, अमेरिकी, यूनानी, रूसी, अंग्रेज, एंग्लो-इंडियन, स्पेनिश आदि थे। ऐसे अधिकारियों में जेम्स, गार्डनर, बेंचुरा, एलार्ड, कोर्ट और एविटेबाइल प्रमुख थे। इन विदेशी अधिकारियों को न केवल पंजाब में बसने के लिए प्रोत्साहित किया गया, बल्कि कइयों को सिविल प्रशासन में ऊंचे पद भी प्रदान किये गये जैसे- बेंचुरा कुछ समय के लिए डेराजात का गवर्नर था और और एविटेबाइल को 1837 ई. में पेशावर का गवर्नर बनाया गया था।
रणजीतसिंह की धार्मिक नीति
रणजीतसिंह एक दूरदर्शी और लोकोपकारी शासक थे, जिनकी उदारता और सहिष्णुता की भावना की प्रायः सभी इतिहासकारों ने प्रशंसा की है। रणजीतसिंह ने बिना किसी धार्मिक भेदभाव के सभी जातियों के लोगों को योग्यतानुसार पदों पर नियुक्त किया। उन्होंने सिखों के अलावा, हिंदुओं, डोगरों एवं मुसलमानों को उच्च पद प्रदान किये। रणजीतसिंह के प्रधानमंत्री राजा ध्यानसिंह डोगरा राजपूत, विदेश मंत्री फकीर अजीजुद्दीन मुसलमान और वित्तमंत्री दीनानाथ ब्राह्मण थे। उन्होंने हिंदुओं और सिखों से वसूले जानेवाले जजिया पर रोक लगाई और कभी भी किसी को सिख धर्म अपनाने के लिए बाध्य नहीं किया। उन्होंने अमृतसर के हरमिंदर साहिब गुरुद्वारे का जीर्णोद्धार कर सोना मढ़वाया और उसी समय से उसे ‘स्वर्ण मंदिर’ कहा जाने लगा।
वियेना कांग्रेस (Vienna Congress)
रणजीतसिंह का मूल्यांकन
रणजीतसिंह में असाधारण सैनिक गुण, नेतृत्व और संगठन की क्षमता विद्यमान थी। अफगानों, अंग्रेजों तथा अपने कुछ सहधर्मी सिख सरदारों के विरोध के बावजूद रणजीतसिंह ने अपनी योग्यता के बल पर एक संगठित सिख राज्य का निर्माण कर खालसा का आदर्श सथापित किया, जिसके कारण उनकी गणना उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की महान् विभूतियों में की जानी जाती है। एक फ्रांसीसी पर्यटक विक्टर जैकोमांट ने महाराजा रणजीतसिंह की तुलना नेपोलियन महान् से की है। बैरन फान ह्यूमल ने लिखा है कि ‘‘संभवतः इतना विस्तृत राज्य इतने थोड़े अपराघों से कभी नहीं बना।’’
वास्तव में रणजीतसिंह एक यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे, जिन्हें समय और परिस्थति की अच्छी समझ थी। रणजीत सिंह ने न तो अंग्रेजों से कोई युद्ध किया और न ही उनकी सेना को किसी भी बहाने से अपने राज्य में अंदर घुसने दिया।
वास्तव में रणजीतसिंह के प्रति अंग्रेजों की नीति सदैव आक्रामक और अन्यायपूर्ण रही यद्यपि वे सदैव मित्रता का ढोंग करते थे। इसके साथ ही वे सदैव रणजीतसिंह को घेरने की चालें चलते रहे। सच तो यह है कि अंग्रेजों ने रणजीत सिंह के साथ अपने किये गये वादों को कभी नहीं निभाया। उन्होंने सतलज के पश्चिम में भी रणजीतसिंह की शक्ति को कम करने का प्रयास किया।
रणजीतसिंह ने सदैव संधियों का पालन किया और उन्होंने अंग्रेजों के प्रति अपनी मित्रता की नीति को कभी नहीं त्यागा। कुछ विद्वान रणजीतसिंह की इस बचाव की नीति को ‘कायरतापूर्ण’ बताते हैं और आरोप लगाते हैं कि रणजीतसिंह ने अपने राज्य की रक्षा करने के स्थान पर ‘घुटने टेकने की नीति’ को अपनाई। रणजीतसिंह ने कभी भी अंग्रेजों के विरूद्ध शानदार साहस का प्रदर्शन नहीं किया।
वास्तव में रणजीतसिंह अपनी सामरिक दुर्बलता से परिचित थे और तत्कालीन परिस्थति में अपने नवगठित सिख राज्य को बचाये रखने के लिए ही अंग्रेजों से सीधे संघर्ष में बचते रहे। उनकी मुख्य सफलता सिख राज्य स्थापित करने में थी जिसकी वे अपने जीते-जी रक्षा करने में सफल रहे।
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