यूरोपीय राष्ट्रों में शताब्दियों से पारस्परिक ईर्ष्या और संदेह की भावना विद्यमान रही थी। स्पेन तथा फ्रांस, फ्रांस और इंग्लैंड, जर्मनी तथा पूर्वी यूरोप के देश और उनके साथ-साथ लगे हुए छोटे देश, सभी एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी थे। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सभी राष्ट्रों को इसकी कीमत जन-धन की भारी हानि के रूप में चुकानी पड़ी थी। पेरिस शांति-सम्मेलन में भविष्य में यूरोप तथा विश्व को भयानक युद्धों से बचाने और शांति एवं सुरक्षा की स्थापना के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति विडरो विल्सन की योजना के अनुसार 1920 में जेनेवा नगर मे राष्ट्रसंघ की स्थापना की गई थी।
राष्ट्रसंघ निशस्त्रीकरण के सिद्धांत को लागू करके राष्ट्रों को सुरक्षा दे सकता था क्योंकि संघ के द्वारा यह व्यवस्था की गई थी कि राष्ट्रों को सुरक्षा और शांति देने के लिए विभिन्न राष्ट्र अपने शस्त्रास्त्रों को उस सीमा तक कम कर लेंगे जहाँ तक राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई खतरा न पहुँचे, किंतु कोई भी राष्ट्र सुरक्षा के नाम पर निःशस्त्रीकरण करने के लिए तैयार नहीं था।
निःशस्त्रीकरण की समस्या को लेकर विभिन्न राष्ट्रों में आपस में ही मतभेद था क्योंकि एक राष्ट्र की सुरक्षा दूसरे राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती थी। स्वयं फ्रांस अपने शस्त्रों को कम करने के लिए तैयार नहीं था। चूंकि शांति-संधियों तथा राष्ट्रसंघ की व्यवस्था पर यूरोपीय राष्ट्रों को पूरा विश्वास नहीं था, इसलिए वे परस्पर सुरक्षा के अन्य उपाय भी ढूढते रहे, जैसे-राष्ट्रसंघ द्वारा स्थापित व्यवस्था के अंतर्गत सुरक्षा के प्रयत्न, विभिन्न राष्ट्रों के साथ आपसी सुरक्षा-समझौते, हथियारों की होड़ पर नियंत्रण रखने के लिए व्यापक निःशस्त्रीकरण के प्रयास आदि।
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फ्रांस की सुरक्षा की समस्या (France’s Security Problem)
प्रथम विश्वयुद्ध में विजयी राष्ट्रों में से एक फ्रांस अपनी सुरक्षा को लेकर सबसे अधिक गंभीर और चिंतित था। विश्वयुद्ध में फ्रांस को जन-धन की अपार हानि हुई थी। आंतरिक समस्याओं में उलझा हुआ फ्रांस मानसिक रूप से असुरक्षा की भावना से पीड़ित था। वह भलीभाँति जानता था कि विश्वयुद्ध में सफलता उसे दूसरों की सहायता से मिली थी। यद्यपि पराजित जर्मनी के साथ वर्साय की संधि द्वारा उसे यथासंभव शक्तिहीन कर देने का प्रयत्न मित्रराष्ट्र कर चुके थे, फिर भी फ्रांस अपने अनुभव के कारण उससे सशंकित था। फ्रांस की यह आशंका निर्मूल भी नहीं थी। पिछले सौ वर्षों में तीन बार जर्मनी की सेनाएँ राइन पार कर चुकी थीं। दो बार वे पेरिस में घुस चुकी थीं और तीसरी बार उत्तरी फ्रांस को तहस-नहस कर चुकी थीं। विश्वयुद्ध में जर्मनी हार तो गया था, लेकिन अभी भी जर्मनी की शक्ति उससे (फ्रांस से) अधिक थी।
फ्रांस में सुरक्षा-प्रयत्नों के लिए सर्वाधिक रूचि लेनेवाला नेता पोइन्कर था। लारेन का मूल निवासी होने के कारण उसे जर्मनी से जन्मजात घृणा थी। उसका विचार था कि जब तक जर्मनी आर्थिक और सैनिक दृष्टि से शक्तिशाली है तथा उसकी जनसंख्या वृद्धि दर फ्रांस से अधिक है, तब तक फ्रांस के लिए यह परम आवश्यक है कि उसकी सुरक्षा एवं सहायता के लिए लौह-आवरण युक्त गारंटी प्राप्त होती रहे।
फ्रांस की अपनी सुरक्षा के लिए अधिक चिंताशील होने का एक कारण यह भी था कि महायुद्ध के पूर्व उसके साथ रूस जैसा मित्र था, किंतु महायुद्ध के दौरान रूस में बोल्शेविक क्रांति होने से जारशाही की समाप्ति हो गई थी और फ्रांस का यह आसरा भी समाप्त हो गया था।
फ्रांस अपनी सुरक्षा को लेकर इंग्लैंड और अमरीका से भी निराश हो चुका था। वर्साय की संधि भी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं थी क्योंकि अमरीका की सीनेट ने न तो शांति-संधियों का अनुमोदन किया था और न ही अमरीका राष्ट्रसंघ का सदस्य बना था। यह स्थिति फ्रांस के लिए खतरनाक थी, इसलिए सभी ओर से निराश होकर उसने अपने लिए भौगोलिक सुरक्षा की माँग शुरू कर दी।
भौगोलिक गारंटी : अपनी भावी सुरक्षा के लिए फ्रांस ने पेरिस शांति-सम्मेलन में मांग की कि राइन नदी के बायें तट के प्रदेश को जर्मनी से अलग करके एक राज्य बना दिया जाए और यह प्रदेश फ्रांस की अधीनता में रहे। फ्रांस इस व्यवस्था को ‘भौगोलिक गारंटी’ का नाम देता था। यद्यपि राष्ट्रपति विल्सन और लायड जार्ज के विरोध के कारण फ्रांस की सीमा राइन नदी तक नहीं बढ़ी, फिर भी फ्रांस वर्साय की संधि में यह व्यवस्था कराने में सफल रहा कि राइन नदी के बायें तट के प्रदेश पर पंद्रह वर्षों तक मित्र राष्ट्रों की सेनाओं का कब्जा रहेगा ओर इन सेनाओं के हटने पर भी जर्मनी यहाँ कोई किलेबंदी नहीं कर सकेगा।
इसके बाद फ्रांस ने कोशिश की कि अमरीका तथा इंग्लैंड उसके साथ एक त्रिदलीय संधि कर लें और उसे इस बात की गारंटी दें कि भविष्य में यदि जर्मनी फ्रांस पर आक्रमण करे तो वे उसकी पूरी-पूरी सहायता करेंगे। किंतु ब्रिटेन और अमरीका ने ऐसा कोई वादा करने से इनकार कर दिया।
ब्रिटेन और अमरीका की अपनी सुरक्षा के मामलों में बेरूखी देखकर फ्रांस ने भौगोलिक गारंटी की आशा छोड़ दी और जर्मनी के आक्रमण से बचने के लिए कूटनीतिक दाँवपेंच में लग गया। अब फ्रांस ने एक ओर वर्साय संधि एवं वर्तमान व्यवस्था को बनाये रखने के इच्छुक देशों के साथ मैत्री-संधियों के जाल द्वारा अपने को सुरक्षित करना चाहा तो दूसरी ओर उसने राष्ट्रसंघ के द्वारा भी आक्रमण के विरूद्ध सुरक्षा की गारंटी प्राप्त करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार फ्रांस ने सुरक्षा के लिए न केवल अनेक देशों से समझौते किये और राष्ट्रसंघ के तत्ववाधान में भी अनेक सुरक्षा-संधियाँ संपन्न हुईं।
पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि (Paris Peace Conference and Treaty of Versailles)
राष्ट्रसंघ के बाहर प्रयास (Outside Efforts of the League of Nations)
बड़े राष्ट्रों से अपनी सुरक्षा का आश्वासन न मिलने पर फ्रांस यूरोप के अन्य छोटे-छोटे राज्यों के साथ समझौता करके अपनी स्थिति को सुरक्षित करने के लिए प्रयत्नशील हो गया।
बेल्जियम से संधि, 1920 (Treaty with Belgium, 1920)
फ्रांस ने छोटे राज्यों को मिलाकर गुटबंदी करने की दिशा में सबसे पहले बेल्जियम के साथ 7 सितंबर 1920 को एक संधि किया। यद्यपि इस संधि की सूचना राष्ट्रसंघ को दे दी गई थी, किंतु संधि की शर्तें गुप्त रखी गई थीं। इतना अवश्य घोषित कर दिया था कि फ्रांस तथा बेल्जियम जर्मनी के आक्रमण से अपनी रक्षा के लिए सैनिक दृष्टि से एक हो गये हैं।
पोलैंड के साथ संधि , 1921 (Treaty with Poland, 1921)
फ्रांस की तरह पोलैंड को भी जर्मनी से खतरा था क्योंकि पोलैंड का निर्माण करते समय राष्ट्रीयता के सिद्धांत का उल्लंघन करके पोलैंड में ऐसे प्रदेशों को शामिल किया गया था जिन्हें जर्मनी का अंग होना चाहिए था। पोलैंड की तीन करोड़ जनसंख्या में जर्मन जाति के भी बहुत नागरिक थे। इस कारण पोलैंड को सदैव जर्मनी के आक्रमण की आशंका बनी रहती थी। चूंकि फ्रांस और पोलैंड दोनों की आवश्यकता एक थी, इसलिए जर्मन आक्रमण की आशंका ने दोनों के मध्य समझौते का वातावरण तैयार किया। फ्रांस ने पालैंड को रूस के विरूद्ध सैनिक, धन एवं शस्त्रास्त्र की सहायता देकर अपनी ओर आकर्षित किया और 19 फरवरी 1921 को फ्रांस तथा पोलैंड दोनों संधि-सूत्र में बंध गये। संधि में दोनों ने तय किया कि आपसी हितों के मामले में एक-दूसरे से परामर्श करेंगे तथा आक्रमण के समय एक-दूसरे का सहयोग करेंगे। दोनों ने 1922 में इस संधि की संपुष्टि की तथा 1923 में इसे दस वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया। संधि में एक गुप्त शर्त भी रखी गई थी जिसके द्वारा फ्रांस को पोलिश सेना को सुसज्जित करने के लिए उदार शर्तों पर पोलैंड को युद्ध-सामग्री की सहायता देना था।
ब्रिटेन से संधि का पुनः प्रयास (Treaty Retries from Britain)
बेल्जियम और पोलैंड से संधि के बाद भी फ्रांस अपनी सुरक्षा को लेकर शंकित था। उसने 1922 में पुनः ग्रेट ब्रिटेन से संधि का प्रस्ताव रखा। ब्रिटेन फ्रांस पर जर्मनी का आक्रमण होने पर सहायता देने के लिए तैयार था, लेकिन फ्रांस यह भी चाहता था कि जर्मनी के पोलैंड पर आक्रमण करने पर भी वह सहायता दे जिसके लिए ब्रिटेन तैयार नहीं हुआ और संधि नहीं हो सकी।
वास्तव में इंग्लैंड और फ्रांस सदैव एक-दूसरे के विरोधी रहे। परिस्थितिवश 1904 में दोनों के बीच समझौता हुआ था। इसलिए विश्वयुद्ध के बाद 1918 के बाद जैसे ही विराम-संधि पर हस्ताक्षर हुए, दोनों देश अपने-अपने हित-साधन में जुट गये। लायड जार्ज फ्रांस द्वारा जर्मनी के पूर्ण विनाश का विरोधी था। इंग्लैंड के औद्योगिक विकास के लिए स्वतंत्र, संतुष्ट और समृद्धिशाली जर्मनी की आवश्यकता थी। इसलिए इंग्लैंड ने शांति-सम्मेलन में फ्रांस की नीति का विरोध किया। इसके अलावा, ब्रिटेन जर्मनी को शक्तिहीन करके फ्रांस को यूरोप में शक्तिशाली नहीं होने देना चाहता था क्योंकि शक्तिशाली फ्रांस महाद्वीप के शक्ति-संतुलन के लिए खतरा बन सकता था। इन्हीं कारणों से फ्रांस और ब्रिटेन में संधि नहीं हो सकी। ब्रिटेन जैसे बडे राष्ट्रों से संधि करने में असफल होने पर फ्रांस अपनी सुरक्षा के लिए पुनः अन्य छोटे देशों से समझौता करने के लिए प्रयत्नशील हो गया।
लघु मैत्री संघ की स्थापना (Establishment of Small Friendship Association)
1920-21 में फ्रांस ने छोटे राज्यों- चेकोस्लावाकिया, यूगोस्लाविया और रोमानिया को मिलाकर लघु मैत्री संघ का निर्माण किया, जिसका उद्देश्य जर्मनी तथा स्पेन दोनों की उन्नति को रोकना तथा इनके आक्रमण से प्रभावित देश की सहायता करना था। यथास्थिति बनाये रखने में भी तीनों को सहयोग करना था। 1922 में इसमें पौलैंड भी शामिल हो गया। इस प्रकार फ्रांस ने जर्मनी के सीमावर्ती राज्यों से मित्रता करके उसकी तरफ से संभावित खतरे का निराकरण कर अपनी सुरक्षा को आश्वस्त कर लिया।
किंतु इस लघु मैत्री संघ में कई प्रकार की कठिनाइयाँ भी थीं। चूंकि ये छोटे राज्य थे और आर्थिक रूप से बहुत समृद्ध नहीं थे, इसलिए फ्रांस को इन्हें प्रायः आर्थिक सहायता भी देनी पड़ती थी। दूसरे, ये छोटे राज्य दूर-दूर स्थित थे और इनकी सैन्य-शक्ति भी बहुत कमजोर थी, इसलिए इन पर बहुत विश्वास नहीं किया जा सकता था। इसके अलावा इनसे मित्रता करके फ्रांस को पूर्वी तथा पश्चिमी यूरोप के सभी झगड़ों में उलझना पड़ा। अभी तक फ्रांस का उद्देश्य केवल वर्साय संधि की रक्षा करना ही था, किंतु अब वह समस्त यूरोपीय व्यवस्था का संरक्षक बन गया और पेरिस में की गई संधियों तथा व्यवस्थाओं के संशोधन का विरोध करने लगा।
राष्ट्रसंघ के अंतर्गत सुरक्षा–प्रयास (Security Efforts under the League of Nations)
फ्रांस अपनी सुरक्षा से संबंधित किसी भी उपाय को छोड़ना नहीं चाहता था। यद्यपि वह अपनी सुरक्षा के लिए राष्ट्रसंघ के आर्थिक प्रतिबंधों को पूर्णतया बेकार समझता था, फिर भी वह चाहता था कि राष्ट्रसंघ आक्रमण की निश्चित परिभाषा करे तथा आक्रमणकारी के विरूद्ध की जानेवाली कार्यवाही का पूर्ण स्पष्टीकरण दे। फ्रांस की इस माँग और उसकी सुरक्षा-संबंधी जिद के कारण राष्ट्र संघ को समय-समय पर अनेक कदम उठाने पड़े।
पारस्परिक संधि का मसविदा ( Contract of Mutual Agreement)
राष्ट्रसंघ ने 1920 में निःशस्त्रीकरण की समस्या पर विचार करने के लिए एक आयोग की स्थापना की, लेकिन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि निःशस्त्रीकरण की योजना उसी समय सफल हो सकती है जब राष्ट्रों को उनकी सुरक्षा की गारंटी दी जाए। वास्तव में राष्ट्रसंघ के इकरारनामे में दो कमजोरियाँ थीं-एक तो इसमें आक्रमण की व्याख्या नहीं की गई थी और दूसरे यह भी स्पष्ट नहीं किया गया था कि आक्रमण के विरूद्ध क्या कार्यवाही की जायेगी। राष्ट्रसंघ की इन कमियों के कारण यूरोपीय राष्ट्रों का राष्ट्रसंघ पर से विश्वास हट गया था और वे अपनी तथा अपने मित्रों की शक्ति पर फिर से निर्भर रहने की बात सोचने लगे। फ्रांस चाहता था कि राष्ट्रसंघ के इकरारनामे की कमजोरियों को दूर करके उसे और प्रभावी बनाया जाए। राष्ट्रसंघ ने इस संबंध में राय देने के लिए 1922 में एक आयोग गठित किया। इस आयोग ने पारस्परिक सुरक्षा-संधि का एक मसविदा तैयार किया, जिसे संघ की कौंसिल ने 1923 में पारित किया। इस मसविदे में तय किया गया कि मसविदा पर हस्ताक्षर करनेवाला कोई देश आक्रमण नहीं करेगा, कहीं युद्ध होने पर राष्ट्रसंघ चार दिन की अवधि में आक्रांत को घोषित करेगा और यह निश्चित करेगा कि आक्रांता के विरूद्ध कौन-कौन से सैनिक एवं वित्तीय प्रयास किये जायें। इसके अलावा किसी देश पर आक्रमण होने की दशा में बाकी हस्ताक्षरकर्ता देश उसकी सहायता करेंगे। आक्रमणकारी कौन है? इसका निर्णय राष्ट्रसंघ की कौंसिल करेगी और जो राज्य दो साल के भीतर निर्धारित निःशस्त्रीकरण नहीं करेंगे, उन्हें पारस्परिक सहायता नहीं दी जायेगी।
इस मसविदे को सैद्धांतिक रूप से 18 देशों ने स्वीकार कर लिया, जिसमें फ्रांस, इटली तथा जापान थे। लेकिन ब्रिटेन, अमेरिका, रूस जैसे 12 देशों ने इसे मानने से इनकार कर दिया। वास्तव में इस मसविदे में कुछ कमियाँ थीं। इसमें आक्रमण की परिभाषा स्पष्ट नहीं की गई थी, साथ ही आक्रमणकारी के विरूद्ध कठोर कार्यवाही करने के लिए राष्ट्रसंघ के पास प्र्यापत अधिकार नहीं थे। ब्रिटेन इस मसविदा का सबसे अधिक विरोधी था। सारे संसार में साम्राज्य होने के कारण इसे मानने से उसकी जिम्मेदारी कई गुना बढ़ जाती। इस प्रकार बड़े राष्ट्रों की बेरूखी के कारण यह प्रयत्न बेकार हो गया।
जेनेवा प्रोटोकाल (Geneva Protocol)
पारस्परिक सुरक्षा-संधि की असफलता के बाद 1924 में राष्ट्रसंघ ने सुरक्षा के लिए एक नया मसविदा ‘जेनेवा प्रोटोकाल’ किया। इस समय इंग्लैंड में शांतिवादी श्रमदलीय रेम्जे मैक्डाॅनल्ड तथा फ्रांस में हेरियो सत्ता प्रमुख थे। जेनेवा में इंग्लैंड तथा फ्रांस के प्रधानमंत्रियों ने एक-दूसरे को सहयोग देने का वादा किया। दोनों प्रधानमंत्रियों ने 1924 में राष्ट्रसंघ की पाँचवीं असेम्बली में एक संयुक्त प्रस्ताव रखा, जिसका मूल उद्देश्य था कि आक्रांता निश्चित करने का काम राष्ट्रसंघ पर नहीं, अपितु किसी मध्यस्थ या पंच-निर्णय पर हो। इस प्रस्ताव के आधार पर यूनानी प्रतिनिधि पालिटिस तथा चेक प्रतिनिधि बेन्स ने एक योजना तैयार की, जिसे राष्ट्रसंघ की सभा द्वारा 2 अक्टूबर 1924 को निर्विरोध स्वीकार कर लिया गया, जिसे ‘‘अंतर्राष्ट्रीय विषयों के शांतिपूर्ण समाधान के लिए समझौता’’ नाम दिया गया। इस सम्मेलन के जेनेवा में होने के कारण इसे ‘जेनेवा प्रोटोकाल’ कहा गया है।
जेनेवा प्रोटोकाल की प्रमुख धाराएँ : जेनेवा प्रोटोकाल की मुख्य धाराएँ थी-
- युद्ध एक अंतराष्ट्रीय अपराध है।
- जेनेवा प्रोटाकाल पर हस्ताक्षर करनेवाला राष्ट्र आत्मरक्षा एवं राष्ट्रसंघ के आदेशों के अलावा अअन्य किसी अवस्था में युद्ध नहीं कर सकेगा।
- सभी राष्ट्र अपने न्यायिक मामले अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय तथा राजनैतिक मामले राष्ट्रसंघ की कौंसिल या विशेष मध्यस्थ समितियों के माध्यम से ही सुलझायेंगे।
- जो राज्य अपने विवादास्पद मामलों को कौंसिल या न्यायालय में नहीं रखेगा या उनके निण्रयों को नहीं मानेगा, उसे आक्रमणकारी माना जायेगा।
- आक्रांता के विरूद्ध राष्ट्रसंघ विधान की सोलहवीं धारा के अनुसार आर्थिक पाबंदी और सैनिक कार्यवाही की जायेगी।
- युद्ध का हरजाना आक्रांता से उसकी देने की क्षमता तक वसूल किया जायेगा, किंतु इसमें उसकी सीमा शामिल नहीं होगी।
- विवादास्पद प्रश्नों के विचारकाल के समय कोई सैनिक कार्यवाही नहीं की जायेगी।
- सभी राज्य राष्ट्रसंघ के निःशस्त्रीकरण संबंधी निर्णय को मानेंगे। इसके साथ ही प्रचायती निर्णय कर परंपरा को अनिवार्य बना दिया गया।
यद्यपि जेनेवा प्रोटोकाल को 17 राष्ट्रों ने स्वीकार कर लिया था, किंतु ब्रिटेन एवं उसके उपनिवेशों द्वारा न मानने के कारण यह प्रोटोकाल भी निष्प्राण हो गया। फिर भी, फ्रांस इससे संतुष्ट था क्योंकि प्रोटोकाल में वर्साय संधि तथा विशेष रूप से उसके सीमा-संबंधी निर्णय को बनाये रखने की बात कही गई थी।
लोकार्नो संधियाँ (Locarno Treaties)

जेनेवा प्रोटोकाल की असफलता के बाद फ्रांस सुरक्षा के किसी दूसरे उपाय की खोज में लग गया। इस समय यूरोप और फ्रांस को सबसे अधिक खतरा पराजित जर्मनी से था। पुनर्जीवित और विकासोन्मुख जर्मनी का सामना करने के लिए कोई निश्चित कदम उठाना जरूरी हो गया था। इसलिए एक बार फिर विभिन्न राज्यों के बीच प्रादेशिक समझौते की तैयारियाँ होले लगीं। डावस और यंग योजनाओं के फलस्वरूप फ्रांस और जर्मनी के बीच क्षतिपूर्ति की समस्या का हल हो गई थी। डावस योजना के अनुसार फ्रांस तथा अन्य राज्यों की सेनाएँ भी जर्मनी से हटा ली गई थीं। 1925 में परस्पर विचारों और नीतियोंवाले देशों ने सर्वसम्मति से एक समझौते पर हस्ताक्षर करने पर राजी हो गये।
अक्टूबर 1925 में फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, बेल्जियम, चेकोस्लावाकिया तथा पोलैंड के प्रतिनिधि स्विटजरलैंड के लोकार्नो नामक नगर में शांति-प्रयासों के लिए मिले। सम्मेलन में ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के विदेशमंत्री क्रमशः चेम्बरलेन, ब्रियां एवं स्ट्रेसमान थे और तीनों ही शांतिवादी थे। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पहली बार जर्मनी को समान स्तर पर रखकर वार्ता की गई। जिस समय ये संधियाँ की जा रही थीं, उस समय का वातावरण अत्यंत मधुर एवं मैत्रीपूण था और इस बदली भावना को लोकार्नो भावना (स्पिरिट आफ लोकार्नो) नाम दिया गया। यूरोप में शांति-स्थापना तथा फ्रांस की सुरक्षा की गारंटी के लिए लोकार्नो में सात संधियाँ की गईं-
पारस्परिक गारंटी की संधि : पहली संधि पारस्परिक गारंटी की संधि थी, जिसके अंतर्गत जर्मनी, फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन और इटली ने वर्साय की संधि द्वारा निर्धारित जर्मनी, फ्रांस और बेल्जियम की सीमाओं की सुरक्षा तथा राइन प्रदेश के विसैन्यीकरण की गारंटी दी। इसके साथ ही जर्मनी, फ्रांस एवं बेल्जियम ने आपस में तय किया कि वे कुछ अपवादों को छोड़कर न तो एक-दूसरे पर आक्रमण करेंगे और न ही युद्ध छेड़ेंगे। ये अपवाद थे- न्यायपूर्ण आत्मरक्षा, विसैन्यीकरण का बड़ा उदाहरण और राष्ट्रसंघ की आदेशित सैनिक कार्यवाही।
इस संधि के अनुसार सभी राष्ट्रों ने यह भी तय किया कि वे अपने बीच उत्पन्न विवादों का शांतिपूर्ण हल खोजेंगे। संधि का उल्लंघन करनेवाले के खिलाफ सम्मिलित कार्यवाही करेंगे। संधि-उल्लंघन के मामले राष्ट्रसंघ की परिषद् को सौंपेंगे। इस संधि के तुरंत बाद जर्मनी को राष्ट्रसंघ का सदस्य बना लिया गया।
मध्यस्थता–संबंधी संधियाँ : लोकार्नो सम्मेलन की दूसरी, तीसरी, चौथी और पांचवीं संधियाँ मध्यस्थता-संबंधी संधियाँ थीं जो जर्मनी-बेल्जियम, जर्मनी-फ्रांस, जर्मनी-पोलैंड तथा जर्मनी-चेकोस्लावाकिया के साथ हुईं। इन चारों संधियों में निर्णय किया गया कि जर्मनी और इन राष्ट्रों के बीच होनेवाले झगड़ों को किसी मध्यस्थ या अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय को सौंपा जायेगा।
गारंटी संधियाँ : लोकार्नो की छठीं एवं सातवीं संधियाँ गारंटी संधियाँ थी। गारंटी संधियाँ फ्रांस और पोलैंड तथा फ्रांस और चेकोस्लावाकिया के बीच हुई तथा दोनों ने यह तय किया कि लोकार्नो संधि का उल्लंघन कर यदि कोई अन्य राष्ट्र युद्ध छेड़ता है तो ये राष्ट्र एक-दूसरे की सहायता करेंगे। इन संधियों पर 1 दिसंबर 1925 को हस्ताक्षर हुए और 14 सिंतंबर 1926 से ये लागू की गईं।
लोकार्नो समझौते की सफलता की चर्चा करते हुए फ्रांस के विदेशमंत्री ब्रियां ने कहा था कि यह जर्मनी के लिए शांति है, यह फ्रांस के लिए शांति है। इन संधियों ने फ्रांस एवं जर्मनी की पुरानी शत्रुता को समाप्त कर दिया और जर्मनी ने अल्सास और लारेन पर फ्रांस की प्रभुसत्ता को स्वीकार कर लिया। वास्तव में यह जर्मनी और फ्रांस की आवश्यकताओं के मध्य एक उचित एवं निष्पक्ष निर्णय था क्योंकि इसमें फ्रांस की सुरक्षा की आवश्यकता तथा वर्साय की संधि में जर्मनी की संशोधन की माँग दोनों का समावेश था।
कैलोग–ब्रियां समझौता (Calogue-Brians Agreement)

जेनेवा प्रोटोकाल और लोकार्नो संधियाँ जब असफल हो गईं तो कालांतर में अपनी सुरक्षा के लिए चिंतित फ्रांस के विदेशमंत्री ब्रियां ने पेरिस में कुछ अमरीकी नागरिकों से संपर्क किया और यह निर्णय लिया कि युद्ध तब तक नहीं रोके जा सकते हैं जब तक अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों को निपटाने में सेनाओं एवं शस्त्रों को पूर्णतया वर्जित नहीं कर दिया जाता। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ब्रियां ने अमरीकी विदेशमंत्री कैलोग के समक्ष एक प्रस्ताव रखा। दोनों की सलाह पर युद्ध-परित्याग की घोषणा करनेवाली एक समझौते का मसविदा तैयार किया गया। इस संधि प्रस्ताव पर 27 अगस्त 1928 को 15 राष्ट्रों ने हस्ताक्षर कर दिये तथा 24 जुलाई 1929 को अमरीकी राष्ट्रपति ने इसकी घोषणा की। यह समझौता पेरिस पैक्ट या कैलोग-ब्रियां समझौता के नाम से प्रसिद्ध है। 1933 तक इस समझौते पर 65 राष्ट्रों ने हस्ताक्षर किये थे।
कैलोग-ब्रियां समझौते में यह घोषणा की गई कि थी कि मानवता के हित में युद्ध का सर्वथा त्याग हो, सभी देशों में मैत्रीपूर्ण व्यवहार तथा शांति स्थापित हो। सभी झगड़ों का शांतिपूर्ण हल हो। युद्ध किसी भी अवस्था में न किये जायें। इसके केवल चार अपवाद थे-आत्मरक्षा, संधि का तोड़ना, ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा और राष्ट्रसंघ का आदेश।
कैलोग-ब्रियां समझौते को विश्व में अंतर्राष्ट्रीय स्तर का पहला समझौता कहा गया था। इसमें सभी देशों ने अपनी जनता की ओर से युद्ध न करने की अपनी नीति की घोषणा की। अपनी सुरक्षा की गारंटी मिलने से फ्रांस बहुत संतुष्ट था।
किंतु कैलोग-ब्रियां समझौते की सबसे बड़ी कमी यह थी कि इसमें शर्त के क्रियान्वयन की कोई व्यवस्था नहीं थी, और वह केवल सदस्यों की दया पर निर्भर थी। इसमें शर्त तोड़नेवाले के विरूद्ध कोई दंड की व्यवस्था नहीं थी, इसलिए कुछ लोगों ने इसे ‘बिना दाँतवाला शेर’ कहकर पुकारा था। लैंगसम का कहना है कि इस समझौते के बाद ही विश्व में अघोषित युद्धों का सिलसिला आरंभ हुआ।
सामान्य अधिनियम 1928 (General Act 1928)
राष्ट्रसंघ की ओर से युद्ध रोकने की अंतिम और असफल कोशिश सामान्य अधिनियम था। 1928 में राष्ट्रसंघ की असेम्बली ने अंतर्राष्ट्रीय मामलों के शांतिपूर्ण निपटारे के लिए एक सामान्य अधिनियम बनाया था। दुर्भाग्यवश यह अधिनियम भी अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका और 1935 तक केवल 23 राष्ट्रों ने ही इसे स्वीकार किया। इस अधिनियम की कोई उपयोगिता सिद्ध नहीं हो सकी और सामूहिक सुरक्षा पद्धति स्थापित करने की राष्ट्रसंघ की अंतिम महत्वपूर्ण चेष्टा भी असफल हो गई।
फ्रांस अपनी सुरक्षा की खोज करता हुआ एक बार फिर यूरोप को 1914 की स्थिति की ओर ले जा रहा था। प्रथम विश्वयुद्ध का मुख्य कारण गुप्त-संधियों की नीति थी और इसका आरंभ करके फ्रांस ने सशस्त्र गुटों के निर्माण की परंपरा पुनः आरंभ कर दी। अब फ्रांस के अलावा अन्य देश जैसे- रूस, ग्रेट ब्रिटेन एवं जर्मनी अपनी सुरक्षा के लिए अपने-अपने ढ़ंग से अपनी विदेश नीतियों को कार्यान्वित करने में लग गये।
सुरक्षा के रूसी प्रयास (Russian Efforts for Safety)
फ्रांस के साथ-साथ रूस भी सुरक्षा की दौड़ में पीछे नहीं रहा और उसने भी अपनी सुरक्षा के लिए ब्रिटेन के साथ मैत्री और व्यापारिक समझौते किये। पश्चिम की ओर से आश्वस्त होने पर रूस ने जर्मनी के साथ भी संबंध बढ़ाने की ओर ध्यान दिया और 16 अप्रैल 1922 को जिनेवा से कुछ दूर रैपलो नामक स्थान पर रूस तथा जर्मनी के बीच रेपलो की संधि हो गई। इस संधि के द्वारा जर्मनी ने सोवियत सरकार को मान्यता प्रदान की तथा साथ ही साथ दोनों देशों ने युद्ध से पहले लिये सभी ऋणांे और दावों को निरस्त कर दिया। रूस को यह भय सताता रहा कि यूरोप उसके विरूद्ध किसी गुट का निर्माण न कर ले, इसलिए उसने अपनी सुरक्षा के लिए पड़ोसी देशों के साथ अनेक अनाक्रमण समझौते किये। उसने 1925 में तुर्की के साथ, 1926 में जर्मनी, अफगानिस्तान, लिथुआनिया के साथ, 1927 में फिनलैंड, 1931 में पोलैंड-चेकोस्लोवाकिया, 1933 में यूगोस्लाविया और इटली, 1926 में ईरान के साथ समझौते किये तथा 1932 में रूस और फ्रांस के साथ एक तटस्थता संधि भी हुई।
तटस्थता संधियाँ यूरोप को विश्वयुद्ध से नहीं बचा सकीं, लेकिन इनमें अनुबंधित देशों को एक-दूसरे का आश्वासन अवश्य मिल गया, जिसने आगे चलकर गुटबंदी का रूप धारण कर लिया।
ब्रिटेन की शांति और सुरक्षा के प्रयास (Britain’s Efforts for Peace and Security)
यद्यपि फ्रांस की तरह इंग्लैंड की सुरक्षा की समस्या गंभीर नहीं थी, फिर भी इंग्लैंड निःशस्त्रीकरण के संबंध में बहुत चौकन्ना था और इस संबंध में वह राष्ट्रसंघ की प्रत्येक शर्त को मानने के लिए तैयार नहीं था। फ्रांस से उसके संबंध बिगड़ते जा रहे थे और सुरक्षा को लेकर दोनों में मतभेद आरंभ हो गया था। हालांकि ब्रिटेन अब भी फ्रांस के साथ सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण रखता था, लेकिन वह फ्रांस की इच्छानुसार जर्मनी के विरूद्ध कार्यवाही करने को तैयार नहीं था। इंग्लैंड की नीति अपने आर्थिक विकास के लिए जर्मनी को स्वतंत्र, विकसित और समृद्धिशाली बनाये रखने की थी, जबकि फ्रांस उसका सर्वनाश करना चाहता था। यही कारण है कि 1922 का समझौता दोनों के बीच नहीं हो सका था। वैसे भी इंग्लैंड और फ्रांस की शत्रुता कोई नई बात नहीं थी। चूंकि सुरक्षा की समस्या महत्वपूर्ण थी और इंग्लैंड इस समय शांति चाहता था, इसलिए उसने भी विभिन्न देशों के साथ सुरक्षा और शांति के समझौते किये। लोकार्नो पैक्ट, 1927 में ब्रियां केलांग पैक्ट तथा पेरिस पैक्ट पर 1925 में हस्ताक्षर करके इंग्लैंड ने यूरोप में सुरक्षा-व्यवस्था को सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया।
रूस के प्रति इंग्लैंड की नीति सहानुभूतिपूर्ण नहीं थी। किंतु जब 1929 में ब्रिटेन में मजदूर दल की सरकार बनी तो रूस ओर ब्रिटेन के मध्य एक व्यापारिक संधि हुई और रूस के व्यापारिक शिष्टमंडल का इंग्लैंड में स्वागत हुआ। वास्तव में रूस यूरोप में हिटलर के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंतित था और जापान जैसे छोटे देश की उन्नति और मंचूरिया पर उसके अधिकार से भी वह भयभीत था। इसलिए रूस जर्मनी के विरूद्ध यूरोपीय शक्तियों का सहयोग पाने के लिए लालायित था। इंग्लैंड के साथ समझौता करके रूस ने जर्मनी के विरूद्ध गुटबंदी कर ली जो कि द्वितीय विश्वयुद्ध तक चली।
इंग्लैंड निःशस्त्रीकरण से प्राप्त सुरक्षा एवं शांति का इच्छुक था। इसके लिए उसने कई सम्मेलनों का आयोजन भी किया। 1925 में लोकार्नो समझौते पर हस्ताक्षर करके उसने जर्मनी को यह आश्वासन दिया कि समझौता करनेवाले देश से यदि उसका कोई विवाद हुआ तो वह उसे पंच फैसले के लिए प्रस्तुत करेगा। 1933 में समझौता करनेवाले चार देशों में ब्रिटेन भी था। इस समझौते का उद्देश्य यूरोप में शांति स्थापित करना था, किंतु सुरक्षा से अधिक इंग्लैंड को अपने विकास के आर्थिक साधनों की तलाश थी। इसके लिए जर्मनी उसे सबसे उपयुक्त क्षेत्र लगा। इसलिए इंग्लैंड ने जर्मनी के प्रति जो नीति अपनाई, उससे फ्रांसीसी सुरक्षा की समस्या और गंभीर हो गईं।
जर्मनी का एकीकरण (Unification of Germany)
जर्मनी की सुरक्षा की समस्या (Germany’s Security Problem)
जर्मनी के लिए सुरक्षा से बड़ी क्षतिपूर्ति की समस्या थी, असुरक्षित तो वह था ही। पहले उसे क्षतिपूर्ति के रूप में भारी रकम अदा करनी थी, फिर उसे सुरक्षा के साधनों को ढ़ूढना था। जर्मनी की जनता शांति-संधि की शर्तों से असंतुष्ट थी। जर्मनी के ऊपर हरजाने की भारी रकम लाद दी गई थी, उसकी सीमाएँ कम कर दी गई थी और सैन्य-क्षमता सीमित कर दी गई थी। 1923 में फ्रांस ने दावा किया कि वह जर्मनी के रूर क्षेत्र पर अधिकार कर सकता है क्योंकि उसने युद्ध के हरजाने की रकम अदा नहीं की है। इसके बाद फ्रांस ने रूर घाटी पर आक्रमण कर दिया। यह घाटी जर्मनी की अर्थव्यवस्था का आधार थी क्योंकि देश की 80 प्रतिशत खानें यहीं थीं और 70 प्रतिशत व्यापार यही से होता था। रूर पर फ्रांस के अधिकार का इंग्लैंड ने विरोध किया, लेकिन इसके बाद भी फ्रांसीसी सेनाएँ रूर में मौजूद रहीं। रूर की जनता ने इसका कड़ा विरोध किया, कारखानें बंद कर दिये और जर्मनी ने भी क्षतिपूर्ति की अब और किश्त देने से इनकार कर दिया। बाद में हेरियो के प्रधानमंत्री बनने पर डावस योजना के कार्यान्वित होने पर फ्रांस की सेनाएँ रूर से हटा ली गईं। 1929 में डावस योजना का स्थान यंग योजना ने ले लिया और इसके बाद जर्मनी को सैंतीस किश्तों में दस करोड़ पौंड की रकम देना निश्चित किया गया। 1930 में यंग योजना के लागू होते ही मित्र राष्ट्रों की सेनाएँ जर्मनी की भूमि से हटा ली गईं। इस प्रकार 1930 तक जर्मनी का विकास रूका रहा। डावस और यंग योजनाएँ जर्मनी की समस्या को हल नहीं कर सकीं। इसके अलावा 1929 की आर्थिक मंदी ने भी जर्मनी को प्रभावित किया। यद्यपि इस बीच लोकार्नो समझौता हो चुका था, लेकिन जर्मनी सुरक्षित और सुदृढ स्थिति में नहीं था। चांसलर बूमिंग की सरकार को ‘भूखों मारेनवाली सरकार’ कहा जाता था।
शायद इस समय जर्मनी का सबसे बुरा दौर चल रहा था जब जर्मनी आंतरिक और बाहय दोनों दृष्टिकोणों से असुरक्षित था। यदि उसे हिटलर जैसा नेता नहीं मिलता, तो शायद जर्मनी का कभी पुनर्निर्माण नहीं हो सकता था। 1934 में राष्ट्रपति हिन्डेन बर्ग की मृत्यु के बाद हिटलर को जर्मनी का राष्ट्रपति चुन लिया गया। इसके बाद 1945 तक वह सत्ता में रहा। इस बीच उसने जर्मन समस्याओं का अंत कर जर्मनी को यूरोप में एक विजयी राष्ट्र बनाने का हर संभव-असभव प्रयास किया।
इस प्रकार फ्रांसीसी सुरक्षा के लिए किये गये प्रयासों ने यूरोप को द्वितीय विश्वयुद्ध के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया। सुरक्षा का कोई सर्वमान्य हल न ढूढकर यूरोपीय देश उसके स्थान पर अपना गुटबंदीवाला खेल शुरू कर दिये, जिसनेयूरोप को तीन शक्तिशाली गुटों में विभाजित कर दिया। 1919 के शांति-समझौतों में यह तय किया गया था कि भविष्य में गुप्त समझौते नहीं किये जायेंगे और शस्त्रों की संख्या कम की जायेगी, लेकिन सभी प्रयत्न विफल रहे। फ्रांस जर्मनी से इतना भयभीत था कि वह अपनी सिथति को सुरक्षित बनाने में लगा रहा। इस प्रकार फ्रांस द्वारा की गई सुरक्षा-व्यवस्थाओं के कारण पूरे यूरोप में संदेह का वातावरण बन गया और विरोधी गुटों की स्थापना होने लगी।
फ्रांस ने जर्मनी से अपनी सुरक्षा के लिए एक लौह आवरणयुक्त सुरक्षा का प्रयास किया, लेकिन जर्मनी में हिटलर के उत्थान के पश्चात् फ्रांस और उसके साथियों के सभी सुरक्षा-प्रयास एक-एक करके विफल कर दिये गये। द्वितीय महायुद्ध के प्रारंभ होते ही फ्रांस की यह सारी सुरक्षा-व्यवस्था चरमराकर टूट गई और जर्मन सेनाओं ने पुनः फ्रांस को पदाक्रांत कर दिया।
पेरिस शांति-सम्मेलन और वर्साय की संधि (Paris Peace Conference and Treaty of Versailles)